गौतम बुद्ध
इस लेख को तटस्थता जाँच हेतु नामित किया गया है। (अक्टूबर 2011) |
सारनाथ में भगवान बुद्ध की प्रतिमा, चतुर्थ शताब्दी | |
धर्म | बौद्ध धर्म |
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व्यक्तिगत विशिष्ठियाँ | |
जन्म |
ईसवी पूर्व 563 लुंबिनी, नेपाल |
निधन |
ईसवी पूर्व 483 (आयु 80 वर्ष) कुशीनगर, भारत |
जीवनसाथी | राजकुमारी यशोधरा |
बच्चे | राहुल |
पिता | शुद्धोधन |
माता | मायादेवी |
पद तैनाती | |
उत्तराधिकारी | मैत्रेय |
गौतम बुद्ध (जन्म 563 ईसा पूर्व – निर्वाण 483 ईसा पूर्व) एक श्रमण थे जिनकी शिक्षाओं पर बौद्ध धर्म का प्रचलन हुआ।[1]
उनका जन्म लुंबिनी में 563 ईसा पूर्व इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर में हुआ था। उनकी माँ का नाम महामाया था जो कोलीय वंश से थी जिनका इनके जन्म के सात दिन बाद निधन हुआ, उनका पालन महारानी की छोटी सगी बहन महाप्रजापती गौतमी ने किया। सिद्धार्थ विवाहोपरांत एक मात्र प्रथम नवजात शिशु राहुल और पत्नी यशोधरा को त्यागकर संसार को जरा, मरण, दुखों से मुक्ति दिलाने के मार्ग की तलाश एवं सत्य दिव्य ज्ञान खोज में रात में राजपाठ छोड़कर जंगल चले गए। वर्षों की कठोर साधना के पश्चात बोध गया (बिहार) में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे सिद्धार्थ गौतम से बुद्ध बन गए।
जीवन वृत्त
बौद्ध धर्म |
बौद्ध धर्म का इतिहास · बौद्ध धर्म का कालक्रम · बौद्ध संस्कृति |
बुनियादी मनोभाव |
चार आर्य सत्य · आर्य अष्टांग मार्ग · निर्वाण · त्रिरत्न · पँचशील |
अहम व्यक्ति |
गौतम बुद्ध · बोधिसत्व |
क्षेत्रानुसार बौद्ध धर्म |
दक्षिण-पूर्वी बौद्ध धर्म · चीनी बौद्ध धर्म · तिब्बती बौद्ध धर्म · पश्चिमी बौद्ध धर्म |
बौद्ध साम्प्रदाय |
थेरावाद · महायान · वज्रयान |
बौद्ध साहित्य |
त्रिपतक · पाळी ग्रंथ संग्रह · विनय · पाऴि सूत्र · महायान सूत्र · अभिधर्म · बौद्ध तंत्र |
उनका जन्म 563 ईस्वी पूर्व के बीच शाक्य गणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी में हुआ था, जो नेपाल में है।[2] लुम्बिनी वन नेपाल के तराई क्षेत्र में कपिलवस्तु और देवदह के बीच नौतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में रुक्मिनदेई नामक स्थान के पास स्थित था। कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी के अपने नैहर देवदह जाते हुए रास्ते में प्रसव पीड़ा हुई और वहीं उन्होंने एक बालक को जन्म दिया। शिशु का नाम सिद्धार्थ रखा गया।[3] गौतम गोत्र में जन्म लेने के कारण वे गौतम भी कहलाए। क्षत्रिय राजा शुद्धोधन उनके पिता थे। परंपरागत कथा के अनुसार सिद्धार्थ की माता का उनके जन्म के सात दिन बाद निधन हो गया था। उनका पालन पोषण उनकी मौसी और शुद्दोधन की दूसरी रानी महाप्रजावती (गौतमी)ने किया। शिशु का नाम सिद्धार्थ दिया गया, जिसका अर्थ है "वह जो सिद्धी प्राप्ति के लिए जन्मा हो"। जन्म समारोह के दौरान, साधु द्रष्टा आसित ने अपने पहाड़ के निवास से घोषणा की- बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र पथ प्रदर्शक बनेगा।[4] शुद्दोधन ने पांचवें दिन एक नामकरण समारोह आयोजित किया और आठ ब्राह्मण विद्वानों को भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। सभी ने एक सी दोहरी भविष्यवाणी की, कि बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र आदमी बनेगा।[4] दक्षिण मध्य नेपाल में स्थित लुंबिनी में उस स्थल पर महाराज अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व बुद्ध के जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया था। बुद्ध का जन्म दिवस व्यापक रूप से थएरावदा देशों में मनाया जाता है।[4] सुद्धार्थ का मन वचपन से ही करुणा और दया का स्रोत था। इसका परिचय उनके आरंभिक जीवन की अनेक घटनाओं से पता चलता है। घुड़दौड़ में जब घोड़े दौड़ते और उनके मुँह से झाग निकलने लगता तो सिद्धार्थ उन्हें थका जानकर वहीं रोक देता और जीती हुई बाजी हार जाता। खेल में भी सिद्धार्थ को खुद हार जाना पसंद था क्योंकि किसी को हराना और किसी का दुःखी होना उससे नहीं देखा जाता था। सिद्धार्थ ने चचेरे भाई देवदत्त द्वारा तीर से घायल किए गए हंस की सहायता की और उसके प्राणों की रक्षा की।
शिक्षा एवं विवाह
सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उपनिषद् को तो पढ़ा हीं , राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली। कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान, रथ हाँकने में कोई उसकी बराबरी नहीं कर पाता। सोलह वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ का कन्या यशोधरा के साथ विवाह हुआ। पिता द्वारा ऋतुओं के अनुरूप बनाए गए वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल में वे यशोधरा के साथ रहने लगे जहाँ उनके पुत्र राहुल का जन्म हुआ। लेकिन विवाहके बाद उनका मन वैराग्यमें चला और सम्यक सुख-शांतिके लिए उन्होंने आपने परिवार का त्याग कर दिया।
विरक्ति
राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया। तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहाँ पर नाच-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी उसकी सेवा में रख दिए गए। पर ये सब चीजें सिद्धार्थ को संसार में बाँधकर नहीं रख सकीं। वसंत ऋतु में एक दिन सिद्धार्थ बगीचे की सैर पर निकले। उन्हें सड़क पर एक बूढ़ा आदमी दिखाई दिया। उसके दाँत टूट गए थे, बाल पक गए थे, शरीर टेढ़ा हो गया था। हाथ में लाठी पकड़े धीरे-धीरे काँपता हुआ वह सड़क पर चल रहा था। दूसरी बार कुमार जब बगीचे की सैर को निकला, तो उसकी आँखों के आगे एक रोगी आ गया। उसकी साँस तेजी से चल रही थी। कंधे ढीले पड़ गए थे। बाँहें सूख गई थीं। पेट फूल गया था। चेहरा पीला पड़ गया था। दूसरे के सहारे वह बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था। तीसरी बार सिद्धार्थ को एक अर्थी मिली। चार आदमी उसे उठाकर लिए जा रहे थे। पीछे-पीछे बहुत से लोग थे। कोई रो रहा था, कोई छाती पीट रहा था, कोई अपने बाल नोच रहा था। इन दृश्यों ने सिद्धार्थ को बहुत विचलित किया। उन्होंने सोचा कि ‘धिक्कार है जवानी को, जो जीवन को सोख लेती है। धिक्कार है स्वास्थ्य को, जो शरीर को नष्ट कर देता है। धिक्कार है जीवन को, जो इतनी जल्दी अपना अध्याय पूरा कर देता है। क्या बुढ़ापा, बीमारी और मौत सदा इसी तरह होती रहेगी सौम्य? चौथी बार कुमार बगीचे की सैर को निकला, तो उसे एक संन्यासी दिखाई पड़ा। संसार की सारी भावनाओं और कामनाओं से मुक्त प्रसन्नचित्त संन्यासी ने सिद्धार्थ को आकृष्ट किया।
महाभिनिष्क्रमण
सुंदर पत्नी यशोधरा, दुधमुँहे राहुल और कपिलवस्तु जैसे राज्य का मोह छोड़कर सिद्धार्थ तपस्या के लिए चल पड़े। वह राजगृह पहुँचे। वहाँ भिक्षा माँगी। सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास पहुँचे। उनसे योग-साधना सीखी। समाधि लगाना सीखा। पर उससे उसे संतोष नहीं हुआ। वह उरुवेला पहुँचे और वहाँ पर तरह-तरह से तपस्या करने लगे।
सिद्धार्थ ने पहले तो केवल तिल-चावल खाकर तपस्या शुरू की, बाद में कोई भी आहार लेना बंद कर दिया। शरीर सूखकर काँटा हो गया। छः साल बीत गए तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई। शांति हेतु बुद्ध का मध्यम मार्ग : एक दिन कुछ स्त्रियाँ किसी नगर से लौटती हुई वहाँ से निकलीं, जहाँ सिद्धार्थ तपस्या कर रहा थे। उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- ‘वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएँ।’ बात सिद्धार्थ को जँच गई। वह मान गये कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की अच्छी नहीं। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है ओर इसके लिए कठोर तपस्या करनी पड़ती है।
ज्ञान की प्राप्ति
बुद्ध के प्रथम गुरु आलार कलाम थे,जिनसे उन्होंनेे संन्यास काल में शिक्षा प्राप्त की ।३५ वर्ष की आयु में वैशाखी पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ पीपल वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे। बुद्ध ने बोधगया में निरंजना नदी के तट पर कठोर तपस्या की तथा सुजाता नामक लड़की के हाथों खीर खाकर उपवास तोड़ा। समीपवर्ती गाँव की एक स्त्री सुजाता को पुत्र हुआ।वह बेटे के लिए एक पीपल वृक्ष से मन्नत पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुँची। सिद्धार्थ वहाँ बैठा ध्यान कर रहा था। उसे लगा कि वृक्षदेवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- ‘जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो।’ उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई। उसे सच्चा बोध हुआ। तभी से सिद्धार्थ 'बुद्ध' कहलाए। जिस पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला वह बोधिवृक्ष कहलाया और गया का समीपवर्ती वह स्थान बोधगया।
धर्म-चक्र-प्रवर्तन
वे 80 वर्ष की उम्र तक अपने धर्म का संस्कृत के बजाय उस समय की सीधी सरल लोकभाषा पाली में प्रचार करते रहे। उनके सीधे सरल धर्म की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी। चार सप्ताह तक बोधिवृक्ष के नीचे रहकर धर्म के स्वरूप का चिंतन करने के बाद बुद्ध धर्म का उपदेश करने निकल पड़े। आषाढ़ की पूर्णिमा को वे काशी के पास मृगदाव (वर्तमान में सारनाथ) पहुँचे। वहीं पर उन्होंने सर्वप्रथम धर्मोपदेश दिया और प्रथम पाँच मित्रों को अपना अनुयायी बनाया और फिर उन्हें धर्म प्रचार करने के लिये भेज दिया। महाप्रजापती गौतमी (बुद्ध की विमाता)को सर्वप्रथम बौद्ध संघ मे प्रवेश मिला।आनंद,बुद्ध का प्रिय शिष्य था। बुद्ध आनंद को ही संबोधित करके अपने उपदेश देते थे।
महापरिनिर्वाण
पालि सिद्धांत के महापरिनिर्वाण सुत्त के अनुसार ८० वर्ष की आयु में बुद्ध ने घोषणा की कि वे जल्द ही परिनिर्वाण के लिए रवाना होंगे। बुद्ध ने अपना आखिरी भोजन, जिसे उन्होंने कुन्डा नामक एक लोहार से एक भेंट के रूप में प्राप्त किया था, ग्रहण लिया जिसके कारण वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद को निर्देश दिया कि वह कुन्डा को समझाए कि उसने कोई गलती नहीं की है। उन्होने कहा कि यह भोजन अतुल्य है।[5]
उपदेश
भगवान बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग का उपदेश किया। उन्होंने दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया। उन्होंने अहिंसा पर बहुत जोर दिया है। उन्होंने यज्ञ और पशु-बलि की निंदा की। बुद्ध के उपदेशों का सार इस प्रकार है -
- महात्मा बुद्ध ने सनातन धरम के कुछ संकल्पनाओं का प्रचार किया, जैसे अग्निहोत्र तथा गायत्री मन्त्र
- ध्यान तथा अन्तर्दृष्टि
- मध्यमार्ग का अनुसरण
- चार आर्य सत्य
- अष्टांग मार्ग
सम्पूर्ण विश्व का बौद्ध होना ____ सम्पूर्ण प्रचीन धर्म सभ्यता व साम्राज्य मनुष्यों की चेतना की परिकल्पना है इसलिए उनके कथा प्रर्थना स्थल व अवशेष है ।
विज्ञान के विश्व उत्पत्ति विश्व का आकार व जीवन की उत्पत्ति के सिध्दान्त एक कल्पना अनुमान व भ्रम उत्पन्न करने के लिए है ।
विश्व पृथ्वी तक ही सीमित है अंतरिक्ष एक भ्रम मात्र है स्वर्ग व नरक वास्तव में नहीं है मनुष्य बारम्बार मनुष्य का ही जन्म लेता है अधिकांश सदैव पुरूष व स्त्री योनि में जन्म लेते है कुछ किसी जन्म में नपुसंक किसी जन्म में स्त्री व पुरुष का जन्म लेते रहते है ।
सभी मनुष्य एक समान है वे किसी जन्म में अमीरी-गरीबी अज्ञानी - ज्ञानी उच्च - निम्न स्तर का जीवन जीते है ।
विश्व एक खरब वर्षों के कालचक्र में गति करता है और सभी मनुष्यों के एक अरब जन्म होते है इसलिए इस विश्व का भूतकाल भविष्य काल व वर्तमान काल के प्रकृति व मानवीय समाज के परिस्थिति घटनाओं और गतिविधियों पूर्व निर्धारित है जिसे बदला नहीं जा सकता अर्थात या विश्व ना कभी बना है ना अंत होगा इसका ।
ना आत्मा है ना परमात्मा है चेतना ही स्वयं को जाने की कोशिश करने पर स्वयं को आत्मा रूप में प्रति होती है और जो परमात्मा है वहां मनुष्य को संसार में एक निश्चित पहचान देने के लिए मनुष्य की परिकल्पना है ।
विश्व में तीन प्रकार के मनुष्य है अधिकांश मनुष्य सामान्य है जो संसारिक जीवनयापन करने के लिए जन्म लेते है कुछ दुष्ट है जो समाज में अशांति अश्लीलता भष्ट्राचार भेदभाव हिंसा करने के लिए जन्म लेते है और कुछ सज्जन है जो समाज में शांति शालीनता शिष्टाचार भाईचारा अहिंसा फैलाने के लिए जन्म लेते है।
विश्व के मनुष्य संसारिक सुख प्राप्त करने के लिए मनोरंजन करते है जिसमें यात्रा करना स्वादिष्ट भोजन करना वस्त्र आभूषण एकत्रित करना शरीर की सौन्दर्य को महत्व देना खेल व प्रेम प्रसंग सम्बन्ध में अत्याधिक रूचि लेना जब इनकी पूर्ति होती है तो सम्पत्ति व प्रसिध्द के लिए मानसिक व शारीरिक परिश्रम करते है अधिकांश मनुष्य अपने कर्तव्य उत्तरदायित्व व उद्देश्य की पूर्ति के लिए जीवनभर परिश्रम करते है परन्तु इन सब संसारिक वस्तु व भावनाओं में किसी की पूर्ति नहीं होती है तो दुख प्राप्त करते है और जिनकी पूर्ति होती है तो सुख प्राप्त करते है । परन्तु अधिकांश मनुष्य असुरक्षित स्थानों जीव जन्तु व दुष्टों से दूरी बनाकर भी सुख से जीवनयापन कर सकते है । विश्व वास्तव में चार युगों में गति करता है पहला लौह युग जिसमें विश्व के अधिकांश लोग अशिक्षित व रुढिवादी होते है ताम्र युग जिसमें विश्व का आधुनिकीकरण होता है रजत युग जो अभी वर्तमान में चल रहा है स्वर्ण युग जिसमें अत्याधिक आधुनिक होता है विश्व फिर लौह युग फिर ताम्र क्रमशः चारो युग सैकड़ों वर्षो पश्चात् बार बार आते है । विश्व की जनसंख्या सीमित है कुल पन्द्रह अरब लोग है जिसमें सात अरब पुरूष सात अरब स्त्री व एक अरब नपुसंक है । विश्व में नकारात्मक व सकारात्मक शक्तियों का असित्व एक ऊर्जा के रूप में है अर्थात सभी धर्मों के प्रर्थना विधि मनुष्यों को सकारात्मक ऊर्जा देती है वही नकारात्मक शक्ति भी है जो मनुष्यों को अप्रत्यक्ष रूप से दुख पीढ़ा देती है । विश्व में पुनर्जन्म है सबके है परन्तु उसका बौध्द होता है की इनके जन्म ये थे उसके पुत्र पत्नी माता पिता ये थे इस स्थान में जन्म था कुछ स्त्री पुरूष हर जन्म के जीवनसाथी है अधिकांश के बदलते रहते है बहुत ही कम प्रेम भावना से मुक्त है । जब चेतना जागृत होती है तो सभी मनुष्यों के भावना ज्ञान के स्तर सोच - विचार प्रवृत्ति स्वभाव व्यवहार दिनचार्य जीवनशैली जीवनी और उनके अरब जन्मों का बौद्ध हो जाता है ।
बौध्द से प्रमाणित और निश्चित हो जाता है की यही सत्य है जैसे किसी ने भी पूरे ब्राम्ह्मण को नहीं देखा है फिर भी सौर मण्डल आकाशगंगा के होने की कल्पना करते है किसी ने भी परमात्मा को प्रत्यक्ष नहीं देखा है परन्तु उसके स्वरूप की कल्पना की है किसी ने भी प्रचीन धर्म सभ्यता व साम्राज्य के घटनाओं को नहीं देखा प्रत्यक्ष मात्र कथा व उनके चिन्ह अवशेष को देखकर ही स्वीकार किया इसी प्रकार बौध्द हो जाता है की विश्व का परम् सत्य कुछ और है ।
बौद्ध धर्म एवं संघ
बुद्ध के धर्म प्रचार से भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी उनके शिष्य बनने लगे। शुद्धोधन और राहुल ने भी बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। भिक्षुओं की संख्या बहुत बढ़ने पर बौद्ध संघ की स्थापना की गई। बाद में लोगों के आग्रह पर बुद्ध ने स्त्रियों को भी संघ में ले लेने के लिए अनुमति दे दी, यद्यपि इसे उन्होंने उतना अच्छा नहीं माना। भगवान बुद्ध ने ‘बहुजन हिताय’ लोककल्याण के लिए अपने धर्म का देश-विदेश में प्रचार करने के लिए भिक्षुओं को इधर-उधर भेजा। अशोक आदि सम्राटों ने भी विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार में अपनी अहम् भूमिका निभाई। मौर्यकाल तक आते-आते भारत से निकलकर बौद्ध धर्म चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, थाईलैंड, हिंद चीन, श्रीलंका आदि में फैल चुका था। इन देशों में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक धर्म है।
गौतम बुद्ध - अन्य धर्मों की दृष्टि में
हिन्दू धर्म में
- हिन्दू धर्म में भगवान बुद्ध
बुद्ध को विष्णु का अवतार माना जाता है। अनेक पुराणों में उनका उल्लेख है। परंतु गौतम बुद्ध से अवतार बुद्ध की भिन्नता भी प्रदर्शित है। जैसे भागवत में, "बुद्धोनाम्नाजनसुतः कीकटेषु भविष्यति।" जिसके अनुसार बुद्ध अजन नामक व्यक्ति के घर उड़ीसा (प्राचीन कीकट) में जन्मे थे जबकि गौतम का जन्म वर्तमान नेपाल में राजा शुद्धोदन के यहाँ हुआ था।[6]
सन्दर्भ
- ↑ "Indian rationalism, Charvaka to Narendra Dabholkar".
- ↑ The Dating of the Historical Buddha: A Review Article
- ↑ http://hindi.webdunia.com/buddhism-religion/%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%A8-%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%AF-%E0%A4%97%E0%A5%8C%E0%A4%A4%E0%A4%AE-%E0%A4%AC%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7-112051200047_1.htm
- ↑ अ आ इ [1]
- ↑ त्रिपिटक
- ↑ [naidunia.jagran.com/lite/spiritual/kehte-hain-so-what-were-2-buddha-743598]
स्रोत ग्रन्थ
- Cousins, LS (1996), "The dating of the historical Buddha: a review article", Journal of the Royal Asiatic Society, 3, Indology, 6 (1): 57–63, डीओआइ:10.1017/s1356186300014760
- According to Pali scholar K. R. Norman, a life span for the Buddha of c. 480 to 400 BCE (and his teaching period roughly from c. 445 to 400 BCE) "fits the archaeological evidence better".[1] See also Notes on the Dates of the Buddha Íåkyamuni.}}
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
विकिमीडिया कॉमन्स पर गौतम बुद्ध से सम्बन्धित मीडिया है। |
- ↑ Norman 1997, पृ॰ 33.