आर्य वंश
आर्य जाति एक अप्रचलित ऐतिहासिक नस्लीय अवधारणा है, जो १९वीं शताब्दी के अंत में भारत-यूरोपीय विरासत के लोगों को एक नस्लीय समूह के रूप में वर्णित करने के लिए उभरी। इस सिद्धांत को व्यापक रूप से खारिज कर दिया गया है और इसे अस्वीकृत कर दिया गया है, क्योंकि कोई मानवशास्त्रीय, ऐतिहासिक या पुरातात्विक साक्ष्य मौजूद नहीं है।
शब्द की व्युत्पत्ति
[संपादित करें]आर्यन शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के आर्य शब्द से हुई है, विशुद्ध संस्कृत में इसका अर्थ "सम्माननीय, आदरणीय और उत्तम होता है।"[2][3]
१८वीं शताब्दी में जो लोग पुरानी हिन्द-यूरोपीय भाषा के जानकार थे, उनके पूर्वज भारतीय और ईरानी मूल के लोग थे। आर्यन शब्द का प्रयोग न केवल भारतीय और ईरानी लोगों के लिए किया जाता था, बल्कि इसका इस्तेमाल हिन्द-यूरोपीय मूल के लोगों के लिए भी किया जाता था, इनमें अल्बानियाई, कुर्द, आर्मेनियाई, यूनानी, लातीनी और जर्मन भी शामिल थे। बाद में बाल्टिक, सेल्ट और स्लावी भी इसी समूह में गिने जाने लगे। इसके संबंध में ये तर्क दिया गया कि इन सभी भाषाओं का मूल स्रोत एक ही है - जिसे आज पुर्तगाली और यूरोपीय के नाम से जाना जाता है, दरअसल ये वह भाषाएँ हैं, जिनके बोलने वालों के पूर्वज यूरोपीय, ईरानी आर्यायी थे। ये पुर्तगाली-यूरोपीय सजातीय समूह और उनके वंशजों को आर्यायी कहा जाता है। परन्तु कुछ विद्वानों का मानना है कि आर्य शब्द संस्कृत से लिया गया है, जिसका मतलब "श्रेष्ट" होता है, और संस्कृत को सभी भाषाओं की जननी मानी जाती है। अतएव यह कहा जा सकता है कि आर्य कोई जाति या नस्ल नहीं, बल्कि एक शब्द है जो "श्रेष्ट" के स्थान पर प्रयोग किया जाता था।
१९वीं और २॰वीं शताब्दी में इसका प्रचलन आम था। इसकी मिसाल सन् १९२॰ में प्रकाशित एच.जी. वेल्स की किताब द आउटलाइन ऑफ हिस्टरी (इतिहास के रूपलेख) में देखा जा सकता है।[4] इस पुस्तक में उनकी उपलब्धियों का उल्लेख करते हुए, वे लिखते हैं कि "जब सर्गून द्वितीय और सर्दानापलुस असीरिया पर शासन था", और "वे सीरिया, मिस्र और बेबीलोनिया से युद्ध कर रहे थे"। जैसे, वेल्स ने सुझाव दिया है कि आर्यों ने अंततः "सम्पूर्ण प्राचीन विश्व, यहूदी, ईजियन और मिस्र को समान रूप से अपने अधिकार में किया"।[5] सन् १९४४ में रैंड मैकनली द्वारा तैयार विश्व मानचित्र में आर्यावंशियों को मानवजाति के दस सर्वश्रेष्ठ समूहों में से एक माना गया है।[6] स्केंडिनेवियाई मूल के नस्ल विरोधी इच्छास्वातंत्र्यवादी उपान्यासकार पॉल एंडरसन, जो कि विज्ञान गल्प के लेखक थे, (१९२६–२॰॰१) ने अपने विभिन्न लघु कथाओं, उपन्यासों, लघु उपन्यासों में बार-बार हिंद-युरोपीय लोगों के लिए आर्यायी शब्द का पर्यायवाची शब्द के रूप में इस्तेमाल किया है। उन्होंने “आर्यन को एक ऐसी शिकारी चिड़िया” कहा है जो इन्हें दूसरे ग्रहों पर जाकर वाहन अपना कब्ज़ा करने को प्रेरित करती है और अन्य ग्रह प्रणाली में उपनिवेश निवासनीय ग्रह और नए उपनिवेशवाद ग्रह के दौर में उन्हें अग्रणी उधमी के तौर पर पेश करने के लिए प्रोत्साहित करती है।[7]
आर्यन शब्द का प्रयोग आम तौर पर भारतीय व यूरोपीय या कुछ हद तक भारतीय व ईरानियों के लिए किया जाता है, हालांकि कई जानकार इस परिभाषा को सामग्री आधारित पुराने विद्वता में आज बेकार और राजनीतिक रूप से गलत समझते हैं, लेकिन पुरानी किताबों में अक्सर इसका ज़िक्र देखने को मिल जाता है, जैसे कि सन् १९८९ में लेखक कोलिन रेन्फ़्यू द्वारा साइनटिफ़िक अमेरिकन नामक पत्रिका में आर्यन शब्द का प्रयोग पारम्परिक भारतीय–यूरोपीय लोगों के लिए किया है।[8]
१९वीं शताब्दी का मानवशास्त्र
[संपादित करें]१९वीं शताब्दी में मानव-जाति के विज्ञान को कुछ विद्वानों द्वारा वैज्ञानिक नस्लवादी प्रवृति के प्रतीक के तौर पर दिखलाया जाता है, आर्य वंशियों को भारोपीय जाति के उप-समूह के रूप में देखा जाता है जो मूल रूप से हिन्द-यूरोपीय भाषा के बोलने वाले थे, जिनके वंशज पुर्तगाली, हिन्द-यूरोपीय थे, जो यूरोप, एशियाई रूस, एंग्लो-अमेरिका, दक्षिणी दक्षिण अमेरिका, दक्षिणी अफ़्रिका, ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप, न्यूज़ीलैंड, आर्मेनिया, महान् ईरान (ग्रेटर ईरान) और उत्तरी भारत, (जिसे आज पाकिस्तान और बंगलादेश कहा जाता है) और दक्षिणी एशिया के नेपाल, श्रीलंका और मालद्वीप में रहते थे।
१९वीं और २॰वीं शताब्दी के आरम्भ में आर्यन शब्द को "पुर्तगाली-हिंद-यूरोपीय और उनके वंशज को संदर्भित किया जाता था"।[9][10] मैक्स मूलर को ऐसे पहले लेखक के रूप में अक्सर पहचाना जाता था, जिसने अँग्रेज़ी में आर्यन जाति शब्द का प्रयोग किया। सन् १८६१ में दिए गए अपने लेक्चर्स ऑन द साइंस ऑफ लैंग्वेज (भाषाविज्ञान के व्याख्यान) में उसने आर्यन शब्द का इस्तेमाल "रेस ऑफ पिपुल" (“मानवीय जाति”) के रूप में किया, यानि लोगों की जाति के तौर पर किया।[11] उस वक्त जाति शब्द का प्रयोग कबीलों या सजातीय समूह के लिए किया जाता था।[12]
जब मूलर के कथन के अनुसार आर्यन लोगों को मानव-जाति का एक विशेष समूह कहा जाने लगा, तो उसने ये साफ़ किया, कि उसका अर्थ वंशज से है, न कि विशेष नस्ल से। उसने कहा कि भाषा-शास्त्र और मानव-विज्ञान का मिश्रण एक खतरनाक सिद्धांत है। उसने कहा कि "भाषा विज्ञान और मानवविज्ञान बहुत ज़्यादा भिन्न नहीं हो सकते, <...> लेकिन मैं ज़रूर दोहराना चाहता हूँ, जो मैंने पहले बहुत बार कहा है, कि आर्यन खून को लम्बा शीर्ष वाला कहना गलत है।"[13] उसने अपने विरोध को सन् १८८८ में लिखे अपने लेख बायोग्राफ़ी ऑफ़ वर्ड्स एंड द होम ऑफ़ द आर्यास (आर्यायियों के विश्व और निवास का वर्णन) में भी दोहराया।[11]
मूलर का ये जातीय मानवशास्त्र के विकास का जवाब दरअसल अर्थर डे गोबीनिउ के लिए था, जो ये मानता था कि हिन्द-यूरोपीय सर्वश्रेष्ठ जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं। बाद के कई लेखक, जैसे फ़्रान्सीसी लेखक जोर्जोस वशे डे लापूज (Georges Vacher de Lapouge), ने अपनी किताब L'Aryen (आर्यायी) में ये तर्क देता है कि इस विशिष्ट जाति को शिर्ष्य सूची का प्रयोग करके (सिर ढांचा का मापन) और अन्य संकेतकों से उनके शारीरिक बनावट से भी पहचाना जा सकता है। उन्होंने तर्क दिया कि लंबे सर वाले यूरोपीय उत्तरी यूरोप में पाए जाते थे जो आम तौर पर "ब्राचिओसेफ़ालिक" (छोटे सर) वाले लोगों पर शासन किया करते थे।[14]
श्वेत नस्ल वाले अर्यनों का विभाजन विशुद्ध रूप से एक भाषायी प्रयास है न कि मानवविज्ञान का आरम्भ बिंदु, मानव-शास्त्र का वास्तविक या प्राकृर्तिक विभाजन का केन्द्र-बिंदु नोर्डिक, अल्पाइन और भूमध्यसागरीय जबकि भाषायी एतबार से ये वो समूह था जिसका समबन्ध एशियाई और अफ्रीकी भाषियों से था। हालांकि बाद में कुछ मानव विज्ञानियो और पुरातत्व माहिरों ने "आर्यन" के इस भाषायी वर्गीकरण को छेत्रियता से संबद्ध कर दिया, विशेष रूप से उत्तरी यूरोप से.
19वी शताब्दी में इस मत को काफी प्रसिद्धी मिली। 19वी शताब्दी के मध्य में कहा जाने लगा कि आर्यों कि उत्पत्ति दक्षिण-पश्चिमी भाग, जिसे आज रूस के नाम से जाना जाता है, में हुई। लेकिन 19वी शताब्दी के अन्त तक आर्यन मूल का तर्क भाग को चुनौती मिलने लगी, जिसमें आर्यन का मूल प्राचीन जर्मनी या स्कानडिनविया का होने का विचार था, नया तर्क आर्यनो का संबंध जर्मनी से साबित करने लगा या फिर उन देशों में जहां आर्य-कुल के अवशेष मिलते हैं। आर्यों के जर्मन मूल को, पुरातत्ववेत्ता गुस्ताफ कोजिना ने प्रमुखता से बढ़ावा दिया और दावा किया कि प्रोटो-इंडो-यूरोपियन लोग निओलिथिक जर्मनी के कोर्डेड वेयर संस्कृति के समान थे। 20वी शताब्दी में बुद्धजीवियों ने इस तर्क का जमकर प्रचार-प्रसार किया,[15] ये "कोर्डेड-नोरेडिक्स" की अवधारणा कार्लेटन एस. कुन कि 1939 में प्रकाशित किताब द रेसेस ऑफ यूरोप में देखी जा सकती है।
इस सिद्धांत और परिकल्पना को दूसरे मानव-शास्त्रियों ने चुनौती दी। जर्मनी के रुडोल्फ वर्चो सूखी खोपड़ियों के अध्ययन का सिद्धांत दिया, उसने नॉर्डिक यानि उत्तरी युरोप से आर्यनो के संबंध के रहस्य का ज़ोरदार खंडन किया, 1885 में कार्ल्सरुहे में आयोजित पुरातत्वविदों कि कांग्रेस में वर्चो के सहायक जोसेफ कोलमान ने कहा कि यूरोपीय चाहे वो इंग्लैंड के हों या जर्मन के या फिर फ्रेंच और स्पेनिश हों सभी मिश्रित जातियों से हैं, इसके अतिरिक्त उसने घोषणा कि कि कपाल - विज्ञान के अनुसार कोई भी जाति किसी से सर्वश्रेष्ठ नहीं है।[11]
वर्चो के इस सिद्धांत ने कई विवादों को जन्म दिया। हॉस्टन स्टीवर्ट चेम्बरलेन जो कि आर्यों कि श्रेष्ठता का कायल था, जोसेफ कोल्ल्मान्न के तर्कों का विस्तार से जवाब दिया। हालांकि "आर्यन जाति" की कल्पना काफी मशहूर थी, विशेष कर जर्मनी में, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जो इसके सख्त ख़िलाफ़ थे, ओट्टो श्रेडर, रूडोल्फ वोन झेरिंग और रोबर्ट हार्टमान ने वर्चो के सिद्धांतों का पूरा समर्थन किया, रोबर्ट ने तो मानव-शास्त्र से "आर्यन" शब्द के इस्तेमाल पर ही पाबन्दी लगाने कि मांग कर डाली। [11]
इंडो आर्यन प्रवास
[संपादित करें]इंडो-आर्यन प्रवासन का मॉडल, आरम्भिक इंडो-आर्य के अपने बसाव के ऐतिहासिक स्थानों में प्रागैतिहासिक प्रवास का ज़िक्र करता है जो भारतीय उप-महाद्वीप के उत्तरी-पश्चिमी भाग में था और वहां से भारत के बाकी उत्तर के क्षेत्रों में फैला. इंडो-आर्यन प्रवासन और देश-परिवर्तन के अधिकतर साक्ष्य भाषायी हैं,[16] लेकिन अनुवांशिकी से मूल डाटा के एक समूहों[17] के साथ-साथ वैदिक धर्म, रीति-रिवाज, काव्य-ग्रंथों, सामाजिक संगठनों और कुछ चेरिएट तकनीकी कि मदद से इनके प्रवसन का पता चलता है।
भारतीय आर्यों के प्रवसन और आर्यन – : पुरातत्व,भाषा विज्ञान,मानवशास्त्र,अनुवांशिक व् भौगोलिक साक्ष्यों से ज्ञात है कि आर्य अज़रबैजान से निकाले गए थे। पर्शियन इतिहास में अट्रोप्टेन व अज़रबैजान अत्रीक नदी , कश्यप सागर (केस्पियन) के निकट बताया गया है। यहीं पर बैकुंठ धाम,बहिस्ट व सत्यलोक भी था। - काला सागर पर बसे - हितती (हिंतू) सभ्यता को विकसित किया। इनकी 6 शाखाएँ 1-आर्याप (यूरोप), 2-आर्याक (इराक),3-आर्यान (ईरान),4-आर्याभीर (अफगानिस्तान),5-आर्यवत / स्वर्गलोक/ उत्तरी भारत , 6-पाताललोक / दक्षिणी भारत में फैलीं। द्रविडीयन जाति का मुद्दा भारत में आज भी काफी विवादित है, समय-समय पर इसे लेकर राजनितिक और धार्मिक बहस छिड़ती रही है। कुछ द्रविड़ और दलित आंदोलन के समर्थक, जो आम तौर पर तमिल हैं, का विश्वास है कि शिव कि पूजा करना सिंधु सभ्यता से ही विशुद्ध द्रविड़िया परम्परा है,[18] जो आर्यों के हिंदू ब्राह्मणवाद से बिलकुल भिन्न है। इसके विपरीत भारतीय राष्ट्रीय हिंदूत्व आंदोलन से जुड़े लोगों का मानना है कि आर्यों ने न तो किसी देश पर चढाई की और न ही कभी प्रवासन किया, वो इस बात पर जोर देते हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता से निकली वैदिक विचारधारा,[19] जो भारतीय- आर्यन के भारत में आगमन का संकेत देती है दरअसल वो पुर्तगाली- द्रविड़यान संस्कृति थी। जबकि भारतीय विद्वान यह नहीं मानते कि आर्यन नामक कोई जाति या नस्ल बहार से भारत में आयी थी।
ब्रिटिश राज के दौरान कुछ भारतीय भी इस बहस के प्रभाव में थे। राष्ट्रवादी नेता वी. डी. सावरकर का मानना था कि "आर्यन जाति" ने भारत में प्रवासन किया,[20] लेकिन नस्लवाद व्याख्या में उन्हें "आर्यन नस्ल" जैसा कोई मुद्दा नज़र नहीं आता.[21] कुछ राष्ट्रवादी नेताओं ने इस संबंध में अंग्रेजी पक्ष का भी समर्थन किया, क्योंकि इसकी वजह से उनके वंशजों का सिलसिला अंग्रेजों से मिलने लगता था।[22]
आनुवंशिक अध्ययन
[संपादित करें]2000 में आन्ध्र प्रदेश में किये गए एक आनुवंशिक अध्ययन में पाया गया कि उच्च-जाति के हिन्दुओं का पूर्वी यूरोपीय के लोगों से निकटतम संबंध है।[23] जबकि छोटी जाति के लोगों के साथ ऐसा नहीं है, 2009 में (हार्वर्ड मेडिकल स्कूल, हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हे़ल्थ, एमआईटी और ब्रोड इंस्टिट्यूट ऑफ हार्वर्ड के सहयोग से) सेंटर फॉर सेलुलर एंड मोलक्युलर बायोलॉजी ने एक सर्वे कराया. इसमें भारत के 13 राज्यों में 25 जातियों के विभिन्न समूहों से संबंध रखने वाले लगभग 132 लोगों परीक्षण किया।[24] इस सर्वे ने इस बात पर जोर दिया कि जाति से वंश का पता लगाना मुश्किल है, रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशिया की जातियां आर्यन हमलों कि देन नहीं हैं और न ही इनका द्रविडियन शोषण से कोई संबंध है, दरअसल नए भारतीय समाज के निर्माण कि ये आरंभिक प्रक्रिया थी जिसमें ये आदिवासी जातियां अपने आपको परवान चढा रही थीं।[25]
गुह्यविद्या
[संपादित करें]ब्रह्मविद्या
[संपादित करें]उन्निसवी शताब्दी के अन्त में हेलेना ब्लावात्स्क्य और हेनरी ओल्कोट थिओसोफी पंथ कि नीव डाली, ओकल्टीज़्म कि बहस को इसी विचारधारा के अन्तर्गत समझने की कोशिश की गयी। ये विचारधारा भारतीय संस्कृति से प्रभावित है, शायद हिन्दू सुधारवादी आंदोलन आर्य समाज से इसने प्रेरणा ली, जिसकी बुनियाद स्वामी दयानन्द ने डाली थी।
ब्लावात्स्क्य ने मानवता के वंशज को "रूट रेसेस" की श्रंखला कहा है, उसके अनुसार (सात जाति में से) वाली इस श्रंखला में पांचवा नम्बर आर्यन का आता है। उसका मानना है कि आर्यन अटलांटिस से आये थे, इसका जिक्र वो इस तरह करती है:
- उदाहरण के लिए "गहरे भूरे, काले, लाल भूरे, सफ़ेद रंगों वाले ये सभी आर्यन एक हैं, यानि की पांचवी मूल जाति, जो एक प्रजनक से पैदा हुई, कहा जाता है कि ये 18,000,000 सौ साल पहले रहा करती थी, (...) 850,000 साल पहले जब अटलांटिस का अंतिम अवशेष डूब रहा था तब भी इस जाति का वजूद कायम था।"[26]
ब्लावात्स्की उसके विश्व विज्ञान के वृहद समय के लिए मानव विकास की व्याख्या के लिए एक एक तकनीकी शब्द "मूल जाति" का इस्तेमाल करती है। हालांकि, उसने दावा किया कि कुछ लोग ऐसे थे जो आर्यन की तुलना में तुच्छ थे। वो लगातार "आर्यन" को "सेमिटीक" संस्कृति से अलग रखती है, उसका कहना है कि सेमिटीक्स आर्यन की उप-शाखा हैं, जिसमें "आध्यात्मिकता की कमी और भौतिकता की बहुतात है।"[27] उसका कहना है कि कुछ जातियां जानवरों के समान हैं। इनमे वो "ऑस्ट्रेलिया के तस्मानिया राज्य के कुछ भागों और चीन के पहाड़ी इलाकों के लोगों का उल्लेख करती है।" इसके अलावा लेमुरो-अटलांटिक लोगों का काफी मिश्रण भी है जैसे बोर्निओ के जंगली लोग, सिलोन के वेधास, जिन्हें प्रो॰ फ्लावर ने आर्य कहा.
इन सबके बावजूद ब्लावात्स्क्य के समर्थक उसकी सोच को फांसीवादी या नस्लीय नहीं मानते, उनका मानना है कि वो विश्वा बन्धुत्वा की बात करती है और "आध्यात्म और जैविकीय एतबार से सबका मूल एक है", "तमाम इंसानों की जड़ और उसका तत्त्व एक है".[28] द सिक्रेट डोक्टरीन में ब्लावत्स्की लिखती है कि सभी का रक्त एक सामान है लेकिन उनका तत्त्व एक जैसा नहीं है।
ब्लावत्स्की अपने पूरे लेखन में आध्यात्मिक विश्षताओं के साथ शारीरिक वंश को जोड़ती है:
- "गूढ़ इतिहास सिखाता है कि मूर्तियों और उनके पूजा चौथा रेस के साथ बाहर उत्तरार्द्ध (चाइन आदमी, अफ्रीकी हबशियों और सी.) धीरे - धीरे पूजा वापस लाया संकर दौड़ के बचे, जब तक मृत्यु हो गई। वेदों मूर्तियों चेहरा नहीं, सभी आधुनिक हिन्दू लेखन है।"[29]
- "दक्षिण सागर आइलैंड बौद्धिक अंतर के बीच आर्यन और असभ्य मनुष्य के रूप में अन्य सभ्य राष्ट्रों और अन्य किसी भी आधार पर अकथनीय है। ना तो संस्कृति की कोई मात्रा, या और न ही प्रशिक्षण की पीढ़ियों के बीच सभ्यता, सेमाइट्स अफ्रीकी और कुछ सीलोन बढ़ा सकता है, जैसे मानव नमूनों बुशमेन, वेद्धास की जनजातियों के रूप में आर्य, स्तर, के लिए एक ही बौद्धिक और तुरानियन कहा जाता है तो. उनमें धार्मिक चिंगारी की कमी है और यह दुनिया में केवल निम्न जातियों में होता है और अब प्रकृति के वार को खुशी से समायोजित कर रहे हैं जो कि हमेशा उस दिशा में कार्य करता है - जल्दी मर रहा है। वास्तव में मानव जाति एक ही खून का होता लेकिन एक ही तत्त्व का नहीं होता है। हम लोग गर्म घर के हैं, प्रकृति में तेजी से बढ़ा कृत्रिम पेड़, हमारे भीतर एक चिंगारी है, जो उनमें अव्यक्त है।"[30]
ब्लावत्स्की के अनुसार, "मानवता की सबसे कम नमूनों के MONADS" ("संकीर्ण-मांसिकता" कबीला दक्षिण सागर द्वीप वासी, अफ्रीकी, ऑस्ट्रेलियाई) में कार्य के लिए कोई कर्म नहीं है जब उनका जन्म पहली बार हुआ था, क्योंकि उनके भाइयों में पक्ष में अधिक बुद्धिमता थी।"[31]
"प्रकृति की विफलता" को भविष्य में "उच्च जाति" की उन्नति के रूप में उन्होंने जातियो के विनाश की भी भविष्यवाणी की:
- "इस प्रकार मानव जाति, वंश के बाद वंश, अपनी नियुक्ति तीर्थ यात्रा के चक्र के रूप में करते हैं। मौसम बदलना पहले से ही शुरू हो गया है, प्रत्येक वर्ष उष्णकटिबंधीय बदलने के लिए, अन्य छोड़ने के एक उप दौड़ के बाद, लेकिन सिर्फ आरोही चक्र पर एक और अधिक दौड़ पैदा करने के लिए, जबकि अन्य कम इष्ट समूहों की एक शृंखला - प्रकृति की विफलताओं, पुरुषों की तरह कुछ व्यक्ति, मानव परिवार से बिना कोई निशान छोड़े गायब हो जाते हैं।[32]
यह ध्यान देना काफी दिलचस्प है कि पांचवी या आर्यन मूल जाति का द्वितीय उप-शाखा, अरबियाई को ब्रह्मविद्यावादियों द्वारा आर्यन की उपशाखा के रूप में माना गया है। यह ब्रह्मविद्यावादी द्वारा माना जाता है कि अरबियाई, हालांकि पारंपरिक ब्रह्मविद्या में आर्यन वंश का अधिकार जताया गया है (i.e., भारतीय-यूरोपीय) और वहां के उन लोगों की सामी भाषाओं को अपनाया जो कि पूर्व में अटलांटिस से आए थे (अटलांटिक मूल जाति के सामी उपजाति के पांचवे या (मूल)). ब्रह्मविद्यावादियों ने जोर देकर कहा कि यहूदियों का जन्म अरबियाई उपशाखा के रूप में हुआ जो 30,000 BC में अब येमेन हैं। सबसे पहले वे सोमालिया गए और बाद में मिस्र जहां वे मूसा के समय तक रहे। इस प्रकार, ब्रह्मविद्या के उपदेशों के अनुसार, यहूदी लोग आर्यन वंश के हिस्सा हैं।[33]
समेल अन वियोर ने 1967 में एक पुस्तक प्रकाशित की जिसे 2008 में शीर्षक को बदलकर द डुम्ड आर्यन रेस रखा जिसमें उन्होंने जोर दिया कि आर्यन "मूल जाति" हाइड्रोजन बम द्वारा बर्बाद होने को अभिशप्त था जब तक आर्य जाति के लोग तांत्रिक योग सीखते.[34]
अरिसोफी
[संपादित करें]गुईडो वॉन लिस्ट (और उनके अनुयायियों में जैसे लेंज़ वॉन लिएबेनफेल्स) ने बाद में ब्लावत्स्की के कुछ विचारों को लिया और राष्ट्रवादी और फासीवादी के विचारों के साथ उनके विचारों का मिश्रण किया; इस प्रकार के विचार को अरिसोफी के रूप में जाना गया। अरिसोफी में यह माना जाता था कि ट्यूटनिक अन्य सभी लोगों में श्रेष्ठतर थे क्योंकि ब्रह्मविद्या के अनुसार ट्यूटोनिक या नार्डिक आर्यन मूल जाति के विकसित जाति की सबसे हाल की उपजाति है।[35] इस तरह के विचार नाज़ी विचारधारा के विकास में दिखाया गया है। द आर्यन पथ जैसे थियोसॉफिकल प्रकाशनों में नाज़ी के प्रयोग का जोरदार विरोध किया गया है और यह जातिवाद पर प्रहार करता है।
नाज़ीवाद और नव नाज़ीवाद
[संपादित करें]नाज़ीवाद
[संपादित करें]आर्यों के उत्तरी मूल का विचार विशेष रूप से जर्मनी में प्रभावित है। यह व्यापक रूप से माना जाता था कि "वैदिक आर्यायी" जातीय आधार पर गोथ, वंडल और वोल्करवान्डेरंग के प्राचीन जर्मनी के लोग के समरूप होते हैं। यह विचार अक्सर सामी-विरोधी विचार के साथ गुंथा हुआ था। आर्यायी और सामी लोगों के बीच पूर्वोक्त भाषायी और जातीय इतिहास के आधार पर भेद है।
आर्य समाज के भीतर सामी लोगों को विदेशी लोगों के रूप में देखा गया, सामी लोगों को अक्सर सामाजिक व्यवस्था के रूपांतरण और विनाश के कारणों के रूप में चिन्हित किया गया और हाउस्टन स्टीवर्ट चेंबरलेन और अल्फ्रेड रोसनबर्ग जैसे आद्य-नाज़ी और नाज़ी सिद्धांतकारियों द्वारा संस्कृति और सभ्यता के बढ़ते मूल्य के पतन के लिए जिम्मेवार ठहराया गया।
अरिसोफी के अनुयायियों के अनुसार आर्यन "शासक जाति" थे जिसने सभ्यता का निर्माण किया और जिसने लगभग दस हजार वर्ष पहले अंटलांटिस से पूरी दुनिया पर वर्चस्व रखा था। 8,000 BC में अटलांटिस के विनाश होने के बाद विश्व के अन्य भाग जब उपनिवेशी हो गए तब इस कथित सभ्यता को अस्वीकृति कर दिया गया, क्योंकि अप्रधान जातियां आर्यों के साथ मिश्रित हो गई लेकिन तिब्बत में इस सभ्यता के अवशेष बचे है (बौद्ध धर्म के माध्यम से), यहां तक केन्द्रीय अमेरिका, दक्षिण अमेरिका, और प्राचीन मिश्र में भी. (अरिसोफी में अटलांटिस के विनाश की लिए 8,000 BC की तिथि थियोसाफी में इस घटना के लिए दिए गए 10,000 BC की तिथि से 2,000 वर्ष बाद का है।) इन सिद्धांतों ने नाज़ीवाद के रहस्यमय स्थलों और अधिक प्रभावित किया।
आर्य और सामी-विरोधी इतिहास का एक पूर्ण, उच्च प्रत्याशित सिद्धांत को अल्फ्रेड रोसनबर्ग के प्रमुख कार्य द मिथ ऑफ द ट्वेंटिएथ सेंचुरी में पाया जा सकता है। रोसनबर्ग के अच्छे अनुसन्धान प्राचीन इतिहास की व्याख्या करती है जो कि उनके नस्लीय अटकलों से मिल जाती है, बीसवी शताब्दी की शुरुआत में विशेष कर प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मन बुद्धिजीवियों के बीच जातिवाद को फैलाने में इसे काफी प्रभावी माना गया है।
उत्तरी यूरोपीय वंश के शासक जाति के लोगों के रूप में जो उन्होंने देखा था, उसे सन्दर्भित करने के लिए ये और अन्य विचार आर्य जाति शब्द में नाज़ी के इस्तेमाल में विकसित हुए॰ उन्होंने इस जाति की शुद्धता को बनाए रखने के लिए सुजनन विज्ञान के माध्यम से कार्य किया (विरोधी-नस्लों की मिलावट कानून, मानसिक रूप से बीमारों का अनिवार्य नसबंदी और मानसिक रूप से हीन, सुखमृत्यु कार्यक्रम के हिस्से के रूप में मांसिक रूप से बिमार का कार्यान्वयन प्रतिष्ठापन इसमें शामिल हैं).
हेनरिच हिमलर जो कि (एसएस का Reichsführer), एडोल्फ हिटलर द्वारा अन्तिम समाधान, या आहुति को लागू करने के लिए आदेश प्राप्त कर्ता था, उसने अपने निजी मालिशिया फेलिक्स कर्स्टन से कहा कि वह सदा प्राचीन आर्यन शास्त्र भागवत् गीता की एक प्रति अपने पास रखता है क्योंकि यह उसे उसके द्वारा किए गए अपराध से राहत दिलाता है - वह अपने आप को योद्धा अर्जुन की तरह महसूस करता है, वह अपने कर्मों से बिना लगाव के साथ केवल अपने कर्तव्यों का पालन करता था।[36]
हिम्लेर की बौद्ध धर्म और उसके संस्थान अहनेनेर्बे जिसे हिन्दुत्ववाद और बौद्ध धर्म की कुछ परम्पराओं के मिश्रण के लिए तलाशा गया था, में भी रुचि थी[37] -- गौतम बुद्ध के धर्म के लिए मूल नाम जिसे वर्तमान में हम बुद्धिज्म कहते हैं वह द आर्यन पथ था।[38] हिम्लर को उसके अनुसंधान आर्यन उत्पत्ति के हिस्से के रूप में 1939 के एक जर्मन अभियान में तिब्बत भेजा गया था।
नव-नाज़ीवाद
[संपादित करें]1945 में संश्रित राष्ट्र के द्वारा नाज़ी जर्मनी के सैन्य हार के बाद अधिकांश नव-नाज़ियों ने आर्यन जाति के अपने अवधारणा का विस्तार कर लिया और नाज़ी अवधारणा से हट गए जिसमें उत्तरी यूरोप के टिउटोनिक्स या नोर्डिक्स को ही शुद्ध आर्य माना जाता था और पश्चमी या हिन्द-युरोपीयय लोगों के यूरोपियन शाखा से उत्पन्न सभी लोग शुद्ध आर्यन होने के विचार को अपनाया.[41]
मध्यम गोरे राष्ट्रवादी जो पैन-आर्यवाद को अपनाते हैं, वे एक प्रजातंत्रात्मक रूप से शासित आर्य संघ स्थापित करना चाहते हैं।[42] यह कल्पना की गई कि आर्यन फेडरेशन का एक हिस्सा उत्तरी अमेरिका यूरो-एंग्लो अमेरिकी के लिए एक नया राष्ट्र होगा (यूरोपीय अमेरिकी और अंग्रेजी कैनेडियाई) जिसे विनलैंड कहा गया जिसमें जो अब उत्तरी संयुक्त राज्य और क्यूबेक के अलावा समस्त कनाडा को शामिल किया जाएगा और जिसमें विनलैंड झंडे का इस्तेमाल किया जाएगा.[43]
दूसरी ओर निकोलस गुडरिक-क्लास के अनुसार नाज़ी जर्मनी को वेस्टर्न इम्पेरियम कहे जाने के बाद कई नव-नाज़ी एकतंत्रीय राज्य सांचा बनाना चाहते हैं।[44]
इस प्रस्तावित राज्य को फुहरेर की जैसे व्यक्तित्व जिसे विन्डेक्स द्वारा नेतृत्व किया जाएगा और नव नाज़ियों की कल्पना के रूप में आर्य जाति जिन जगहों पर बसे थे, वो सबको इसमें शामिल किया जाएगा. केवल आर्य जाति के ही लोग इस राज्य पूर्ण रू से नागरिक होंगे। वेस्टर्न इम्पेरिएम द्वारा अन्तरिक्ष खोज के जोरदार और गतिशील प्रोग्राम की शुरुआत की जाएगी और एक उत्कृष्ट जाति होमो गालाक्टिका के आनुवंशिक इंजीनियरी द्वारा अनुकरण किया जाएगा. वेस्टर्न इम्पेरिएम की अवधारणा पिछले तीन वाक्यों में उल्लिखित किया गया है, इसका आधार फ़्रान्सिस पार्कर योके द्वारा लिखित 1947 की किताब 'इम्पेरिएम : द फिलोसोफी ऑफ हिस्टरी एंड पोलिटिक्स किताब में उल्लिखित के रूप में इम्पेरियम की मूल अवधारणा है, 1990 के दशक में डेविड मैट द्वारा पैम्फलेट्स प्रकाशन में इस किताब को अद्यतन, विस्तार और परिष्कृत किया गया है।[45][46][47]
Tempelhofgesellschaft (टेम्पलहोल्फ़गेसेलशाफ्ट)
[संपादित करें]एक नव नाज़ी रहस्यमय नाज़ी रहस्यमपूर्ण सम्प्रदाय का मुख्यालय वियना, आस्ट्रिया में है, जिसे टेम्पलहोल्फ़गेसेलशाफ्ट कहा जाता है, जिसे 1990 के दशक के शुरुआत में स्थापित किया गया, यह मारसिओनिज्म कहे जाने वाले एक रूप को सिखाता है। वे पर्चे का वितरण करते हैं और यह दावा करते हैं कि आर्यन जाति मूल रूप से स्टार अल्डीबरन से अटलांटिस आए थे।
इन्हें भी देंखे
[संपादित करें]- अनाटोलियन परिकल्पना
- आर्य
- युरोपीय लोग
- आर्यन प्रवास सिद्धांत
- नॉर्डिक सिद्धांत
- नॉर्डिक जाति
- पुर्तगाल-भारत-यूरोपीय
- भारत और यूरोपीय भाषा परिवार
- कुर्गन परिकल्पना
- आर्यन लोगों की जाति जावन
- स्केंडिनेवियनवाद
- श्वेत राष्ट्रवाद
- श्वेत वर्चस्व
दार्शनिक:
- जर्मनी और ऑस्ट्रिया में रहस्यमयवाद
- थुले सोसायटी
- जर्मनी निओपेगनिज़म
- नव völkisch आंदोलन
तृतीय रीश विशिष्ट:
- आर्यानाइजेशन
- आर्यन अनुच्छेद
- मानद आर्यन
- अहनेनपास
- आर्यन खेल
जाति की समकालीन अवधारणाएं:
- अल्पाइन जाति
- आर्मेनोएड जाति
- डिनारिक जाति
- इस्ट बाल्टिक जाति
- इरानिड जाति
- भूमध्य जाति
सन्दर्भ
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अतिरिक्त पठन
[संपादित करें]- बाल गंगाधर तिलक द्वारा द आर्कटिक होम ऑफ द वेदास
- अरविन्दसन, स्टीफन आर्यन आइडल्स. द इंडो-यूरोपियन माइथोलॉजी एज साइंस एंड आइडियोलॉजी. शिकागो: द यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो प्रेस. 2006 ISBN 0-226-02860-7
- पोलियकोव, लियोन द आर्यन मिथ: ए हिस्टरी ऑफ रेसिस्ट एंड नेशनलिस्टिक आइडियाज इन यूरोप न्यूयॉर्क: बार्न्स एंड नोबल बुक्स. 1996 ISBN 0-7607-0034-6
- विडनी, जोसेफ पी रेस लाइफ ऑफ द आर्यन पिपुल्स न्यू यॉर्क: फ्लंक एंड वागनल्स. 1907 में दो वॉल्यूम: वॉल्यूम वन - द ओल्ड वर्ल्ड वोल्यूम दो - द न्यू वर्ल्ड ISBN B000859S6O: