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सप्ताह की पुस्तक
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चन्द्रकांता सन्तति २ बाबू देवकीनन्दन खत्री का द्वारा रचित उपन्यास है जिसका प्रकाशन सन् १८९६ ई॰ में दिल्ली के भारती भाषा प्रकाशन द्वारा किया गया था।


"बेचारी किशोरी को चिता पर बैठाकर जिस समय दुष्टा धनपति ने आग लगाई, उसी समय बहुत-से आदमी, जो उसी जंगल में किसी जगह छिपे हुए थे, हाथों में नंगी तलवारें लिये 'मारो! मारो!' कहते हुए उन लोगों पर आ टूटे। उन लोगों ने सबसे पहले किशोरी को चिता पर से खींच लिया और इसके बाद धनपति के साथियों को पकड़ने लगे।

पाठक समझते होंगे कि ऐसे समय में इन लोगों के आ पहुँचने और जान बचने से किशोरी खुश हुई होगी और इन्द्रजीतसिंह से मिलने की कुछ उम्मीद भी उसे हो गई होगी। मगर नहीं, अपने बचानेवालों को देखते ही किशोरी चिल्ला उठी और उसके दिल का दर्द पहले से भी ज्यादा बढ़ गया। किशोरी ने आसमान की तरफ देखकर कहा, "मुझे तो विश्वास हो गया था कि इस चिता में जलकर ठंडे-ठंडे वैकुण्ठ चली जाऊँगी, क्योंकि इसकी आँच कुँअर इन्द्रजीतसिंह की जुदाई की आँच से ज्यादा गर्म न होगी, मगर हाय, इस बात का गुमान भी न था कि यह दुष्ट आ पहुँचेगा और मैं एक सचमुच की तपती हुई भट्ठी में झोंक दी जाऊँगी। मौत, तू कहाँ है? तू कोई वस्तु है भी या नहीं, मुझे तो इसी में शक है!"..."(पूरा पढ़ें)


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हीराबाई किशोरीलाल गोस्वामी द्वारा रचित उपन्यास है। "दिल्ली का ज़ालिम बादशाह अलाउद्दीन ख़िलजी जो अपने बूढे़ और नेक चचा जलालुद्दीन फ़ीरोज़ ख़िलजी को धोखा दे और उसे अपनी आंखों के सामने मरवाकर [सन् १२९५ ईस्वी] आप दिल्ली का बादशाह बन बैठा था, बहुत ही संगदिल, खुदग़रज़, ऐय्याश, नफ़्सपरस्त और ज़ालिम था। उसने तख़्त पर बैठते ही जलालुद्दीन के दो नौजवान लड़कों को क़तल करडाला और गुजरात" (हीराबाई पूरा पढ़ें)


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सहकार्य

रचनाकार
रचनाकार

अनुपम मिश्र (1948 — 19 दिसम्बर 2016), लेखक, पत्रकार और पर्यावरणविद् थे। विकिस्रोत पर उपलब्ध उनकी रचनाएँ :

  1. राजस्थान की रजत बूँदें (1995)
  2. आज भी खरे हैं तालाब (2004)
  3. साफ़ माथे का समाज (2006)

आज का पाठ

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निबंध लेखक (चंद्रधर गुलेरी) रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित हिन्दी साहित्य का इतिहास का एक अंश है जिसके दूसरे संस्करण का प्रकाशन काशी के नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा १९४१ ई॰ में किया गया।

"पं॰ चंद्रधर गुलेरी का जन्म जयपुर में एक विख्यात पंडित् घराने में २५ आषाढ़ संवत् १९४० में हुआ था। इनके पूर्वज काँगड़े के गुलेर नामक स्थान से जयपुर आए थे। पं॰ चंद्रधरजी संस्कृत के प्रकांड विद्वान् और अँगरेजी की उच्च शिक्षा से संपन्न व्यक्ति थे। जीवन के अंतिम वर्षों के पहले ये बराबर अजमेर के मेयो कालेज में अध्यापक रहे। पीछे काशी हिंदू-विश्वविद्यालय के ओरियंटल कालेज के प्रिंसिपल होकर आए। पर हिंदी के दुर्भाग्य से थोड़े ही दिनों में सं॰ १९७७ में इनका, परलोकवास हो गया। ये जैसे धुरंधर पंडित थे वैसे ही सरल और विनोदशील प्रकृति के थे।..."(पूरा पढ़ें)

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