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00intro_update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:22 Page i प्रितमान समय समाज सं ृ ि जनवरी- िसंबर, 2021 वर्ष 9, संयुतांक, 17-18 00intro_update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:22 Page ii जनवरी-िदसंबर, 2021 (वष्ष 9, संयुतांक, 17-18) समाज-िवजान और मानिवकी की पूव्व-समीिकत अध्ववािष्वक पितका प्रधान संपादक रिवकानत संपादक िहलाल अहमद, ्भात कु मार समपादकीय प्रबंधन (मानद) कमल नयन चौबे सहायक संपादक मनोज मोहन, मृतयुंजय ितपाठी, िदनेश कु मार िडज़ाइन : मृतयुंजय चटज्जी, कमपोिज़ंग : चंदन शमा्व संपादकीय सलाहकार : अभय कु मार दुब,े आिदतय िनगम, हनस हाड्वर, राजीव भाग्वव, िवजय बहादुर िसंह, राधावललभ ितपाठी, सुधीर चंद, शािहद अमीन, िववेक शानबाग, िकरण देसाई, सतीश देशपाणडे, गोपाल गुरु, हरीश ितवेदी, शैल मायाराम, िवश्वनाथ ितपाठी, फ़ं चेसका ओस्जीनी, िनवेिदता मेनन, आलोक राय, उजजवल कु मार िसंह, संजय शमा्व. भारतीय भाषा काय्षक्रम िवकासशील समाज अधययन पीठ (सीएसडीएस) 29, राजपुर रोड, िदलली-110054 फ़ोन : 91.11. 23942199 ईमेल : [email protected]; वेबसाइट : www.csds.in/pratiman + 4695/21-ए, दररयागंज, नई िदलली-110002 फ़ोन : 91.11.23273167, 23275710 ईमेल : [email protected]; वेबसाइट : www.vaniprakashan.com यहाँ ्कािशत रचनाओं का सवा्विधकार रचनाकारों के पास है, िजसके शैकिणक और ग़ैर-वयावसाियक इसतेमाल के िलए ्काशक से इजाज़त लेने की ज़ररत नहीं है। अलबता, लेखक /्काशक को इतला कर दें तो उनहें बेहद ख़ुशी होगी। सेंटर फ़ॉर द सटडी ऑफ़ िडवेलिपंग सोसाइटीज़, 29, राजपुर रोड, िदलली-110054 के िनदेशक अवधेनद शरण के िलए ्काशक एवं मुदक अिमता माहेश्वरी, वाणी ्काशन, 4695/21-ए, दररयागंज, नई िदलली-110002 दारा ्कािशत और ऑपशन ि्ंटोफ़ासट, 41, पटपड़गंज इंडिस्यल एररया, िदलली-110092 में मुिदत। संपादक : रिवकानत मूलय : वयिकगत : ₹ 350, संसथागत : ₹ 500 िवदेशों के िलए : $ 20 + डाक ख़च्व अितररक या िकसी अनय मुदा की समकक रािश ISSN: 2320-8201 00intro_update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:22 Page iii अनु म संपादकीय यह 'िवरासत' अंक और आगे की राह V आज़ादी का अमृत महोतसव जयपाल िसंह मुंडा और आिदवासी राजनीित कमल नयन चौबे राजराजेशरी : राजभत, िहंदी लोकवृत्त और महारानी िवटोररया शुभनीत कौिशक राजा तथा अरूप-रतन : नाटक एक, संसकरण अनेक रबींदनाथ के आधयाितमक नाटक शरद देशपाणडे | अनुवाद : बलराम शुकल हेट सपीच, अिभवयि्ति की सवतंत्रता और भारतीय क़ानूनी वयवसथा िनशांत कु मार उत्तर भारत की प्रवास संसकृ ित और िगरिमिटया मज़दू र आशुतोष कु मार 1 33 53 69 93 सािहतय और अिसमता िवमश्ष अशेत सी-आतमकथाएँ : जेंडर और समाज के आईने में गररमा शीवासतव मराठी और िहंदी दिलत कहािनयों में मानवािधकारों के प्रश्न अजमेर िसंह काजल भाषा में सी और सी की भाषा-2 रवींद कु मार पाठक पटाकेप नहीं : िलली रे और मैिथली सािहतय का समाजशास देव नाथ पाठक 129 169 215 265 00intro_update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:22 Page iv iv | तमान िविवध संधान गुमशुदा वयतयों के पररवारों की आवशयकताएँ एवं चुनौितयाँ ्दीप बौहरे , अयूब ख़ान िफर महानंदा बेिसन : बाढ़, बाँध व राजयनीित पंकज कु मार झा, िदनेश कु मार िमश हािशए का अधययन : गुजरात की समुदी मछु आररनें सुबोध कु मार 287 301 327 समीका लेख ओशो : हािशए पर मुखपृष्ठ राजेश कु मार चौरिसया उत्तर भारत में नदी प्रदू षण और शहरीकरण का हािलया इितहास-लेखन िवकास कु मार 344 367 समीका पंजाबी सामयवाद और अंतरराष्ीयता धीरज कु मार नाइट सािहतय को इितहास बनाने की कमज़ोर कोिशश वेंकटेश कु मार मुतकामी जान की खोज शशांक चतुव्वेदी नदी-िनषाद के सापेक समाज और इितहास-लेखन रुिच शी भिवषय के प्रितरोध पुनीत कु मार 380 िकताबें िमलीं मनोज मोहन 426 रचनाकार-पररचय और संपक्ष प्रितमान के िलए संदभ्ष-साँचा 430 432 389 398 406 414 00intro_update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:22 Page v समय समाज सं ृ ि यह 'िवरासत' अंक और आगे की राह मौ जूदा अंक दो अथ्थों में ‘िवरासत’ अंक है िक यहाँ आज़ादी के पचहतर साल में मनाये जा रहे अमृत महोतसव के बहाने तयाग और संघष्व के उस न-भूतो-नभिवषयित दौर पर कु छ अनोखी सामगी पेश की गई है, बिलक इस अथ्व में भी िक यहाँ ्सतुत जयादातर सामगी हमारे पास पहले से मौजूद थी। इस बीच हमारे संपादक मंडल के दो संसथापक सदसय, ्ोफ़े सरान अभय कु मार दुबे और आिदतय िनगम, सीएसडीएस से सेवा-िनवृत होकर नई पाररयाँ शुर कर चुके हैं, िजसके िलए मौजूदा टीम उनको ढेर-सारी शुभकामनाएँ देती है। उनकी सूझ-बूझ, मेहनत और कु शल संचालन के बग़ैर पितमान की यह सुखद-सफल याता ग़ैर-मुमिकन होती। इस भार को अपने दुब्वल कं धों पर लेकर चलने का संकलप करते हुए हम अपेका रखते हैं िक हमें उनकी सलाह, उनका सनेह और माग्वदश्वन िमलता रहेगा। नरे श गोसवामी को भी हम अभय जी की नई टीम का िहससा होने की बधाई देते हैं। सलाहकार मंडल में ्ो. हनस हाड्वर साहब का हम सवागत करते हैं और मैनेजर पांडेय साहब की समृित को सधनयवाद सलाम करते हैं। कोरोना-जिनत मुि्कलात और दीगर िवषम पररिसथितयों के चलते हम इस बार एक भारी-भरकम संयुकांक लेकर हािज़र हैं, और यह िसलिसला िहनदी पटी के सामािजक इितहास पर कें िदत अगले अंक तक और चलेगा, तािक हम वकत के साथ क़दम-ताल की िसथित में वापस आ जाएँ। इस बीच संपादक य प्रितमान 00intro_update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:22 Page vi vi | तमान पाठकों, गाहकों और लेखकों की उतकं ठा और सहानुभूित हमारे साथ बनी रही, इसके िलए हम उनका तहेिदल से शुिकया अदा करते हैं और िवलंब के िलए करबद्ध माफ़ी माँगते हैं। िपछले वष्व आए हमारे सोलहवें अंक से आपने फ़ॉनट और िडज़ाइन में बदलाव नोिटस िकया होगा, सो बदलाव का िसलिसला जारी रहेगा। एक िदलचसप संयोग इस अंक में यह बना िक सीएसडीएस के िकसी संकाय सदसय का कोई लेख यहाँ शुमार नहीं है। हो सकता है िक अगले सामानय अंक थोड़े दुबले हों, लेिकन वादा है िक उनमें सुपुष्ट और गुणातमक सामगी होगी। मौजूदा अंक के लेखों और समीकाओं के शीष्वक िवषय को साफ़ ढंग से पेश करने में सकम हैं, इसिलए उनका ख़ुलासा न करते हुए हम कु छ और ज़ािहर अनुपिसथितयों का िज़क करें गे। चूँिक इस बीच ‘समृितशेष’ का एक संकलन वाणी ्काशन से ही छप चुका है, और चूँिक इतने सारे लोग हमसे िबछड़ गए हैं िक उन सबको ढंग से याद करना िवशेष आयोजन की माँग करे गा, तो हम इस सतंभ पर बाद में वापसी करें गे। उसी तरह शुद्ध राजनीित और चुनाव पर के िनदत िनबंध और पररचचा्वएँ भी हम यथासमय छापते रहेंगे। कु छ ऐितहािसक तसवीरें यहाँ डाली गई हैं उस ज़ख़ीरे से िजसे िवसमृित और काल-कविलत होने से बचाने का उदम हमने शुर िकया है। िपछले कवर पर जो िदलचसप बॉड्वर है, वह दरअसल एक पूरा पचा्व है, िजसे पटना की युवक मंडली के नािमत सदसयों दारा सन 1932 के होली के समय सवदेशी वस के उपयोग की िहमायत में जारी िकया गया था; संदभ्व और सनद के िलए हमने उसकी अनुकृित ्भात कु मार को अिभलेखागार से खोज िनकालने के िलए धनयवाद के साथ डाल दी है। ्ितबंिधत सािहतय पर िहनदी िवभाग, हैदराबाद िवश्विवदालय के साथ चल रही हमारी एक पररयोजना पर काम करते हुए यह अहसास गहरा होता जा रहा है िक इितहासकारों और सािहतयकारों, दोनों ने इस उव्वर ज़मीन पर ढंग से खेती नहीं की है। अिभलेखागारों मे पड़ा अकू त माल अमृत महोतसव काल में भी अदृ्य ही रहा। िहनदी सािहतयकारों की दुल्वभ तसवीरों से सजा एक अलबम हमें कहानी के 1955 के िवशेषांक से िमला, िजसे आपसे बाँटकर एक ख़ास ऐितहािसक सुख की अनुभूित हो रही है। िजस गित और उतसाह से कं पयूटर-जिनत कृ ितम बुिद्ध का ्योग सवचािलत वाहन चलाने से लेकर कारख़ानों के रोबोिटकस और सामानय गूगल सच्व से लेकर मशीनी अनुवाद तक, हर जगह हो रहा है, उससे सपष्ट है िक इसकी मौजूदा सीमाओं के बावजूद भिवषय की राह यहीं से गुज़रती है। उसके समांतर समाजिवजान के सीमांत पर अंतर-अनुशासिनक अनुशासन और उतरोतर लोकि्य होती ्िविध के रप में ‘िडिजटल मानिवकी’ िपछले दसेक सालों में एक वैिश्वक मुिहम बन चुकी है। यह भी ज़ािहर है िक इस जान का आधार ही िडिजटल या आंिकक डेटाबेस है जो या तो जनमना िडिजटल है या पुराने माधयम में मौजूद दसतावेज़ी िवरासत को नए िडिजटल रपों में पररवित्वत करके सँजोने के साथ-साथ उसके पुनस्संयोजन का वयायाम है। हर अिभलेखागार या तो पुराने दसतावेज़ों को उनके 00intro_update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:22 Page vii | vii आिदम रप में मज़बूती ्दान करता है, या उसकी ्ितिलिप बनाकर उसको नया जीवन देता है या उसकी उम्र दराज़ करता है: माइकोिफ़लम, माइकोिफ़श, ज़ेरॉकस, सकै न आिद िविवध ्ौदोिगिकयों के नाम हैं, िजनके ज़ररए अिभलेखकम्जी अिभलेखों को नई िज़ंदगी देते हैं। जैसे ही दसतावेज़ की तसवीर ओसीआर के ज़ररए मशीन के पढ़ने के लायक़ बनती है उसके अंदर सच्व संभव हो जाता है, और हम बड़े-बड़े संकलनों में (मसलन, ्ोकवेसट पर टाइमस ऑफ़ इंिडया या राष्ीय अिभलेखागार के अिभलेख पटल पर) अपनी मनपसंद खोज चंद सेकंड में कर सकते हैं। भले ही भारतीय भाषाओं में ओसीआर अब तक उतना सटीक नहीं हुआ है, या िविभनन मंतालयों से दसतावेज़ों को राष्ीय अिभलेखागार में सथानांंतररत करने में कोताही बरती जा रही1 हो, लेिकन आगे की राह तो यही है। आजकल सीएसडीएस में हमलोग एक िडिजटल अिभलेखागार बनाने में लगे हैं। सराय से जुड़े शोधािथ्वयों दारा जुटाया एक मलटी-मीिडया संगह तक़रीबन 20-22 सालों से है ही। आप चाहें तो इस अिभनव पहल को भारतीय भाषा काय्वकम का भी एक सहज िवसतार मान सकते हैं, कयोंिक हमारे संगह में िहनदी-उदू्व-संसकृ त की छपी हुई सामगी जयादा है, हालाँिक हमारे अनय सहकिम्वयों की बढ़ती िदलचसपी के चलते इसका दायरा लगातार बढ़ता जा रहा रहा है, िजसमें सीएसडीएस से संबद्ध िवदानों के िनजी संगह भी शािमल होंगे। िहनदी जगत में जान-िवजान के िवरसे के ्ित एक ख़ास तरह का उपेका-भाव नािमत, ितथयांिकत और पृषांिकत उद्धरण या संदभ्व न देने के हमारे आलस में दष्टवय है, िजसके नतीजे के तौर पर वह जान अनुिललिखत होते-होते कालांतर में िवसमृत हो जाता है। इसे हमने ‘भारतीय भाषाओं का अदृ्य जान’ भी कहा है। बहरहाल, दुल्वभ और तेज़ी से लुप्त होती सामगी के संगह के हमारे हािलया ्यासों के िलए की गई याताओं के कम में कहींकहीं महज़ दासतानें िमलीं उन लमहों की, जो महमहाते पुसतकालयों के वकत से िगरे थे, कहीं और कु ्बंधन या उदासीनता के दीमक लगने से कमश: छीजते जाते पुसतकालयों के तासद दश्वन हुए तो चंद अपवादसवरप जगहों पर यह भी ज़ािहर हो गया िक कु छे क धुरंधर ऐसे हैं, िजनहोंने संगह करने में न िसफ़्व अपनी पूरी िज़ंदगी लगा दी, बिलक उस जानरािश को सहेजने के िलए अपनी उम्र के बावजूद बिज़द और ्ितबद्ध हैं। हाल के सालों में हमें पतकार भगत वतस, किव अिजतकु मार, िदलली िवश्विवदालय से सेवा िनवृत भाषा शासी डॉ. िवमलेश कािनत वमा्व के बेशक़ीमती पुसतक संकलन िमले हैं, िजनहें हम धीरे धीरे मुक जनपद में मुहैया कराते रहेंगे। ऐसे संगह करने वालों से मेरी पहली मुलाक़ातें अपने शोध के दौरान हुई ं, िजसके 1 ‘गुड गवन्नेंस’ पर हुई इस िवचार गोषी इंिडयन एकसपेस में राष्ीय अिभलेखागार के महािनदेशक, चंदन िसनहा, के हवाले से छपी एक ख़बर: https://indianexpress.com/article/opinion/columns/national-archives-no-recordswars-government-controls-narrative-8345341/ 00intro_update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:22 Page viii viii | तमान नतीजे के रप में िसनेमा को पद्वे से परे सराहने की लोक-संसकृ ित का कैितज और लंबवत दोनों तरह का िवशद िवसतार मुझे िदखा।2 राष्ीय िफ़लम अिभलेखागार काम की जगह है लेिकन मुकममल जगह नहीं, कयोंिक वहाँ पत-पितकाओं के छोटे-से संकलन में भी बहुत सारी फ़ाइलें ग़ायब हैं। ऐसे हालात में उस ्ाणी को भी याद कर लें जो िनजी तौर पर िफ़लमी सामगी इकटा करता चला जाता है और अपने संगह के तमाम इंदराज को न िसफ़्व याद रखता है, बिलक कोई-सा ्संग छे ड़ो उसमें से कु छ न कु छ नया ढूँढकर आपके हाथ में देकर ख़ुश होता है। एक ऐसे ही ्ाणी थे कानपुर के जंतुिवजान के ्ोफ़े सर, अकाल-कालकविलत डॉ. राके श ्ताप िसंह, िजनके ज़ररये मैं लोकि्य सामगी के कलेकटर या संकलक को समझने की कोिशश करँगा। राके श जी सवभाव से वैरागी थे, अगर कोई मोह था उनको तो अपने उस संकलन से, िजसे उनहोंने अपने तीसरे बचचे की तरह नाज़ों से पाला था। दो बचचे तो बड़े होकर देश-िवदेश में जा बसे, गोया अपने माता-िपता की तीसरी संतान के िलए घर में जगह कम पड़ गई हो। राके श जी गायक-अिभनेता तलत महमूद के मुरीद थे: मेरी यह ख़ामख़याली है िक हर संकलक मूलत: िकसी न िकसी िसतारे का फ़ै न होता है। िसने-संगीत को सुनने की लोकि्य आदत ने शवय-िसतारों की एक पूरी pऌ धळ का िनमा्वण िकया, िजनके अिसततव के िलए ्शंसकों की बड़ी तादाद लािज़मी है। एक ही आदश्व के पीछे ्शंसक बहुत सारा मायाजाल जमा कर लेता है, वह भी इस हवस से िक कहीं कु छ छू ट न जाए। िफर संकलन के दौरान पता चलता है िक तलत की जीवनी दरअसल कई दीगर जीविनयों से टकराती है। तलत ने रे िडयो, िसनेमा, गामोफ़ोन और मंच के िलए बहुभाषी गायन करने के अलावा कई िफ़लमों में बतौर अिभनेता भी काम िकया। तो हर वो चीज़ जो तलत की पेशेवर िज़ंदगी से जुड़ती है, उसकी अगर कोई भी िनशानी - ऑटोगाफ़, िकताब, तवा ररकॉड्व, िसनेमा हॉल के आगे िमलने वाली चौपितया पुिसतकाएँ, टेप, वीएचएस, वीसीडी या फ़ोटो कहीं िमल जाए तो राके श जी उसको सँभाल लेंगे और बाद में चलकर ‘तलत गीत कोश’ बनाएँगे, िजसकी सूची से बाहर शायद ही कु छ होगा। लेिकन इस िकताब का संकलन करने से पहले राके श जी िहनदी िफ़लम संगीत के कनरिसया थे : गाने गामोफ़ोन और रे िडयो पर सुनते थे, बार-बार िफ़लम देखकर गाने अपनी डायरी में नोट करते थे, रे िडयो सुनते या टीवी देखते हुए हर नायाब काय्वकम की नक़ल भी बनाते जाते थे, अख़बारों से क़तरनें काटकर रखते जाते थे। िफ़लमी पितकाएँ और िकताबें पढ़ते थे, उनमें आए इनामीग़ैर-इनामी सवाल हल करके भेजते थे। यह अिभलेखागार उस सामूिहक काम के िलए सहायक िसद्ध हुआ िजसे आवाज़ की दुिनया के लोग ‘िलसनस्व बुलेिटन’ और िहनदुसतानी िसनेमा के िवदाथ्जी ‘िहनदी िफ़लम गीत कोश’ के नाम से जानते हैं, जो िहनदी िसनेमा के नामों, कलाकारों, िकरदारों और िसनेकिम्वयों का सबसे बड़ा डेटाबेस या आँकड़ाधार है। 2 यह खंड मीिडया की भाषा-लीला से नक़ल-चेपी है. 00intro_update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:22 Page ix | ix इस सामूिहक काम में कानपुर के ही हरमंिदर िसंह ‘हमराज़’ के अलावा जगदीश िनगम और रमेश चंद िमशा ने अथक पररशम करके रे िडयो शोता-संघों के फै ले हुए समाज को एक मंच िदया, एक नेटवक्व से जोड़ा। सतर के दशक से िनकल रहे ‘िलसनस्व बुलेिटन’ में ही अिनल भाग्वव जैसे गीतमाला के अखंड शोताओं ने पहले-पहल िलखा और यहीं गीतकोश के संकलन के िलए शोताओं से योगदान माँगे गए, और जब शनै: शनै: कोश छपकर आने लगा तो उसके ्चार-्सार का माधयम भी ‘बुलेिटन’ ही बना। कु छ अपररहाय्व कारणों से जब समूह टू टा तब तक इितहास बन चुका था, या यूँ कहें िक भिवषय के धविन-इितहासकारों के िलए कम से कम एक समतल लॉिनचंग पैड तो तैयार हो ही चुका था। संकलन को शौिक़या शुर करके एक जुनून की हद तक ले जाने वाले लोगों का एक मीिडया या एक फ़ॉम्मैट से काम नहीं चलता। मशीनी ररकॉिड्संग के बदलते तौर-तरीक़ों के साथ अपने संकलन को भी उनहें अदतन करते रहना पड़ता है। िमसाल के तौर पर 73आरपीएम के ररकॉड्व को टेप में और टेप को वीसीडी, डीवीडी में या धारावािहक तौर पर हाड्व िडसक में सँजोते जाना होता है; यािन संकलन का काम उम्र के साथ बदलते माधयमों के आर-पार आवाजाही का है, माधयम-पररवत्वन का भी है, वरना पुराने माधयम में दज्व हर चीज़ कबाड़ होती चली जाएगी। नई मशीनें पुराने डेटा को पढ़ सकें , इसके िलए संकलकों को िनत नई जुगत लगानी पड़ती है और इस ्िकया में किणक या कणभंगुर मान ली गई हर चीज़ को वे लंबा जीवन देते हैं और इस तरह उनकी कणभंगुरता की पररभाषा को पलटकर रख देते हैं। िफर, अकसर उनमें औदाय्व कू ट-कू टकर भरा होता है; उनके अिभलेखागार के दरवाज़े शोधाथ्जी के िलए हमेशा खुले होते हैं, संकलन की झोली का मुँह कम से कम मुझे तो कभी बंद नहीं िमला। क़ु दरती तौर पर िवनयशील संकलक की एक और ख़ािसयत यह है िक वह अपने काम को अंितम या पूण्व नहीं मानता, इसिलए अगर आप हेमंत कु मार या िकशोर कु मार के गीतों का संकलन देखें तो कु छ पनने सादा पाएँगे, इस आमंतण और अपेका के साथ िक कु छ छू ट गया हो तो पाठक अपनी तरफ़ से जोड़ दें। िसनेमा का हर इितहासकार उनका शुकगुज़ार होगा कयोंिक िसने-सामगी को अपनी अलमाररयों में जगह देना हर सममािनत पुसतकालय अपनी हेठी मानता आया है। िसनेपितकाओं को (ज़ािहर है, पढ़कर) कू ड़े में फें क देना आम ररवायत है, जहाँ से उठाकर संकलक उनहें महफ़ू ज़ रखते आए हैं। इंटरनेट के आने से िहनदुसतान, पािकसतान और पूरी दुिनया में फै ले ऐसे िसने-्ेिमयों-सह-संकलकों की दृ्यमानता बढ़ी है, बिलक आपस में और िसनेमा को सराहने वाली नई पीढ़ी से जुड़ने के बेहतर मंच और मौक़े िमले हैं। गूगल से पूछें तो बहुत-सारी फ़ै न-साइटें और इलेक्ॉिनक मंच आपको िमल जाएँगे, और यूट्यूब पर अब तक दुल्वभ या अ्ापय मानी जाने वाली िफ़लमों की बढ़ती तादाद से िसने-इितहास के पारं पररक कै नन को पुनरीिकत करने और िलखने के तौर-तरीक़ों में आमूल-चूल बदलाव 00intro_update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:22 Page x x| तमान करने की ज़ररत तो महसूस की ही जा रही है। एक सामूिहक कम्व के तौर पर आरं भ होकर िजस तरह राके श जी का संकलन ताउम्र उनकी िज़द के चलते िवसतार पाता रहा, उस तरह की िमसालें मुझे अनय शहरों में िमलीं। आज़ादी के ज़माने में हर शखस जेलयाती नहीं था, लेिकन जो थे, उनहोंने भरसक कोिशश की लोग उनके काम से जुड़ें, उनके काम को सराहें, इसीिलए आज़ादी के पहले ही कई शहरों में फै ले मारवाड़ी लायबेरी जैसे सामुदाियक जन-पुसतकालयों का एक नेटवक्व सथािपत हो गया था, जो िशकण-संसथाओं और गाम-पंचायतों का संरकण पाकर िपछली सदी के सतर और अससी के दशक तक दूर-दराज़ तक फै लता-फू लता रहा। मुझे याद है िक मेरे गाँव में भी कम-से-कम उसकी चार-पाँच अलमाररयाँ शेष थीं। अब तो केतीय िवश्विवदालयों के बड़े पुसतकालयों के पास भी वह थाती मुि्कल से बची है, गाँवों की संपदा तो लुप्त्ाय है ही। सरकारों ने संसाधनों से हाथ खींच िलए हैं, पंचायतों और नगर िनगमों की ्ाथिमकताएँ बदल गई हैं। िजनके पास जगहें थीं, वे शहर में छोटी जगहों पर रहने को मजबूर हैं, इसिलए जो संगह थे भी, वे देखरे ख के अभाव में कमश: सड़-गल रहे हैं या नष्ट हो चुके हैं, और इसके िलए िबिटश लायबेरी जैसे अंतरराष्ीय पुसतकालयों के पास बरसों से ‘एनडेनजड्व आका्वइव काय्वकम’ चल रहे हैं।3 इसी एक काय्वकम के तहत घूमते हुए अगर हमारा साकातकार कु छ मशहूर संसथाओं के मशहूर पुसतकालयों के वत्वमान दुरवसथा से हुआ, तो शुक है िक दो-तीन िदलचसप लोग और उनके िनहायत अचछे संगहों के दश्वन भी हुए, िजससे यह पता चला िक ऐसे चुिनंदा लोगों ने संरकण का काम बहुत पहले अपने हाथ में ले िलया था। िनहायत पड़े-िलखे सरै या गाँव, िबहार, के िनवासी और िहनदी के मशहूर किव, लेखक और लोकमत समाचार से सेवा-िनवृत पतकार शी ्काश चंदायन तक़रीबन 17 साल बाद नागपुर से अपने गाँव लौटे। उनके लौटने का हमें भी बेसबी से इंतज़ार था। उनसे हरी झंडी िमलने पर मनोज मोहन और मैं जब उनके गाँव गए तो हमारी ख़ुशी का िठकाना न रहा, कयोंिक उनके पास छठे -सातवें दशक की साररका और िदनमान के अलावा बदीिवशाल िपती की कलपना, शीपत राय की कहानी (सरसवती ्ेस, इलाहाबाद) और िनहायत चमकदार काग़ज़ पर छपे चीन सिचत्र की फ़ाइलें उममीद से उमदा हालत और अचछे िमक़दार में हािसल हुई ं। तक़रीबन साल भर पहले हैदराबाद जाने के बावजूद कलपना नहीं िमल पाने का मलाल जाता रहा। कहानी का सन 1955 का एक नववषा्संक तो ऐसा िमला िजसमें ‘मैं कहानी कै से िलखता हूँ’ िवषय पर पांडेय बेचन शमा्व ‘उग’, यशपाल, अणणा भाऊ साठे , अ्क और वयंकटेश माडगूलकर के बीच िनहायत मनोरं जक पररचचा्व और उनकी कहािनयों के साथ-साथ मंटो (टोबा टेक िसंह), रिज़या सजजाद ज़हीर (िदल की आवाज़), इसमत (ननहीं-सी जान), कृ षणा सोबती (बादलों के घेरे), रांगेय राघव (गदल), वृंदावनलाल वमा्व (सत बोले मुक है), अजेय (कलाकार की 3 https://eap.bl.uk/ 00intro_update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:22 Page xi | xi मुिक), हररमोहन झा (खटर काका का आयुव्वेद ्संग), कमलेश्वर (क़सबे का एक आदमी) और बलराज साहनी (मधुर याद) जैसी िवभूितयों की रचनाएँ एक ही िजलद में, बातसवीर पाकर, घोर आहाद हुआ। इतना ही नहीं, देश-िवदेश की अनय कहािनयों के अलावा मराठी कहानी की वािष्वक समीका भी छपी है, यािन िक अंक उस दौर के अलफ़ाज़ में, सवा्संग संपूण्व था। ्काश जी से एक और सूची हािसल हुई पुसतकालय से िकताबें इ्यू कराकर ले जाने वालों की, िजसके आधार पर हम उस गाँव की पाठकीय संसकृ ित का इितहास िलख सकते हैं िक कौन-सी िकताबें िकस बारं बारता से िकन लोगों के दारा पढ़ी जा रही थीं। ज़ािहर है िक ये संगह और ऐसी साव्वजिनक जगहें िसफ़्व पुसतकालय नहीं होते थे, बिलक गाँव में िचंतन-मनन के मंच हुआ करते होंगे, जहाँ हम कलपना कर सकते हैं िक लोग शाम में रे िडयो पर समाचार भी सुना करते होंगे और सरकारी ्चार और बीबीसी की नुकतािनगारी पर ख़ुद अपने िहससे की टीका-िटपपणी भी अव्य करते होंगे, गिम्वयों में बाहर चारपाइयाँ डालकर और सिद्वयों में जलते हुए घूरे या अलाव के इद्व-िगद्व। इसी तरह अहमदाबाद जाकर नरे श दुदानी के िवशाल पितका-संगह के साथ दो-एक िदन गुज़ारना िनहायत सुखद था। आने वाले वकत में हम इन समृत-नयािसयों के रचनातमक और समयसाधय शम पर बातचीत ्सतुत करने के साथ साथ इस थाती से चीज़ों का पुनरुतपादन करते रहेंगे। 00intro_update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:22 Page xii xii | तमान पटना िसटी की नवयुवक मंडली दारा जारी 00intro_update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:22 Page xiii | xiii िनवेदन, 1932 ई. (शुिकया, ्भात कु मार) 00intro_update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:22 Page xiv xiv | तमान 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 1 कमल नयन चौबे व जयपाल िसंह मुडं ा आिदवािसयों के बीच चेतना जगाने वाले कु छ पमुख ऐितहािसक चररतों में से एक हैं। उनहोंने राष्ीय आंदोलन के दौरान, संिवधान सभा के सदसय के रप में और बाद के दौर में झारखंड पाट्टी के अधयक और सांसद के रप में लगातार आिदवासी पश की िविशषता पर बल िदया। उनहोंने आिदवािसयों की िचंताओं को अिखल भारतीय राष्वाद की रपरे खा में पूरी तरह समािहत कर देने का पुरज़ोर िवरोध िकया कयोंिक वे यह मानते थे िक ऐसी िसथित में आिदवासी पश को बड़ी आसानी से हािशए पर ढके ल िदया जाता है। जयपाल िसंह की राजनीित आिदवासी अिसमता से पेररत थी, और उनहोंने आिदवािसयों के िलए अलग पांत बनाने का न िसफ़्फ़ ज़ोरदार समथ्फ़न िकया, बि्क इसे अपनी राजनीित का बुिनयादी आधार भी बनाया। इस शोध-आलेख का लकय यह िवचार करना है िक राष्वाद की वयापक रपरे खा में हािशए के एक समूह अथा्फ़त् आिदवािसयों के अिधकारों के िलए संघष्फ़ करते हुए जयपाल िसंह ने परं परा और आधुिनकता, तथा राष्वाद और केतीय सवायतता के जिटल संबंधों को िकस पकार समझा, और उनके िलए इनके बीच के अंतिव्फ़रोधों से आगे जाने का रासता कया था? यहाँ जयपाल िसंह मुडं ा के जीवन, और उनकी राजनीितक गितिविधयों के िवशद वण्फ़न के साथ ही उनके िवचारों के कु छ पमुख ततवों का िवशे षण आजादी का अमृत महो जयपाल िं ह मुंडा और आ िवािी राजनी ि 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 2 2| िमान िकया गया है। आलेख में इस बात की जाँच-पड़ताल की गई है िक जयपाल िसंह के िवचारों और समकालीन मूल िनवासी (इंिडजेनस पीपल) िवमश्फ़ में कया सामय है, और मौजूदा दौर में आिदवािसयों की राजनीित के सदंभ्फ़ में उनके िवचारों की कया पासंिगकता है। यह आलेख पाँच भागों में बँटा हुआ है। पहले भाग में जयपाल िसंह का जीवन पररचय पसतुत िकया है, और उनके जीवन की िविवध घटनाओं का वण्फ़न िकया गया है; दूसरे भाग में जयपाल िसंह के कॉन्ेस के नेताओं के साथ उथल-पुथल भरे संबंधों और गांधीवाद की आलोचना का िवशे षण है; तीसरे भाग में जयपाल के लेखन और िवचारों में आिदवासी सवायतता के पश और भारतीय राष्वाद से उसकी अंतःि्रिया के कु छ पमुख आयामों की िववेचना की गई है; चौथे भाग में मौजूदा दौर में मूल िनवासी िवमश्फ़ के संदभ्फ़ में जयपाल िसंह के िवचारों की पासंिगकता और उनकी सीमाओं को दशा्फ़या गया है। पाँचवाँ भाग आलेख का िनषकष्फ़ पसतुत करता है। I. जयपाल िं ह मुंडा : आ िवािी हक़ के लए िम प्श त जीवन जयपाल िसंह िसफ़्फ़ एक राजनेता नहीं थे, बि्क एक सुपिसद हॉकी िखलाड़ी भी थे िजनके नेततृ व में भारत ने 1928 का ओलंिपक जीता था। इनहोंने कु छ देशी ररयासतों में एक पशासक और िशकक के रप में भी काम िकया। इसिलए ये एक ऐसे वयिकतव के रप में सामने आते हैं, जो आिदवासी अिसमता पर ज़ोर देने के साथ ही साथ आधुिनक िशका और िवकास के अनय आयामों के महतव को समझते थे। इनके पूव्फ़ िबरसा मुडं ा ने उननीसवीं सदी के आिख़री दशकों में ि्रििटश राज के िख़लाफ़ िवदोह का नेततृ व करके आिदवािसयों की आज़ादी की भावना को अिभवयक िकया था।1 िबरसा मुडं ा से पहले भी सैकड़ों आिदवासी िवदोहों ने अं्ज़े ों दारा पाकृ ितक वन संसाधनों पर क़बज़ा जमाने का डटकर िवरोध िकया था।2 जयपाल िसंह ने अपनी राजनीित के माधयम से आिदवािसयों की सवायत पकृ ित और पाकृ ितक संसाधनों पर अिधकारों के संदभ्फ़ में इनहीं मू्यों को सहेजने और बढ़ाने की कोिशश की। जयपाल िसंह का जनम ततकालीन राँची िज़ले के खूटँ ी थाना अंतग्फ़त टकरा पाहन टोली नामक गाँव में हुआ था (वत्फ़मान समय में खूटँ ी ख़ुद एक अलग िज़ला है)। इनकी वासतिवक जनमितिथ जात नहीं है िकनतु बाद में 3 जनवरी, 1903 को इनका जनमिदन मान िलया गया। इनके िपता अमर पाहन आिदवासी पुरोिहत थे, और कई बार ये अपने नाम के साथ मुडं ा भी लगाते थे। हालाँिक जयपाल का आरं िभक नाम पमोद पाहन था, लेिकन बाद में यह बदलकर 1 िबरसा मुडं ा के बारे में जानकारी के िलए देखें कु मार सुरेश िसंह (1983) और महाशेता देवी (1998). यह भी ग़ौरतलब है िक जयपाल िसंह अकसर ‘आिदबासी’ शबद का पयोग करते थे. लेिकन बाद में ‘आिदवासी’ शबद ही पचिलत हो गया. िहंदी में उन पर िलखी पुसतकों में भी इसी शबद का पयोग है. एकरपता क़ायम रखने के िलए इस आलेख में भी आिदवासी शबद का ही इसतेमाल िकया है. 2 इस संदभ्फ़ में जानकारी के िलए देख,ें के . एस. िसंह (सं.) (1982); नंिदनी सुंदर (1997) : 135-55. 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 3 जयपाल िं ह मुंडा और आ दवािी राजनी त | 3 जयपाल िसंह कर िदया गया।3 जयपाल िसंह की पाँच बहनें और (इनके अलावा) दो भाई थे। इनकी आरं िभक िशका टकरा के पाथिमक सकू ल में हुई। 1910 में जयपाल के िपता ने इनका दािख़ला राँची के संत पॉल सकू ल में करवा िदया। 1910 से 1919 तक उनहोंने इस सकू ल में िशका पाप की।4 संत पॉल सकू ल में जयपाल िसंह की पहचान एक मेहनती और होनहार छात की थी और इस सकू ल के िपंिसपल फ़ादर कै नन कॉस्ेव उनहें काफ़ी पसंद करते थे। 1919 में सकू ल के िपंिसपल के पद से अवकाश लेकर वापस अपने देश इंगलैणड जाने लगे, तो उनहोंने जयपाल िसंह को भी अपने साथ ले जाने का फ़ै सला िकया। उनहोंने जयपाल को ईसाई धम्फ़ में दीिकत िकया। चूिँ क कै नन उनहें पादरी बनाना चाहते थे, इसिलए 1920 में उनहें इस संदभ्फ़ में पिशकण हािसल करने के िलए ऑगसटीन कॉलेज कें टबरी भेजा गया। हालाँिक ख़ुद जयपाल की रुिच इस काम में नहीं थी, अतः दो वष्फ़ बाद उनहें ऑकसफ़ड्फ़ के सेंट जॉन कॉलेज में दािख़ला िदलाया गया और उनहें यहाँ 40 पाउंड की सकॉलरिशप भी िमली और उनहोंने यहीं से बी.ए. की िड्ी हािसल की। जयपाल िसंह की खेल-कू द में काफ़ी रुिच थी और उनहोंने हॉकी में काफ़ी महारत हािसल कर ली थी। हॉकी िखलाड़ी के रप में वे न िसफ़्फ़ भारतीय टीम में चुने गये, बि्क 1928 के ऐमसटरडम ओलंिपक में उनहोंने भारतीय टीम की कपानी भी की। ओलंिपक में हॉकी को 1908 में शािमल िकया गया था और भारतीय टीम ने सबसे पहले 1928 के ओलंिपक खेलों में ही भागीदारी की थी। इस ओलंिपक में भारतीय हॉकी टीम ने सवण्फ़ पदक जीता था, हालाँिक फ़ाइनल मैच में जयपाल िसंह नहीं खेले थे। 1932 लॉस एंिज्स (अमेररका) ओलंिपक में भी उनहें िफर से भारतीय हॉकी टीम का कपान बनाए जाने की चचा्फ़ थी, लेिकन कं पनी काय्यों से छु टी न िमल पाने कारण वे हॉकी टीम में शािमल नहीं हो सके ।5 जयपाल िसंह की महतवाकांका आईसीएस (इंिडयन िसिवल सिव्फ़सेज या भारतीय पशासिनक सेवा) में जाने की भी थी। वे 1928 के ओलंिपक के पहले इसके िलए चयिनत भी हो चुके थे। लेिकन ओलंिपक से वापस ऑकसफ़ड्फ़ आने के बाद उनके पोबेशन की अविध यह कहते हुए एक वष्फ़ बढ़ा दी गई िक वे छु टी िलए बग़ैर ओलंिपक में भाग लेने चले गये थे। इस वयवहार से कुबध होकर 3 यह भी ग़ौरतलब है िक जयपाल िसंह ने राजनीित में आने से पहले कभी भी अपने नाम के साथ ‘मुडं ा’ शबद नहीं जोड़ा. देख,ें अिशनी कु मार पंकज (2015) : 42; शायद उनहें इस बात का अहसास था िक तमाम योगयताओं के बावजूद आिदवासी के रप में सामने आने पर उनके साथ समान वयवहार नहीं िकया जाएगा तथा हीन और िपछड़ा मानते हुए उनकी उपेका की जाएगी. पसतुत शोध आलेख में अमूमन जयपाल िसंह और जयपाल िसंह मुडं ा – दोनों का ही पयोग िकया गया है. 4 हालाँिक यह सपष नहीं है िक इनका नाम कै से बदला लेिकन यह जनशुित है िक उनके पररवार में आने वाले एक पंिडत ने उनका नाम पमोद से बदलकर जयपाल रख िदया. बलबीर दत (2017) : 27-30. 5 राजनीित में आने के बावजूद जयपाल िसंह की खेलों में रुिच िनरं तर बनी रही. वे 1951 से कई वष्यों तक अिखल भारतीय धयानचंद हॉकी टू ना्फ़मटें के अधयक रहे. यह भी माना जाता है िक उनकी पिसिद ने वत्फ़मान झारखंड केत में बहुत युवक/युवितयों को खेलों, िवशेष रप से हॉकी की ओर आकृ ष िकया. इसी कारण जयपाल िसंह के बाद इस केत से पुरुष और मिहला हॉकी के कई पिसद िखलाड़ी हुए. राँची में जयपाल िसंह के नाम पर जयपाल िसंह सटेिडयम की सथापना की गई है. देखें बलबीर दत (2017) : 43. 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 4 4| िमान जयपाल िसंह ने आईसीएस से इसतीफ़ा दे िदया।6 इसके बाद 1928 के अंत में उनहें ‘रॉयल डच शेल ्ुप’ नामक एक िवदेश वयापाररक कं पनी में मक्कें टाइल अिससटेंट के पद पर िनयुक िकया गया, जो काफ़ी पितषा का पद था। 1934 से 1937 तक इनहोंने पि्चिमी अफीक़ी देश गो्ड कोसट (वत्फ़मान घाना) के अचीमोटा कॉलेज में वािणजय िशकक के पद पर काम िकया। जयपाल िसंह की ये दोनों ही िनयुिकयाँ अपने आप में उपलिबध थीं कयोंिक उनके पहले रॉयल डच शेल ्ुप ने इतने बड़े पद पर िकसी भारतीय को िनयुक नहीं िकया था, और उनसे पहले गो्ड कोसट के अचीमोटा कॉलेज में वािणजय के िशकक के रप में अमूमन िसफ़्फ़ अं्ेज़ िशककों की ही िनयुिक होती रही थी। अठारह वष्यों तक िवदेश में रहने के बाद 1937 में जयपाल िसंह भारत आए, और उनहें रायपुर (वत्फ़मान छतीसगढ़ की राजधानी) के राजकु मार कॉलेज में वररष सहायक पाधयापक के पद पर िनयुक िकया गया। इसके कु छ समय बाद वे बीकानेर ररयासत (राजसथान) में राजसव आयुक तथा काय्फ़वाहक कोलोनाइज़ेशन िमिनसटर के पद पर िनयुक हुए।7 ग़ौरतलब है िक जयपाल िसंह ने दो बार शादी की। पहली शादी कॉन्ेस के पथम अिधवेशन के अधयक वयोमेश चंद बनज्टी की नितनी तारा मजूमदार के साथ 1931 में दािज्फ़िलंग में हुई थी। पहली पतनी से जयपाल िसंह को तीन संतानें हुई ं। लेिकन कई मसलों पर अनबन होने के कारण दोनों के बीच तलाक हो गया। जयपाल िसंह ने 1954 में दूसरी शादी जहाँआरा से की। जहाँआरा से भी जयपाल िसंह को तीन संतानें हुई ं।8 इस बीच 1938 में जयपाल िसंह राँची आए, और वहाँ उनसे इस केत के आिदवािसयों को राजनीितक रप से जागरक बनाने का काम करने वाले संगठन आिदवासी सभा के नेता िमले, और उनसे आिदवासी महासभा 9 में शािमल होकर आिदवािसयों के हक़ की आवाज़ उठाने का अनुरोध िकया।10 आिदवासी महासभा दारा जयपाल िसंह को आमंितत करने की 6 बलबीर दत (2017) : 45; अिशनी कु मार पंकज (2015) : 38-41. हालाँिक बलबीर दत जयपाल िसंह के िवरोिधयों दारा फै लाई गई इस बात का भी उ्लेख करते हैं िक उनके पोबेशन की अविध इसिलए बढ़ाई गई थी कयोंिक वे लंदन के नगरीय ्ेन में िबना िटकट के याता करते पाये गये थे. 1963 में कॉन्ेस के साथ झारखंड पाट्टी का िवलय हो जाने के बाद उनके कु छ िवरोिधयों ने उनके िख़लाफ़ परचा िनकाला था, िजसमें इस तथय का भी उ्लेख िकया गया था. देख,ें बलबीर दत (2017) : 46. 7 अिशनी कु मार पंकज (2015) : 46-48. 8 बलबीर दत (2017) : 246-53. 9 आिदवासी महासभा की सथापना के बारे में सन 1941 में एम. डी. ितगगा ने नागपुरी में छोटानागपुर के पुती शीष्फ़क से एक पुसतक िलखी जो गोससनर इवैंजेिलकल लूथरन पेस से छपी थी. इसमें यह बताया गया िक आिदवािसयों के राजनीितक और आिथ्फ़क पतन के कारण 1868 में एक सभा या संगठन का गठन हुआ. उसका आरं िभक नाम छोटानागपुर ि्रिि्चियन एसोिसएशन था. 1915 आते-आते यह सभा काफ़ी मज़बूत हो गयी, और अब उसका नाम छोटानागपुर उननित सभा रख िदया गया. आिख़रकार, 1938 में इसका नाम आिदवासी महासभा रख िदया गया. बलबीर दत (2017) : 114-15.; यह भी ग़ौरतलब है िक 1931 में छोटानागपुर उननित समाज के नेताओं में इस क़दर मतभेद हुआ िक कई अलग-अलग संगठन बन गये. 1935 के भारत शासन अिधिनयम के तहत हुए चुनावों में जब िविभनन गुटों के उममीदवारों को हार का सामना करना पड़ा, तो 1938 में इनहोंने साथ आकर ‘अिखल भारतीय आिदवासी महासभा’ (िजसे अमूमन आिदवासी महासभा के नाम से ही जाना गया) का गठन िकया. देख,ें अिशनी कु मार पंकज (2015) : 54. 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 5 जयपाल िं ह मुंडा और आ दवािी राजनी त | 5 एक पमुख वजह यह थी िक उनहोंने ऑकसफ़ड्फ़ से िशका ्हण की थी, राष्ीय सतर पर लोग उनहें जानते थे, वे अं्ेज़ी भाषा में भी पारं गत थे तथा अं्ेज़ों और कॉन्ेस नेताओं के समक आिदवािसयों की माँगों को सामने रखने में समथ्फ़ थे। जयपाल िसंह के पास कॉन्ेस में शािमल होकर काम करने का पसताव भी था, लेिकन िबहार के गवन्फ़र से बातचीत के बाद उनहोंने आिदवासी सभा के साथ जुड़ने का फ़ै सला िकया और इस तरह उनके राजनीितक जीवन की शुरुआत हुई।11 वे 1939 में आिदवासी महासभा में शािमल हुए और उनहोंने आिदवासी सकम सापािहक पत का पकाशन भी आरं भ िकया।12 जयपाल िसंह और िबहार कॉन्ेस के नेताओं के बीच राजनीितक होड़ थी। जयपाल िसंह आिदवािसयों को जयादा बेहतर पितिनिधतव और अलग पांत देने के मसले पर कॉन्ेस के रवैये से नाखुश थे, और उनहें यह लगता था िक िवशेष रप से िबहार कॉन्ेस के नेता आिदवािसयों के िहतों की जानबूझकर अवहेलना कर रहे हैं।13 इसी दौर में मुिसलम लीग, िवशेष रप से बंगाल मुिसलम लीग के नेताओं की आिदवासी महासभा के साथ िनकटता बढ़ी। इनहोंने जयपाल िसंह और आिदवासी महासभा को अपने साथ जोड़ने का पयास िकया। जयपाल िसंह ने अपनी माँगों के पित कॉन्ेस की उदासीनता के कारण और ि्रििटश सरकार 10 बलबीर दत (2017) : 46-7. बलबीर दत के अनुसार, जयपाल िसंह दीनबंधु एंड्रूज की िचटी लेकर पटना में डॉ. राजेंद पसाद से िमले थे, और उनहोंने उनहें कॉन्ेस पाट्टी के काम में पूरा समय देने के िलए 300 रुपये देने का पसताव िदया (कॉन्ेस उस समय कु छ ऐसे काय्फ़कता्फ़ओ ं को मानदेय देती थी, जो अपना पूरा समय पाट्टी के काम को देते थे). लेिकन पसाद से िमलने के बाद जयपाल िसंह ि्रििटश गवन्फ़र सर मॉररस हैलेट से िमलें, और उनके सुझाव को मानते हुए उनहोंने राँची में आिदवासी महासभा के माधयम से आिदवािसयों को संगिठत करने का फ़ै सला िकया. दत यह दलील देते हैं िक यह मॉररस हैलेट दारा जयपाल िसंह को राष्ीय आंदोलन से दूर रखने और आिदवािसयों को इस आंदोलन से दूर करने का षड् यंत था. दत इसमें अं्ेज़ सरकार दारा जयपाल िसंह को हर पकार की सहायता देने के कारक को भी महतवपूण्फ़ मानते हैं. देखें वही : 48-51. 12 अिशनी कु मार पंकज (2015) : 17. 13 शोध-आलेख के दूसरे भाग में इस पहलू की पड़ताल की गई है. 11 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 6 6| िमान को अपनी पासंिगकता िदखाने के िलए मुिसलम लीग से अपनी िनकटता बढ़ाई िकनतु 1946 के बाद वे पूरी तरह मुिसलम लीग से दूर हो गये।14 हालाँिक जयपाल िसंह 1946 में पांतीय असेंबली के चुनाव में परािजत हो गये थे, लेिकन वे उसी साल संिवधान सभा के िलए चुन िलए गये थे।15 उनहोंने भारतीय संिवधान सभा के सदसय की महती भूिमका िनभाई और वहाँ आिदवािसयों की आवाज़ को मुखर रप से अिभवयक िकया। संिवधान सभा में अपनी वकृ ता से न िसफ़्फ़ अनय लोगों का धयान अपनी ओर खींचा, बि्क आिदवािसयों के मुदों को भी मुखरता से सामने रखा। उनहोंने ‘मुखयधारा’ के राष्ीय आंदोलन की आिदवािसयों की समझ को पशांिकत िकया, िजसमें यह माना जाता था िक आिदवासी ‘िपछड़े’ हैं, और उनहें मुखयधारा में लेकर आना है। उनहोंने संिवधान सभा में यह कहा िक आिदवािसयों को अमूमन जंगली कहा जाता है, लेिकन उनहें जंगली होने पर ऩझ़्र् है। 19 िदसमबर, 1946 को संिवधान सभा में अपने संबोधन में उनहोंने यह कहा िक : मैं उन लाखों नादान और अनजान लोगों की ओर से बोलने के िलए खड़ा हुआ हू,ँ जो आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले योदा हैं। भले ही दुिनया उनकी क़द नहीं करे , लेिकन वे भारत के मूल िनवासी हैं। इनहें िपछड़े क़बीले, आिदम क़बीले, जरायम पेशा क़बीले, आिद न जाने िकतने नामों से पुकारा जाता है। सर, मुझे इस बात का फ़ख्र है िक मैं जंगली हू.ँ ..हम लोग जो जंगलों में रहते हैं, इस बात को बख़ूबी समझते हैं िक संिवधान के लकय और उदेशय संबंधी पसताव का अथ्फ़ कया है? मैं तीन करोड़ से अिधक आिदवािसयों की ओर से इस पसताव का समथ्फ़न करता हू।ँ 16 रामचंद गुहा ने यह रे खांिकत िकया है िक संिवधान में आिदवािसयों (अनुसिू चत जनजाितयों) को दिलतों (अनुसिू चत जाितयों) की तरह आरकण का अिधकार िदलाने में जयपाल िसंह ने महतवपूण्फ़ भूिमका िनभाई। संिवधान सभा में अगसत 1947 में अ्पसंखयक अिधकारों से संबंिधत पहली रपट को साव्फ़जिनक कर िदया गया था। इसमें िसफ़्फ़ अछू तों के िलए आरकण का पावधान िकया गया था। जयपाल िसंह ने संिवधान सभा में इस बात पर गहरा अफ़सोस जताया िक ‘सबसे जयादा ज़ररतमंद समूह आिदवासी को तसवीर से पूरी तरह बाहर रखा गया है।’17 संिवधान सभा ने पिसद समाज सुधारक ए. वी. ठककर के नेततृ व में जनजातीय अिधकारों के िलए एक उप-सिमित का गठन िकया था। इस उप-सिमित की रपट, और इसके 14 शोध-आलेख के तीसरे भाग में इस पहलू का िवसतार से िवशे षण िकया गया है. संिवधान सभा का चुनाव ि्रििटश पांतों की िवधानसभाओं दारा िकया गया था. ये चुनाव वयसक मतािधकार पर आधाररत चुनाव नहीं थे. आम जनता के बजाय िसफ़्फ़ कु छ िविशष वग्यों, संपित धारकों, िड्ी धारकों और आयकर देने वालों को ही मतदान का अिधकार पाप था. 9 िदसमबर, 1946 को संिवधान सभा का िविधवत गठन हुआ और 26 नवमबर, 1949 को इसकी अंितम बैठक हुई. संिवधान सभा को बाद में असथायी लोकसभा का रप दे िदया गया. देख,ें बलबीर दत (2017) : 110. 16 वही : 111-112. 17 सीएडी, वॉ्यूम 5 : 210; रामचंद गुहा (2007) : 115 पर उदृत. 15 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 7 जयपाल िं ह मुंडा और आ दवािी राजनी त | 7 सदसय के रप में जयपाल के शबदों ने संिवधान सभा उन्होंने आददवादसयों की को आिदवािसयों की िसथित के बारे में जयादा संवेदनशील बनाया। इसने िवधाियका और सरकारी दचंताओं को अदखल नौकररयों में अनुसिू चत जनजाितयों के िलए सीटों को भारतीय राष्ट्रवाद की आरिकत करने का पावधान करवाने में महतवपूण्फ़ रूपरेखा में पूरी तरह भूिमका िनभाई।18 समादहत कर देने का जयपाल िसंह ने उन आिदवासी भाषाओं का पुरज़ोर दवरोध दकया संरकण करने और उनका संवद्फ़न करने पर बल क्योंदक वे यह मानते थे दक िदया िजनके पास अपनी िलिप नहीं थी। संिवधान सभा में 8 िदसमबर, 1948 को मूल अिधकारों के ऐसी दस्थदत में आददवासी अंतग्फ़त भाषा, िलिप और संसकृ ित के संरकण पर प्रश्न को बड़ी आसानी से बहस के समय उनहोंने मुंडारी जैसी आिदवासी हादशए पर ढकेल ददया भाषाओं के संरकण पर भी ज़ोर िदया।19 जयपाल जाता है। जयपाल दसंह की िसंह ने राजनीितक संरकण पर बहस के समय इस राजनीदत आददवासी बात पर बल िदया िक आिदवािसयों की जमीनों की रका के िलए बने मौजूदा क़ानूनों को क़ायम रखा अदस्मता से प्रेदरत थी, और जाए, तथा ज़ररत पड़ने पर इन क़ानूनों को और उन्होंने आददवादसयों के जयादा मज़बूत बनाया जाए।20 उनहोंने िवधाियका में दलए अलग प्रांत बनाने का आिदवािसयों के िलए सीटों को आरिकत करने का न दसफ़र् ज़ोरदार समथर्न समथ्फ़न िकया, और यह कहा िक देशी ररयासतों में दकया, बदल्क इसे अपनी भी आिदवािसयों का उिचत पितिनिधतव सुिनि्चित राजनीदत का बुदनयादी िकया जाना चािहए। उनहोंने आरकण का िवरोध करने वालों को ‘अलोकतांितक’ क़रार देते हुए यह आधार भी बनाया। कहा िक आिदवािसयों को उनके जंगल के जीवन से आने को बाधय करने हेतु आरकण आवशयक है।21 1 जनवरी, 1948 में हुए खरसावाँ नरसंहार ने जयपाल िसंह की सोच पर गहरी छाप डाली। इस िदन खरसावाँ के सापािहक बाज़ार में खरसावाँ को ओिडशा में शािमल िकये जाने के िख़लाफ़ एक िवशाल जुलसू का आयोजन िकया गया था। इस जुलसू के दौरान पुिलस दारा की गई गोलीबारी में बड़ी संखया में लोग मारे गये। सोशिलसट पाट्टी के नेता राममनोहर 18 रामचंद गुहा (2007) : 116-17. बलबीर दत (2017) : 112. 20 वही : 112. 21 वही : 112-113; संिवधान सभा में जयपाल िसंह की भूिमका के िवसतृत िवशे षण के िलए देखें संतोष कीरो (2018) : 63108. 19 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 8 8| िमान लोिहया ने इसे दूसरे जिलयाँवाला बाग़ की संजा दी।22 इस घटना्रिम ने जयपाल िसंह के इस िवशास को मज़बूती पदान की िक झारखंड केत का आम आिदवासी अलग-अलग राजयों में िवभािजत होने के सथान पर एकजुट रहना चाहता है। जयपाल िसंह ने एक पृथक झारखंड राजय की माँग को जयादा मज़बूती से आगे बढ़ाने के िलए 1 जनवरी, 1950 को झारखंड पाट्टी की सथापना की।23 इसमें ग़ैर-आिदवािसयों को भी शािमल होने के िलए आमंितत िकया गया। जयपाल िसंह ने यह कहा िक ‘आज हम अपनी पाट्टी के दार ग़ैर-आिदवािसयों के िलए पूण्फ़ रप से खोल रहे हैं। झारखंड पाट्टी, झारखंड केत में िनवास करने वाले पतयेक आिदवासी तथा ग़ैर-आिदवासी की अपनी एक राजनीितक संसथा है।’24 यह फ़ै सला िकया गया िक आिदवासी महासभा िसफ़्फ़ सामािजक और सांसकृ ितक गितिविधयों तक सीिमत रहेगी।25 1952 के आम चुनावों के पहले 4 जून, 1951 को राँची में एक जनसभा को संबोिधत करते हुए जयपकाश नारायण ने झारखंड पाट्टी के नेताओं का आहान िकया िक वे सोशिलसट पाट्टी के साथ चुनावी गठजोड़ करें , लेिकन जयपाल िसंह ने इस िदशा में कोई रुिच नहीं िदखाई। िनि्चित रप से, यिद इन दोनों दलों में गठजोड़ हो जाता तो िबहार में कॉन्ेस को ख़ासी चुनौती का सामना करना पड़ता।26 1952 में इनकी पाट्टी को िबहार िवधानसभा में 33 सीटों पर जीत िमली और यह िबहार िवधानसभा में मुखय िवपकी दल बन गई। इसी तरह, खूटँ ी लोकसभा केत में जयपाल िसंह को कु ल 61 पितशत वोट िमले और उनके िनकटतम कॉन्ेस उममीदवार को 32 पितशत वोट ही िमले।27 1952 में, जयपाल िसंह ने एक बड़े ज़मींदार कामाखया नारायण िसंह को अपनी पाट्टी से राजयसभा के िलए िटकट िदया। इसके चलते झारखंड पाट्टी के भीतर और बाहर जयपाल िसंह की आलोचना हुई कयोंिक कामाखया नारायण िसंह का झारखंड पाट्टी के उदेशयों या लकयों से कोई लेना-देना नहीं था; इसके अलावा, जयपाल िसंह ग़ैर-आिदवािसयों को िदकू (या बाहरी) तथा आिदवािसयों का शोषणकता्फ़ घोिषत करते थे, ऐसे में एक ग़ैर-आिदवासी बड़े ज़मींदार को राजयसभा भेजने का उनका फ़ै सला उनकी पाट्टी के काय्फ़कता्फ़ओ ं और अनय लोगों की समझ से परे था। यह भी कहा गया िक इसके िलए कामाखया नारायण िसंह ने जयपाल िसंह की झारखंड पाट्टी को बड़ी आिथ्फ़क सहायता भी उपलबध कराई थी।28 22 संतोष कीरो (2018) : 109. झारखंड पाट्टी का सथापना सममेलन जमशेदपुर िसथत करमडीह मैदान में 31 िदसमबर, 1949 से 1 जनवरी, 1950 को हुआ था. देखें बलबीर दत (2017) : 117. 24 अिशनी कु मार पंकज (2015) : 72; शैलेनद महतो (2011) : 148. 25 बलबीर दत (2017) : 117. 26 वही : 118-19. 27 वही : 127. 28 वही : 123. 23 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 9 जयपाल िं ह मुंडा और आ दवािी राजनी त | 9 जयपाल िसंह के नेततृ व में झारखंड पाट्टी दिकण िबहार के इलाक़े को एक पृथक राजय बनाने की माँग रखी थी (असल में साव्फ़जिनक जीवन में पवेश के बाद जयपाल िसंह ने हमेशा ही इस माँग को ज़ोर-शोर से उठाया)। 1953 में के नद सरकार ने फ़ज़ल अली के नेततृ व में राजय पुनग्फ़ठन आयोग बनाया, िजसमें उनके अितररक दो अनय सदसय के . एम. पिणककर और हृदयनाथ कुं ज़र थे। फ़रवरी 1955 में जब राजय पुनग्फ़ठन आयोग की टीम राँची पहुचँ ी तो झारखंड पाट्टी का एक पितिनिधमंडल भी उनसे िमला और झारखंड राजय बनाने के िलए जापन सौंपा। उ्लेखनीय बात यह है िक इस जापन में िजस झारखंड राजय की माँग की गई, उसमें िबहार के छोटानागपुर और संथाल परगना केत के अलावा पड़ोसी राजय मधय पदेश, ओिडशा और पि्चिम बंगाल राजय के आिदवासी केतों को सिममिलत िकया गया।29 िनि्चित रप से, झारखंड पाट्टी की यह माँग एक वृहद आिदवासी राजय की माँग थी। हालाँिक फ़ज़ल अली आयोग ने इस माँग को सवीकार नहीं िकया, और यह दलील दी िक िबहार के अनय राजनीितक दल इस माँग से सहमत नहीं हैं, और दिकणी िबहार को एक अलग पांत का दजा्फ़ देने से िबहार की अथ्फ़वयवसथा पर अतयंत नकारातमक पभाव पड़ेगा।30 तीसरे लोकसभा चुनावों के बाद जयपाल िसंह ने अपनी पाट्टी का कॉन्ेस में िवलय कर िलया कयोंिक उनहें लगा िक वे कॉन्ेस में शािमल होकर आिदवािसयों के िलए एक अलग राजय हािसल कर सकते हैं।31 लेिकन उनहें इसमें कामयाबी नहीं िमली। इससे दुखी होकर माच्फ़ 1970 में उनहोंने कॉन्ेस से 29 जयपाल दसंह ने एक पृथक झारखंड राज्य की माँग को ज़्यादा मज़बूती से आगे बढ़ाने के दलए 1 जनवरी, 1950 को झारखंड पाटी की स्थापना की। इसमें ग़ैरआददवादसयों को भी शादमल होने के दलए आमंदत्रत दकया गया। वही : 135. बलबीर दत यह तक्फ़ देते हैं िक जयपाल िसंह ने फ़ज़ल अली आयोग के सदसयों से ख़ुद बात करने की ज़हमत नहीं उठायी कयोंिक उनका आयोग एक सदसय के . एम. पिणककर से छतीस का आँकड़ा था, और शायद जयपाल िसंह ख़ुद आयोग से िमलते तो उनहें झारखंड की माँग की पासंिगकता को बेहतर तरीक़े से समझा सकते थे. देखें बलबीर दत (2017) : 135-36; बहरहाल, अिशनी कु मार पंकज का यह मानना है िक जब राजय पुनग्फ़ठन आयोग राँची आया तो शीकृ षण िसंह, कृ षण व्लभ सहाय और िवनोदानंद झा ने िमलकर जयपाल िसंह को यह ग़लत सूचना दे दी िक उनहें पधानमंती से झारखंड के गठन के बारे में चचा्फ़ करने के िलए िद्ली जाना है. िद्ली में दो िदन तक रुकने के बाद भी उनकी पधानमंती से मुलाक़ात नहीं हुई और वे राजय पुनग्फ़ठन आयोग से भी नहीं िमल पाए. देखें अिशनी कु मार पंकज (2015) : 77; साथ ही देख,ें शैलेनद महतो (2011) : 164. 31 आलेख के अगले भाग में कॉन्ेस िवलय से संबंिधत घटना्रिम की िववेचना की गई है. 30 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 10 10 | िमान अलग होकर िफर से झारखंड पाट्टी को सुगिठत करने और झारखंड राजय के िलए आंदोलन करने का फ़ै सला िकया। लेिकन जयपाल िसंह झारखंड आंदोलन को आगे बढ़ाने के अपने उदेशय को पूरा नहीं कर पाए और 20 माच्फ़, 1970 को िद्ली िसथत िनवास सथान में उनका देहांत हो गया। उनकी मृतयु का कारण सेरे्रिल हेमरे ज (मिसतषक में अतयिधक रक-साव) था। अगले िदन उनके पैतक ृ गाँव में उनका दाह संसकार कर िदया गया। जयपाल िसंह पहले चुनावों से लेकर अपनी मृतयु तक लोकसभा के सदसय रहे, और उनहोंने पहले आिदवासी महासभा और िफर झारखंड पाट्टी के माधयम से आिदवािसयों को उनके हक़ों के बारे जागरक करने और सता की दहलीज़ तक उनकी माँगों को पहुचँ ाने का काय्फ़ िकया। उनके समकालीन िविभनन दलों के नेताओं ने उनके इस योगदान को सवीकार िकया।32 आिदवािसयों के अिधकारों के िलए अपने लगातार संघष्फ़ के कारण ही ये उनके बीच ‘मरङ गोमके ’ या सव्वोचच (महान) नेता के रप में पिसद हुए। II. कॉन ि े और गांधीवािी िर्शन की आलोचना : आ िवािी के त वैक क राजनी त और चं तन जब जयपाल िसंह राजनीित में सि्रिय हुए, उस समय देश में औपिनवेिशक शासन के िख़लाफ़ आंदोलन चल रहा था, और भारतीय राष्ीय कॉन्ेस उस आंदोलन के मुखय मंच की भूिमका अदा कर रही थी। लेिकन जयपाल िसंह का कॉन्ेस के साथ हमेशा ही काफ़ी जिटल संबंध रहा। आज़ादी के आंदोलन के दौरान जयपाल िसंह का कॉन्ेस नेताओं, िवशेषकर िबहार कॉन्ेस के नेताओं के साथ छतीस का आँकड़ा रहा कयोंिक जहाँ जयपाल िसंह अलग झारखंड राजय के िलए पितबद थे, वहीं िबहार कॉन्ेस के नेता िबहार के िवभाजन के सखत िख़लाफ़ थे। जयपाल िसंह 1963 में कॉन्ेस में शािमल हुए लेिकन वे अपने मूल लकय अथा्फ़त् झारखंड राजय के िनमा्फ़ण को हािसल करने में नाकाम रहे, और राजनीितक पद देने के मामले में भी कॉन्ेस ने जयपाल िसंह को कोई ख़ास तववजो नहीं दी। अपने राजनीितक जीवन के आरं भ में ही जयपाल िसंह ने कॉन्ेस की तीखी आलोचना की, और उनहोंने झारखंड में बाहरी लोगों (ग़ैर-आिदवासी, िजनहें जयपाल िसंह ने ‘िदकू ’ कहा) के बढ़ते वच्फ़सव का मुदा उठाया। मसलन, उनहोंने िटसको (टाटा आयरन ऐंड सटील कं पनी) के अिधकाररयों की यह कहते हुए आलोचना की िक उनहोंने िबहार सरकार के आदेश से महतवपूण्फ़ पदों पर ग़ैर-आिदवासी अिधकाररयों को िनयुक कर िदया है। कई सभाओं में उनहोंने यह दावा भी िकया िक उनहें (1937 में गिठत) कॉन्ेस मंितमंडल में मंती पद की पेशकश की गई थी, िजसे उनहोंने ठु करा िदया।33 जून 1939 में जयपाल िसंह एक पितिनिधमंडल लेकर राजय के मुखयमंती डॉ. शीकृ षण िसंह से िमले, लेिकन उनहें यह लगा 32 33 बलबीर दत (2017) : 199. वही : 54. 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 11 जयपाल िं ह मुंडा और आ दवािी राजनी त | 11 िक मुखयमंती आिदवािसयों की समसयाओं को लेकर गंभीर नहीं हैं।34 ग़ौरतलब है िक जयपाल िसंह दारा कॉन्ेस के पसताव को ठु कराने, और उनके दारा िबहार के एक अं्ेज़ गवन्फ़र की सलाह पर आिदवािसयों के िहतों की राजनीित आरं भ करने को कॉन्ेस नेताओं ने अं्ेज़ों की ‘फू ट डालो और राज करो’ की नीित का सहायक बनने के रप में देखा। इसिलए िबहार कॉन्ेस के नेताओं ने जयपाल िसंह के संगठन और उसके पभाव को कमज़ोर करने का पयास िकया। 1939 में जयपाल िसंह और राजेंद पसाद के बीच हुए पताचार से कु छ रोचक बातें सामने आती हैं। आिदवासी महासभा का अधयक बनने के बाद 14 जून, 1939 को राजेंद पसाद को िलखे पत में जयपाल िसंह ने यह िलखा िक ‘जब मैं राँची में आपसे िमला था तो मैंने आपके सामने आिदवासी सभा के लकयों और उदेशयों को रखा था। मैं आपको यह आशसत करना चाहता था िक आिदवासी सभा के लकय और भारतीय राष्ीय कॉन्ेस के िसदांत में समरसता है। छोटानागपुर और संथाल परगना के आिदवासी और ग़ैर-आिदवासी सभी लोग संपणू ्फ़ भारत और अपने गृह केत के िलए पूण्फ़ सवराज चाहते हैं।’ राजेंद पसाद ने 3 जुलाई, 1939 को इस पत का जवाब िदया, िजसमें अनय बातों के अलावा उनहोंने यह भी िलखा िक ‘आिदवासी सभा ने कॉन्ेस के उममीदवारों के िख़लाफ़ अपने उममीदवारों को उतारने का फ़ै सला िकया, ऐसे में मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ िक यह भारतीय राष्ीय कॉन्ेस के साथ समरसता का दावा कै से कर सकती है।’35 आिदवासी महासभा के भीतर ईसाई आिदवासी और ग़ैर-ईसाई आिदवासी का सवाल पैदा हुआ। अिशनी कु मार पंकज जैसे कु छ िवदान यह मानते हैं िक इसके पीछे कॉन्ेस के िबहार के नेताओं की महतवपूण्फ़ भूिमका रही। ईसाई और ग़ैर-ईसाई आिदवासी का िववाद होने के कारण आिदवासी महासभा के एक वररष सदसय ठे बले उराँव ने ‘सनातन आिदवासी महासभा’ नामक संगठन के सथापना की घोषणा की और यह दावा िकया िक यह ग़ैर-ईसाई आिदवािसयों का संगठन है।36 1940 में कॉन्ेस का वािष्फ़क अिधवेशन 17-19 राँची के 34 वही : 56; जयपाल िसंह ने 24 मई, 1939 को राजेंद पसाद को यह िलखा िक ‘मैंने साव्फ़जिनक रप से बार-बार यह घोषणा की है िक भारतीय राष्ीय कॉन्ेस दुखद रप से िपछड़े केतों के पित अपने कत्फ़वयों को पूरा करने में नाकाम रही है. इसने इन केतों की उपेका की है. इसने शासन वयवसथा में इनहें कोई महतव नहीं िदया है, और इस तरह इसने सवराज, सतय और अिहंसा के बुिनयादी िसदांतों का उ्लंघन िकया है. हम सभी पूण्फ़ सवराज चाहते हैं. (लेिकन) िबहार सरकार आिदवािसयों के आतम िनण्फ़यों को नष करने के िलए हर कदम उठा रही है.’ यह पत वा्मीकी चौधरी दारा संपािदत राजेंद पसाद के पतों और अनय दसतावेज़ों के संकलन में शािमल है. देखें वा्मीकी चौधरी (1984) : 75. 35 जयपाल िसंह और राजेंद पसाद दोनों के ही पत वा्मीकी चौधरी दारा संपािदत राजेंद पसाद के पतों और अनय दसतावेज़ों के संकलन से िलए गये हैं. िवसतार के िलए देखें वा्मीकी चौधरी (1984) : 128; 142. 36 अिशनी कु मार पंकज (2015) : 62; कॉन्ेस के भीतर जयपाल िसंह के बढ़ते राजनीितक क़द को लेकर चचा्फ़ हो रही थी. कॉन्ेस नेताओं के भीतर जयपाल िसंह दारा कॉन्ेस के साथ काम करने के पसताव को ठु कराने को लेकर नाराज़गी भी थी. इस संदभ्फ़ में अिशनी कु मार पंकज आिदवासी केतों में काम करने वाले सुपिसद गांधीवादी काय्फ़कता्फ़ ठककर बापा दारा 27 माच्फ़, 1939 को राजेंद पसाद को िलखे गये पत का भी उ्लेख करते हैं. इस पत में ठककर बापा जयपाल िसंह और आिदवासी महासभा के िवक्प के रप में एक ऐसी सिमित पसतािवत करते हैं जो काय्फ़कता्फ़ओ ं के ज़ररए चुपचाप काम करे , तथा सीधे तौर पर इसका काम राजनीित करना नहीं, बि्क लोगों का िवशास जीतना हो. उनहोंने कॉन्ेस के नेततृ व वाली ततकालीन 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 12 12 | िमान िनकट रामगढ़ में हुआ। जयपाल िसंह ने अपनी आतमकथा37 में यह िलखा है िक ‘राजेंद बाबू ने िनण्फ़य िलया िक कॉन्ेस का अिधवेशन रामगढ़ में हो िजससे िक गांधीजी, नेहर, पटेल जैसे सभी बड़े नेता आएँ, और हमारे आंदोलन को कु चल दें।’38 हालाँिक िकसी अनय सवतंत सोत से इस बात की पुिष नहीं होती िक रामगढ़ में कॉन्ेस का अिधवेशन आयोिजत करने के पीछे मुखय मंशा जयपाल िसंह के पभाव को कम करना ही था।39 लेिकन यह भी सच है िक ठे बले उराँव के नेततृ व वाली सनातन आिदवासी सभा का कॉन्ेस नेताओं के साथ िनकट संबंध था, और उनहोंने कॉन्ेस के अिधवेशन के एक िदन पहले एक जनसभा बुलाई और यह कहा िक जयपाल िसंह ग़ैर-ईसाई आिदवािसयों के पितिनिध नहीं हैं, और जयपाल िसंह को अलगाववादी िवचार फै लाकर आिदवािसयों को गुमराह नहीं करना चािहए।40 यह भी उ्लेखनीय है िक राजेंद पसाद ने राँची में कै थोिलक िबशप से िमलकर जयपाल िसंह के इस दावे का उ्लेख िकया िक उनहें िमशनरी चच्फ़ का समथ्फ़न पाप है। पसाद ने चच्फ़ को राजनीित से दूर रहने और िकसी भी राजनीितक दल का समथ्फ़न न करने की सलाह दी।41 जयपाल िसंह ने गांधी का िवरोध िकया, और 1940 में रामगढ़ अिधवेशन में भाग लेने के िलए िजस िदन गांधी राँची आए, उस िदन आिदवासी महासभा ने राँची बंद का आयोजन िकया। जयपाल िसंह ने अपनी आतमकथा में यह दावा िकया है िक ‘गांधीजी और कां्ेसी नेताओं के सवागत में समूचा राँची बंद रहा। इसके िलए गांधीजी ने कभी मुझे माफ़ नहीं िकया।’42 दूसरी ओर, उनके जीवनीकार बलबीर दत का यह मानना है िक आिदवासी महासभा दारा आयोिजत बंद तक़रीबन िनषपभावी रहा, और इसके बारे में िकसी भी समाचारिबहार सरकार से ऐसी संसथा को आिथ्फ़क मदद उपलबध कराने का अनुरोध िकया. ठककर बापा के इस सुझाव के तहत ही ‘आिदम जाित सेवक मंडल’ का गठन िकया गया. देख,ें अिशनी कु मार पंकज (2015) : 61-62; हालाँिक ठककर बापा सीधे तौर पर िहंदू मू्यों को बढ़ावा देने की बात नहीं करते हैं, लेिकन इसमें संदहे नहीं है िक उनमें ईसाई िमशनररयों की गितिविधयों को लेकर संदहे की भावना थी, और उनहें यह लगता था िक िमशनररयों की गितिविधयाँ पृथकतावाद को बढ़ावा दे सकती हैं. उनहोंने मधय पदेश के मुखयमंती रिवशंकर शुकला को भी ईसाई िमशनररयों की गितिविधयों का मुक़ाबला करने के िलए भारतीय मू्यों के पसार का सुझाव िदया. शुकला ने इस काम के िलए रमाकांत देशपांडे को िनयुक िकया. बाद में, देशपांडे ने सरकारी नौकरी छोड़कर 1952 में राष्ीय सवयंसेवक संघ की आिदवासी शाखा ‘अिखल भारतीय वनवासी क्याण आशम’ का गठन िकया. देखें कमल नयन चौबे (2019). 37 जयपाल िसंह की आतमकथा का शीष्फ़क लो िबर सेंदरा है. यह पारं पररक अथ्यों में आतमकथा नहीं है, बि्क िछटपुट संसमरणों का सं्ह है, िजसे 2004 में रिशम कातयायन ने संपािदत िकया. कातयायन को यह पांडुिलिप सटेनलुद्फ़ु सवामी ने दी थी. पुसतक में सटेन ने यह जानकारी दी है िक उनहें यह पांडुिलिप एक िवदेशी शोधकता्फ़ से िमली थी. पुसतक में इसकी पामािणकता के बारे में और कोई जानकारी नहीं है. यह अवशय है िक जयपाल िसंह और जहाँआरा के पुंत जयंत जयपाल िसंह दारा इसे अनुशिं सत करने के कारण इसे काफ़ी हद तक पामािणक माना जाता है. देखें अिशनी कु मार पंकज (2015) : 29-30. 38 रिशम कातयायन (2004) : 102; अिशनी कु मार पंकज (2015) : 63. 39 बलबीर दत इसे कॉन्ेस नेताओं से जयपाल िसंह की कटु ता का एक उदाहरण मानते हैं. देखें बलबीर दत (2017) : 73. 40 अिशनी कु मार पंकज (2015) : 63. 41 इस घटना का उ्लेख राजेंद पसाद दारा बी. एस. िजलानी को 27 जुलाई को िलखी गई िचटी में िमलता है. देखें संतोष कीरो (2018) : 154-56. 42 रिशम कातयायन (2004) : 102; अिशनी कु मार पंकज (2015) : 63. 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 13 जयपाल िं ह मुंडा और आ दवािी राजनी त | 13 पत में कोई उ्लेख नहीं िमलता है।43 यह भी ग़ौरतलब है िक सुभाष चंद बोस के कॉन्ेस से अलग होकर वे गांधी के दचंतन और फ़ॉरवड्फ़ बलॉक नामक संगठन बनाने पर जयपाल िसंह पद्धदत को भी संदेह की ने उनका समथ्फ़न िकया। बोस ने रामगढ़ कॉन्ेस नज़र से देखते थे। उन्हें अिधवेशन के दो िदन पहले रामगढ़ में ही ि्रििटश यह लगता था दक गांधी के िवरोधी रै ली का आयोजन िकया। इसमें जयपाल िसंह दवचार, ख़ासतौर पर ने उनका साथ िदया, और एक सफल सभा हुई िजसकी अधयकता जयपाल िसंह ने की। हालाँिक िदतीय िवश उनके द्वारा अदहंसक युद के ज़ोर पकड़ने के बाद सुभाष चंद बोस और आं दोलन पर अत्यदधक ू ादी जयपाल िसंह के रासते अलग हो गये। बोस अं्ेज़ों के ज़ोर देना और दहंदव िख़लाफ़ संगिठत संघष्फ़ करने के िलए देश से बाहर चले प्रतीकों का प्रयोग गये, और उनहोंने आज़ाद िहंद फ़ौज के माधयम से देश आददवासी क्षेत्रों में बाहरी की आज़ादी के संघष्फ़ को आगे बढ़ाया। दूसरी ओर, या ददकू लोगों के प्रभाव जयपाल िसंह आिदवािसयों के िहतों की सुरका के िलए अलग-अलग तरीक़े से काम करते रहे। उनहें यह को बढ़ा सकता है, और लगा िक युद के समय ि्रिटेन को सहायता की इस तरह आददवासी आवशयकता है, इसिलए उनहोंने आिदवासी युवाओं संस्कृदत के दलए ख़तरा को सेना में भत्टी करने का अिभयान भी चलाया।44 उनहें पैदा कर सकता है। यह उममीद थी िक अं्ेज़ सरकार उनकी इस सहायता के बदले आिदवािसयों के मुदों और उनकी माँगों को गंभीरता से लेगी। जयपाल िसंह के कॉन्ेस से लगातार टकराव का कारण िसफ़्फ़ िबहार के नेताओं के पित उनके संदहे की भावना ही नहीं थी, बि्क वे गांधी के िचंतन और पदित को भी संदहे की नज़र से देखते थे। उनहें यह लगता था िक गांधी के िवचार, ख़ास तौर पर उनके दारा अिहंसक आंदोलन पर अतयिधक ज़ोर देना और िहंदवू ादी पतीकों का पयोग आिदवासी केतों में बाहरी या िदकू लोगों के पभाव को बढ़ा सकता है, और इस तरह आिदवासी संसकृ ित के िलए ख़तरा पैदा कर सकता है।45 संिवधान सभा में शराबबंदी पर हो रही बहस में अिधकांश सदसयों ने इस पकार के पितबंध का समथ्फ़न िकया। इसके पीछे राष्ीय आंदोलन के मू्यों और महातमा गांधी के िवचारों का पभाव काम कर रहा था। महातमा गांधी ने शराब सेवन को एक सामािजक बुराई मानते हुए इसे ख़तम करने के िलए लगातार पयास िकया। आिदवासी केतों में काम करने वाले कई गांधीवादी काय्फ़कता्फ़ओ ं ने भी इसी आदश्फ़ से पेरणा ली और उनहोंने लगातार यह 43 बलबीर दत (2017) : 63. वही. 45 इस संदभ्फ़ में जयपाल िसंह के िवचारों के िलए देखें जयपाल िसंह मुडं ा (2017; पथम पकाशन 2 जून, 1940). 44 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 14 14 | िमान पयास िकया िक आिदवासी शराब पीने की आदत को छोड़ दें।46 इस िवषय में संिवधान सभा की बहस में जयपाल िसंह ने अपना िवचार रखते हुए यह कहा िक आिदवासी समुदायों में शराब का पचलन परं परागत है। आिदवासी केतों में चावल से बनी ह्की शराब (िजसे झारखंड में हंिडया कहा जाता है) हर धािम्फ़क अनुषान में उपयोग में लायी जाती है। इसिलए यिद शराबबंदी के दायरे में इसे भी लाया जाएगा तो यह देश के सबसे पाचीन लोगों के धािम्फ़क अिधकारों में हसतकेप होगा।47 हालाँिक यह भी सच है िक आिदवासी केत के कु छ सदसयों ने उनकी बात का िवरोध करते हुए यह कहा िक सभी आिदवासी शराब नहीं पीते हैं। आिख़रकार शराबबंदी को संिवधान के नीित-िनदेशक ततव के रप में अनुचछे द 47 में शािमल िकया गया।48 इसका अथ्फ़ यह है िक संिवधान सभा ने शराब पीने को ग़ैर-क़ानूनी काय्फ़ के रप में सवीकार नहीं िकया, बि्क इसे एक ऐसे आदश्फ़ के रप में देखा िजसे हािसल करने के िलए पयास िकया जाना चािहए। जयपाल िसंह ने सवतंतता पािप के बाद हुए तीन संसदीय चुनावों में कॉन्ेस के िख़लाफ़ चुनाव लड़ा और वे लगातार अलग झारखंड राजय की माँग उठाते रहे। हालाँिक 1963 आतेआते जयपाल िसंह को यह लगने लगा िक उनके पास इतना समथ्फ़न नहीं है िक वे कें द सरकार को झारखंड राजय का गठन करने के िलए मजबूर कर सकें , और न ही उनहोंने अपनी पाट्टी को इस मुदे पर ज़ोरदार आंदोलन करने के िलए पेररत िकया। धीरे -धीरे पाट्टी के जनाधार में भी कमी आई। जहाँ 1952 में पाट्टी को 7.66 लाख और 1957 में 7.26 लाख वोट िमले थे, वहीं 1962 में इसके वोटों की संखया 4.32 लाख रह गई थी।49 इसी तरह, जहाँ 1952 और 1957 में इसे िबहार िवधानसभा में ्रिमशः 33 और 34 सीटें िमली थीं, वहीं 1962 में सीटों की संखया घटकर 22 रह गयी। इसका नतीजा यह हुआ िक जयपाल िसंह ने कॉन्ेस के साथ िवलय करने का फ़ै सला िकया। 1963 में कॉन्ेस में झारखंड पाट्टी का िवलय हो गया। कई लोगों ने जयपाल िसंह पर झारखंड आंदोलन को बेचने का आरोप भी लगाया।50 यह भी ग़ौरतलब है िक जब जयपाल िसंह ने कॉन्ेस में अपनी पाट्टी के िवलय का फ़ै सला िकया तो 46 डेिवड हाड्टीमन के अनुसार गांधी दारा शाकाहार और शराबंदी पर ज़ोर देना आिदवािसयों की जीवनशैली के अनुरप नहीं था, और यह अं्ेज़़ों दारा बाहरी पहचान थोपे जाने की तरह ही था. देखें डेिवड हाड्टीमन (2003) : 144-46. 47 देख,ें रामचंद गुहा (2007) : 116; असल में, जयपाल िसंह ने राजनीित में पवेश करने के बाद 20 जनवरी, 1939 को आिदवासी महासभा के सममेलन को संबोिधत करते हुए भी यह कहा िक आिदवािसयों के उतसवों में शराब की भूिमका को सवीकार िकया जाता है, और इसिलए आिदवािसयों के दृिषकोण से िहंदू और मुिसलम राजनेताओं दारा इस संदभ्फ़ में दखलंदाज़ी करने वाला क़ानून बनाना एक मूक अ्पसंखयक समूह के साथ अनयाय करने की तरह है. देखें जयपाल िसंह मुडं ा (1917 पथम पकाशन 20 जनवरी, 1939) : 114; ग़ौरतलब है िक जयपाल िसंह ने िसफ़्फ़ आज़ादी के संघष्फ़ के दौरान ही गांधी की राजनीित से ख़ुद को दूर नहीं रखा था, बि्क सवतंतता पािप के बाद कॉन्ेस सांसद के रप में भी उनहोंने गांधी के अिहंसा के िसदांत की आलोचना की. बलबीर दत (2016) : 186-189. 48 बलबीर दत (2017) : 112-113. 49 वही : 146-47. 50 अनुज कु मार िसनहा (2013) : 34-35. 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 15 जयपाल िं ह मुंडा और आ दवािी राजनी त | 15 इगनेस कु जूर, िथयोडोर सुरीन, एनई होरो, और हररहरनाथ शाहदेव ने िवलय िवरोधी झारखंड पाट्टी बना ली थी।51 जयपाल िसंह को यह उममीद थी िक कॉन्ेस से जुड़कर वे आिदवािसयों के िलए एक पृथक राजय की माँग को पूरा कर सकते हैं। हालाँिक कॉन्ेस से जुड़ने के बाद उनकी ये उममीदें पूरी नहीं हुई ं।52 लेिकन उनका यह भरोसा बना रहा िक कॉन्ेस झारखंड राजय का िनमा्फ़ण करने के उनके लकय को पूरा करे गी। जब 1966-67 में उनके कु छ समथ्फ़कों ने झारखंड पाट्टी को िफर से सि्रिय करने पर ज़ोर िदया तो उनहोंने इस माँग को नकार िदया और ख़ुद को सौ फ़ीसद कां्ेसी क़रार िदया।53 कॉन्ेस से जुड़ने के बाद जयपाल िसंह की लोकिपयता में िगरावट आई। इसका एक पमुख पमाण यह है िक 1967 के लोकसभा चुनावों में वे मात 5 हज़ार वोटों के अंतर से जीते।54 जयपाल िसंह की लोकिपयता में िगरावट का एक बड़ा कारण पररवारवाद को बढ़ावा देना भी था। यह माना जाता है िक झारखंड पाट्टी का कॉन्ेस में िवलय करने के जयपाल िसंह के फ़ै सले के पीछे उनकी और उनकी पतनी जहाँआरा की सता की राजनीित से जुड़ने की महतवाकांका की भी अतयंत महतवपूण्फ़ भूिमका थी।55 जयपाल िसंह को भी 3 िसतमबर, 1963 को िबहार सरकार के मंितमंडल में सिममिलत िकया गया, और उप-मुखयमंती बनाया गया। लेिकन अगले एक महीने के घटना्रिम के कारण उनहें मंती पद से हटना पड़ा।56 कॉन्ेस दारा झारखंड राजय के िनमा्फ़ण की िदशा में कोई ठोस पहल न करने के कारण 51 अिशनी कु मार पंकज (2015) : 79; साथ ही देख,ें डॉ. िगरधारी राम गौंझू ‘िगररराज’ (2001) : 155. कॉन्ेस और झारखंड पाट्टी के बीच िवलय को लेकर जो िलिखत समझौता हुआ था, उसमें झारखंड राजय के िनमा्फ़ण के बारे में कोई उ्लेख नहीं था. बलबीर दत (2017) : 50-53; 53 वही : 178-79. 54 वही : 167; संतोष कीरो के अनुसार, जब इस चुनाव के दौरान जयपाल िसंह िविभनन सथानों पर चुनाव पचार करने गये तो कई आिदवािसयों ने उनके पूछा की ‘मुगा्फ़ (झारखंड पाट्टी का चुनाव िचह्न) कहाँ गया?’ जयपाल िसंह को कॉन्ेस में शािमल होने के अपने फ़ै सले को सही सािबत करने में काफ़ी किठनाइयों का सामना करना पड़ा. देखें संतोष कीरो (2018) : 142-46. 55 जयपाल िसंह के कई जीवनीकार यह भी मानते हैं िक झारखंड पाट्टी के कॉन्ेस में िवलय में उनकी दूसरी पतनी जहाँआरा की महतवपूण्फ़ भूिमका थी, जो आगे चलकर राजयसभा सदसय और कें द में इंिदरा गांधी की सरकार में उप-मंती भी बनीं. जहाँआरा पहली बार 1957 में झारखंड पाट्टी की ओर से राजयसभा की सदसय बनीं. उस समय पाट्टी के काय्फ़कता्फ़ यह चाहते थे िक हरमन लकड़ा को राजयसभा भेजा जाए, िकनतु जयपाल िसंह ने उनके सथान पर अपनी पतनी को राजयसभा भेजा. जहाँआरा को दोबारा 1964 में कॉन्ेस ने राजयसभा में भेजा. जहाँआरा की मृतयु 80 वष्फ़ की उम में 2004 में हुई. उ्लेखनीय बात यह है िक वष्फ़ 2000 में जब झारखंड राजय बना तो जहाँआरा को राजय की पहली मुखयमंती बनाने की भी चचा्फ़ हुई. हालाँिक वे मुखयमंती नहीं बन पाई ं. बलबीर दत (2017) : 246-53. 56 जब वे उप-मुखयमंती बने उस समय िवनोदानंद झा मुखयमंती थे, लेिकन एक महीने के भीतर कामराज योजना के कारण उनहोंने मुखयमंती पद से तयागपत दे िदया और उनके सथान पर कृ षण ब्लभ सहाय राजय के मुखयमंती बने. इस बीच झारं खड पाट्टी से कॉन्ेस में सिममिलत हुए अिधकांश िवधायकों ने झारखंड पाट्टी के पूव्फ़ नेता और जयपाल िसंह के िनकट सहयोगी सुशील कु मार बागे को अपना समथ्फ़न दे िदया. इसिलए कृ षण ब्लभ सहाय ने जयपाल िसंह के सथान पर सुशील कु मार बागे को मंितमंडल में शािमल कर िलया. देखें बलबीर दत (2017) : 244-45; बलबीर दत यह मानते हैं िक कॉन्ेस ने कभी भी जयपाल िसंह को उप-मुखयमंती या मंती बनाने का वायदा नहीं िकया था, लेिकन अिशनी कु मार पंकज कॉन्ेस की आलाकमान की ओर से जयपाल िसंह को इस तरह का वायदा करने का उ्लेख करते हैं. देखें अिशनी कु मार पंकज (2015) : 79. 52 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 16 16 | िमान जयपाल िसंह की कॉन्ेस से नाराज़गी बढ़ती गयी। मई 1969 में वे युरोप और अफीक़ा की दो माह की लंबी याता पर गये थे। इसी दौरान उनहोंने पुरानी झारखंड पाट्टी के महासिचव गोपालदास मुजं ाल को भेजे गये एक पत के साथ कॉन्ेस पाट्टी से इसतीफ़े का पत भी संलगन कर िदया। हालाँिक उनहोंने कॉन्ेस पाट्टी से इसतीफ़ा दे िदया था, और वे झारखंड पाट्टी को पुनज्टीिवत करना चाहते थे, िकनतु उनहोंने कॉन्ेस की लोकसभा सदसयता से इसतीफ़ा नहीं िदया।57 लेिकन यह तय था िक जयपाल िसंह कॉन्ेस में अपनी िसथित और झारखंड राजय िनमा्फ़ण न होने के कारण कॉन्ेस नेततृ व और के नद सरकार से काफ़ी कुबध थे। 13 माच्फ़, 1970 को उनहोंने राँची के बरडेला (बहूबाज़ार) में एक महतवपूण्फ़ जनसभा को संबोिधत िकया। जयपाल िसंह ने अपना भाषण नागपुरी में िदया और कहा िक कॉन्ेस पाट्टी में झारखंड पाट्टी का िवलय करना उनकी बहुत बड़ी ग़लती थी। उनके अनुसार, वे यह चाहते थे िक कॉन्ेस के भीतर रहकर अलग झारखंड पांत के िलए दबाव डाला जाए। उनहोंने यह कहा िक ‘कॉन्ेस ने धोखा िदया। झारखंड पाट्टी का कॉन्ेस में िवलय करना मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल थी। मैं झारखंड पाट्टी में लौटूँगा और अलग झारखंड पांत के िलए आंदोलन करँगा।’58 जयपाल िसंह ने ‘जय झारखंड’ के साथ अपने भाषण का समापन िकया।59 जैसा िक पहले उ्लेख िकया गया है िक इस सभा के एक हफते बाद ही 20 माच्फ़ 1970 को उनकी मृतयु हो गयी। िनि्चित रप से कॉन्ेस के साथ उनका संबंध उथल-पुथल भरा हुआ रहा, और इसकी बुिनयाद में आिदवासी िहतों की सुरका की उनकी िचंता पमुख थी। उनहोंने इस लकय से पेररत होकर पहले आिदवासी महासभा और िफर झारखंड पाट्टी के माधयम से काम िकया, और िफर कॉन्ेस के साथ जुड़े। हालाँिक िजस दौर में जयपाल िसंह केतीय दल के माधयम से आिदवािसयों के िहतों के संरकण की कोिशश कर रहे थे, उस समय पूरे देश में कॉन्ेस का वच्फ़सव था, और िवपकी दल िबखरे हुए थे। जयपाल िसंह ने िवपकी दलों का गठजोड़ की कोिशश नहीं की, बि्क उनहोंने 1951 में इस संदभ्फ़ में जयपकाश नारायण के आहान की भी उपेका की। कॉन्ेस के साथ उनका संबंध जिटलताओं से भरा रहा, लेिकन 57 जयपाल िसंह के कॉन्ेस से इसतीफ़ेे से झारखंड की राजनीित पर उस समय कोई ख़ास पभाव नहीं पड़ा. जयपाल िसंह का साथ छोड़ चुके उनके पुराने साथ सुशील कु मार बागे ने यह कहा िक शायद जयपाल िसंह के इसतीफ़ा देने का मुखय कारण यह है िक उनकी पतनी जहाँआरा को कॉन्ेस पाट्टी दारा राजयसभा का िटकट नहीं िदया गया था. यह भी ग़ौरतलब है िक जयपाल िसंह दारा झारखंड पाट्टी का कॉन्ेस में िवलय करने के बाद बहुत सारी झारखंड नामधारी पािटयाँ राजनीितक अखाड़े में कू द चुकी थीं. इनमें से कु छ पािट्फ़यों का गठन जयपाल िसंह के पूव्फ़ सहयोिगयों ने ही िकया था. ऐसे अिधकांश गुटों के नेताओं ने जयपाल िसंह के िनण्फ़य की यह कहते हुए तीखी आलोचना की िक जयपाल िसंह ने झारखंड आंदोलन के साथ िवशासघात िकया था, और उनहोंने पद और अनय पलोभनों की चाह में कॉन्ेस का दामन थामा था. देख,ें बलबीर दत (2017) : 18385. 58 अिशनी कु मार पंकज (2015) : 83; शैलेनद महतो (2011) : 179; हालाँिक संतोष कीरो इस पकार की िकसी जनसभा का उ्लेख नहीं करते, बि्क वे जयपाल िसंह की झारखंड पाट्टी के पुराने सहयोगी लाल रणिवजय नाथ शाहदेव के हवाले से एक अतयंत गुप बैठक का उ्लेख करते हैं, िजसमें झारखंड पाट्टी के नेता ही सिममिलत हुए थे. देख,ें संतोष कीरो (2018) : 148. 59 बलबीर दत (2017) : 196. 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 17 जयपाल िं ह मुंडा और आ दवािी राजनी त | 17 इसमें संदहे नहीं है िक उनहोंने कॉन्ेस के देश के सभी समुदायों की आवाज़ होने के दावे को आिदवािसयों के सदंभ्फ़ में सशक चुनौती पदान की। III. आ िवािी अ ता, रा और जयपाल िं ह मुंडा वािी रपरेखा जयपाल िसंह ने हमेशा ही इस बात पर बल िदया िक जयपाल दसंह ने आिदवािसयों की अिसमता का सममान हो, उनहें समुिचत संदवधान सभा की पितिनिधतव िमले तथा ख़ुद आिदवासी ही अपने यहाँ की बैठकों में भी पशासन वयवसथा देख,ें और संसाधनों का पबंधन करें । आददवादसयों की इसीिलए वे आिदवािसयों के िलए एक पृथक राजय का अदस्मता और दहतों के गठन करना चाहते थे। लेिकन यह पश भी महतवपूण्फ़ है िक कया जयपाल िसंह आिदवािसयों के िलए एक ऐसा राजय साथ एक राष्ट्र के रूप बनाना चाहते थे जो शेष भारत से पूरी तरह अलग हो? कया में भारत को मज़बूत वे आिदवासी अिसमता की बात करते हुए आधुिनक करने पर ज़ोर ददया। सभयता के िविभनन आयामों अथा्फ़त आधुिनक िशका, आददवादसयों की बुरी आधुिनक तकनीक आिद की भी मुख़ालफ़त करते थे? उन दस्थदत का उल्लेख पर अकसर ईसाई िमशनररयों के िनकट होने या उनका एजेंडा करने के साथ ही साथ आगे बढ़ाने का आरोप भी लगा, ऐसे में यह भी एक महतवपूण्फ़ सवाल है िक आिख़र उनहोंने धम्फ़ के आधार पर उन्होंने संदवधान सभा और प्रधानमंत्री आिदवािसयों के िवभाजन को िकस रप में देखा? जयपाल िसंह ने कॉन्ेस की पभुतवशाली राष्ीय जवाहरलाल नेहरू पर राजनीित से िभननता रखने वाले समूहों से राजनीितक अपना भरोसा तालमेल बनाने का पयास िकया, और इसी संदभ्फ़ में जताया। संदवधान मुिसलम लीग से भी उनकी िनकटता बढ़ी। कॉन्ेस के सभा में उद्देश्य प्रस्ताव िवरोध और अपने मुखय आधार (मुिसलम लीग के संदभ्फ़ में मुिसलम) के क्याण, जयादा पितिनिधतव और अनय के बारे में अपने समूहों पर अिवशास ने मुिसलम लीग को राष्ीय आंदोलन संबोधन में उन्होंने यह से अलग एक पृथकतावादी आंदोलन चलाने के िलए बात काफ़ी मुखर रूप पेररत िकया, और 1940 के लाहौर अिधवेशन में मुिसलम से अदभव्यक्त भी की। लीग ने मुसलमानों के िलए एक पृथक देश पािकसतान की माँग से संबंिधत पसताव पाररत कर िदया था। आिदवासी महासभा पहले से ही राष्ीय आंदोलन को संदेह की दृिष से देखती थी, जयपाल िसंह के आगमन के बाद इस संगठन में 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 18 18 | िमान यह िवशास और भी जयादा मज़बूत हो गया िक कॉन्ेस नेततृ व, और िवशेष रप से िबहार के कां्ेसी नेता आिदवािसयों की भलाई को लेकर गंभीर नहीं हैं, और वे कभी भी आिदवािसयों के िलए एक पृथक पांत की माँग को सवीकार नहीं करें गे। इसिलए कु छ समय के िलए ही सही, लेिकन जयपाल ने भी आिदवािसयों की भलाई के िलए न िसफ़्फ़ अं्ेज़ सरकार की तरफ़दारी की, बि्क मुिसलम लीग से भी अपनी नज़दीिकयाँ बढ़ाई ं। आिदवासी महासभा का वािष्फ़क सममेलन 8, 9 और 10 माच्फ़, 1941 को राँची में हुआ िजसमें बंगाल मुिसलम लीग के पितिनिध भी शािमल हुए। जयपाल िसंह ने बैठक की अधयकता की और अपने संबोधन में उनहोंने अं्ेज़ सरकार के युद पयासों में सहयोग देने का संक्प वयक िकया और छोटानागपुर केत को एक अलग पांत बनाने पर बल िदया।60 इस सममेलन को 8 माच्फ़ को अं्ेज़ी में संबोिधत करते हुए जयपाल िसंह ने यह कहा िक : मुझे बंगाल में मुिसलम लीग और वहाँ के आिदवािसयों ने इस पांत का दौरा करने के िलए आमंितत िकया है।... मैं इसका िज़्रि इसिलए कर रहा हूँ तािक ि्रििटश सरकार यह जान ले िक िशकवे-िशकायतों के मामले में हम अके ले नहीं हैं। िहंदओ ु ं को यह समझ लेना चािहए िक मुसलमान और आिदवासी एक सेकेंड के िलए िहंदरू ाज को बदा्फ़शत करने वाले नहीं हैं। हम अपनी धािम्फ़क िनषा और पजातीय (नसलीय) इजज़त के िलए संघष्फ़ करें गे।61 मुिसलम लीग के िलए जयपाल िसंह का साथ इसिलए महतवपूण्फ़ था कयोंिक इसके माधयम से न िसफ़्फ़ कॉन्ेस के सभी भारतीयों के पितिनिधतव के दावे को और जयादा कमज़ोर िकया जा सकता था, बि्क इसके साथ अं्ेज़ों को भी यह िदखाया जा सकता था िक मुिसलमों के साथ-साथ अनय समुदाय भी कॉन्ेस से अलग अपने अिधकारों की माँग कर रहे हैं। जयपाल िसंह और मुिसलम लीग के बीच राजनीितक संबंध मज़बूत होता गया। यहाँ तक िक 16 अगसत, 1946 को मुिसलम लीग के ‘डायरे कट ऐकशन डे’ के आहान वाले िदन भी जयपाल िसंह कलकता में ही थे, और उनहोंने मुिसलम लीग के मंच से भाषण देते हुए कॉन्ेस की तीखी आलोचना की तथा आिदवासी-मुिसलम एकता पर ज़ोर िदया।62 लेिकन बाद में, इस िदन और 60 जयपाल िसंह ने अपने भाषण में सवण्फ़ िहंदओ ु ं के रवैये की आलोचना की तथा इस बात पर ज़ोर िदया िक ग़ैर-ईसाई आिदवासी िहंदू नहीं हैं, और उनहें इस बात पर धयान देना चािहए िक जनगणना के समय उनहें िहंदू शेणी में सिममिलत नहीं िकया जाए, और यिद ऐसा िकया जाता है तो उनहें इसका िवरोध करना चािहए. देख,ें बलबीर दत (2017) : 88; जयपाल िसंह का यह कथन इसिलए महतवपूण्फ़ है िक अभी भी कई संगठनों दारा यह माँग ज़ोर-शोर से उठायी जाती रही है िक जनगणना में आिदवािसयों के धम्फ़ को सरना के रप में दज्फ़ िकया जाए. हाल ही में झारखंड सरकार ने इस संदभ्फ़ में पसताव भी पाररत िकया है. 11 नवंबर, 2020 को झारखंड िवधानसभा के एकिदवसीय िवशेष सत में 2021 की जनगणना में सरना धम्फ़ के िलए अलग से कॉलम बनाने का पसताव आम-सहमित से पाररत िकया गया. देखें मुकेश रं जन (2020). 61 बलबीर दत (2017) : 88-89; मुिु सलम लीग के साथ इस तरह के नजदीकी संबंध बनाने को लेकर आिदवासी महासभा के कई नेता नाराज भी हुए. इसके एक पमुख नेता और जयपाल िसंह के िनकट सहयोग एन.एन. रिकत ने उनसे िकनारा कर िलया. देखें बलबीर दत (2017) : 90. 62 बलबीर दत (2017) : 102-103; बलबीर दत खुिफ़या िवभाग की कु छ िचरटयों का हवाला देते हुए यह बताते हैं िक 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 19 जयपाल िं ह मुंडा और आ दवािी राजनी त | 19 इसके बाद कई िदनों तक होने वाली िहंसा ने जयपाल िसंह को अंदर तक झकझोर िदया और उनहोंने मुिसलम लीग से अपना संबंध तोड़ िलया। यहाँ यह याद रखने की आवशयकता है िक जयपाल िसंह ने कभी भी मुिसलम लीग की एक अलग देश पािकसतान की माँग का समथ्फ़न नहीं िकया। 22 मई, 1940 को द िबहार हेरॅलड में िलखे अपने लेख में उनहोंने यह सपष िवचार रखा िक : मुिसलम पूरी तरह से अलग लोग हैं। अ्पसंखयक होने के कारण वे यह मानते हैं िक वे एक आहत (उपेका झेलने वाला) पक हैं।...इसमें कोई संदहे नहीं है िक मुिसलम दुिनया के सबसे किठन अ्पसंखयक, और समसया के रप हैं। पािकसतान िहंदू पुनरुतथान का िनमा्फ़ण करे गा... भारत में वत्फ़मान में मिहलाओं की िनमन िसथित के िलए मुखय रप से मोहममदवाद (या इसलाम) िजममेदार है।...पािकसतान िहंदू महासभा के िलए एक वरदान की तरह होगा।63 13 अपैल, 1947 को आिदवासी महासभा के वािष्फ़क सममेलन के अपने अधयकीय भाषण में उनहोंने कहा िक हालाँिक मुिसलम लीग उनके पृथककरण के आंदोलन का समथ्फ़न करती आ रही है, तो भी आिदवासी अब उसके बहकावे में नहीं आएँगे। उनहोंने कहा िक वे पािकसतान बनाए जाने के पक में नहीं हैं और संिवधान सभा का बिहषकार नहीं करें गे, जैसा िक मुिसलम लीग चाहती है।64 बाद में, संिवधान सभा की बैठकों में भी उनहोंने आिदवािसयों की अिसमता और िहतों के साथ एक राष् के रप में भारत को मज़बूत करने पर ज़ोर िदया। आिदवािसयों की बुरी िसथित का उ्लेख करने के साथ ही साथ उनहोंने संिवधान सभा और पधानमंती जवाहरलाल नेहर पर अपना भरोसा जताया। संिवधान सभा में उदेशय पसताव के बारे में अपने संबोधन में उनहोंने यह बात काफ़ी मुखर रप से अिभवयक भी की। इससे संबिं धत बहस में ‘एक जंगली, एक जयपाल िसंह ने मुिसलम लीग से आिथ्फ़क सहायता भी पाप की थी. देख,ें बलबीर दत (2017) : 107-109. 63 जयपाल िसंह (2017ग), पथम पकाशन 28 मई, 1940); अपने इस लेख में जयपाल िसंह ने 1940 के रामगढ़ कॉन्ेस में सवागत सिमित के अधयक की हैिसयत से डॉ. राजेंद पसाद दारा िदये गए भाषण का उ्लेख िकया है. पसाद ने आय्यों के बाहर से आने का उ्लेख करते हुए यह कहा था िक आिदवासी आय्यों से अलग हैं और वे दिकण-पूव्फ़ और कई दीपों में भी फै ले हुए थे. पसाद का ज़ोर इस बात पर था िक िवशेषज यह मानते हैं िक िबहार के लोगों का रं ग, चेहरे का हाव-भाव, शारीररक संरचना इतयािद आिदवािसयों के क़रीब है, वहीं आिदवािसयों ने िबहार की संसकृ ित और भाषा को काफ़ी हद तक अपनाया है. जयपाल िसंह इस पूरे वण्फ़न को आिदवासी सथान के िसदांत के रप में पेश करते हैं, और उनके अनुसार पसाद का मुखय लकय छोटानागपुर केत के आिदवािसयों की बुिनयादी माँगों (िजसमें अलग पांत का िनमा्फ़ण सव्फ़पमुख था) को ह्का बनाना था. जयपाल िसंह मानते हैं िक िबहारी या बंगाली लोग इस तरह के वण्फ़न को पसंद नहीं करें गे, हालाँिक आिदवासी महासभा अपनी पुरानी माँग में संशोधन करते हुए जयादा बड़े आिदवासी सथान की माँग करे गी, िजसमें िबहार, ओिडशा से लेकर बंगाल तक के केत सिममिलत होंगे. अपने इस लेख में जयपाल िसंह यह भी उ्लेख करते हैं िक िहंदू महासभा के लोग आिदवासी सथान को िहंदसु थान में बदलना चाहते हैं. वही. 64 बलबीर दत (2017) : 116. 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 20 20 | िमान आिदवासी के रप में’ अपना िवचार रखते हुए जयपाल िसंह ने कहा : मैं इस पसताव की क़ानूनी पेचीदिगयों को पूरी तरह समझने में असमथ्फ़ हू।ँ लेिकन अपनी सामानय समझ के आधार पर मुझे यह लगता है िक हममें से पतयेक को आज़ादी के रासते पर आगे बढ़ना चािहए और िमलकर संघष्फ़ करना चािहए। सर, भारतीय लोगों में से यिद िकसी एक समूह के साथ कु ितसत तरीक़े से बरताव िकया जाता रहा है, तो वे मेरे लोग हैं। िपछले 6,000 वष्यों से उनके साथ अपमानजनक वयवहार िकया जा रहा है और उनकी उपेका की जा रही है। िसंधु घाटी सभयता का इितहास, िजसका एक बचचा मैं भी हू,ँ यह िदखाता है िक बाहर से आए नये लोगों ने मेरे लोगों को िसंधु घाटी से बाहर िनकाल जंगलों में खदेड़ िदया। मैं यह भी मानता हूँ िक आप में से अिधकांश लोग बाहर से आए घुसपैिठये हैं। मेरे लोगों का समपूण्फ़ इितहास ग़ैर-आिदवासी लोगों दारा शोषण और वंचना का इितहास है, आिदवासी अपनी बग़ावत और अवयवसथा पैदा करके इसमें बाधा डालते आये हैं। इसके बावजूद, मैं पंिडत जवाहरलाल नेहर के शबदों पर भरोसा करता हू,ँ मैं आप सबके शबदों पर िवशास करता हूँ िक अब हम एक नये अधयाय की शुरुआत करने जा रहे हैं, यह सवतंत भारत का एक नया अधयाय है जहाँ अवसर की समानता है और जहाँ िकसी की उपेका नहीं की जाएगी।65 असल में, जयपाल िसंह अपने केत (छोटानागपुर केत) से आगे बढ़ते हुए समसत आिदवासी केतों की एक पहचान का िनमा्फ़ण करना चाहते थे और उसे वयापक भारतीय राष् की एक ऐसी इकाई बनाना चाहते थे जो सथानीय सतर पर िवकास करते हुए देश की मज़बूती में योगदान दे। 1939 में आिदवासी महासभा के अिधवेशन में अपने दूसरे संबोधन में भी जयपाल िसंह ने यह कहा िक भले ही इस समय वे मुखय रप से छोटानागपुर केत के आिदवािसयों के िहतों की बात कर रहे हैं, िकनतु वे िकसी संकुिचत या पृथक झारखंडी या आिदवासी अिसमता के िहमायती नहीं हैं। उनहोंने यह सपष िकया िक तातकािलक अिनवाय्फ़ताओं के कारण आंदोलन अपनी पूरी ताक़त छोटानागपुर में लगा रहा है, लेिकन इस आंदोलन की भावना जयादा वयापक है।66 वे यह चाहते थे िक देश के अनय इलाक़ों में रह रहे आिदवािसयों को भी एक संगठन की छतरी के नीचे लाया जाए। एक पृथक आिदवासी राजय की उनकी पररक्पना का मूल आधार यह था िक एक ऐसे राजय में जहाँ आिदवासी अ्पसंखयक के रप में होते हैं, वहाँ नेताओं या मंितयों को आिदवािसयों के िहतों पर धयान देने की कोई आवशयकता नहीं होती है, कयोंिक आिदवािसयों का कोई राजनीितक पभाव नहीं होता है... उनके िहतों की जानबूझकर क़ु बा्फ़नी दी जाती है या उनकी उपेका की जाती है। एक ऐसी िवधाियका आिदवािसयों के िहतों को वासतिवक रप में नहीं समझ सकती है, िजसके सदसयों के एक बड़े भाग का आिदवािसयों के जीवन से कोई पररचय ही न हो।67 इसिलए उनहोंने एक ऐसे आिदवासी राजय की पररक्पना 65 66 67 कॉन्टीट् यएु नट असेमबली िडबेट, वॉ्यूम I, पृ. 143-44; रामचंद गुहा (2007) : 116 पर उदृत. जयपाल िसंह मुडं ा (2017ख; पथम पकाशन : 20 जनवरी, 1939) : 110. वही : 112. 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 21 जयपाल िं ह मुंडा और आ दवािी राजनी त | 21 की िजसके पशासन की मशीनरी का मुखय लकय आिदवािसयों की समृिद और भलाई हो।68 वे आिदवासी समाज के भीतर िवभाजन और संकुिचत पहचानों को बढ़ावा देने के िख़लाफ़ थे। उनहोंने आिदवािसयों की िसथित को िहंदओ ु ं और मुिसलमों से अलग माना, कयोंिक जहाँ िहंदू और मुिसलम सामािजक आज़ादी के मसले पर संघष्फ़ कर रहे थे, वहीं आिदवािसयों ने लोकतंत, िववाह क़ानून, सी-पुरुष समानता, ्ामीण शासन वयवसथा और सरल जीवन से जुड़े मसलों को काफ़ी पहले सुलझा िलया था। उनके अनुसार, आिदवासी सरल हैं, और इनहें आसानी से संतषु िकया जा सकता है, तथा िनजी और साव्फ़जिनक नैितकता की उनकी भावना काफ़ी उचच है।69 अपने राजनीितक जीवन में पवेश के पहले वष्फ़ में ही उनहोंने राजेंद पसाद को िलखी एक िचटी में यह सपष िकया यिद कोई आिदवासी िहंदू धम्फ़, इसलाम या िकसी अनय धम्फ़ को अपना लेता है, तो उसकी आिदवासी पहचान ख़तम नहीं होती है।70 इसी पत में उनहोंने यह भी कहा िक सरकार को िहंद,ू मुिसलम, ईसाई, बौद, ्रिह्म समाज या िकसी अनय िमशन के संदभ्फ़ में तटसथ रहना चािहए।71 ग़ौरतलब है िक इंिदरा गांधी के पधानमंती बनने के बाद झारखंड केत से आने वाले आिदवासी कां्ेसी नेता काित्फ़क उराँव ने यह अिभयान चलाया िक िजन आिदवािसयों ने ईसाई या इसलाम धम्फ़ सवीकार कर िलया है, उनहें अनुसिू चत जनजाित के रप में मानयता न दी जाए।72 उनहोंने इससे संबंिधत एक जापन पधानमंती इंिदरा गांधी को सौंपा था, िजस पर संसद के दोनों सदनों के 348 सांसदों के हसताकर थे।73 जयपाल िसंह ने आिदवािसयों के बीच धािम्फ़क आधार पर इस िवभाजन का िवरोध िकया। इंिदरा गांधी ने अपनी राजनीितक सूझ-बूझ से इस मुदे को रफ़ा-दफ़ा करवा िदया कयोंिक वे इसे आिदवासी समाज के भीतर बँटवारे को जनम देने वाला मानतीं थीं। यह भी ग़ौरतलब है िक आिदवासी महासभा मुखय रप से आिदवािसयों का संगठन था। (झारखंड पाट्टी के िनमा्फ़ण के बाद ही ग़ैर-आिदवािसयों को उस पाट्टी में सदसयता लेने की छू ट िमली। िकनतु जयपाल िसंह आिदवासी महासभा के अपने संबोधन में भी िविभनन आिदवासी समुदायों के साथ ही साथ छोटानागपुर केत के सभी िहंदओ ु ,ं मुिसलमों, आंगल-इंिडयनों से भी एकजुट होकर एक अलग पांत के िनमा्फ़ण की आवाज़ बुलंद करने का आहान िकया।74 यह इस बात का पमाण है िक आिदवासी िहतों की आवाज़ उठाने के बावजूद जयपाल िसंह आिदवािसयों को शेष समाज से िब्कु ल पृथक कर देने के पकधर नहीं थे। उनहोंने 1939 के 68 वही : 114. वही : 111. 70 जयपाल िसंह ने यह िवचार 24 मई, 1939 को राजेंद पसाद को िलखी िचटी में सपष िकए थे. यह िचटी वा्मीकी चौधरी दारा संपािदत राजेंद पसाद के पतों और दसतावेज़ों में संकिलत है. देखें वा्मीकी चौधरी (1984) : 75. 71 उनहोंने यह माँग की िक िबहार कॉन्ेस दारा ईसाई िमशन के िख़लाफ़ चलाए गए पोपेगेंडा की जाँच होनी चािहए. देखें वा्मीकी चौधरी (1984) : 75. 72 बलबीर दत (2017) : 211-12. 73 वही : 211-12. 74 जयपाल िसंह मुडं ा (2017क; पथम पकाशन 20 जनवरी, 1939) : 107. 69 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 22 22 | िमान आिदवासी महासभा के सममेलन के दूसरे संबोधन में उनहोंने यह कहा िक : आिदवािसयों को जनसंखया के जयादा िवकिसत तबक़ों से पृथक रखने की आवशयकता नहीं है, लेिकन उनहें क़ज़्फ़ के बोझ से मुक करने, उनकी खेती में सुधार करने तथा संगिठत बाज़ार दारा उनके सामानय क्याण को बढ़ावा देने आिद के िलए िवशेष उपाय और िवतीय सहायता उपलबध कराया जाना चािहए। साथ ही, उनहें तेज़ी से िवकिसत वग्यों के सतर की िशका उपलबध कराई जानी चािहए। उनकी पृथकता या उनहें िब्कु ल अलग-थलग रखना भारत के राष्ीय जीवन के िलए घातक होगा।75 जयपाल आिदवािसयों को आधुिनक िशका से अलग नहीं करना चाहते थे, बि्क वे उन तक इस िशका की पहुचँ बढ़ाना चाहते थे। उनकी मुखय िचंता यह थी िक आिदवािसयों की िशका के िलए पया्फ़प वयवसथा नहीं की जा रही है। आिदवासी महासभा के 1939 के अिधवेशन के अपने पहले संबोधन में उनहोंने आिदवािसयों की िशका की उपेका के िलए सरकार की आलोचना की। उनहोंने कहा िक ‘िशका हमारी सबसे बड़ी ज़ररत है। आिदवासी शायद सबसे िपछड़े हुए समूह हैं, इसिलए उनहें िशका सुिवधाओं की सबसे जयादा आवशयकता है।’76 उनका मुखय ज़ोर इस पर था िक आिदवािसयों को ऐसी िविशष सुिवधाएँ दी जाएँ, िजससे वे अपनी भूिम और संसाधनों पर हक़ हािसल कर पाएँ और उनकी सुरका कर पाएँ। जयपाल िसंह ने आिदवासी संसकृ ित के बेहतर पहलुओ ं को क़ायम रखते हुए नवीन और वैजािनक पहलुओ ं को जोड़ने पर बल िदया। उनहोंने यह पश िकया िक आिख़र आिदवािसयों की पथाओं के अचछे पहलुओ ं को क़ायम रखते हुए उनहें पोतसाहन कयों नहीं िदया जा सकता है? मुझे इस बात का कोई कारण नज़र नहीं आता है िक आिख़र आिदवािसयों की िशका और सवचछता तथा सफ़ाई के पसार और उनकी खेती की पदित में सुधार और ऐसे ही अनय मसलों का उनकी परं परा और वयसक िववाह की पथा, तथा खाने-पीने आिद में कोई रोकटोक न होने जैसे सरल िकनतु बहुत से मायनों में पशंसनीय िनयमों के साथ समनवय कयों नहीं हो सकता।77 उनहोंने आिदवािसयों को सामािजक सुरका उपलबध कराने की वकालत की और यह कहा िक ‘आिदवासी अभी इतने सरल हैं िक सामािजक सुरका के बग़ैर उनहें अभी भी आसानी से धोखा िदया जा सकता है, और वे आसानी से बाहर से आए साहूकारों के िशकार हो जाते हैं, 75 जयपाल िसंह मुडं ा (2017ख; पथम पकाशन 20 जनवरी, 1939) : 112; उनहोंने 24 मई, 1939 को राजेंद पसाद को िलखी िचटी में भी आिदवािसयों के पितिनिधतव और उनके िलए बेहतर सुिवधाओं को सुिनि्चित करने की माँग की. देखें वा्मीकी चौधरी (1984) : 75. 76 जयपाल िसंह मुडं ा (2017क) : 108. 77 जयपाल िसंह मुडं ा (2017ख; पथम पकाशन 20 जनवरी, 1939) : 112. 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 23 जयपाल िं ह मुंडा और आ दवािी राजनी त | 23 ये साहूकार उनकी ज़मीन हड़प लेते हैं तथा धरती-पुत आिदवासी मज़दूर या पाडू िकसान (या झूम खेती करने जयपाल दसंह ने वाले िकसान) बनकर रह जाते हैं।78 आददवादसयों के आिदवासी महासभा के अपने पहले संबोधन में उनहोंने शासन प्रबंधन को खेती, लोक सवासथय में सुधार, ्ामीण िवकास को मुख्य रूप से बढोतरी, उदोगों तथा पशासन को बेहतर बनाने के माधयम से आिदवािसयों की िसथित को बेहतर बनाने पर बल आददवासी िदया।79 उनहोंने आिदवािसयों के जीवन में वन िवभाग के प्रदतदनदधयों को देने बढ़ते िनयंतण और हसतकेप की आलोचना की। उनहोंने यह पर ज़ोर ददया, तथा सवीकार िकया िक वनों में रहने वाले आिदवासी वन मौजूदा क़ानूनों से अिधकाररयों के दमन, वन अपराधों के िलए सखत जुमा्फ़ने आगे जाकर ऐसे के पावधान, चराई आर ई ंधन की लकिड़यों, घास और खाने योगय फलों पर लगे अतयिधक पितबंध का सामना क़ानूनों को बनाने पर कर रहे हैं, जो उनके िलए असंतोष का िवषय है। वन या बल ददया दजससे राजसव िवभाग के उचचतर अिधकाररयों दारा उनकी आददवादसयों के जल, िशकायतों पर शायद ही कभी धयान िदया जाता है।80 जंगल और ज़मीन पर िनि्चित तौर पर, वन िवभाग की इस आलोचना और हक़ को सुरदक्षत रखा आिदवािसयों दारा अपने पशासन और संसाधनों आिद के जा सके। वे पबंधन पर जयपाल िसंह दारा ज़ोर िदये जाने के कारण यह िनषकष्फ़ िनकालना ग़लत नहीं होगा िक वे वन अिधकाररयों आददवादसयों के जल, को िमली अतयिधक शिकयों को ख़तम करके एक ऐसी जंगल, ज़मीन पर हक़ वयवसथा बनाना चाहते थे िजसमें आिदवािसयों का वन के मुखर समथर्क के और इसके संसाधनों पर जयादा िनयंतण हो। रूप में सामने आते हैं। जयपाल िसंह आिदवािसयों के बीच िशका का पसार करके उनहें अपने अिधकारों के पित इतना जागरक करना चाहते थे िक बाहरी लोग उनका शोषण न कर पाएँ। उनहोंने न िसफ़्फ़ टाटा जैसी कमपिनयों दारा ग़ैर-आिदवािसयों को नौकरी में पाथिमकता देने का पुरज़ोर िवरोध िकया, बि्क आिदवािसयों को मज़दूरों के रप में संगिठत करने का पयास भी िकया। उनहें यह अहसास था िक टाटा जैसी कं पिनयाँ झारखंड केत की भूिम, अनय पाकृ ितक संसाधनों और ससते मानव शम का इसतेमाल करके लाभ कमा रही हैं। लेिकन मानव शम के सतर पर भी बहुत ही छोटे सतर के काम आिदवािसयों के िहससे में आ 78 79 80 वही : 112. जयपाल िसंह मुडं ा (2017क; पथम पकाशन 20 जनवरी, 1939) : 109. जयपाल िसंह मुडं ा (2017ख; पथम पकाशन 20 जनवरी, 1939) : 113. 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 24 24 | िमान रहे थे, और अिधकांश नौकररयों पर बाहरी लोगों का क़बज़ा हो जा रहा था। इसिलए उनहोंने टाटा और ततकालीन िबहार सरकार पर इस बात के िलए दबाव बनाने का पयास िकया िक नौकररयों में आिदवािसयों को पाथिमकता िमले। हालाँिक शीकृ षण िसनहा के नेततृ व वाली िबहार सरकार ने उनकी माँगों को कोई महतव नहीं िदया। उनहोंने 1939 के मधय में अपने जमशेदपुर-िसंहभूम दौरे के दौरान उनहोंने आिदवािसयों से ख़ुद का मज़दूर यूिनयन बनाने की अपील की। हालाँिक मुखय रप से आिदवासी महासभा के बैनर तले वे एक अलग झारखंड पांत की मुिहम से जुड़े हुए थे, और वे इसे ही अपने केत के आिदवािसयों की िविभनन समसयाओं का हल मानते थे, लेिकन इसके साथ ही आिदवासी मज़दूरों को एकजुट करने की इचछा ने भी उनके काम को पेररत िकया। 1947 आते-आते उनहें यह अहसास हुआ िक आिदवासी मज़दूरों की संखया में पहले की तुलना में वृिद हो गई है, ऐसे में उनहें वयविसथत रप से आिदवासी महासभा और आंदोलन की पररिध में लाना आवशयक है। यही सोचकर उनहोंने 1947 में आिदवासी लेबर फ़े डरे शन की सथापना की। 16 माच्फ़, 1947 को जोड़ापोखर, झींकापानी (िसंहभूम) में मज़दूरों की एक बड़ी सभा आयोिजत की गयी, और इसमें जयपाल िसंह को आिदवासी लेबर फ़े डरे शन का अधयक चुना गया।81 लेिकन मौजूदा मज़दूर नेततृ व की दबंगई के कारण जयपाल िसंह का पयास बहुत ठोस रप धारण नहीं कर पाया।82 IV. जयपाल िं ह और मूल- नवािी िै ां तक वमर्श जयपाल िसंह ने आिदवािसयों को मूल िनवासी मानते हुए उनके अिधकारों को सुिनि्चित करने की माँग की। वे ‘एबॉररजनल’ पहचान को आिदवािसयों की मूल पहचान मानते थे, और चाहते थे िक संवैधािनक रप से भी इस शबद का पयोग िकया जाए। उनहोंने मूल अिधकारों से संबंिधत कु छ पावधानों पर बहस के समय उस पसतािवत संशोधन पर सपषीकरण माँगा, िजसमें एबॉररजनल या आिदम जनजाित की बजाय अनुसिू चत जनजाित शबद का इसतेमाल करने की बात कही गई थी।83 उनहोंने संिवधान सभा में और अपने अनय भाषणों और लेखों में भी ख़ुद को ‘जंगली’ या आिदवासी के रप में पसतुत िकया। यह सभी ‘आिदवासी’ अवधारणा के पित उनके गहरे जुड़ाव को ही दशा्फ़ता है। हालाँिक विज्फ़िनयस खाखा ने यह बताया है िक भारत में मूल िनवासी या आिदवासी शबद का पयोग वत्फ़मान झारखंड केत में ही तक़रीबन 1920 के दशक में आरं भ हुआ। लेिकन पूरे देश में कोई समूह यह दावा नहीं कर सकता है िक वही देश का मूल िनवासी है। इसिलए यह मुमिकन है िक कोई भी समूह एक 81 अिशनी कु मार पंकज (2015) : 70. वही; साथ ही देखें रिशम कातयायन (2004) : 110; ग़ौरतलब है िक रिशम कातयायन ने जयपाल िसंह की आतमकथा संपािदत की है जो मरङ गोमके जयपाल िसंह : लो िबर सेंदरा एन ऑटोबॉयोगाफ़ी शीष्फ़क से पकािशत है. 83 बलबीर दत (2017) : 112. 82 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 25 जयपाल िं ह मुंडा और आ दवािी राजनी त | 25 साथ मूल िनवासी हो भी और मूल िनवासी न भी हो। इस तरह के कई उदाहरण मौजूद हैं। मसलन, झारखंड में िनवास करने वाले उराँव, मुणडा और बहुत से अनय समुदायों को भारत देश में और झारखंड में अपने मूल िनवास के आधार पर मूल िनवासी होने का वैध दावा हो सकता है, लेिकन यह सपष नहीं है िक वे असम या बंगाल में मूल िनवासी होने का दावा कर सकते हैं या नहीं, जहाँ वे तक़रीबन एक सदी पहले जाकर बसे हैं। खाखा का यह मानना है िक भारत की जनजाितयों ने आिदवासी पहचान को अपना िलया है।84 बहरहाल, जयपाल िसंह ने मानवशास के गहन अधययन के आधार पर आिदवािसयों के भारत का मूल िनवासी होने का दावा नहीं िकया था। हालाँिक, मानवशासी भी मोटे तौर पर यह सवीकार करते हैं िक झारखंड के िनवासी कम से कम उस केत के मूल िनवासी हैं। ऐसे में महतवपूण्फ़ पश यह है िक कया मौजूदा समय में मूल िनवासी अिधकारों से संबंिधत िवमश्फ़ और जयपाल िसंह के िवचारों में िकसी तरह का सामय है? िदतीय िवशयुद के बाद मूल िनवािसयों के अिधकारों के बारे में संयक ु राष् संघ दारा कई पसताव पाररत िकए गए। पि्चिमी सैदांितक रपरे खा में भी मूल िनवािसयों के अिधकारों के संदभ्फ़ में सैदांतीकरण िकया गया है। इन िविभनन सैदांितक िवमश्यों को अगर जयपाल िसंह के िवचारों के बरअकस रखकर देखा जाए, तो िनससंदहे यह बात सामने आती है िक यदिप जयपाल िसंह ने कोई ठोस सैदांितक लेखन नहीं िकया, लेिकन उनके िवचारों में वे सूत मौजूद हैं जो मूल-िनवािसयों के अिधकारों से संबंिधत िवमश्फ़ में सामने आते हैं। िमसाल के तौर पर हम िसतमबर 2007 में पाररत मूल िनवािसयों के अिधकारों की उदोषणा पर िवचार करते हैं। इसके अनुसार, मूल िनवािसयों की राजनीितक, आिथ्फ़क और सामािजक संरचनाओं का सममान िकया जाना चािहए तथा उनकी सांसकृ ितक और आधयाितमक परं पराओं की िहफ़ाज़त होनी चािहए, तथा ज़मीन, भू-केत और संसाधनों पर उनके अिधकारों को मानयता िमलनी चािहए। इस घोषणा पत के अनुचछे द 10, 26 और 29 में मूल िनवािसयों को उनकी पारं पररक ज़मीन और संसाधनों पर हक़ देने का उ्लेख िकया गया है।85 इसी तरह, 1980 के दशक के बाद उदारवादी सैदांितक रपरे खा के भीतर हुए लेखन में मूल िनवािसयों के उनके संसाधनों पर अिधकार को लेकर कु छ महतवपूण्फ़ सूतीकरण िकए गए हैं, और यह रे खांिकत िकया गया है िक िसफ़्फ़ पारं पररक उदारवादी वयिकगत अिधकारों के माधयम से इन समूहों के िहतों की रका नहीं की जा सकती है। िवल िकमिलका ने बहुसंसकृ ितवाद से संबंिधत अपने सैदांतीकरण में यह रे खांिकत िकया है िक मूल िनवािसयों को सवशासन और अपनी ज़मीन का हक़ है। यिद इन समूहों को ये अिधकार नहीं िदये जाते हैं तो वे अपनी सामािजक संसकृ ित खो देंगे 84 वज्टीनीयस खाखा (1999). िदतीय िवशयुद के बाद से मूल िनवािसयों के अिधकारों पर वयविसथत चचा्फ़ आरं भ हुई. 1966 में इन अिधकारों को अंतरा्फ़ष्ीय मानवािधकार अिभसमयों में सिममिलत िकया गया. इसके बारे में जागरकता बढ़ने के साथ ही 1993 को अंतरा्फ़ष्ीय मूल िनवासी वष्फ़ घोिषत िकया गया. देखें कमल नयन चौबे (2015) : 12-15; यूनाइटेड नेशनस िडकलेरेशनस ऑफ़ इंिडजेनस पीपॅल (2007). 85 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 26 26 | िमान और उनहें वह संदभ्फ़ भी नहीं िमलेगा, िजसमें वे अपने अपनी वयिकगत आज़ादी का सही तरीक़े से उपयोग कर सकते हों।86 िवल िकमिलका मुखय रप से सैदांितक संदभ्फ़ में अपने िवचारों को रखते हैं िकनतु जेमस टु ली ने इससे आगे बढ़ते हुए इस बात पर बल िदया है िक मूल िनवािसयों और ग़ैर-मूल िनवािसयों के बीच संबंध तीन अिभसमयों पर आधाररत होने चािहए। ये अिभसमय हैं : मानयता, िनरं तरता और सहमित। अथ्फ़ यह है िक ग़ैर-मूल िनवासी राष्ों के साथ मूल िनवासी राष्ों को भी मानयता दी जानी चािहए, अथा्फ़त मूल िनवासी लोगों के एक राष् होने की भावना को संदहे से या पृथककरण की माँग के रप में नहीं देखा नहीं चािहए; मूल िनवािसयों के क़ानूनों और परं पराओं की िनरं तरता को सवीकार िकया जाना चािहए; और ग़ैर-मूल िनवासी और मूल िनवासी लोगों के बीच संबंधों में लोकतांितक मानक को सवीकार िकया जाना चािहए (इसका अथ्फ़ यह है िक ग़ैर-मूल िनवािसयों को मूल िनवािसयों पर ज़बद्फ़सती कोई संसथा या क़ानून नहीं थोपना चािहए)।87 जयपाल िसंह ने आिदवािसयों के शासन पबंधन को मुखय रप से आिदवासी पितिनिधयों को देने पर ज़ोर िदया, तथा मौजूदा क़ानूनों से आगे जाकर ऐसे क़ानूनों को बनाने पर बल िदया िजससे आिदवािसयों के जल, जंगल और ज़मीन पर हक़ को सुरिकत रखा जा सके । वे आिदवािसयों के जल, जंगल, ज़मीन पर हक़ के मुखर समथ्फ़क के रप में सामने आते हैं; वन िवभाग के मनमानेपन का िवरोध करते हैं, लेिकन उनके आिदवासी की तसवीर कलकारख़ानों और तकनीक से दूर हटकर अतयंत सरल और पकृ ित की गोद में जीवन वयतीत करने वाले आिदवासी की तसवीर नहीं है। जयपाल िसंह यह चाहते थे िक ख़ुद आिदवासी यह तय करें िक उनके िलए िवकास का सही रासता कया है।1990 के बाद के दौर में आिदवािसयों के बीच राजनीितक चेतना बढ़ने के साथ ऐसे क़ानूनों की माँग ज़ोर पकड़ती गई िजनसे वन िवभाग के मनमानेपन पर रोक लगे, वन भूिम और संसाधनों पर आिदवािसयों और अनय वनािशत समूहों के अिधकार सुिनि्चित हों। इसी कारण, 1996 में पंचायत (अनुसिू चत केत िव्तार) अिधिनयम (या पेसा) और 2006 में अनुसिू चत जनजाित और अनय पारं पररक वन िनवासी (वन अिधकार मानयता) अिधिनयम (या वन अिधकार क़ानून) को पाररत िकया गया। पेसा िसफ़्फ़ पाँचवीं अनुसचू ी के केतों से संबंिधत है, वहीं वन अिधकार क़ानून पूरे देश के वन केतों पर लागू होता है। ये क़ानून सवायत आिदवासी जीवन और वन संसाधनों पर आिदवािसयों के बारे में जयपाल िसंह की पररक्पना के अनुरप ही हैं।88 जयपाल िसंह आिदवािसयों के बीच िजस तरह की राजनीितक चेतना लाना चाहते थे, वह समय के साथ जयादा मज़बूती से उभरकर सामने आई है। हाल के वष्यों में ‘पतथलगड़ी आंदोलन’ और झारखंड िवधानसभा दारा ‘सरना’ धम्फ़ को मानयता देने संबंधी पसताव पाररत 86 िवल िकमिलका के िवचारों की समझ के िलए देखें िवल िकमिलका (1995). जेमस टु ली (1995); कमल नयन चौबे (2015). 88 हालाँिक यह भी सच है िक इन क़ानूनों को बहुत पभावकारी तरीक़े से लागू नहीं िकया गया. िवसतार के िलए देख,ें कमल नयन चौबे (2015). 87 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 27 जयपाल िं ह मुंडा और आ दवािी राजनी त | 27 करने को इसका पमाण माना जा सकता है। इसमें कोई संदहे नहीं है िक िवशेष रप से आज़ादी के पूव्फ़ की अपनी राजनीितक रणनीितयों के कारण जयपाल िसंह काफ़ी हद तक डॉ. भीमराव आमबेडकर की तरह ही एक ऐसे वयिकतव के रप में सामने आते हैं, िजनहें ‘मुखयधारा’ के राष्वादी वृतांत या नैरेिटव में पूरी तरह िफ़ट करना मुमिकन नहीं है। उनहोंने आिदवािसयों की समसयाओं को भारतीय राष्ीय कॉन्ेस के नेततृ व में चलने वाले आंदोलन की वयापक रपरे खा में समािहत करने के िख़लाफ़ संघष्फ़ िकया, और आिदवािसयों की िचंताओं को सामने लाने के िलए कई बार ऐसी रणनीितयों का सहारा िलया (मसलन, मुिसलम लीग से सहयोग), िजसे राष्वाद की ‘मुखयधारा’ के वृतांत में एक बड़ी चूक या अपराध के रप में पसतुत िकया जा सकता है। लेिकन जयपाल िसंह के लेखन, संबोधन या रणनीितयों में आिदवासी पश के साथ ही साथ भारत राष्-राजय के पित एक सपष िचंता िदखती है, और तमाम संदहे ों के बावजूद वे भारतीय राष् के पित अपनी आशािनवता पदिश्फ़त करते हैं। उनहोंने अतीत में आिदवािसयों के साथ हुए अनयायों, आिदवािसयों की पृथक पहचान (और अनय संबोधनों में) आिदवािसयों के अिधकारों की सुरका हेतु िविशष और ठोस उपायों पर ज़ोर देने के साथ ही नये भारतीय संिवधान और राष्-राजय की पररक्पना के पित अपनी िनषा और वचनबदता वयक की। आिदवािसयों की िविशषता को सुिनि्चित रखने पर ज़ोर देने के साथ ही भारतीय राष् के पित भी वे मज़बूत जुड़ाव रखते थे। फ़रवरी 1948 में आिदवासी महासभा के सममेलन में अपने अधयकीय भाषण में उनहोंने एक ओर यह कहा िक आज़ादी के बाद आिदवािसयों के िलए सबसे बड़ी समसया यह है िक ‘ि्रििटश सामाजयवाद’ का सथान ‘िबहारी सामाजयवाद’ ने ले िलया है। लेिकन इसके साथ ही उनहोंने भारतीय संघ के साथ अपनी वचनबदता भी वयक की, उनहोंने भावुक अंदाज़ में गांधीजी की दुखद हतया का उ्लेख िकया, और अपने भाषण के आिख़र में उनहोंने एक नारा िदया िजसमें सथानीय गव्फ़ के साथ वयापक भारतीय देशभिक की भी झलक िमली। यह नारा था : ‘जय झारखंड, जय आिदवासी, जय िहंद!’89 इस संदभ्फ़ में यह भी उ्लेखनीय है िक जब संिवधान का िनमा्फ़ण काय्फ़ चल रहा था तो नगा समूह लगातार ख़ुद भारत से अलग देश घोिषत करने की माँग कर रहे थे। उनका एक पितिनिध मंडल िद्ली आया और उसने गांधी और नेहर के साथ मुलाक़ात की, और अनय लोगों के अलावा जयपाल िसंह से भी िमला। जयपाल ने उनहें सपष रप से यह तथय बता िदया िक ‘नागा िह्स हमेशा से ही भारत का भाग रहे हैं। इसिलए पृथकता का कोई पश ही पैदा नहीं होता है।’90 89 जयपाल िसंह के इस संबोधन के िलए देखें रामदयाल मुडं ा और एस. बोसु मिलक (सं.) (2003) : 2-14; साथ ही देखें रामचंद गुहा (2007) : 266-7. 90 सीएडी, वॉ्यूम 4 : 947-8; रामचंद गुहा (2007) : 265 पर उदृत; रमाशंकर िसंह ने जयपाल िसंह दारा 22 जुलाई, 1947 को राष्ीय धवज संबंधी पसतावों पर भाषण का उ्लेख िकया है िजसमें उनहोंने आिदवािसयों को देश के अनय नागररकों के बराबर माना था. जयपाल िसंह के अनुसार, ‘यह राष्ीय झंडा आिदवािसयों को नया संदश े देगा िक उनका छह हज़ार वष्यों का 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 28 28 | िमान हालाँिक एक राजनीितक वयिकतव के रप में जयपाल िसंह की रणनीितयों की कु छ बुिनयादी ख़ािमयों को भी इंिगत िकया जाना आवशयक है। इस संदभ्फ़ में मैं तीन पमुख िबंदओ ु ं को रे खांिकत करना चाहता हूँ : पहला, हालाँिक जयपाल िसंह ने संिवधान सभा में आिदवािसयों के भू-अिधकारों से संबंिधत पहले के क़ानून (मसलन, छोटानागपुर िटनेंसी ऐकट) क़ायम रखने और आवशयकतानुसार उनहें मज़बूत बनाने पर ज़ोर िदया, लेिकन झारखंड पाट्टी के अधयक के रप में या कॉन्ेस के सांसद के रप उनहोंने आिदवािसयों की ज़मीन हड़पे जाने के िख़लाफ़ जमीनी सतर पर िकसी पितरोध आंदोलन को संगिठत करने का पयास नहीं िकया।91 दूसरा, यह बात सच है िक अतयिधक लोकिपय और सुगिठत संगठन वाले राजनीितक दल कॉन्ेस के सामने जयपाल िसंह की झारखंड पाट्टी, समथ्फ़न आधार और संसाधनों के मामलों में काफ़ी कमज़ोर थी, इसिलए, कामाखया नारायण िसंह जैसे बड़े उममीदवारों को अपनी पाट्टी से िटकट देकर राजयसभा भेजने के फ़ै सले को वयावहाररक राजनीित का तक़ाज़ा माना जा सकता है। िकनतु यह भी सच है िक जयपाल िसंह ने अपनी पाट्टी के भीतर लोकतांितक मू्यों को बढ़ावा देने का कोई सि्रिय पयास नहीं िकया, 195063 तक वही पाट्टी के अधयक रहे और पाट्टी में उनकी मज़्टी को ही सव्वोपरर माना गया। एक हद तक मौजूदा समय में अिधकांश केतीय दलों की सीमाएँ झारखंड पाट्टी की राजनीित में भी नज़र आती है। तीसरा, कॉन्ेस में झारखंड पाट्टी के िवलय के उनके फ़ै सले को राजनीितक सूझ-बूझ की कमी के रप में इंिगत िकया जा सकता है। इससे पहले सन 1952 में वे िवपकी दलों से गठजोड़ करने के जयपकाश नारायण के पसताव की उपेका कर चुके थे। शायद यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है िक यिद वे ग़ैर-कॉन्ेस दलों से गठजोड़ करते तो कॉन्ेस की वच्फ़सवशाली राजनीित को जयादा ठोस तरीक़े से चुनौती दे सकते थे। िकनतु इसके सथान पर उनहोंने कॉन्ेस में िवलय का रासता अपनाया। हालाँिक, जैसािक आलेख में पहले उ्लेख िकया गया है िक मृतयु से पूव्फ़ उनहें अपने इस फ़ै सले का पछतावा भी था। इन सीमाओं के बावजूद आिदवािसयों के अिधकारों के मसले को दृढ़ता से सामने रखने के सदंभ्फ़ में जयपाल िसंह का अदु त योगदान है। V. न र्श जयपाल िसंह मुडं ा भारत के सबसे वंिचत समूह अथा्फ़त आिदवािसयों के एक ऐसे वयिक के रप में सामने आते हैं िजसने राजनीित में आने से पहले ही एक हॉकी िखलाड़ी, पशासक और िशकक के रप में काम करके अपनी योगयता और पितभा का लोहा मनवा िलया था। युद समाप हो गया है, और वे देश में उतने ही सवतंत हैं िजतने की अनय वयिक. रमाशंकर यह रे खांिकत करते हैं िक आमबेडकर की तरह वे भी एक राजमम्फ़ज हैं, और उनकी राय पर चले िबना बेहतर भारत नहीं बनाया जा सकता है. देखें रमाशंकर िसंह (2020) : 123. 91 बलबीर दत भी जयपाल िसंह की राजनीित की इस सीमा को रे खांिकत करते हैं. देखें बलबीर दत (2017) : 170-72. 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 29 जयपाल िं ह मुंडा और आ दवािी राजनी त | 29 राजनीित में उनहोंने देश की वच्फ़सवशाली धारा से अलग हटते हुए आिदवािसयों की भलाई के राजनीितक एजेंडे पर काम िकया। वे आिदवािसयों के िलए एक ऐसी वयापक पहचान का िनमा्फ़ण करना चाहते थे जो भारतीय होने की पहचान की अनुपरू क तो अवशय हो िकनतु उसमें पूरी तरह समािहत न हो जाए। सपषतः उनकी आवाज़ राष्वादी रपरे खा के भीतर िभननता की आवाज़ के रप में दज्फ़ की जानी चािहए। जयपाल िसंह के िवचारों में एक ऐसे सवायत आिदवासी जीवन की तसवीर सामने आती है, िजसमें आिदवासी पूरी दुिनया से अलग-थलग नहीं है, बि्क वह अपनी शत्यों पर, अपने उदेशयों के िहसाब से आधुिनक तकनीक, िशका, भाषा और जीवन के अनय तमाम पहलुओ ं को अपनाता है। वे आिदवािसयों के पितिनिधतव, सांसकृ ितक पहचान तथा उनके जल, जंगल और ज़मीन पर अिधकार को सुिनि्चित करना चाहते थे। एक राजनीितज के रप में उनकी रणनीित में कु छ ख़ािमयाँ अवशय रहीं लेिकन एकदलीय पभुतव की कॉन्ेस पणाली के दौर में उनहोंने एक लमबे समय तक केतीय दल के रप में झारखंड पाट्टी को सि्रिय रखा, और झारखंड केत में वह पाट्टी (पहले आिदवासी महासभा और बाद में झारखंड पाट्टी के रप में) कॉन्ेस के िलए एक बड़ी चुनौती बनी रही। जयपाल िसंह को इस बात का शेय िदया जाना चािहए िक वैिशक सतर पर, और उदारवादी राजनीित िसदांत के भीतर मूल िनवािसयों के अिधकारों के पित चेतना जा्त होने से काफ़ी पहले उनहोंने भारत में आिदवािसयों के मुदों और उनकी संभािवत माँगों को ठोस तरीक़े से पेश िकया। आिदवािसयों के अिधकारों के बारे में उनके अिधकांश िवचारों पर अब अंतरा्फ़ष्ीय सतर पर (मूल िनवािसयों के अिधकारों के संदभ्फ़ में) सहमित बन चुकी है। िनि्चित रप से, जयपाल िसंह की राजनीित में आिदवासी संसाधनों के अतयिधक और बलात दोहन, तथा माओवादी िहंसा या ‘सलवा जुडूम’92 जैसी राजय पायोिजत गितिविधयों के माधयम से आिदवािसयों को आपस में लड़ाने की सािज़श के तीखे िवरोध का सूत िमलता है। साथ ही, उनके राजनीितक िवचारों के आधार पर यह कहा जा सकता है िक वे ‘पतथलगड़ी’93 जैसे आिदवािसयों के अपने ज़मीन और संसाधनों पर हक़ से जुड़े हर आंदोलन का समथ्फ़न करते। 92 93 देख,ें नंिदनी सुंदर (2016); (2018). पतथलगड़ी आंदोलन की सामानय समझ के िलए देखें विज्फ़िनयस खाखा (2019). 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 30 30 | िमान िंिर्श अनुज कु मार िसनहा (2013), झारखंड आंदोलन का द्तावेज़ : शोषण, संघष् और शहादत, पभात पेपरबैकस, नई िद्ली. अिशनी कु मार पंकज (2015), मरङ गोमके जयपाल िसंह मुडं ा, िवक्प पकाशन, िद्ली. कमल नयन चौबे (2015), जंगल की हक़दारी : राजनीित और संघष्, वाणी पकाशन, नई िद्ली. ————(2018), ‘सलवा जुडूम : राजय, माओवाद और िहंसा की अंतहीन दासतान’, पितमान : समय समाज सं्कृ ित, 6 (12). ————(2019), ‘आिदवासी जीवन और वनवासी क्याण आशम’, पितमान : समय समाज सं्कृ ित, 7(14). के . एस. िसंह (1982), टाइबल मूवमेंट इन इंिडया, खंड 1 और 2, मनोहर, नई िद्ली कु मार सुरेश िसंह (1983), िबरसा मुडं ा ऐंड िहज मूवमेंट, 1872-1901 : अ ्टडी ऑफ़ िमलेनेररयन मूवमेंट इन छोटानागपुर, ऑकसफ़ड्फ़ युिनविस्फ़टी पेस, कलकता और लंदन. जयपाल िसंह मुडं ा (2017क), ‘िवल नॉट बी सिटसफ़ाइड िवद लेस दैन अ सेपरे ट पॉिवंस, (पथम पकाशन, 20 जनवरी 1939), आिदवासीडम : सेलेकटेड राइिटंगस ऐंड ्पीचेज़ ऑफ़ जयपाल िसंह मुडं ा, पयारा के रके टा फाउंडेशन, राँची : 105-9. —————(2017ख), ‘वी मसट हैव अ सेपरे ट पॉिवनस, टु सुट्स द सपेशल नीड् स ऑफ़ आिदवासीज’ (पथम पकाशन : 20 जनवरी, 1939), आिदवासीडम : सेलेकटेड राइिटंगस ऐंड ्पीचेज ऑफ़ जयपाल िसंह मुडं ा, पयारा के रके टा फाउंडेशन, राँची, पृ. 110-114. —————(2017ग), ‘आिदवासीसथान-िहंदसु थान-पािकसथान’ (पथम पकाशन 28 मई 1940), अिशनी कु मार पंकज (सं.), आिदवासीडम : सेलेकटेड राइिटंगस ऐंड ्पीचेज़ ऑफ़ जयपाल िसंह मुडं ा, पयारा के रके टा फ़ाउंडेशन, राँची : 45-49. —————(2017घ), ‘गांधीज़म ऐंड सिसपशन ऑफ़ आिदवासीज’, (पथम पकाशन : 2 जून, 1940 आिदवासीडम : सेलेकटेड राइिटंगस ऐंड सपीचेज ऑफ़ जयपाल िसंह मुडं ा, पयारा के रके टा फाउंडेशन, राँची : 50-53. जेमस टु ली (1995), ्टेंज मलटीि्लिसटी : कॉन्टीट् यश ु निलज़म इन ऐन एज ऑफ़ डायविस्टी, के िम्रिज युिनविस्फ़टी पेस, के िम्रिज. डॉ. िगरधारी राम गौंझू ‘िगररराज’ (2001), झारखंड का अमृत पुत मरङ गोमके जयपाल िसंह, पझरा पकाशन, राँची. डेिवड हाड्टीमन (2003), गांधी : इन िहज टाइम ऐंड आवर, परमानेंट बलैक, रानीखेत. बलबीर दत (2017), जयपाल िसंह : एक रोमांचक अनकही कहानी (जीवनी, सं्मरण एवं ऐितहािसक द्तावेज), पभात पेपरबैकस, नई िद्ली. महाशेता देवी (1998), जंगल के दावेदार : आिदवासी संघष् की महागाथा, राधाकृ षण पेपरबैकस, नई िद्ली. मुकेश रं जन (2020), ‘झारखंड असेमबली पासेज ररसो्यूशन ऑन सरना कोड’, द नयू इंिडयन एकसपेस, 11 नवमबर, वेब पता : https://www.newindianexpress.com/nation/2020/nov/11/jharkhandassembly-passes-resolution-on-sarna-code-2222467.html. नंिदनी सुंदर (1997), सबॉलटनस् ऐंड सोवरे नस : ऐन एंथोपोलॉिजकल िह्टी ऑफ़ ब्तर, ऑकसफ़ड्फ़ युिनविस्फ़टी पेस, िद्ली. ————(2016), द बिननिंग फॉरे ्ट : इंिडयाज वॉर इन ब्तर, जॉगरनॉट बुकस, नई िद्ली. ‘यूनाइटेड नेशसं िडकलेरेशसं ऑन द राइट् स ऑन इंिडजेनस पीपॅल 2007’, संकिलत, सोशल चेंज : जन्ल ऑफ़ द कौंिसल ऑफ़ सोशल िडवलपमेंट, 38 (3). 01_kamal nayan choubey update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:24 Page 31 जयपाल िं ह मुंडा और आ दवािी राजनी त | 31 रमाशंकर िसंह (2020), ‘िकसे चािहए संिवधान? भारत के सांव्फ़जिनक जीवन में संिवधान की छिवयाँ : संिवधान सभा के बहाने एक चचा्फ़’, आलोचना, अकटू बर-िदसमबर, 63 (4). रामचंद गुहा (2007), इंिडया आफटर गांधी : द िह्टी ऑफ़ द वलड् ्स लाज्जे्ट डेमोके सी, मैकिमलन, िद्ली. रामदयाल मुडं ा और एस. बोसु मिलक (सं.) 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है। यह देखना िदलचसप है िक जहाँ एक ओर उननीसवीं सदी के उतराधट में पकािशत होने वाली भारतीय भाषाओं की ये पत-पितकाएँ सामािजक-राजनीितक चेतना और राष्ीयता की भावना को आकार देने का काम कर रही थीं, वहीं दूसरी ओर, इनमें राजभि्ति और िनषा का भाव भी गहराई से पररलिकत होता है। सुधीर चंद समेत अनेक इितहासकारों ने इस दुिचतेपन (ऐंिबवैलेंस) को समझने का पयास पमुखता से िकया है। बांगला, मराठी, गुजराती, तिमल, तेलगु ,ु मलयालम आिद तमाम भारतीय भाषाओं में यह पवृित दृिषगोचर होती है।1 िहंदी लोकवृत की बात करें तो भारतेंदु हररशंद की रचनाओं में दुिचतेपन का यह भाव सबसे अिधक पकट होता है लेिकन भारतेंदु कोई अपवाद नहीं थे। भारतेंदु के समकालीन अनय िहंदी लेखकों की रचनाओं में भी राजभि्ति और ि्रििटश राज के पित िनषा का भाव गाहे-बगाहे िदखाई पड़ता है। राजा िशव पसाद, बदरीनारायण चौधरी ‘पेमघन’, अंिबका दत आजादी का अमृत महो राजराजे री : राजभ मिारानी व ो रया 02_subhneet Kaushik update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:56 Page 34 34 | िमान वयास, राधाकृ षण दास, िमश बंध,ु शयामसुंदर दास समेत िहंदी के ऐसे लेखकों की सूची लंबी है, िजनकी रचनाओं में राजभि्ति का यह भाव पररलिकत होता है। राजभि्ति के इस भाव की बानगी उन किवताओं, कावय-सं्हों, जीविनयों में भी देखने को िमलती है, जो इस दौर में महारानी िवकटोररया को समिपटत करते हुए िलखी गई थीं। वषट 1876 में महारानी िवकटोररया को भारत-समाजी (क़ै सर-ए-िहंद) घोिषत िकए जाने के बाद ऐसे अनेक अवसर आए, जब िहंदी समेत दूसरी भारतीय भाषाओं के लेखकों ने भी िवकटोररया के गुणगान गाते हुए रचनाएँ िलखीं। वायसराय िलटन दारा आयोिजत िदलली दरबार (1877) हो, महारानी िवकटोररया के िसंहासनारोहण के पचास वषट पूरे होने पर 1887 में आयोिजत सवणट जयंती (गोलडेन जुिबली) समारोह हो अथवा उसके दस वषट बाद 1897 में आयोिजत हीरक जयंती (डायमंड जुिबली) समारोह हो या िफर 1901 में महारानी िवकटोररया का िनधन – इन सभी अवसरों पर भारतीय भाषाओं की अनेक पितकाओं ने िवशेषांक िनकाले, लेखकों ने अवसर िवशेष को धयान में रखते हुए कावय-सं्ह तैयार िकए और महारानी िवकटोररया के चररत और उनके वयि्तितव का गुणगान करते हुए लेख और जीविनयाँ भी िलखी गई ं।2 इस लेख में महारानी िवकटोररया के पित िहंदी में िलखी गई ऐसी ही रचनाओं का ऐितहािसक िवशे षण िकया जाएगा। साथ ही, ततकालीन उतर भारत में चल रहे आंदोलनों जैसे गोरका आंदोलन और िहंदी-नागरी आंदोलन के महारानी िवकटोररया से जुड़ाव के पसंगों का भी अधययन िकया जाएगा। भारतीयो का मै ाकाराटा : रानी ि भारत की राजनी त ो रया का घोषणाप और उ र औपिनवेिशक भारत के इितहास और राजनीित में 1857 के िवदोह की समािप के बाद वषट 1858 में जारी िकया गया रानी िवकटोररया का घोषणापत एक महतवपूणट पड़ाव है। िहंदी लोकवृत की बात करें तो उननीसवीं सदी के आिख़री दशकों में और बीसवीं सदी के पूवाटरट में िहंदीभाषी इलाक़े के िजस राष्वादी नेता ने अपने भाषणों और लेखों में बारं बार रानी िवकटोररया के घोषणापत का उललेख िकया, वे थे पंिडत मदन मोहन मालवीय। भारतीय राष्ीय कॉन्ेस के वािषटक अिधवेशन हों, यु्ति पांत के राजनीितक सममेलन हों या अभयुदय में पकािशत लेख हों, मदन मोहन मालवीय ने रानी िवकटोररया के घोषणापत में उिललिखत बातों को उरृत करते हुए अं्ेज़ी राज से जवाबदेही की माँग की, उसकी नीितयों पर सवाल खड़े िकए। ऐसा करते हुए मालवीय ने घोषणापत का इसतेमाल अपने तक्कों को बल देने और उनहें और पभावी बनाने के िलए िकया। वषट 1886 में कलकता में आयोिजत भारतीय राष्ीय कॉन्ेस के दूसरे अिधवेशन में भाग लेते हुए मदन मोहन मालवीय ने रानी िवकटोररया के घोषणापत (1858) का हवाला 2 िविभनन भारतीय भाषाओं में रानी िवकटोररया के बारे में िलखे गए सािहतय के िवसतृत सव्वेकण हेतु देख,ें माइलस टेलर (2018). 02_subhneet Kaushik update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:56 Page 35 राजराजे री : राजभ , हदी लोकवृ और महारानी व ो रया | 35 िदया। कें दीय और पांतीय पररषदों का िवसतार करने, पररषद के िनवावािचत सदसययों की संखया को बढ़ाकर कु ल सदसयों की संखया का आधा करने और िनवाटिचत सदसयों को बजट और दूसरे आिथटक पावधानों से जुड़े सवाल पूछने जैसी अिधक शि्तियाँ देने के पसताव पर मालवीय ने अिधवेशन में अपना व्तिवय रखा। ‘पितिनिधतव नहीं तो कर नहीं’ का नारा लगाते हुए मालवीय ने उपिसथत लोगों को रानी िवकटोररया के घोषणापत की याद िदलाई और इसे ‘भारतीयों का मैगनाकाटाट’ कहा।3 मालवीय ने घोषणापत के उस वाकय को उरृत िकया िजसमें भारतीयों को नसल या धमट के आधार पर कोई भेदभाव िकए िबना नौकररयों में जगह देने की घोषणा की गई थी, और कहा गया था िक ि्रििटश पजा को उसकी योगयता, िशका, अहटता और िनषा के आधार पर सेवाओं में जगह िमलेगी। उपयुट्ति घोषणा की याद िदलाने के बाद मालवीय ने दुख जताते हुए कहा िक पशासन और िवधाियका में भारतीयों का पितिनिधतव बहुत कम है। इस िवषमता का उललेख करते हुए मालवीय ने कहा िक जब हमें पशासन में तिनक भी जगह न िमलती हो, जब हमें उन क़ानूनों और िवधेयकों पर पररषदों में एक शबद कहने का भी अिधकार न हो, जो साल-दरसाल हमारे ऊपर थोप िदए जाते हैं और िजनहें झेलने के िलए हम िववश हैं, तब भला यह कै से कहा जा सकता है िक हमारे साथ समानता का वयवहार िकया जा रहा है।4 इसी पकार वषट 1904 में भारतीय राष्ीय कॉन्ेस के बंबई अिधवेशन में ि्रििटश संसद में भारतीयों के पितिनिधतव की माँग से जुड़े पसताव पर बोलते हुए मदन मोहन मालवीय ने पुनः 1858 के घोषणापत का हवाला देते हुए कहा : हमें घोषणापत के उदार शबदों को बार-बार तब तक दुहराना चािहए, जब तक िक ि्रििटश शासकों का धीरज न छू ट जाए। घोषणापत में इस देश का शासन चलाने हेतु िजन उदार िसरांतों को सामने रखा गया है, वे दुिनया के िकसी भी देश के िलए सममान का िवषय हो सकते हैं... हम सरकार से िकसी कांितकारी बदलाव की उममीद नहीं रखते, हम तो के वल इतना ही चाहते हैं िक वह इस घोषणापत में बताए गए िसरांतों के अनुरूप कायट करे ।5 इसी पकार, वषट 1908 में लखनऊ में आयोिजत यु्ति पांतीय सममेलन की अधयकता करते हुए मदन मोहन मालवीय ने राजनीितक सुधारों पर बल देते हुए रानी िवकटोररया के घोषणापत में पुनः अपनी आसथा ज़ािहर की। जहाँ तक रानी िवकटोररया के घोषणापत के महतव का सवाल था, तो मालवीय का मानना था िक ‘िकसी संपभु शासक दारा उसके दारा 3 दो साल बाद इलाहाबाद में आयोिजत भारतीय राष्ीय कॉन्ेस के वािषटक अिधवेशन (1888) में एक पसताव पर बोलते हुए मालवीय ने रानी िवकटोररया के घोषणापत को ‘िहंदसु तािनयों के अिधकारों और िवशेषािधकारों का घोषणापत (चाटटर)’ कहते हुए, उसे ऐसा आधार-सतंभ बतलाया िजस पर भारतीयों की माँगें िटकी हुई थीं. 4 द ऑनरे बल पंिडत मदन मोहन मालवीय : िहज़ लाइफ़ ऐंड सपीचेज़ : 7-8. 5 वही : 48-49 (अनुवाद मेरा). 02_subhneet Kaushik update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:56 Page 36 36 | िमान शािसत दूसरे देश के लोगों के िलए इससे अिधक उदार िसरांत कहीं नहीं अपनाए गए।’ इतना ही नहीं दो वषट बाद मदन मोहन मालवीय ने इलाहाबाद में घोषणापत सतंभ (पोकलेमश े न िपलर) खड़ा करने की योजना पर भी कायट आरं भ कर िदया। यह सतंभ वहीं खड़ा िकया जाना था, जहाँ 1 नवंबर, 1858 को वायसराय लॉडट कै िनंग ने रानी िवकटोररया के घोषणापत की उदोषणा की थी। घोषणापत के समारक के रूप में एक पाकट बनाए जाने का पसताव भी मालवीय ने रखा। बाद में, मालवीय ने वायसराय लॉडट िमंटो को घोषणापत सतंभ और समारक की आधारिशला रखने के िलए आमंितत िकया और िमंटो ने आधारिशला रखी तथा यमुना िकनारे आयोिजत एक िवशाल पदशटनी का भी उदाटन िकया। भारतीय राष्ीय कॉन्ेस और दूसरे राजनीितक सममेलनों में िदए गए भाषणों में ही नहीं, अभयुदय जैसे पतों में छपे अपने लेखों में भी मालवीय ने राजनीितक सुधार से जुड़े पशों पर चचाट करते हुए पाठकों को बार-बार रानी िवकटोररया के घोषणापत की याद िदलाई। अभयुदय में पकािशत एक ऐसे ही लेख में मालवीय ने यह माँग उठाई िक भारतीयों को वे सभी अिधकार िदए जाने चािहए, जो इंगलैंड के नागररकों को पाप हैं। मालवीय की दृिष में संगठन और सभा की सवतंतता और अिभवयि्ति की आज़ादी के अिधकार का महतव सवाटिधक था।6 अभयुदय में ही छपे एक अनय लेख में मदन मोहन मालवीय ने रानी िवकटोररया दारा लॉडट िलटन को 1877 में िदलली दरबार के अवसर पर भेजे गए उस तार की भी याद िदलाई, िजसमें िवकटोररया ने सवतंतता, समानता और नयाय की धारणा पर बल िदया था।7 पत-पितकाओं के अलावा इितहास की पाठ् यपुसतकें भी रानी िवकटोररया के घोषणापत को उरृत कर रही थीं। मसलन, राजा िशवपसाद दारा िलखी गई इितहास की सकू ली पाठ् यपुसतक इितहासितिमरनाशक में पूरा घोषणापत ही उरृत िकया गया। उललेखनीय है िक इस पुसतक में राजा िशवपसाद रानी िवकटोररया को ‘कृ पािनधान दयावान कमासागर जगतउजागर शीमती महारानी एंपेस िवकटोररया’ कहकर संबोिधत करते हैं।8 इितहासकार बनाटड कोह्न के अनुसार, रानी िवकटोररया के उ्ति घोषणापत को हम एक ऐसे सांसकृ ितक व्तिवय की तरह समझ सकते हैं िजसमें शासन के दो िवरोधाभासी िसरांत समािहत थे। एक, िजसके अंतगटत भारत में सामंती वयवसथा बरक़रार रखने की कोिशश हो रही थी, तो दूसरा जो उन बदलावों का हामी था, िजसके दारा अंततः सामंती वयवसथा का िवनाश होना था। इस घोषणापत और िदलली दरबार जैसे आयोजनों के बारे में कोह्न ने ठीक ही िलखा है िक ‘इनके ज़ररए उननीसवीं सदी में भारत में कमटकांडों का ऐसा मुहावरा गढ़ने की कोिशश की गई, िजसके ज़ररए भारतीयों के सामने ि्रििटश पािधकार को पसतुत िकया जा सके ।’9 6 7 8 9 मदन मोहन मालवीय, ‘मयाटदा के अनुसार आंदोलन’, अभयुदय, 12 फ़रवरी, 1907. मदन मोहन मालवीय, ‘हमारी सनद और राजकमटचारी’, अभयुदय, 2 मई, 1912. राजा िशवपसाद (1881) : 94. देख,ें बनाटड कोह्न (1983) : 165-210. 02_subhneet Kaushik update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:56 Page 37 राजराजे री : राजभ , हदी लोकवृ और महारानी व गोर ा, िं दी-नागरी आंदोलन और रानी ि ो रया | 37 ो रया औपिनवेिशक उतर भारत में रानी िवकटोररया के घोषणापत का हवाला िसफ़ट मदन मोहन मालवीय सरीखे नेता और इितहासितिमरनाशक जैसी पाठ् यपुसतकें ही नहीं दे रही थीं। बिलक गोरका आंदोलन के नेताओं दारा भी रानी िवकटोररया का हवाला िदया जा रहा था। उललेखनीय है िक उननीसवीं सदी के उतरारट में उतर भारत में दो पभावशाली आंदोलनों का उभार देखने को िमलता है। इनमें से एक राजनीितक-धािमटक सवरूप िलए हुए था, तो दूसरा भाषा की राजनीित से जुड़ा था। िदलचसप है िक दोनों ही आंदोलनों के नेततृ व दारा रानी िवकटोररया का नाम अकसर िलया जाता रहा। गोरका आंदोलन का नेततृ व दयानंद सरसवती और उनके दारा सथािपत संगठन ‘आयट समाज’ कर रहा था। दयानंद सरसवती की अगुवाई में उतर भारत के तमाम इलाक़ों में गौरिकणी सभाओं की सथापना की गई और गोहतया रोकने के िलए एक सश्ति आंदोलन चलाया गया। िदलचसप है िक दयानंद सरसवती ने 1881 में िलखी गई अपनी उस िकताब में रानी िवकटोररया के घोषणापत का हवाला िदया, िजसने गोरका आंदोलन के िलए वैचाररक आधार मुहयै ा कराया था। यह िकताब थी – गोकरुणािनिध। इसी पुसतक में दयानंद सरसवती िलखते हैं : शीमती राजराजेश्वरी शीिवकटोररया महारानी का िवजापन भी पिसर है िक इन अवय्तिवाणी पशुओ ं को जो-जो दुख िदया जाता है वह-वह न िदया जाए, तो कया भला मार डालने से भी अिधक कोई दुख होता है? कया फाँसी से अिधक दुख बंदीगृह में होता है? िजस िकसी अपराधी से पूछा जाए िक तू फाँसी चढ़ने में पसनन है या बंदीघर में रहने में? तो वह सपष कहेगा िक फाँसी में नहीं, बिलक बंदीघर में रहने में।10 इस पुसतक के िलखे जाने के साल भर बाद ही बनारस के महाराजा ईश्वरी पसाद नारायण िसंह के सहयोग से दयानंद सरसवती ने कलकता में एक गौरिकणी सिमित की सथापना की। इसके बाद आयट समाज ने गोरका के समथटन में हसताकर अिभयान चलाया और जगह-जगह पर गौरिकणी सभाओं की सथापना की गई। शाहजहाँपरु , बनारस, बंबई, कानपुर, ग़ाज़ीपुर, देहरादून, सारण, गया और ढाका आिद जगहों पर गौरिकणी सभाएँ सथािपत हुई ं। शीमन सवामी, सवामी अला राम, गोपालानंद सवामी जैसे उपदेशकों ने घूम-घूमकर गोरका के समथटन में उतेजक भाषण िदए। गौरिकणी सभाओं की गितिविधयों से सांपदाियक तनाव का जो माहौल बना, वह उननीसवीं सदी के आिख़री दशक में उतर भारत में अनेक सांपदाियक दंगों के रूप में सामने आया।11 ग़ौरतलब है िक भारतेंदु युग के महतवपूणट लेखकों ने भी गोरका आंदोलन के समथटन में लेख, नाटक और किवताएँ िलखी थीं। इनमें भारतेंदु हररशंद के साथसाथ पताप नारायण िमश, अंिबका दत वयास सरीखे लेखक भी शािमल थे।12 10 दयानंद सरसवती (1998 [1881]). गौरिकणी सभाओं के संगठन और गोरका संबंधी आंदोलन के ऐितहािसक िवशे षण हेतु देख,ें पीटर रॉब (1996) : 285319; जानेंद पांडे (1981). 12 अंिबका दत वयास ने ‘गोसंकट नाटक’ िलखकर गोरका के िलए िहंदओ ु ं का आहान िकया. उनका यह नाटक उिचत वका 11 02_subhneet Kaushik update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:56 Page 38 38 | िमान िहंदी-नागरी आंदोलन में शािमल लेखकों और सभाओं दारा भी रानी िवकटोररया का नाम बार-बार िलया जाता रहा। वषट 1893 में सथािपत काशी नागरी पचाररणी सभा के संसथापक-सदसय ख़ुद भी कवींस कॉलेज के छात थे, िजसका नाम रानी िवकटोररया के नाम पर ही रखा गया था। सभा की पितका नागरी पचाररणी पितका और सभा के वािषटक कायटिववरणों में भी रानी िवकटोररया का उललेख बड़े ही सममानपूवटक होता था। राधाकृ षण दास ने वषट 1901 में नागरी पचाररणी पितका में पकािशत एक लेख में रानी िवकटोररया के शासनकाल में िहंदी सािहतय की उललेखनीय पगित का िवसतृत बयौरा िदया था। िहंदी के िवकास में फ़ोटट िविलयम कॉलेज आिद के योगदान को सवीकारते हुए भी राधाकृ षण दास ने िलखा िक िहंदी सािहतय की वासतिवक पगित रानी िवकटोररया के शासनकाल में ही हुई। उनका यह भी मानना था िक रानी िवकटोररया के पभाव के चलते ही िबहार, मधय पांत, कु माऊँ और अंततः पिशमोतर पांत में िहंदी को राजकीय मानयता िमली।13 वषट 1884 में िलखे गए नाटक देवाक्षर चररत में, िजसे भोजपुरी का पहला नाटक होने का शेय पाप है, पंिडत रिवदत शुकल ने अदालतों और कचहररयों में देवनागरी िलिप की वकालत करते हुए अं्ेज़ अिधकारी को संबोिधत करते हुए िलखा : जब तक आप सरीखे पुरुषिसंह शी महाराणी राजराजेश्वरी के सवगटपरु ी के समान राजदीप से भारतवषट में शासनकताट िनयु्ति होकर भेजे जाएँगे तब तक इस आयाटवतट का राजय शी भारतेश्वरी िवजियनी के आिधपतय में िहमालय िशखर के समान अचल बना रहेगा।14 में वषट 1882 में पकािशत हुआ. बाद में पुसतक रूप में इसे खड् ग िवलास पेस दारा 1884 में पकािशत िकया गया. देख,ें सवनामधनय पंिडत अंिबका दत वयास : वयिकतव एवं कृ िततव (1992). 13 राधाकृ षण दास, ‘िवकटोररया शोकपकाश’, नागरी पचाररणी पितका, भाग 5, 1901. 14 रिवदत शुकल (1884) : 47. 02_subhneet Kaushik update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:56 Page 39 राजराजे री : राजभ , हदी लोकवृ और महारानी व मू तटा याँ, पाकटा और ू ल : औप निे शक भारत मे रानी ि उ र-औप निे शक राजनी त ो रया | 39 ो रया और वषट 1876 में रानी िवकटोररया के भारत-समाजी घोिषत िकए जाने के बाद िदलली दरबार, जुिबली समारोहों और रानी िवकटोररया के िनधन के बाद भी भारत में जगह-जगह िवकटोररया और ि्रििटश राजपररवार के अनय पमुख सदसयों की मूितटयाँ सथािपत की गई ं, सावटजिनक पाक्कों और िशकण संसथानों का नामकरण भी उनके नाम पर हुआ। तब के यु्ति पांत में गोरखपुर, लखनऊ, बिलया आिद जगहों पर वषट 1887 में िसलवर जुिबली के अवसर पर सकू लों की भी सथापना की गई, िजनहें जुिबली सकू ल/कॉलेज कहा गया। रानी िवकटोररया की एक ऐसी ही मूितट उनके िनधन के चार वषट बाद इलाहाबाद के अल्े ड पाकट में सथािपत हुई। ख़ुद अल्े ड पाकट का नामकरण ड् यूक ऑफ़ एिडनबरा (अल्े ड) के नाम पर हुआ था, जो वषट 1870 में िहंदसु तान आए थे। उस अवसर पर पिशमोतर पांत के लेि्टनेंट गवनटर िविलयम मयोर ने उनहें इलाहाबाद आने का िनमंतण िदया। अल्े ड के इलाहाबाद आगमन के दौरान एक पाकट की सथापना हेतु आधारिशला रखी गई और इसका नाम अल्े ड पाकट रखा गया। पैंतीस साल बाद इसी पाकट में रानी िवकटोररया की मूितट सथािपत हुई और माचट 1906 में इसका उदाटन यु्ति पांत के ततकालीन लेि्टनेंट गवनटर सर जेमस िडगेस ला टू श दारा िकया गया। इसी तरह वषट 1903 में बनारस में ‘िवकटोररया पाकट ’ बनाया गया। शहर के बीच में िसथत यह पाकट बेिनया और हर ताल को सुखाकर बनाया गया। बेिनया ताल के दलदली इलाक़े को सुखाने की पररयोजना पहली बार 1878 में बनाई गई, िकं तु यह पचचीस साल बाद ही साकार रूप ले सकी। बनारस के दो रईसों − राय नारायण दास और राय नरिसंहदास ने िवकटोररया पाकट के िनमाटण के िलए भारी रक़म अनुदान में दी।15 िवकटोररया पाकट में (िजसे अब ‘बेिनया बाग़’ कहा जाता है) रानी िवकटोररया की एक मूितट भी सथािपत की गई। आज़ादी के बाद पचास के दशक में समाजवादी नेताओं दारा सामाजयवादी शासकों और वाइसरायों की मूितटयाँ हटाने का आंदोलन चलाया गया। उसी दौरान वषट 1957 में, जोिक 1857 के िवदोह का शताबदी वषट भी था, बनारस के कु छ समाजवादी नेताओं दारा मई में समूह बनाकर िवकटोररया पाकट पहुचँ कर रानी िवकटोररया की मूितट तोड़ दी गई। इन नेताओं का नेततृ व समाजवादी नेता राज नारायण दारा िकया गया। बाद में उनहें िगर्तार कर िलया गया और जेल की सज़ा भी हुई। िवडंबना कहें या ऐितहािसक नयाय िक आगे चलकर िवकटोररया पाकट का नाम बदलकर ‘लोकबंधु राज नारायण पाकट ’ रख िदया गया।16 15 16 एच.आर. नेिवल (1909) : 118. रामसागर िसंह (2010) : 42. 02_subhneet Kaushik update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:56 Page 40 40 | िमान राजभ , रानी ि ो रया और िं दी का बौ क िगटा िहंदी में राजभि्ति संबंधी सवाटिधक रचनाओं का शेय भारतेंदु हररशंद को जाता है। भारतेंदु ने न के वल सवयं राजभि्ति संबंधी किवताएँ िलखीं, बिलक ‘भारतेंदु मंडल’ के दूसरे लेखकों को भी राजभि्ति संबंधी रचनाएँ िलखने के िलए पेररत िकया। जब वषट 1870 में ड् यक ू ऑफ़ एिडनबरा अपनी भारत-याता के दौरान बनारस पहुचँ ,े तब वहाँ उनका सवागत भारतेंदु हररशंद दारा िकया गया। 20 जनवरी, 1870 को भारतेंदु ने काशी में पंिडतों की एक सभा आयोिजत की, जहाँ ड् यक ू ऑफ़ एिडनबरा के भारत आगमन पर उललास पकट करते हुए किवताएँ पढ़ी 17 गई ं। राजकु मार अल्े ड की पशंसा में रिचत जयादातर किवताएँ संसकृ त में िलखी गई थीं। ये किवताएँ बाद में एक कावय-सं्ह के रूप में पकािशत की गई ं, िजसका शीषटक था सुमनांजिल। भारतेंदु ने सवयं िहंदी में िलिखत राजकु मार की एक संिकप जीवनी उपिसथत शोताओं के सामने पढ़ी। इसी अवसर पर िलखी एक किवता में भारतेंदु ने अल्े ड को धरती का चंदमा (‘भूिम चंद’) कहते हुए िलखा : जािन अिधकाई सब भाँित राजपुत ही की, गहन के िमस यह मित उपजाई है। देिख आज उिदत पकाशमान भूिम-चंद, नभ-सिस लाज मुख कािलमा लगाई है॥18 वषट 1871 में जब िपंस ऑफ़ वेलस टाइफ़ाइड बुख़ार से पीिड़त थे, तब उनके शीघ्र सवसथ होने की कामना करते हुए भारतेंदु ने एक किवता िलखी। चार साल बाद जब िपंस ऑफ़ वेलस भारत आए, तब भी भारतेंदु ने उनका सवागत करते हुए एक लंबी किवता िलखी, िजसका शीषटक था ‘शी राजकु मार-शुभागमन वणटन’। बालाबोिधनी पितका में छपी इस किवता में भारतेंदु ने राजकु मार के काशी आगमन की तुलना भगवान राम के अयोधया लौटने से की : िजिम रघुबर आए अवध िजिम रजनी लिह चंद ितिम आगमन कु मार के कासी लहो अनंद।19 इस किवता के अंितम दोहे में भारतेंदु ने युवराज, उनके भाई, उनकी पतनी और माँ रानी 17 इस अवसर पर भाग लेने वाले िवदानों में पमुख थे : बापूदवे शासी, राजाराम शासी, बसती राम, गोिवंद देव, शीतल पसाद बेचन राम, ढूंिढ़राज धमाटिधकारी, रमापित दुबे, राम कृ षण पट्टबधटन, िशव राम गोिवंद रानाडे, नारायण किव, हनुमान किव, राधा कृ षण दास, मधुसदू न दास, गोकु ल चंद, मुश ं ी संकठा पसाद, मौलवी अशरफ अली ख़ान. 18 ्रिजरतनदास (1962) : 168. 19 इसी किवता में भारतेंदु ने काशी की तुलना दुलहन से करते हुए िपंस ऑफ़ वेलस को दूलहा बतलाया है (‘दुलही सी कासीपुरी उलही नव बर पाय’), भारतेंदु गंथावली, खंड 2 : 698-99. 02_subhneet Kaushik update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:56 Page 41 राजराजे री : राजभ , हदी लोकवृ और महारानी व ो रया | 41 िवकटोररया के िचरं जीवी होने की कामना करते हुए िलखा : भात मात सह सुतन जुत, िपया सिहत जुवराज। िजओ िजओ जुग जुग िजओ, भोगौ सब सुख साज।। 1875 में ही िपंस ऑफ़ वेलस का सवागत करने के उदेशय से भारतेंदु ने भारतीय िवदानों को िपंस ऑफ़ वेलस की पशंसा में िहंदी, संसकृ त, उदू,ट फ़ारसी, बांगला, गुजराती, तिमल और अं्ज़े ी आिद भाषाओं में किवता िलखने के िलए आमंितत िकया। बदरीनारायण चौधरी ‘पेमघन’, पंिडत बापूदवे शासी, पंिडत वेंकटेश शासी, पंिडत अनंतराम भट्ट, पंिडत बालकृ षण भट्ट आिद ने इस सं्ह के िलए अपनी रचनाएँ दीं। िहंदी में िलखी ये किवताएँ सवैया, दोहा, सोरठा, किवत, कुं डली, छपपय आिद िविवध शैिलयों और छं दों में रची गई थीं। ये किवताएँ बाद में कावय-सं्ह के रूप में भारतेंदु दारा मानसोपायन शीषटक से पकािशत की गई 20ं। भारतेंदु ने ख़ुद भी इस सं्ह में िहंदी और गुजराती में किवताएँ िलखीं। अं्ज़े ी राज के पित अपनी िनषा सपष शबदों में ज़ािहर करते हुए भारतेंदु ने िलखा िक ‘हम सब सवभाविसर राजभ्ति हैं।’ यह कावय-सं्ह वषट 1877 में आयोिजत िदलली दरबार के अवसर पर िपंस ऑफ़ वेलस को भेंट में िदया गया। िपंस ऑफ़ वेलस के भारत आगमन पर िलखी गई किवता के आरंभ में ही भारतेंदु ने िलखा है : आओ आओ हे जुवराज। धन-धन भाग हमारे जागे पूरे सब मन-काज॥ कहँ हम कहँ तुम कहँ यह धन िदन कहँ यह सुभ संजोग। कहँ हतभाग भूिम भारत की कहँ तुम-से नृप लोग॥21 भारतेंदु ने अपनी इस किवता में राजा दारा पजा को दशटन िदए जाने की धारणा के महतव पर भी ज़ोर िदया (जदिप राज तुव कु ल को इत बहु िदन सयों बरसत छे म / तदिप राज-दरसन िबनु निहं नृप पजा मािहं कछु पेम)। उललेखनीय है िक वषट 1877 में आयोिजत िदलली दरबार का उदेशय भारत में ि्रििटश शासन को वैधता और लोकिपयता िदलाना था। 1877 और उसके बाद 1903 और 1911 में आयोिजत हुए दरबारों को हम एक ऐसे राजनीितक कमटकांड के रूप में देख सकते हैं, जो सटैनली तंबैयया के अनुसार ‘सीधे तौर पर सता की अिभवयि्ति और उसके वयवहार से संबर थी।’22 दरबारों के आयोजन की पृषभूिम 1857 के िवदोह के एक साल बाद वायसराय लॉडट कै िनंग के उन दौरों में भी देखी जा सकती है, िजसमें उनहोंने उतर 20 इस सं्ह में िहंदी, पंजाबी, मराठी, संसकृ त, उदू,ट तेलगु ु और अं्ेज़ी में िलखी किवताएँ शािमल थीं. लालिबहारी शुकल, रामराज, संतलाल, संतोष िसंह शमाट, पंिडत सखाराम भट्ट, पंिडत गदाधर शमाट मालवीय, तािलब, अहकार, हसन, िज़या आिद किवयों की किवताएँ भी इस संकलन में शािमल थीं. 21 भारतेंदु गंथावली, खंड 2 : 723. 22 सटैनली तंबैयया (1976) : 113-69. 02_subhneet Kaushik update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:56 Page 42 42 | िमान भारत के केतों का वयापक दौरा करते हुए भारतीय शासकों, कु लीन वग्कों और भारतीय एवं ि्रििटश अिधकाररयों से मुलाक़ातें की थीं और जगह-जगह दरबार आयोिजत हुए थे। अपैल 1876 में ‘रॉयल टाइटलस ऐकट’ पाररत हुआ और उसे रानी िवकटोररया की सवीकृ ित भी िमल गई। भारत में दरबार के आयोजन के पीछे नविनयु्ति वायसराय लॉडट िलटन के साथ-साथ ि्रििटश पधानमंती िडज़रैली और भारत-सिचव सैिलसबरी का िवचार भी पमुखता से काम कर रहा था। 1877 के िदलली दरबार रूपी राजनीितक कमटकांड के ज़ररए वायसराय लॉडट िलटन भारत के राजा-महाराजा और कु लीन वगट को ही नहीं बिलक आम िहंदसु तािनयों को भी आकिषटत करना चाहते थे, यह उनके पताचारों से सपष हो जाता है। लाहौर िसथत गवनटमटें कॉलेज के पाचायट और पाचय भाषाओं के पाधयापक जी.डबलयू. िलटनर ने रानी िवकटोररया के िलए ‘क़ै सर-ए-िहंद’ की उपािध सुझाई, िजसे सवीकार कर िलया गया।23 िदलली दरबार के दौरान पेंशन और वेतन में बढ़ोतरी, सलामी की संखया में वृिर, ‘ऑडटर ऑफ़ ि्रििटश इंिडया’, ‘ऑडटर ऑफ़ द सटार ऑफ़ इंिडया’ जैसी उपािधयों के ज़ररए शासक वगट को पसनन करने की कोिशश की गई। वहीं सेना का भता और बोनस बढ़ाकर और सोलह हज़ार क़ै िदयों को ररहा कर भी ि्रििटश राज के पक में माहौल बनाने का पयास लॉडट िलटन दारा िकया गया। इस दौरान रानी िवकटोररया के सममान में जो व्तिवय िदए गए, उनका िवशेषण करते हुए इितहासकार ऐलेन ्ेिविथक िलखते हैं िक इनमें से अिधकांश रानी िवकटोररया की अितशय पशंसा से भरे थे। लेिकन कु छ व्तिवय ऐसे भी थे िजनमें वयंगय का भाव झलकता है और कु छ में आलोचना के सुर भी सुनाई पड़ते हैं।24 वषट 1876 में रानी िवकटोररया को भारत-समाजी की उपािध िदए जाने के अवसर पर भारतेंदु ने अनेक किवताएँ िलखीं। बाद में ये किवताएँ मनोमुकुलमाला शीषटक से पकािशत हुई ं। इस कावय-सं्ह में भारतेंदु दारा िहंदी, संसकृ त और उदूट में िलखी किवताएँ सिममिलत थीं। भारतेंदु ने ‘क़ै सर-ए-िहंद’ के रूप में रानी िवकटोररया की पशंसा करते हुए इस संकलन में शािमल एक ग़ज़ल में िलखा : उसको शाहनशाही हर बार मुबारक होवे। क़ै सरे िहंद का दरबार मुबारक होवे॥ बाद मुदत के हैं देहली के िफरे िदन या रब। तख़त ताऊस ितलाकार मुबारक होवे।।25 23 लॉडट िलटन ने थॉमस थानटटन और मेजर जनरल लॉडट रॉबट्टस को दरबार के आयोजन और वयवसथा को सँभालने की िज़ममेदारी सौंपी. इसी कम में, जे.टी. वहीलर ने िदलली दरबार (1877) का आिधकाररक इितहास िलखा, जो उसी साल पकािशत हुआ. देख,ें बनाटड कोह्न (1983) : 165-210. 24 ऐलेन ्ेिविथक (1990) : 561-578. 25 भारतेंदु गंथावली, खंड 2 : 747. 02_subhneet Kaushik update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:56 Page 43 राजराजे री : राजभ , हदी लोकवृ और महारानी व ो रया | 43 इतना ही नहीं, जनवरी 1877 में भारतेंदु ने किववचनसुधा का एक िवशेषांक भी िनकाला, जो रानी िवकटोररया को समिपटत था। ‘भारतेंदु मंडल’ के एक पमुख सदसय चौधरी बदरीनारायण उपाधयाय ‘पेमघन’ ने किववचनसुधा के इस अंक में एक किवता िलखी, िजसका शीषटक था ‘राजराजेश्वरी जयित’। रानी िवकटोररया की पशंसा करते हुए ‘पेमघन’ ने िलखा : जै जै भारतभूिम जै भारतवासी लोग जयित राजराजेश्वरी िवकटोररया असोग... है है है आनंद मगन देत सबै आसीस िजयै िजयै िवकटोररया सुख सों लाख बरीस॥26 इस दौरान भारतेंदु ने ि्रििटश सामाजय दारा लड़े गए युरों में अं्ेज़ों के िवजय की कामना करते हुए किवताएँ िलखीं और देसी ररयासतों से युर के मोच्वे पर अं्ेज़ों की मदद करने की भी अपील की। वषट 1880 में आंगल-अफ़ग़ान युर के दौरान भारतेंदु ने देसी ररयासतों से एक ऐसी ही अपील की। बाद में इस युर में अं्ेज़ों को सफलता िमलने के बाद ि्रििटश िवजय पर उललास पकट करते हुए भारतेंदु ने ‘िवजयवललरी’ शीषटक से एक किवता भी िलखी। दो साल बाद, जब अं्ेज़ी फ़ौज को आंगल-िमस युर (1882) में सफलता िमली, तब भारतेंदु की अगुवाई में बनारस इंसटीट् यटू दारा इस अवसर पर हष्षोललास पकट करने के िलए एक सभा आयोिजत की गई। 22 िसतंबर, 1882 को बनारस के टाउन हॉल में आयोिजत इस सभा की अधयकता राजा िशवपसाद ने की िजसमें बनारस के रईसों, नयाियक, राजसव एवं िसिवल सेवा के अिधकाररयों, पंिडतों, पोफ़े सरों, िज़ला एवं नगरपािलका सिमित के सदसयों ने िशरकत की। इस अवसर पर भारतेंदु ने उपिसथत जनसमुदाय के समक अपनी एक किवता भी पढ़ी, िजसका शीषटक था ‘िवजियनी िवजय वैजयंती’। अपनी इस किवता में िमस में ि्रििटश सामाजय की िवजय पर ख़ुशी पकट करते हुए भारतेंदु ने भारत में ि्रििटश सामाजय के भौगोिलक िवसतार की एक झलक पसतुत की : िवंधय िहमालय नील िगरर िसखरन चढ़े िनसान फहरत ‘रूल ि्रिटािनया’ किह किह मेघ समान अटक कटक लौं आजु कयौं सगरो आरज देस अित आनँद मैं भरर रहौ मनु दुख को निहं लेस॥27 वषट 1882 में ही जब रानी िवकटोररया एक जानलेवा हमले में बाल-बाल बच गई ं, तब भी भारतेंदु ने बनारस में एक सभा आयोिजत कर रानी िवकटोररया के दीघाटयु होने की कामना 26 27 पभाकरे श्वर पसाद उपाधयाय व िदनेश नारायण उपाधयाय (सं.) (1939) : 123-25. भारतेंदु गंथावली, खंड 2 : 800. 02_subhneet Kaushik update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:56 Page 44 44 | िमान पकट की।28 भारतेंदु ने ि्रििटश राष् गान ‘गॉड सेव द कवीन’ का िहंदी अनुवाद भी िकया था। उ्ति अनुवाद की कु छ पंि्तियाँ इस पकार हैं : पभु रचछहु दयाल महरानी बहु िदन िजए पजा सुखदानी हे पभु रचछहु शी महरानी सब िदस में ितनकी जय होई रहै पसनन सकल भय खोई राज करै बहु िदन लौं सोई। हे पभु रचछहु शी महरानी॥ ‘िोिै जु बली जशन मुबारक’ वषट 1887 में रानी िवकटोररया के िसंहासनारोहण के पचास वषट पूरे होने पर ि्रििटश सामाजय दारा इंगलैंड और सभी ि्रििटश उपिनवेशों में सवणट-जयंती समारोह (गोलडेन जुिबली) मनाया गया। िहंदी के लेखकों ने भी इस अवसर रानी िवकटोररया को अपनी रचनाएँ समिपटत कीं। इस अवसर पर रची गई अपनी एक किवता में किव ‘पेमघन’ िलखते हैं : धिन िदवस बररस पचास राजत राजराजेश्वरर भई। या िहंद कै सर िहंद तुम िदन िदनन दुित दूनी दई॥ बदरीनारायन हूँ हरिख आसीस यह दीनी नई। राजहु पचास बरीस औरहु करर जगत मंगलमई॥29 1888 में सवणट जयंती के अवसर पर लंदन गई ं लेिखका हरदेवी ने लंदन जुबली शीषटक से एक पुसतक िलखी। इसी पुसतक में हरदेवी िलखती हैं : नयाय सिहत शासन करत, बीते वषट पचास। तब जुबली शुभ िदवस कर, उतसव िकयो पकाश॥ अषादश शत ईसवी, अिधक सतासी जान। भौम वार इकीसवीं, जून मास शुभ दान॥30 28 इसी तरह वषट 1884 में जब ड् यक ू ऑफ़ अलबनी की मृतयु हुई, तब भारतेंदु ने बनारस में एक शोक-सभा आयोिजत की. पहले 12 अपैल, 1884 को आयोिजत होने वाली सभा के िलए बनारस के मिजस्ेट ने अनुमित देने से इंकार िकया. िकं तु अगले ही िदन मिजस्ेट ने अनुमित दे दी. आिख़रकार, टाउन हॉल में ही बाबू पमददास िमत की अधयकता में शोक सभा आयोिजत हुई. 29 पभाकरे श्वर पसाद उपाधयाय व िदनेश नारायण उपाधयाय (सं.) (1939) : 291. 30 हरदेवी (1888). 02_subhneet Kaushik update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:56 Page 45 राजराजे री : राजभ , हदी लोकवृ और महारानी व ो रया | 45 दस वषट बाद रानी िवकटोररया के हीरक जयंती के अवसर पर ‘पेमघन’ ने ‘हािदटक हषाटदशट’ शीषटक से एक लंबी किवता िलखी। किवत, दोहा, रोला, सवैया आिद छं दों में िलखी गई इस किवता में रानी िवकटोररया के शासनकाल, उनकी उपलिबधयों और भारत पर उसके पभाव का िवसतारपूवटक वणटन िकया गया है। इस किवता के आरं भ में ‘पेमघन’ िलखते हैं : िवजियिन शी िवकटोररया देवी दया िनधान। करै ितहारो ईस िनत सिहत ईसु कलयान॥ सपररवार सुख सों सदा रिहत आिध अरु वयािध। राजहु राज सुनीित संग पजा परम िहत सािध॥ कीरित उजजवल रावरी और अिधक अिधकाय। सारद पूनौ जोनह सम रहै छोर िछित छाय॥31 इसी अवसर पर राधाकृ षण दास ने ‘जुिबली’ शीषटक से एक किवता िलखी। िजसमें रानी िवकटोररया का बखान करते हुए वे िलखते हैं : कोिट कोिट सुरराज मुकुट लुंिठत जा पद तर। जासु नयन की कोर सदा जोहत ्रिहा हर।। पै अपनी सता नरपित मैं िदखरावन िहत। रहत युिधिषर को आपहु रुख जोवत ही िनत।। सोई भ्तिबचछल करुणायतन यादवपित मंगल करिहं। िचरिवजियनी शी िवकटोररया भारत भुव आनँद भरिहं॥32 िं दी मे रानी ि ो रया की जीि नयाँ उननीसवीं सदी के आिख़री दशक में िहंदी में रानी िवकटोररया की कई जीविनयाँ पकािशत हुई ं। ठीक इसी समय दूसरी भारतीय भाषाओं में भी रानी िवकटोररया की जीविनयाँ पकािशत हुई ं। मसलन, बांगला में कृ षण कु मार िमत और िबिपन चंद पाल सरीखे राष्वािदयों ने रानी िवकटोररया की जीवनी िलखी थी। िहंदी में िलखी गई जीविनयों में से कु छ िहंदी लेखकों दारा िलखी और पकािशत की गई तो ं कु छ िकिशयन सोसाइटी और िमशन पेस दारा भी पकािशत की गई ं। एक ऐसी ही जीवनी वषट 1896 में इलाहाबाद की िकिशयन िलटररी सोसाइटी दारा पकािशत की गई। सोसाइटी ने इस संिकप जीवनी की तीन हज़ार पितयाँ मुिदत और िवतररत की थीं। यह सिचत जीवनी िहंदसु तानी ज़ुबान में रानी िवकटोररया के जीवन की महतवपूणट 31 32 पभाकरे श्वर पसाद उपाधयाय व िदनेश नारायण उपाधयाय (सं.) (1939) : 267. शयामसुंदर दास (सं.) (1930) : 18. 02_subhneet Kaushik update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:56 Page 46 46 | िमान घटनाओं पर पकाश डालती है।33 इससे एक साल पहले ्े डररक िपनकॉट ने िहंदी में रानी िवकटोररया की एक जीवनी िलखी थी, जो बाँकीपुर िसथत खड् ग िवलास पेस दारा वषट 1895 में पकािशत की गई।34 वषट 1901 में रानी िवकटोररया के िनधन के बाद िहंदी में उनकी कई जीविनयाँ पकािशत हुई।ं उसी वषट िहंदी के पिसर किव राय देवी पसाद ‘पूण’ट ने रानी िवकटोररया की एक संिकप जीवनी िलखी।35 वषट 1901 में ही शी वेंकटेश्वर समाचार के संपादक पंिडत लजजाराम शमाट ने रानी िवकटोररया की एक और जीवनी िलखी। शी वेंकटेश्वर पेस से पकािशत यह जीवनी िलखने की पेरणा लजजाराम शमाट को खेमराज शीकृ षणदास से िमली थी।36 िववरणातमक शैली में िलखी गई इन जीविनयों में कालकमानुसार रानी िवकटोररया के जीवन की महतवपूणट घटनाओं का िववरण िमलता था। इसके साथ ही इनमें रानी िवकटोररया के माता-िपता, उनकी िशका, उनके पररवार और बचचों, उनके िववािहत जीवन और पित अलबटट से उनके संबधं , उनके वैधवय का िववरण तो होता ही था। साथ ही, इनमें उनके शासनकाल की महतवपूणट घटनाओं जैसे उनके िसंहासनारोहण, उनके भारत-समाजी बनने, िदलली दरबार, सवणट जयंती और हीरक जयंती समारोहों का वणटन भी होता था। साथ ही, रानी िवकटोररया पर हुए जानलेवा हमलों और उनके सकु शल बच िनकलने का भी िववरण होता था। सिचत पुसतकों में रानी िवकटोररया का उनके िहंदसु तानी सेवकों के साथ िलया गया िचत भी अवशय शािमल होता था। साथ ही, इन जीविनयों में रानी िवकटोररया के शासनकाल में हुए िवकास काय्कों, सैनय अिभयानों और ि्रििटश सामाजय के िवसतार की भी चचाट होती थी। इन जीविनयों के अलावा रानी िवकटोररया के याता-वृतांतों का भी िहंदी में अनुवाद हुआ। ऐसा पहला अनुवाद बनारस के राजा ईश्वरीपसाद नारायण िसंह दारा िकया गया। उनहोंने रानी िवकटोररया के सकॉटलैंड और आयरलैंड के याता वृतानत (अवर लाइफ़ इन द हायलैंड्स) का िहंदी में अनुवाद िकया, जो 1875 में पकािशत हुआ। इस अनुिदत पुसतक की भूिमका में 33 34 35 36 िवकटोररया महारानी का वृतानत (1896). ्े डररक िपंकाट (1895). राय देवी पसाद ‘पूण’ट (1901). पंिडत लजजाराम शमाट (1901). 02_subhneet Kaushik update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:56 Page 47 राजराजे री : राजभ , हदी लोकवृ और महारानी व ो रया | 47 ईश्वरीपसाद िसंह िलखते हैं : हम लोगों को यहाँ शीमती के मुखारिबनद से िनकले हुए शबद या हसताकर सुनने या देखने में आ जाते हैं तो उसी से अपना धनय भागय जानते हैं इसी कारण जो कु छ अपनी याता का वणटन अपनी पुसतक में िलखा है इस आजाकारी परम शुभ िचंतक ने िहंदी में उलथा िलखाया िजसमे [िजसमें] हमारे सब सवदेशीय इस अपूवट ्ंथ के देखने और पढ़ने से कृ ताथट होवें।37 ‘ख़बर अनरथ की आई’ : रानी की मृ ु और शोकाकुल िं दी जगत 22 जनवरी, 1901 को इंगलैंड पर 64 वषट शासन करने के बाद रानी िवकटोररया का िनधन हो गया। सरसवती और नागरी पचाररणी पितका सरीखी िहंदी की अनेक महतवपूणट पत-पितकाओं में रानी िवकटोररया की मृतयु पर शोक पकट करते हुए किवताएँ और लेख पकािशत िकए गए। राधाकृ षण दास दारा िलिखत एक ऐसी ही किवता ‘िवजियनी िवलाप’ सरसवती में पकािशत हुई ं। इस किवता में वे िलखते हैं : ‘कहा तुमहै निह ख़बर’ ख़बर अनरथ की आई। भारतेश्वरी िवजियनी यह जग छोिड़ िसधाई॥ तोरर जगत सो नेह मोरर मुख जग के सुख सों। छोरर सबै धन धानय बोरर जग सागर दुख सों॥ िवमल कीितट फै लाइ, लोक कररकै यह िनज बस। गई करन वह लोक िवजय फै लावन िनज जस॥38 रानी िवकटोररया के िनधन के बाद िलखे गए अपने एक अनय लेख में राधाकृ षण दास रानी िवकटोररया के चररत और उनके दांपतय जीवन की सराहना करते हुए िलखते हैं िक ‘िवलायत होने पर भी महारानी ने अपने पित से ऐसी पीित और भि्ति िदखाई जैसी पीित और भि्ति भारतवषट की सती कु लवती कािमिनयाँ िदखाती हैं। इस दंपती पेम को देख सुन सारी पजा चिकत और पफु िललत होती थी।’ रानी िवकटोररया पर हुए जीवनघाती हमलों और उनके बच िनकलने का िववरण देते हुए राधाकृ षण दास ने िलखा : सवटिपय होने पर भी कई बार महारानी पर कई दुषों ने घात िकया। उनहोंने घात तो िकया परं तु महारानी के पूणट पुणय के कारण उनहें उसकी ज़रा भी आँच न पहुचँ ी। उसके पितशोध में उनहोंने उन दुषों को अपनी अपार दया से कमा कर िदया।39 37 38 39 ईश्वरीपसाद नारायण िसंह (अनु.) (1875). शयामसुंदर दास (सं.) (1930) : 6. वही : 106. 02_subhneet Kaushik update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:56 Page 48 48 | िमान कानपुर के ‘रिसक समाज’ और राय देवी पसाद ‘पूण’ट ने भी रानी िवकटोररया के िनधन पर शोक पकट करते हुए किवताएँ िलखीं जो िवकटोररयािवयोग शीषटक से पकािशत हुई ं। यह कावय-सं्ह देवी पसाद पूणट दारा िलिखत रानी िवकटोररया की एक संिकप जीवनी (िवकटोररयाचररताननद) के साथ पकािशत हुआ। ‘पूण’ट के अलावा इस कावय-सं्ह में ्रिजभूषणलाल गुप, पंिडत रामरतन सनाढ्य, मुश ं ी कालीचरण, पंिडत मथुरापसाद िमश, लाला राधाकृ षण अ्वाल, बाबू बदीपसाद गुप, बाबू मननीलाल, पंिडत राजाराम दुबे, पंिडत बालगोिवंद, बाबू के दारनाथ अ्वाल और गुरबख़श िसंह दुबे की किवताएँ भी शािमल थीं। ‘पूण’ट अपनी किवता में िलखते हैं : संवतसर उननीस सौ सतावन दुख सार। माघ उजेरे पाख मे भयो जगत अँिधयार॥ िमती िदतीया को ्सयो अिदतीय दुखजाल। कीनही मंगलवार मे वार अमंगल काल॥ सोई शी िवकटोररया गई सवगट को हाय, संतत समपत राज सुख साज समसत िवहाय! होत शोर लहरीन को उमड़त िसनधु कलाप, मानौ सोऊ शोकबस करहीं घोर िवलाप! कहत गवैये रोय के करर अित बदन मलीन, काके िहत अब गाइहैं “गॉड सेव दी कवीन”॥40 आलोचक शयामिबहारी िमश और शुकदेविबहारी िमश (िमशबंध)ु ने रानी िवकटोररया के िनधन पर ‘शीिवकटोररया अषादशी’ शीषटक से एक किवता िलखी। िमश बंधओ ु ं ने इस किवता की एक हज़ार पितयाँ छापकर लोगों में िनःशुलक िवतररत की। इस किवता में रानी िवकटोररया के जीवनकाल के महतवपूणट पड़ावों की झलक तो िमलती ही है साथ ही, इसमें रानी के शासनकाल में चले ि्रििटश सैनय अिभयानों का भी वणटन िकया गया है। िमश बंधु इस बात पर शोक जताते हैं िक रानी अपने जीवनकाल में कभी भारत-याता पर न आ सकीं (‘जदिप अभागे भारत के दुरभागिह कारन / आय नहीं शीमती सकीं इत हमैं उधारन’)। वे रानी िवकटोररया को ‘जगत जननी’ और ‘जगदंबा’ भी बताते हैं और िलखते हैं : हा जगदीश्वर! आजु भयो अनरथ यह कै सो? नृपगन को िसरताज गयो उिठ जगते ऐसो॥ चहुँ िदिस जौन दयालु अिमत सुख संपित छायो। करर सत असत िबबेक धरम िनज िबमल बनायो॥ 40 िवकटोररयािवयोग अथावात शीमती राजरानी भारतेश्वरी िवकटोररया के सवगवावास पर रिसक समाज, कानपुर के किवययों की शोक गिभवात किवता का संगह (1901) : 1-2. 02_subhneet Kaushik update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:56 Page 49 राजराजे री : राजभ , हदी लोकवृ और महारानी व ो रया | 49 जग सुखद पारलीमयणट को जेिह बहु िबिध आदर कय्षो। सोइ जगत जनिन िवकटोररया हाय आजु िकत पगुधय्षो?॥41 इसी किवता में िमशबंधओ ु ं ने रानी िवकटोररया के शासन की तुलना रामराजय से की है और उनहें काली के समान भी बताया है : कािलका सी अित है िबकराल दलयो ररपुजाल धरे नव तौरिन। राम समान पजा पित पािल भय्षो पुहुमी सुख सों सब ठौरिन॥ रानी िवकटोररया को माता मानने की यह पवृित बंगाल के आरं िभक राष्वािदयों में भी िदखाई पड़ती है। इितहासकार इंिदरा चौधरी के अनुसार, ‘भारत माता की छिवयों के साथ रानी िवकटोररया का यह समावेश राष्वादी िवमशट में मातृतव की धारणा पर िदए गए ज़ोर की वजह से संभव हो सका।’42 भारत माता और माता िवकटोररया की यह छिवयाँ दशाटती हैं िक कै से औपिनवेिशक और देशज धारणाओं में होने वाली जिटल अंतःिकया का इसतेमाल उभरते हुए मधयम वगट दारा अपनी आतम-छिव के िनमाटण के िलए िकया जा रहा था। डोरोथी थॉमपसन िलखती हैं : अगर रानी िवकटोररया के सी होने ने समाजी को सामाजय के दूसरे राष्ों में अिधक सवीकायट बनाया, तो शायद इसने राजिसंहासन को लोकिपय बनाने में भी मदद की हो... रानी के जीवन पर आधाररत ससती पुिसतकाओं और उनकी तसवीरों ने समाजी और उनके पररवार की छिव को सामाजय की पजा की चेतना तक िनरं तर पहुचं ाने का काम भी िकया।43 राजभ और िं दी बौ को का िं दू मानस वषट 1875 में िपंस ऑफ़ वेलस के बनारस आने पर िलखी गई किवता (‘शी राजकु मारशुभागमन वणटन’) में एक जगह भारतेंदु ने िलखा िक राजकु मार का काशी आगमन हृदय के उस घाव पर मरहम की तरह है, जो िवश्वनाथ मंिदर के िनकट मिसजद को देखकर चोिटल हो गया है : मसिजद लिख िबसुनाथ िढग परे िहए जो घाव ता कहँ मरहम सररस यह तुव दरसन नर-राव।।44 41 शयामिबहारी िमश व शुकदेव िबहारी िमश (1915) : 23. इंिदरा चौधरी-सेनगुपा (1992) : 20-37. 43 डोरोथी थॉमपसन (1990) : 139. 44 भारतेंदु गंथावली, खंड 2 : 699. भारतेंदु दारा िहंदी भाषा व सािहतय के साथ-साथ और िहंदू अिसमता को गढ़ने के पयासों के ऐितहािसक िवशे षण हेतु देख,ें वसुधा डालिमया (1997). 42 02_subhneet Kaushik update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:56 Page 50 50 | िमान भारतेंदु ने िलखा िक पृथवीराज चौहान की मृतयु के बाद पजा सुख से वंिचत हो गई। भारतेंदु यहाँ तक कहते हैं िक भले ही मुिसलम शासकों (‘यवनों’) ने भारत में रहकर ही शासन िकया हो, िकं तु िहंदू समाज ने कभी उनहें अपना नहीं माना। पृथीराज के मरें लखयौ निहं सो सुख कबहूँ नैन। तरसत पजा सुनन को िनत हीं िनज सवामी के बैन॥ जदिप जवनगन राज िकयो इतही बिसकै सह साज। पै ितनको िनज करर निहं जानयौ कबहूँ िहंदू समाज।।45 इसी पकार, भारतेंदु मंडल के सदसय किव ‘पेमघन’ ने वषट 1877 में िलखी अपनी किवता ‘राजराजेश्वरी जयित’ में, जो किव वचन सुधा में पकािशत हुई, मुिसलम शासकों के अतयाचारों का वणटन करते हुए िलखा : याके पुतन को सदा हित बोई गुिन काम। थूँिक थूँिक भारत नरन िकयो अिमत इसलाम॥ िदलली, मथुरा, कननउज से अंगन करर करर भंग। आरज रुिधर पवाह सों करर करर रं गा रं ग॥ अित असंखय अदु त सुगहृ , देवालय बहु तोरर। पूरब किथत अभूषनिन डाय्षो याँसो छोरर।।46 अपनी इस किवता में ‘पेमघन’ ने मुिसलम शासकों दारा जबरन धमामांतरण करने, िहंदओ ु ं पर हुए अतयाचारों का बढ़ा-चढ़ाकर वणटन िकया और अं्ेज़ों को मुिसलम शासक से मुि्ति िदलाने वालों के रूप में देखा : या िविध जब उतपात बहु िकयो यवन नरनाह। दुख सागर बाढ़त भयो भारत परजा माँह॥ जब करुणािनिध आपु हरर है कै महा अधीर। नािस यवन राजिह हरयो पजा दुसह दुख पीर॥ वषट 1887 में िलखे गए नाटक भारत सौभागय के लेखक अंिबका दत वयास ने भी ‘अं्ज़े ों को मुग़ल शासकों के अतयाचार से िहंदू पजा को बचाने वाले मुि्तिदाता’ के रूप में देखा।47 सपष है िक उननीसवीं सदी में िलखी गई इन रचनाओं में जहाँ िदलली के सुलतानों और मुग़ल 45 46 47 भारतेंदु गंथावली, खंड 2 : 723. पभाकरे श्वर पसाद उपाधयाय व िदनेश नारायण उपाधयाय (सं.) (1939) : 124. पंिडत अंिबका दत वयास : वयिकतव एवं कृ िततव : 180. 02_subhneet Kaushik update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:56 Page 51 राजराजे री : राजभ , हदी लोकवृ और महारानी व ो रया | 51 बादशाहों को आकांता और खलनायक के रूप में पसतुत िकया गया, वहीं अं्ज़े ी राज की पशंसा मुिसलम शासकों से मुि्ति िदलाने वाले के रूप में की गई। न षटा उननीसवीं सदी में िहंदी समेत दूसरी भारतीय भाषाओं में राजभि्ति से जुड़ी रचनाओं की बहुतायत िदखाई देती है। ये रचनाएँ किवता, जीवनी, िनबंध, अनुवाद आिद िविभनन िवधाओं में हो रही थीं। ि्रििटश राजपररवार के सदसयों का भारत आगमन हो या िदलली दरबार या िफर रानी िवकटोररया के जुिबली समारोह – इन सभी अवसरों पर िहंदी की महतवपूणट पितकाओं के िवशेषांक पकािशत हुए, भारतेंदु जैसे लेखकों ने न के वल ख़ुद राजभि्ति से सराबोर रचनाएँ कीं, बिलक अपने समकालीन िहंदी के दूसरे लेखकों को भी रानी िवकटोररया और युवराज के सममान में किवताएँ िलखने के िलए पोतसािहत िकया। इन रचनाओं में भारत के पौरािणक आखयानों को भी बेिझझक उरृत िकया जाता था। िहंदी के इन लेखकों दारा पौरािणक अतीत को औपिनवेिशक वतटमान पर िकस तरह आरोिपत िकया गया, ये रचनाएँ इसका अचछा उदाहरण हैं। मसलन, िपंस ऑफ़ वेलस के काशी आगमन की तुलना राम के अयोधया लौटने से करना या िफर रानी िवकटोररया के शासनकाल को ‘रामराजय’ बताना और ख़ुद िवकटोररया को ‘जगत जननी’ या ‘जगदंबा’ बताना। भारतेंदु ने भारतीय परं परा का हवाला देते हुए ‘दशटन’ देने को राजा और पजा के संबधं ों को पगाढ़ बनाने के िलए अहम बताया। अकारण नहीं िक कु छ लेखकों ने िवकटोररया के भारत न आ सकने को भारत का दुभाटगय तक बताया। रानी िवकटोररया की जो जीविनयाँ िलखी गई ं या िफर उनके िनधन के बाद िहंदी में जो किवताएँ या लेख िविभनन पत-पितकाओं में पकािशत हुए, उनमें जेंडर की राजनीित से जुड़े आयाम भी कहीं गहरे काम कर रहे थे। िहंदी के इन लेखकों दारा िवकटोररया को न के वल पितव्रता, सती कु लवती बताया गया, बिलक यह भी कहा गया िक िवकटोररया पितधमट का पालन करते हुए दुिनया भर की िसयों के िलए एक िमसाल छोड़ गई हैं। िवकटोररया को ‘आदशट भारतीय सी’ की पितमूितट बताया गया और ऐसा करते हुए दूसरी िसयों से भी पित के पित वैसी ही पीित और भि्ति दशाटने की अपेका की गई। िहंदी-नागरी आंदोलन हो या िफर गोरका आंदोलन हो – इन आंदोलनों में भी रानी िवकटोररया को न के वल नयायिपय शािसका के रूप में पसतुत िकया गया, बिलक आंदोलन के समथटन में िवकटोररया का नाम भी बार-बार िलया गया। राजनीितक मंचों पर भी मदन मोहन मालवीय सरीखे नेता िवधाियकाओं के िवसतार, उनके भारतीयकरण, योगयता के आधार पर सरकारी सेवाओं में िनयुि्ति और पितिनिधतव जैसे महतवपूणट सवाल उठाते हुए रानी िवकटोररया के घोषणापत की याद िदलाते रहे। रानी िवकटोररया और राजपररवार के दूसरे सदसयों को समिपटत समारक, पाकट , कॉलेज जहाँ एक ओर औपिनवेिशक सता की अिभवयि्ति और उसके पभावशाली पतीक के रूप में देखे जा सकते हैं वहीं आज़ादी के बाद इन समारकों और इनसे जुड़ी औपिनवेिशक अतीत की तलख़ समृितयों को लेकर असहजता और उसका पितरोध उतरऔपिनवेिशक राजनीित और इितहास को समझने के महतवपूणट सूत भी उपलबध कराता है 02_subhneet Kaushik update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:56 Page 52 52 | िमान संदभटा इंिदरा चौधरी-सेनगुपा (1992), ‘मदर इंिडया ऐंड मदर िवकटोररया : मदरहुड ऐंड नैशनिलज़म इन नाइंटींथ-सेंचरु ी बंगाल’, साउथ एिशया ररसचवा, खंड 12, सं. 1, मई 1992 : 20-37. ईश्वरीपसाद नारायण िसंह (अनु.) 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(1964) ‘कला है मनुषय की सृजनशील आतमा के दारा िवश्व-चेतना को दी गई भेंट’ — रबींद्रनाथ टै गोर1 एक तरह से देखें तो मनुषय का सारा जीवन ही एक नाट् य है। लेिकन जीवन के वे कौन से िहससे, या कौन से पहलू हैं जो नाट् यपूणशि होते हैं, यह चचाशि का िवषय है। यिद यथाथशिवादी नाटक हमारी रोज़मराशि की िज़ंदगी में आने वाले संघषशि, उनमें वया्ति िवरोधाभास और वयंगय को पकट करते हैं तो अिसततववादी नाटक जीवन की गूढ़ता, उसकी अतरयशिता और िनरथशिकता को उजागर करते हैं। लेिकन रया िजसे आधयाितमक जीवन कहा जाता है उस जीवन में भी आने वाले अनुभवों में भी िकसी नाट् य के िछपे होने की संभावना हो सकती है? सबसे पहला सवाल तो यह है िक भौितक जीवन के ‘परे ’ भी कु छ अलग आधयाितमक जीवन होता भी है या िजसे अधयातम कहते हैं वह भौितक जीवन में ही कहीं ‘िछपा’ रहता है? भौितक जीवन में 1 रबींदनाथ टैगोर : द ररलीजन ऑफ़़ मैन (िवर भारती पुनमुदशि ण 2008). 03_sharad deshpanday update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:57 Page 54 54 | िमान िमलने वाले सुख-दु:ख और यश–अपयश के चौखटे के भीतर अटका हुआ मनुषय जब संत तुकाराम के शबदों में ‘आपुलाची वाद आपणाशी’ (आतमसंवाद) करने लगता है, सवतः में ही ‘सव’ की खोज करने लगता है तथा ऐिहक जीवन की सीमाएँ पार करने लगता है तब उस मुि्तियाता में भी एक ख़ास तरह का संघषशि और नाट् य पकट होता है। वयावहाररक संसार में िछपे होने पर भी िबना ‘सव’ की खोज िकए िजनका अनुभव नहीं हो सकता, ऐसे िचरं तन ततवों के उदात सौंदयशि को रबींदनाथ अपने कु छ नाटकों में िवषय बनाते हैं, िजसमें – राजा अरूप-रतन, तथा शाप-मोचन पमुख हैं। ‘नाटककार रबींदनाथ टैगोर’ : यह रबींदनाथ ठाकु र की बहु-आयामी पितभा का एक महतवपूणशि पररचय है। 1881 से लेकर 1939 तक इन 58 वष्षों के कालखंड में रबींदनाथ ने कु ल िमलाकर 61 नाटक िलखे। उनमें से कु छ नाटकों के मंचन में उनहोंने ख़ुद कई भूिमकाएँ भी कीं, कई बार कोरस में शािमल होकर गाने भी गाए, कई बार परदे के पीछे से संवाद भी याद िदलाए (पॉि्पटंग) और कई बार सूतधार की भूिमका भी िनभाई। रबींदनाथ के वल नाटककार ही नहीं थे, वे रं गकम्मी भी थे, ऐसा कहने में कोई आपित नहीं होनी चािहए। कलकता के िजस समृद ठाकु र पररवार में उनका जनम हुआ था, उस ब्रह्म-समाजी पररवार में धमशि-चचाशि तथा कावय-शास्त्र-िवनोद िनतय होते रहते थे। साथ ही यह पररवार नाट् यरिसक भी था। 1857 में रामनारायण तकशि रतन नामक पहले बंगाली नाटककार ने कु लीन-कु लसव्वसव नामक नाटक िलखा था। 1867 में िहंदू िस्त्रयों की दुदश शि ा पर िलिखत उनके नाटक का मंचन रबींदनाथ के ‘जोड़ा-साकों’ नाम से पिसद पैतक ृ ‘ठाकु र-बाड़ी’ में हुआ और उनको ठाकु र– पररवार की ओर से दो सौ रुपये पुरसकार में भी िदए गए थे। ‘जोड़ा-साकों’ में ‘िवदजजन-समागम-सभा’ िनयिमत रूप से आयोिजत होती थी। इस सभा के मनोरं जन के िलए 1881 में अपनी उम्र के 19वें वषशि में रबींदनाथ ने वालमीिक पितभा नामक संगीत–नाटक िलखा था और उसमें पमुख भूिमका भी िनभाई थी। इस अिभनय के समय बाबू बंिकमचंद चटज्मी भी उपिसथत थे। रबींदनाथ के भी पहले उनके भाई जयोितरीनदनाथ ने नाटक िलखने की शुरुआत कर दी थी। दूसरों के िलखे नाटकों का अिभनय भी ठाकु र-बाड़ी में होता रहता था और रबींदनाथ उसमें भूिमका भी गहण करते थे। घर के इस समृद सांसकृ ितक वातावरण में उम्र के 18वें वषशि में रबींदनाथ का नाट् यलेखन शुरू हुआ। 1886 में उनहोंने अपने ही िलखे हुए वालमीिक-पितभा नामक संगीत–नाटक का पुनल्लेखन करके उसमें 1882 में िलिखत काल-मृगया नामक संगीत–नाटक के कु छ अंश शािमल िकए। एक बार िलखे हुए आलेख (िसकपट) का अनेक बार और कभी-कभी तो काफ़ी समय बाद पुनल्लेखन करना; अपने िलखे दो अलग-अलग नाटकों का िमशण करके एक अलग संसकरण तैयार करना, यह रबींदनाथ के नाट् यलेखन की िविशषताएँ हैं। पकृ तेर-पितशोध, निलनी, मायार-खेला, राजा-ओ-रानी, तपती, िवसज्वन, िचतांगदा, राजा, अरूप-रतन, शापमोचन और नातीर-पूजा ये पुनल्लेखन के बाद नये कलेवर में पसतुत टैगोर के कु छ पिसद नाटक हैं। कई बार नाटक के मंचन की मयाशिदा 03_sharad deshpanday update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:57 Page 55 राजा तथा अरप-रतन : नाटक एक, सं रण अनेक | 55 तथा तकनीकी आवशयकताओं को धयान में रखते हुए आलेख का पुनल्लेखन ज़रूरी हो जाता है। राजा नाटक को भी रबींदनाथ ने इसी तरह पुनिलशििखत िकया है। परं तु ऐसी कोई अपररहायशिता या दबाव न होने पर भी िकए गए पुनल्लेखन की संगित कै से लगाई जाए यह एक पहेली है। फांसीसी दाशशििनक रोलाँ बाथशि की मानें तो आलेख का लेखन हो जाने के बाद उस पर लेखक का अिधकार समा्ति हो जाता है और उसके बाद उस पर आलेख का अथशि लगाने वाले पाठक की सता आरं भ हो जाती है। परं तु यह मत िववादासपद है। वसतुत: आलेख के पुनल्लेखन का तातपयशि है उसका पुनजशिनम। इस पुनजशिनम को संभव बनाने के िलए आलेख के पात और उसके जनमदाता लेखक इन दोनों का जीवंत संबंध, सतत संवाद तथा एक दूसरे को ठीक से समझना आवशयक होता है, यह मानना पड़ेगा। इस पकार के पुनल्लेखन में आलेख की आतमा वही होती है, लेिकन उसका पररवेश िभनन हो जाता है, रबींदनाथ के पुनल्लेखन के पीछे संभवत: यही सूत काम करता है। रबींदनाथ के नाटकों में पतीकों की भरमार होती है। इस कारण उनकी आलोचना होती है िक उनमें मानवीय पवृित, भावना और दैनंिदन जीवन के संघषशि कहीं खो जाते हैं। यह आलोचना नाट् य लेखन के तकनीकी पक को लेकर होती है लेिकन िवचारणीय बात यह है िक रबींदनाथ को जो कहना होता है उसके िलए पतीकों का उपयोग आवशयक है िक नहीं। पाशातय िवर के आधुिनक मूलयों तथा उसकी जीवन-दृिष को किव और नाटककार रबींदनाथ ने सवीकार तो िकया था लेिकन उनकी आतमा तो पूणशितः भारतीय ही थी। इसकी छाप उनके नाटकों में साफ़ िदखाई पड़ती है। रबींदनाथ की आधयाितमक दृिष ईशोपिनषद तथा बौद दशशिन से पभािवत थी। इस नाते रूप तथा अरूप, मूत्व तथा अमूत्व, वयावहाररक तथा पारमािथ्वक इन भेदों की पररभाषा तथा इनकी संगित करने वाले िचंतन को उनहोंने आतमसात िकया है। इन भेदों के बीच जो एक आंतररक तनाव है उसमें िछपे नाट् य को रबींदनाथ एक नाटककार के नाते िदखाना चाहते हैं। दूसरी ओर एक दाशशििनक-किव होने के नाते उनहें इन भेदों पर अपना कु छ भाषय भी करना है। यह है रबींदनाथ की िविशषता! किव रबींदनाथ सौंदयशि के उपासक हैं। उनकी धारणा है िक यह चराचर जगत सुंदर है। लेिकन वसतु का के वल बाहरी रूप ही सुंदर नहीं होता, बिलक वयावहाररक संसार के ‘परे ’ होनेवाला या वयावहाररक संसार के अंतरं ग में ही ‘िछपा’ अमूतशि िचरं तन ततव वसतुतः सुंदर होता है − यह रबींदनाथ की दाशशििनक दृिष है। इस िचरं तन ततव के सौंदयशि को वयवहार की भाषा में उके रना सरल नहीं है। इसका अनुभव पतीकों की सहायता से ही हो सकता है। इसी कारण रबींदनाथ ने पतीक नाटक की िवधा को चुना। रबींदनाथ का पतीक – पधान नाटक राजा भरतमुिन के नाट् यशास्त्र की परं परा के अनुसार ही है। नाट् य िसदांतों के अनुसार नाटकं खयातवृतं सयात् अथाशित् नाटक को िकसी पिसद कथा पर आधाररत होना चािहए। इस िसदांत के अनुरूप होते हुए भी नाटक की पसतुित शैली लोक कलाओं के अनुरूप है। इस नाटक में आने वाले ठाकु र दा नामक पात को बंगाल की 03_sharad deshpanday update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:57 Page 56 56 | िमान बाउल परं परा का पितिनिध माना जा सकता है। राजा नाटक की कहानी नेपाल में िवकिसत संसकृ त तथा पािल बौद जातक और महावसतु-अवदान सािहतय में पा्ति राजा कु श की कथा पर बुनी गई है, ऐसी मानयता है। कु श जातक की मूल कथा कु छ इस पकार है। वाराणसी के राजा सुबंधु और उनकी रानी अिलंद का पुत कु श िजतना बुिदमान और कलािनपुण था उतना ही कु रूप भी था। उसका िववाह कानयकु बज के राजा महेंदक की राजकु मारी सुदशशिना के साथ हुआ था। सुदशशिना बहुत ही सुंदर थी लेिकन िववाह करते समय उसे यह पता नहीं था िक राजा कु श कु रूप है। यह रहसय गु्ति रहे इसिलए राजपररवार की परं परा बताकर कु श तथा सुदशशिना को उस अँधरे े कमरे में रखा जाता है जहाँ पकाश नहीं आ सकता। उन दोनों का िमलन भी उसी अँधरे े कमरे में होता है। सुदशशिना में यह जानने की उतकं ठा दुिनशिवार हो चलती है िक उसका पित पतयक कै सा िदखता होगा। तब रानी अिलंद अपने सौत के बेटे सुवणशि को कु श कहकर सुदशशिना से िमलवाती है जो सुंदर तो है लेिकन साथ ही महामूखशि भी है। जब सुदशशिना जान जाती है िक राजा कु श देखने में बहुत कु रूप है तब वह रूठकर अपने मायके चली जाती है। कु छ समय बाद राजा कु श सुदशशिना के मायके जाकर िविभनन पयतनों से उसका मन जीतता है। राजा कु श को सुदशशिना कभी पकाश में नहीं देख सकती थी, उनका िमलन के वल अँधरे े में ही होता था लेिकन जब सुदशशिना राजा के गुणों के बारे में जान पाती है तब उसे समझ में आ जाता है िक उसके आंतररक गुणों का सौंदयशि उसके बाह्य रूप की अपेका अिधक मूलयवान है। कु श जातक की कथा का सार यही है। मूल जातक में कु छ दूसरे पसंग भी हैं। िजस पकार सारी जातक कथाएँ भगवान बुद पूवशिजनम में कौन थे, यह कहकर समा्ति होती हैं, उसी पकार कु श जातक के अंत में भी भगवान बुद अपने िशषयों से ऐसा कहते िदखाए गए हैं – ‘मैं ही वह राजा कु श था और सुदशशिना यशोधरा थी’। पौरािणक कथाओं के पात कालातीत होते हैं। इस कथा के पात भी कालातीत हैं, इसीिलए वे आज के समय में भी संगत हैं। उनके पश तथा उनके जीवन के तनाव आधुिनक मन को भी भा जाते हैं। कु श जातक की रानी सुदशशिना के चररत को तो रबींदनाथ ने वैसे का वैसा रख छोड़ा है लेिकन उसके साथ उनहोंने उसकी एक दासी का एक चररत गढ़ा है। उसका नाम है सुरंगमा। इन दोनों के अितरर्ति राजा के सैिनक, पहरे दार, पजा, उतसव के िलए दूसरे राजय से आई हुई कु छ राजकु माररयाँ और नागररक, कु श राजा का सवाँग रचाने वाला पात, इन सब की पारशिभिू म रबींदनाथ ने खड़ी की है। सुदशशिना तथा सुरंगमा, राजा और सुदशशिना, उसी पकार दूसरे पातों के आपसी संवादों में राजा का न िदखने वाला अदृशय पात, ये सब भी रबींदनाथ ने खड़े िकए हैं। सुदशशिना को कभी भी नहीं िदखने वाला राजा, सुरंगमा दारा िकए गए वणशिनों, उसके कारण सुदशशिना की बढ़ती उतकं ठा, राजा के साथ उसका के वल अँधरे े में ही होने वाला संभाषण, सैिनक, पहरे दार, दूसरे देश से आए हुए नागररक, राजा के बारे में उनके आपसी संवाद और अंत में राजा में िनिहत वासतिवक सौंदयशि की सुदशशिना को होने वाली अनुभिू त, इन सबमें बसी हुई नाटकीयता को रबींदनाथ की पितभा ने जीवंत कर िदया है। राजा िदखता तो नहीं लेिकन 03_sharad deshpanday update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:57 Page 57 राजा तथा अरप-रतन : नाटक एक, सं रण अनेक | 57 शंभु िमत िदगदिशशित राजा के मंचन में ठाकु र-दा की भूिमका में कु मार रॉय और अनय नागररक छायािचत बहुरूपी (कोलकाता, 2008, सं. सवपन मजुमदार) संगह से साभार उसके बारे में नाटक का हर पात कु छ न कु छ कहता है, सूचना देता है, और अपने िवचार रखता है। राजा के बारे में यह सारी बातचीत िभनन-िभनन सतरों पर हो रही है − इसीिलए पतयेक पात के दारा िकए जाने वाले संवादों के अथशि िविवध पकार से िलए जा सकते हैं। अदृशय तथा कु रूप राजा िजस पकार एक पतीकातमक पात है वैसे ही िजस ‘अँधरे े कमरे ’ में कु श और सुदशशिना का िमलन होता है वह अँधरे ा कमरा भी अथवा उस कमरे का ‘अँधरे ा’ भी नाटक का एक पतीकातमक पात है। उसकी भूिमका भी इस नाटक में महतवपूणशि है। अजान, माया, असतय तथा मृतयु इन सबको बताने के िलए अनेक संसकृ ितयों में अँधरे े के पतीक के रूप में पयोग िकया गया है। 375 ईसा पूवशि के यूनानी दाशशििनक पलेटो दारा रिचत उनके गुरु सुकरात और सुकरात के िशषय गलॉकन के बीच हुए कालपिनक संवाद2 में िदया हुआ ‘गुफा’ का पतीक 2 पलेटो : ररपि्लक, बुक vii. 03_sharad deshpanday update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:57 Page 58 58 | िमान पाशातय दशशिन में सुपिसद है। यह पतीक कु छ इस पकार है : िकसी गुफा के अँधरे े में कु छ ग़ुलाम बचपन से ही इस तरह ज़ंजीरों में बँधे हुए हैं िक वे पीछे मुड़कर गुफा के बाहर नहीं देख सकते। गुफा के बाहर आग जल रही है और गुफा में िसथत ग़ुलाम और आग की लपटों के बीच कु छ लोग ऐसे हैं िजनके हाथ में कु छ वसतुएँ तथा मूितशियाँ हैं िजसे वे िहला रहे हैं। उन सब की परछाइयाँ ग़ुलामों के सामने वाली दीवाल पर पड़ रही हैं। गुफा में बँधे ग़ुलाम िसफ़शि उन परछाइयों को ही देख पा रहे हैं और उनहें ही सचचाई समझ रहे हैं। लेिकन एक ग़ुलाम ज़ंजीरों से छू टकर गुफा के बाहर आता है और जब बाहर के उजाले में लपटों के नाते गुफा में पड़ने वाली वसतुओ ं की परछाइयाँ देखता है तब उसे वसतुएँ और उनकी परछाइयों के बीच का अंतर जात हो जाता है। शारत जान तथा ‘सव’ का रूप जानने के िलए पलेटो के ग़ुलामों को गुफा के अजानरूपी अंधकार से िनकलकर गुफा के बाहर जानरूपी पकाश में आना पड़ता है। अंधकार में तो कु छ िदखता नहीं लेिकन उजाले में सब कु छ साफ़ िदखाई देता है, यह एक सामानय अनुभव है। पलेटो का रूपक इसी भेद पर आधाररत है। लेिकन रबींदनाथ के नाटक में तो राजा पकाश में होते हुए भी िदखाई नहीं पड़ता है। इसी नाते अँधरे े कमरे के बाहर आने पर भी सुदशशिना राजा को देख नहीं पाती। उसे देखने के िलए अंधकार तथा पकाश के िजस दैत ने दृशय संसार को सीिमत िकया है उसे पार करने के िलए सुदशशिना को ख़ुद के साथ लड़ना पड़ता है। इस लड़ाई में होनेवाली आंतररक वेदना और संघषशि को रबींदनाथ ने सुदशशिना के चररत से दशाशिया है। इस नाते, पलेटो के सूय्व देखा हुआ मनुषय3 की अपेका रबींदनाथ की कलपना से उपजी – अँधरे े कमरे में राजा को न देख पाने वाली रानी सुदशशिना और पकाश में आती-जाती होकर भी राजा के बारे में कु छ भी न बता सकने वाली दासी सुरंगमा − ये दोनों ही चररत अिधक गंभीर और पगलभ वयि्तितव के रूप में उभरकर हमारे सामने उपिसथत होते हैं। यह अथशि-संपननता रबींदनाथ की किवता और उनके नाट् य लेखन का उललेखनीय वैिशष्य है। शांितिनके तन में छातों को मंचन के िलए एक नया नाटक चािहए था। इसके िलए रबींदनाथ ने राजा नामक इस नाटक को 1910 में िलखा था। इसका पहला मंचन 15 माचशि, 1911 में शांितिनके तन में ही हुआ। उसमें ठाकु र दा वाली भूिमका सवयं रबींदनाथ ने िनभाई थी। रबींदनाथ के 50 वें जनमिदन पर इस नाटक का एक बार िफर मंचन शांितिनके तन में ही 7 मई, 1911 के िदन िकया गया। इस मंचन के दौरान शीमती सीतादेवी भी उपिसथत थीं। वे सािहतय को समिपशित पबाशी मािसक पितका के संपादक रामानंद चटोपाधयाय की पुती थीं। रबींदनाथ इस मािसक पितका में िनयिमत रूप से िलखते थे। उनका पिसद उपनयास गोरा पबाशी में ही किमक रूप से पकािशत हुआ था। रामानंद रबींदनाथ के घिनष्ठ िमत थे। सीतादेवी ने शांितिनके तन में राजा नाटक के हुए मंचन का वणशिन िकया है। यह मंचन 3 मराठी के पिसद नाटककार मकरं द साठे का यूनानी दाशशििनक सुकरात के जीवनी पर िलखा नाटक सूय्य पािहलेला माणूस (सूयशि देखा हुआ मनुषय) पिसद है. इस नाटक का पथम मंचन 24 जनवरी, 1999 को पुणे में हुआ था और उसमें सुकरात की पमुख भूिमका पिसद अिभनेता डॉ. शीराम लागू ने िनभाई थी. 03_sharad deshpanday update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:57 Page 59 राजा तथा अरप-रतन : नाटक एक, सं रण अनेक | 59 शांितिनके तन के नाट् यघर में हुआ था। यह जगह के वल एक ग़ुलाम ज़ंजीरों से छूटकर नाम भर के िलए नाट् यघर थी। छोटे से दीवालों वाली गुफा के बाहर आता है और एक हॉलनुमा जगह थी, वहाँ सटेज कोई नहीं था। बस जब बाहर के उजाले में लपटों थोड़ा ऊँचा-सा पलैटफ़ॉमशि था और पीछे दीवाल पर एक परदे पर नटराज की नृतय मुदा वाली पिसद पेंिटंग लगी के नाते गुफा में पड़ने वाली थी। दशशिक ज़मीन पर ही बैठे थे। रबींदनाथ परदे के पीछे वस्तुओं की परछाइयाँ देखता से िनद्लेशन भी कर रहे थे। नाटक में ठाकु र दा की भूिमका है तब उसे वस्तुएँ और उनकी करते हुए उनहोंने के सररया रं ग का पैर तक पहुचँ ने वाला परछाइयों के बीच का अंतर चोंगा पहन रखा था। उनके गले में फू लों की माला थी। ज्ञात हो जाता है। शाश्वत ज्ञान नाटक में सेनापित की भूिमका भी वेश बदल कर तथा ‘स्व’ का रूप जानने के रबींदनाथ ने ही की थी। पर इन भूिमकाओं को करते हुए भी रबींदनाथ का वयि्तितव कोिशश करने से भी िछप नलए प्लेटो के ग़ुलामों को गुफा नहीं रहा था। दशशिकों के बीच रबींदनाथ की एक कौतूहल के अज्ञानरूपी अंधकार से िमिशत पहचान बन रही थी। नाटक में अिजतकु मार ननकलकर गुफा के बाहर चकवत्मी ने रानी सुदशशिना की और उनके छोटे भाई ने ज्ञानरूपी प्रकाश में आना दासी सुरंगमा की भूिमका िनभाई थी। नाटक में कई गाने पड़ता है। अंधकार में तो कुछ थे। नाटक ने दशशिकों के मन को अचछी तरह से बाँधकर नदखता नहीं लेनकन उजाले में रखा था। बंगाली में यह नाटक जनवरी 1911 में कलकता के सब कुछ साफ़ नदखाई देता इंिडयन पिबलिशंग हाउस ने पकािशत िकया था। वषशि है, यह एक सामान्य अनुभव 1914 में इसे द िकं ग ऑफ़ द डाक्व चेंबर नाम से है। प्लेटो का रूपक इसी भेद मैकिमलन कं पनी ने लंदन से पकािशत िकया था। इसी पर आधानरत है। बीच 1920 में मंचन की दृिष से इस नाटक के आलेख की बनाई गई आवृित अरूप-रतन नाम से पकािशत हुई। इस संसकरण में अदृशय राजा के वयि्तितव को बहुत हद तक संिक्ति कर िदया गया था। इस नाटक का मंचन 15 िसतंबर, 1924 को हुआ और उसमें रबींदनाथ ने सूतधार की भूिमका िनभाई थी। रबींदनाथ ने इस नाटक का पुनल्लेखन िफर से एक बार, पूरे 15 वष्षों बाद, यािन 1935 में िकया। राजा के मूल आलेख की दूसरी संशोिधत आवृित अपैल 1921 में पकािशत हुई। अरूप-रतन बनाते समय काट-छाँट िदए गए चररत रबींदनाथ ने िफर से समािवष कर िदए थे। इसिलए राजा और अरूप-रतन इन दोनों का आलेख काफ़ी हद तक एक ही है इस पर अब सहमित बन चुकी है। इसी पतीक नाटक का रूपांतर रबींदनाथ ने 1931 में शापमोचन नामक नृतय-नाटक में िकया है। कािलदास के पिसद नाटक िवक्रमोव्वशीयम् में उवशिशी को तथा पद्मपुराण में अिनरुद को िमले शाप और शाप–िवमोचन की घटनाएँ इस नृतय नाटक के पीछे पेरणा के रूप में हैं, ऐसा एक मत है। 03_sharad deshpanday update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:57 Page 60 60 | िमान राजा के मूल बंगाली आलेख के िजतने अनुवाद और संसकरण हुए हैं उतने शायद ही िकसी और दूसरे आलेखों के हुए होंगे। आज उपलबध होने वाले इस मूल आलेख की कई संपािदत तथा अनूिदत आवृितयों में इतने पररवतशिन िदखते हैं िक इस नाटक के िकसी एक अिधकृ त आलेख का िनशय करना मुिशकल है। रबींदनाथ को 1913 में नोबेल पुरसकार िमलने के बाद लंदन की पिसद मैकिमलन कं पनी उनकी मुखय पकाशक बनी। रबींदनाथ और उनके पकाशक का नाता कु छ ऐसा था िजसमें एक ओर तो रबींदनाथ की अवयावसाियक और मनसवी वृित थी तो दूसरी ओर रबींदनाथ को नोबेल पुरसकार िमलने की पिसिद के कारण उनके नाम के वयावसाियक मूलय का मैकिमलन कं पनी दारा िकया जाने वाला उपयोग था। राजा नाटक का जो पकाशन द िकं ग ऑफ़ द डाक्व चेंबर नाम से हुआ उसकी कहानी तो िवलकण ही है। शयामल कु मार सरकार ने इस अनुवाद की कु ल 6 हसतिलिखत और टंिकत पितयाँ खोजकर यह िदखलाया है िक राजा नाटक के मूल बांगला आलेख के अंगेज़ी अनुवाद को लेकर िकतनी असावधानी बरती गई है। जब रबींदनाथ इंगलैंड में थे तभी के ि्ब्रज िवरिवदालय में पढ़ने वाले िकतीशचंद सेन नामक एक छात ने 1912 के अरटू बर महीने में परीका की ऐन तैयारी के दौरान के वल सात िदनों में ही राजा का अनुवाद द िकं ग नाम से करके पूरा कर िदया था। पर इस काम में बहुत जलदबाज़ी और असावधानी हुई थी। बांगला के िजन शबदों का अनुवाद समझ में नहीं आया था उनके चारों ओर उसने के वल गोला बनाकर छोड़ रखा था। नाटक के अंितम भाग की कई पंि्तियों को तो उसने बस छोड़ ही िदया था। के वल एक गीत रखकर बाक़ी सारे गीत उसने नाटक से हटा िदए थे। रबींदनाथ उस समय अमेररका जाने की वयसतता में थे, इसिलए उनके पास इस अनुवाद को सुधारने का समय नहीं था। िफर भी उनहोंने पहले पाँच दृशयों के अनुवादों में पातों के मुहँ से एकवचन के संबोधनों के सथान पर आदराथशिक संबोधन का पयोग कर िदया था, साथ ही नाटक में 12 नए गानों को िफर से डाल िदया था। रबींदनाथ ने िजस अनुवाद को ठीक िकया था उसकी दो टंिकत पितयाँ तैयार हुई ं। उसमें से एक पित रबींदनाथ ख़ुद अपने साथ अमेररका लेकर गए और दूसरी पित उनहोंने अपने िमत िविलयम रॉथेंसटाइन को इंगलैंड में ही सुरिकत रखने के िलए दी थी। अमेररका में रहते हुए िशकागो से पकािशत होने वाली द डामा नामक िनयतकािलक पितका में छपवाने के िलए रबींदनाथ ने जलदी-जलदी में अपने पास वाली पित में कु छ सुधार कर िदए। लेिकन यह काम भी आधा-तीहा ही हो सका था। सुधार करते हुए उनहोंने बड़े-बड़े पररचछे दों को हटाकर नाटक के दृशयों की संखया 20 की जगह 19 कर दी थी। इंगलैंड में रॉथेंसटाइन के पास जो पित थी उसका वाचन वैसे तो सािहितयक गोिष्ठयों में हो ही रहा था। रॉथेंसटाइन को यह नाटक पसंद आया था। आयररश किव डबलयू. बी. येट्स को, िजनहें बाद में 1923 में सािहतय का नोबेल पुरसकार पा्ति हुआ और िजनहोंने रबींदनाथ की गीतांजिल और डाक घर (द पोसट ऑिफ़स) नाटक की पसतावना िलखी थी, उनहें और थॉमस मूर तथा जॉन मेंसफ़ीलड जैसे िब्रिटश किवयों 03_sharad deshpanday update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:57 Page 61 राजा तथा अरप-रतन : नाटक एक, सं को यह नाटक अचछा नहीं लगा था। इस कारण मैकिमलन कं पनी रबींदनाथ के इस नाटक को पकािशत करने के िलए बहुत अिधक उतसुक नहीं थी। अरटू बर 1913 में भारत लौटने के बाद रबींदनाथ ने इस नाटक पर िफर से काम शुरू िकया। इसके पाँच दृशयों को पूरी तरह से िनकाल कर उनके महतवपूणशि अंशों को के वल दो दृशयों तक सीिमत कर िदया। इस नाते राजा अब के वल 14 दृशयों का नाटक रह गया था। इन सब के बीच उधर इंगलैंड में कु छ अजीब ही हो रहा था। मैकिमलन कं पनी ने द िकं ग ऑफ़ द डाक्व चेंबर को छाप कर उसकी पितयाँ भारत में रबींदनाथ को भेज भी दी थीं। यह जाने िबना िक रबींदनाथ ने न तो इसकी मुिदत पित देखी है और न ही पूफ़ संशोधन िकया है, रॉथेंसटाइन ने तो रबींदनाथ को पुसतक पकाशन के िलए अिभनंदन पत भी िभजवा िदया। रबींदनाथ के िलए यह एक बड़ा धरका था। लेिकन उससे भी बड़ी धरका देने वाली बात यह थी िक इसमें अनुवादक के रूप में रबींदनाथ का नाम पकािशत कर िदया गया था। यह सब होने का कारण यह था िक नोबेल िमलने के बाद रबींदनाथ का जो नाम हो गया था उसके चलते उनके लेखन को पकािशत करके पैसा कमाने की जलदबाज़ी मैकिमलन कं पनी को थी। इसके चलते उनहोंने रॉथेंसटाइन के पास रखी राजा के अनुवाद की पित पा्ति की और उसमें कोई भी संपादकीय संशोधन िकए िबना उसे छाप डाला। लेखन, वयाकरण, वतशिनी की ग़लितयाँ, छोड़ी गई पंि्तियाँ, इतना ही नहीं िकतीशचंद सेन ने िजन शबदों के चारों ओर जो गोले बना िदए थे उन सबको वैसे का वैसा ही मुिदत कर िदया गया था। रबींदनाथ ने तुरंत रॉथेंसटाइन को पत िलखा िक – ‘आपके पास रख छोड़ी गई पित अंितम नहीं थी। उसमें कई बदलाव हो गए हैं। सबसे पमुख बात तो यह िक यह अनुवाद रण अनेक | 61 सुरंगमा:अवनींदनाथ टैगोर कृ त जलरं ग िचत. (नैशनल गैलरी ऑफ़ मॉडनशि आटशि, नई िदलली।) राजा नाटक का जो प्रकाशन द नकंग ऑफ़ द डाकर् चेंबर नाम से हु आ उसकी कहानी तो नवलक्षण ही है। श्यामल कुमार सरकार ने इस अनुवाद की कुल 6 हस्तनलनखत और टंनकत प्रनतयाँ खोजकर यह नदखलाया है नक राजा नाटक के मूल बांग्ला आलेख के अंग्रेज़ी अनुवाद को लेकर नकतनी असावधानी बरती गई है। 03_sharad deshpanday update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:57 Page 62 62 | िमान मैंने िकया ही नहीं है’। यह िलखकर उनहोंने मैकिमलन कं पनी को भी उिचत क़दम उठाने के िलए कहा। लेिकन मैकिमलन कं पनी ने बाद के िकसी भी पुनमुदशि ण में अनुवादक के रूप में रबींदनाथ के नाम को हटाने की तकलीफ़ तक नहीं उठाई। द िकं ग ऑफ़ द डाक्व चेंबर की यह 1914 की मैकिमलन वाली पित ‘लेखक के अिधकृ त पकाशक के दारा उसी लेखक की अनिधकृ त पांडुिलिप छापकर िज़्मेदारी से मुकरने का’ शायद अके ला उदाहरण होगा, ऐसा कहा गया है। राजा रबींदनाथ का िपय नाटक था। िविलयम रॉथेंसटाइन को 17 जून, 1913 को िलखे गए पत में रबींदनाथ ने िलखा है : ‘इस नाटक के संदश े को मुझे आपके लोगों तक पहुचँ ाना है... यह नाटक मुझे भी समझ में नहीं आता है… िबलकु ल मेरे अंदर से आए हुए अनुभवों से मानों मेरे िबना (आया हुआ है) ...इस नाटक पर मेरा पेम आतमिनरपेक है।’4 नाटक तथा नाटककार की जीवन दृिष के बीच अटू ट संबंध होता है। रबींदनाथ का यह नाटक भी उनकी जीवन दृिष की पररणित है। रबींदनाथ की दृिष में कला की यथाथशिता बाह्य जगत के िचतण पर आधाररत न होकर मनुषय के आंतररक िवर पर िटकी होती है। इसी कारण बाह्य जगत की वासतिवकता की अपेका मनुषय के आंतररक िवर की, उसकी आधयाितमकता की वासतिवकता ही सही अथ्षों में वासतिवकता है, यह बात रबींदनाथ के नाटक में िदखाई जाती है। मनुषय को पभािवत करने वाली अनय िसथितयों की ही तरह उसके आंतररक संघषशि में िछपा नाट् य भी उसे पभािवत करता है। इसी कारण आपस में होने वाले बाहरी संघषशि की अपेका मनुषय के अंतमशिन में होने वाला संघषशि, भावनाओं का िवकोभ और चेतना का उननयन इनहीं सब को नाट् य िवषय बनाना रबींदनाथ को अिधक महतवपूणशि लगता है। रबींदनाथ के नाटकों का यथाथशिवाद रूढ़ अथशि वाले यथाथशिवाद के िबलकु ल उलट है। उनका यथाथशिवाद मनुषय के आधयाितमक जीवन की सतयता िदखाने वाला है। रबींदनाथ की इस अनोखी शैली के यथाथशिवादी नाटकों में पतीकों की सहायता से अंतमशिन में होने वाले संघषशि, भावनाओं के कोलाहल और चेतना के उननयन का िवसतार िजस तफ़सील के साथ िदखाया जाता है वह अिधक ग़ौरतलब है। यह िवसतार तथा ये सारे पतीक जैसे-जैसे अिधक गहरे और एक-दूसरे में गुँथते जाते हैं, वैसे ही रबींदनाथ के नाटकों का यथाथशिवाद पखर होता जाता है। जो िदखता नहीं है, बस िजसकी अनुभिू त होती है, ऐसे सतय का जान हो पाए इसके िलए कलातमक वातावरण की िनिमशिित आवशयक है। रबींदनाथ इसी की योजना करते हैं। इन गहन संकेतों के कारण रबींदनाथ के पतीकातमक नाटक अमर हो गए हैं। बाह्य रूप न होने के कारण इस नाटक का राजा दीखता नहीं है इसिलए वह अ-रूप (फ़ॉमशिलेस) है, लेिकन वह िकसी रतन की तरह आकषशिक और अनमोल भी है। राजा की अरूपरतन नाम से हुई बांगला आवृित का अंगेज़ी अनुवाद फ़ॉम्वलेस जूएल शीषशिक से हुआ है तो राजा का अंगेज़ी अनुवाद द िकं ग ऑफ़ द डाक्व चेंबर शीषशिक से हुआ है। इस अनुवाद से 4 आनंद लाल : 55. 03_sharad deshpanday update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:57 Page 63 राजा तथा अरप-रतन : नाटक एक, सं रण अनेक | 63 लखनऊ िसथत रबीनदालय कला कें द में के .जी.सुब्रमिणयन कृ त िभितिशलप द िकं ग ऑफ़ द डाक्व चेंबर (1963) ‘के वल अँधरे े में ही िजसका अिसततव रानी सुदशशिना को महसूस होता है लेिकन जो िदखाई नहीं देता’ ऐसे राजा का सवरूप सपष हो जाता है। यह अनुवाद सवयं रबींदनाथ ने िकया था। िहंदी में इसका अनुवाद अँधरे े कमरे में राजा या अँधरे े कमरे का राजा इस पकार िकया जा सके गा। कु छ लोगों का मानना है िक ‘अदृशय राजा’ में रबींदनाथ के समय के उपिनवेशवाद का राजनैितक संदभशि भी है। इस नाटक के पातों का अथशि कु छ लोगों ने इस राजनैितक िदशा में भी लगाया है। लेिकन इस ‘अ-रूप’ ततव की कलपना भारतीय आधयाितमक तथा दाशशििनक परं परा में पहले से ही की जाती रही है। रूप आँखों का िवषय है लेिकन उसकी सता अिनतय है। वह हमेशा नहीं रहता बिलक जीणशि होकर नष हो जाता है। रूप मायावी भी होता है। इसी कारण अदैत वेदांितयों का मानना है िक अंितम ततव ब्रह्म अ-रूप तथा िनराकार है। रबींदनाथ को अरूप-रतन की कलपना बहुत पयारी लगती है। एक किवता में वे कहते हैं– ‘रूप सागरे डू ब िदएिछ अरूप-रतन आशा करर, घाटे घाटे घुरब न आर, भािसए आमार जीण्व तरी’ —यािन ‘अरूप-रतन की आशा में मैंने रूप-सागर में डु बकी लगा ली है, अब मैं अपनी जीणशि नौका लेकर घाट-घाट नहीं भटकूँ गा। अपनी पुरानी नाव अब मैं खेते चला जा रहा हू’ँ । िदखाई पड़ने वाले संसार का नाम भी है और रूप भी। इस नाम-रूपधारी सागर में नाम-रूप िवरिहत रतन खोजने का पागलपन के वल रबींदनाथ जैसे समथशि किव और दाशशििनक को ही हो सकता है। इंगलैंड और अमेररका में रबींदनाथ किव के रूप में तो पिसद थे ही, साथ ही डाक घर, िचतांगदा (िचता), और राजा (द िकं ग ऑफ़ द डाक्व चेंबर) इन नाटकों ने उनहें यूरोप में एक नाटककार के रूप में भी पिसिद िदला दी। डाकघर का पहला मंचन आयरलैंड के डिबलन में मई 1913 के एबे िथएटर में हुआ, तो िचतांगदा का मंचन1915 में कोएिशयन नैशनल िथएटर ज़ैगेब में। ्युिनख़ में यह मंचन 1916 में हुआ और चीन के बीिजंग में 1924 में। बीिजंग में हुए मंचन में रबींदनाथ ख़ुद उपिसथत थे। राजा नाटक का मंचन 1918 में मॉसको आटशि िथएटर की ओर से मॉसको में हुआ। उसमें मैडम जेमन्ले ोवहा नामक अिभनेती ने रानी सुदशशिना की भूिमका की थी। िब्रसटल में 1920 में हुए मंचन को सवयं रबींदनाथ ने पसंद िकया था, यह 03_sharad deshpanday update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:57 Page 64 64 | िमान उनहोंने िलखा है। 26 मई, 1922 के टाइमस में िचतांगदा और द िकं ग ऑफ़ द डाक्व चेंबर के दूसरे िदन होने वाले मंचन के बारे में इस शीषशिक से समाचार छपा था – ‘फांस में रबींदनाथ के पहली बार होने वाले नाटक’। रबींदनाथ के इस नाटक की तथा अनय दूसरे नाटकों के मंचन की अनुकूल या पितकू ल समीकाएँ पिशमी मीिडया में अगर न आतीं तो ही आशयशि होता। कु छ समीककों ने तो ‘सविपनल और पतीकों का िनिशत अथशि नहीं लगने वाला, कहकर इसका उपहास भी िकया था तो वहीं लाइफ़ नामक िवरिवखयात मािसक पितका की समीका में ‘भारत के एक पजावान गृहसथ का कावयातमक नाटक’ इस तरह एक पंि्ति भी थी। समकालीन भारतीय िनद्लेशकों ने भी राजा नाटक के मंचन िविवध भारतीय भाषाओं में कराए हैं। इनमें जसवंत ठाकर दारा गुजराती में िनद्लेिशत बड़ौदा में 1955 में िकया हुआ, कृ षण शाह िनद्लेिशत अमेररका में 1961 में िकया हुआ, शंभू िमत िनद्लेिशत बांगला में कोलकाता में 1964 में िकया हुआ, रं ग पिणरकर िनद्लेिशत मलयालम में राष्ीय नाट् य िवदालय, िदलली दारा 1987 में िकया हुआ, और रबींदनाथ की 150 वीं जनम शताबदी के अवसर पर रतन िथयम िनद्लेिशत असिमया में 2012 में िकया हुआ मंचन िवशेष उललेखनीय है। नाटक के पात अंततः नाटककार के मन की ही बात करते हैं। राजा नाटक का आलेख तैयार करते हुए रबींदनाथ की मानिसक अवसथा कै सी थी, यह जानना िदलचसप है। कृ षण कृ पलानी ने इस पर रोशनी डाली है। राजा नाटक को िलखने के पूवशि का समय रबींदनाथ के जीवन का अतयंत दु:खद कालखंड था। 1902 से लेकर 1907 तक के के वल पाँच वष्षों की अलपाविध में उनकी पतनी मृणािलनी देवी, बेटी रे णक ु ा, िपता महिषशि देवेंदनाथ और सबसे छोटा तेरह वषशि का बेटा समींदनाथ, इन सबकी मृतयु के आघात रबींदनाथ को सहने पड़े थे। बची हुए तीन संतानें भी उस समय उनके पास नहीं थीं। बंगाल के सािहितयक समाज में भी उनके िवरोधी कु छ कम नहीं थे। रबींदनाथ की बांगला का मज़ाक़ उड़ाने में वे कोई भी कमी नहीं छोड़ते थे। शांितिनके तन के उनके िवदालय में अपने बचचों को न डालें, ऐसा गु्ति िनद्लेश सरकारी मुलािज़मों को दे िदया गया था। इस पकार के नकारातमकता से भरे माहौल में पिसिद के उजाले और लोगों के घेरे में रहकर भी रबींदनाथ अंत में अके ले से पड़ गए थे। इन सब पररिसथितयों ने मानो उनको अपनी खोल में, अपने एकांत में यािन अपने ‘सव’ की खोज की ओर ढके ल िदया था। ‘सव’ की खोज का उनका यह कालखंड 1910 में गोरा उपनयास तथा 1912 में गीतांजिल कावयसंगह के पकाशन के के वल कु छ वष्षों पहले का है। इसे यिद हम धयान में रखें तो पाएँगे िक रबींदनाथ के उपनयास तथा कावय में भी ‘सव’ की खोज िदखाई देती है। उनहें लग रहा था िक असीम दु:ख और एकाकीपन की अवसथा में िमले जीवन के अतयंत गहन गंभीर अनुभव और उनकी दी हुई िदवयतव की अनुभिू त को नाटक का रूप िदया जाए। रबींदनाथ के नाटक में ‘ईरर’ और ‘सतय’ की संकलपनाएँ के वल बौिदक रूप में नहीं हैं। रबींदनाथ का ईरर मजबूरी के नाते या िकसी आवशयकता के कारण सवीकारा हुआ कोई 03_sharad deshpanday update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:57 Page 65 राजा तथा अरप-रतन : नाटक एक, सं रण अनेक | 65 िदवयगुण संपनन वयि्ति नहीं है। वैजािनक लोग तो के वल उस सतय को मानयता देते हैं जो बुिदग्य िनयमों के नाटक तथा नाटककार की अंतगशित हो और वयि्तििनरपेक तथा वसतुिनष्ठ सतय हो। जीवन दनष्ट के बीच अटू ट ं होता है। रबींद्रनाथ का लेिकन रबींदनाथ को मानवीयता से िवरिहत सतय मानय संबध नहीं है। आइंसटीन के साथ हुए 1930 के पिसद संवाद यह नाटक भी उनकी जीवन में रबींदनाथ ने यही अवधारणा वय्ति की है। ईरर और दनष्ट की पनरणनत है। सतय, जीवन के रहसयों को सुलझाने के कम में अनुभतू रबींद्रनाथ की दनष्ट में कला होने वाले िवषय हैं। इस जीवन-दशशिन में रबींदनाथ जैसे किव को मनुषयमात में िदवयतव का अंश और ईरर में की यथाथर्ता बाह्य जगत के मानवता का अंश पितिबंिबत होता दीखता है। रया नचत्रण पर आधानरत न होकर सतय के वल ‘सुंदर’ और ‘िशव’ होता है या वह कु रूप मनुष्य के आं तनरक नवश्व पर और भयानक भी होता है? ईरर दुष है अथवा दयालु? नटकी होती है। इसी कारण िमत है या शतु? आतमा का ईरर के साथ रया संबंध है? बाह्य जगत की वास्तनवकता सतय को जैसा है − यथाविसथत – उसी रूप में सवीकार की अपेक्षा मनुष्य के आं तनरक करना होता है या उसे अपनी आँखों से देखना होता है? ये आधयाितमक पश रबींदनाथ के सामने आए हैं और नवश्व की, उसकी इन पशों में िनिहत िवमश्षों को रबींदनाथ ने राजा और आध्यानत्मकता की अरूप-रतन नाटक में पसतुत िकया है। वास्तनवकता ही सही अथ में िनशय ही रबींदनाथ की सजशिनातमक पितभा वास्तनवकता है, यह बात तातकािलकता से ऊपर उठकर िचरं तन की खोज करने रबींद्रनाथ के नाटक में वाली है। इसका कारण उनकी दाशशििनक पृष्ठभूिम है। के ि्ब्रज के पखयात कांितकारी दाशशििनक लुडिवग नदखाई जाती है। िवट् गेंसटाइन इसीिलए उनसे पभािवत हुए थे। ‘धमशि, नीित, और सौंदयशि के बारे में हमारी जो शदा और मानिसक वृित होती है उसे समझने के िलए िभनन पकार के मानदंड की आवशयकता होती है। अगर यह न मानें तो के वल िवजान की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाने के कारण उस शदा और उन मानिसक वृितयों को तयाजय समझ लेने की पवृित पबल होने लगती है’ ऐसा िवट् गेंसटाइन का मानना है। वे जानते थे िक सािहतय में जीवन के ममशि का सपशशि करने की और जीवन के आर-पार देखने की कमता होती है। इसी कारण रबींदनाथ की गीतांजिल उनहें पसंद थी। ‘जो साकात इंिदयजनय अनुभवों पर आधाररत हों या िजनके माधयम से ही गिणतीय पमेय वय्ति िकए जा सकते हों ऐसे ही वारय साथशिक होते हैं, शेष सभी वारय िनरथशिक होते हैं, ऐसा िवजानवादी दाशशििनकों का मानना है। ऐसे ही िवजानवादी दाशशििनकों की एक बैठक में िवट् गेंसटाइन ने शोताओं की ओर अपनी पीठ करके ऊँचे सवर में गीतांजिल पढ़ी थी, ऐसा कहा जाता है। इस िकं वदंती में से सनसनी का िहससा छोड़ भी िदया जाए तो 03_sharad deshpanday update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:57 Page 66 66 | िमान गीतांजिल की कावयातमक भाषा िकतनी अिधक अथशिपणू शि है, यही बात िवट् गेंसटाइन बताना चाहते थे। उनहोंने राजा का जमशिन अनुवाद 1921 में पढ़ा था। लगभग उसी समय रबींदनाथ जमशिनी और ऑिस्या के सािहितयक वगशि में ख़ूब पिसद हो गए थे। पहली बार पढ़ते हुए िवट् गेंसटाइन को राजा नाटक अचछा नहीं लगा था। उनहें लगता था िक रबींदनाथ को जो अनुभिू त हुई है वह उन लोगों की अनुभिू त की तरह नहीं लगती िजनहें सचमुच ही सतय की पाि्ति हुई हो। इसिलए रबींदनाथ का सवर उनहें सचचा नहीं लग रहा था। उनकी अपेका िवट् गेंसटाइन को नॉव्ले के नाटककार हेनररक इबसन अिधक सचचे लगते थे। लेिकन उनहोंने यह भी सवीकार िकया था िक अनुवाद की मयाशिदा के कारण संभवतः रबींदनाथ का आशय उनहें ठीक से समझ में न आ रहा हो। इसके बारे में उनहोंने अपने िवदाथ्मी पॉल एंगलमन को 1921 में िलखा भी था िक ‘यह नाटक मन को बाँध नहीं पा रहा है’। लेिकन बाद में उनका यह अिभपाय बदल भी गया था जैसा िक हैंसेल को िलखे गए पत में उनहोंने ‘[इस नाटक में] ...कु छ तो भवय है’ ऐसा कहा है। अनेक बार वे अपने िमतों को यह नाटक पढ़ने के िलए देते थे। अपने िवदाथ्मी यॉररक िसमथीज़ की मदद से द िकं ग ऑफ़ द डाक्व चेंबर के दूसरे अंक के सवयं िकए हुए अंगेज़ी अनुवाद को वे अपने सौंदयशि शास्त्र के वयाखयानों में पढ़कर िदखाते भी थे। राजा नाटक की मूल कलपना उनहें अपनी धािमशिक वृित से िमलती-जुलती लगती थी, इसिलए उनहें यह नाटक पसंद था। िवट् गेंसटाइन की धारणा ‘मैं धािम्वक वयि्ति नहीं हूँ लेिकन िकसी भी समसया पर धािम्वक दृि्टिकोण से िवचार िकए िबना नहीं रह सकता’ पिसद है। िवट् गेंसटाइन का मानना था िक अंगेज़ी के ‘ररलीजन’ शबद से िजस तरह का धमशि अिभपेत है उस अथशि में वे धािमशिक नहीं हैं। वे कमशिकांड नहीं करते। धमशि पर आधाररत ख़ास तरह की शदा भी वे नहीं रखते िफर भी उनका दृिषकोण धािमशिक होता है। यह कै सा धािमशिक दृिषकोण अथवा कै सी धािमशिक वृित है जो समाज में धमशि के पचिलत अथशि के साथ मेल नहीं खाती? इसके लकण रया हैं? धमशि या धािमशिक इन शबदों के पचिलत अथशि िलए िबना इस धािमशिक वृित को कै से समझा जाए? इन पशों के उतर राजा नाटक में सुदशशिना तथा सुरंगमा के संवादों से िमलते हैं। कभी िदखाई न पड़ने वाला राजा जब सुरंगमा के िपता को िनवाशििसत कर देता है तो सुरंगमा बहुत दुःखी हो जाती है। वह राजा से बहुत देष करने लगती है लेिकन िफर भी उसके मन में राजा के पित अपार भि्ति भाव उतपनन होने लगता है। इससे रानी को आशयशि होता है। सुरंगमा कहती है िक ‘यह भि्ति भाव मेरे मन में कब उतपनन हुआ, इसका मुझे भी पता नहीं चला। मैं इसका कारण भी नहीं बता सकती। एक िदन जब मेरे मन का िवदोह दब गया और खलबली शांत हुई, उदेग चला गया तब मैं बड़ी सहजता से िवनम्र होती गई। िफर तो अदृशय राजा है िक नहीं इसका पमाण देने की या उसके पित मेरे मन में भि्ति भाव रयों है, इसका कारण देने की भी मुझे आवशयकता महसूस नहीं हुई।’ सुरंगमा की यह बात एक ओर शदा और ईरर का अिसततव िसद करने का पयास करने 03_sharad deshpanday update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:57 Page 67 राजा तथा अरप-रतन : नाटक एक, सं रण अनेक | 67 वाले ईररवादी, और दूसरी ओर शदा और ईरर के अिसततव का पमाण माँगने वाले िनरीररवादी, इन दोनों का अितकमण करती है। ‘कायशि-कारण भाव पर आधाररत वैजािनक पदित को अनुभव तथा जान के सारे सतरों पर एक ही पकार से लागू नहीं िकया जा सकता’ यह बात सुरंगमा ने सीधी-सादी भाषा में बता दी है। उसके मन का झंझावात जब शांत हो जाता है, उिदगनता चली जाती है तब बड़ी सहजता से उसका िवनम्र हो जाना, राजा कु श सुंदर है या नहीं इस बात का रानी सुदशशिना के िलए कोई भी मतलब नहीं रहना, और सुदशशिना का राजा को यह कहना िक ‘मेरे [हृदय] में बसा हुआ आपका पेम और उसमें िदखने वाली आपकी मूरत और मुझमें िदखने वाला आपका पितिबंब − इन सबमें मेरा कु छ भी तो नहीं है, जो भी है वह सब आपका ही है, महाराज!’; − इन सब के दारा रबींदनाथ ने सुरंगमा और सुदशशिना के मन की अननय शरणागित की भावना िदखाई है। इस भावना से उतपनन शबदातीत शरणागत मनोवृित को ही िवट् गेंसटाइन धािमशिक वृित कहते हैं। संत जानेरर ने इसी धािमशिक वृित को – हे िवशाचे आत्व माझया मनी पकाशले। अवघेिच झाले देह ब्रह्म। (परमातमा की पाि्ति न होने का वैिरक दु:ख मेरे मन में पकट हो गया है, वसतुमात ही मेरे िलए अब ब्रह्म हो गया है) इन शबदों में वय्ति िकया है। इस वृित में होने वाला िवरास भाषा के माधयम से वय्ति नहीं िकया जा सकता, वह अिनवशिचनीय है। ‘अदृशय राजा के अिसततव पर िवरास रखने वाली लेिकन भाषा की मयाशिदाओं के कारण उसका वणशिन न कर पाने वाली’ दासी सुरंगमा में िवट् गेंसटाइन को अपनी दाशशििनक मानयता का पितिबंब िदखाई पड़ा। इसिलए राजा नाटक उचच कोिट की कावय पितभा और उदात कोिट की दाशशििनक कमता रखने वाले रबींदनाथ टैगोर और लुडिवग िवट् गेंसटाइन जैसे दो महामानवों को जोड़ने वाली अदु त रचना है। (यह पो. शरद देशपाणडे दारा मराठी में िलिखत ‘राजा’ आिण ‘अरूप-रतन’; नाटक एक : संसकरणे अनेक!’ लोकसता (दीपावली 2020) में पकािशत लेख का भाषांतर है। इस िहंदी अनुवाद में आचाय्व िगरीशर िमश्र (पूव्व कु लपित, महातमा गांधी अंतरराष्ीय िव.िव.,वधा्व) और पो. िहतेंद्र पटेल (रवींद्र भारती िव.िव., कोलकाता) दारा महतवपूण्व सुझाव िमले। अनुवादक उनका आभारी है।) संदर्भ आनंद लाल (2001), रवींद्रनाथ टैगोर : थी पलेज़ (अनु.), सिहत पसतावना, ऑरसफ़डशि युिनविसशिटी पेस. कृ षण कृ पलानी (2012), रवींद्रनाथ टैगोर : ए बायोगाफ़़ी, यू.बी.एस.पी.डी. पकाशक, नई िदलली. िनमशिलकांित भटाचाज्मी (2015), रवींद्रनाथ टैगोर, द िकं ग ऑफ़ द डाक्व चेंबर, िनयोगी बुरस, नई िदलली. पॉल एंगलमन (1967), लेटस्व फॉम िवटगेंसटाइन, बेिसल, बलॅकवेल. मेरी लॅगो (1972), इंपफ्फे कट एनकाउंटर : लेटस्व ऑफ़ रोथेंसटाइन ऐंड टैगोर 1911-1944, हावशिडशि युिनविसशिटी पेस. रवींदनाथ टागोर, रवीनद्र रचनावली, खंड 4, किवता कमांक 185, शासन पकाशन, पिशम बंगाल. रे मंक (1991), लुडिवग िवटगेंसटाइन : द ड् यटू ी 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होती है। यहाँ सपीच शबद का अथड के वल 1 हूमन राइट् स वॉच (1992) : 5. 04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 70 70 | िमान बोले गए शबद, बातचीत या शबदावली नहीं है। इसमें ऐसे शबद भी शािमल हैं जो ‘मुिदत हों, पकािशत हों, िचपकाए गए हों या इंटरनेट पर पोसट िकए गए हों − ऐसे भाव जो दृशय वातावरण का एक सथायी या अरड-सथायी िहससा बन जाते हैं िजसमें हमें अपना जीवन, और कमज़ोर अलपसंखयक वगड के सदसयों को अपना जीवन जीना पड़ता है।’2 हालाँिक ‘हेट’ शबद के उपयोग के बारे में भ्रम और िववाद अभी भी क़ायम है। रॉबटड पोसट के अनुसार, ‘हेट’ शबद अतयिधक नापसंदगी या घृणा की भावना, नफ़रत और देष दशाडता है।3 वह ‘हेट’ को नापसंदगी का एक चरम रूप मानते हैं और इसिलए क़ानून के माधयम से िनयमन की आवशयकता पर ज़ोर देते हैं। उनके इस िवचार के कें द में वो वयि्ति है जो हेट सपीच का उपयोग करता है और हेट सपीच के माधयम से अपने भीतर की घृणा और नफ़रत को अिभवय्ति करता है। हालाँिक जेरेमी वाल्ॉन मानते हैं िक पोसट के तकड से ऐसा पतीत होता है जैसे क़ानून और हेट सपीच के िविनयमन के समथडक नफ़रत को बुरी चीज़ मानते हैं (चाहे वह िकसी भी संदभड में हो) और इसिलए उसके िनयंतण की पैरवी करते है कयोंिक उनहें लगता है िक नफ़रत सदा हािनकारक होती है।4 इसके िवपरीत वाल्ॉन का मानना है िक हेट सपीच िविनयमन के समथडकों की िचंता का मुखय िवषय अपनी पजाित, जातीयता या धमड के आधार पर नफ़रत का सामना करने वाले असुरिकत अलपसंखयक होते हैं कयोंिक ऐसे नफ़रत का सीधा असर उनकी मनोिसथित पर होता है। यह सपष्ट है िक पोसट से िभनन वाल्ॉन के अनुसार हेट सपीच की बहस के कें द में हेट सपीच का िशकार वयि्ति अथवा समूह होना चािहए न िक उसे इसतेमाल करने वाले। इससे क़ानून सवतंत अिभवयि्ति की रका करते हुए भी हेट सपीच के िशकार लोगों के पित संवेदनशील रह सकता है।5 वहीं भीखू पारे ख6 और िमशेल रोसेनफ़े लड7 जैसे िवदान यह मानते हैं िक हेट सपीच की उपरो्ति दोनों पररभाषा में ‘हेट’ शबद पर और वयापक िवचार करने की आवशयकता है। रोसेनफ़े लड का कहना है, ‘इस बात का आकलन िकया जाना चािहए िक कै से या िकतनी अभद भाषा को पितबंिधत िकया जाना चािहए, और इसिलए कु छ पमुख चरों को पररभािषत करते हुए यह तय िकया जाना चािहए िक हेट सपीच में कौन और कया शािमल है और कहाँ और िकन पररिसथितयों में ये मामले सामने आते हैं।’8 िनश्चय ही इस िचंता का कारण यह है िक हेट सपीच की पररभाषा उसकी सीमाओं को भी तय करता है, िजसका असर पतयक रूप से अिभवयि्ति की सवतंतता पर भी होता है। साथ ही िकसी एकपकीय दृिष्टकोण के आधार पर हेट सपीच पर लगाम लगा कर उससे होने वाले नुक़सान 2 3 4 5 6 7 8 जेरेमी वाल्ॉन (2012) : 37. रॉबटड पोसट (2009) : 123. जेरेमी वाल्ॉन : 36. वही : 37. भीखू पारे ख (2012) : 37-56. िमशेल रोसेनफ़े लड (2012) : 242-289. वही : 246. 04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 71 हेट ीच, अ ि की तं ता और िारतीय कानूनी व ा | 71 पर िनयंतण कर पाना बहुत मुिशकल है। शायद इसिलए पारे ख अपनी पररभाषा को जयादा खुला रखते हुए कहते हैं िक ‘हेट सपीच िकसी ख़ास िवशेषताओं से िचि्नित समूह जैसे नसल, जातीयता, िलंग, धमड, राष्ीयता और यौन अिभिवनयास आिद के िख़लाफ़ घृणा को वय्ति करती है, पोतसािहत करती है, उतेिजत करती है और उकसाती है।’9 अतः यह देखा जा सकता है िक िवदानों के बीच इस िवषय पर कोई सहमित नहीं है िक हेट सपीच में ‘हेट’ शबद को कै से पररभािषत िकया जाए। सवडसममित के अभाव से जयादा िचंतनीय बात यह है िक इनमें से पतयेक पररभाषा ‘हेट सपीच’ को समझने का एक अलग नज़ररया पसतुत करती है और अपनीअपनी समझ के आधार पर अिभवयि्ति की सवतंतता की अलग-अलग क़ानूनी सीमाएँ तय करने की वकालत करती है। इस तरह के भ्रम की िसथित हेट सपीच से रका में िबलकु ल िहतकर नहीं होती कयोंिक क़ानूनी अिनिश्चतताओं का भय िदखाकर कई िवदान् ‘िचकना ढलान’ (िसलपरी सलोप)10 के तकड के आधार पर हर पकार के हेट सपीच क़ानून का िवरोध करते हैं। भारत में अिभवयि्ति की सवतंतता पर िटपपणी करने वाले अिधकांश िवदान् जैसे नूरानी11 और अंसारी12 हेट सपीच की पिश्चमी देशों में इसतेमाल की जाने वाली अवधारणा का उपयोग िबना यहाँ के संदभड में पररभािषत िकए एवं िबना आलोचनातमक वयाखया िकए ही करते हैं। दुभाडगयवश जो इसे पररभािषत करने की कोिशश भी करते हैं उनका दृिष्टकोण भी बहुत गंभीर नज़र नहीं आता। रतना कपूर अपने लेख ‘हु कॉसड द लाइन? फ़े िमिनसट ररफलेकशन ऑन सपीच ऐंड सेंसरिशप’ में ‘हेट सपीच’ और ‘यौन भाषण (सेकसुअल सपीच)’ के बीच अंतर करने की आवशयकता की बात कहती हैं। उनके अनुसार हेट सपीच का धयेय ऐसे शबदों और छिवयों से है जो िक ख़ास समूहों के पित घृणा/ नफ़रत को बढ़ावा देती हैं, और भारत के संदभड में ये समूह मुखयतः धािमडक अलपसंखयक होते हैं।13 पूरे लेख में वह बहुत से अदालती मामलों और संवैधािनक पावधानों का हवाला देती हैं, लेिकन इन मामलों को ‘हेट सपीच’ के तहत वग्गीकृत करने के िलए वह कोई मज़बूत तकड देने में िवफल नज़र आती हैं। इसी तरह, राजीव धवन अपनी पुसतक पि्लश ऐंड बी डैमड में कहते हैं, ‘मोटे तौर पर हेट सपीच में ऐसा कोई भी भाषण शािमल है जो वयि्तियों, समूहों या वग्गों को लिकत करता है और ऐसे वयि्तिगत समूहों या वग्गों का उपहास उड़ाता है या उनहें नाराज़, अपमान या बदनाम करने का पयास करता है, या उनहें इस तरह से िचितत करने का पयास करता है िजससे उनकी पितषा या आतम-सममान कम हो। हेट सपीच कु छ लोगों के पित नफ़रत को भड़का सकती है या नफ़रत 9 भीखू पारे ख (2012) : 40. कु छ िवदानों का मानना है िक कोई भी िसरांत जो नफ़रत का पचार करने वाले भाषण पर पितबंध की अनुमित देता है, उनहें लागू करना एवं तकड के रूप में उनका उपयोग करना मुिशकल होगा. इस तरह के िवचारों के पैरोकारों में एडिवन बेकर और रॉनालड ड् वॉिकड न शािमल हैं. 11 ए.जी.नूरानी (1999, 2008). 12 इकबाल अंसारी (2008) : 15-19. 13 रतना कपूर (1996) : 20. 10 04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 72 72 | िमान को भड़काने की कमता रखती है, िजसके पररणामसवरूप ऐसे वयि्तियों या समूहों को लिकत और पीिड़त िकया जा सकता है, और इसके कारण उनके िख़लाफ़ िहंसा हो सकती है या अनय तरह के बैर जनम ले सकते हैं िजससे शांित भंग हो सकती है।’14 हेट सपीच शबद की इस पररभाषा में वो हर पहलू सिममिलत है िजसके आधार पर संय्ति ु राजय अमेररका सिहत दुिनया में कहीं भी मु्ति भाषण को िविनयिमत िकया जा सकता है। साथ ही धवन हेट सपीच की पररभाषाओं की जाँच िकए िबना या अनय लोकतंतों में इसके अथड और दायरों के बारे में बहस में शािमल हुए िबना ही इस अवधारणा को अपनी इचछानुसार पररभािषत करने का पयास करते हैं। इसके अलावा, इस पररभाषा की अपनी सीमाएँ हैं। उदाहरण के िलए, ऐसे मामले भी हो सकते हैं जहाँ भाषण अपमानजनक और आकामक तो हो, मगर उसमें िकसी के पित नफ़रत भड़काने की कमता न हो। धवन की पररभाषा से यह सपष्ट नहीं है िक ऐसी भाषा अथवा भाषण को हेट सपीच के दायरे में रखा जा सकता है या नहीं? इसमें कोई संदहे नहीं िक हेट सपीच की एक संकलपना के रूप में उतपित और िवकास अमेररका एवं युरोप में एक िवशेष संदभड में हुआ था और इसिलए भारत में इन अवधारणाओं के इसतेमाल से पहले इनकी वयाखया और यहाँ के संदभड में इसकी समझ िवकिसत होनी आवशयक है। इस लेख में मेरा उदेशय भारतीय संदभड में अिभवयि्ति की सवतंतता और हेट सपीच के संबधं ों पर आधाररत बहस में िनिहत जिटलताओं को पसतुत करना है। मेरा तकड है िक भारत के वैधािनक और संवधै ािनक क़ानून ऐसे भी कई पकार के अिभवयि्ति के िविनयमन का समथडन करते हैं और इनके िख़लाफ़ राजय की कारडवाई को उिचत ठहराते हैं जो पिश्चमी लोकतंतों में िवकिसत हेट सपीच की पररभाषा से परे हैं। इससे भी महतवपूणड बात यह है िक यहाँ की नयायपािलका (िजसे संिवधान िनमाडताओं ने नागररक के मौिलक अिधकारों का संरकक माना था) भी ऐसे पितबंधों और इस पर आधाररत राजय की कायडवाही को अनुमोिदत करती है। ऐसे में हेट सपीच की पिश्चमी अवधारणा और पररभाषा भारत के संदभड की जिटलताओं की वयाखया करने में असमथड नज़र आती है और इसिलए यहाँ के संदभड और समाज को धयान में रखते हुए या तो हेट सपीच की अवधारणा को िफर से पररभािषत करने की आवशयकता है या एक बेहतर अवधारणा की तलाश करने की आवशयकता है जो उन वयंजकों की वयाखया कर सके िजसके आधार पर भारत में अिभवयि्ति की सवतंतता को पितबंिधत िकया जाता है। ‘हेट ीच’ की प रभाषा का ऐ तहा िक और कािूिी िकाि वैचाररक सतर पर यिद हम ‘हेट सपीच’ की पररभाषा के इितहास को देख,ें तो हालाँिक यह संकलपना 1980 के दशक में जा कर ही जयादा पचिलत हुई, इसकी उतपित 1920-30 के दशक में संय्ति ु राजय अमेररका में मानी जा सकती है जहाँ से धीरे -धीरे बढ़ते हुए इसने युरोप 14 राजीव धवन (2008) : 223. 04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 73 हेट ीच, अ ि की तं ता और िारतीय कानूनी व ा | 73 के िवमश्गों में जगह बनाई।15 हेट सपीच के िनयमन की शुरुआत मुखयतः िदतीय िवश युर के बाद ही हुई। जैसा िक रोसेनफ़े लड कहते हैं, ‘नसलवादी पचार और िवधवंस के मधय सपष्ट संबंध से पेररत होकर, अंतराडष्ीय वाचाओं के साथ-साथ जमडनी जैसे अलग-अलग देशों ने – और युर के बाद के दशक में, संय्ति ु राजय अमेररका ने भी – संवैधािनक रूप से संरिकत अिभवयि्ति के दायरे से हेट सपीच को बाहर कर िदया’।16 अमेररका में एक अवधारणा के रूप में हेट सपीच का िवकास वहाँ के संिवधान के पहले संशोधन (अिभवयि्ति की सवतंतता से जुड़ा था) के दायरे और सीमाओं से जुड़े िवमशड के पररणाम के रूप में हुआ था।17 यह िवमशड इस बात पर िटका था िक कया सवतंत भाषण असीिमत हो सकता है? हेट सपीच की अवधारणा ने भाषण के ऐसे पारूपों पर पकाश डाला िजनका लोकतंत पर गंभीर और नकारातमक पभाव पड़ सकता था। इससे सवतंत भाषण एवं अिभवयि्ति की आज़ादी से जुड़े िवमशड में एक िनणाडयक हसतकेप हुआ। अिभवयि्ति और भाषण के नकारातमक पहलुओ ं से जुड़ी िचंताओं के मधय एक अवधारणा के रूप में ‘हेट सपीच’ का िवकास दशडन, क़ानून और मानवािधकार से जुड़े िविवध िवषयों और िवचारों के मधय वैचाररक आदान-पदान के फलसवरूप हुआ। इस पिकया में यह संकलपना ‘नसलीय घृणा’ को पितबंिधत करने के तकड से बहुत आगे िनकल गई, और इसमें भाषण के अनय कई सवरूपों को भी शािमल िकया जाने लगा। ‘हेट सपीच’ के पमुख दृिष्टकोणों और इससे संबंिधत संवैधािनक और क़ानूनी पावधानों के तुलनातमक अधययन के माधयम से इसके िवकास को समझा जा सकता है। 15 सैमएु ल वॉकर (1994) : 8. िमशेल रोसेनफ़े लड : 243. 17 अमेररकी संिवधान का पहला संशोधन यह घोषणा करता है िक अमेररकी कांगेस ‘अिभवयि्ति की सवतंतता को कम करने’ वाला कोई क़ानून नहीं बनाएगी. 16 04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 74 74 | िमान ‘हेट सपीच’ के पश्न से संबंिधत पमुख दृिष्टकोणों को नागररक सवतंतता उपागम, उदारवादी उपागम और नागररक अिधकार उपागम के रूप में वग्गीकृत िकया जा सकता है।18 यहाँ यह उललेख करना महतवपूणड है िक इन सभी दृिष्टकोणों में हेट सपीच के अिभजान अथवा मानयता पर कोई िववाद नहीं था, कयोंिक इन िवचारों में समाज में ‘हेट सपीच’ की उपिसथित और इसके नकारातमक पभाव पर िकसी पकार का कोई संदहे नज़र नहीं आता। इन उपागमों की मुखय िवषयवसतु एवं इनके मधय िववाद और िभननता का आधार यह है िक हेट सपीच से समाज की सबसे पभावी रूप से सुरका कै से की जा सकती है। िाग रक तं ता द कोण नागररक सवतंतता दृिष्टकोण के समथडक वयि्तिगत सवतंतता पर िवशेष रूप से बल देने के आधार पर िकसी भी पकार के हेट सपीच के िनयमन का िवरोध करते हैं। उनका मानना है िक नसलीय या अनय िविशष्ट पकार के उपािध िवषयक और अपमानों का िविनयमन मौिलक मानव सवतंतता का उललंघन है और गंभीर वयवधान अथवा सावडजिनक िवकार के मामलों के अलावा अनय िकसी मामले में हेट सपीच के िनयमन की अपेका नहीं की जाती है। इस दृिष्टकोण के समथडक हेट सपीच के िनयमों के संबंध में मुखय रूप से िनमनिलिखत आपितयों की बात करते हैं : क) सवतंत अिभवयि्ति लोकतंत की जीवनदाियनी है एवं सवतंत और जीवंत लोकतंत की तुलना में ‘हेट सपीच’ से होने वाली कित की क़ीमत बहुत कम है।19 ख) ‘हेट सपीच’ का जवाब सीिमत व कम अिभवयि्ति नहीं बिलक अिध भाषण है।20 इस संबंध में यह तकड िदया जाता है िक बुरे िवचारों पर पितबंध लगा कर नहीं अिपतु इनकी आलोचनातमक जाँच करके एवं बेहतर तक्गों से इनहें परािजत िकया जा सकता है। 21 ग) हेट सपीच को पितबंिधत करने के िलए बनाया गया कोई भी क़ानून दो समसयाओं को जनम देता है। पथम, सता में बैठे लोगों दारा क़ानूनों का दुरुपयोग िकए जाने की संभावना है, और दूसरा, ‘िचकना ढलान’ (िसलपरी सलोप) तकड यह कहता है िक एक बार यिद हेट सपीच के नाम पर िविनयमन का समथडन िकया जाएगा तो हम अिभवयि्ति की सवतंतता से जुड़े अनय सभी पकार के पितबंधों के िलए भी दार खोल देते हैं, 22 और, घ) मनुषय िज़ममेदार और सवायत वयि्ति है, और हेट सपीच के पित सिहषणुता के िलए उस पर भरोसा िकया जा सकता है और भरोसा करना भी चािहए।23 18 19 20 21 22 23 मैं टोनी एम. मासारो (1991) दारा पितपािदत वग्गीकरण का उपयोग कर रहा हू.ंँ रॉनालड ड् वॉिकड न (2009) : ix. सी. एडिवन बेकर (2012) : 139-140. भीखू पारे ख : 48. फे डररक शॉअर (1985) : 361. अधययनों ने िशका के सतर में वृिर और एंटी-बलैक और एंटी-सेमिें टक िवचारों में कमी के बीच संबंध सथािपत करने का भी 04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 75 हेट उदारिादी द ीच, अ ि की तं ता और िारतीय कानूनी व ा | 75 कोण उदारवादी दृिष्टकोण की वकालत ऐसे िवदान करते हैं िजनका मानना है िक अिभवयि्ति एवं भाषण की सवतंतता आवशयक तो है परं तु यह िनरं कुश नहीं हो सकती है। इसमें ओवेन िफ़स24 और कै स सनसटीन25 जैसे िवदान शािमल हैं, जो सामुदाियक काय्गों में नागररकों की समान भागीदारी का समथडन करते हैं और मानते हैं िक राजय दारा हेट सपीच के िनयंतण को हमें सकारातमक भाव से देखना चािहए कयोंिक इससे सवतंत सावडजिनक बहस की संभावनाओं को ज़ोर िमलता है। इसिलए वे मानते हैं िक जब हेट सपीच दारा कु छ लोगों और उनके िवचारों को अपविजडत िकया जाता है तब ऐसे संदभड में राजय सभी दृिष्टकोणों को सथान देने के िलए हेट सपीच का िविनयमन कर सकता है।26 सटीवन जे. हेमनै 27 का मानना है िक अिभवयि्ति की सवतंतता को मानवीय गररमा और सवायतता पर आधाररत अिधकारों के वयापक ढाँचे के भीतर समझा जाना चािहए एवं ऐसे अिधकारों पर पहार करने वाले भाषण को िविनयिमत िकया जा सकता है। इसी तरह, वाल्ॉन28 हेट सपीच से होने वाली कित का आकलन करने में मानवीय गररमा को आधार बनाते हैं। ये सभी िवदान मानते हैं िक आवशयकता पड़ने पर भाषण एवं अिभवयि्ति की सवतंतता को िविनयिमत िकया जा सकता है। हालाँिक, वे इस बात पर भी ज़ोर देते हैं िक ये िविनयमन बहुत अिधक वयापक नहीं होने चािहए और इनका समथडन के वल ऐसे भाषणों को पितबंिधत करने में िकया जाना चािहए जो न के वल अपमानजनक या आकामक हैं बिलक जो आम तौर पर शारीररक िहंसा जैसे गंभीर ख़तरों को जनम देते हैं।29 इस तरह के दृिष्टकोण के साथ समसया यह है िक अकसर पितबंध की शत्गों को इतना ऊँचा रखा जाता है िक संभािवत रूप से ख़तरनाक भाषणों को भी पितबंिधत करना किठन होता है। िाग रक अ िकार द कोण इस उपागम की शुरुआत िकिटकल रे स थयोरी के समथडक मसतूदा, डेलगाडो और लॉरें स से माना जाता है।30 मसतूदा नागररक सवतंतता दृिष्टकोण और उदार दृिष्टकोण के समथडकों को पयास िकया है. इस समझ का आधार यह है िक िशका के सतर में वृिर के कारण लोग िवचारों से आहत नहीं होते हैं बिलक इनहें िकसी अनय राय के रूप में ही देखते हैं. जैसे िक आर. सेलज़र और जी.एम. लोपस (1986) : 91; आर.जे. बायरोम और ए.एल. लेंटन(1991) : 411. 24 ओवेन िफस (1996). 25 कै स सनसटीन (2003). 26 इयान कै म (2006) : 127. 27 हेमन (2009). 28 वाल्ॉन (2012). 29 आर. ए. समोलला (1990) : 198. 30 मारी जे. मसतूदा, चालसड आर. लॉरें स III, ररचडड डेलगाडो, और िकमबल्ले िविलयम कें शॉ (1993). 04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 76 76 | िमान ‘फसटड अमेंडमेंट फं डामेंटिलसट’ और ‘फसटड अमेंडमेंट ररिवजिनसट’ कहते हैं। उनका मानना है िक अमेररका में पथम संशोधन की आड़ में हेट सपीच को बढ़ावा िमल रहा है और इसके भु्तिभोगी वो लोग हैं जो हािशये पर हैं।31 इसी वजह से वह एक आमूल पररवतडनवादी िवचार पसतुत करते हुए कहते हैं िक अधीनसथ समूह के एक सदसय पर लिकत अथवा िनद्लेिशत हेट सपीच दंडनीय होनी चािहए, परं तु समाज के पबल समूह के सदसय के िवरुर लिकत अथवा िनद्लेिशत हेट सपीच दंडनीय नहीं होनी चािहए। लॉरें स नसलीय और धािमडक अनादर/अपमान की पकृ ित और गंभीरता के पित असंवेदनशीलता की मौजदूगी का तकड देते हुए जानमीमांसा से जुड़े गंभीर सवाल उठाते हैं।32 पे्ीिसया िविलयमस ने, नसलीय कारण से पीिड़तों के मानिसक िवनाश के अनुभव को मानयता देते हुए नसलवादी संदश े ों को ‘आतमा की हतया’ कहा है। उनहोंने ऐसे अनय समूहों के पित भी अपनी एकजुटता का िवसतार िकया, िजनहें ‘हेट सपीच’ के कारण दमन का सामना करना पड़ा था। िविलयमस का कहना है िक ‘इन अनय समूहों को शािमल करने का सपष्ट आधार यह है िक िलंग, धमड, यौन वरीयता पर आधाररत बदनामी और उपमाएँ अधीनसथ, अपमानजनक और परोक रूप से शारीररक िहंसा से जुड़ी हैं।’33 यह दृिष्टकोण पोन्नोगाफ़ी िवरोधी आंदोलन34 से जुड़े कु छ नारीवािदयों जैसे की ऐंि्या ड् वॉिकड न और कै थरीन मैिकनॉन और बहु-संसकृ ितवादी िवचारक जैसे तलाल असद35 और सबा महमूद36 के तक्गों में भी देखने को िमलता है। उपरो्ति चचाड से हेट सपीच िवमशड के आधार एवं उदय का पता चलता है। नागररक सवतंततावािदयों के सभी पयासों के बावजूद, अमेररका और युरोपीय देशों की सरकारें ‘हेट सपीच’ को सीिमत करने के िलए क़ानून बनाती रहीं। हालाँिक, अनय पिश्चमी लोकतंतों की तुलना में अमेररका में यह पररदृशय थोड़ी अलग तरह से िवकिसत हुआ है। एक िवचार के रूप में हेट सपीच के िवकास में अमेररकी सुपीम कोटड के सवतंत भाषण िविधशास्त्र का महतवपूणड पभाव रहा था। जैसा िक सैमअ ु ल वॉकर (1994) का मत है, नागररक समाज ने भी इस िवमशड के िवकास में महतवपूणड भूिमका िनभाई थी। वासतव में, वॉकर का तकड यह है िक पारं भ से ही अमेररकी समाज मूलतः भाषण एवं अिभवयि्ति की सवतंतता के िविनयमन के िवरुर था। जैसा िक उनहोंने उललेख िकया है, पमुख अिभनेताओं या नीित बनाने वाले अिभजात वगड िजनमें नयायाधीश, वकील, कायडकताड शािमल थे, ने ‘हेट सपीच’ सिहत सभी पकार के भाषणों के संरकण का समथडन िकया। इसी कारण से िजस तरह से यह िवमशड िवकिसत हुआ, वह भाषण एवं अिभवयि्ति की सवतंतता के पक में था। यिद कोई सव्नोचच नयायालय के िनणडयों 31 32 33 34 35 36 मारी जे. मसतूदा (1993) : 10. चालसड आर. लॉरें स III (1993) : 67. पै्ीिशया िविलयमस (1987) : 2358. एंि्या ड् विकड न और कै थरीन मैिकनन (1988). तलाल असद (2009). सबा महमूद (2009). 04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 77 हेट ीच, अ ि की तं ता और िारतीय कानूनी व ा | 77 के माधयम से इस िवमशड के िवकास को समझने की कोिशश करता है, तो ऐसा सपष्ट है िक इस िवमशड में समयानुसार कई पररवतडन हुए हैं और नयायपािलका के रवैये में यह बदलाव साफ़तौर पर देखा जा सकता है। जहाँ एक ओर, चैपिलंसकी के स (1942)37 और बयूहरनैस के स(1952)38 जैसे मामलों में नयायपािलका ने समूह-मानहािन के िख़लाफ़ क़ानूनों को बरकरार रखा और तकड िदया िक सभी भाषण पहले संशोधन दारा संरिकत नहीं हैं। वहीं दूसरी ओर सुिलवन के स(1969)39, मोसले के स(1972)40, सकोकी के स(1977)41 और आर.ए.वी बनाम िसटी ऑफ़ सेंट पॉल के स(1992)42 जैसे मामलों में पमुखता से यह माना गया िक पथम संशोधन पिवत और अनुलंघनीय है। 1980 के दशक के बाद की अविध में, ‘कैं पस हेट सपीच’ की चुनौती महतवपूणड रूप से पमुख हो गई िजस कारण यह बहस एक नया मोड़ लेती पतीत होती है। इस चरण में नारीवादी िसरांत, िकिटकल रे स थयोरी और अनय वैकिलपक िवमश्गों का तेज़ी से िवसतार हुआ, िजनहोंने हेट सपीच से उपजे ख़तरों पर बात करते हुए इसके िविनयमन की वकालत की।43 हालाँिक अमेररकी सुपीम कोटड के फ़ै सलों के िवशे षण से यह पता चलता है िक अदालत ने वाक् सवतंतता के िलए बहुत उचच मानक सथािपत िकए थे और यह तय िकया था िक इसका िनयमन, ‘हेट सपीच’ से संबंिधत मामलों में भी, के वल असाधारण पररिसथितयों में ही संभव है। 37 38 39 40 41 42 43 चैपिलंसकी बनाम नयू हैमपशायर, 315 यू. एस. 568 (1942). बयूहरनैस बनाम इिलनोइस, 343 यू. एस. 250 (1952). नयू यॉकड टाइमस कं पनी बनाम सुिलवन, 376 यू. एस. 254 (1964). पुिलस िवभाग िशकागो बनाम मोसले, 408 यू. एस. 92 96 (1972). नैशनल सोशिलसट पाट्गी ऑफ़़ अमेररका बनाम िवलेज ऑफ़ सकोकी, 432 यू. एस. 43 (1977). आर.ए.वी. v. सेंट पॉल शहर, 505 यू. एस. 377 (1992). िमचेल रोसेनफ़े लड : 225. 04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 78 78 | िमान युरोप और अनय पिश्चमी लोकतंतों के अनुभव कु छ और बयाँ करते हैं। युरोप में, ‘हेट सपीच’ की अवधारणा ने िदतीय िवशयुर के बाद के काल में, जोिक होलोकॉसट अनुभव और फासीवादी शि्तियों के घृणा पचार की एक िवशेष ऐितहािसक पृषभूिम थी, पवेश िकया। अंतराडष्ीय अनुबंधों और संवैधािनक िविधशास्त्र, अिभवयि्ति की सवतंतता की अवधारणा के संबंध में सममान और गररमा जैसे मूलयों के बारे में सामूिहक िचंता पदिशडत करते हैं। हालाँिक, इन क़ानूनों पर यिद हम एक सरसरी नज़र डालें तो यह सपष्ट होता है िक इन देशों में भी, भले ही यहाँ हेट सपीच के िख़लाफ़ काफ़ी संवेदनशीलता है, इन क़ानूनों के तहत मुक़दमा चलाना बेहद किठन है कयोंिक ये क़ानून ‘हेट सपीच’ को बहुत जिटल रूप में पररभािषत करते हैं। युरोप की मंितपररषदीय सिमित की िसफाररश (97) 20 में ‘हेट सपीच’ शबद का वणडन करते हुए कहा है िक यह शबद ‘अिभवयि्ति के सभी रूपों को शािमल करता है जो नसलीय घृणा, ज़ेनोफ़ोिबया, एंटीसेमिे टजम या असिहषणुता के आधार पर घृणा के अनय रूपों को फै लाने, उकसाने, बढ़ावा देने को उिचत ठहराते हैं, िजसमें आकामक राष्वाद और जातीयतावाद दारा वय्ति असिहषणुता, अलपसंखयकों, पवािसयों और अपवासी मूल के लोगों के िख़लाफ़ भेदभाव और शतुता शािमल है।‘44 इस पररभाषा का उपयोग ई.सी.एच.आर (युरोपीय मानवािधकार आयोग) सिहत िविभनन युरोपीय िनकायों दारा िकया जाता है। 1999 तक ईसीएचआर में कभी भी वासतिवक शबद ‘हेट सपीच’ का उपयोग नहीं हुआ था। तब से, यह शबद अदालत के पासंिगक मामलों और युरोप की पररषद में िविवध गितिविधयों में शािमल होने लगा। अदालत ने अभी तक हेट सपीच शबद की अवधारणा को सपष्टतः पररभािषत नहीं िकया है। अदालतों के इस रवैये के कारण कु छ िटपपणीकारों का मानना है िक या तो अदालत हेट सपीच की अवधारणा के उपयोग से असहज महसूस करती है या शायद इस शबद को सटीक रूप से पररभािषत िकए िबना मुक़दमों में इसके पयोग को अनैितक मानती है।45 यूके में, रे स ररलेशसं एकट 1965 की धारा 6 ने ‘नसलीय घृणा को उकसाने’ को दंडनीय घोिषत िकया है, यिद अिभयु्ति का इरादा नसलीय घृणा को भड़काने का हो, यिद भाषा धमकी देने वाली या अपमानजनक हो और यिद भाषा वासतव में नसलीय घृणा को भड़काने की संभावना रखती हो।46 यहाँ भी, अिभयोजन के वल अटॉन्गी-जनरल की सहमित से ही संभव था। 1986 में लोक वयवसथा अिधिनयम में सुधार िकया गया। तब ‘नसलीय घृणा को भड़काने की संभावना’ की शबदावली को ‘नसलीय घृणा को भड़काने के इरादे’ के एक वैकिलपक परीकण दारा पितसथािपत िकया गया था जो आसनन ख़तरे को इंिगत करता है और इसिलए अकसर मुक़दमा चलाना मुिशकल होता है। नसलीय और धािमडक घृणा अिधिनयम 2006 ने लोक वयवसथा अिधिनयम 1986 में भाग 3ए जोड़कर उसे संशोिधत िकया। यह भाग कहता 44 45 46 जैसा िक टारलक मैकगोनागल (2012) : 266, में बताया गया है. वही. जोआना ओयेिदरन (1992) : 33-35. 04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 79 हेट ीच, अ ि की तं ता और िारतीय कानूनी व ा | 79 है िक, ‘एक वयि्ति जो धमकी भरे शबदों या वयवहार का उपयोग करता है, या िकसी भी िलिखत सामगी को पदिशडत करता है जो धमकी भरा हो, यिद वह धािमडक घृणा को भड़काने का इरादा रखता है तो वह अपराध का दोषी है।’ हालाँिक, यह पररवतडन मुक़दमा चलाने की पिकया को और अिधक जिटल बना देता है कयोंिक यह कहता है िक ‘इस भाग में कु छ भी इस तरह से पढ़ा या लागू नहीं िकया जा सकता जो चचाड, आलोचना या िवरोध, नापसंद, उपहास, अपमान या िवशेष धम्गों के दुरुपयोग को पितबंिधत करता है या एक अलग धमड या िवशास पणाली या पथाओं के अनुयािययों को अपने धमड या िवशास पणाली का पालन बंद करने के िलए कहता है।’ इसी तरह, 1960 में अपनाए गए स्ाफ़ गेसेट्ज़बच (जमडन आपरािधक संिहता) का अनुचछे द 130 मानव गररमा पर हमले को पितबंिधत करता है47: 1) आबादी के एक िनिश्चत िहससे के िख़लाफ़ घृणा को उकसाना, 2) आबादी के ऐसे िहससे के िख़लाफ़ िहंसक या मनमाना कृ तयों को उकसाना, या 3) ऐसे िहससे का अपमान करना, दुभाडवना से उपहास करना या बदनाम करना।48 इन सभी क़ानूनी साधनों का सावधानीपूवडक अधययन यह दशाडता है िक अिभवयि्ति की सवतंतता को पितबंिधत करने के िलए घृणा को भड़काना या बढ़ावा देना कें द में रहा है, इसिलए इस िवषय पर मुक़दमा चलाने के िलए यह सािबत करना आवशयक हो जाता है िक हेट सपीच का पयोग करने वाला वयि्ति या तो उन लोगों के िख़लाफ़ नफ़रत को उकसा रहा था या नफ़रत को बढ़ावा दे रहा था िजनके िवरुर ऐसे भाषणों का पयोग िकया जाता है। अनय क़ानूनी पावधानों और संवैधािनक िविधशास्त्र पर आधाररत अधययनों से यह भी पता चला है िक इन क़ानूनों के तहत मुक़दमा चलाना बहुत किठन रहा है और यहाँ तक िक अदालत ने भी ऐसे मामलों में क़ानूनों की भी सटीक वयाखया नहीं की है। जैसा िक हम पहले भी देख चुके हैं, ‘नफ़रत’ शबद को कै से समझा जाए और इस कारण से मु्ति भाषण के पितबंधों की सीमा कहाँ िनधाडररत की जाए, इस बारे में बहस अभी भी उदारवादी िवमशड में तय नहीं हुई है, लेिकन कु छ मुदों पर वयापक समझ बनती िदखाई देती है। पथमतः, भाषण एवं अिभवयि्ति की सवतंतता इस िवमशड का कें द है, और मुखय सवाल के वल इसकी सीमाओं से जुड़ा है। दूसरा, कु छ ऐसे भाषण हैं िजनमें समूहों या वयि्तियों को ितरसकृ त करने की पवृित होती है। क़ानून के माधयम से ऐसे भाषणों को पितबंिधत करना चािहए या नहीं यह एक अलग सवाल है परं तु पमुख रूप से सवीकायड बात यह है िक लोकतंत के िलए ऐसे भाषण सही नहीं हैं। एक अवधारणा के रूप में ‘हेट सपीच’ की वासतिवक उपयोिगता ऐसे ही भाषण-कृ तयों की उपिसथित को उजागर करना है और इनके िविनयमन या पितबंध के िलए दावा करना है। हेट सपीच के अथड और पररभाषा से संबंिधत बहस यह मानती है िक ये पितबंध हर मायने में नयूनतम होने चािहए तािक मु्ति अिभभाषण की कें दीयता को ख़तरा न हो। 47 48 जमडनी में ‘मानवीय गररमा’ संवैधािनक रूप से सुरिकत है. देख,ें आर. हॉफमैन (1992) : 159-170. 04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 80 80 | िमान भारत मे हेट कािूि ीच का िंचालि करिे िाले िैिा िक और िंिैिा िक भारत में अिभवयि्ति की सवतंतता को पितबंिधत करने वाले क़ानूनों ने, युरोप या अमेररका की तुलना में, पूरी तरह से अलग पकेप-पथ और तकड का पालन िकया। पारे ख ने ‘हेट सपीच’ की अपनी चचाड में इस िवरोधाभास को बहुत अचछी तरह से देखा है और पररलिकत िकया है। उनका तकड है िक पिश्चमी समाजों में हेट सपीच और उसके पररणामों से िनपटने के िलए कई तंत होते हैं, जैसे एक खुली और पितसपध्गी अथडवयवसथा, एक जीवंत नागररक समाज, एक उिचत रूप से एकजुट और एकीकृ त समाज, एक िविवध मीिडया जो िवचारों के वयापक सपेक्म का पितिनिधतव करती है, और आतम-सीिमत सावडजिनक संसकृ ित। इसिलए, ये देश क़ानून को अपेकाकृ त सीिमत भूिमका सौंपने का जोिखम उठा सकते हैं। जहाँ तक भारत जैसे िवकासशील देशों की बात है, उनमें िसथित अलग है। ‘उनमें से अिधकांश (देश) जातीय, धािमडक और नसलीय समूहों से बने हैं िजनहें एक साथ काम करने का बहुत कम अनुभव है और अिवशास, अजानता, ग़लतफ़हमी और शतुता की लंबी िवरासत है। अफ़वाहें, चुटकु ले, अलपकािलक लाभ चाहने वाले राजनेताओं दारा भड़काऊ या ग़लतभाव से की गई िटपपणी, और यहाँ तक िक मु्ति भाषण के पयोग के दौरान की गई तकड पूणड आलोचना भी गहरे बैठे भय को जनम दे सकती है, अशांित को ि्गर कर सकती हैं, और राष् िनमाडण में वष्गों के अचछे काय्गों को नष्ट कर सकती है।’49 इस तरह के दावे यह िवचार पसतुत करते हैं िक अिभवयि्ति की सवतंतता सावडभौिमक या पूणड नहीं है और भारतीय समाज की जिटल पकृ ित के आधार पर, भारतीय संदभड में अिभवयि्ति की सवतंतता का पितबंध उिचत था, भले ही यहाँ क़ानूनों का दायरा युरोप या अमेररका की तुलना में वयापक हो। भारत में, भाषण एवं अिभवयि्ति की सवतंतता के िनयमन से संबंिधत क़ानूनी पावधानों का इितहास ‘हेट सपीच’ के िवमशड से भी बहुत पुराना है। इन पावधानों की शुरुआत को हम लॉडड मैकॉले दारा िनिमडत और 1860 में लागू हुए भारतीय दंड संिहता में देख सकते हैं। भारत के अनूठे संदभड के आधार पर उनहोंने न के वल भाषण के पदशडनातमक आयाम के रोकथाम के िलए िविशष्ट क़ानूनों का पसताव िदया था, बिलक उनका ऐसा भी मानना था िक ऐसे अपशबद और आपितजनक इशारे िजनमें मानिसक उतेजना और भावनाओं को आहत करने की पवृित होती है, उनसे रका करना भी क़ानून की िज़ममेदारी है। दंड संिहता का बाईसवाँ अधयाय, िजसका शीषडक ‘ऑफ़ िकिमनल इंिटमीडेशन, इंसलट ऐंड एनॉएंस’ है, आपितजनक भाषा के रूपों से संबंिधत है, िजनहें पहले कभी आपरािधक घोिषत नहीं िकया गया था। उनहोंने भारतीय संदभड की आवशयकता के अनुरूप इस खंड में िविभनन सैरांितक नवाचारों की शुरुआत की। उदाहरण के िलए, उनहोंने अपमान और बदनामी जैसे कृ तयों को शािमल करने के िलए ‘मानहािन’ शबद के अथड का 49 भीखू पारे ख : 55. 04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 81 हेट ीच, अ ि की तं ता और िारतीय कानूनी व ा | 81 िवसतार िकया।50 इसके साथ ही उनहोंने इस धारणा को भी ख़ाररज कर िदया िक भाषण और कृ तयों के बीच कोई सखत िवभाजन िकया जा सकता है। उनहोंने तकड िदया िक आपितजनक और अपमानजनक भाषा को भाषण-कृ तयों के रूप में माना जाना चािहए और इसे आपरािधक िविधशास्त्र के अधीन होना चािहए।51 उनहोंने पसतािवत िकया िक अपमानजनक शबदों को उनके कारण होने वाली मानिसक पीड़ा के आधार पर अपराध माना जाना चािहए (भले ही उनसे वासतव में शांित भंग हुई हो या नहीं) और यह कारड वाई करने के िलए पयाडप्त आधार है। उनका यह पसताव भारतीय समाज के उनके अधययन पर आधाररत था। उनहोंने कहा िक, ‘शायद ऐसा कोई और देश नहीं है िजसमें के वल मानिसक भावनाओं को पभािवत करने वाले आघातों दारा अिधक कू र पीड़ा दी जाती है और अिधक घातक आकोश होता है।’52 भारतीय संदभड में, अिभवयि्ति की सवतंतता के दायरे को सीिमत करने के िलए मैकॉले ने िजस तकड की वकालत की थी, वह मुखय रूप से अिसथर सांपदाियक संबधं ों से संबिं धत थे, िजसकी तुलना जेमस िफ़ट् जजेमस सटीफ़न ने ‘जवालामुखी पर बैठने’ से करते हैं, और इसी आधार पर भाषण एवं अिभवयि्ति के िविनयमन का समथडन करते हैं।53 आम तौर पर ऐसे तक्गों 50 उनका पावधान यह कहता है िक: ‘जो भी वयि्ति, बोले गए या पढ़ने के इरादे से िलखे गए शबदों, या संकेतों दारा, या दृशयातमक पतीकों दारा, िकसी भी वयि्ति पर िकसी भी हलके में िवशास करने के िलए िकसी भी तरह का आरोप लगाने का पयास करता है, यह जानते हुए िक उसका िवशास और पितषा को आघात पहुचँ गे ा तो उस हलके में उस वयि्ति को बदनाम करने वाला कहा जाता है (इसके बाद उिललिखत मामलों को छोड़कर). ‘देख,ें ‘ऑफ़ डेफ़ेमेशन’, ए पीनल कोड िपपेयडड बाय िद इंिडयन लॉ किमश्नसड (कलकता : बंगाल िमिल्ी ऑफ़ड न पेस, 1837 : 124). 51 टी. बी. मैकॉले (1898) : 121-123. 52 असद अली अहमद (2009 : 130) में उरृत. 53 टी. जॉन ओ’डॉड (2013 : 271) में उरृत. 04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 82 82 | िमान को औपिनवेिशक तकड कह कर ख़ाररज िकया जा सकता है, लेिकन सचचाई यह है िक अिभवयि्ति की सवतंतता के दायरे का िनधाडरण करने वाले दो सबसे महतवपूणड क़ानूनों (जो समकालीन भारत में भी पभावी हैं) यािन आईपीसी की धारा 153(A) और धारा 295(A) कमशः 1890 और 1920 के दशक में िनिमडत की गई थीं। इितहासकारों दारा इन दोनों दशकों की अविध को ‘पितसपध्गी सांपदाियकता’ के चरणों के रूप में बताया है। ग़ौरतलब बात यह है िक पतयेक मामले में न के वल मूल भारतीयों ने ऐसे क़ानूनों की माँग की थी, बिलक उनहोंने इन क़ानूनों के िनमाडण में भी सिकय रूप से भाग िलया था, जैसा िक उस समय की कें दीय िवधान सभा की बहसों के अधययन से भी पररलिकत होता है। इससे यह सपष्ट है िक जब तक पिश्चमी लोकतंतों में हेट सपीच के िवमशड ने आकार लेना शुरू िकया, उससे पहले से ही भारत ऐसे भाषण-कृ तयों को पितबंिधत कर रहा था जो हेट सपीच की पररभाषा से बहुत परे थे। वतडमान में भारत में ऐसे कई वैधािनक क़ानून हैं जो अिभवयि्ति की सवतंतता का िविनयमन करते हैं। इनमें से अिधकांश औपिनवेिशक काल से जारी हैं, इनमें से कु छ आवशयकता अनुरूप समय-समय पर संशोिधत िकए गए हैं। ये वैधािनक क़ानून अिभवयि्ति के िविभनन रूपों को िनयंितत करने के िलए राजय को वयापक रूप से दंडातमक और िनवारक शि्तियाँ पदान करते हैं। भारतीय दंड संिहता की धारा 153(A) ‘धमड, जाित, जनम सथान, िनवास, भाषा आिद के आधार पर िविभनन समूहों के बीच शतुता को बढ़ावा देने’ या ‘सदाव बनाए रखने के पितकू ल कायड करने’ को अपराध घोिषत करती है। धारा 153(A) के वयापक दायरे को धारा 153B दारा और मज़बूत िकया गया है, जो ‘राष्ीय-एकीकरण के िलए हािनकारक आरोप और अिभकथन’ को पितबंिधत करता है। यह खंड ‘बोले गए अथवा िलिखत शबदों’, संकेतों, ‘या दृशय पितिनिधतव (िचतण) या अनयथा’ के उपयोग को अपराधी घोिषत करता है। इसी तरह और भी कई पावधान हैं जो अिभवयि्ति एवं भाषण की सवतंतता को िविनयिमत करते हैं, जैसे : – धारा 295, जो ‘िकसी भी वगड के धमड का अपमान करने के इरादे से [िकसी भी] पूजा सथल को कित पहुचँ ाने या अपिवत करने’ को पितबंिधत करती है;  धारा 295(A), जो ‘जानबूझकर िकए गए और दुभाडवनापूणड कृ तयों को पितबंिधत करती है, िजनका उदेशय िकसी भी वगड की धािमडक भावनाओं को, उसके धमड या धािमडक िवशासों का अपमान करना है’;  धारा 298, जो ‘धािमडक भावनाओं को ठे स पहुच ँ ाने के इरादे से कहे गए शबद आिद कहने’ पर रोक लगाती है;  धारा 505(1), जो ‘सावडजिनक संकट/हािन के िलए अनुकूल बयान’ को पितबंिधत करती है; तथा,  धारा 505(2), जो ‘वग्गों के बीच शतुता, घृणा या दुभाडवना पैदा करने या बढ़ावा देने वाले बयानों’ को पितबंिधत करती है।  04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 83 हेट ीच, अ ि की तं ता और िारतीय कानूनी व ा | 83 ये क़ानूनी पावधान, अिधकांश युरोपीय पावधानों से अलग, ‘चोट’, ‘अपमान’, ‘दुभाडवनापूणड कायड’, ‘आकोश भावनाओं’, ‘घाव’, ‘शतुता को बढ़ावा देने’ और ‘दुभाडवना’ जैसे शबदों का उपयोग करते हैं, िजनका ‘हेट’ की तुलना में बहुत वयापक पामािणक और वयावहाररक अथड है। ये क़ानूनी पावधान और ऐितहािसक पृषभूिम यह दशाडते हैं िक भारत में भाषण और अिभवयि्ति की सवतंतता के अिधकार को अलग तरह से देखा जाता है। चालसड टेलर ऐसे लोगों की आलोचना करते हैं जो ऐसा सोचते हैं िक मु्ति भाषण को अमूतड िसरांतों के रूप में सथािपत करने का कोई सही तरीक़ा हो सकता है, िजसे सथानीय पररिसथितयों पर धयान िदए िबना कहीं भी लागू िकया जा सकता है। वह इसके दो कारण बताते हैं − क) अिभवयि्ति की सवतंतता के दायरे को तय करने के िलए कु छ वयापक सहमित की आवशयकता होती है। इसे के वल क़ानून दारा थोपा नहीं जा सकता है कयोंिक यिद इसके िसरांत जन संवेदनाओं से बहुत िभनन अथवा दूर होंगे, तो इसे सभी पकार के अितरर्ति क़ानूनी दबावों दारा िनरथडक बना िदया जाएगा, और; ख) हर राष् में सवतंत अिभवयि्ति के िकसी भी रूप की सीमाएँ होती हैं िजनहें इस आधार पर उिचत ठहराया जाता है िक वे लोगों की ऐसी अिभवयि्ति से उतपन होने वाले नुक़सान से रका करते हैं। सवतंत अिभवयि्ति के िविनयमन का मुदा एक ऐसा मुदा है जो सांसकृ ितक िविभननता पर िनभडर करता है।54 पारे ख की तरह, टेलर भी संदभड के पित संवेदनशीलता पर ज़ोर देते हैं और मानते हैं िक सवतंत अिभवयि्ति के िविनयमन के िलए कोई एक िनयम सभी देशों और समाजों के िलए समानुिचत नहीं है। इसी तकड का उपयोग भाषण एवं अिभवयि्ति की सवतंतता को िविनयिमत करने के िलए अकसर भारतीय सांसदों दारा भी िकया जाता रहा है। भारत में, हालाँिक भाषण और अिभवयि्ति की सवतंतता एक पतयाभूत संवैधािनक अिधकार55 है, लेिकन िकसी भी तरह से अनय अिधकारों पर इसकी कोई पाथिमकता या वरीयता कभी नहीं रही है। संिवधान सभा की बहसों में वयि्तिगत और सामूिहक अिधकारों के बीच तनाव को और िजस तरह से संिवधान िनमाडताओं ने कु छ ‘उिचत’ पितबंध पदान करके उनहें संतिु लत करने का पयास िकया था, इसको सपष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस िवषय पर वाद-िववाद, िवशेष रूप से, भाषण और अिभवयि्ति की सवतंतता से संबंिधत तीन वयापक िचंताओं को दशाडता है: क) िबिटश शासन के िकसी भी क़ानून की िनरं तरता के बारे में िचंता थी और, कम से कम पतीकातमक रूप से ही सही इसका सवडसममित से िनषेध िकया गया था। िजस तरह से उस समय की सरकार की आलोचना या उसकी मंशा पर सवाल उठाने हेतु िबिटश सरकार का उदाहरण िदया जा रहा था, इससे यह तो सपष्टतः पररलिकत होता है िक िबिटश काल के क़ानूनों की िनरं तरता को लेकर एक खीझ थी।56; ख) िवभाजन की 54 चालसड टेलर (1989) : 118-121. अनुचछे द 19 (1) (ए) के तहत 56 उदाहरण के िलए, शी मोहममद इसमाइल सािहब ने पावधानों के दायरे के बारे में अपनी िचंता वय्ति की और कहा, ‘सर, एक और िववाद है, और वह यह है िक जब िबिटश, यािन िवदेशी देश में थे तब यह बात अलग थी परं तु अब यह हमारा अपना 55 04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 84 84 | िमान पृषभूिम में और सांपदाियक िहंसा को भड़काने में कु छ सथानीय पेसों दारा िनभाई गई नकारातमक भूिमका को भी संिवधान िनमाडता धयान में रख रहे थे और नई चुनौितयों पर पितिकया दे रहे थे57; और ग) संिवधान िनमाडताओं को इस बात की भी िचंता थी िक कया सरकार पर भाषण और अिभवयि्ति की सवतंतता की रका के िलए हमेशा भरोसा िकया जा सकता है और इसीिलए ‘दो-सतरीय’ पितिकया पणाली का िनमाडण करते हुए नयायपािलका को मौिलक अिधकारों के रकक के रूप में एक महतवपूणड भूिमका दी गई। इन आशंकाओं और िचंताओं के आधार पर अनुचछे द 19 (1) (ए) को अपनाया गया, िजसने भाषण और अिभवयि्ति की सवतंतता को मौिलक अिधकार का दजाड िदया। हालाँिक, इसे अनुचछे द 19(2) के तहत पररभािषत पावधानों दारा सीिमत िकया गया है। यह अनुचछे द भारत की संपभुता और अखंडता, राजय की सुरका, िवदेशी राजयों के साथ मैतीपूणड संबंधों के िहतों में, सावडजिनक वयवसथा, शालीनता या नैितकता या अदालत की अवमानना, मानहािन या अपराध के िलए उकसाने के संबंध में उिचत पितबंध लगाता है। इन पितबंधों का दायरा ‘हेट सपीच’ की समझ से कहीं अिधक है। भले ही हम यह तकड दें िक ‘अपराध के िलए उकसावा’ और ‘सावडजिनक वयवसथा के िलए िचंता’ पिश्चम की बहस को पितिबंिबत करते हैं, पर ‘सभयता’, ‘नैितकता’ या ‘मानहािन’ के आधार पर लगाए गए पितबंधों का कया औिचतय है ? कया इनहें हेट सपीच के दायरे में समझा जा सकता है? इसके अलावा, अमेररका, िबटेन और अनय पिश्चमी लोकतंतों के िवपरीत, भारत में अिभवयि्ति की सवतंतता से संबंिधत बहस कभी भी ‘हेट सपीच’ को िविनयिमत करने के िलए क़ानूनों की आवशयकता के बारे में नहीं रही है, कयोंिक यह पावधान हमेशा से संिवधान में मौजूद थे। भारत के संदभड में यह बहस मुखयतः ऐसे क़ानूनों के अथड और संिवधान में इनके पावधानों से जुड़ी वयाखया पर कें िदत रही है। यह भी सपष्ट है िक हमारे क़ानून िनमाडताओं का यह मानना था िक यद्यिप भाषण एवं अिभवयि्ति की सवतंतता आवशयक है मगर सांपदाियक धुवीकरण और िहंसा में इसके दुरुपयोग से सामािजक सदाव को ख़तरा होने के कारण इसे िविनयिमत िकए जाने की शासन है. सच है, लेिकन इसका मतलब यह नहीं है िक हम नागररकों की सवतंतता के साथ जैसा चाहें वैसा वयवहार कर सकते हैं. नौकरशाही, नौकरशाही है, चाहे वह िवदेशी शासन के अधीन हो या सव-शासन के अधीन हो. सता न के वल िवदेशी शासन के तहत, बिलक सवशासन के तहत भी लोगों को भ्रष्ट करती है. इसिलए, शीमान, नागररक की कायडपािलका की अिनयिमतताओं से बहुत सावधानीपूवडक रका की जानी चािहए, जैसे अनय सवशासी देशों ने की है’. सी.ए.डी. VII : 725. 57 जैसे, टी. टी. कृ षणमाचारी ने राजय को वयापक शि्तियों के समथडन में तकड िदया. ‘यह राजय िजसे अब अिसततव में लाया गया है, अपने अिसततव के पहले अटारह महीनों में बहुत सी समसयाओं को देख चुका है और इस सदन का पतयेक सदसय इसे जानता है. वतडमान पररिसथित के आलोक में, जो आज हमारे समक खड़ी है, ये पितबंध आज आवशयक हैं, या हम ऐसे समय की कलपना कर रहे हैं जब चीज़ें सामानय होंगी. और सरकार को न के वल शरणाथ्गी समसया से िनपटने के िलए बिलक इस तथय से िक इस देश में िविभनन ताक़तें हैं जो इस राजय को वतडमान सवरूप में िवकिसत करना पसंद नहीं करती हैं, और देश के समक उपिसथत आिथडक परे शािनयों से िनपटने के िलए िवशेष शि्तियों की आवशयकता होती है. यिद हम अपने संिवधान का िनमाडण यह मानकर करें गे िक राजय को इन शि्तियों का उपयोग करना आवशयक नहीं होगा, तो यह समसया है’. सी.ए.डी. VII : 770-3. 04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 85 हेट ीच, अ ि की तं ता और िारतीय कानूनी व ा | 85 आवशयकता थी। इसिलए ऐसा पतीत होता है िक उनके बीच में एक आम सहमित बनी राष्ीय एकता के िहत में, िक भाषण एवं अिभवयि्ति की सवतंतता के िविनयमन के िलए पावधान होने चािहए, मगर वासतिवकता में इन पावधानों ने इस महतवपूणड सवतंतता के दायरे को काफ़ी सीिमत कर िदया है। क़ानूनी िवदान लॉरें स िलयांग का ऐसा मानना है िक भारतीय संिवधान में भाषण एवं अिभवयि्ति की सवतंतता को लेकर एक िदभाजन नज़र आता है। एक तरफ़ जहाँ अनुचछे द 19(1)(ए) में नागररक को एक तकड संगत पाणी माना गया है जो भाषण-कृ तयों में अपनी पूणड सवायतता का पयोग करने में सकम है, वहीं दूसरी ओर अनुचछे द 19(2) एक पभावी सावडजिनक केत की चुनौितयों को दशाडता है, जहाँ वयि्ति को भ्रष्ट एवं आकोश और उतेजना के समक अितसंवदे नशील माना गया है।58 ऐसी ही कलपना अिधकांश भारतीय नागररकों के भावनातमक पाणी होने के बारे में की गई थी और यह माना गया िक उनमें तािकड क ‘पररपकवता’ की कमी थी, िवशेषकर धमड से जुड़े मामलों में। इसी तरह की कलपना संिवधान और अनय वैधािनक क़ानूनों में महतवपूणड संशोधनों की शुरुआत के िलए आधार िबंदु बनी। आम लोगों को भाषण और अिभवयि्ति की सवतंतता के दुरुपयोग से बचाने के िलए क़ानून-िनमाडताओं ने सुरका कवच पदान करना अपना कतडवय माना और इस संदभड में, क़ानून को सिहषणुता के मूलयों और नागररकों को अनुशािसत करने के िलए एक माधयम के रूप में देखा गया। सावडजिनक शांित और वयवसथा पर अतयिधक ज़ोर देते हुए सरकारी संसथाओं ने ऐसे भाषण और अिभवयि्ति को सेंसर करने में सिकय भूिमका िदखाई िजनहें धािमडक भावनाओं को आहत करने या समुदायों के बीच धािमडक घृणा को भड़काने में सकम माना गया। पताप भानु मेहता जैसे िवदान मानते हैं िक यह अंतिनडिहत धारणा िक भारतीय नागररकों में हेट सपीच को सहने की कमता की कमी होती है, राजय को पैतक ृ भूिमका िनभाने की अनुमित देती है जहाँ राजय के वल सावडजिनक वयवसथा के रकक के रूप में भाग लेता है, न िक सवतंत भाषण के रकक के रूप में।59 जब भी अिधकाररयों को तिनक से िववाद के कारण धािमडक अपराध के होने या क़ानून और वयवसथा के भंग होने का ख़तरा महसूस होता है, तो वे ऐसी पररिसथितयों को अिधक सुरिकत तरीक़े से सँभालना समझदारी समझते हैं। ऐसी पररिसथित में सामानयतः िकसी पुसतक पर पितबंध लगाया जाता है, या उस पर मुक़दमा चलाया जाता है, या लेखक/पकाशक को िगरफतार कर िलया जाता है। अिधकाररयों का दावा है िक ऐसे मामलों में पीिड़त वयि्ति को संबंिधत अदालत का दरवाज़ा खटखटाने और अपने पक में नयाियक फ़ै सला लेने का पूणड अिधकार है। एक ओर यह पावधान, अिधकाररयों को ततकालीन क़ानून और वयवसथा की िसथित को असथायी रूप से शांत करने में मदद करता है, तो वहीं दूसरी ओर, यिद अदालत के फ़ै सले के बाद शांित भंग होती भी है, तो कायडपािलका 58 59 लॉरें स िलआंग (2016) : 818. पताप भानु मेहता (2008) : 330-332. 04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 86 86 | िमान गेंद को नयायपािलका के पाले में रख, पूवडतः ही इसकी सतकड ता का हवाला देते हुए ऐसी पररिसथित से अपना पलला झाड़ सकती है।60 भारत मे अ भ की तं ता की िीमाओ ं को प रभा षत करिे मे ायपा लका की भू मका अमेररकी और युरोपीय पणािलयों की भाँित, भारत में भी नयायपािलका भाषण एवं अिभवयि्ति की सवतंतता की सीमाओं को पररभािषत करने में एक पमुख भूिमका िनभाती है। हालाँिक, अमेररकी नयायपािलका (िजसने हेट सपीच के सवालों का िनपटारा ‘फ़ाइिटंग वड् डस’ और ‘सपष्ट और मौजूदा ख़तरे ’ के िसरांतों के आधार पर िकया है) के िवपरीत भारतीय सव्नोचच नयायालय पतयेक मामले को मौिलक और पिकयातमक दृिष्टकोण से अलग मानते हुए पितबंधों की ‘तकड संगित’ का परीकण करते हुए वयापक संजान लेता है।61 आम तौर पर नयायपािलका ने ‘तकड संगित’ की वयाखया वयापक अथ्गों में की है। इसके िलए अलग-अलग मुक़दमों में नयायपािलका ने कभी भाषण देने वाले की नीयत62, तो कभी भाषण की ‘िवषयवसतु’63 एवं कभी-कभी भाषण के ‘संदभड’64 को महता देती है। इसी आधार पर अदालतों ने िविभनन मामलों में अिभवयि्ति की सवतंतता में कटौती को उिचत ठहराया है। यह इंिगत िकया जाना चािहए िक िविभनन मामलों में अदालतों और िवशेष रूप से सव्नोचच नयायालय ने उन वैधािनक क़ानूनों को संवैधािनक माना है, िजनका उपयोग अिधकाररयों दारा भाषण और अिभवयि्ति की सवतंतता को पितबंिधत करने के िलए िकया जाता है।65 अब तक, अदालतों ने माना है िक ये क़ानून अनुचछे द 19 (2) के तहत पदान की गई ‘युि्तियु्ति पितबंधों’ की पररभाषा के अंतगडत ही आते हैं। भाषण और अिभवयि्ति की सवतंतता पर पितबंधों को बरक़रार रखने के िलए अदालतों दारा िजन तक्गों का उपयोग िकया जाता है वे िनमनिलिखत हैं : क) िववादासपद भाषण-कृ तयों या पकाशन दारा उतपनन सावडजिनक वयवसथा के िलए ख़तरा; और ख) धमडिनरपेकता और धािमडक बहुलवाद के मूलयों की रका करना। 60 राजीव धवन (2008) : 145. धवन इसे ‘समसया समाधान’ की राजनीित कहते हैं िजसका इसतेमाल सरकारी अिधकाररयों दारा ऐसे मामलों में सावडजिनक वयवसथा से संबंिधत ख़तरों का मुक़ाबला करने के िलए िकया जाता है. 61 मदास राजय बनाम वी.जी. रो (1952) ए.आई.आर 196, एस.सी.आर 597. 62 रामजीलाल मोदी बनाम उतर पदेश राजय, ए.आई. आर 1957 एस.सी 622; 1957 एस.सी.आर 860, लोक अिभयोजक बनाम पी रामासवामी नादर, के स नंबर – सीआरएल अनुपयोग की संखया 125 ऑफ़ 1962. 63 एन. वीरबह्मम बनाम आंध पदेश राजय, ए.आई.आर 1959 AP 572; नंद िकशोर िसंह बनाम िबहार राजय, ए.आई.आर 1986 पैट 98. 64 वीरें द बनाम पंजाब राजय (1957), ए.आई.आर 896 एस.सी.आर 308; गोपाल िवनायक गोडसे बनाम भारत संघ और अनय (1971) ए.आई.आर बीओम 56. 65 आईपीसी की धारा 295(ए), 153 (ए) और सीआरपीसी की धारा 95 की संवैधािनकता कमशः रामजी लाल मोदी, 1957 ए.आई.आर. 620; बाबू राव पटेल, 1980 ए.आई.आर. 763; एन. वीरबह्मम, ए.आई.आर.1959 ए.पी. 572. में सवीकार की गई है. 04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 87 हेट ीच, अ ि की तं ता और िारतीय कानूनी व ा | 87 इनमे से पथम तकड मुखय रूप से इस धारणा पर आधाररत है िक िकसी भी समुदाय के िख़लाफ़ लिकत अपमान का उग रूप, या घृणा को उकसाने से सावडजिनक वयवसथा बनाए रखने की समसया पैदा होगी, और अिधकाररयों को ऐसी िसथित में तुरंत कारड वाई करनी चािहए। हालाँिक अदालतों ने आिधकाररक कायडवाही के संबधं में कु छ संतल ु न और सुरकातमक तंत भी िवकिसत िकए हैं। उदाहरण के िलए, नयायालय दारा यह अिनवायड िकया गया है िक िकसी पकाशन को पितबंिधत या ज़बत करने से पहले संबिं धत अिधकारी दारा कायडवाही के कारणों का उललेख करते हुए एक अिधसूचना जारी की जानी चािहए। इसी तरह, लेखक/पकाशक की िगरफतारी के मामले में अिधकारी को अदालत में सािबत करना होता है िक यह कृ तय जानबूझकर और दुभाडवनापूणड नीयत से िकया गया था। हालाँिक, इन संतल ु न तंतों के साथ समसया यह है िक इनमें से िकसी का भी परीकण के वल अदालतों में ही िकया जा सकता है; कायडवाही/िगरफतारी से बाद सरकारी अिधकारी इन मामलों में अपने िववेक के आधार पर कायडवाही कर सकते हैं। अकसर उनका िनणडय सावडजिनक शांित बनाए रखने के िलए िकसी भी पकाशन और उसके लेखक/पकाशक के िवरुर कायडवाही करने के तकड दारा िनद्लेिशत होता है। नयायपािलका के दारा अिभवयि्ति की सवतंतता को सीिमत करने के िलए जो दूसरा तकड िदया जाता है उसे भारतीय संदभड में कोई िवशेष दजाड पाप्त नहीं है,66 और िकसी अनय मौिलक अिधकारों से यिद इसका टकराव होता है तो एक संतुलन बनाने की कोिशश की जानी चािहए। उदाहरण के िलए, अदालतों ने यह सुिनिश्चत िकया है िक अनुचछे द 25 के तहत िकसी के धमड को मानने, अभयास करने और पचार करने का अिधकार एक ऐसा पावधान है, िजसके साथ अिभवयि्ति की सवतंतता के अिधकार को संतुिलत करने की आवशयकता है। इस बात पर ज़ोर िदया गया है िक भारत जैसे बहुसांसकृ ितक, धमडिनरपेक देश में, सभी नागररकों के धािमडक िहतों की रका करना राजय का कतडवय है। धािमडक िसरांतों, धािमडक गंथों और यहाँ तक िक धािमडक वयि्ति को ऐसे हमले से बचाने के िलए इस तकड के दायरे का िवसतार िकया गया है, कयोंिक इस तरह के कृ तय को नागररकों के िवशास पर सीधा पहार माना जाता है। एन. वीरबह्मम के स67 और शी बरगुर रामचंदपपा68 जैसे मामलों में नयायालयों ने अपनी िसथित सपष्ट करते हुए कहा है िक धािमडक वयि्ति और धािमडक गंथों की आलोचना या अपमान दूसरों के िवशास में हसतकेप के समान है। ऐसी आलोचना और अपमान को भारत जैसे धमडिनरपेक और बहुल समाज में अनुमित नहीं दी जा सकती है। ऐसे मामले सावडजिनक वयवसथा से संबंिधत समसया को जनम दे सकते हैं और इसिलए सरकार दारा कायडवाही िकया जाना उिचत है। 66 यह िसथित अमेररकी संिवधान के पथम संशोधन के संबंध में िवदानों के बीच पररलिकत होती है, जैसे ड् वॉिकड न, और सी. एडिवन बेकर, अनय. हालाँिक अमेररका के संदभड में भी इस दृिष्टकोण पर पभावी ढंग से सवाल उठाया गया है, उदाहरण के िलए देख,ें सटेनली िफ़श (1994); वाल्ॉन (2012). 67 एन. वीरबह्मम, ए.आई.आर.1959 ए.पी. 572. 68 शी बरगुर रामचंदपपा और अनय बनाम कनाडटक राजय और अनय, (2007) 5 एस.सी.सी.11. 04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 88 88 | िमान उपरो्ति चचाड ‘अिभवयि्ति की सवतंतता’ के िवषय पर अदालत की िसथित के दो पमुख पहलुओ ं को दशाडती है। पथमतः, अदालतें वैधािनक क़ानूनों और संवैधािनक सीमाओं की बहुत िवसतृत वयाखया के माधयम से राजय के हसतकेप को क़ानूनी संरकण पदान करती हैं,69 और दूसरा यह िक अदालतें ‘क़ानूनी-पैतक ृ वाद’ का पालन करती हुई ंनागररकों को इस बारे में मागडदशडन करती हैं िक कया कहना हैं, कै से कहना है और िकतना कहना है।70 अदालतों का यह रवैया, संवैधािनक क़ानूनों की पकृ ित से जुड़ी असपष्टता के साथ िमलकर ‘सेंसरिशप का जाल’ बनाता है, िजससे िकसी भी वयि्ति के िलए अिभवयि्ति की सवतंतता का पयोग करना और उसका आनंद लेना मुिशकल हो जाता है। ि ष्ष उपरो्ति चचाड से यह इंिगत होता है िक यिद िकसी भी पकार के भाषण अथवा अिभवयि्ति से िकसी की भावना आहत होती है तो भारतीय क़ानून और अदालती फ़ै सले ऐसे में भाषण एवं अिभवयि्ति की सवतंतता के िविनयमन के पक में होते हैं और यह िविनयमन के वल हेट सपीच तक ही सीिमत नहीं रहता है। परं तु िविनयमन की इस पवृित की अपनी उलझने हैं। लॉरे नस िलयांग ये मानते हैं िक यिद आपके क़ानून में ऐसे पावधान हों जो भावनाओं के आधार पर सवतंत अिभवयि्ति के िविनयमन का समथडन करें तो आम तौर पर यह देखा गया है िक ‘आहत भावनाओं’ से जुड़े मामलों को क़ानूनी वैधता िमल जाती है, िजस कारण से ऐसे मामलों की संखया में िनरं तर वृिर देखने को िमलती है।71 अहमद मानते हैं िक वासतव में क़ानून के दारा और धािमडक आवेश को िनयंतण करने के कम में ऐसी भावनाओं को क़ानूनी मानयता एवं सवीकृ ित िमल जाती है। इसी आधार पर अहमद का मानना है िक जब भी कोई भाषण एवं अिभवयि्ति िकसी की धािमडक एवं अनय भावनाओं को आहत करती है तो इसके नाम पर लोग उग भाव से ऐसे भाषण और अिभवयि्ति को िनयंितत करने के िलए राजय पर दबाव बनाते हैं।72 भारत में अकसर यह देखा जाता रहा है िक ‘आहत भावना’ के नाम पर अलगअलग समूह और समुदाय के िहतैषी होने का दावा करने वाले लोग अकसर कलाकृ ितयों, िफ़लमों, िकताबों और अनय पकार के अिभवयि्ति के साधनों पर िनरं तर आघात करते रहे हैं। 69 इसका यह अथड नहीं है िक यह संरकण ग़ैर-आलोचनातमक है, जैसा िक कई िनणडयों में पदिशडत िकया गया है, लेिकन समग रूप से देखने से यह समझ आता है िक जयादातर अवसरों पर जब क़ानून और वयवसथा के िलए ख़तरा होता है, अदालतें राजय की पितिकया को सही ठहराती हैं. 70 पकाशनों के िवशे षण में अदालतें ‘मामले-तरीक़े ’ का एक साथ उपयोग करती हैं, और िवशेष रूप से, िनंदातमक भाषा से संबंिधत मामलों में एहितयात के बारे में अदालतों के सुझाव. उदाहरण के िलए, शी बरगुर रामचंदपपा में, अदालत याद िदलाती है िक ‘इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं िकया जा सकता है िक भारत भाषा, संसकृ ित और धमड में गहन िविभननता वाला देश है और अनुिचत और दुभाडवनापूणड आलोचना या दूसरों के िवशास में हसतकेप सवीकार नहीं िकया जा सकता है’. 71 लॉरें स िलआंग (2012). 72 अहमद : 177. 04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 89 हेट ीच, अ ि की तं ता और िारतीय कानूनी व ा | 89 ग़ौरतलब यह है िक सेंसरिशप के ऐसे कृ तयों में राजय की भूिमका भी कई बार गौण पतीत होती है। ऐसे आघातों ने भाषण एवं अिभवयि्ति की सवतंतता को अथडहीन बना िदया है। वासतव में, ऐसे मामलों में सेंसरिशप का फ़ै सला समुदायों और समूहों के सवघोिषत पितिनिध सवयं ही सड़कों पर करते हैं, न िक क़ानून के आधार पर राजय की संसथाएँ। इस तरह के सेंसरिशप ने हेट सपीच के िवमशड को और पेचीदा बना िदया है, कयोंिक ऐसे मामलों में हेट सपीच पर िनयंतण एवं भावनाओं को ठे स पहुचँ ाने के दावे के आधार पर भाषण एवं अिभवयि्ति के िकसी भी सवरूप को पितबंिधत िकए जाने (क़ानूनी तरीक़े से या भीड़ के दारा बलपूवडक) के मधय की रे खा धूिमल हो जाती है। दुभाडगय से, या तो संकीणड राजनीितक िवचारों के कारण या आकोिशत भीड़ को िनयंितत करने में असमथडता और सावडजिनक वयवसथा के िबगड़ने के डर के कारण, राजय की संसथाएँ भाषण एवं अिभवयि्ति िक सवतंतता पर पितबंध लगाने के दावों के सामने आतमसमपडण कर देती हैं। हालाँिक यह भी िविदत है िक अकसर हेट सपीच का इसतेमाल जान बूझकर हािशये के समूहों की बेइजज़ती या ितरसकार करने, अथवा चुनाव के समय सामािजक धुवीकरण करने के िलए िकया जाता है। ऐसे भाषण एवं अिभवयि्ति का समथडन एवं रका भारतीय लोकाचार के िलए घातक हो सकता है इसिलए भाषण एवं अिभवयि्ति की सवतंतता का समथडन करते हुए भी हमें अतयिधक सावधान रहने की आवशयकता है। जहाँ एक ओर भाषण एवं अिभवयि्ति की िनरं कुश सवतंतता के घातक पररणाम हो सकते हैं वहीं दूसरी ओर राजय का अतयिधक हसतकेप ऐसी सवतंतता को बेमानी बना सकता है। इस लेख से यह सपष्ट है िक भारत में वैधािनक और संवैधािनक क़ानूनों और नयाियक वयाखया ने िजस तरह से भाषण एवं अिभवयि्ति की सवतंतता के दायरों को तय और पररभािषत िकया है, वह न के वल अमेररकी और युरोपीय लोकतंतों से िभनन है बिलक इन देशों में िजस तरह से हेट सपीच की अवधारणा का इसतेमाल होता है उससे कहीं जयादा िवसतृत एवं वयापक भी है। ऐसे क़ानूनों का संदभड के आधार पर समथडन समाज को हेट सपीच के दुषपभाव से तो शायद बचा सकता है, मगर भाषण एवं अिभवयि्ति के पररसीमन की क़ानूनी पररभाषा में मौजूद अिनश्चता और इस िवषय में नयाियक वयवसथा में िकसी भी तय िसरांत के अभाव के कारण इस पमुख मौिलक अिधकार पर जो ख़तरा िनरं तर बना रहता है उसे समाप्त कर पाने में असमथड है। दुभाडगय से, सवतंतता के लगभग 75 वष्गों के बाद भी हम ऐसे िवषयों के िनपटारे का एक संतिु लत मागड नहीं खोज पाए हैं और क़ानूनों एवं नयायपािलका के माधयम से, िबना भाषण एवं अिभवयि्ति की सवतंतता के वैध दायरे में बाधा डाले, हेट सपीच को रोकने के एक पभावी मागड की तलाश में है। यही कारण है िक हेट सपीच और अिभवयि्ति की सवतंतता के मधय संबंध एवं इसके तकड -संगत िनयंतण पर िवमशड अभी भी िनरं तर जारी है। 04_nishant_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:35 Page 90 90 | िमान िंदभ्ष असद अली अहमद (2009), ‘सपेकटसड ऑफ़ मैकॉले : बलासफ़े मी, िद इंिडयन पीनल कोड, ऐंड पिकसतान्’स पोसटकोलोिनअल पेिडकामेनट’, रिमंदर कौर तथा िविलयम माज़रे ला (सं.), सेंसरिशप इन 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सीचन की सुिध लीजौ, मुरझ न जाई। (पेम चाहत का नाज़ुक सा पौधा लगाकर तुम तो दूर चले गए; धयान रहे िक इसकी िसंचाई भी ज़रूरी है, नहीं तो यह मुरझा जाएगा।2 बारहमासा अथाडत् बारह महीनों के गीत भी िवरह के िवषय वसतु पर रचे गए हैं। बकौल को्फ़, बारहमासे िवरह के वे गीत हैं िजनमें पीछे छू ट गई नविववािहत िसयाँ अपने अके लेपन को, भुलाए जाने की भावना को और अपनी इचछा को वयक्त करती हैं।3 पित और पतनी के या पेमी और पेिमका के िबछड़ने को वयक्त करने वाले बारहमासा-कावय 1600 से पहले भी पचिलत रहे हैं। पित का मौसमी अलगाव ‘एक पशुपालक, वयापाररक और युदजीवी समाज में’ िनरं तर पृषभूिम में रहा है, िजसके कारण ‘पित को घर लाने वाला बरसात का मौसम िसयों की नज़र में एक शुभ समय होता है िजसकी वे राह देखती हैं।’4 बरसातों के पहले महीने, यािन िक आषाढ़, में एक सी एक गीत में अपनी भावनाओं को इस पकार से वयक्त करती है : सारी सिखयाँ अपने िपया के संग हैं सोई, मेरा मरद परदेस में बादल बन भटके है।5 एक और बारहमासा में बेचनै ी से अपने पित के वापस आने की बाट जोह रही एक सी बतलाती है िक एक-एक महीना गुज़ारते उसे कै सा महसूस होता है। पयार के इस नाज़ुक एहसास को इस तरह से वयक्त िकया गया है : 1 गामीण भारत में िववाह, सांसकृ ितक रि्टि से, पररवार से अलगाव की एक दशा होता है. राही मासूम रज़ा के उपनयास आधा गाँव का आरं भ एक गाने से होता है : ‘लागा झुलिनया का धकका, बलम कलकता पहुचँ गए’. पृ.10. आधा गाँव, 2006 सातवाँ संसकरण : 10. 2 अवधी कावयधारा में बरवै छं द संबंधी लोकोिक्तयों की िववेचना के िलए िख़दमत या नौकरी के िलए छड़े (िववािहत) पुरुषों के पवास से इसके संबंध के बारे में शािहद अमीन (2005), ‘रे पेज़ेंिटंग द मुसलमान : देन ऐंड नाऊ’, सबालटन्न सटडीज़़ सीररज़ खंड-12, नई िद्ली : 21-22, परमानेंट बलैक देख.ें 3 डी. एच. ए. को्फ़ (1990) : 74-75. 4 शालडत वादिवले (1965) : 57. 5 डब्यू. जी. आचडर (1942), ‘सीज़नल सॉनगस ऑफ़़ पटना िडिस्कट’, मैन इन इंिडया, अंक 22 : 233-37. इस गीत को चौमासा, अथाडत् चार मास से संबंिधत कहा जाता है पर इसमें छह मास का वणडन होता है.ै 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 95 उ र भारत की वास सं ृ त और िर म िया मजदूर | 95 कु आर कु सल निहं पावा हो, के उ ना आवे ना जावे, पितया मैं िलिख-िलिख पठइबो हो, िदहे कांत के हाथ। पूस पाल गइल हो, जाड़ ज़ोर बुजाय, नव मन रुपइया भरइतो हो, िबनु सइयाँ जाड़ न जाय। मािघ के िसव तेरस हो, िसव बर होय तोहार, िफर िफर िचतवा मंिदरवा हो, िबनु िपया भवन उदास। चइत फु ले बन टेसू हो, जब के टुंड हहराय, फू लत बाल गुलबवा हो, िपया िबनु मोहे न सुहाय। बैसाखी बसाव कटइतो हो, रिच के बंगला छवाय टोही से सोइते बलमउआ हो, अचर ने आद।6 उतर भारत के लोकगीतों में अपने पित से पतनी के िबछड़ने का बेपनाह ददड बयान हुआ है। गंगा की वादी में चैत के महीने में गाए जानेवाले गीत भी, िजनको चैतार, चइतार या चइता कहा जाता है, अपने पितयों दारा पीछे छोड़ दी गई िसयों के िवरह के दुख को िदखलाते हैं। कु छ गीतों में नौजवान िसयों को अपनी ननद से अपनी इचछा और दुख को बाँटते देखा जा सकता है, और कु छ में वे अपनी ये भावनाएँ वयक्त करती हैं िक ‘नीक सइयाँ िबन भवनवा नािहं लागे सिखया।’ जी.ए. िगयसडन ने उतर भारत के गाँवों से ऐसे गीतों का एक बड़ा भंडार जमा िकया है। कु छ गीत इस पकार हैं: ननदी सइयाँ निह आवे, डाल पता झुिक मतवलवा चोिलया से जोबना बड़ भइली ननदी, कइसे करर के छु पाय।7 भावे नािहं मोिह भवनवा, हो रामा, िबदेस गवनवा, 6 जी.ए. िगयसडन (1884), पररिश्टि एक, सेवेन गामसड ऑफ़ द डॉयलेकट् स ऐंड सब - डॉयलेकट् स ऑफ़ िबहारी लैंगवेज़, पाटड-2, कलकता, शािहद अमीन (सं), ए कनसाइज इंसाइकलोपीिडया ऑफ़ नॉथड इंिडयन पेज़ंट, पूव्वोक्त : 372 पर उदृत. (अनु.) आिसन कु आर में मुझे कोई अचछी ख़बर नहीं िमलती: कोई आता-जाता नहीं। मैं पाती िलखकर भेज देती हू.ँ पाथडना करती हूँ िक इसे मेरे कांत (िपय) के हाथ में देना / पूस में पाला पड़ता है, और ठं ड अपना ज़ोर िदखाती है. अपनी रज़ाई में मैं नौ मन रूई भर लूँ तो भी मेरे बलम के न रहने पर जाड़ा नहीं जाने का / माघ की तेरहवीं को िसव (भगवान िशव) का भोज होता है; तुझ पर िसव की कृ पा बनी रहे! जब भी मैं पलटकर अपने घर को देखती हू,ँ (कया देखती हूँ िक) बलम के िबना मेरा घर उदास-उदास है / चैत में जंगल में पलाश के फू ल िखलते हैं और जौ की फ़सल (हवा में) सरसराती है; चमेली और गुलाब िखल रहे हैं, पर िपया के िबना वे मुझे नहीं भाते. / बैसाख में मैं बाँस कटवाकर बँगला छवा लेती। मेरे िपया जब उसमें सोते तो मैं अपने आँचल से उनको हवा करती. 7 जी.ए. िगयसडन, शािहद अमीन (सं), पूव्वोक्त, में : 382 पर उदृत. (अनु.), हे मेरी ननद, सैयाँ नहीं आए. आम के पेड़ों पर बौर लगे हैं और िटकोरे तैयार हो रहे हैं. पते ऐसे लटक रहे हैं जैसे िक मतवाले हो गए हों. मेरी चोली में मेरा भरपूर जोबन नहीं समाने का; मैं इसे कै से िछपाऊँ? 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 96 96 | िमान जब ये मास िनरस िमलन भए, सुंदर पान गवनवा।8 नई रे नवेली अलबेली बौराही, उढ़कत उढ़कत चलेली अँगनवा, खन आँगन खन बाहर ठाड़ी रे , जोहे लागे जोहे लागे सइयाँ के अँगनवा, िजंही मोरा कहे रामा सइयाँ के अँगनवा, ननदी हो ितंही देबो कं चन कं गनवा।9 जँतसार गीत, िजनको िसयाँ जाँता (चककी) चलाकर अनाज पीसते हुए गाती हैं, रोज़ी कमाने के िलए दूर देस गए हुए िपया के वासते उनकी भारी तड़प को वयक्त करते हैं। एक गीत इस पकार है: बेरर बेरर जाल सइयाँ पुरिब बिनिजया कइसे कटे िदन रात हो। गाड़ी जे अटके ला चहल पहल में, बैला अटके गुजरात हो, ए दुनु नैन बनारस अटके , सइयाँ जहानाबाद हो। तलवा में चमके ला चा्ह मछररया, रनवा में चमके तलवार हो, सभवा में चमके सइयाँ के पगिड़या, सेिजया पे िटकु ली हमार हो।10 अब अगले गीत से पहले एक दोहा: िपया बािटया जोहत िदन गइले, तोरी खबररया न अइलो के िसया अपने गुथाइला, मंिगया सेंदरू भराइला, िपया के सुरितया लाइला, िजयरा हमार रुढ़ेला नैना िनयरा धर गइलो बाभन के बेद बोलाइल, पोिथया ओकर खोलवाइल साँचे सगुन सुनवाइल, िपया नईखे आइल। जोहन हमार बड़ भइलो नउवा के चौर बोलाइल, पूरब देस पठाइल उतर ढाई के आवेला, दिकखन सूरत लगाइल 8 उपरोक्त. (अनु.) हे राम, (मेरे साजन), परदेस जा रहे हैं; मेरा घर मुझे नहीं सुहाता. इस महीने अगर उनसे िमलने की आस टू टी तो मेरा यह सुंदर जीवन समाप्त हो जाएगा. 9 जी.ए. िगयसडन, शािहद अमीन (सं), पूव्वोक्त, में : 383 पर उदृत. (अनु.) एक नई-नवेली अलबेली, पेम में बावरी होकर, अटपट चलते हुए आँगन में पहुचँ ती है. कभी आँगन में और कभी बाहर खड़ी होती है, और अपने िपया के आने की राह तकती रहती है, तकती रहती है. ऐ मेरी ननद, जो मुझे (हे राम!) मेरे िपया के आने की ख़बर देगा उसको मैं सोने का कं गन दूगँ ी. 10 उपरोक्त : 385 देख,ें (अनु.) हे मेरे मािलक, अकसर तुम वयापार के िलए पूरब चले जाते हो; मेरे िदन और रात भला कै से कटें? गाड़ी तो कीचड़ में फँ स जाती है और बैल गुजरात में अटक जाते हैं. मेरे दो नैना बनारस में अटक गए और सैयाँ जहानाबाद में अटके हुए हैं. िजस तरह ताल में चे्हवा मछली चमकती है और िजस तरह लड़ाई के मैदान में तलवार चमकती है, उसी तरह सभा में मेरे सैयाँ की पगड़ी चमक रही है और सेज पर मेरी िबंिदया चमकती है. 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 97 उ र भारत की वास सं ृ त और िर म िया मजदूर | 97 पिचछम घरे घरे ढूँढालन।11 एक और गीत में पूव्ती गोरखपुर की एक सी गाती है: अमवा मोजराय गइले, महुआ किचयाई गइले के करा के बदबो सनेसवा? आ रे बेदद्ती छोड़ के नोकररया।12 को्फ़ की िटपपणी यूँ है : भारतीय गीत अकसर िसयों के रि्टिकोण को पेश करते हैं और किवगण भी, सूने मकानों में पीछे रह गई िसयों की तड़प को पूरी तरह सामने रखते हुए भी, उनके जीवनसािथयों का अता-पता नहीं बतलाते, बि्क उनके दूर जाने के कारण तक नहीं बतलाते। इस तरह अपने पित से अलग हो चुकी िवरिहणी आरं िभक िहंदी सािहतय समेत समसत मधयकालीन सािहतय की सबसे आम नाियकाओं में शािमल हो चुकी हैं।13 डी.एच.ए. को्फ़ ने िदखाया है िक िकसानों में स्तनत की फ़ौज में भत्ती होने की एक परं परा रही है। पूव्ती िहंदसु तान, िजसे सथानीय लोकभाषा में पूरब कहा जाता था, शेरशाह और जौनपुर की स्तनतों में 15 वीं और 16 वीं सिदयों में िकसान सैिनकों की भत्ती का एक अहम इलाक़ा हुआ करता था। भारत में मुग़ल राज के दौरान भी सेना में यही पुरिबया सैिनक थे।14 मुग़लों ने िकसानों में से सैिनक भत्ती िकए, ख़ासकर बकसर के इलाक़े से। आम तौर पर इन सैिनकों को बकसररया कहा जाता था। िबिटश ईसट इंिडया कं पनी ने जब भारत के एक बड़े भाग पर क़बज़ा कर िलया तो उसने पुरिबया और बकसररया िकसान सैिनकों पर आधाररत एक बड़ी फ़ौज खड़ी की। अपनी पतनी से पित के अलगाव का कारण अनेक गीतों में नौकरी है, िजससे परं परागत भारत में मुराद आम तौर पर लंबी दूरी की नौकरी होती थी, जैसी िक िबिटश ईसट इंिडया कं पनी की सेना में भी थी।15 दूसरे शबदों में, गामीण भारत की, और ख़ासकर उतर पदेश और िबहार की, क्पना भी कम, मधयम और अिधक मुदत के उन पवासी शिमकों के 11 उपरोक्त : 386 देख.ें (अनु.) िपया, तुमहारी राह देखते-देखते िदन िनकले जा रहे हैं, और तुमहारी कोई खोज-ख़बर नहीं िमली. रोज़ मैं बाल बनाती हूँ और माँग में िसंदरू डालती हू.ँ तुमहारी सूरत आँखों के सामने लाती हू,ँ लेिकन जी उदास रहता है और आँखों से आँसू बहते जाते हैं. बाभन को बुलवाती हूँ और उससे उसकी पोथी खुलवाती हू.ँ वह नेक सगुन बतलाता है लेिकन मेरा िपया नहीं आता, जबिक मेरी जवानी चढ़ी जा रही है. मैंने नाई के बेटे को बुलाया और उसे पूरब देस भेजा. वह उतर िदशा से घर लौटा, दिकण की ओर रुख़ िकया और पि्चिम जाकर घर-घर ढूँढ आया. 12 हूज़ फे ज़र (1883), ‘फ़ोकलोर फॉम ईसटनड गोरखपुर’, जनडल ऑफ़ द एिशयािटक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल 52 (1) : 5, कलकता, (अनु.) आम के पेड़ों पर बौर आ गए और महुआ के फू ल िगर रहे हैं. िकसके हाथ मैं संदश े ा भेजँ?ू ऐ बेदद्ती, छोड़ के नौकरी आ जा. 15 उपरोक्त. 13 डी.एच.ए. को्फ़, पूव्वोक्त : 74-75. 14 उपरोक्त : 160. 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 98 98 | िमान िबना नहीं की जा सकती जो सेना, वयापार और कृ िष में अपनी सेवा देते थे।16 काम या नौकरी की तलाश में िकसान बराबर भटकते रहते थे। िवरह के गीत इस बात की पुि्टि करते हैं िक भारतीय िकसान मौसमी पवास करते थे; वे बैठकी के िदनों में काम पाने के िलए बाहर चले जाते थे, तथा अपने दूर िसथत वयापारी मािलकों के िलए या सेना में िसपाही के काम करते थे। मसलन पुरिबयों और बकसररयों ने िसफ़ड स्तनत की या मुग़लों की सेना में ही काम नहीं िकया बि्क िबिटश सेना में भी सेवा के िलए अपने घरों से दूर चले जाते थे। हालाँिक उपिनवेश-पूवड भारत में नौकरी के िलए िकसानों का आना-जाना पूरी तरह से आंतररक था, िफर भी नौकरी के िलए ऐसे आंतररक पवास के चलते वे उपिनवेश-काल में समंदर पार भी जाने लगे। कुिी िरी : वास करार- था के अंति्गत जहाँ उपिनवेश काल से पहले िकसानों की आवाजाही आंतररक पवास तक सीिमत थी, वहीं भारत में िबिटश राज ने िवदेश-गमन की नई संभावनाएँ पैदा कीं। ये संभावनाएँ पूरे िबिटश सामाजय में दासपथा के उनमूलन के कारण बाग़ान में शम की पैदा होने वाली आव्यकता से उतपनन हुई ं। बताडिनया दारा 1833 में दासपथा के उनमूलन से पूरे िबिटश सामाजय में शककर के वयापार में मंदी आई िजसके कारण एक संसदीय सिमित को यह ररपोटड देनी पड़ी िक ‘जो लोग िबिटश उपिनवेशों में शककर के उतपादन में िदलचसपी रखते हैं उन सबमें िबना शक भारी िचंता वयाप्त है।’17 इस क्टि को सीधे-सीधे मज़दूर पाने की किठनाइयों से जोड़ा गया: ‘(शककर के ) िगरे हुए उतपादन और उससे पैदा परे शानी का पमुख कारण शिमकों की अबाध और िनरं तर आपूितड में पलांटरों को हो रही भारी किठनाई है...’18 वेसट इंडीज़ के पलांटरों को शम की आपूितड के नए सोत ढूँढने के िलए भारत एक मुनािसब सथान लगा, कयोंिक यहाँ शम अपेकाकृ त ससता और भरपूर था। 1834 और 1930 के बीच िविभनन दीपों के औपिनवेिशक बाग़ान में काम करने के िलए भारतवािसयों की भत्ती क़रार-पथा के दारा आयोिजत की गई।19 मॉरीशस वह पहला उपिनवेश था िजसने 1834 में भारत से िगरिमिटया मज़दूर बुलाए, और िफर 1838 में िबिटश गुयाना तथा 1945 में ितिनदाद और जमैका ने यही िकया। वेसट इंडीज़ के दूसरे छोटे उपिनवेश िजनहोंने भारत से िगरिमिटया मज़दूर बुलाए वे थे 1850 के 16 उपरोक्त. जेमस नोग्गेट (1861), फॉम िसपॉय टू सूबेदार, सीताराम दारा पेिषत, पंजाब; मधुकर, उपाधयाय, (1999), िक़ससा पांडे सीताराम सूबेदार, नई िद्ली, सारांश पकाशन भी देख.ें ‘जाित के जाने’ का डर िसफ़ड कु छ ऊँची जाितयों के िहंदओ ु ं को सताता था और िनचली जाितयों के , मुिसलम और आिदवासी पवािसयों पर यह लागू नहीं होता था. इस तरह इसके महतव की अितशयोिक्त की गई है. लेिकन (1856) से पहले बंगाल की सेना के अंदर ‘बटा’ (समुद्रपार सेवा भता) बढ़वाने की सौदबाज़ी के िलए इसका महतव होता था. 17 िविलयम एल.एफ़. रशबुक (1924) : 5. 18 उपरोक्त. (1842 और 1848) में गिठत दो संसदीय सिमितयों ने सप्टि रूप से मंदी की ररपोटड दी. 19 उपरोक्त : 7. 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 99 उ र भारत की वास सं ृ त और िर म िया मजदूर | 99 तािलका-1 1880 तक उपिनवेशों में जाने वाले भारतीयों की संखया िबिटश उपिनवेश कम सं उपिनवेश क़रारबंद भारतीय जनसंखया 1 मॉरीशस 248,000 2 डेमरे रा 88,000 3 ितिनदाद 51,000 4 जमैका 11,000 5 गेनाडा 1,500 6 सेंट ्यूिशया 1,000 7 सेंट िकट् स 200 8 सेंट िवसेंट 2,000 9 नेिवस 300 10 नेटाल 25,000 11 िफ़जी 1,400 योग 429,400 अनय उपिनवेश 12 ररयूिनयन (फांसीसी उपिनवेश) 45,00 13 सेयेन (फांसीसी उपिनवेश) 4,300 14 गवादलूप (फांसीसी उपिनवेश) 13,500 15 माितडिनक (फांसीसी उपिनवेश) 10,000 16 सेंट कोइकस (डच उपिनवेश) 87 17 सूरीनाम (डच उपिनवेश) 4,156 योग 77,043 सभी उपिनवेशों में क़ु ली आबादी का महायोग = 506,433 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 100 100 | िमान दशक में सेंट िकट् स, सेंट ्यूिशया, सेंट िवसेंट और गेनाडा; 1860 में नेटाल, 1873 में सूरीनाम और 1879 में िफ़जी। िगरिमिटयों के पवास के 82 बरसों में इन उपिनवेशों में बारह लाख से अिधक भारतवासी पहुचँ ।े 20 1880 से पहले िविभनन उपिनवेशों में पहुचँ ने वाले भारतीय मज़दूरों की संखयाएँ तािलका 2.1 में दी गई हैं।21 इन आँकड़ों से पता चलता है िक क़रार-पथा के तहत औपिनवेिशक पवास ने भी उतर भारत के गाँवों से पुरुषों, िसयों और नविववािहत पुरुषों की एक िवशाल संखया को आकिषडत िकया। जो नौजवान कभी स्तनत, मुग़ल राज या ईसट इंिडया कं पनी की सेना में जवान और िसपाही बना करते थे, वे अब गनने के टापुओ ं में िबदेिसया और िगरिमिटया बनने लगे। िफ़जी में क़रारबंद पवािसयों की पवृित की छानबीन करते हुए बृज लाल ने जो आँकड़े िदए हैं उनसे इसकी पुि्टि होती है िक िफ़जी के िलए भत्ती िकए जाने से पहले ही भावी पवासी अपने घर छोड़ चुके होते थे। िमसाल के िलए संयक्त ु पांत के बसती िज़ले में 61.2 पितशत कुँ वारे अहीर पुरुष, 75.5 पितशत कुँ वारे पुरुष बाह्मण और 45.1 पितशत कुँ वारे पुरुष चमार अपने गृह जनपद से िभनन िज़लों में िगरिमिटया के रूप में दजड िकए गए। बसती में न िसफ़ड कुँ वारे पुरुषों ने बि्क 62.2 पितशत कुँ वारी अहीर, 86.6 पितशत कुँ वारी बाह्मण और 45.1 पितशत कुँ वारी चमार िसयों ने भी अपने गृह जनपद से बाहर ही नाम दजड कराए।22 क़रारबंद पवास खेत मज़दूरों के िलए अनेक सहारों में िसफ़ड एक सहारा था। आंतररक पवास के बहुत से दूसरे रासते भी थे। िकसी भी तरह के काम की तलाश में लोग बराबर भटकते रहते थे। िगयसडन ने देखा िक िबहार से काम की तलाश में लोग नेपाल जा रहे थे। उनहोंने पाया िक जब िवशाल सतर पर सावडजिनक, अधड-सावडजिनक और िनजी िनमाडण-काय्टों का आरं भ हुआ तो िबहार के गामीण िज़लों से भारी संखया में मज़दूर काम के िलए िनकल पड़े। जैसा िक आनंद यांग ने िदखाया है, िबहार के सारण िज़ले से हर साल मौसमी तौर पर हज़ारों मज़दूरों के पूव्ती बंगाल और कलकता जाने और िफर खेितहर कामों के आरं भ होने पर वापस गाँव पलट आने की परं परा थी।23 बड़ी संखया में सारण के लोग िगरिमिटया के रूप में अपने िज़ले से बाहर भत्ती िकए गए। इसका कारण यह था िक वे देश के अंदर काम की तलाश में घर छोड़कर िनकले और जब काम नहीं िमला तो िगरिमिटया बन गए। संयक्त ु पांत और अवध में िगरिमिटयों की भत्ती की छानबीन करते हुए िपचर ने देखा िक 20 बृज. वी. लाल (2000) : 4. मेजर िपचर ऐंड िगयसडन इनकवायरी इंटू एिमगेशन [आगे से : िगयसडन ररपोटड], राजसव और कृ िष [आगे से : रा कृ ] एिमगेशन, ए पोगस संखया 9-15, अगसत 1883. 22 बृज. वी. लाल (2004) : 142. 23 आनंद यैंग (1979), पेज़ॅनट् स ऑन मूव : अ सटडी ऑफ़ इंटन्नल माइगेशन इन इंिडया, जनडल ऑफ़ इंटरिडिसिपलनरी िहस्ी, 10 (1) : 37-58, गीषम. जो मौसमी पवास धान की फ़सल की कटाई के समय में अंतर के कारण होता है, कयोंिक यह बंगाल में िबहार के काफ़ी बाद में कटती है, उसके बारे में आर जी, हेसे्टाइन, 1981, द डेवलपमेंट ऑफ़ जूट क्टीवेशन इन बंगाल, 1860-1914, देख.ें 21 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 101 उ र भारत की वास सं ृ त और िर म िया मजदूर | 101 ऐसे अनेक नाके थे जहाँ लोग कई कारणों से आते थे और उपिनवेशों में काम करने के िलए अपने नाम दजड करा देते थे। िपचर के शबदों में : पूरे साल ज़ािहरा तौर पर राजमाग्टों पर भटकने वालों की एक क़तार लगी रहती थी जो बड़े नगरों में जा पहुचँ ते थे और कु ल के लगभग आधे लोग इस धारा में से भत्ती िकए जाते थे। भत्ती होनेवालों में कु छ नगरों को इसी रूप में पितषा पाप्त है और ये नाका कहे जाते हैं। कानपुर, िद्ली और लखनऊ ऐसे बड़े नाके हैं; इलाहाबाद, फ़ै ज़ाबाद और बनारस अपने तीथडयाितयों में से तथा बनारस अपने सदाबतों में से अनेक की भत्ती कराते हैं। देसी रजवाड़ों के लोगों के िलए आगरा एक बड़ा नाका था। िसयों के िलए एक िपय तीथडसथान होने के कारण मथुरा बहुत सी िसयों की भत्ती कराता है।24 19वीं सदी में उतर भारत में शम बाज़ार में तेज़ी आई। शिमकों की बेशी और कमी उनकी माँग पर िनभडर होती थी। िपचर ने देखा िक मुरादाबाद तक अवध ऐंड रुहेलखंड रेलवे के िनमाडण के कारण कहारों के पूरे के पूरे गाँव बेरोज़गार हो गए जो अपनी रोज़ी पालकी ढोकर कमाते थे। इसी तरह काबुल की जंग के ख़ातमे से पंजाब में काम के इचछु क लोगों की बाढ़ आ गई। एक एजेंट ने िपचर को बतलाया िक उपिनवेशों के िलए पंजाब से िजतने लोग चािहए, िमल जाते हैं।25 मधय-19वीं सदी तक उतर भारत की बिसतयों, गाँवों और नगरों में क़रार की पथा बड़े पैमाने पर पचिलत थी। संयक्त ु पांत, िबहार और बंगाल में इसके बारे में समुिचत िनयम-क़ायदे बनाए गए और िविभनन िज़लों में एजेंटों को लाइसेंस जारी िकए गए। िगयसडन और िपचर की ररपोट्टों से उतर भारत में क़रार पथा के बारे में हमें िदलचसप जानकारी पाप्त होती है। क़ानूनी तौर पर उतर भारत के हर िज़ले में क़ु ली भत्ती करने का एक दफ़तर था िजसका सदर दफ़तर कलकता में था। एजेंटों को लाइसेंस जारी िकए जाते थे और उनमें से बहुत से लोग क़ु ली भत्ती कराने के िलए ग़ैर-लाइसेंसी सी-पुरुष सहायक रख लेते थे। सथानीय सतर पर ये ग़ैर-लाइसेंसी मातहत अरकाटी (recruiter के िलए भोजपुरी शबद) कहे जाते थे। क़ु ली भत्ती कराने के िलए ये एजेंट अनेक रणनीितयाँ अपनाते थे और उनके काम के तरीक़े अलग-अलग इलाक़ों में अलग-अलग होते थे। िपचर और िगयसडन ने संयक्त ु पांत और िबहार में पाया िक ‘भत्ती का आदशड ढंग यह था िक एजेंट नगरों और गाँवों में जाते थे और लोगों के नाम उनके घरों पर या पास-पड़ोस में दजड करते थे।’ लेिकन अनेक एजेंट एक िज़ले में क़ु ली पाते और िकसी दूसरे िज़ले में उनको नाम दजड करते थे।26 िगयसडन ने देखा िक शाहाबाद (िबहार) में पवास इतना लोकिपय था िक भावी पवासी सब-िडपो में ख़ुद आकर भत्ती होते थे। परदेस के बाग़ान के िलए मज़दूर जमा करना एजेंटों के िलए आम तौर पर आसान नहीं 24 25 26 िपचर ररपोटड, रा कृ एिमगेशन, ए पोगस संखया 1-12, फ़रवरी 1883. वही, अनुचछे द 65. वही, अनुचछे द 12 : 4. 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 102 102 | िमान होता था, कयोंिक इसका मतलब था सथानीय ज़मींदारों का नुक़सान। चूिँ क भारत के गामीण जीवन पर ज़मींदारों और कु छ दूसरे गामीणों का वचडसव होता था, इसिलए एजेंटों की मुक्त आवाजाही के दौरान उन पर ज़मींदारों के चाकरों के हमले का जोिखम रहता था। इसिलए एजेंटों ने नई रणनीितयाँ अपनाई ंऔर बड़े नगरों की तरफ़ जाने वाले रासतों पर मँडराने लगे, जहाँ काम की तलाश करनेवाले अकसर भटकते रहते थे। ये लोग रे लवे सटेशनों, सरायों और नगर के बाहर िसथत कु ओं के आसपास डोलते रहते थे जहाँ याती जमा होते थे और िसयों व पुरुषों से पूछते थे िक कया वे काम की तलाश में हैं। पायः उनका पहला सवाल यह होता था: नौकरी लोगे? अगर उनकी िदलचसपी यह जानने में होती थी िक एजेंट ‘कहाँ’ और ‘िकस तरह का’ काम देगा, तो वे िगरिमट की शत्टों की वयाखया करते थे। मेले मज़दूरों की भत्ती के िलए बेहतरीन सथान होते थे। िमसाल के िलए िबहार में सोनपुर का मेला आम तौर पर एजेंटों के िलए बहुत फ़ायदेमदं होता था।27 काम की व ा और ानो की जानकारी मानवतावािदयों और दासतािवरोधी संगठनों के सदसयों का तथा आगे चलकर इितहासकारों का यह सवाल रहा है िक कया िविभनन दीपों के गनने के खेतों में जो िकसान ले जाए गए, उनको उन सथानों और वहाँ काम की दशाओं का पूरा-पूरा इ्म था। क़ु िलयों को धोखे से भत्ती िकया जा रहा था और अिधकतर भत्ती करने वाली एजेंिसयों दारा उनका अपहरण भी िकया जाता था।28 लेिकन िविभनन सरकारी और ग़ैर-सरकारी रचनाओं में इसके बारीक बयोरे और पमाण पकािशत हुए िजनसे संकेत िमलता है िक मधय-19वीं सदी में िगरिमिटया पवास के और गनने के टापुओ ं के बारे में िकसान काफ़ी-कु छ जानते थे कयोंिक क़रार-पथा के तहत िवदेशगमन के दौरान िकसानों ने अपनी शबदावली िवकिसत कर रखी थी।29 िमसाल के िलए (recruiter के िलए) अरकटी या अक्वोटी शबद का और मॉरीशस के िलए िमररच शबद का पयोग उन क़रारबंद मज़दूरों दारा िकया जाता था जो अपने क़रार की मुदत पूरी करके मॉरीशस से वापस आ जाते थे।30 सन्1880 में जब मेजर िपचर और जॉजड ए िगयसडन क़रार-पथा पर िकसानों की भावनाओं और सोचों को समझने के िलए उनसे साकातकार ले रहे थे, तब संयक्त ु पांत और िबहार में ये शबद काफ़ी पचिलत थे।31 27 िगयसडन ररपोटड, अनुचछे द 71 : 15. िमसाल के िलए क़रारबंद क़ु ली पवास पर दासपथा िवरोधी िबिटश और िवदेशी सिमित के बयान, ि्रििटश ऐंड फॉरे न एंटीसलेवरी सोसायटी, लंदन, 1883 देख.ें 29 यहाँ इस बात को दजड करना अहम है िक गामीणों से मेजर िपचर और जाजड िगयसडन ने जो शबदाविलयाँ दजड की थीं वे िनि्चित ही एक लंबे काल में िवकिसत हुई होंगी. इसिलए अगर िपचर और िगयसडन ने 1882 में क़रार-पथा के संकेत देने वाले कु छ शबद सुने तो इसका मतलब यह हुआ िक िकसानों की शबदाविलयाँ चार या पाँच दशकों से अिधक समय में बन रही होंगी कयोंिक एक छोटी सी मुदत में कोई शबदावली लोकिपय नहीं हो सकती. 30 पहाड़ी क़ु िलयों से संबंिधत जाँच सिमित की ररपोटड, िबिटश पािलडयामेंटरी पेपसड, सत 1 (45), 1841 देख.ें 31 आरं भ-1880+ में पवास के मुखय सोत यािन गंगा की वादी के िलए दो अहम सिमितयाँ गिठत की गई ं. पि्चिमोतर पांत में मेजर डी.जी. िपचर से गहण-केतों का दौरा करके पवास संबंधी भावनाओं पर ररपोटड देने को कहा गया. िपचर ने देहातों में जो 28 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 103 उ र भारत की वास सं ृ त और िर म िया मजदूर | 103 दोनों ने पाया िक धारणा के सतर पर इन मंिज़लों का पहले ही ‘िकसानीकरण’ िकया जा चुका था। लगता है िक वरीयता का एक कम भी तैयार िकया जा चुका था। िमसाल के िलए िपचर ने िलखा है िक संयक्त ु पांत में लोकभाषा में डमरा या डमरैला कहे जानेवाले डेमरे रा पर ितिनदाद को वरीयता दी जाती थी िजसे ‘िचिनटाट’ कहा जाता था। जाने के िलए जमैका को भी ठीक समझा जाता था। 1883 के आरंभ में िफ़जी या नेटाल का जान कम ही था। इसका कारण यह था िक िफ़जी में पवास का आरंभ देर से, 1879 में, हुआ और नेटाल में बहुत से मज़दूर दिकण भारत से गए। मॉरीशस, यािन जनभाषा का िमररच, उतर भारत के िकसानों में लोकिपय था। िपचर ने देखा िक लोग हर उपिनवेश में वयवसथा की दशाओं, आवाजाही और मज़दूररयों के बारे में काफ़ी जानकारी रखते थे। िमसाल के िलए संिकप्त याता, ससती वापसी और िदहाड़ी की बजाय माहाना मज़दूरी की अदायगी के चलते पवासी मॉरीशस को वरीयता देते थे। लेिकन िपचर ने यह भी देखा िक कु छ केतों में मॉरीशस बदनाम हो चुका था। गोरखपुर के एक एजेंट ने कहा िक ‘क़ु ली कभीकभी कहते हैं िक वे िकसी भी टापू पर जाने के िलए तैयार हैं, मॉरीशस को छोड़कर।’ ऐसी भावनाएँ डेमरे रा या मॉरीशस के िलए कु छ केतों में मगर ‘फांसीसी उपिनवेशों’ के िलए हर जगह आम थीं। िपचर की राय में ऐसी भावनाएँ फांसीसी उपिनवेशों में शायद ‘आवारों की धर-पकड़’ के पुराने िदनों की यादगार थीं।32 िपचर ने देखा िक अनेक िशिकत भारतवािसयों की सोच यह थी िक ऐसे उजाड़ टापुओ ं को बसाने के िलए ये भितडयाँ की जा रही थीं जो अब भारत सरकार के िनयंतण में थीं, और यह िक जो वहाँ गए वे िफर कभी लौटकर नहीं आएँग।े 33 संयक्त ु पांत में देशी िडपटी कलेकटरों और पुिलस इंसपेकटरों का साझा िवशास था िक क़ु िलयों को सूअर और गौ का मांस िखलाया जाता है, पहले से एक गंदी सोच के तहत उनको उनकी जाित से वंिचत कर िदया जाता है और जबरन ईसाई बनाया जाता है। खुली अदालत में भी क़ु िलयों के सामने ऐसी राय रखी गई है।34 िबहार में िगयसडन ने पवास के बारे में लोगों की तरह-तरह की रायें दजड कीं। उनहोंने देखा िक िजन िज़लों में वापस आए लोग बसे हुए थे वहाँ पवास लोकिपय था। िगयसडन का झाड़ा हुआ उपदेश के िसट इंडलजेंस िसबी था और पवास करने वाला हर क़ु ली वापसी पर इसका देवदूत भी अचछा-बुरा देखा उसे दजड िकया. उनहोंने िद्ली और बनारस के बीच के इलाक़े में, जो कलकता के एजेंटों के िलए भत्ती का सबसे अहम केत बनकर उभर रहा था, पवास के पभाव पर महतवपूणड साकय पसतुत िकए. रहे जी. ए. िगयसडन तो उनको बंगाल से, और ख़ासकर िबहार से, पवास के बारे में एक ररपोटड देने को कहा गया. िगयसडन कोई साधारण अिधकारी नहीं थे, बि्क एक िवदान थे जो अपने नृजातीय और भाषाशासीय अधययनों के कारण अंतराडष्ीय पितषा पाप्त कर चुके थे। इसिलए उनके अधययन में काफ़ी सावधानी से सांिखयकीय सूचनाएँ दी गई थीं और असाधारण िदलचसपी की भाषाशासीय सामगी भी थी. 1880 के दशक में वे गया के कलेकटर थे जब उनहोंने िबहार के िकसान-जीवन पर एक भारी-भरकम अधययन पूरा िकया था. देखें शािहद अमीन (सं), अ कनसाइज़ इनसाइकलोपीिडया ऑफ़ नॉथ्न इंिडयन पेज़ंट लाइफ़ : 30, िद्ली : मनोहर. 32 िपचर ररपोटड, अनुचछे द 101 : 32. 33 उपरोक्त, अनुचछे द 61 :15. 34 उपरोक्त, अनुचछे द 62. 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 104 104 | िमान बन जाता था।35 संयक्त ु पांत में िपचर की ररपोटड यह थी िक अनेक सथानों पर देसी समुदाय की भावना नकारातमक थी कयोंिक अनेक लोगों ने इसकी कहािनयाँ सुनाई िक ं ‘क़ु ली चमगादड़ की 36 तरह सर झुकाए चलता है या तेल के िलए ज़मीन में गाड़ िदया जाता है।’ उपरोक्त िबंब के बारे में िबहार में िगयसडन ने भी कु छ सुना; इसे लोकभाषा में ‘िमिमआई का तेल’ (यािन िक क़ु ली के सर से िनकाला गया तेल)37 कहा जा रहा था। िफर भी िगयसडन ने देखा िक अनय सथानों पर लोग औपिनवेिशक पवास के तथयों से बख़ूबी पररिचत थे: ‘एक क़ु ली पाँच साल के िलए बाहर जाता है; वह अगर वहाँ दस साल रह ले तो वापसी का मुफ़त िटकट पा जाता है, उसके साथ अचछा सुलक ू होता है, उसकी जाित का सममान िकया जाता है, और वह अमीर बनकर घर लौटता है।’ कु छ िज़लों में जहाँ वापस आए लोग बसे हुए थे, लोग ‘िमिमआई का तेल’ वाले िक़ससे में यक़ीन नहीं करते थे और इसे झूठ मानते थे।38 ‘िमिमआई का तेल’ वाले िक़ससों पर उस काल के एक काटूिड नसट ने भी धयान िदया था। जॉजडटाउन में इसीिलए एक चीनी सकू लमासटर ने एडवडड जेंिकनस को एक काषिचत (िचत 1) पसतुत िकया जब वे क़ु ली शिमकों के हालात पर एक िकताब िलखने के िलए िबिटश गुयाना के दौरे पर थे। िचत-1 िमिमआई का तेल: गनने के एक बाग़ान में जीवन : एक िगरिमिटया मज़दू र की नज़र में सोत: एडवडड जेंिकनस, द कु ली : िहज़ राइट् स ऐंड रॉन्स, पृ.10, लंदन, स्ैहन ऐंड कमपनी 35 िगयसडन ररपोटड, अनुचछे द 81 : 18. िपचर ररपोटड, अनुचछे द 62 : 15. 37 िगयसडन ररपोटड, अनुचछे द 83 : 19. 38 िगयसडन ररपोटड : 17-18. 36 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 105 उ र भारत की वास सं ृ त और िर म िया मजदूर | 105 जेंिकनस ने इस काटूडन की वयाखया यूँ की : यह िचत एक मैनेजर के , ई ंट के खंभों पर खड़े मकान का बड़ा ही सटीक िचतण है। िचत के िनचले भाग में बाएँ हाथ पर अपने मवेशी हाँक रहा एक क़ु ली है। दािहने हाथ पर एक देहाती िसपाही एक दुखी चुिटयाधारी को कटघरे में बंद करने के िलए पकड़ रहा है; जैसा िक हम देख सकते हैं, वह ठीक ऊपर के झुडं से बाहर है और उसके हाथ खुले हुए हैं। इससे संकेत िमलता है िक वह क़रार की पाबंिदयों से बचना चाहता है और इसिलए वह सज़ा का हक़दार है। उसके ऊपर, िचत में दािहनी ओर, एक समूह चीिनयों का है, और सीढ़ी की बाई ं तरफ़ एक समूह भारतीयों का है, िजनका हाथ बँधा िदखाया गया है जो िक िगरिमट का पतीक है। वे जब क़रार के तहत होते हैं तो हमेशा सवयं को ‘बँधे हुए’ कहते हैं। सीिढ़यों के दोनों तरफ़ एक चीनी और एक क़ु ली हैं िजनकी छाितयों से दो डाइवर चाक़ू से ख़ून िनकाल रहे हैं और इस जीवन-द्रव को बसती के लड़के शराब के िगलासों में भर रहे हैं। एक लड़का इन िगलासों को सीिढ़यों के ऊपर एटॉन्ती और मैनेजर तक लेकर जा रहा है जो बरामदे में बाई ंतरफ़ बैठे हुए हैं और जो ज़ािहर है िक नीचे वाले बँधआ ु लोगों की क़ीमत पर मोटे हो रहे हैं। एक मोटी पतनी और बचचे िखड़िकयों से बाहर झाँक रहे हैं। पीछे दीवार में एक दरार के रासते इंगलैंड के ख़ुश-ख़ुरडम और सेहतमंद मािलकों को िदखाया गया है; दािहनी तरफ़ पेड़ के नीचे, बाड़ में एक िझर्ती के रासते उमदार चीनी नज़र आ रहे हैं जो अपने बदनसीब रर्तेदारों का मातम कर रहे हैं। बरामदे के दािहने कोने में तनखवाह की मेज़ है िजस पर मज़दूररयाँ रोकने पर चचाड करते हुए और उसका इंितज़ाम कर रहे ओवरिसयर बैठे हुए हैं। रसोई की धुआँ देती िचमनी और अपना राितब खा रहे घोड़े का मक़सद सामने के र्य का िवपयडय पसतुत करना है। इस तरह यह क़ु ली वयवसथा के तहत उठ सकनेवाली तकलीफ़ों के भावातमक और वयंगयातमक पक को िचतमय ढंग से सामने रखता है।39 िमिमआई के तेल वाली अफ़वाह, हो सकता है, िक बाग़ान में नौजवान और तंदरुु सत मज़दूरों की माँग से पैदा हुई हो। पलांटरों ने पवास की एजेंिसयों और भत्ती कराने वालों के िलए पवासी शिमक की क़द-काठी के बारे में िनद्गेश जारी कर रखे थे। इसिलए उमदार िसयों और पुरुषों के बारे में आपितयों तथा नौजवान और तंदरुु सत पवािसयों की माँग ने इस अफ़वाह का आधार तैयार िकया िक इतना क़ीमती तेल िसफ़ड जवानों और बचचों के सरों से िनकाला जा सकता है। िमिमआई के तेल वाली अफ़वाहों तथा िगयसडन की कु छ अंतरडि्टियों और उनके सांसकृ ितक भाषाशास को उपनयासकार अिमताव घोष ने पीछे 1830+ तक ले जाकर उस अजीब+ग़रीब भीड़ वाले जहाज़ पर कें िद्रत िकया है जो उनके उपनयास सी ऑफ़ पॉपीज़ (2009) का मंच है। घोष िलखते हैं : 39 एडवड् डस जेंिकं स, िहज़ राइट् स ऐंड रॉनगस, 10-13, नयू यॉकड . मैंने इस काटूडन को ‘िमिमयाई का तेल’ नाम िदया है, कयोंिक मैं समझता हूँ िक 19वीं सदी के दौरान उतर भारत में लोगों ने िजस पिकया की क्पना की वह वही थी िजसको बाग़ान का जीवन दशाडने के िलए जेंिकं स ने पसतुत िकया है. इस िचत को एलन. एच. एडमसन (1972), येल युिनविसडटी पेस में मुखिचत के रूप में पकािशत, शुगर िवदाउट सलेव : द पॉिलिटकल इकॉनमी ऑफ़ ि्रििटश गुयाना, िकया गया है. 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 106 106 | िमान अफ़वाहों में सबसे डरावनी अफ़वाह इस सवाल पर िटकी हुई थी िक गोरे भला बुिदमान, जानकार और अनुभवों से समृद लोगों के बजाय िसफ़ड जवानों और बचचों की भत्ती पर कयों ज़ोर दे रहे थे: इसका कारण यह था िक वे एक ऐसे तेल के तलबगार थे जो िसफ़ड इंसानों के िदमाग़ में पाया जाता है – यािन िक बहुत पसंद िकया जाने वाला िमिमआई का तेल िजसके बारे में कहा जा रहा था िक यह सबसे अिधक उन लोगों के सरों में पाया जाता है जो अभी हाल में बािलग़ हुए हों। इस पदाथड को पाने का ढंग यह था िक िशकारों को एड़ी से बाँधकर उलटा लटका िदया जाए और उनकी खोपिड़यों में छोटे-छोटे सूराख़ कर िदए जाएँ; इस ढंग से तेल धीरे -धीरे ररसकर एक तसले में जमा हो जाता है।40 (पृ.340) गँवई बातचीत में पवास की ‘हािन’ एक और ढंग से भी सामने आती थी। िमसाल के िलए, िगयसडन ने देहातों में यह बात सुनी थी िक ‘पररवार में झगड़े के बाद अगर िकसी का बेटा या भाई लापता हो जाए और िफर उसके बारे में कु छ सुनने को न िमले तो फ़ौरन यह नतीजा िनकाल िलया जाता है िक वह ‘टापू’ पर चला गया है और िफर उनकी कोई िफ़क नहीं की जाती।’ िगयसडन कहते हैं िक ‘इस तरह से उपिनवेशों को एक ऐसा कालकोठरी माना जाता है िक वहाँ जाने वाला हर शखस खो जाता है, और इसिलए वे ऐसी जगहों के रूप में बदनाम हो चुके हैं जहाँ एक बार कोई शखस गया िक उसके बारे में कु छ जानकारी िमलने की उममीद दस आने में एक आना ही रहती है।’41 िगयसडन ने पवािसयों और उनके भारत में रह रहे रर्तेदारों के बीच भारी पत-वयवहार देखा, लेिकन अजीब बात यह है िक उनहोंने ऐसे पतों के नमूने पेश नहीं िकए। बाप-दादा की ज़मीन से जज़बाती लगाव और पाररवाररक रर्ते अनेकों बार पवास में बाधक बन जाते थे। कु छ लोगों ने िगयसडन को बतलाया िक ‘जनमभूिम’ को छोड़ना बहुत मुि्कल होता है, लेिकन उनहोंने अपने गाँवों में जाित-पथा के दमघोंटू िनयमों के संदभड में पवास के सकारातमक पहलुओ ं का वणडन भी िकया। इस तरह उनहोंने िगयसडन के सामने इस बात को सवीकार िकया िक ‘जहाज़ के डेक पर एक शखस कु छ भी खा-पी सकता है कयोंिक जहाज़ तो जगननाथ के मंिदर समान होता है जहाँ जात-पात की पाबंिदयाँ नहीं होतीं।’42 िफर भी, जैसा िक िगयसडन ने गया में देखा, कु छ मुआमलों में ‘जो लोग नहीं जानते हैं, वे क़ु िलयों को गाली देते थे िक वे देश छोड़ चले गए, और उनहोंने िमिमआई का तेल वाली कहानी भी दोहराई।’ यहाँ भी िगयसडन ने देखा िक एक आम िवशास यह था िक ‘उपिनवेशों में क़ु िलयों को गौमांस िखलाया जाता और ईसाई बना िलया जाता है, और यह भी िक उनको िफर वापस लौटने नहीं िदया जाएगा।’43 अपनी पूरी छानबीन के दौरान िगयसडन ने पवास पर मु्की लोगों की आपितयों को भी सुना। जो पहली आपित उनहोंने सुनी वह लंबी मुदत के क़रार और घर से दूरी के बारे में थी। 40 41 42 43 अिमताव घोष (2009), सी.ऑफ़ पॅपीज़ : 340. िगयसडन ररपोटड, अनुचछे द 82 : 18. उपरोक्त : 19. उपरोक्त, अनुचछे द 83. 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 107 उ र भारत की वास सं ृ त और िर म िया मजदूर | 107 लोग जब उपिनवेशों में पहुचँ जाते थे तो कई दफ़े वे भारत में अपने पररवारों से रर्ते जारी नहीं रख पाते थे। एक और आपित जात-पाँत में हसतकेप को लेकर होती थी। लोगों को जबरन ईसाई बनाए जाने का डर लगा रहता था। िपचर और िगयसडन से कु छ लोगों ने उपिनवेशों में धािमडक घृणा के चलते उनके उपासना के ढंग को हतोतसािहत िकए जाने की िशकायत भी की, और भारत छोड़नेवालों की तरफ़ से खबरें कम िमलने के कारण वे लोग इस पूरी वयवसथा को धोखाधड़ी समझते थे।44 िकसी भरोसेमदं डाक-वयवसथा का अभाव ऐसे संदहे ों और नकारातमक सोच को बढ़ावा देता था। लोगों ने िगयसडन से िशकायत की िक पीछे ‘मुलक ु ’ में दोसतों-यारों को पवािसयों की ‘याद िदलाने वाली’ कोई चीज़ नहीं थी। डु मराँव राज के पबंधक राय जयपकाश बहादुर की िशकायत यूँ थी : जब एक इंसान बाहर जाता है तो उसके दोसतों-यारों को कभी पता नहीं रहता िक वे िफर उसको कब देखगें े। उपिनवेशों और भारत के बीच संचार लगभग नहीं के बराबर है। िचरटयाँ आती हैं, लेिकन उनकी कम संखया ही िकसी गाँव में क़ु िलयों की उस भारी संखया का पता देती है िजनके बारे में कोई जानकारी नहीं िमलती।45 वापस लौटे कु छ पवािसयों ने िगयसडन को बतलाया िक वे तो िचटी भेजते रहते थे पर कभी जवाब नहीं पाते थे कयोंिक भारत में उनके पररजन और िमत उनके पते नहीं जानते थे, और न लौटनेवाले क़ु िलयों के यार-दोसत कहते थे िक उनको तो जानेवालों की कोई ख़बर ही नहीं िमल रही थी।46 उपिनवेशों से, सीिमत संखया में सही, क़रारबंद मज़दूर िनि्चित ही िचरटयाँ और रक़में भेजते रहते थे। (तािलका 2 और 3 देख।ें ) िगयसडन ने 13 जनवरी को अपनी डायरी में िलखा िक ‘दो साल पहले एक सोनार मॉरीशस से वापस लौटा और उसने मीर कुं गरा को बतलाया िक उनका बेटा िज़ंदा था और ख़ैररयत से था। मीर ने िफर उसको एक रिजसटडड पत भेजा लेिकन यह िबन-बँटे पतों के दफ़तर से वापस आ गया। लोगों ने उनसे कहा िक वे ख़त तो भेज रहे हैं पर यह अपनी मंिजल पर पहुचँ गे ा नहीं, कयोंिक ऐसे ख़त कभी नहीं पहुचँ ते। मीर को उनकी बात पर यक़ीन नहीं आया, पर पता यही चला िक उनकी बात सही थी।’47 मैंने िफ़जी के बा िज़ले में िसराजुदीन नाम के एक िगरिमिटया का ऐसा ही एक बे-बँटा पत देखा जो कैं पबेलपुर (पंजाब) से गए हुए थे। िसराजुदीन का यह खोया हुआ पत िचत 2 में िदया गया है। 44 45 46 47 िपचर ररपोटड, अनुचछे द 82-85 : 37. िगयसडन ररपोटड, 9 जनवरी की डायरी : 42. उपरोक्त. उपरोक्त. 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 108 108 | िमान तािलका-2 उपिनवेशों से आए हुए पतों सोत: िगयसडन ररपोटड, अनुचछे द 155, पृ. 37 : ख़ाली सथानों के आँकड़े उपलबध नहीं हैं। तािलका-3 प्रवािसयों दारा भेजी गई रक़में उपिनवेश का नाम 1873 और 1882 के बीच भेजी गई मोटा-मोटी रक़म िजसे कलकता िसथत एजेंट के ज़ररए भारतीय रुपयों में अदा िकया गया। 1882 में भेजी गई मोटा-मोटी रक़म िजसे कलकता िसथत एजेंट के ज़ररए भारतीय रुपयों में अदा िकया गया पतयेक 1,000 क़ु िलयों पर भेजी गई मोटा- मोटी रक़म का अनुपात मॉरीशस 38,541 13,536 54.5 डेमरे रा 39,656 10,211 116 ितिनदाद 27,380 11,905 292 नेटाल 8,217 3,348 134 सूरीनाम 1,540 1,016 254 सोत: िगयसडन ररपोटड, अनुचछे द 155, पृ. 38 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 109 उ र भारत की वास सं ृ त और िर म िया मजदूर | 109 िचत-2 पते के ख़ाने में दो असामानय प्रिवि्टियाँ िटपपणी: िगरिमिटया लोगों ने एक अज़्ती भी दी थी िक डाकख़ाने में एक भारतीय िनयुक्त िकया जाए जो पोसटकाड्टों पर सही-सही पते िलख दे।48 भारत लौटने से पहले रामचंद्र राव ने, जो िफ़जी में एक िगरिमिटया थे और 1920 व 1930 के दौरान अवध के एक मशहूर िकसान नेता थे, बा िज़ला के िगरिमिटयों की तरफ़ से डाकख़ाने में िहंदोसतानी जाननेवाले िकसी कलकड की िनयुिक्त के बारे में िनमनिलिखत पाथडनापत िदया था।49 48 कोलोिनयल सेकेटरी ऑिफ़स िमनट पेपसड [आगे से : सीएसओएमपी], 10293/1914, िफ़जी राष्ीय अिभलेखागार [आगे से: िफ़ रा]. 49 सीएसओएमपी, 10293/1914, िफ़ रा. इस पत में िलखनेवाले का नाम नहीं िदया गया है लेिकन पत में िलखावट वही है जो (भारत में बाबा रामचंद्र के नाम से मशहूर) रामचंद्र राव की हसतिलिखत पांडुिलिप की है. वे इस पत पर हसताकर करने वालों में से थे, और इससे पुि्टि होती है िक यह पत उनका ही िलखा हुआ था. 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 110 110 | िमान िचत-3 डाकख़ाने में एक िहंदोसतानी जाननेवाले दोभािषए की िनयुि्ति के िलए भारतीय क़रारबंद मज़दू रों की अज़्ज़ी 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 111 उ र भारत की वास सं ृ त और िर म िया मजदूर | 111 दी ऑनरबल दी कोलोिनयल सेकेटेरी सूवा, िफ़जी हम बा िज़ले के िहंदोसतानी आपसे यह पाथडना करते हैं िक यहाँ हमारे लोगों की एक बड़ी तादाद रहती है। हम अपने घर आसानी से ख़त, पासडल और मनीऑडडर नहीं भेज पाते। शी माकसड सथानीय डाकख़ाने के इंचाजड हैं और दो लोग, एक युरोप का और एक भारत का, उनके सहायक हैं। भारत वाला यहाँ छ: माह रहा और उस दौर में हमें डाक भेजने में िकसी भी तरह की कोई परे शानी नहीं हुई, पर अब िसफ़ड युरोप वाला रह गया है और भारत वाला कहीं और भेज िदया गया है। युरोप वाला िहंदोसतानी नहीं समझ पाता। हम िज़ले और थाने के नाम बोलते हैं तो वह कु छ और िलख देता है; इस तरह हमें घर को डाक वग़ैरह भेजने में भारी परे शानी हो रही है; एक िहंदोसतानी दोभािषए के न होने से हम बहुत क्टि उठा रहे हैं। यह एक बड़ा िज़ला है जहाँ भारी तादाद में आज़ाद और क़रारबंद भारतीय रह रहे हैं। इन हालात में हम गुज़ाररश करते हैं िक सरकार शी मान को हमारी िशकायतों के िनबटारे के िलए ज़रूरी क़दम उठाने की िहदायत दे या सरकारी पोसट ऑिफ़स बनाए। जब तक एक िहंदोसतानी दोभािषया रहा, हमें कोई क्टि नहीं हुआ, पर उसके न होने पर भारी असंतोष फै ला हुआ है। आपकी कृ पा के िलए हम हमेशा आपके आभारी रहेंगे। जनाबे-आला, हम हैं आपके अतयंत आजाकारी सेवक, बा के 57 भारतीय तजुडमा िहममत..... 1 िदसंबर, 1914 20वीं सदी के आरमभ में उपनयासकार मननन िदवेदी गज़पुरी ने अपनी रचना रामलाल में, िजन लोगों के पररजन बाहर जा चुके हैं उनके िलए, पतों और डाक-वयवसथा की अहिमयत पर रोशनी डालते हैं। आज बुधवार है। पवािसयों के माता-िपता और पितनयाँ डािकये की राह देख रहे हैं। लाल पगड़ी, एिड़यों में पटा और कं धे से चमड़े का थैला लटकता हुआ। यह कोई मामूली थैला नहीं है। यह लोगों के सुखों और दुखों का ख़ज़ाना है। यही (थैला) तो है जो रंगनू , कनाडा, नेटाल और मॉरीशस जैसे दूरदराज़ के मु्कों में ग़रीबों के पसीने की कमाई लेकर आता है।50 50 मननन िदवेदी गज़पुरी (1917), रामलाल: गामीण जीवन का एक सामािजक उपनयास, पृ. 26-27, पयाग. मूल िहंदी पाठ: ‘आज बुध है. परदेिसयों के माता-िपता और पतनी िचटीरसा साहब का रासता देख रहे हैं. सर पर लाल पगड़ी, पैर में पटी, कं धे पर चमड़े का बैग लटक रहा है. यह बैग नहीं है, यह लोगों की आशा और िनराशाओं का ख़ज़ाना है. दूर देश रं गनू , कनाडा, 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 112 112 | िमान िचत-4 नेटाल में सुलतानपुर के एक िगरिमिटया मजदू र की उदू दू में िलखी गई अज़्ज़ी, भारत में अपने पररवार तक पैसा पहुच ँ ने की पुि्टि की माँग करते हुए परदेस के बाग़ान से क़रारबंद मज़दूरों दारा भेजी गई रक़मों के बारे में गज़पुरी के उपनयास की सचचाई सरकारी डाक-वयवसथाओं के ज़ररए मज़दूरों दारा भेजे गए बहुत से दूसरे पतों से जानी जा सकती है। 1880 में सु्तानपुर (संयक्त ु पांत) से डरबन (नेटाल) गए एक भारतीय िगरिमिटया मज़दूर, नामी िसव परसाद, ने 50 पाउंड भेजे और कलकता में पवािसयों के संरकक और पवास के एजेंट ने उसकी रसीद भी दी। मज़दूर ने एक पत भेजकर भारत िसथत अपने पररवार से रक़म िमलने की पुि्टि करनी चाही पर वह तो दो साल बाद भी नहीं पहुचँ ा नटाल और मॉरीशस में गरीबों के रक्त के कमाए हुए रुपये भी इसी में आते हैं’. इस उदरण और गोरखपुर के चौरी-चौरा में और आसपास के गाँवों में भेजी गई रक़मों, मनीऑडडरों और पोसटकाड्टों की िववेचना के िलए देख,ें शािहद अमीन, इवेंट, मेटॉफर, मेमोरी, चौरी-चौरा, 1922-1992, ऑकसफ़डड युिनविसडटी पेस, नई िद्ली : 36-37. 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 113 उ र भारत की वास सं ृ त और िर म िया मजदूर | 113 िचत-5 नेटाल बैंक की एक हुंडी के बारे में काली प्रसाद का एक नोट 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 114 114 | िमान था। िसव परसाद के पत की पित िचत 4 में दी गई है51 : एक और िमसाल नेटाल से काली पसाद के िलखे हुए एक नोट की है। उनहोंने नेटाल बैंक की 10 पाउंड की एक हुडं ी आरा (िबहार) के अछै बर िसंह को भेजी थी िजसने उसे मुकंु द लाल को बेच िदया था। लेिकन मुकंु द लाल उसे भुना नहीं सका और उसे वापस अछै बर िसंह को बेच िदया। अछै बर िसंह ने िफर कलकता में राम खेलावन को पत िलखकर पूछा िक कया वह इसे भुना सकता है और पैसा उसे (अछै बर िसंह को) भेज सकता है, या िफर उसे काली परसाद को वापस नेटाल भेज सकता है। देसी भाषा का यह नोट िचत 5 में िदया गया है।52 ये िचरटयाँ और रक़में इस बात की पुि्टि करती हैं िक एिशया, पशांत और कै रीिबयन दीपों के गनना बाग़ान में काम कर रहे भारतीय िगरिमिटया मज़दूर भारत में अपने घरवालों के संपकड में रहते थे। उनके जीवन के िलए ये रक़में भारी सहारा और उममीद का ज़ररया थीं। उतर भारत के िकसान के रोज़मराड के जीवन पर इस समंदरपारी पवास का असर इतना गहरा था िक संयक्त ु पांत के मशहूरे-ज़माना उपनयासकार मुश ं ी पेमचंद तक ने िमररच या डमरा गए लोगों के ख़त पाने की इस िचंता पर अपनी बात कही : गोबर ने पूछा, ‘दादा को कया हुआ अममाँ?’ … बोली, ‘कु छ नहीं बेटा, ज़रा सा सर में ददड है। चलो कपड़े उतारो, मुहँ धो लो। कहाँ थे तुम इतने िदनों तक? और इस तरह कोई घर से भागता है! और कभी एक िचटी नहीं िलकखी! … कोई कहता था िमररच भाग गया, कोई डमरा टापू बताता था। सुन-सुनकर जान सूखी जाती थी। कहाँ रहे इतने िदन?’ गोबर ने शमाडते हुए कहा, ‘कहीं दूर नहीं गया था अममाँ; यहीं लखनऊ में तो था।’53 वापस आने वािे िोि और वास का तं क़रारबंद पवास उतर भारत में वापस लौटने वाले उन लोगों के कारण एक सुपररिचत पवृित बन गया जो अपने गाँव के लोगों को इस वयवसथा, उपिनवेशों में काम के हालात वग़ैरह के िक़ससे सुनाया करते थे। वैसे तो वापस लौटने वालों की संखया बहुत थोड़ी थी, पर िबिटश उपिनवेशों में हालत फांसीसी उपिनवेशों से बेहतर थी। तािलका 4 से 1883 में यह काम शुरू होने तक कलकता से िविभनन उपिनवेशों में जानेवालों की और उन उपिनवेशों से लौटनेवालों की कु ल संखया का पता चलता है : 51 एिमगेशन एजेंट रे िमटनसेज़ फॉम नेटाल (1881-1884), इंिडयन एमीगेशन [आगे से : आई आई], बी 1/8, नेटाल आकाडइवस िडपो [आगे से : ने आ], पीटर माररट् ज़बगड. 52 उपरोक्त, आय. आय. बी 1/8, ने आ. 53 पेमचंद (1936), गोदान, पयाग, पुनमुद्रड ण : वाणी पकाशन, नई िद्ली, 2008 : 212 देख.ें 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 115 उ र भारत की वास सं ृ त और िर म िया मजदूर | 115 तािलका-4 क़रार-प्रथा : शुरू से 1883 तक उपिनवेशों से कलकता आने और वापस जाने वाले54 उपिनवेश मॉरीशस डेमरे रा ितिनदाद जमैका गेनाडा सेंट ्यूिशया सेंट िकट् स सेंट िवसेंट नेिवस नेटाल िफ़जी सेंट कोइकस रीयूिनयन सूरीनाम गवादलूप कायेन माितडिनक योग वहाँ गए 232.802 126,656 66,769 21,434 3,220 2,534 361 2,275 342 14,214 1,420 312 8,115 6,792 13,854 1,427 962 503,489 वहाँ से वापस आए 80,007 15,727 7,190 5,188 214 162 — 680 — 517 — 250 985 708 169 — 46 111,843 िपचर और िगयसडन की छानबीन ने उपिनवेशों में काम के हालात के बारे में उतर भारत के गामीणों के सकारातमक और नकारातमक दोनों नज़ररयों के होने के संकेत छोड़े हैं। िमसाल के िलए 15 माचड, 1882 को िपचर ने अपनी डायरी में िलखा िक कैं प बयूकस में उनहोंने पागिसंह का इंटरवयू िलया और उनको पवास से काफ़ी-कु छ पररिचत पाया। पागिसंह ने कहा िक के वल अजात का डर ही लोगों को इस याता से दूर रखता था। इसका कारण यह समझ था िक पवास करने वाले लोग ‘बेधरम’ हो जाते थे, इसिलए िक जहाज़ के डेक पर उनको एक ही थाल में दूसरी जाितयों के लोगों के साथ कु छ खाने पर मजबूर िकया जाता था। यह भी िक उपिनवेशों में पहुचँ ने के बाद उनको जबरन ईसाई बनाया जाता था।55 िपचर की डायरी के कु छ और अंश नीचे िदए जा रहे हैं : 54 55 िगयसडन ररपोटड, पररिश्टि : 10. िपचर डायरी : 66. 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 116 116 | िमान 16 माचड – दोपहर में आदमपुर के गंगादीन िमश, जो िक डेमरे रा से लौटे हुए पवासी हैं, मुझसे िमलने और अपनी कहानी सुनाने आए... अपनी याता का अजीब सा बयान िकया: िक कै से वे िसफ़ड काला पानी नहीं बि्क सुफ़ैत, लाल, नीला और हरा पानी के पार भी गए। सेंट हेलेना का और समंदरी तूफ़ान के दौरान क़ु िलयों में फै ली दहशत का िज़क भी िकया। डेक पर िमले अचछे और भरपूर भोजन का भारी गुणगान िकया। बािबडस में बड़े ख़ुश थे लेिकन िकसी औरत को लेकर झंझट में फँ स गए जो 250 रुपये लेकर चंपत हो गई। 30 माचड – पंजीकरण के बारे में... एजेंटों के काररं दों का इंटरवयू िकया। मुखय िशकायत मिजस्ेट दारा शबद ‘काला पानी’ के इसतेमाल के बारे में थी। क़ु ली जब मिजस्ेट साहब को काला पानी की बात करते सुनता है तो ख़ुद से कहता है – ‘कया! हमने कया कसूर िकया िक हमको काला पानी सुनाते हैं?’ तब वह भाग जाता है। 23 िदसंबर, 1882 – वापस आए पवासी छे दी ने डेमरे रा के बारे में उतने ही उमदा शबदों में बात की। छे दी का कहना था िक डेमरे रा में औरत की कमी अके ली समसया थी.... बोला िक वह ख़ुशिक़समत रहा िक सफ़र से पहले जब वह िडपो में था तो एक मुसलमान औरत िमल गई िजससे उसने सगाई यािन िक कामचलाऊ बेक़ायदा शादी कर ली। 6 जनवरी, 1883 – मॉरीशस से लौटे हुए क़ु ली ननहकू से भी िमला... वहाँ 12 साल रहा; मॉरीशस दुिनया की सबसे सुंदर जगह; लेिकन औरतों की कमी तो है। अगर कोई कहे िक उसे ईसाई बनाने की कोिशश की गई तो (भारी ज़ोर देकर) झूठा है। वहाँ बहुत सारे (‘ढेरों’ के िलए िकयोल शबद का पयोग) पादरी हैं, यािन िक िहंदओ ु ं के िलए पुजारी हैं। बहुत सारे भगत भी हैं। िगयसडन कहते हैं िक छड़े मद्टों का पवास समुद्रपारीय याता का एक बड़ा दोष है। लेिकन साथ ही साथ वे यह भी कहते हैं िक वापस आने वालों ने िकस तरह साथी गामीणों को बाग़ान के िलए भेजने में मदद पहुँचाई। वे िबहार के शाहाबाद िज़ले के एक राजपूत पररवार की िमसाल पेश करते हैं िजसमें मॉरीशस से लौटे हुए दो राजपूतों, यािन िक अजोधया िसंह और सवररका िसंह, के साथ पूरा पररवार बाहर चला गया।56 मरीना काटडर और िकिसपन बेट्स ने अपनी रचनाओं में इसका िज़क िकया है िक पवास की पिकया में ऐसे तंत अहम भूिमका िनभाते थे।57 मरीना काटडर ने उपिनवेशों में पवािसयों तथा उनके रर्तेदारों या गाँव वालों के बीच एक जीवंत कड़ी के रूप में वापस लौटने वालों की भूिमका पर ज़ोर िदया है। काटडर ने इसे रामासवामी के हवाले से, िजनके िपता मेकेन (मकखन) 1843 में मॉरीशस चले गए थे, िदखाया है। वापस लौटने वाले लोग अनेक अवसरों पर रामासवामी से िमलने आते थे और उनके िपता के भेजे हुए पैसे और संदेश लाकर देते थे। रामासवामी से संपकड 56 िगयसडन ररपोटड, अनुचछे द 143 : 33. मरीना काटडर (1995), सव्वेंट, सरदासड ऐंड सेटलसड, ऑकसफ़डड युिनविसडटी पेस, नई िद्ली; िकिसपन बेट्स, और मेरीना, काटडर (2012), ऐंसलवेड लाइफ़, ऐंसलिवंग लेबलस : ए नयू एपोच टू द कोलोिनयल इंिडयन लेबर डायसपोरा, सुकनया बनज्ती, एमस मैकिगवनीज़ और सटीवन सी मैक-के दारा संपािदत, नयू रुट् स फ़ॉर डायसपोरा सटडीज़, इंिडयाना, इंिडयाना युिनविसडटी पेस में संकिलत. 57 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 117 उ र भारत की वास सं ृ त और िर म िया मजदूर | 117 करने वालों की तरह वापस आनेवालों की इन गितिविधयों के चलते नए पवािसयों को पवास का एक और भी सप्टि उदे्य पाप्त होता था, और क़रारबंद भत्ती के औपचाररक ढाँचों के अंदर पवास की एक अनौपचाररक, समपकड कड़ी, जैसा की कांगनी पथा में था, कारगर ढंग से काम करने लगती थी।58 पुरष-स ा के और शा त बंधनो से मु पवासी िसयाँ क़रारबंद पवास को संभवत: पुरुष-सता के दमन से बाहर िनकलने का एक रासता समझती थीं। क़रार-पथा के तहत िसयों के पवास की इितहासकारों ने तरह-तरह से वयाखयाएँ की हैं। िमसाल के िलए पी.सी. एमर का िवशास था िक क़रार िसयों के िलए ‘अपने आपको भारत की अनुदार, पितबंधक और बहुत ही ऊँच-नीच से भरी समाज-वयवसथा से मुक्त करने’ का एक रासता था। इस िसथित में, जैसा िक रोडा रे डक का तकड था, बाग़ान का पररवेश िसयों को उनकी अपनी पसंद का जीवन जीने का एक अवसर पदान करता था। उनकी राय में, ‘िसयाँ अब अपनी पसंद से जी सकती थीं, एक पित छोड़कर दूसरे को अपना सकती थीं, और एक ही समय में एक से अिधक पुरुषों से संबंध रख सकती थीं।’59 इनके िवपरीत बील का तकड है िक क़रार-पथा ने ‘िसयों को सवतंत सामािजक और यौन कामनामय पािणयों के रूप में जीने का कोई अवसर पदान नहीं िकया’; िसयाँ बि्क ओवरिसयरों के यौन उतपीड़न की और भारतीय पुरुषों के बीच पितसपधाड की वजहें थीं।60 एक और सतह पर के ि्वन िसंह ने यह तकड िदया है िक ितिनदाद में औपिनवेिशक क़ानूनों ने इस बात को रे खांिकत िकया िक क़रारबंद पुरुषों की पितनयाँ अपने पितयों पर िनभडर नहीं थीं और इसिलए उनको अपनी रोज़ी की तलाश ख़ुद करनी पड़ती थी। इस क़ानून के अनुसार ‘िजस क़रारबंद सी का पित जेल में या हसपताल में हो, उसे दोसत या रर्तेदार राहत नहीं दे सकते थे।’61 बृज लाल ने भी बाग़ान में क़रारबंद िसयों की ‘बेइज़ज़ती’ संबंधी चेतना पर ज़ोर िदया है, और कुं ती पकरण को सी होने से जुड़े रूढ़ िवशासों के िख़लाफ़ एक पितरोध के रूप में दशाडया है।62 जॉन डी के ली का तकड है िक मज़दूर बाग़ान में पाररवाररक जीवन िजएँ, पलांटर ऐसा नहीं चाहते थे। लेिकन जैसा िक मेरीना काटडर ने संकेत िदया है, बाग़ान वाले उपिनवेशों में 58 मरीना काटडर (1995), पूव्वोक्त : 59. पी.सी. एमर (1985), पूव्वोक्त : 247.; रे डक, रोड, (1985) फीडम िडनाइड : इंिडयन वूमन ऐंड इनडेनचरिशप इन ऐंड ितिनदाद और टोबैगो (1845-1917), इकनॉिमक ऐंड पॉिलिटकल वीकली, 20 (43) : 84-85. 60 बील, जे, 1990,िवमेन अंडर इनडेनचर इन कोलोिनयल नेटाल , 1860-1911, सी.कलाकड आिद दारा संपािदत साउथ आिसआन ओवरसीज में संकिलत. 61 के ि्वन िसंह (1985), इंिडयंस ऐंड लाज्नर सोसाइटी, ला गुएरे , फॉम कलकता टू करोिन ऐंड इंिडयन डायसपोरा, में संकिलत : 45, ि्रििनदाद : द युिनविस्नटी ऑफ़ वेसट इंडीज़. 62 बृज. वी. लाल, (1985), कुं ती काय : इंडेचड्न, िवमेन ऑन िफ़जी पलांटेशनस, इंिडयन इकनॉिमक ऐंड सोशल िहस्ी ररवयु, 42 (1) : 71.; बृज वी, लाल (1985), वील ऑफ़ िडसॉनर : सेकसुअल जेलसी ऐंड सुसाइड ऑन िफ़जी पलांटेशनस, जनडल ऑफ़ पैिसिफ़क िहस्ी 10 : 154-55. 59 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 118 118 | िमान पाररवाररक जीवन पूरी तरह ग़ायब नहीं था। काटडर के अनुसार भारत की क़रारबंद िसयाँ अकसर-बेशतर बसाव वाले इलाक़ों की आिधकाररक वयवसथा से बाहर एक सथायी जोड़ा बना ही लेती थीं।63 अपनी छानबीन के दौरान िगयसडन को इस वयापक िवशास का पता चला िक भत्ती करने वाले लोग सीधी-सादी िसयों से धोखा करके उनको वे्या बना देते थे। एक िशिकत वयिक्त ने िगयसडन पर भरोसा करके यह बतलाया िक ‘एजेंट और उनके आदमी ग़रीब, यहाँ तक िक सममािनत, पररवारों की भी बीिवयों और बेिटयों को फु सलाकर भगा ले जाते थे।’64 उनहोंने पाया िक ऐसे िवशास उन इलाक़ों में पचिलत थे जहाँ पवास का कोई ख़ास जान नहीं था। िगयसडन ने िसयों की उन शेिणयों के बारे में पता िकया जो क़रारबंद पवास करती थीं। उनहोंने पाया िक पवास के िलए चार तरह की िसयाँ नाम दजड कराती थीं: (अ) पवािसयों की (आम तौर से दोबारा पवास करनेवालों की) पितनयाँ; (ब) िमतों से वंिचत और भूखों मर रही िवधवाएँ; (स) िववािहत िसयाँ िजनका अपने पितयों के घर से िकसी पेमी के साथ या उसके िबना भी भागने के कारण सामािजक बिहषकार िकया गया हो; या िजनको उनके पितयों ने िनकाल बाहर िकया हो; और (द) वे्या समझी जानेवाली िसयाँ, िजनसे मुराद मूलतः अपने पररवारों से कट चुकी और िकसी सहारे से वंिचत मोहताज, िनधडन िसयाँ होती थीं।65 ग़ौर करने की अहम बात यह है िक जो िसयाँ कम उम में ही िवधवा हो जाती थीं, िजनकी सामािजक िसथित हीन होती थी या जो रर्तेदारों दारा तयाग दी जाती थीं, उनके िलए क़रारपथा बचाव का एक रासता बन जाती थी। ऐसी अनेक िसयाँ बनारस, मथुरा और वृंदावन जैसे तीथडसथानों में पनाह लेती थीं, जहाँ वे मंिदरों के पुजाररयों और दूसरे साधुओ ं के साथ रहने के िलए मजबूर कर दी जाती थीं। गुएत बहादुर ने अपने हािलया ऐितहािसक उपनयास कु ली िवमेन िद ओिडसी ऑफ़ इंडेचर में इन हालात में िवधवाओं की मुमिकन दशाओं का एक िवसतृत वणडन िकया है।66 जो सी िकसी पेमी के साथ भाग चुकी हो उसके िलए क़ु ली बनने का िवक्प ही बचता था – कारण िक भारत के सामािजक-सांसकृ ितक मानदंडों के अनुसार अंतजाडतीय िववाह िनिषद था। िबहार के शाहाबाद जैसे िज़लों में, जहाँ पवास को लोकिपयता पाप्त थी, िगयसडन ने देखा िक आिख़री सहारे के तौर पर िवधवाएँ ख़ुद एजेंटों की तलाश करती थीं और अपने आपको िगरिमिटया के रूप में पेश करती थीं। शैशव मृतयु की भारी दर और (अकसर रजसवला होने से भी पहले) पायोिजत िववाह की कम आयु के कारण िवधवापन आम था। कमउम िवधवाओं को पथा के अनुसार पुन:िववाह की अनुमित नहीं होती थी और उनको बोझ समझा जाता था। एजेंटों के रिजसटरों से पता चलता है िक उनकी भत्ती की सूिचयों 63 64 65 66 मरीना काटडर (1995), पूव्वोक्त : 4-5. िगयसडन ररपोटड, अनुचछे द 131. उपरोक्त, अनुचछे द 131. गुएत बहादुर (2014), कु ली िवमेन : द ओिडसी ऑफ़ इनडेनचर, हैचटे , गुरुगाम. 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 119 उ र भारत की वास सं ृ त और िर म िया मजदूर | 119 में एक बड़ा भाग िवधवाओं का होता था। मुमिकन है िक इसका कारण रर्तेदारों दारा तयाग िदए जाने के बाद उनकी ग़रीबी हो। िगयसडन ने यह बात मानी है िक कु छ िमसालों में क़रारबंद पवास के िलए अपने नाम दजड कराने वाली िसयों को एजेंट फु सला लेते थे, मगर िववािहत िसयों को फु सलाना कोई आसान काम नहीं होता था। कारण िक पकड़े जाने पर मुमिकन था िक एजेंट को पीट-पीटकर उसकी जान ले ली जाए। अगर वह बच भी िनकलता तो उसके िख़लाफ़ मुआमला दायर होता था और उसे सज़ा िमलती थी।67 इस तरह िपचर के अनुसार क़रारबंद पवास ‘सदागड से भटकी लड़की या सी के िलए’ या बदनसीबी की िशकार सी के िलए एक रासता खोल देता था’।68 िपचर ने देखा िक ‘आज पवास करने वाली िसयों में एक बहुत बड़ा भाग उन लोगों का है जो घर से बाहर कर दी गई हैं या िफर अकाल या महामारी के कारण अपने दोसतों से जुदा हो चुकी हैं; इनमें कु छ िहंदू लड़िकयाँ थीं जो िकसी सांपदाियक दंगे के दौरान मुिसलम बनने पर मजबूर कर दी गई थीं; अनेक तो िवधवाएँ थीं।’69 इसिलए िपचर ने यह िनषकषड िनकाला िक पवास से हो सकता है िक पुरुषों से अिधक िसयाँ लाभािनवत हो रही हों। िगयसडन ने पवास को परे शान िसयों के िलए एक ज़रूरी रासता भी माना। उनहोंने ज़ोर देकर कहा िक बेहतरीन िक़सम की मज़दूर िसयाँ उनमें से आती थीं जो तयाग दी गई हैं, या िफर अपितव्रता िसयों में से आती थीं जो अपने घर के माहौल से िनकलकर एक नई शुरुआत कर सकती थीं। (उनके िलए िवक्प िफर वे्यावृित का ही रहता था।) अनेक मिजस्ेट िकसी भागी हुई पतनी को दजड करने से इनकार कर देते थे, लेिकन िगयसडन ने ऐसे मुआमलों में िसयों के अिधकारों को सवीकार िकया और कहा िक अगर घर से कटी कोई सी जाने पर आमादा ही हो तो िकसी भी अफ़सर को ‘उसे रोकने का कोई अिधकार नहीं है।’70 रूिढ़वादी भारतीय समाज और आंगल-भारतीय अफ़सरशाही, दोनों के िलए यह एक उग सुधारवादी सुझाव था। सी-पवास की वयवसथा के बारे में िगयसडन ने और दूसरे लोगों ने औपिनवेिशक क़ानून के सामने समानता का और औपिनवेिशक भारत के शम बाज़ार में िलंगभेद के िबना एकरूपता का हवाला िदया। शाहाबाद के कलेकटर के अनुसार ‘क़ानून में िसयों को पुरुषों की ही तरह जहाँ मन चाहे, जाने का अिधकार है, और मैं इसे छीनने से रहा।’ अपनी तरफ़ से िगयसडन ने िसफ़ाररश की िक ‘िकसी भी िववािहत या अिववािहत मु्की सी को अपने ऊपर लागू होनेवाला कोई भी अनुबंध करने का पूरा-पूरा अिधकार है।’71 सिमता सेन ने असम के चाय बाग़ान में काम करने के अनुबंध पर दसतख़त करने के बारे में एक सी के अिधकार के 67 68 69 70 71 िगयसडन ररपोटड, अनुचछे द 130 : 30. िपचर ररपोटड : 7. िपचर ररपोटड : 7. िगयसडन ररपोटड, अनुचछे द 138 : 32. उपरोक्त. 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 120 120 | िमान िसलिसले में इसी मुदे की िववेचना की है।72 दूसरी ओर ‘भारतीय परं परा’ हमसे यह मनवाना चाहती है िक कोई भी सी अपने पित की इजाज़त के बग़ैर घर छोड़ना भी चाहे तो नहीं छोड़ सकती। यह भी िक भागकर या िनकाली जाकर अगर वह घर से बाहर होती है तो उसका पित शायद ही उसे वापस लेगा। इस तरह िगयसडन इस बात पर िपचर से सहमत थे िक पवास उन लोगों के िलए एक अहम रासता था िजन पर समाज ने ‘भगोड़ी’ या ‘अपितव्रता सी’ का ठपपा लगा िदया है और जो कलकता िसथत िडपो में या िफर उपिनवेशों में सगाई करके अपना चररत वापस पा सकती थीं।73 अनयथा, ऐसी िसयों के िलए िसफ़ड दो रासते खुले होते थे – आतमहतया या वे्यावृित। कलकता के लाल बाज़ार/चकलाघर की – नगर के ‘रे ड लाइट’ इलाक़ों की – अनेक िसयाँ ऐसी ही सामािजक-सांसकृ ितक सोच की पैदावार थीं। लेिकन अहम बात यह भी है िक सवयं िसयों की िनिमित को कम करके न आँका जाए। जैसा िक शािहद अमीन ने कहा है, उढ़री, डोलकढ़ी वग़ैरह परं परागत भोजपुरी शबद ‘गामीण िसयों की इस पवृित को, जो िकसी भी तरह से महतव हीन नहीं है, वयक्त करते हैं िक वे दुख से भरे ससुराली मकान से बाहर िनकलकर और िकसी और पुरुष से िववाह करके या िबना िववाह िकए उसके साथ बस जाती हैं।’ औपिनवेिशक पुरुषवादी रवैयों के च्मे से देखें तो भोजपुरी समाज में बहुतायत में होने के बावजूद ऐसी ‘सवतंत’ िसयाँ िगयसडन की ररपोटड में बस इककादुकका नज़र आती हैं।74 िकिसपन बेट्स और मेरीना काटडर ने उन ज़मींदोज़ तंतों के साकय पसतुत िकए हैं िजनके ज़ररए क़रारबंद मज़दूर भारत से बाहर जा रहे थे या काम पा रहे थे। उनकी राय में क़रार-पथा के इितहासकारों ने इसे दासता और सवतंतता के संवाद के ज़ररए पेश िकया है और इस तरह पवास की भूिमगत रणनीितयों को समझने में नाकाम रहे हैं। उनकी राय में ‘वापस आनेवाले लोगों, सरदारों और एजेंटों ने क़रार-पथा का एक ऐसा गितशास तैयार िकया जो सप्टि रूप से दुिनया भर में अपनी दुिनया ख़ुद रचनेवाले पलांटर/पशासक से अलग कायडरत था।’75 ग़रीबी, अकाल और जाितगत उतपीड़न समेत घोर मुि्कलों के अनुभव ढाँचागत दमन के संदभड के अंदर पवास के कु छ ऐसे फ़ै सले करा लेते थे िजनके कारण ‘िनिमित’ या ‘मुक्त संक्प’ के िकसी सुसप्टि वयवहार का सुझाव समसयागसत मालूम होता है। िफर भी 19वीं सदी के उतर 72 सिमता सेन, अनसेटिलंग द हाउसहो्ड : ऐकट VI (ऑफ़ 1901) ऐंड द रे गल ु ेशन ऑफ़ िवमेन मायगेंट्स इन कोलोिनयल बंगाल, ‘पेरीफ़ेे रल’ लेबर? सटडीज़ इन द िहस्ी ऑफ़ पािशडयल पोिलटेररयनाइज़ेेशन, इंटरनेशनल ररवयु ऑफ़ सोशल िहस्ी, 4 : 135-156, के िमबज युिनविसडटी पेस. 73 िगयसडन ररपोटड, अनुचछे द 134 : 31; 23 िदसंबर की डायरी : 10 भी देख.ें 74 इस िसलिसले में अ कॅ नसाइज़ इनसाइकलोपीिडया ऑफ़ नॉथ्न इंिडयन पेज़ॅनट् स लाइफ़, नई िद्ली, मनोहर में : 47-48.पर शािहद अमीन की िटपपणी देख।ें धनंजय िसंह, भोजपुरी पवासी श्रिमकों की संसकृ ित और िभखारी ठाकु र का सािहतय, एनएलआई ररसचड सटडीज़ सीरीज़, संखया 084/2008, वी.वी. िगरर नैशनल लेबर इंसटीट् यटू , नोएडा, उतर पदेश, 2008, भी देख.ें 75 िकिसपन बेट्स और मरीना काटडर (2012), पूव्वोक्त, देख,ें ऊपर िटपपणी 57 : 73. 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 121 उ र भारत की वास सं ृ त और िर म िया मजदूर | 121 भारत में अनेक पवािसयों को क़रारबंद पवास में जीवन की बाधाओं और िवपितयों से बचकर िनकलने की गुंजाइश िदखाई पड़ी। या िफर इसमें उनको एक सोपानबद और अकसर दमनमूलक गामीण समाज में उस शाशत बंधन से बाहर िनकालने का रासता िदखाई पड़ा िजनका अनुभव िकसानों को करना पड़ता था। यह बात िनचली जाितयों के िलए ख़ास तौर पर सही है िजनको समुद्रपारीय बाग़ान में जाित पर आधाररत दाियतवों, अपेकाओं और उतपीड़न में ढील का अनुभव हुआ। वे बाहर जानेवाले कोई अके ले लोग नहीं थे और क़रारपथा मँझोली और ऊँची जाितयों के भी अनेक लोगों को आकिषडत करती थी। ऐसा पवास परं परागत ज़मींदारों और भूसवािमयों में िनराशा की भावना पैदा करता था। वे पवास को उन मज़दूरों से वंिचत हो जाना समझते थे जो अनेक पु्तों से उनके साथ बँधे हुए रहे।76 ज़मींदारों का आरोप था िक सरकार और उसके एजेंट िनचली जाितयों को बहका रहे थे कयोंिक ऊँची जाितयों से पवास कराना आसान नहीं था। िगयसडन ने शाहाबाद के एक अंगेज़ी बोलने वाले ज़मींदार के एक पत का हवाला िदया है : इस हलक़े में मु्की िबरादरी पूरी तरह पवास के िख़लाफ़ है। इस िज़ले में मैं अपने अनुभव को, और इस बारे में जो छानबीन मैंने की है उसे, सामने रखने की इजाज़त चाहूगँ ा — िक साल के िकसी भी भाग में शिमक वगड को काम की कमी नहीं होती; आषाढ़, शावण, काितडक और चैत के महीनों में शम की माँग बि्क बहुत अिधक होती है। जनता के िनचले वग्टों में, मसलन दुसाधों और चमारों में, हो सकता है पवास का लोभ काम कर जाए, लेिकन ऐसी िमसालें बहुत दुलडभ होंगी। ऊँचे वग्टों के लोग, िजनके अपने जाितगत पूवाडगह होते हैं, िकसी भी पलोभन से भारत छोड़ना नहीं चाहेंगे। पवास के बारे में मु्की लोगों की आपितयाँ मुखयतः जाितगत पूवाडगहों के कारण हैं। इसके अलावा इस देश में काम की कोई कमी नहीं है; लोग इसे तब भी छोड़ना नहीं चाहते जब वे मुि्कल से िज़ंदगी की ज़रूरतें पूरा कर पाते हैं।77 ऐसे गपपों की काट के िलए िगयसडन ने सवयं उपिनवेशों में भेजे गए पवािसयों के जाितवार आँकड़े पेश िकए और िदखाया िक इस केत में दो ितहाई पवासी ऊपरी और दरिमयानी सामािजक सतरों के थे। (तािलका 5 देख।ें ) 76 जान पकाश ने िदखाया है िक दिकण िबहार के गया िज़ले में किमया लोग िकस तरह ज़मींदारों से पु्त-दर-पु्त बँध जाते थे. ऐसे बंधन के चलते मुमिकन है िक मज़दूरी िदलाने वाले पवास को ये कािमया लोग ज़मींदारों के शारीररक-सामािजक दमन से िनकलने के िलए उममीद की िकरण समझते रहे हों. जानपकाश (1990), बांडेड िहसटरीज़ : जीिनयॉलजीज़ ऑफ़ लेबर सिव्नट्यडू इन कोलोिनयल इंिडया, के ि््रिज युिनविस्नटी पेस देख.ें 77 िगयसडन ररपोटड, अनुचछे द 78 :17. 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 122 122 | िमान तािलका-5 आरा िज़ले से गए प्रवािसयों का जाितगत िवतरण, 1882 में दजदू78 जाित का नाम मुसलमान िहंदू 1-ऊँची सामािजक िसथितवाले (क) छती (ख) बाह्मण (ग) राजपूत योग 2-मँझोली सामािजक िसथित वाले (क) गवाला (ख) कोइरी (ग) कु म्ती (घ) कहार (ङ) माली (च) तेली (छ) नेपाली (ज) कायसथ (झ) कलवार (ञ) बिनया (ट) घटवा (ठ) सोनार (ड) धनुक (ढ) अनय योग 3-िनमन सामािजक िसथित वाले (क) चमार (ख) दुसाध (ग) भर (घ) हजाम (ङ) नोिनया (च) कै बतड (छ) धोबी (ज) अनय योग िहंदुओ ं का योग महायोग प्रवािसयों की संखया अ) ब) 78 उपरोक्त, अनुचछे द 152 : 36. 123 81 27 163 64 60 55 25 17 15 12 11 10 17 5 4 6 54 52 15 13 12 11 10 110 264 231 454 277 962 1,226 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 123 उ र भारत की वास सं ृ त और िर म िया मजदूर | 123 शाहाबाद िज़ले में पवास के रिजसटरों पर िगयसडन की छानबीन ने उपिनवेशों को जाने वाले लोगों में ऊँची और मँझोली जाितयों का िहससा िदखाया। (तािलका 6 देख।ें ) तािलका-6 शाहाबाद िज़ले से ऊँ ची और मँझोली जाितयों के प्रवासी जाित का नाम छती अहीर कोइरी कहार कु म्ती चमार बाह्मण दुसाध कलवार गरे री िबंद पासी नोिनया भर हजाम ओिड़या तेली मुसहर बढ़ई कायसथ धोबी सोनार गंधपड योग प्रवािसयों की संखया 51 32 17 16 10 9 7 6 5 5 3 3 3 2 2 2 2 1 1 1 1 1 1 185 सोत: िगयस्नन ररपोट्न, डायरी, पृ. 31 उपरोक्त आँकड़ों के आधार पर आगे िगयसडन ने यह तकड िदया िक 185 िहंदओ ु ं में 133 ऊँची-मँझोली सामािजक िसथितयों वाले थे, तथा 9 दिलतों यािन ‘अछू तों’ में चमार और 6 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 124 124 | िमान दुसाध जाित के थे।79 इन पररणामों की पुि्टि बृज लाल और मेरीना काटडर जैसे िवदानों के िवशे षणों से होती है; उनका तकड यह है िक भत्ती होनेवाले िगरिमिटया मज़दूरों का सामािजक, जाितगत और जनांकीय िवतरण कु ल िमलाकर गामीण उतर भारत के समाज में उनकी िसथित को ही गहराई से पितिबंिबत करता है।80 अगर क़रारबंद पवास भारत की किठनाई भरी सामािजक, आिथडक या जीने की दशाओं से िनकलने का रासता पेश करता था तो इसमें पररणामों और अनुभवों का एक पूरा दायरा भी शािमल था। िगयसडन की मुलाक़ात वापस आनेवाले कु छ ऐसे लोगों से भी हुई िजनहोंने क़रारबंद मज़दूरी के दौरान कु छ पैसे बचा िलए थे। उनहोंने नबी बखशी जैसे लोगों की िमसाल दी जो जमैका में 9 साल गुज़ारकर और बचत के 1,800 रुपये लेकर वापस आए थे।81 एक और – गोवधडन पाठक – डेमरे रा से 10 साल बाद 1,500 रुपये की बचत के साथ लौटे थे। उनहोंने अपनी जाित के लोगों को उपहार और भोज देकर ‘िबरादरी में वापस क़ु बूल िकए जाने के िलए’ 300-400 रुपये ख़चड िकए, एक बाग़दार मकान ख़रीदा और अपने बड़े से पररवार के साथ एक कामयाब गनना-िकसान बन गए। एक और िमसाल ननहकू की थी जो 500-600 रुपये लेकर मॉरीशस से लौटे। उनहोंने जाित में वापसी के िलए 100 रुपये ख़चड िकए और एक सफल कारोबारी िकसान बन गए। बहुत से दूसरे लोग भी भारत लौटे और बकसर के शेख़ घूरा (घूरा ख़ान) की तरह के कामयाब एजेंट बने।82 मेरीना काटडर ने उस पिकया का एक सुंदर िवशे षण पसतुत िकया है िजसमें घूरा ख़ान जैसा एक वापस पलटा हुआ पवासी एक एजेंट बन जाता था। काटडर की राय में यह रणनीित गनने के टापुओ ं के िलए भारत से शमबल की लामबंदी की थी, कयोंिक वापस आने वाले लोग उपिनवेशों में काम और जीवन की दशाओं के बारे में बेहतरीन जानकार सािबत होते थे।83 काटडर का तकड है िक वापस लौटने वालों को भत्ती के काम पर लगाना िसफ़ड एक रणनीित और लागत-पभावी तरक़ीब ही नहीं थी बि्क क़रार-पथा के आलोचकों दारा िदए जाने वाले तक्टों का तोड़ भी थी।84 वे कहती हैं िक ‘मॉरीशस में भारतीय सामािजक और आिथडक ताने-बाने में, जो बाग़ान से सवतंत थे, नए आने वालों को खपाकर वापस पलटे लोगों ने उपिनवेश की ओर पवािसयों को खींचने का काम िकया, बावजूद इसके िक ऐसे मज़दूरों के िलए वहाँ संभावनाएँ बहुत ही कम थीं।’85 79 उपरोक्त, अनुचछे द 78 : 17; 4 और 5 जनवरी की डायरी : 31 भी देख.ें बृज.वी. लाल, िगरिमिटया, अधयाय 3 : 99-121; मरीना काटडर (1995), पूव्वोक्त, अधयाय 3 : 77-119 देख.ें 81 िगयसडन ररपोटड; 27 िदसंबर की डायरी : 17 भी देख.ें 82 उपरोक्त; 6 जनवरी की डायरी : 32-33 भी देख.ें ऐसे आयोजनों के िलए पचिलत शबद ‘जाित-भोज’ है. 83 मरीना काटडर (1995), पूव्वोक्त : 65. 84 मरीना काटडर, ‘स्ैेटजीज़ ऑफ़ लेबर मोबलाइजेशन इन कोलोिनयल इंिडया : द ररकू टमेंट ऑफ़ इंिडयन इंडेचडड वकड सड फ़ॉर मॉररशस’, जन्नल ऑफ़ पेज़ॅनट् स सटडीज़, 19(3-4) : 229-30. 85 उपरोक्त. 80 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 125 उ र भारत की वास सं न ृ त और िर म िया मजदूर | 125 ष्ग पसतुत लेख उतर भारत में स्तनत की सथापना के समय से ही पवास के ऐितहािसक ढर्टों के साकय सामने रखकर भारतीय िकसानों और मज़दूरों के जड़तव की धारणा को चुनौती देता है। क़रारबंद पवास भारत में उपिनवेश-काल के दौरान ऐसे ही पवास का िहससा बन गया। उसके बाद से तो िकसानों और मज़दूरों को, जो अभी तक अंतद्गेशीय पवास ही करते थे, समुद्रपार कै रीिबयन, पशांत महासागर और िहंद महासागर के दूरदराज़ बाग़ान में काम के िलए जाने का एक रासता िदखाई पड़ा। क़रार को अंतद्गेशीय पवास से अलग िदखाने के िलए भारतीय िकसानों ने इस वयवसथा के बारे में ख़ुद की शबदाविलयाँ िवकिसत कीं। ये शबदाविलयाँ क़रारपथा के बारे में उनके जान के पमाण हैं। पवासी जब उपिनवेशों में काम करते थे तो वापस गाँव में रह गए रर्तेदारों के साथ एक ताना-बाना िसरज लेते थे और एक बेहतर जीवन की संभावना जताकर उनको क़रार के तहत लंबी याता के िलए पोतसािहत करते थे। वे पीछे रह गए अपने पररवारों को पैसे भी भेजते थे। भेजे गए बहुत सारे पत और पैसे पवािसयों और भारत में उनके पररवारों के बीच संचार-संबंध की पुि्टि करते हैं। िफर भी औपिनवेिशक पवास शिमकों के पहले से चले आ रहे उस अंतद्गेशीय पवास से अनेक अथ्टों में िभनन भी था जो पवािसयों को घरवापसी का अिधक अवसर देता था। आनंद यैंग ने िदखाया है िक िबहार के सारण िज़ले से िकस तरह बंगाल और आसपास के दूसरे राजयों की तरफ़ मौसमी पवास चलता रहता था।86 क़रार के तहत समुद्रपारीय पवास का मतलब था काफ़ी लंबी ग़ैर-हािज़री और वापसी के कम अवसर। लंबी दूरी के कारण पररवार से दुखद अलगाव, क़रारनामों की काम-संबंधी शत्वें और उपिनवेश के देशों में पवािसयों के सथायी बसाव की संभावना – इनसे यह समझने में मदद िमल सकती है िक िडपो में ही पवािसयों के िववाह के बारे में औपिनवेिशक सरकार कयों गहरी िदलचसपी ले रही थी और इसके बारे में बहुत अिधक िचंितत थी जबिक िवदेश जा रहे बहुत से पवासी पहले से ही शादीशुदा होते थे।87 पवासी िसयों के कोटे के बारे में बने क़ानूनों से यह िचंता सप्टि थी। िमसाल के िलए, 1864 के इंिडयन एिमगेशन एकट में एक कठोर िनयम यह था िक उपिनवेशों में जानेवाले हर जहाज़ में 32 पितशत (40 :100) िसयों का कोटा पूरा िकया जाए। इसका कारण यह हो सकता है िक पवास के पागैितहास में पतनी से पित के अलगाव का तथय भी होता था कयोंिक बाहर जाने वाले लोग पायः िववािहत होते थे। क़रारपथा के तहत उनको इस सप्टि अिभपाय के साथ बाहर भेजा जाता था िक उपिनवेशों की शम की आव्यकताएँ जो पूरी कर सके , ऐसा एक सथायी नया समुदाय बनाकर मु्की या पहले से बसे समूहों को कमज़ोर या िवसथािपत िकया जाए। फलसवरूप संबंध के अिधक सथायी रूप के तौर पर िडपो िववाह में औपिनवेिशक अिधकाररयों की गहरी रुिच रहती थी। वे इसे 86 आनंद यांग (1989), द िलिमटेड राज : अगेररयन ररलेशनस इन कोलोिनयल इंिडया, सारण िडिस्कट, 1793-1920, ऑकसफ़डड युिनविसडटी पेस, िद्ली. 87 उतर भारत में िववाह की सामानय आयु लड़के के िलए 15 साल और लड़की के िलए 10 साल थी. 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 126 126 | िमान पोतसािहत भी करते थे, बिनसबत इसके िक िसयों को बुलाएँ या पवािसयों की यौनआव्यकताओं को पूरा करने के िलए उसी तरह िसयों का बंदोबसत करें िजस तरह उनहोंने भारत की फ़ौजी छाविनयों में ‘लाल बाज़ारों’ का बंदोबसत करके िकया था।88 संदर्ग आनंद यांग (1979), ‘पेज़ॅनट् स ऑन मूव : अ सटडी ऑफ़ इंटनडल माइगेशन इन इंिडया’, 10(1), जन्नल ऑफ़ इंटरिडिसिपलनरी िहस्ी. आनंद यांग (1989), द िलिमटेड राज : अगेररयन ररलेशनस इन कोलोिनयल इंिडया, सारण िडिस्कट, 17931920, ऑकसफ़डड युिनविसडटी पेस, िद्ली. एिमगेशन एजेंट रे िमटनसेज़ फॉम नेटाल, 1881-1884, इंिडयन एमीगेशन [आगे से : आई आई], बी 1/8, नेटाल आकाडइवस डीपो, पीटरमाररट् ज़बगड. एल.एफ़. रशबुक िविलयम (1924), इंिडयन एिमगेशन बाय इिमगेंट्स , इंिडया ऑफ़ टु डे, ऑकसफ़डड युिनविसडटी पेस, लंदन. िकिसपन बेट्स और मरीना काटडर (2012), एनसलेवड लाइनस, ऐंसलेिवंग लेबलस : अ नयू एपोच टू द कोलोिनयल इंिडयन लेबर डायसपोरा, सुकनया बनज्ती, एमस मैकिगवनीज़ और सटीवन सी मैक (सं.) नयू रुट् स फ़ॉर डायसपोरा सटडीज़, इंिडयाना युिनविसडटी पेस में संकिलत, इंिडयाना. के ि्वन िसंह 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पािल्नयामेंटरी पेपस्न, सत 1 (45), 1841. 88 िबिटश सरकार पितनयों की ग़ैर-मौजूदगी में िबिटश बटािलयन की कामेचछा की पूितड के िलए वे्याओं का पबंध करती थी. ऐसा करते समय सरकार जाितगत वरीयताओं पर भी धयान देती थी. इस पश्न की िवसतृत िववेचना के िलए अलवी, सीमा, 1995, िसपॉय ऐंड द कं पनी, ऑकसफ़डड युिनविसडटी पेस, िद्ली.; को्फ़ (1990), नौकर, राजपूत ऐंड िसपॉय, के िमबज : के िमबज युिनविसडटी पेस, देख,ें ऊपर िटपपणी 3. 05_asutosh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:58 Page 127 उ र भारत की वास सं ृ त और िर म िया मजदूर | 127 पी.सी. एमर (1985), पूव्वोक्त, रे डक, रोड, 1985. ‘फीडम िडनाइड : इंिडयन िवमेन ऐंड इनडेचडडिशप इन ितिनदाद ऐंड टोबैगो, 1845-1917’, इकनॉिमक ऐंड पॉिलिटकल वीकली, 20 (43). बृज.वी. लाल (1985) ‘कुं ती काई : इनडेनचडड िवमेन ऑन िफ़जी पलांटेशनस’, इंिडयन इकनॉिमक ऐंड सोशल िहस्ी ररवयु 42(1). __________(1985), वील ऑफ़ िडशऑनर : सेकसुअल जेलसी ऐंड सुसाइड ऑन िफ़जी पलांटेशनस, जन्नल ऑफ़ पैिसिफ़क िहस्ी, 10. __________(2000), चलो जहाजी : ऑन जन्नी थू इनडेनचर इन िफ़जी, सुवा मयूिज़यम, कै नबरा. 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इसका कारण आतम-जीविनयों की आतमिनष पकृ ित है, जहाँ सवयं इितहासकार ही इितहास का िवषय होता है, यह भी िक यह आतम-िचत (सेलफ़ पोर्ट्रेट) की तरह कलाकार की आतम-रित एक तकड हीन कमडकांड की तरह है। जहाँ यह माना जाता है िक लेखक के मृतयोपरांत उसके जनमोतसव का कया पयोजन! दूसरी तरफ़, जैसा िक जूिलया िसवनडेलस ने िलखा है : आतमकथाओं को अब ऐसी संभावनाशील िवधा के रूप में देखा जा सकता है िजसमें पीिड़त और सांसकृ ितक रूप से िवसथािपत, वयि्ति की और वयि्ति से परे की अपनी अिभवयि्ति के अिधकार को दृढ़ता से रखा जा सके । शि्तिहीन लोग ि्त्रियाँ, अशेत, मज़दूर आतमकथाओं के दारा अपने ‘िनजी’ सवर के माधयम से जो अपने सव से इतर की बात कहते हैं, संसकृ ित में दािख़ल होना शुरू हो चुके हैं ।2 कया 1 2 जूिलया िसवनडेलस (1973) : 43. ज़ोर हमारा. िलंडा ऐंडरसन (2011) : 104. ता िमर्श When we write of a woman, everything is out of place. — वज्जीिनया वुलफ़ और अ ग िमा कथाएँ : जेडर और समाज के सा ि अ ेत Tी-आ आईने मे 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 130 130 | िमान यही िसथित भारत में भी नहीं है? सी आतमकथाओं के इस िनजी सवर को,जो अपने सव से इतर की बात कहता है, आज सुनना िजतना ज़ररी है; सुनाना उतना ही चुनौतीपूणड भी। सी आतमकथयों पर िवचार करने के िलए मोटे तौर पर चार िनकष गहण िकए जा सकते हैं िजनमें जाित, वगड, वणड, जेंडर के साथ संपदाय या धमड को भी देखा जाना चािहए। ये सभी िनकष आपस में गुँथे यािन पितचछे दी3 अवसथा में अपना अिसततव रखते हैं। समाजेितहास में अंतिवडभाजक पदानुकिमकता का िनमाडण होता है। िविभनन अिसमताएँ, जो कें द के आसपास मँडराती रहती हैं, उनमें जाित और जेंडर के साथ नसल को पवेश िबंदओ ु ं के तौर पर देखा जा सकता है। िविभनन अिसमताएँ अपने दैनंिदन पितरोध के तरीक़ों और रणनीितयों के साथ संघषडरत रहती हैं, वहीं दूसरी ओर सामािजक पदानुकिमकता को बनाए भी रखना चाहती हैं। अपने बारे में िलखकर या कहकर अपने साथ-साथ समुदाय और वगड के बारे में पामािणक सूचनाएँ देने का काम आखयानकताड करता है। अपने जीवन की िविभनन समृितयों को मौिखक या िलिखत रप में आखयान का आधार बनाकर वह अगली पीढ़ी में अपने अनुभवों को अंतररत करता है। अकसर वैयिकक अनुभवों की अपेका सामुदाियक अनुभवों को तरजीह दी जाती है,कयोंिक लोग उसी को दुहराते हैं, बारमबार सुनते हैं और िफर उसी को दुहराने लगते हैं। लेिकन सतय वही नहीं है जो समाज या समुदाय की वचडसवशाली शिकयों दारा दुहराया और दजड िकया जाता है, िजसकी तेज़ आवाज़ के शोर में हािशये की आवाज़ें कमज़ोर सािबत होती हैं। इन कमज़ोर आवाज़ों को आतमकथन के माधयम से अपनी बात कहने,‘टेसटीमोिनयो’ (सामुदाियक साकय) पसतुत करने का अवसर िमलता है। दरअसल ‘आतम’ का िनमाडण जाित, िलंग, वगड और वणड के साथ यौिनकता को सुरढ़ करने वाले परसपर पितचछे दी (इंटरसेकशनल) वाहकों के दारा होता है।4 इस जिटलता के मदेनज़र जब सामािजक जीवन की बहुआयामी कोिटयाँ िवशे षण का आधार बनती हैं तो ऐसे में जाित, वगड, वणड, जेंडर की कई कोिटयाँ हमारे सममुख होती हैं िजनमें िकसी एक अिसमता या िकसी एक कोिट से नहीं बिलक परसपर िवलियत होती हुई अिसथर सवभाव की अिसमताओं से हमारा सामना होता है और यहीं पर िविभनन वग्गों,समपदायों, जाितयों की अिसमताएँ अपने तमाम अंतिवडरोधों के साथ और भी अिधक जिटल रप में उजागर हो जाती हैं। समाज में िविभनन अिसमताएँ अपनी पहचान के िलए परसपर पितचछे दी अवसथा में ही रहती हैं,वे सवायत नहीं होतीं। मसलन सी और अशेत एक-दूसरे से अलग नहीं बिलक दोनों एक-दूसरे के सूचक होते हैं। इनकी परसपर आवाजाही से उतपीड़न का अिभसरण होता है। सता के संदभड में परसपर पितचछे दी, एक-दूसरे को काटती हुई सरिणयों को जेंडर और नसलभेद के पारसपररक संबंध की खोज के दौरान देखा जा सकता है। इसी तरह जाित और जेंडर को 3 अंगेज़ी के ‘इंटरसेकशनैिलटी’ के िलए ‘पितचछे दी’ शबद का पयोग िकया गया है. िजसे समाज वैजािनक लीला दुबे (2004) ने िलंगभाव का मानववैजािनक अनवेषण : ्ितचछे दी केत्र, शीषडक पुसतक में पयुक िकया है. 4 इंटरसेकशनैिलटी की अवधारणा को िवसतार से जानने के िलए देख,ें िकमबल्ट्रे के नशॉ ( 2015). 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 131 अ ेत Tी -आ कथाएँ : जेडर और समाज के आईने मे | 131 पहले समानांतर माना जाता था परं तु बाद के अधययनों ने इनहें परसपर अंतग्ग्रंिथत सािबत कर िदया। िपतृसता का सांसथािनक अनुभव समान होने के बावजूद जाित, वगड, वणड और धमड के अंतराल िसयों के अनुभवों को अपेकाकृ त जयादा जिटल, मारक, उतपीड़क और एक दूसरे से पृथक बनाते हैं। िसयों का जीवन जाित के अंतरफ़लक, धमड, वगड और संपदाय के वैिभननय पर िटका हुआ होता है, जो िपतृसता से पाररभािषत होता है। इसी के आधार पर जेंडर के िनयम बनाए जाते हैं और वतडमान समय में एक अिसततव के िलए शमिवभेदी और जेंडर-िवभेदी वयवसथा का िनमाडण करते हैं। बृहतर पररपेकय में यिद हम इसे देखें तो यौिनकता, शम और अथ्थोतपादन के सोत दरअसल िपतृसता के भीतर िछपी िहंसा और सी के दैिहक, मानिसक शोषण एवं असमानता के रप में िदखाई देते हैं। जो असमानता पर आधाररत समाज में भयंकर रप से पदसोपािनक वयवसथा के पररणाम हैं। जाित, िलंग, वगड और नसल की अंतःसंबरता से चार शोिषत वगड अिसततव में आते हैं – सवणड सी, दिलत सी, दिलत पुरुष और रं ग तथा नसलभेद के िशकार सी-पुरुष। जहाँ पहले के समाजशासी जाित और िलंग को अलग-अलग अवधारणाओं के तौर पर वयाखयाियत करते थे वहीं नूतन अनुसंधान और िवशे षण से इस पारं पररक अवधारणा में बदलाव आया और जाित, वगड, िलंग और वणड के साथ धमड को परसपर जिटल रप में संगंिु फत माना जाने लगा। उधर पि्चिमी सीवाद ने नए शोधों और नई आलोचनाओं के आधार पर यह पाया िक नसलभेद/रं गभेद के अनुभवों को जीती सी के अनुभव अनय िकसी भी सी से अलग, िविशष और जिटल होते हैं, यािन अशेत (बलैक) और ग़ैर-अशेत सी के अनुभव एक दूसरे से िबलकु ल अलग होंगे। आज लैंिगक, केतीय एवं तुलनातमक अधययन में ऐसी रचनाओं की माँग ज़ोर पकड़ रही है जो वयिक और समाज के िविवधमुखी अनुभवों को पामािणकता में पसतुत कर सकें । सी के आतमकथय का िवशे षण उसके समाज, समुदाय, पीड़ा, चोट, िलंग भेद के अनुभव, मनोसामािजकी और भाषा भंिगमाओं को सामने लाने में मदद करता है। इसे हम सीवादी इितहास लेखन की िदशा में बढ़ाया गया एक और क़दम मान सकते हैं, जो इितहास का मूलयांकन जेंडर के नज़ररये से करने का पकधर है। दरअसल सीवादी इितहास लेखन समूचे 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 132 132 | िमान इितहास को समगता में देखने और िवशे िषत करने का पयास करता है, िजसमें मुखयधारा के इितहास से छू टे हुए, अनजाने में या जानबूझकर उपेिकत कर िदए गए वंिचतों का इितहास और उनका लेखन शािमल िकया जाता है। यह सी को िकसी िवशेष संदभड या िकसी सीमा में न बाँधकर, एक रचनाकार और उसके दाय के रप में देखने का पयास है। यह िसयों की रचनाशीलता के संदभड में लैंिगक और जेंडर िवभेद को देखने और साथ ही अपेिकत सामािजक संरचनागत बदलावों की ओर िदशा-िनद्ट्रेश करने का भी उदम है। सी सािहतयेितहास को उपेिकत करके कभी भी इितहास-लेखन को समगता में नहीं जाना जा सकता। कु छे क को छोड़ दें तो अिधकांश इितहासकारों ने िसयों के सांसकृ ितक-सािहितयक दाय को या तो उपेिकत िकया या फु टकर खाते में डाल िदया। अगर सी-आतमकथा में सतय और पामािणक अनुभवों की गूँज सुनाई देती है तो आतमकथा-आलोचना के िलए यह ज़ररी है िक उनके आतमकथय खोजे जाएँ, पुरानी रचनाओं का पुनपाडठ िकया जाए और परसपर असंबर दीखने वाली किड़यों को एक साथ रखकर देखा जाए। आज ज़ररत इस बात की है िक सामािजक अवधारणाओं, िवचारधाराओं और औपिनवेिशक अथडवयवसथा, समाजसुधार कायडकमों में पारसपररक संबंध को िवशे िषत-वयाखयाियत करने के िलए सी रचनाशीलता की अब तक उपेिकत, अवसनन अवसथा-पाप्त किड़यों को ढूँढा और जोड़ा जाए, िजससे इितहास अपनी समगता में सामने आ सके । इस रिष से अशेत सी-आतमकथाओं को देखा जाना इस आलेख का उदेशय है। उननीसवीं शताबदी के उतरारड से बीसवीं शताबदी के मधय तक िलखे गए अशेत सी-आखयान सािहितयक अवदान की रिष से ही नहीं, सामािजकराजनीितक रिष से भी िवशे षण की माँग करते हैं। इितहास में इन आतमकथातमक आखयानों की या तो उपेका की गई या उनहें अबौिरक और भावुकतापूणड सािहतय कहकर नकार िदया गया। अकसर उनकी तुलना अशेत पुरुष दास आखयानों से करके कहा गया िक अशेत िसयाँ उनकी तज़ड पर आखयान रच रही हैं और उनमें मौिलकता के िनतांत अभाव का आरोप लगाया गया। अशेत सी आतमकथाएँ अपनी संवादधिमडता के कारण अपनी ओर आकिषडत करती हैं। आवशयक यह है िक इनका िवशे षण समाजवैजािनक रिष से करने का पयास िकया जाए। दास आ ान औि उपे ा की िणनी ि अशेत आतमकथाओं के साकय हमें उननीसवीं शताबदी से ही िमलने पारं भ होते हैं। इससे पहले अशेत सी आतमकथाओं, व िनजी आखयानों का िनतांत अभाव इस बात की ओर संकेत करता है िक जब बेन फैं किलन जैसे पुरुष िद ऑटोबायोगाफ़ी िलखने में संलगन थे, अशेत िसयाँ अिशिकत और लाचार िसथित में थीं। शिमक, बंधआ ु मज़दूर और यौन-दासी के रप में अपने अिसततव को बचाने की कोिशश कर रही थीं; ग़ुलाम और अपने बारे में अनजान। अमेररका में अंतरानुशासिनक अधययन केतों − जैसे सी अधययन और नृवंशीय अधययनों की बढ़ती माँग ने अशेत सी आखयानों की िविचछनन शंखला की खोज को गित 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 133 अ ेत Tी -आ कथाएँ : जेडर और समाज के आईने मे | 133 पदान की। उपलबध आखयानों के अधययन-िवशे षण से यह बात िसर होने लगी िक ये ‘पसडनल नैरेिटवज़’ या आतमकथय आखयान की सीमा से कहीं आगे समाज-िवमशड रचने में सकम हो सकते हैं। समाज-िवमशड का यह रप अशेत सी के सवर की वयाखया करता है और जीवंत अनुभवों को ऐितहािसक पररपेकय में, अशेतों दारा शोषक सता की आँखों में अपनी अिसमता और सता सथािपत करने के पयास के रप में िवशे षण की वकालत करता है। सीवादी आलोचकों ने ‘आतमकथा’ की सी-परं परा की िवसमृत किड़यों को जोड़कर पि्चिम में आतमकथा की वैकिलपक सैरांितकी पसतुत की, िजसमें सी रिचत आधयाितमक गीत, दास आखयान, राजनीितक या पितरोधी आखयान, शिमक और बंदी िसयों के आतमकथय, डायररयाँ और अनेकानेक रपों में िलखी जा रही आधुिनक उपनयास-िवधा शािमल है। ‘सलेवज़ नैरेिटवज़’ या दास आखयानों ने अठारहवीं शती के उतरारड और उननीसवीं शती के पारं भ में अमेररकी शेत पभुओ ं और अशेत समुदायों के बीच दासतव और मुिक वाताडओ ं के आदान-पदान में महतवपूणड भूिमका िनभाई। दास आखयानों के माधयम से रचनाकारों ने मनुषय के रप में सममािनत जीवन की आकांका वयक की और नसलभेद पर आधाररत समाज को बताया िक वे भी मनुषय हैं और जीवन जीने का अिधकार चाहते हैं। हालाँिक दास-पथा के उनमूलन हेतु जो आंदोलन िकए गए उनहें राजनीितक हथकं डा कहकर उनकी उपेका की रणनीित भी अपनाई गई, लेिकन उननीसवीं शती में गेट िबटेन और अमेररका में मुिक की आकांका से िलखे गए आखयानों को पाठकों ने हाथों-हाथ िलया। नतीजतन िविभनन िवशिवदालयों में दास आखयान या ‘सलेव नैरेिटवज़’ पाठ् यकम का अिनवायड िहससा बनने लगे। अब, बदले हुए समय में नसलभेद, रं गभेद, सामािजक अनयाय के बहुसतरीय रपों के िवशे षण के साथ-साथ हािशये की अिसमताओं को पहचानने के िलए इन दास आखयानों को पढ़ना-पढ़ाना ज़ररी हो गया। दिकण अमेररका में अफीक़ा और वेसटइंडीज़ से लगभग दो करोड़ अशेत लोगों को के वल रं गभेद के आधार पर दास बनाकर लाया गया। दिकण अमेररका की कु ल आबादी में लगभग 20-22 पितशत योगदान रहा, 1900 ईसवी के उतरारड तक पतयेक दास अफीअमेररिकयों में से नौ दिकण अमेररका में रह रहे थे। दास पथा पर क़ानूनन पाबंदी लगाए जाने के बाद भी अशेत लोग शिमकों के रप में ही जाने जाते रहे और अमेररका पर शेत-पभुतव ही बना रहा, साथ ही अशेतों के पित घृणा और उपेका का भाव भी। समता और सामािजक नयाय पाने के िलए अशेत संघषड की लंबी दासताँ रही है, जबिक यह ग़ौरतलब है िक अमेररका की अथडवयवसथा को सुरढ़ बनाने में दासों का योगदान अिवसमरणीय है। संभवतः इसीिलए अशेतों में जब अिसमता की पहचान जगी तो सभी केतों − पाररवाररक संबंध, धमड, नैितक मूलय और भावबोध − में युगांतरकारी पररवतडन उपिसथत होने शुर हुए। अिसमता की तलाश में अशेतों ने अपनी एक अलग सांसकृ ितक पहचान बनाई, िजसका पितफलन सािहतय, कला, संगीत, भाषा आिद में देखा गया। इस सांसकृ ितक पहचान की अिभवयिक उननीसवीं और बीसवीं 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 134 134 | िमान शती में िलखे दासों के आतमाखयानों में पमुखता से हुई, जो अशेतों की उस पीढ़ी की भावातमक अिभवयिक हैं िजनके बारे में ग़ैर-अशेतों दारा बहुत कु छ िलखे जाने पर भी बहुत कु छ अनकहा ही रह गया। उनहें या तो कोई भुकभोगी ही िलख सकता था या पतयकदश्जी, िजसमें अशेतों की वेदना उनके समुदाय का सच − िलंगभेद, नसलभेद, रं गभेद की पीड़ाएँ, उनके संघषड, वेदना और आँस,ू ख़ुिशयाँ और आनंद − सब कु छ समा सकता। इन दास आखयानों ने अशेत या ग़ैर-शेत आतमकथाओं के िलए पृषभूिम का काम िकया। दास अनुभवों ने अंकल टॉमस के िबन (हेररयट बीचर सटोव, 1852), हकलबेरी िफ़न् (माकड ट् वने , 1884), द कं फ़े शंस ऑफ़ नॉट ट् यनू र (िविलयम सताईरोन, 1967), बीलवेड (टोनी मॉररसन, 1967) जैसी कालजयी कृ ितयों से भी पाठकों को पररिचत कराया। इसके अितररक अनय कई सािहितयक िवधाओं, मसलन आतमकथा, कहानी, किवता, नाटक में भी दासों की िसथित और उनके मुिक-संघषड को अिभवयिक िमली। इससे अशेतों को अमेररकी पहचान िमली। कलािसक सलेवज़ नैरेिटवज़ की पसतावना में हेनरी लुई गेट्स ने िलखा िक ‘इितहास में िकसी भी ग़ुलाम समुदाय ने अपनी कथाएँ इतने बड़े पैमाने पर नहीं िलखीं, ये दास आखयान ग़ुलामों के गीत और आधयाितमक किवताओं के गद रप हैं, िजनसे अफी-अमेररकी सािहितयक परं परा का सूतपात होता है। ग़ुलामों दारा गाए गए गीत ही शोषण, ग़ुलामी, उपेका, पताड़ना से उतपनन मानिसक अवसाद को वयक कर सकते थे, उन लोगों तक अपनी वयथा-कथा पहुचँ ा सकते थे, जो दास जीवन और उसकी पीड़ा से अनिभज थे। इन गीतों का लकय ग़ुलामों की पीड़ा को अिभवयिक देना और यह बताना था िक कोई दास अपनी ‘दासता’ से संतषु नहीं होता, ‘ग़ुलामी से संतिु ष’ एक िमथ है, यथाथड तो यह है िक हर ग़ुलाम मुिक का सवपन देखता है।’5 सी और पुरुष दोनों ने दास आखयान िलखे। जीन येलीन, िविलयम ऐंडूज, फांिसस िसमथ फ़ॉसटर, हेज़ेल काब्थो जैसे आलोचकों ने इन दास आखयानों को पकाश में लाने एवं मुखयधारा के सािहतय में शािमल करने का कायड िकया। द वॉयसेज़ ऑफ़ अफ़ीकन अमेररकन वूमन (यॉने जॉनसन, 1998), द फ़ीडम टू ररमेंबर (एंजेिलन िमरोल, 2002), हैररयट जेकबस ऐंड इंसीडेंट्स इन द लाइफ़ ऑफ़ ए सलेव गलड (नयू िकिटकल एससेज़, 1996, संपादन रािफ़या ज़फ़र और देबोरा एच. ग़ैरफ़ीलड), ररफलेिकसव एथनॉगफ़ी (सी. ए. डेिवस), िविदन द पलानटेशन हाउस होलड : बलैक ऐंड वहाइट ऑफ़ द फॉकस िजनोिवज़, ‘िससटर आउट साइडर’ (ऑडे लॉडड), द सचड ऑफ़ सेलफ़ डेिफ़िनशन − 1934-1937 : ए लॉनग वे फ़ॉम होम (वाएन एफ़ कू पर) जैसी आलोचनाओं और संकलनों ने इन आखयानों के पाठ-िवशे षण के रासते खोले। इसके अितररक कई समाचार पतों और संसथाओं ने भी अशेतों की आवाज़ को मुखयधारा में लाने का कायड िकया िजनमें नैशनल ऑग्गेनाइज़ेशन ऑफ़ कलडड पीपल पमुख है। डबलयू. ई. बी डु बोय ने काइिसस पितका, चालसड जॉनसन ने अपॉरचयुिनटी, िफ़िलप रै नडाफ़ ने द मैसेंजर, मारकॅ स गाव्ट्रे ने नीगो बलडड जैसी पितकाओं का संपादन िकया। इनहोंने माली, 5 हेनरी लुई गेट्स (2012) : 28. 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 135 अ ेत Tी -आ कथाएँ : जेडर और समाज के आईने मे | 135 सेनेगल, गािमबया, िगनी, आइवरी कोसट, लाईबेररया, घाना, टॉनगो, नाइजीररया, कै मरन, अंगोला आिद अफीक़ी देशों से लाकर, दो सौ सालों तक अमेररकी बाज़ारों में पशुवत ख़रीदेबेचे जाते रहे दासों के आखयानों को वैिशक पहचान दी। इन पतों ने अमेररकी गृहयुर (1860-64) के पहले और युर के बाद हज़ारों अशेत दास-दािसयों के अनुभवों को, शोषण के इितहास को पाठकों के सामने लाने का काम िकया। अ ेि Tयो की आवाज़ का सच पसतुत अधययन ग़ैर-शेत सी आतमाखयानों पर कें िदत है जो अपने पारं िभक रप में कु छ पतों और याता-वृतांतों के रप में इधर-उधर िबखरे अंशों के रप में िमलते हैं, आगे चलकर यािन बीसवीं शताबदी में िजनका सवरप जयादा वयविसथत हो गया। सी आतमकथय के पारं िभक साकय के रप में दास-सी यांबा की अफीक़ा याता के कावयातमक अंशों में सी मन की अिभवयिक दीख पड़ती है, िजसमें गोलड कोसट6 का उललेख िमलता है। इसके साथ नाइजीररयाई मूल की दास-सी बेलींडा के आतमकथांश भी िमलते हैं। यदिप यांबा और बेलींडा ने दासी के रप में अपनी वयथा-कथा को किवता और कहानी के माधयम से वयक करने का पयास िकया, िफर भी आलोचक िविलयम ऐंडूज का मानना है िक दासतव ने यांबा और बेलींडा की अिभवयिक को सेंसर िकया होगा, साथ ही उनका अिशिकत होना भी अिभवयिक में बाधक बना होगा। आगे चलकर बेलींडा की कहानी ‘द कू एलटी ऑफ़ मैन हूज़ फे सेज़ वर लाइक द मून’ (1787) नयू यॉकड की िवधान सभा में अपील के तौर पर सामने आई कयोंिक बेलींडा ने अपने मािलक की मृतयु के बाद कितपूितड का दावा िकया था। हालाँिक उसकी कहानी दूसरों ने िलखी, लेिकन अपील में दासी बनने के पहले की िनजी पाररवाररक समृितयों का िज़क है। जबरन दासी बनाया जाना, शारीररक शोषण, मानिसक तनाव, नई भाषा सीखने की चुनौती, मािलक के पररवार में संतल ु न बनाने का पयास और शोषण की दासतान7 ये सब बेलींडा की अपील का अंग हैं। अंगेज़ सीवादी हनना मोरे 8 ने यांबा की कहानी को गीतातमक अिभवयिक दी, िजसने लगभग बेलींडा जैसा दास-जीवन िजया। यांबा कहती है − कँ टीली झािड़यों, दुदमड नीय काली लहरों के बीच से, हर कहीं से, 6 गोलड कोसट, िजसे बाद में सलेव कोसट कहा गया कयोंिक वहीं से बड़ी संखया में अफीक़ी लोगों को दास बनाकर अमेररका लाया गया. 7 बेलींडा ऑर द कू एिलटी ऑफ़ मेन हूज़ फ़े सेज़ वर लाइक द मून, अमेररकन मयूिज़यम ऐंड ररपॉिज़टरी ऑफ़ एंिशएंट ऐंड मॉडनड फयूिजिटव पीसेज़ : पोज़ ऐंड पॉिलिटकल, वॉलयूम 1 जून, 1787. 8 हनना मोरे (पसतुित), ‘द सॉरो ऑफ़ यांबा ऑर नीगो वूमन, इलैकरॉिनक टेकसट सेंटर’, युिनविसडटी ऑफ़ वज्जीिनया लायबेरी. https://www.eighteenthcenturypoetry.org/works/o4179-w0010.shtml.cited on 31.3.2021. 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 136 136 | िमान चारों ओर से मनुषय चुराने वाले लोग चले आए बेिड़यों में बाँधा कोमल मासूम बचचों को मेरे कत-िवकत, िवदीणड यांबा को भी दासी बना ले चले यांबा और बेलींडा जैसी अनेकानेक िसयों ने वैिवधयपूणड अफीक़ी सािहतय की मौिखक परं परा में आतमािभवयिक की होगी, िजसके साकय, समय के पवाह में बह गए होंगे, लेिकन उनकी कलपना सहज ही की जा सकती है। 17वीं-18वीं शताबदी की िबली हॉलीडेज़ और नीना सीमोंस अपनी-अपनी भाषाओं में अिभवयिक करती हुई उपेिकत ही पड़ी रह गई ं या उनहें ‘संतषु दािसयों’ के रप में पहचानकर उनहें समृित पटल से िमटा िदया गया। अशेत समुदाय को िशका के अवसर िमलने के बाद बड़े पैमाने पर ‘दास आखयान’ सामने आए, जो कभी सवानुभिू त और कभी सहानुभिू त से रचे गए। जब तक पुरुष िलखते रहे, उनके आखयानों में अशेत िसयों की िघसी-िपटी सटीररयोटाइप छिव ही िचितत हुई, जो खाना पकाने, मािलकों की िख़दमत, घरों की देखभाल करने में अपना जीवन गुज़ार देती हैं। वसतुतः अशेत ग़ुलाम सी के ‘िनजतव’ बोध की कोई अवधारणा इन रचनाकारों के पास थी ही नहीं। इसके कारणों में उनका सवयं ‘ग़ुलाम’ होना या ‘ग़ुलामों’ से सहानुभिू त रखना और पुरुष-कें िदत रिषकोण था। अशेत िसयों की यह छिव तभी बदल सकती थी, जब वे अपने बारे में सवयं िलखें, शेत और अशेत पुरुष लेखकों दारा गढ़े गए चौखटों में बँधी न रहकर मीिडया-िफ़लमों और टेलीिवज़न माधयमों में पसतुत हासयासपद मोटी, काली मूखड सी की छिव को तोड़ें और अपनी पहचान बनाएँ।9 अशेत िसयों की जो छिव मीिडया और सािहतय ने बनाई, वह अतयंत नकारातमक, झूठी, िविचछनन, िवखंिडत और पूवडगह से गसत थी। बहुसांसकृ ितक अधययन कें दों, अधययन एवं शोध की अपेकाओं एवं पाठकों की वयापक माँग के कारण अशेत िसयों को अपनी कथाओं के साथ समाज में सबके सामने आने के िलए िववश होना पड़ा, तािक वे अपनी अिसमता की पहचान पा सकें , आतमकथा के दारा आतम को पुनपडररभािषत कर सकें , उस पहचान को पाठकों के साथ बाँट सकें । पारं िभक दौर की अशेत सी-आतमकथाओं को ‘आधयाितमक आखयान’ कहा गया, िजनमें अकसर अपनी िववश और दयनीय िसथित के िवरोध में ईसा मसीह से पश िकए जाते। माररया डबलयू सटीवटड ने अशेत दासों की दुदश ड ा के बारे में िलखा : ऐसा कयों है दोसतो! िक हम अजानता के अंधकार में डू बे हुए हैं? कया यह िकसी पाप की वजह से है? कयों हमारा चचड इतनी मुिशकलों से िघरा हुआ है, कया ये भी हमारे ही पापों की वजह से है? कयों ईशर ने हमारे बेहतरीन और समझदार लोगों को मार िदया? ओह... कया इसके िलए भी मैं यह कहूँ िक यह सब हमारे पापों की वजह से हुआ है। पतयेक चेहरे 9 महसीन गदामी, ‘बलैक वूमसं आइडेंिटटी : सटीररयोटाइपस, रे सपेकटेिबिलटी ऐंड पैेशनलेसनेस (1890-1930)’ : 40-55, https://doi.org/10.4000/lisa.806. 31.3.2021 को देखा गया. 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 137 अ ेत Tी -आ कथाएँ : जेडर और समाज के आईने मे | 137 पर उदासी और िचंता की रे खाएँ हैं, और हममें से पतयेक दूसरे की ओर उदास आँखों से देखता है, कया यह भी हमारे पापों की वजह से ही है?10 पहली अमेररकी अशेत सी आतमकथा का यह अंश अपने लोगों की दुदश ड ा से मुिक पाने के उपायों, सामूिहक पयास और सवावलंबन की बात करता है। अपनी सहायता ख़ुद करने के इस आहान को भिवषय के समतावादी िवराट सामािजक-आंदोलन के बीज रप में पहचाना जा सकता है। माररया आगे िलखती हैं िक − ‘अशेतों का उरार, उनकी दशा में सुधार तब तक नहीं हो सकता जब तक वे अपने मूलयों और मानयताओं पर रढ़ न हों और उनमें नैितक बल न हो।’11 फांिसस एलेन वॉनटिकं स हापडर जो अशेत सी पत-सािहतय के कारण पिसर हुई ं, उनहोंने माररया के सुर में सुर िमलाया। 1859 में ‘ऑवर गेटेसट वॉनट’ शीषडक लेख में उसने आधयाितमक रिष से उननत सचचे अशेतों का आहान करते हुए िलखा − ‘हमें सोना-चाँदी नहीं चािहए, वरन् सचचे सी-पुरुष चािहए।12 यहाँ ‘सचचा’ शबद वयाखया सापेक है। सी के संदभड में ‘सचचे सीतव’ की अवधारणा धमड के अनुसार बहुत संकीणड है। साथ ही ‘सचचासीतव’ वयवहार में शेत और अशेत िसयों के िलए अलग-अलग अथड रखता था। आधयाितमक सी-आखयानों में सचचे सीतव की अवधारणा अशेत सी की पराधीनता की जकड़ को कसने वाली थी। ‘सचचा सीतव’ िकस ढंग से शोषक की मानिसकता और िछपे िनिहत सवाथड की बेिड़यों से ग़ुलाम सी को और अिधक ग़ुलाम बनाने की भूिमका रचता है, इसे हैररयट ए. जेकबस के पिसर दास आखयान ‘इंसीडेंट्स इन द लाइफ़ ऑफ़ ए सलेव गलड’ िजसे बाद में ‘आतमकथा’ का दजाड िदया गया, में देखा जा सकता है, जो दास-वयवसथा में सता, सेकस और नैितकता के अंतःसंबंध को वयाखयाियत करता है। दास आखयानों की शेणी में कु छ अनय आखयानों को भी देखा जाना चािहए िजनमें द िहस्ी ऑफ़ मेरी ि्ंस (1831), मेमॉयर ऑफ़ ओलड एिलज़ाबेथ, ए कलडड वुमन (1863), द सटोरी ऑफ़ मैटी जैकसन 10 मेररिलन ररचड् डसन (1987) : 35. वही. 12 फांिसस एलेन वॉनटिकं स हापडर (1859) : 160. 11 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 138 138 | िमान (1866), फ़ॉम द डाकड नेस कोमेथ द लाइट ऑर स्गल फॉर फ़ीडम (1891) के ट द्रमगूलड् स ए सलेव गलसड सटोरी (1898) और एनी एल. बटडन की मेमॉयर ऑफ़ चाइलडहुड्स सलेवरी डेज़ (1909) पमुख हैं।13 हैररयट ने आतमकथा में अशेत सी की यौन-नैितकता वॉनट की समसया को उठाया, लेिकन आगे के सी-आखयानों में यौिनकता के पश को दरिकनार कर िदया गया। दास िवरोधी नैितक िवमशड सी को जयादा ग़ुलाम बनाने की पसतावना करता था, जो सी की यौिनकता से जुड़ा हुआ था, इस िवमशड पर आगे बहस कयों नहीं हुई? कया दास-सी आखयानकारों को उन पशों के समाधान िमल चुके थे या वे सी की यौिनकता के पश को दास-िवरोधी आंदोलन के िलए ख़ास महतवपूणड नहीं मानते थे? जो भी हो, सी-यौिनकता के पश के समाधान के िलए हैररयट की आतमकथा के सात वषड बाद िलखी गई एिलज़ाबेथ के कली की आतमकथा िबहाइंड द सीनस14 को देखा जा सकता है। यदिप राषरपित िलंकन के पररवार से जुड़े होने के कारण इसे ‘गॉिसप’ भी कहा गया, लेिकन इसमें कु छ ऐसे मुदों को भी बड़ी पखरता से उठाया गया, िजनहें हैररयट इंसीडेंट्स इन द लाइफ़ ऑफ़ ए सलेव गलड में नहीं उठा पाई। इसके एक अधयाय ‘ए पेररलसड पैसेज इन ए सलेव गलसड लाइफ़’ में जेकबस ने यह बताया है िक अपने मािलक की रखैल बनने की अपेका उसने पंदह वषड की अवसथा में शेत पेमी के साथ भाग जाना पसंद िकया। वह िलखती है − ‘िकसी भी तरह की िवपरीत पररिसथित में भी मैं अपनी शुिचता बचाए रखना चाहती थी। मैंने अपनी पिवतता, आतमसममान बनाए रखने की हर संभव कोिशश की, अके ली ही दासतव के शैतानी िशकं जे से िनकलने के िलए संघषड करती रही, लेिकन दासपथा मुझसे कई गुना अिधक शिकशाली थी’।15 वंशानुगत ग़ुलामी से संघषडरत, बहुसतरीय शोषण की िशकार सी दारा सीतव की शुिचता और मयाडदा को बचाए रखने की कोिशश और दास-वयवसथा को मानुषते र आसुरी शिक के रप में िचितत करने को दासतव के िवरोध में नैितकता का शास रचने के पयास के रप में देखा जाना चािहए। नैितकता और शुिचता को दासतव से लड़ने के िलए हिथयार के रप में इसतेमाल िकया जाना एक दूसरे ढंग से दासतव को और अिधक ठोस बनाना भी है, कयोंिक यहाँ शुिचता का संबंध यौन-शुिचता से है, िजसे पुरुष वचडसववादी वयवसथा में ‘मूलय’ के रप में इसतेमाल िकया जाता है। हैररयट जेकबस अपने जनमसथान को अंधकू प के रप में याद करती है, िजसमें पकाश की एक भी िकरण का पिवष होना किठन था।16 वह दास पथा के भषाचार में िलप्त शेत और अशेत दोनों पर िटपपणी करती है।17 दास होते हुए भी उसने अपने बचचों को पालने में सीतव की साथडकता पाई − ‘मेरे बचचे आयरलैंड की ग़रीबी में रहें, वह अमेररकी दास-पथा में रहने 13 हैररएट ए. जेकबस (1987, 1861). एिलज़ाबेथ के कली (1868) : 100. 15 हैररयट ए. जेकबस, वही : 54. 16 वही : 37. 17 वही : 51. 14 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 139 अ ेत Tी -आ कथाएँ : जेडर और समाज के आईने मे | 139 से हज़ार गुना बेहतर होगा। एक ईषयाडलु मालिकन और अिशष मािलक के साथ रहने से बेहतर है कपास के खेत पर जी-जान से मज़दूरी करते हुए मर जाना’ − लेिकन आतमकथा में ही वह मालिकन शीमती बूस के पित कृ तजता जािपत करते हुए कहती है − ‘ईशर की इचछा थी िक मैं अपनी िमत शीमती बूस के साथ रहू।ँ मुझे पेम, कतडवय और कृ तजता ने उनके साथ जोड़ रखा है, िजनकी सेवा करना मेरा िवशेषािधकार रहा है।’18 िजस आज़ादी के िलए हैररयट पूरी िज़ंदगी संघषड करती रही, दास-पथा से मुक होने के िलए छटपटाती रही, उससे मुिक भी िमली लेिकन तभी उसकी नैितकता आड़े आ गई। उसने मालिकन के पित कतडवय और नैितकता की डोर में सवयं को बँधा हुआ पाया। यह जेकबस के ‘मुिक संघषड’ का भावनातमक पक सामने लाता है और यहाँ पर ‘पूणड मुिक’ की अवधारणा जैसे कालपिनक हो उठती है। इसके बरअकस यिद हम एिलज़ाबेथ के कली के आतमकथय ‘पद्ट्रे के पीछे ’ (िबहाइंड द सीनस) को देखें िजसमें एिलज़ाबेथ का कहना है िक – ‘दासतव ने मुझे िसफ़ड और िसफ़ड अपने ऊपर िवशास करना िसखाया। दासता के पभाव से मैं अपररपकव अवसथा में ही बहुत से जान से भर गई, दुिनया का कु रपतम पक मेरे सामने उघड़ गया।’19 एिलज़ाबेथ शारीररक-मानिसक शोषण का िशकार रही, लेिकन वह कहीं भी ख़ुद को िनरुपाय, असहाय सी के रप में िचितत नहीं करती। शेत पुरुष से शारीररक संबंध की घटना का वणडन वह िनसपृह भाव से पाँच वाकयों में समाप्त कर देती है − ‘अपने रं ग के कारण मुझे अशेतों में कु छ कम अशेत लड़की के रप में जाना जाता था। शेत वयिक िजसका नाम मैं दुिनया को बताना नहीं चाहती − उसने लगातार चार वष्गों तक मेरा शारीररक शोषण िकया और मैं माँ बन गई − मैं िसफ़ड एक ही बचचे को दुिनया में लाई। मेरे बचचे को जनम के कारण यिद कभी अपमान झेलना पड़ा, तो उसने कभी अपनी माँ को अपराधी नहीं ठहराया। ईशर जानता है िक वह कभी उसे जनम नहीं देना चाहती थी, उसे समाज की उन पथाओं को दोष देना चािहए जो िकसी लड़की को वैसी पररिसथितयों में डाल देती हैं, जो मेरी तब थीं’।20 दासतव के साथ सी होने की िनयित इन िसयों की पीड़ा को दोहरा कर देती है। अिनिचछत, थोपे हुए मातृतव की पीड़ा एिलज़ाबेथ को िवदीणड करती है, उधर हैररयट जेकबस भी अपने शरीर और मन पर हुई ज़बदडिसतयों की पीड़ा से वयिथत है। जहाँ एिलज़ाबेथ अपनी पीड़ा की अिभवयिक भरसक तटसथ ढंग से कर पाती है वहीं जेकबस पाठकीय सहानुभिू त गहण करना चाहती है। एिलज़ाबेथ िसफ़ड इतना ही कहती है − ‘उसने कभी अपनी माँ को अपराधी नहीं ठहराया’ − सपष है वह दिकणी शेत समाज की बात कर रही है, लेिकन िकसी वयिक पर ‘नैितक िज़ममेदारी’ का बोझ डालना उसका उदेशय नहीं है। उसका यह कहना िक ‘मेरी ततकालीन पररिसथितयों में िकसी लड़की के िलए ऐसा ही संभव था’ − वतडमान और 18 वही : 201. एिलज़ाबेथ के कली, वही : 74. 20 वही : 39. 19 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 140 140 | िमान अतीत की पररिसथितयों में सपष अंतर कर देता है। एिलज़ाबेथ की वतडमान िसथित अतीत से बहुत बेहतर है, वतडमान में वह ऊँची सामािजक िसथित को पाप्त कर चुकी है। तब जैसा था, अब वैसा नहीं है − अतीत और वतडमान का यह फ़क़ड जो वह कर पाती है, वैसा हैररयट जेकबस के यहाँ संभव नहीं है। एिलज़ाबेथ मधयवग्जीय यौन-नैितकता के पश से नहीं जूझती, बिलक बुज़डआ ु समाज के ऊँचे सतर तक पहुचँ ने की याता के वणडन तक आखयान को िवसतृत कर लेती है। ‘इंसीडेंट्स’ में जहाँ बीस पृषों में जेकबस ने िसफ़ड यही िलखा है िक कै से उसने सवयं और संतानों को दास पथा के िशकं जे से मुक िकया, वहीं एिलज़ाबेथ सवयं और अपनी संतान पर पूरा धयान कें िदत करती है। उसके दारा विणडत दास-पथा से मुिक की पूरी पिकया में वयापाररक कौशल और वयावहाररकता दीखती है। एिलज़ाबेथ अपने मािलकों के घर से ख़ाली हाथ आती है, उसका कहना है − ‘यिद उनहें मुझ पर िवशास नहीं तो मैं भी जाते समय उनसे कु छ नहीं लेना चाहूगँ ी।’ इसे ‘िवनम्र गवड’ कहने वाली के कली का सवािभमान शेत मािलकों की मार-िपटाई, अपमान तोड़ नहीं सका और वह ख़ाली हाथ लेिकन हृदय में मुिक का उचछवास िलए आिथडक सवावलंबन की राह में िनकल पड़ी। इस अथड में िबहाइंड द सीनस सी-दास की सफलता और आतमपशंसा का आखयान है। दास-पथा से मुक होने के बाद हैररयट जेकबस के जीवन का सपना हैै − एक अदद अपना घर और आिथडक सवावलंबन − िजसे वह पूरा भी करती है। जबिक एिलज़ाबेथ का सपना यहीं तक सीिमत नहीं है। वह आिथडक आतमिनभडरता के साथ-साथ ‘कररयर वुमन’ बनना चाहती है। वह वािशंगटन की पिसर फ़ै शन िडज़ायनर बनने की िदशा में पयास करती है। बीस लोगों का समूह बनाकर पररधान-वयवसाय को आगे बढ़ाती है, शीघ्र ही राषरपित िलंकन के मंितमंडल और पररिचतों में उसके बनाए पररधानों की धूम मच जाती है, वह िलंकन की पतनी की िवशसत बन जाती है। एिलज़ाबेथ और हैररयट की आतमकथाओं को साथ रखकर पढ़ने से पाठकों को यह पता लग सकता है िक दास-पथा से मुिक का आयाम िसफ़ड शारीररक नहीं बिलक मानिसक और भौितक भी था। दोनों ने मुिक की अवधारणा को नया अथड िदया तथा समाज में सवयं को सािबत और सथािपत करने का पयास िकया। आतमकथा का पकाशन उनके इसी पयास का एक िहससा था। एिलज़ाबेथ के कली एक शिमक दास सी के रप में अपने शोषण की पिकया से बख़ूबी वािक़फ़ थी। आतमकथय के शुर में ही वह अपने पहले मािलकों, िजनहोंने उसे ‘िज़दी और गव्जीली सी’ कहा था – को याद करती हुई िलखती है − ‘वे हमेशा कहा करते िक मैं नमक की क़ीमत कभी अदा नहीं करँगी।’21 बाद में, सेंट लुइस में बतौर शिमक दासी उसने मािलकों के लंबे-चौड़े कु नबे का भरण-पोषण िकया – ‘कपड़ों की िसलाई करके मैं सतह लोगों की रोटी दो साल पाँच महीने तक जुटाती रही। इतना कड़ा पररशम इसिलए करती रही िक मेरी तुलना में दूसरे आराम और सुख-सुिवधा से रह सकें − उस समाज में सवचछं द िवचरण कर 21 वही : 21. 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 141 अ ेत Tी -आ कथाएँ : जेडर और समाज के आईने मे | 141 सकें िजसमें जनम के कारण उनको कोई रोक-टोक न थी। मेरे मन में अकसर यह बात पूछने का िवचार आता िक ‘मैंने नमक की क़ीमत अदा की या नहीं? और तब, संभव है उनके होंठ उपहास में वक हो जाते।’22 किठन शम कर मािलक के सतह सदसयीय कु नबे को पालना कोई हँसी-खेल नहीं था, वह अपने हुनर के कारण ही यह कर पाई। बाद में चलकर यही कौशल उसकी मुिक, आिथडक सवावलंबन और उचचसतरीय सामािजक िसथित की पािप्त का आधार बना। एिलज़ाबेथ का पूरा ज़ोर शिमक सी होने पर है जबिक हैररयट बारबार दासतव को याद करती है। संभवतः इसीिलए हैररयट की आतमकथा की सीमाएँ हमें सपष दीख पड़ती हैं, जबिक एिलज़ाबेथ आदशडवाद और नैितकतावाद की जगह पूरी तरह भौितकवादी सवािभमानी रुझान अपनाती है। यह रुझान ही उसकी नमकहलाली पर उठे पश का उतर बनकर खड़ा हो जाता है। मािलक के पित वफ़ादारी, नमकहलाली जैसे नैितक मूलयों का दास-िसयों दारा पालन अपेिकत था, उननीसवीं सदी के मधय तक अिधकांश दास आखयानों में कु छ अवधारणाएँ समान रप से उपिसथत हैं, जैसे − ईशर के पित कृ तजता, रं गभेद वाले समाज में जनम लेना और सवयं को सवतंत जीवन जीने के िलए उपयुक पात मानना। ‘वॉनट आर वी वथड’ शीषडक लेख में अनना जूिलया कू पर ने िलखा है िक ‘दुिनया सवतंतता के इचछु क वयिक से पश करती है िक तुमहारी क़ीमत कया है।’23 उननीसवीं शताबदी के उतरारड की अशेत सी आतमकथाओं को पढ़कर पता चलता है िक बहुत-सी िसयों ने ‘क़ीमत’ वाले पश का उतर भौितक संदभड में आिथडक सवायतता, सामािजक नेततृ व और शैिकक केत में उपलिबधयों के अजडन दारा िदया। दास आखयानों में अपनी बात को एक िनि्चित खाँचे में रखकर पसतुत करने की अमूमन एक समान पवृित िदखाई देती है, ये सभी एक फ़ामूल ड े के आधार पर िलखे गए। इनमें पूरी कथा लगभग और अकसर छह चरणों में िलखी जाने की पवृित है। पहले चरण में कथाकार के जनम-सथान और पररिसथित का वणडन होता है, िजससे पाठक को पहले ही पता चल जाता है िक वह ग़ुलाम आखयान से रबर होने जा रहा है, जैसे हैररयट जेकबस िलखती है − ‘मैं ग़ुलाम ही पैदा हुई लेिकन यह बात मुझे बचपन के छह वष्गों तक पता ही नहीं थी।’ मेरी िपंस भी इसी तज़ड पर िलखती है − ‘मेरा जनम बारमूडा के बािकश पाँड में िमसटर चालसड माइनसड के फ़ॉमड पर हुआ।’ दास आखयान का दूसरा चरण ग़ुलाम के रप में जीवन याता के पारं िभक चरण से संबर होता है, िजसमें दास का जनम, पाररवाररक पृषभूिम, मािलक के वयवहार, कायडसथल तथा मािलकों के िकयाकलापों और अकसर दुवयडवहार के लंबे-लंबे पमाण िदए जाते हैं। जेकबस और मेरी िपंस, दोनों, अपने आखयानों में अपने िपताओं के बारे में िलखती हैं, जो नज़दीक के फ़ाम्गों पर ही रहते थे, लेिकन दोनों की िसथित में मूलभूत अंतर था। हैररयट जेकबस िलखती है − ‘मेरे िपता बढ़ईिगरी करते थे और अपने कायड में इतने दक और चतुर थे 22 23 वही : 45-46. ऐना जूिलया कू पर (1998, 1892) : 285. 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 142 142 | िमान िक कोई भी ख़ास इमारत बनने पर उनहें मुखय बढ़ई के रप में दूर-दूर भेजा जाता था। अपनी मालिकन को दो सौ डॉलर वािषडक कर चुकाने के एवज में उनहें ख़ाली समय में बढ़ईिगरी करने की अनुमित थी। उनका सपना था अपने बचचों की आज़ादी ख़रीदना। बारह वषड की उम्र तक हैररयट को जो मािलक िमले वे अपेकाकृ त उदार थे, िजनहोंने थोड़ा सनेह और आतमीयता भी दी थी, िजसके कारण हैररयट पढ़-िलख सकी, जबिक मैटी जैकसन और मेरी िपंस को बचपन से ही शेत मािलकों दारा घोर पताड़ना का िशकार होना पड़ा। मेरी जैकसन अपने आतमकथय में िलखती है िक उसके मािलक िमसटर िविलयम लुईस बड़े ही कू र थे − ‘वह अकसर छोटी-छोटी बात पर सज़ा देने से नहीं िहचकता। एक बार शीमती लुईस िकसी छोटी-सी बात पर माँ से नाराज़ होकर ज़ोर-ज़ोर से िचलला रही थी तभी िमसटर लुईस वहाँ आया और उसने धकका देकर माँ को ज़मीन पर िगरा िदया। उसकी पतनी हम बचचों के कान ज़ोर-ज़ोर से उमेठती रही... ।’ मेरी िपंस के अनुभव भी कु छ ऐसे ही रहे। उसने िलखा िक मालिकन के मरते ही, िकशोरावसथा के पारं िभक िदनों में ही वह अपने मािलक के िनदडयी यौन-शोषण का िशकार हो गई। सामानय तौर पर दास आखयानों का तीसरा चरण सवयं की िसथित अथाडत दासतव की पहचान से संबर होता है। इस चरण में ग़ुलाम का यह अहसास अिभवयक होता है िक वह कै से अनय लोगों से अलग है। हैररयट जेकबस इसके पीछे िछपे कारण को पहचानने का पयास करती हुई कहती है िक बचपन में अशेत बचचे दासता का बोध नहीं कर पाते, कयोंिक अकसर उनहें मािलकों के बचचों के साथ खेलने की अनुमित होती है। दूसरी बात है िक जब एक बचचा दास के रप में बेचा जाता है, तभी माँ से दूर होकर वह अपने दासतव का वासतिवक बोध कर पाता है। तीसरी महतवपूणड बात है − िशका। िशका ही आतमजान का माधयम बनती है। दास आखयान इस बात का पमाण हैं िक पढ़ने-िलखने और मुिक-आकांका का गहरा संबंध है। जो सी या पुरुष, पढ़ना-िलखना सीख गए, उनहोंने अिशिकतों की अपेका अपने दासतव बोध को जयादा गहराई और तीव्रता से अनुभव िकया। हैररयट जेकबस ने पढ़ना-िलखना सीखा और आतमकथय सवयं िलखा, जबिक मेरी िपंस को आतमकथय िलखवाने के िलए िकसी अनय की सहायता लेनी पड़ी। दास आखयानों के चौथे चरण में रचनाकार अपनी मुिक के उपाय और दासतव से भागने के रासते ढूँढती िदखाई देती है। मुिक के िलए वष्गों की योजना, पखर कलपनाशिक और अपररिमत धैयड की आवशयकता होती है, िजसके बल पर वह ग़ुलामी से भाग िनकलने का मागड ढूँढ लेती है। हैररयट जेकबस को अपने बचचों के दास बना िलए जाने का भय था इसिलए वह िदनों तक एक गड् ढे में िछपी रही। मुिक के साहिसक अिभयान का वणडन मेरी जैकसन ने भी िकया है। वह िलखती है – ‘माँ को कै पटन पलािसयो और मेरी बहन को बेंजािमन बोडड के पास बेच िदया गया। मुझे कै पटन िफ़सबी के पास बेचा गया। माँ और भाई को कै पटन ने आठ सौ डॉलर में ख़रीदा। मेरी सोलह साल की बहन को साढ़े आठ सौ डॉलर और मुझे नौ सौ 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 143 अ ेत Tी -आ कथाएँ : जेडर और समाज के आईने मे | 143 डॉलर में बेचा गया। यह 1863 की बात है। अपने पररवार में मुझे सबसे जयादा दुख झेलना पड़ा। मुझे एक भी िदन भरपेट खाना और ठं ड से बचने का कोई तरीक़ा नहीं िमला। मैं िजस घर में रहती थी, वह बहुत बड़ा था। वहाँ मुझे कभी आग सेंकने का अवसर नहीं िमला... छह महीने मैं उस जगह से भागने की कोिशश करती रही। मैं सुबह चार बजे उठकर इस ताक में रहती िक मुझे मदद करने वाला कोई िमल सके । मुझे पंदह िदन में एक बार तीन मील की पररिध तक जाकर वापस लौटने की इजाज़त िमली हुई थी। ऐसे ही एक मौक़े का फ़ायदा उठाकर मुझे आिख़र में सफलता िमली।’24 दास आखयानों के पाँचवें चरण में अकसर मुिक के िलए वासतिवक रप में तय की गई साहिसक याता का वणडन होता है। उदाहरण के िलए मेरी जैकसन िलखती है ‘मैं अंडरगाउंड रे लरोड के सदसयों के संपकड में आई जो भागने में अशेत लोगों की मदद करते थे। रिववार को मैंने चचड जाने की इजाज़त माँगी, जो कु छ ना-नुकर के बाद इस शतड पर मुझे दे दी गई िक मैं अपना सारा काम िनपटा कर ही जाऊँगी। मालिकन ने मेरे चचड जाने में देरी कराने की पूरी कोिशश की। यहाँ तक िक मेरे बाहर आने के वकत उसने कहा िक वह घुड़सवारी करने जा रही थी, इसिलए उसके छोटे लड़के के कपड़े बदलने के िलए मुझे कु छ देर और रुकना पड़ा। मैंने कपड़ों के नौ जोड़े अपने लहँगे के नीचे पहने जाने वाले बड़े छलले के साथ बड़ी सावधानी से बाँध िलए थे। मुझे इस बात का डर था िक कहीं बचचे को तैयार करते हुए कपड़ों की गाँठ खुल न जाए और मेरी पोल न खुल जाए। मुझे बड़ी वयगता हो रही थी। मैं सावधानी से दरवाज़े के अंदर-बाहर जाती हुई अपनी उतसुकता को िछपाए रही। मालिकन और मािलक के बाहर िनकल कर आँख से ओझल होते ही मैं बाहर िनकली। मुझे रासता बताने के िलए एक गाइड बड़े धैयड से मेरा इंतज़ार कर रहा था और चचड तक पहुचँ ने तक वह मुझ से कु छ दूरी बनाए चलता रहा। वहाँ मुझे दो लड़िकयाँ िमलीं, िजनहोंने मुझे एक अनुमित पत िदया और कु छ दूरी तक अपने पीछे आने को कहा। शाम हो चली थी। वहाँ सैिनकों का एक झुणड नाव से पार जाने वाला था। मैंने अपना अनुमित पत िदखाया और मुझे नाव पर चढ़ने की इजाज़त िमल गई। लेिकन कु छ सैिनकों के अलावा इस ओर िकसी ने धयान नहीं िदया। मैं नाव के एक कोने 24 ‘मेरी जैकसन की कहानी’ (2008), अनयथा में पकािशत अंश : 240. 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 144 144 | िमान में िसमट कर बैठ गई और कु छ समय बाद मैंने आज़ाद धरती पर पहला क़दम रखा।’25 सोजोनडर रू थ िजसका वासतिवक नाम इज़ाबेला बोमफी था, ने अपनी कथा ‘नैरेिटवज़ ऑफ़ सोजोनडर र्रुथ’ में बताया िक मात सौ डॉलर के िलए वह नौ वषड की उम्र में ‘दास’ बन गई। सन् 1810 से 1828 तक वह शेत मािलकों के दारा यौन-शोषण, मार-िपटाई का िशकार बनती रही। अपने बचाव का एकमात रासता उसे आधयाितमक रुझान की ओर ले गया। इज़ाबेला अपनी शादी के पसंग में िलखती है – ‘एक काले ग़ुलाम ने शादी की रसमें इस तरह पूरी कीं जैसे कोई सचचा पादरी। पर दरअसल यह मज़ाक़ और बड़ा झूठ था। यह शादी िकसी वकत भी मािलक के िहत या मािलक की मज़्जी से भंग की जा सकती थी। ...मािलक लोग ग़ुलामों को घोड़ों की तरह ही समझते हैं। ... इज़ाबेला को बचचे पैदा करने की इजाज़त िमली, वह ख़ुश थी िक उसने अपने मािलक की जायदाद में बढ़ोतरी की है। िपय पाठक, िबना शमड के एक कण को सोचें िक कया कोई माँ गवड, सवेचछा से अपने हाड़-मांस से पैदा हुए बचचों को दास पथा की ख़ूनी बिलवेदी पर नयौछावर कर सकती है? पर यह याद रहे िक ऐसी क़ु बाडनी देने वाली माँ नहीं कोई ‘चीज़’ या ‘जायदाद’ या कभी भी बेच दी जा सकने वाली शै है।’ ...इज़ाबेला को चार जुलाई 1827 को आज़ाद होना था। पर उसने तब तक सारा काम िकया, जब तक और कोई काम बाक़ी ही नहीं रहा। तब इज़ाबेला ने अपनी आज़ादी का फ़ै सला अपने हाथ में िलया और अपनी िक़समत कहीं और आज़माने की सोची। वह रात को कहीं जाने से डरती थी और सुबह उसे कोई देख लेता। अंत में, उसने भोर के वकत िमसटर ड् यमू ों के िपछले दरवाज़े से अपनी ग़ुलामी से िवदा ले ली। उसकी एक बाँह पर नवजात िशशु था और एक हाथ में सूत का रुमाल िजसमें ज़ररत की कु छ चीज़ें। मािलक के घर से दूर पहाड़ी के िशखर पर जब पहुचँ ी तो सूय्थोदय हो रहा था। उसे ऐसा लगा जैसे आज के पहले उसने कभी रोशनी देखी ही नहीं थी।’26 इसी पकार लाइफ़ ऑफ़ ए सलेव गलड में हैररयट जेकबस ने भी दासतव से मुिक का पसंग िवसतार से बताया है िक कै से वह अपने मािलकों से बचती-बचाती िफ़लाडेिलफ़या पहुचँ ी। दास आखयानों के अंितम चरण में कथाकारों ने एक मुक मनुषय के रप में सवयं को अिभवयक िकया। आतमकथाकार अपने रचनातमक रिषकोण को भी इसी चरण के अंतगडत वयक करती हैं। दास आखयान िलखने में उनहें कयों पवृत होना पड़ा, इसे भी मेरी िपंस ने आखयान के अंितम चरण में बताया है िक वह अपनी कथा िलखते समय भी क़ानूनी तौर पर ग़ुलाम थी और अपने मािलक के साथ इंगलैणड में रह रही थी, जो तब तक दासपथा से मुक हो चुका था। बरमूडा में रहकर उसके िलए आतमकथा िलखना संभव नहीं था। अशेत दास आखयानों के संदभड में सी और पुरुष की रचना रिष का पारसपररक अंतर 25 वही : 241. इज़ाबेला बॉमफी, ‘नैरेिटव ऑफ़ सोजोनडर रूथ’, िहंदी रपांतर डॉ. भवजोत, अनयथा पितका, जून, 2008 : 245, (नैरेिटव ऑफ़ सोजोनडर रू थ-आन्थो पेस नयू यॉकड और मूल रप में नयू यॉकड टाइमस में सन् 1850 में छपी). 26 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 145 अ ेत Tी -आ कथाएँ : जेडर और समाज के आईने मे | 145 देखना भी िदलचसप हो सकता है। दासतव के अनुभव जेंडर के अंतराल से कै से अलग हो जाते हैं, इसे दास सी-पुरुषों की अनुभिू त के अंतर से जाना जा सकता है। जैसा िक हैररयट जेकबस ने िलखा है िक ‘पुरुष के िलए दासता तासद है लेिकन सी के िलए उससे भी कहीं जयादा तासद और यातनापद है।’ ग़ुलामी का जीवन, जीवन के मूलभूत अिधकारों से वंिचत जीवन है। अपमान, अपशबद, मानिसक-शारीररक शोषण और पताड़ना के िशकार सी और पुरुष दोनों थे, लेिकन िसयों के संदभड में यह पताड़ना दोहरी हुआ करती। सी िलंग के कारण उनकी देह शोषण की साइट होती। एक बार ‘दास’ बन जाने के बाद मािलकों की यौनेचछा की पूितड करना उनकी िववशता होती। अकसर वे मािलकों के यौन शोषण का िशकार होतीं, बदले में उनहें मालिकनों के कोध और ईषयाड का िशकार होना पड़ता। मािलक और मालिकन अपने-अपने ढंग से उसे पतािड़त करते। सद्वयवहार अकसर उनके िहससे में नहीं आता। मेरी िपंस िनरं तर यौन-शोषण और अपमान की समृित को भुला नहीं पाती − ‘मािलक और मालिकन बहुत छोटी-छोटी ग़लितयों के िलए मेरी िपटाई िकया करते। रससी से बाँध कर, उलटा लटका कर िपटाई करना एक आम बात थी। मेरा मािलक अकसर नगन होकर टब में लेट जाता और मुझे नहलाने की आजा देता था − यह काम मुझे िपटाई खाने से भी बदतर और घृिणत लगता।’ हैररयट जेकबस अपनी दादी के दास जीवन के बारे में िलखती − ‘मेरी दादी छोटी सी बचची थी, जब उसे होटल के मािलक को बेच िदया गया। बड़े होने पर मािलक को लगा िक इतनी ज़हीन दासी को खोना बेवक़ू फ़ी होगी तो वह उनके घर का अिनवायड अंग बन गई। रसोई ंदाररन, दिज़डन, वेटर, नसड − सब काम वही करती। उसके बनाए नमकीन िबिसकट सब पसंद िकया करते। मालिकन की अनुमित से वह रात को िबिसकट बनाकर बेचती तािक अपने बचचों के िलए भोजन-वस जुटा सके , अपने बचचों को वापस ख़रीद सके । मेरी दादी के पाँच बचचे थे। मालिकन के चार बचचे थे। इसिलए दादी के सबसे छोटे, होनहार, हलके रं ग के बेटे बेंजािमन को बेच िदया गया तािक मालिकन के चारों बचचों को जायदाद में बराबर िहससा, एक-एक ग़ुलाम बचचा और बेंजािमन की िबकी का एक चौथाई िहससा िमल सके । इससे मेरी दादी को गहरा धकका पहुचँ ा।’ दादी के अनुभव अपने पभाव में इतने सघन थे िक हैररयट जेकबस ने उनसे सीख ली। उसने अपने मािलक से बचने के िलए िकसी और शेत वयिक से गभडधारण करने का चुनाव िकया तािक कम से कम उसके बचचे जनमत: ग़ुलाम न हों। यह बात ग़ौरतलब है िक इन दास रह चुकी िसयों के आखयान लगभग समान हैं। दरअसल एक समुदाय के रप में अशेत दास िसयाँ अपना आखयान िलखकर पाठकों को शोषण की बहुसतरीय सामािजक संरचना से रबर कराती हैं। एक अशेत सी दास के शोषण की बहुआयािमता को जाने बग़ैर सी आतमकथयों के वैिशष्य को नहीं समझा जा सकता। अशेत दासों के िलए िनजी संपित, मौिलक अिधकारों का कोई अथड नहीं था। खेतों और घरों में काम करते हुए उनहें कभी अपने पररवार से दूर रहकर कोड़े खाने की सज़ा िमलती, तो कहीं 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 146 146 | िमान वे जीवनपय्ग्रंत बेगारी करने के िलए अिभशप्त थे। लेिकन जहाँ तक सी दास का पश है, उनकी पहचान के तीन सतर थे – अशेत, सी और दास। सी होने के कारण वे अकसर अपने मािलकों के बलातकार को गभड में धारण भी करतीं। माँ बनकर उसके शोषण में एक आयाम और जुड़ जाता, उसकी पीड़ा चौगुनी हो जाती, कयोंिक एक ओर उनके पास बचचे के िलए कोई सुिवधा न होती, न ही समय, उनहें मूक भाव से अपने बचचों की पशुवत ख़रीद िबकी का साकय बनना पड़ता। िकसी भी जानवर के बचचों की तज़ड पर उनके मािलकों का पूरा अिधकार दास-सी के गभड पर रहता। दास-िसयों के आखयान सी देह के शोषण के सवानुभतू अनुभवों के बारे में पामािणक जानकारी देते हैं। ‘गोलड कोसट’ से वज्जीिनया लाए गए दासों से भरे जहाज़ ने सन् 1672 में अपनी पहली खेप पूरी की थी तब से 1861 तक अशेत दास-दािसयों ने धमड और वफ़ादारी से दासतव का पालन िकया, कयोंिक यह उनकी िनयित बनाई जा चुकी थी। सन 1861 में उनहें िविधसममत सवतंतता िमली। अब वे दासतव से मुक थे लेिकन उनहें बतौर नागररक कोई अिधकार नहीं िदया गया। अशेत पहले दास थे, क़ानून ने उनहें िदशाहारा बना िदया। िशका का अभाव, िनधडनता, उनके िलए रोज़गार के अवसरों का न होना, ग़ैर अशेत समाज में उनकी असवीकृ ित जैसी तासद िसथितयों में बदलाव की िकरण लगभग सौ वषड बाद िदखाई दी, जब सन् 1963 में मािटडन लूथर के नेततृ व में नागररक अिधकार आंदोलन शुर हुए। बराबरी से जीवन जीने, िशका गहण करने, रोज़गार करने के अिधकार की माँग और काम के अनुरप वेतन की माँग ने पूरे िवश को अशेतों की आवाज़ सुनने पर बाधय कर िदया। मूलय िवहीन, अिशिकत और हािशए की अशेत आवाज़ों को अब और अनसुना करना संभव नहीं रह गया। अपनी आवाज़ सुनाने, समानता के अिधकार की माँग के िलए अशेत समुदाय को लंबा संघषड करना पड़ा। सीवादी िचंतकों का मानना है िक अमेररका में अभी भी रं गभेद समाप्त नहीं हुआ है। सता के शीषड सतरों पर नसलभेद अभी भी मौजूद है और वयवहार में भी शेत समुदाय दारा अशेतों की सहज सवीकृ ित बाक़ी है। हाल के वष्गों में अशेतों के दमन और शोषण की सांसथािनक घटनाएँ इस अवधारणा को पुष करती हैं। बीसवीं शताबदी में नागररक अिधकार आंदोलन और सी आंदोलन के दौर में अशेत िसयों ने बड़े पैमाने पर सवानुभवों की अिभवयिक के िलए सािहतय की िविभनन िवधाओं को माधयम बनाया। सन् 1963 में मािटडन लूथर के नेततृ व में राजधानी वॉिशंगटन में दो लाख अशेतों का जुलूस िनकला, जो अशेत मानस की इचछाओं और समानता के अिधकार की आकांका से पेररत था। आगे आने वाले बीस वषड अशेत आंदोलन के इितहास में बहुत महतवपूणड सािबत हुए, िजनहोंने अशेत संसकृ ित, संगीत, कला, सािहतय, भाषा के माधयम से समूचे िवश में अपनी िविशष पहचान बना ली। 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 147 अ ेत Tी -आ ििोध के आ ान : आ की पुन ्प्र कथाएँ : जेडर और समाज के आईने मे | 147 ुि अशेत दास आखयानों के अगले चरण में 1960 से 1975 के दौरान िलखे गए अशेत आतमकथयों को ‘पितरोध के आखयानों’ के रप में देखा जाना चािहए िजनमें ततकालीन अमेररकी समाज की करवटों के सामािजक साकय हैं। इनमें सामािजक आंदोलनों के िविवधमुखी पकों की अिभवयिक िमलती है। इस दौर के सी आतमकथयों में इरीना रातुिशनसकया का गे इज़ द कलर ऑफ़ होप, ररज़ोबताड मेंचू का आय और ऐन इंिडयन वूमन इन गुवाटेमाला, मेरी िकं ग का फ़ीडम सॉनग, एंजेला डेिवस की ‘ऐन ऑटोबायोगाफ़ी’, इलेन बाउन की ए टेसट ऑफ़ पॉवर : ए बलैक वूमसं सटोरी गवेनडीलाइन बुकस की ररपोटड फ़ॉम पाटड वन, हैररसन जैकसन की देयर इज़ निथंग आई ओन दैट आय वॉनट; ऑसी गफ़ी की िद ऑटोबायोगाफ़ी ऑफ़ ए वूमन, मेरी बूकटर की िहयर आय एम : टेक माय हैंड, महािलया जैकसन की मूिवंग ऑन अप, माया एंजेलो की आय नो वहाय द के जड बड् डस िसंग, पलड बेली की द रॉ पलड, रोज़ बटलर बाउन की आय लव माय िचल्ेन, अनना हेज़मैन की द ्मपेट साउणड् स, असाता शकू र की असाता जैसी अनेक महतवपूणड आतमकथाएँ सामने आई िजनमें ं नसलभेद, रं गभेद एवं यौिनकता के मुदे उठाए गए। जहाँ पारं िभक अशेत दास आखयान ग़ुलामी के नकारातमक पहलुओ ं को उजागर करने के िलए िलखे गए, वहीं बीसवीं शताबदी के मधय के कांितधम्जी दौर में दास पथा के उनमूलन, साकरता और िशका के अवसरों ने यह िसर कर िदया िक सवतंतता और िशका का अननय संबंध है। िशका ने अशेत रचनाकारों को अपने समुदाय के राजनीितक-सामािजक-सािहितयक िवमश्गों में पखर भागीदारी के रासते िदखा िदए। जब तक उनहोंने सवयं अपने बारे में नहीं कहा, तब तक हमारी जानकारी सीिमत और पूवडगह से गसत थी। बहुत से अशेत इसिलए रचना में पवृत हुए तािक वे यह सािबत कर सकें िक वे भी सामानय मनुषय हैं और राजनीितक-सामािजक भागीदारी कर सकते हैं; शोषक और शोषण की पिकया से तटसथ और अनजान समुदायों तक अपनी बात दूसरों तक पहुचँ ा सकते हैं। जीवन-िसथितयों में पररवतडन की आकांका ने उनहें िलखने की पेरणा दी। दास आखयानों की याता के अगले पड़ाव के रप में अशेत आतमकथाओं का अधययन नृततवशास, इितहास और समाज-िवजान की रिष से महतवपूणड माना जा सकता है। अशेत सी रचनाकारों की ऐसी पीढ़ी सन 70 के बाद सामने आई, िजसकी उपेका करना और संभव नहीं रह गया। इनके आतमकथय अपने ‘टेकसट’ और ‘बहुआयािमता’ के साथ बहुरंगभेदी, बहुनसलवादी पाठकों की चेतना का िहससा बनने लगे। अब रं गभेद का मुदा बहुआयामी हो गया, कभी तो पूरी तरह राजनीितक, कभी अराजनीितक, कभी िनजी। िसयों ने आतमाखयान िलखकर दोहरा जोिखम उठाया, िजसे बलैकबनड के शबदों में कहा जाए तो, ‘अशेत िसयाँ आतमकथा िलखकर अपने जीवन को दोहरे जोिखम में डालती हैं, वे एक ओर अमेररकी समाज में वयाप्त रं गभेद की राजनीित का पदाडफ़ाश करती हैं तो दूसरी ओर अपने 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 148 148 | िमान समुदाय के पुरुषों के यौन-अतयाचारों को भी खुलकर अिभवयक करती हैं।’27 ये आतमकथाकार अपने उदेशयों को आतमकथयों में शुर में ही सपष कर देती हैं, जैसे मेरी िकं ग ने फ़ीडम सॉनग की भूिमका में ही अपना मंतवय सपष करते हुए िलखा − ‘मैं इितहास के कालखंड िवशेष को जीिवत रखने, अशेत आंदोलन को िवसमृित से बचाने तथा आने वाली पीिढ़यों को आंदोलन की सचची जानकारी देने के िलए आतमकथा िलख रही हू।ँ इसी तरह इलेन बाउन ने अ टेसट ऑफ़ पावर28 में िलखा िक वह उन अशेत युवकों के िलए िलख रही है, िजन पर भिवषय के सामािजक-राजनीितक नेततृ व का दाियतव है, िजससे वे पाट्जी की असफलताओं-तुिटयों से सबक़ ले सकें । राजनीितक आंदोलन से पतयक और परोक सतर पर जुड़ी िसयों की बड़ी जमात ने ‘आतमकथा’ सािहतय को समृर िकया और साथ ही आतमकथाओं को अतीत के दास आखयानों की शंखला में िवशेिषत िकए जाने की िसफ़ाररश भी की। इनहें ‘पितरोधी आखयान’ कहा जाना चािहए कयोंिक इन सभी में रंग, नसल, िलंग पर आधाररत राजनीित की पितरोधी चेतना अंतधवडिनत है। इनका मानना है िक िनजी यंतणा, िनजी जीवन के सुख-दुख की कथाओं से कहीं अिधक महतवपूणड राजनीितक अंतरडिष है। राजनीितक कायडकताड और अधयािपका एंजल े ा डेिवस ने आतमकथय को ‘राजनीितक आतमकथा’ कहा तथा उसे ‘दासकथाओं’ के िवसतार के रप में देखने की िसफ़ाररश की। पुसतक के पारंभ में ही एंजल े ा िलखती हैं िक ‘हो सकता है िक उसके राजनीितक कायड उसे अपने पूवजड ों की तरह, कु तों की तरह भागने और िछपने के िलए मजबूर कर दें।’29 नागररक अिधकार क़ानून बनने के बाद भी सामािजक असमानता, क़ानून और पुिलिसया तानाशाही पर वे ऐसी िटपपणी करती हैं तथा वयावहाररक िसथित को उजागर करती हैं। अधययन की सुिवधा के िलए इन पितरोधी आखयानों को दो शेिणयों में िवभािजत िकया जा सकता है − पहली शेणी में वे आखयान हैं जो राजनीितक संघषड के अनंतर िलखे गए, िजनहें ‘युर आखयान’ भी कहा जा सकता है, जो पाठक को तातकािलक पितिकया की ओर अिभमुख करते हैं। दूसरी शेणी में वे आखयान हैं जो नागररक अिधकार और अशेत आंदोलनों को जनिपय बनाने के उदेशय से बाद में चलकर िलखे गए। समकालीन आलोचकों और सी-िसरांतकारों ने आतमकथाओं तथा दास आखयानों तक ही अपने िवशेषण को सीिमत रखा और पितरोध के इन साकयों को, जो जयादातर लातीनी अमेररकी शिमक िसयों दारा राजनीितक संघषड-कथाओं के रप में िलखे गए, तरजीह नहीं दी। हालाँिक सी के िलखे हुए को परंपरा से ही उपेिकत करने का भाव सावडजनीन रप से आलोचकों में रहा है। इस उपेका की ओर संकेत करते हुए सीवादी िचंतन िगलमोर ने याद िदलाया िक सी ‘आतम की पुनपडसतुित’ की उपेका एक िसरे से हुई है। उनहोंने ‘ऑटोबायॉगािफ़कस’ में ‘आतमकथा’ को एक पधान िवधा के रप में महतव देने की बात 27 रे जीना बलैकबनड (1980) : 134. इलेन बाउन (1993) : 12. 29 एंजेला वाय डेिवस (2013) : 8. 28 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 149 अ ेत Tी -आ कथाएँ : जेडर और समाज के आईने मे | 149 कही और अिसमता की पहचान के िलए ऐसी िवचारधारा की आवशयकता महसूस की िजसमें यौिनकता, वगड, नसल और जीवन के सभी अनुभवों का पूणड िनचोड़ हो। सीवादी आलोचक के रप में िगलमोर अपनी जगह सैरांितक रप से सही हैं, लेिकन वे अिसमता की पहचान का कोई वयावहाररक समाधान नहीं देतीं। जबिक कु छ आतमकथाएँ ऐसी भी होती हैं, जो आतम के पुनपडसतुतीकरण को महतव नहीं देतीं, िजनके िवशेषण के िलए िजस सैरांितकी की आवशयकता पड़ती है उस सैरांितकी के िलए बहुनसलवादी, बहुराषरवादी, बहुजातीय और बहुयौिनक संघष्गों को समझना अिनवायड है। इस संदभड में एिलडररज कलीवर की पुसतक द ऑटोबायोगाफ़ी ऑफ़ मैलकम एकस : एज़ टोलड टू िवथ एलेकस हेली30 बहुत महतवपूणड है जो नागररक अिधकार और अशेत आंदोलनों को समझने में मददगार है। िसयों दारा रिचत राजनीितक आतमकथय अशेत आंदोलन के उपेिकत पहलुओ ं पर पकाश डालते हैं − एक तरह से पितरोध की संसकृ ित रचते हैं। लेिकन आलोचकों और शोधकताडओ ं दारा इन पर बहुत कम धयान िदया गया, िजनसे बेटी वगडलणै ड के कथन की पुिष होती है िक ‘आतमकथाएँ सांसकृ ितक और सामािजक पररवतडन के िलए कोई अंतरडिष पदान नहीं कर पातीं कयोंिक अिधकांश आंदोलन पुरुष-कें िदत और पुरुष वचडसववादी संसथाओं से संबर होते हैं। इन आखयानों में अकसर राजनीितक-सामूिहक उपलिबधयाँ और पुरुष-नेततृ व से होने वाली समसयाओं का िचतण होता है। साथ ही, िसयों के राजनीितक-सामािजक मूलयांकन को जयादा महतव का नहीं समझा जाता कयोंिक िसयों दारा पसतुत राजनीितक साकयों में पितभा और तटसथ रिष का अभाव माना जाता है। यिद लैंिगक पूवगड ह से मुक होकर पामािणक साकयों के अनंतर अपनाए जाने वाले आधारों पर इनका समुिचत िवशेषण िकया जाए तो इनके कथयपभावी, रचनातमक और संभावनाशील पाठों के रप में उभरने के पयाडप्त कारण हैं। इन कथयों में अनुसयूत राजनीितक पकृ ित की उपेका, ग़लत पाठ के िलए पेररत करती है, िजससे इनकी शिक और उदेशय दोनों का हनन होता है। ‘इन मीिडया रे ज’ शीषडक आखयानों के संगह को बतौर ‘पितरोधी आखयान’ देखा जाना चािहए जो 1974 में पहली बार पकािशत हुआ। 1988 में पकािशत संसकरण की भूिमका में 30 मैलकम एकस, ऐलेकस हेली (1965, 1992). 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 150 150 | िमान राजनैितक कायडकताड और अशेत आंदोलन से जुड़ी लेिखका एंजेला डेिवस ने यह भी बताया िक यह पूरी तरह राजनैितक आखयान है िजसमें कलपना का सहारा िबलकु ल नहीं िलया गया है। डेिवस ने यह भी बताया िक वह वयावहाररक समसयाओं के ऐिकटिवसट समाधानों में िवशास रखती है। सैली बेलफे ज़ ने भी ‘पितरोधी आखयानों’ की रचना की, जो अशेत आंदोलन की आंतररक राजनीितक के पामािणक साकय पसतुत करते हैं। द पाथ ऑफ़ एंजेला डेिवस (1970) में एंजेला बताती है िक वह शांत, नेक और अचछे पररवार की लड़की थी, िजसे िमलनसार होने के कारण कमयुिनसट पाट्जी की सदसयता के िलए राज़ी कर िलया जाता है। आतमकथा में डेिवस जीवन शैली और कायडकेत के रप में राजनीित के िनजी चुनाव के पीछे सोची-समझी िनणडयातमक बुिर की िवसतृत वयाखया पसतुत करती है। इसी तरह सैली बेलफे ज़ भी जीवन में िवशेष पकार की रणनीित अपनाने का िनतांत ग़ैर-परं परागत आखयान पसतुत करती हैं। वह अपनी कहानी का पारं भ उतम पुरुष में करती है, ठीक वैसे ही जैसे कोई पतकार ररपोटड कर रहा हो। वह गीषमकालीन रेिनंग कैं प में आए सवयंसेवकों में ख़ुद को शािमल करते हुए िलखती हैं − ‘जून के एक रिववार को वे सब ओहायो के कॉलेज में आ पहुचँ े।’ जलद ही वह पथम पुरुष में अपनी बात कहने लगती है लेिकन शुरुआती पंिकयाँ पाठक के मन पर शैली की सचचाई और लेखकीय तटसथता का सथायी पभाव छोड़ जाती हैं। ये िवरोधी या पितपकी आखयान पूरी तरह भाषा पर आधाररत हैं; िजनहें ‘युर आखयान’ भी कहा जा सकता है, कयोंिक ‘युर आखयानों’ का उदेशय भी पाठकों और शोताओं में कोध और तवररत पितिकया जगाना होता है। डेिवस और बेलफे ज़ िनि्चित तौर पर पाठकों को अपने रिषकोण और उदेशय की पामािणकता से पररिचत कराना चाहती हैं, साथ ही उनहें राजनीितक रप से िकयाशील भी बनाना चाहती हैं, इसिलए उनकी भाषा कई बार हमारे वतडमान और ऐितहािसक कायडकलाप से अलग नाटकीय दीखने लगती है। इन दोनों की एक साथ समीका करने से िदतीय शेणी के आखयानों से इनका पारसपररक अंतर सपष हो जाता है। राजनीितक आखयानों की इस शेणी को ‘अनुदश्जी आखयान’ कहा जाता है, जो इितहास में अपना योगदान करते हैं, पश भी उठाते हैं और कभी-कभी कु छ सीवादी आलोचकों को पकाश में लाने का कायड भी करते हैं। इलेन बाउन और मेरी िकं ग 31 के आतमकथय भी इसी शेणी में आते हैं िजनहोंने आतमकथाओं के माधयम से अशेत आंदोलन की संगठनातमक किमयों की आलोचना की। बाउन ने ‘बलैक पैंथर पाट्जी’ को गलैमराइज़ िकए जाने की आलोचना की, वहीं मेरी िकं ग ने कहा िक वह आखयान दारा ‘एक ऐसे कालखंड और आंदोलन को िजलाए रखने का पयास कर रही है जो तेज़ी के साथ िवसमृत हो रहा है तथा िजसे ग़लत समझा जा रहा है।’ ये िसयाँ लेखन को हिथयार के तौर पर इसतेमाल करती हैं। इन िसयों की सािहितयकता को रणनीित के रप में देखा जाना चािहए जो संभािवत उपेका का िशकार होने वाले आंदोलन 31 मेरी िकं ग (2011). 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 151 अ ेत Tी -आ कथाएँ : जेडर और समाज के आईने मे | 151 के इितहास का सच बताने के नैितक उतरदाियतवबोध से संबर है। यही उनका पाथिमक उदेशय है, िजसकी उपलिबध के िलए वे भोका और कायडकताड के रप में आँखों देखी शैली में, लोगों, घटनाओं, सांसथािनक उदेशयों, उपलिबधयों और असफलताओं का वह पक पसतुत करती हैं िजनके बारे में आम आदमी को कभी कु छ पता ही नहीं चल पाता। सवयं आंदोलनधम्जी होते हुए भी वे लोगों और घटनाओं का यथाथड और ग़ैर-रोमैंिटक पक सामने लाती हैं और सीवादी रिष से आंदोलनकारी संसथाओं की सधी आलोचना करती हैं, आंदोलन की आंतररक गितिविधयों और अंतिवडरोधों को सामने लाने का साहस करती हैं। उदाहरण के िलए इलेन बाउन अपनी पाट्जी (बलैक पैंथर) दारा बार-बार िहंसा का आशय लेने, यहाँ तक िक पाट्जी सदसयों के आपस में भी िहंसक हो जाने की कड़ी आलोचना करती है। बाउन की पुसतक समीका के अनंतर एंजेला डेिवस ने िलखा िक बाउन ने ‘आंदोलनकारी गैंग में वयाप्त सी-िवदेषी पवृितयों को सामने लाकर लंबी चुपपी तोड़ी है’।32 इन राजनीितक आतमकथयों को पढ़ने से यह सपष हो जाता है िक कै से सी का बोलना अपने आप में राजनीित का रप ले लेता है। सी आंदोलन के दौरान कायडकताड के तौर पर सिकय िसयों का शोषण, अशेत आंदोलन की आंतररक वचडसववादी राजनीित का ख़ुलासा करता है और संभवतः यही कारण है िक आंदोलन से सीधे संबर िसफ़ड तीन कायडकताडओ ं के आतमकथय पुसतक रप में पकािशत हो सके − एंजेला डेिवस की ऐन ऑटोबायोगाफ़ी, इलेन बाउन की ए टेसट ऑफ़ पॉवर : ए बलैक वूमंस सटोरी (1992) और असाता शकू र की असाता (1987) इन िसयों ने अफी-अमेररकी राजनीितक आंदोलन को संचािलत करने, उनको दशा और िदशा देने में महतवपूणड भूिमका िनभाई। इनकी आतमकथाएँ यह बताती हैं िक ये िसयाँ कांितकारी काय्गों के पित िकतनी वयिकगत और सामूिहक आसथा रखती थीं। डेिवस, शकू र और बाउन अपनी कथाओं में सामािजक पुनरुतथान की भावना से पेररत हैं।33 फे डररक डगलस और हैररयट जेकबस की परं परा में िलखे ये आधुिनक आखयान अपेकाकृ त दुदमड नीय आतमपेरणा और सोची-समझी रणनीित के तहत िलखे गए हैं, जो िसफ़ड मुिक ही नहीं, मुिक के बाद समाज की पुनरड चना के सवपन से भी आपलािवत हैं। िशका और बौिरकता की रचनातमक भूिमका को ये सी कायडकताड अचछी तरह समझती-बूझती हैं। वे जेल में, दल में रहने के दौरान यौन शोषण को खुल कर बताती हैं। साहस और बुिर के बल पर ही एंजेला डेिवस अपने दमन और शोषण के पीछे की रणनीित को समझ कर कहती है िक उसका वासतिवक अपराध था एक ‘बौिरक सी’ होना और ऐसा कमयुिनसट होना जो अशेत मुिक संघषड से जुड़ी हुई थी। असाता शकू र पर तो नयू जस्जी में गोली चलाई गई और लंबी पुिलस पताड़ना का िशकार बनाया गया। उसे हवालात में तेज़ चौंिधयाने वाली रोशनी के सामने रखा गया और बाद में देश िनकाला दे िदया गया। िनवाडसन के दौरान कयूबा में रहकर 32 33 जेिनस शणडकॉफ़ (2005). माग्थो पिक्ग्रं स (2000) : 22. 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 152 152 | िमान उसने िलखा − ‘मुझे लगा िक मैं अंधी हो रही हू।ँ मुझे हर चीज़ दोहरी-ितहरी दीखती थी। मेरे वकील ने कोटड में इस शोषण के िख़लाफ़ अपील दायर की, तब उन लोगों ने रोशिनयाँ। बंद कीं िफर भी रोज़ पंदह िमनट तक वे ‘सेल’ में तेज़ मारक रोशनी करते जो िकसी को भी अंधा करने के िलए काफ़ी थी।’ शकू र को नयू जस्जी की जेल में रखा गया, जहाँ उसे मृतयुदणड िमलने की आशंका थी, वहीं उसे गभड रह गया। उसे अके लेपन से डर लगता था इसिलए उसने अशेत मुिक संघषड-वािहनी के सदसय कामयू के साथ ‘सेल’ में रहना पसंद िकया, लेिकन बचचे के िपता का नाम बताने से इंकार कर िदया और िलखा − ‘मैं उनहें बताऊँगी िक यह बचचा अशेत ईशर दारा भेजा अशेतों का मुिकदूत है, बताऊँगी िक यह काला बचचा नया मसीहा है जो काले लोगों के िलए एक नए मुक राषर का िनमाडण करे गा जहाँ मुिक और नयाय रहेंगे।’34 ‘बलैक पैंथसड पाट्जी’ की नेती इलेन बाउन का शोषण तो उसकी अपनी पाट्जी के लोगों दारा ही िकया गया। नेता बनने से पहले वह पाट्जी कॉमरे ड पी. नयूटन दारा मारी-पीटी गई। पैंथसड पाट्जी में लैंिगक शोषण और भेदभाव इतना जयादा था िक िसयों को हमेशा मातहती के काम िदए जाते, महतवपूणड काय्गों एवं िनणडयों में उनहें पुरुषों के पीछे रहना पड़ता। इलेन बाउन ने िवरोध का मुखर सवर दजड करते हुए िलखा − ‘अब से मुझ पर कोई मदड हावी नहीं होगा, पैंथसड पाट्जी का मदड भी नहीं, काला − गोरा कोई मदड नहीं। मैं अब से औरतों के िलए मानवािधकार की लड़ाई लड़ू ँगी − गभडपात के अिधकार से लेकर पुरुषों के समानािधकार िसयों को िमलने ही चािहए। बलैक पैंथसड पाट्जी और हमारी कांित- िजसका उदेशय अशेतों की मुिक है, उसमें औरतों की मुिक के एजेंडे को शािमल करँगी। मैं पुरज़ोर ढंग से कारें गेज़ के दशडन की िनंदा करँगी, िजसने अफीक़ी अशेत िसयों के दमन का िसरांत िदया... मैं िफर कहती हूँ िक अपना सीतव और अपनी जगह ले कर रहूगँ ी।’35 पैंथसड पाट्जी में अपनी जगह पाने के िलए संघषड और सीतव की उदोषणा एक दुससाहिसक से िमिशत संघषड की पसतावना थी, िजसके एवज़ में इलेन को रातों-रात छु पते-छु पाते गोद में बेटी एररका को िलए सेन फांिससको के रासते लॉस एंजेलस आना पड़ा, जो हैररयट जेकबस के साहिसक अिभयान की याद िदलाता है। िवडंबना यह है िक जहाँ हैररयट का संघषड शेतपभुओ ं से था, वहीं इलेन ‘अपने कहे जाने वाले लोगों, भाई और बहनों, कॉमरे डों, से ही दूर छु प-छु प कर भागने को िववश थी। ‘मुिक’ के संदभड में इलेन िलखती है − ‘उस समय तो मेरे िदमाग़ में िसफ़ड एक ही बात थी िक मैं कै से बलैक पैंथसड पाट्जी से दूर चली जाऊँ।’36 इस किवता में वह अपनी बेटी के िलए बेहतर िज़ंदगी का सपना देखती है − एक रात अचानक सोने के ठीक पहले 34 असाता शकू र (1987) : 123. इलेन बाउन (2003) : 368. 36 वही : 449. 35 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 153 अ ेत Tी -आ कथाएँ : जेडर और समाज के आईने मे | 153 बोल उठी मेरी बचची ‘कया होता’ गर मैं मर जाती फ़क़ड पड़ता कया िकसी को? जब रोती हैं ढेरों असहाय काली लड़िकयाँ ओह एररका! मेरी ननही-मुननी छोटी-सी बचची कया होता? ये मत सोचो मैं बदल दूगँ ी इस संसार को तुमहारे िलए बस थोड़ी देर और थोड़ा... इंतज़ार...और37 ये अशेत आतमकथाएँ मुिक की अवधारणा को जन-जन तक पहुचँ ाना चाहती हैं। िसयाँ कायडकताडओ ं के रप में अपनी जीवनयाता सावडजिनक करती हैं, तािक उनके उदेशय से दूसरे पररिचत हों − इसके िलए आतमकथाएँ औज़ार का काम करती हैं। उदाहरण के िलए एंजल े ा डेिवस का मानना था िक राजनीितक आतमकथा वह है जो लोगों को रिष दे और वृहतर सामुदाियक संघषड में भाग लेने के िलए हर नसल, रंग, जाित के लोगों को पेररत करे। 1960 से 1975 के आस-पास िलखे इन आतमकथयों के रप में िसयाँ ‘अपना जीवन’ ही नहीं िलख रही थीं बिलक ‘अपने जीवन’ के िलए भी िलख रही थीं। इनकी आतमकथाओं में सामािजक आंदोलनों के िविवधमुखी पकों की अिभवयिक है। सवयं की उतपित, जड़ों की खोज की पिकया, एक ढंग से देखें तो आतम-पितिबंबन है। यह सवयं से संदिभडत होने की पिकया है, िजसमें रचनाकार ख़ुद से ही, ख़ुद के बारे में पश करती है तथा उन पशों का उतर देने का पयास भी करती है, जो पश उससे संभािवत पाठक पूछ सकता है। आतमकथा की पिकया में सवयं से पशाकु ल और उतररत होना िनरं तर चलता रहता है। मेटा वाई हैररस िलखती है िक ‘छह वषड की उम्र में सकू ल जाना शुर करने पर अनुभव हुआ िक मुझे बसों में िपछली सीट पर जगह िमलती है कयोंिक मेरा रं ग काला था और हम लोग ग़रीब थे। इसिलए गोरे लोग हमसे घृणा करते और इस ग़रीबी से िनकलने के िलए मुझे पागलों की तरह पररशम करना होगा। िजस िदन इन सभी चीज़ों को मैंने िशदत से अनुभव िकया उसी िदन से मैंने किठन पररशम करना शुर कर िदया और मैं तबसे पररशम करती चली आ रही हूँ तािक अमेररका में नसलभेद की पताड़ना से ऊपर उठ सकूँ । ऐसा बचपन िकसी का नहीं होना चािहए लेिकन मेरे साथ ऐसा हुआ। हममें से कु छ लोग हािशए पर रहकर भी जी 37 वही : 456. 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 154 154 | िमान गए, जबिक कई लोग संघषड करते हुए ख़तम हो गए।’38 हैररस ने आतमकथा को अपने जीवन के इितहास का पुनल्ट्रेखन और समृित का रपांतरण कहा। सीवादी िवचारक सटेनले ने आतमकथा और पाठक के संबधं पर िटपपणी करते हुए बताया िक रचनाकार पाठक को वही कहानी सुनाता है, जो सुनाना चाहता है, न िक अपने जीवन-रहसयों, अपनी जीवन-कथा को यूँ ही दुिनया को सुनाने के िलए वह आतमकथा रचता है। सोउदेशयता को मदेनज़र रख कर आतमकथाकार यह तय करता है िक वह अपनी ‘सचची’ कथा सुनाए या न सुनाए। इस तरह रचनाकार ही यह तय करता है िक वह अपनी कहानी के कथय और चररतों में कलपना का समावेश कहाँ और िकतना करे तािक अपने उदेशय को संपणू तड ः पाठक तक संपिे षत कर सके जैसा िक हैररस का कहना है िक ‘आतमकथा िलखते हुए मुझे ये किठन लगा िक मैं इसे िनहायत िनजी मुदों तक सीिमत रखू;ँ कयोंिक मुझे उन राजनीितक मुदों पर िलखना अिधक महतवपूणड लगा, िजनहोंने मेरे वयिकतव को पभािवत िकया। मैं नागररक अिधकार आंदोलन की पृषभूिम के बग़ैर आतमकथा िलख ही नहीं सकती थी। इसीिलए मैंने राजनीितक परररशय और िनजी जीवन- दोनों को िमलाकर आतमकथा िलखने का पयास िकया।’39 कु छ अशेत आतमकथाकार िनजी जीवन और यौिनकता, यौन शोषण जैसे संवेदनशील मुदों पर िलखने से िहचकती हैं, वे सेलफ़ सेंसरिशप का िशकार भी होती हैं। एिलज़ाबेथ के कली, एंजेला डेिवस और मेटा वाई. हैररस को इस शेणी में रखा जा सकता हैं। बहुत-सी िसयाँ मानिसक कायडवयापार तो पसतुत करती हैं लेिकन शारीररक कद-काठी का वणडन अकसर नहीं करतीं, जबिक पाठक का उनके बारे में जानकारी पाप्त करने का एकमात सोत उनका सवयं का िदया िववरण ही हो सकता है। रचनाकार के पररवेश, पररवार, सामािजक शारीररक वणडनों, क़द-काठी, रप-रं ग, वणड इतयािद िववरणों को आतमकथा में देने में संकोच करना या उपेिकत करना वसतुतः आतमकथयों की गहन िनजी पकृ ित की ओर संकेत करता है। अिधकतर अशेत आतमकथाकार अपने िनजी जीवन के बारे में पाठक से खुलकर कहने में संकोच करती हैं − िवशेषकर अपने पररवार के बारे में, िजनका उललेख आतमकथा में बार-बार आता है। लेिकन िनजी जानकारी शािमल करने के बाद ही आतमकथाकार की पूरी और अपेकाकृ त यथाथड छिव पाठक के समक मूितडमतं हो सकती है, हालाँिक इसके िलए वह कई बार आलोचना का िशकार भी हो जाती हैं। वसतुतः आतमकथा की रचना करते समय रचनाकार को गोपनीय बातों को खोलकर कहने के िलए तैयार रहना चािहए, यहाँ तक िक िवसमृित के गभड में धके ल दी गई बातों को भी समरण करना िहतकर ही होता है। अशेत आतमकथाओं के संदभड में आतमिनमाडण के दारा सामूिहक अिसमता के िनमाडण को भी देखा जाना चािहए। रचनाकार के पररवेश का परीकण एक वयिक के जीवन का भी परीकण है − इस तरह अशेत आतमकथाकर अशेत समुदाय की इितहासकार बन जाती हैं। 38 39 मेटा वाय हैररस (2003) : 37. वही : 40. 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 155 अ ेत Tी -आ कथाएँ : जेडर और समाज के आईने मे | 155 िकसी भी आतमकथाकार की तरह अशेत िसयों के संदभड में भी यह सच है िक वे अपनी िनजी गोपन बातों का खुलासा करने में पाठकीय पितिकया को लेकर आशंिकत रहती हैं। इस वजह से पाठक कई महतवपूणड िनजी और सांसकृ ितक सूचनाएँ पाप्त करने से वंिचत रह जाते हैं। यिद सवयं रचनाकार अपनी पृषभूिम के बारे में िलखता है तो पाठक उसके मानिसक गठन, पकृ ित, सांसकृ ितक-भौगोिलक िसथित के बारे में जान पाता है, इससे पाठकीय पितिकया जयादा सटीक और पामािणक होने की संभावना रहती है। इसिलए आतमकथा के पाठक को सांसकृ ितक-संवेद पररिसथितयों के बारे में अवगत कराया जाना ज़ररी है। साथ ही पाठक से भी यह अपेका की जाती है िक वह रचनाकार की बात को सुनने के िलए िबना िकसी पूवडगह के पसतुत हो। यह पाठक का दाियतव है िक वह रचनाकार को अपनी बात सुनाने/कहने का अवसर दे तािक वह बेबाक अिभवयिक कर सके । पाठक के िलए यह देखना भी ज़ररी है िक एक रचनाकार बचपन से रचनाकार की पररपकव अवसथा तक पहुचँ ने की पिकया में िकतने पड़ावों को पार करता है। इसकी जगह यिद पाठक उन दरारों और िछदों को देखने के फे र में रहे िक आतमकथाकार ने िकतनी सचचाई बरती, कहाँ-कहाँ झूठ बोला तो ‘पाठ’ अपना सही संदश े संपेिषत नहीं कर पाएगा। उसे ‘टेकसट’ के संदश े को पकड़ने की कोिशश करनी चािहए, तभी वह रचनाकार की दुिनया के पित एक गहरी समझ िवकिसत कर पाएगा और उसकी सचची कथा जान पाने में सकम होगा। कै रल बी. डेिवस का मानना है िक अशेत सी आतमकथा को पढ़ते समय पाठक को यह बात िवशेष रप से धयान में रखनी चािहए िक अशेत सी िसफ़ड ‘आतमकथा’ नहीं िलख रही बिलक वह िलखकर सवयं को ‘सटीररयोटाइप’ छिव से मुक करने का पयास भी कर रही है, ऐसी छिव से जो उस पर थोप दी गई है’।40 इन आतमकथाओं के पाठक को यह िवचार करना चािहए िक रचनाकार पाठक से अपने िनजी िववरण बाँट रही है – उदाहरणाथड, अशेत समुदाय के भीतर और बाहर उसकी कया िसथित है, सी होने के कारण अपने ही समुदाय में उसे कै सी दोयम िसथित का सामना करना पड़ता है, उसके नैितक मूलय, िवशास और आसथाएँ कया हैं? शबदों में अिभवयक आतमकथय तक पहुचँ ने में अशेत सी ने एक लंबी याता तय की है कयोंिक िलंगाधृत असमानता और िपतृसतातमक वचडसव ने उसे हमेशा हािशए पर रखा, इसिलए इन आतमकथाओं को पुरुषवचडसववाद को चुनौती देन,े सी के िलए तयशुदा दायरों से िनकलने और अपना ‘सपेस’ बनाने के पयास के रप में पढ़ा जाना चािहए। ऑडे लॉडड ने आतमकथा में िलखा है िक ‘अमेररका में अशेत िसयों को हमेशा चुप रहने पर िववश िकया गया, कभी उनहें नेततृ व के योगय नहीं समझा गया। साथ ही रंगभेद की राजनीित के कारण उनहें हमेशा हािशए पर रहना पड़ा।’41 कु छ िसरांतकारों का मानना है िक आतमकथा एक पकार का कथा लेखन है िजसमें 40 41 कै रल बी. डेिवस (1994). ऑडे लॉडड (1982) : 22. 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 156 156 | िमान अतीत की समृितयों को कलपना के माधयम से पकािशत िकया जाता है।42 लेिकन अशेत आतमकथाओं को मात ‘तथयों के पुनकड थन’ की रिष से नहीं देखा जाना चािहए, बिलक यह देखा जाना ज़ररी है िक कै से एक रचनाकार उन भावनाओं की अिभवयिक करने में सकम हुआ है, िजनहोंने उसके मन पर गहरा पभाव डाला। इस संदभड में महतवपूणड आतमकथा ‘अ टच ऑफ़ इनोसेंस : ए मेमॉयर ऑफ़ चाइलडहुड’ (1959) को देखा जाना चािहए, िजसे कै थरीन डनहम ने आतमकथा की संजा देने से परहेज़ िकया। कै थरीन डनहम नृतयांगना और नृततवशासी रही है, लेिकन अ टच ऑफ़ इनोसेंस में वह अपने सावडजिनक जीवन के बारे में कोई िववरण न देकर अनय पुरुष में िनजी बातें कहती है − ‘यह पुसतक आतमकथा नहीं है, यह एक लुप्त हो चुकी दुिनया की कहानी है। मधय पि्चिम में पथम िवशयुर के बाद, जब अवसाद और अके लापन सबको खाए जा रहा था − यह बचचा उस दुिनया में बड़ा हुआ, िजस पररवार को मैं भली-भाँित जानती थी, ख़ासकर एक लड़की और युवा सी को − िजनहें मालूम ही नहीं था िक उनकी िज़ंदगी का कया होना है, यह कहानी उनहीं की है, जो शायद िकसी को िदशा-िनद्ट्रेश दे सके या कु छ लोगों का धयान आकिषडत कर सके ।’43 अनय पुरुष में अपनी बात कहने के कारण कै थरीन की पुसतक को ‘उपनयास’ िवधा के अंतगडत रखे जा सकने के पयाडप्त कारण िमलते हैं, लेिकन कथा में आये सभी चररत − भाईबहन, माँ-बाप सब कै थरीन के पररवार के हैं − िजस शारीररक-मानिसक उतपीड़न का िशकार वह हुई वह उसके अपने जीवन का ही है। िपता ने जबरन उसके साथ शारीररक संबंध बनाए। उसने िलखा है िक िपता उसके भाइयों को डाँटकर दूर भगा देता और पुती के साथ अशील हरकतें करता। ‘वे वही हाथ थे, जो उसकी जंघाओं के ऊपर िफर रहे थे, कु छ तलाश रहे थे, उनकी भाषा वही थी जो पेमी के पथम सपशड की होती है।’44 आलोचक सांडसड रें िडंग ने इस पुसतक को ‘भयावह’ िवशेषण िदया। यौन-शोषण के मुदे पर िलखी आतमकथाओं में माया एंजेलो की आतमकथा आई नो वहाई द के जड बडड िसंगस (पाँच भागों में पकािशत) महतवपूणड है। बहुसांसकृ ितक अधययन एवं शोध के िलए आतमकथाओं को ‘टेकसट’ के रप में देखा जाना अतयंत महतवपूणड है। ‘टेकसट’ के रप में इनका अिभगहण वसतुतः पाठकीय अिभगहण से अलग होता है कयोंिक हािशए की अिसमताओं दारा अिभवयिक का पयास ही अपने-आप में चुनौती होता है। जब कोई रचनाकार िनजी संबंधों को वयिक के तौर पर उदािटत करता है या िकसी समुदाय के सदसय के तौर पर उदािटत करता है और िकसी समुदाय के सदसय के तौर पर सामािजक संसथाओं से अपने लगाव और िवलगाव की पिकया को अिभवयक करता है तो इस पिकया में वह अपने और समुदाय के बारे में बहुत कु छ सीखता भी है। मैटा वाई हैररस का कहना है िक ‘जब 42 पी. जे. ऐिकन (2008). कै थरीन डनहम (1937, 1994). 44 वही : 282. 43 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 157 अ ेत Tी -आ कथाएँ : जेडर और समाज के आईने मे | 157 मैंने आतमकथा िलखी तो सी के रप में अपनी पहचान को, अपने पररवार के सदसय के रप में पहचान से, अलग करना पड़ा और एक मनुषय के रप में सवयं को िवशे िषत करना पड़ा जो संयोगवश एक सी और वो भी अशेत है। ... मेरे िलए ‘सव’ को पसतुत करना महतवपूणड था, कयोंिक इससे पाठकों को मेरे िनजी रिषकोण से पररिचत होने का अवसर िमल पाया, िजसने मेरी िनजी अिसमता का िनमाडण िकया था, इन सबका संबंध संसकृ ित, पररवेश, पाररवाररक पृषभूिम के साथ-साथ मेरी यौिनकता, िलंग से भी था, िजनहोंने िकसी न िकसी रप में जीवन को पभािवत िकया।’45 ‘आई नो वहाय द के जड वडड िसंगस’ की लोकिपयता के कारणों में माया एंजेलो की ‘सव’ की पसतुित की आतमीय शैली ने महतवपूणड भूिमका िनभाई। माया ने आतमकथा में तीन वषड से लेकर सोलह वषड तक की आयु के अनुभव और ठोस िववरणों को अतयंत आतमीय और नाटकीय ढंग से पसतुत िकया, िजसमें बालयकाल की रप, रस, गंध, सपशड, सवाद की समृितयाँ िनिहत होने के साथ-साथ उन सघन अनुभवों का उललेख है, िजनहोंने सवचेतनता का िनमाडण िकया। अशेत होने की पीड़ा, अधययन में रुिच, सवतंतता के िलए संघषड की कथा के बीच वह िनरं तर वतडमान में अपनी उपिसथित बनाए रखती है, तािक पाठक को यह बोध रहे िक वह उपनयास नहीं बिलक ‘आतमकथा’ पढ़ रहा है। सी आंदोलन और नागररक अिधकार आंदोलन के कें द में जेंडर और नसलभेद की समसयाएँ थीं। नागररक अिधकार आंदोलन में नसलभेद के िख़लाफ़ आवाज़ तो उठाई गई लेिकन संसथागत लैंिगक िवभेद के िख़लाफ़ यह आंदोलन कु छ काम नहीं कर सका और िसयों की िसथित दोयम ही बनी रही। पुरुषों ने ही नेततृ वकारी भूिमका िनभाई। आंदोलन में ‘सी’ समसया पर िवशेष तौर पर कोई बात नहीं की गई और अशेत समुदाय की आवाज़ का अिभपाय ‘अशेत पुरुष की आवाज़’ ही समझा गया। यहाँ तक िक नीित-िनधाडरण और सुझावों के संदभड में भी अशेत िसयों की आवाज़ को दरिकनार कर िदया गया। उदाहरण के तौर पर साउथ िकि्चियन लीडरिशप कॉनफें स के अिधवेशन में िसयों की िशरकत को गंभीरता से नहीं िलया गया, यहाँ तक िक नीितगत सुझावों को भी अनसुना कर िदया गया।46 नागररक अिधकार आंदोलन में कभी भी सी कें िदत िवमशड सामने नहीं आया।47 जहाँ तक सीआंदोलन का पश है तो सन् 1970 तक अमेररका में सी-आंदोलन की िसथित हािशए पर थी। इस आंदोलन में ऊँचे तबक़े और बुज़डआ ु वगड की उन िसयों से आगे बढ़कर िशरकत करने की अपील की गई, िजनहें यौन-उतपीड़न या लैंिगक असमानता का िशकार होना पड़ा था। अशेत सी आंदोलन के आरं िभक दौर में िकसी ठोस अवधारणा और उदेशयों का अभाव दीखता है लेिकन 1973 में ‘बलैक फ़े िमिनसट ऑग्ट्रेनाइज़ेशन’ जैसी संसथाओं के अिसततव में आने से, नसल, वगड और लैंिगक आधार पर उतपीड़न के मुदे चचाड का िवषय बनने लगे और 1975 45 मेटा वाय हैररस (2003) : 36. िकसटीन एफ़. बुचर (1994). 47 सुज़ैन सटैगेनबॉगड (1998) : 180-204. 46 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 158 158 | िमान तक आते-आते सी कें िदत मुदों ने वयापक जन-िवमशड का रप धारण कर िलया। नसलभेद और िलंगभेद की आिधपतयवादी संरचना को चुनौती देने का काम सामािजक आंदोलनों ने िकया, इनसे उतपनन िवमशड (क) असमानता की संरचना की वयाखया और भेदभाव के चररत को पहचानने की रिष देते हैं (ख) वयिकयों को अपने िनजी अनुभवों को संरचनागत असमानता से जोड़कर देखने के िलए पेररत करते हैं तथा (ग) वयिकयों को, सामूिहक अिसमता से जोड़कर देखने का अवसर देते हैं िजससे सामूिहक अिसमता का वृहतर रप सामने आता है। 1975 के दौरान िलखी सी आतमकथाओं में नसलभेद के कारण होने वाले उतपीड़न पर िवचारोतेजक सामगी िमलती है, लेिकन जेंडर िवमशड अभी भी ठोस रपाकार लेने की पिकया में था। 1972 में कवियती गवेनडोलाइन बुकस की आतमकथा ररपोटड फ़ॉम पाटड वन48 आई, िजसमें उसने बताया िक वह अपने ‘नीगो’ होने की िसथित से तब तक नावािक़फ़ थी, जब तक 1967 में एक संगोषी के दौरान िफ़सक युिनविसडटी में उसे पहली बार अशेत चेतना का अहसास नहीं हुआ था। वह िलखती है − ‘मुझे मालूम था िक नीगो होने के कारण मैं मतदान नहीं कर सकती। उम्र के चार दशकों तक मैं सोयी हुई थी, मुझे अिसमता बोध ही नहीं था।’ इसी तरह देयर इज़ निथंग आई ओन दैट आई वांट (1974) में हैररसन जैकसन49 ने भाषण सुनने के बाद आंदोलनों में भाग लेने की पेरणा का वणडन िकया है, िजनहोंने उसे ‘सवयं’ को नई रिष से देखने की अंतरडिष पदान की। 1960 में जब उसने मैलकम एकस को हाल्ट्रेम की एक गली के मुहाने पर लोगों को संबोिधत करते सुना तब उसे अपने बारे में नई जानकारी िमली और अपने और पित के बीच का अंतर भी मालूम चला − ‘मुझे इस बात का अहसास होने लगा िक हमारी चमड़ी काली है, लेिकन मेरा पित युरोिपयन था और मैं अफीक़ी! काली चमड़ी और युरोिपयन िदमाग़ होना आसान है, लेिकन काली चमड़ी और अफीकन िदमाग़ होना किठन है। आपको रोज़-रोज़ नई लड़ाई लड़नी पड़ती है कयोंिक आपने आस-पास के सारे पद्ट्रे हटा िदए हैं और खुली आँखों से देखना शुर कर िदया है।50 इसी तरह ऑसी : िद ऑटोबायोगाफ़ी ए वूमन में ऑसी गफ़ी ने 1971 में िलखा – ‘जब अचानक अपने बारे में आप वह जान जाते हैं, िजसका अहसास आपको पहले कभी नहीं था, तो चीज़ों को देखने का नज़ररया बदल जाता है, सब चीज़ों को िसलिसलेवार रखकर देखने में समय लगता है − मैंने अभी तक यह नहीं सीखा िक यह कै से िकया जाए। अब मैं यह जान चुकी हूँ िक अपनी आवाज़ को ख़ुद कै से सुनँू और गुनँू, उस पर िवशास करँ, इसने मुझमें बहुत से पररवतडन ला िदए।’ (पृ. 180) इन सब आतमकथाकारों में एक समानता यह है िक इन सबने अपने ऊपर पड़े 48 गवेनडोलाइन बूकस (1972). हैररसन जैकसन (2016). 50 हैररसन जैकसन (1974) : 36. 49 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 159 अ ेत Tी -आ कथाएँ : जेडर और समाज के आईने मे | 159 राजनीितक पभावों और अनुभवों का वणडन िकया। ये िसयाँ बताती हैं िक अशेत आंदोलन, नेताओं, संसथाओं ने उनको िनजी तौर पर कै से पभािवत िकया। हैररसन जैकसन (1974) और ऑसी गफ़ी (1971) ने अपनी कथाओं में िनधडनता उनमूलन कायडकमों का उललेख और िववरण िदया है और बताया है िक वे कै से जनांदोलन का िहससा बनीं। मेरी बूकटर ने आतमकथा ‘िहयर आई ऐम : टेक माय हैंड (1974)51 में िनधडनता उनमूलन कायडकमों की उपादेयता पर िवचार िकया है। माया एंजेलो ने आई नो वहाई द के जड बडड िसंगस में उन पुसतकों की चचाड की है, िजनहोंने उसे अशेत अिसमता के पित जागरक बनाया। इसी तरह महािलया जैकसन ने ‘मूिवंग ऑन अप’ (1966) में वािशंगटन में हुई रै ली, अमेररकी के महान नीगो नेताओं और अशेत आंदोलन के उदेशयों का वणडन िकया है। पलड बेली एकमात ऐसी आतमकथाकार है िजसने अशेत आंदोलन की कटु आलोचना की है। द रॉ पलड में वह िलखती है िक अशेत अिसमता के पित वह उतनी ही जागरक है, िजतना और कोई तथा िबना िकसी संसथा का सदसय बने भी अिसमता के पित जागरकता आ सकती है। इसी तरह मेरी बूकटर ने िहयर आई ऐम : टेक माय हैंड में सी आंदोलन में भाग लेने वाली िसयों के राजनीितक िकयाकलापों की आलोचना की है : मैंने पाया िक इस आंदोलन में ख़ूब अचछे संभांत घरों की सुखी-तृप्त शेत िसयाँ, िजनका सीधा सरोकार िनधडनता और अिशका से कभी नहीं रहा, हालाँिक ये कहना किठन है िक उनमें से िकतनी मिहलाएँ वासतव में सुखी और तृप्त थीं, भाग ले रही थीं। उनके राजनीितक िकयाकलाप और भाव-भंिगमाएँ – ये सब मेरे िलए नए थे, वे जैसे शेरिनयाँ थीं। उनको सामूिहक तौर पर नाराज़ देखना बड़ा ही मज़ेदार था, वे हमेशा उतेिजत मुदा में बहसें करतीं। मैंने शायद ही िकसी पुरुष नेता को इतना उतेिजत देखा हो। वे कु छ राजनीितक मुदों पर इतनी उतेिजत और कोिधत हो जातीं िक मुझे आ्चियड होता। उनके उदेशयों से मुझे पूरी सहानुभिू त थी, वे पुरुषों से वचडसव छीनना चाहती थीं... उनहें अपशबद कहती थीं... इस जागरकता और साितवक कोध का मैं सवागत करती थी, पर िफर भी, मैं उनका साथ नहीं दे पाई, पीछे ही रही कयोंिक मुझे उसमें बहुत कु छ नाटकीय लगा करता।52 गवेनडोलाइन बुकस ने एक साकातकार में (जो उसकी आतमकथा में बतौर पररिशष पकािशत हुआ) िलखा, ‘हाल में ही मुझसे पूछा गया िक मैं सी सवातंतय के बारे में कया सोचती हू?ँ मेरा मानना है िक कम से कम इस समय तो सी सवातंतय अशेत सी के िलए नहीं है कयोंिक इितहास के इस कालखंड में, इस िविशष आंदोलनकारी समय में अशेत पुरुष अपनी िसयों को अनुगामी रप में देखना चाहते हैं।’53 रोज़ बटलर बाउन ने लव माय िचल्ेन में हावडडड में अपने सकू ल जीवन के अनुभवों और 51 मेरी बूकटर (2016). वही : 16. 53 गवेनडोलाइन बुकस (1972) : 179. 52 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 160 160 | िमान नसलभेद की राजनीित के बारे में िवसतार से िलखा है। उसका कहना है िक वह अपने शोध पबंध का पसताव पसतुत करने िजस सिमित से रबर हुई वह पाँच सदसयीय शेत पुरुषों की थी। वह िलखती है : शोध पररयोजना की पसतुित के वकत मैं आतमिवशास से भरी हुई थी, लेिकन उन शेत, सभय, सुसंसकृ त, हमेशा मुसकु राकर बात करने वालों ने ऐसे-ऐसे पश पूछे िक कु छ ही कणों में मेरा समूचा आतमिवशास हवा हो गया, मैं बैठी रही िनरुपाय और िनससहाय, िमटी के लोंदे की तरह, चुकी और कु चली हुई, सात सालों का पररशम वयथड हो रहा था मेरी आँखों के सामने और इसमें मेरी कोई ग़लती नहीं थी... जब मेरी समसत आशाएँ और महतवाकांकाएँ आँसओ ु ं के साथ बह चुकीं, तब और के वल तब ही, मैं नीगो समुदाय के लोगों की कुं ठा और अवसाद से साधारणीकरण कर सकी। अब मैं शेत सता पितषान, नसल के वचडसववाद का िशकार थी िजसने मेरी सोच को िसरे से बदल िदया।54 नसलभेद की िशकार रोज़ बटलर बाउन के िववरण से नसलभेद की राजनीित अपने िवकराल रप में जीवंत हो उठती है। नसलभेद के अनुभव से पहले रोज़ बटलर सवयं को कठोर पररशमी, आतमिवशासी, िवरोधी पररिसथितयों में भी न टू टने वाली लड़की के रप में िचितत करती है। साकातकार के बाद उसका सारा आतमिवशास ितरोिहत हो जाता है। बाउन शोध का अवसर न िदए जाने को लैंिगक भेद से न जोड़कर नसलभेद से जोड़ती है। उसे लगता है िक हावडडड में उसके साथ ‘नीगो’ होने के कारण भेद-भाव बरता गया। इसी तरह ऑटोबायोगाफ़ी ऑफ़ ए बलैक वूमन (1971) में ऑसी गफ़ी ने दिकण अमेररका में िसयों की सामािजक िसथित को लेकर िचनता वयक की है, उसका कहना है िक अमेररका में सी शेत हो या अशेत − पररवार को जोड़े रखने, बचचों का लालन-पालन करने की समूची िज़ममेदारी िसफ़ड उसी की होती है। इसी तरह माया एंजेलो ने आई नो वहाय द के जड बडड िसंगस (1970) में िवशिवदालय के दीकांत समारोह में नसलभेद और रं गभेद का वणडन िकया है। ... ‘नीगो होना बड़ा अपमानजनक था, कयोंिक अपने आप पर अपना अिधकार न था। यह बड़ा ही अमानवीय था िक आप युवा हो और अपने रं ग और नसल के कारण सारे आरोप सुनकर चुपचाप अपमान पी जाना पड़े और आपको अतमरका का भी कोई अवसर न िदया जाए।’55 िलंगभेद के पसंग में माया का कहना है िक अकसर लड़िकयों को इस बात का पता नहीं रहता िक उनके साथ िलंगाधृत भेदभाव िकया जा रहा है, लेिकन जैसे ही उनहें इस बात का अहसास होता है िक सी होने के कारण उनहें भेदभाव का िशकार बनाया जा रहा है, उसी समय वह नसलभेद की तरफ़ से अपना धयान हटाकर ‘िलंगभेद’ को उतपीड़न के मूल कारणों के रप में पहचानने लगती हैं। अनय सी आतमकथाकारों की तरह ही माया एंजेलो का कहना है िक सी होने के कारण उनका िसथित 54 55 रोज़ बटलर बाउन (1969) : 55. माया एंजेलो (1969) : 153. 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 161 अ ेत Tी -आ कथाएँ : जेडर और समाज के आईने मे | 161 पर कोई िनयंतण नहीं होता, इसिलए उनका शोषण होता ही जाता है। रोज़ बटलर बाउन ने सकू ल िशिकका का कायाडनभु व िलखते हुए बताया िक अिभभावक-अधयापक मीिटंगों में अशेत पुरुष दूसरों को ‘शी’, िम., डॉ. जैसे संबोधन देते हैं जबिक शेत सीधे नाम पुकार कर संबोिधत करते हैं जैसे ‘िविलयम’, ‘जॉन’ आिद। बाउन का मानना है िक िजस अशेत को बचपन में ‘ओ काले छोकरे ’ का अपमानजनक संबोधन सुनना पड़ा हो, िजसने किठन पररशम और संघषड के बाद सममानसूचक उपािधयाँ अिजडत की हों, उसके िलए ‘िम. या डॉ.’ का संबोधन ‘अिसमता की पहचान’ है, िजसे उपलबध करना उसके िलए किठन था पर एक बार िफर खोना उनहें गवारा नहीं। दूसरों को सममानसूचक संबोधन देने के पीछे यह अपेका रहती है िक दूसरा भी उनहें उसी सममान से पुकारे ’।56 इन सभी के जड आतमकथाओं में िलंग और नसल के कारण उतपनन संघषड और कषपद अनुभवों का वणडन बार-बार िकया गया है। दूसरे ढंग से देखें तो नसल भेद के साथ-साथ यौन अनुभव भी आते हैं। कई बार पमुख िवमश्गों से जुड़ने के िलए भी, िसयाँ िलंगाधृत अिसमता और नसलभेद की बात करती हैं। इनके अितररक दो आतमकथाएँ ऐसी हैं जो इस परित से थोड़ी अलग दीख पड़ती हैं िजनमें मेरी बूकटर की िहयर आई एम टेक माई हैंड और अनना हेज़मैन की द ्मपेट साउंड्स (1964) को देखा जाना चािहए। सन् 1974 में मेरी बूकटर, सी आंदोलन और उसके मूल मुदों से िवशेष पररिचत न होने पर भी अनुभव करती है िक ‘उन िदनों के वल पुरुष ही अगपंिक में कायड करने के उपयुक समझे जाते थे और िसयाँ उनकी मातहत के रप में।’ मेरी ने 1964 के राषरपित चुनावों के अननतर अपने अनुभवों के आधार पर यह मंतवय िदया − ‘... िसयों को अिगम पंिक में कायड करने से रोकने का खेल सन् 1972 तक चला। 1968 में डेमोकै िटक नैशनल कनवेंशनस ररफ़ॉमड ररज़ॉलयूशन’ ने िसयों के िलए नए दार खोल िदए।57 मेरी बूकटर सी आंदोलन, वयवसथा में संरचनागत पररवतडन और अतीत के अनुभवों के बीच एक सूत सथािपत करती है िक कै से सी आंदोलन ने उसे वह सथान िदलाने में महतवपूणड भूिमका िनभाई िजसकी वह अिधकाररणी थी। राजनीित में िसयों की दोयम दज्ट्रे की िसथित को अनना हेज़मैन ने आतमकथा में अिभवयक िकया। हेज़मैन ने 1964 में सपष िलखा − ‘राजनीित में िसयों को दोयम दज्ट्रे की नागररकता पाप्त है।’58 उतपीड़न और शोषण के संरचनातमक आयामों की पहचान के िलए पितरोध के सािहतय को पढ़ा जाना ज़ररी है। अफीक़ी-अमेररकी समाज में सी-उतपीड़न के संरचनातमक आयाम बहुसतरीय और जिटल हैं, नसल और िलंगाधृत असमानता उसके दैनंिदन अनुभवों का अिवभाजय अंग रहे हैं। जहाँ दास आखयानों में सी दास की शारीररक पताड़ना और यौन शोषण की अनिगनत कही-अनकही, सुनी-अनसुनी दासतानें मौज़ूद हैं, वहीं इनके तीसरे 56 रोज़ बटलर बाउन (1969) : 152. मेरी बूकटर (1974) : 79. 58 अनना हेज़मैन (1974) : 123. 57 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 162 162 | िमान चरण यािन बीसवीं शताबदी की राजनीितक आतमकथाओं में इितहास के कालखणड िवशेष को जीिवत रखने और सािहतयकार के िलए ‘ऐिकटिवसट’ होने का आगह िदखाई देता है। अठारहवीं-उननीसवीं शताबदी के दास आखयानों की परं परा में इन पितरोधी आखयानों को रखे जाने का आगह अशेत सी लेखन की पूरी अिविचछनन परं परा को सामने ला खड़ा करता है, िजसमें आगे चलकर कड़ी से कड़ी जुड़ने लगती है और शािमल हो जाते हैं 1960 के आसपास से िलखे जाने वाले ढेरों सी आतमकथय जो नागररक अिधकार आंदोलन और सी आंदोलन के िविभनन राजनीितक, सामािजक, सािहितयक पहलुओ ं को बेबाकी से कह डालते हैं। नागररक अिधकार आंदोलनों ने तीसरे चरण की अशेत सी आतमकथाओं के िलए पृषभूिम, चेतना संपननता और पेरणा − तीनों का काम िकया। इस आंदोलन की अगुवाई मािटडन लूथर िकं ग ने की और नसलभेद के िख़लाफ़ चेतना पैदा की। जलदी ही नयू यॉकड का हाल्ट्रेम अशेतों की शिक एवं संगठन का कें द बन गया। अशेत सामािजक दशडन भी यहीं से िवकिसत हुआ, लेिकन िलंग पर आधाररत भेदभाव इस आंदोलन में िचंता का कें दीय िवषय नहीं था। इसके पीछे अशेत समुदाय के अपने अंतिवडरोध भी थे, जबिक सी-आंदोलन में अशेत िसयों के साथ लैंिगक भेदभाव के मुदे बड़े तीखेपन के साथ उभरे लेिकन नसलभेद की समसया पर ख़ास िवचार-िवमशड नहीं हुआ। इन सबका सिममिलत पभाव सिदयों के बोझ तले दबे मानस पर पड़ा िजसकी अिभवयिक सािहतय की िविवध िवधाओं और दशडन में हुई। समकालीन आंदोलनों, िशका के अवसरों, जन-चेतना, अशेत-िवरोधी क़ानूनों, िवमश्गों की एकांिगता ने नसलभेद, यौिनकता के पशों और उनसे उतपनन समसयाओं की अिभवयिक को गहरे पभािवत िकया। साथ ही, उपलबध िवमश्गों और आतमोदय की चेतना ने अशेत िसयों की सामूिहक अिसमता का िनमाडण कर उनके िवकास में महतवपूणड भूिमका िनभाई। नसलभेद के संदभड में देखें तो आतमकथाकारों में एक िवशेष िक़सम का पररवतडन पररलिकत होता है। पहले वे जहाँ नसलभेद को वयिकगत समसया मानती थीं, वहीं आंदोलनों ने उसके सामािजक पक को भी सामने ला खड़ा िकया। इससे समसया के पित रिषकोण में पररवतडन हुआ। समझ और रिषकोण के इस पररवतडन को ऑसी गफ़ी इस तरह देखती हैं − ‘एक अशेत की कहानी ‘नेिटव सन’,59 ने मेरी जीवनरिष को बदल िदया। इससे पहले अशेतों के कषों और संघष्गों के बारे में मैंने कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं था, कयोंिक मैं िसफ़ड िनजी समसयाओं और अपने में उलझी रहती थी। मुझे दूसरों की समसयाओं और परे शािनयों से कोई फ़क़ड ही नहीं पड़ता था। थोड़ी बहुत जानकारी, िजसे आप इितहास की धुधँ ली जानकारी कह सकते हैं, मुझे थी, िजसमें दास पथा, िलंकन और राजयों के आपसी युर शािमल थे। लेिकन वह तो इितहास था और अब मेरे सामने सन् 1940 में िलखी ‘नेिटव सन’ थी िजसने दुिनया को देखने के मेरे नज़ररये को बदल डाला।’60 59 ररचडड राइट (2008), नेिटव सन शीषडक उपनयास, िजसमें 1930 के दशक के घेटो लड़के की कहानी है. 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 163 अ ेत Tी -आ कथाएँ : जेडर और समाज के आईने मे | 163 संरचनातमक पितरोध के िलए नसलभेद पर िसफ़ड बौिरक िवमशड काफ़ी नहीं है, इसे ऑसी गफ़ी सपष कर देती है। वयिकगत अनुभवों का पुनराखयान पाठक के रिषकोण को वयापक फलक पदान करता है, िजससे वह नागररक अिधकारों के िवमशड के रासते से गुज़रते हुए अपनी िनजी समझ िवकिसत कर सके । हालाँिक इस दौर की सी आतमकथाकारों ने नसलभेद और िलंगभेद को अपने-अपने अनुभवों के संदभड में अिभवयिक तो दी, लेिकन अपने िजए और भोगे हुए की संरचनातमक वयाखया करने में वे असमथड रहीं। ज़ररत तो थी मुखयधारा के समानांतर एक ऐसा िवमशड रचने की, िजसमें सारी सामािजक-राजनीितक, संसथागत संरचनाएँ अपने जिटल और बहुसतरीय आयामों में सामने आ सकें और जो अशेत अिसमता के साथ सी होने के सामूिहक अनुभवों को भी वहन कर सके । नजी ाय िा औि अपने ेस की खोज अशेत सी आतमकथाओं के चौथे चरण में, सदी के अंितम दौर की आतमकथाओं के कें द में सामूिहक पहचान का सवर सुना जा सकता है। ये रचनाकार परं परा का सममान करते हुए भी अपनी िनजी सवतंतता और सवायतता की तलाश में जुटी दीखती हैं, और इस पिकया में पारं पररक िवमशड को खँगालती भी चलती हैं। इस रिष से ऑडे लॉडड की ज़ामी − ए नयू सपेिलंग ऑफ़ माय नेम (1982) को देखा जा सकता है िजसे हम ‘आतमकथा’ न कहकर ‘बायोमायथोगाफ़ी’ की संजा दे सकते हैं। आतमकथा में जीवनानुभवों का िसलिसलेवार ढंग से पसतुतीकरण होता है, जबिक बायोमायथोगाफ़ी एक संिशष िवधा है जो आतमानुसंधान की पिकया से जुड़ी है, िजसमें रचनाकार के अनुभवों की वैधता उसकी कथन शैली पर िनभडर करती है। ज़ामी यदिप आतमकथा िवधा को समृर करती है िफर भी ऑडे लॉडड की रुिच, िसलिसलेवार ढंग से अपनी कथा कहने के बजाय, पाठकों को अपने आंतररक और बाह रशयों के सािननधय में ले जाने में जयादा है। वह छोटी-छोटी बातों के िववरण मात से अपनी जीवन याता के रे खीय पवाह को पसतुत करना चाहती है। ज़ामी − को दास आखयानों की परं परा में देखा जा सकता है जहाँ मुिक के बाद दास अपना नाम बदल िलया करते थे। लॉडड ने माँ-बाप दारा पदत नाम ठु कराकर अपना नया नाम रखा। ज़ामी नाम रखकर वह अपनी सवायतता और सवतंतता की घोषणा करती है, साथ ही वह परं परा से अपनी अिविचछननता को दशाडने के िलए बताती है िक वह वेसटइंडीज़ की भूिम से जुड़ी है और माँ, नानी की परं परा का समरण करती है। यह पहचान उसकी सवतंत इयता रचने में मदद करती है। अनय अशेत आतमकथाकारों की तरह ‘घर’ की संकलपना ज़ामी में बार-बार आती है। लॉडड घर को एक िमथक के रप में पसतुत करती है जो आतमपूणतड ा से संपक ृ हो जाता है। पूरे आखयान में एकाकीपन और घर की चचाड बार-बार आती है, पतयेक नया घर एकाकीपन की अलग अनुभिू त लाता है और अंततः लेिखका यह महसूस करती है िक कै ररआउ का घर, जहाँ उसका 60 ऑसी गफ़ी (1971). 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 164 164 | िमान बचपन गुज़रा, जीवन में उसका िवकलप हो नहीं सकता, कयोंिक वह घर अब सवपनों से जुड़ा िमथकीय संदभड मात है। ‘घर’ का पतीक अिधकांश आतमकथाकारों के यहाँ पौरािणकिमथकीय संपक ृ ाथड वहन करता है। अशेत सी रचनाकारों में छू टे हुए घर के पित जादुई सा मोह िनरं तर चलता रहता है, जो उनके िनवाडसन और एकाकीपन के भाव को और भी अिधक गहरा करता है। घर एक ऐसी सुरिकत शरणसथली है जो कलपना में शोषण, दमन, रं गभेद, िलंगभेद की िदकक़तों से अलग शांत दीप है। लॉडड का मानना है िक सी का घर कु छ िविशष होता है − ‘जहाँ वे अपने वयिकतव के िविभनन पहलुओ ं की अिभवयिक खुलकर कर पाती हैं।’ समाज में िजन िविवध अनुभवों से वह गुज़रती है − जो शोषण, दमन, घुटन, अिभवयिक की सवतंतता िछनने और वापस छीन लेने से संबर हो सकते हैं − उनकी अिभवयिक के िलए िजस ‘ज़मीन’ की खोज कोई सी करती है − वही ज़मीन उसे िविशष बनाती है। परंपरागत आतमकथयों में लेिखका की समृित में माँ का िज़क बार-बार आता है। लगभग उसी तज़ड पर ऑडे लॉडड अपनी माँ िलंडा का समरण बार-बार करती है, िजसके साथ उसके संबधं जिटल हैं, कहीं वह िलंडा से पेररत और पभािवत होती है, कहीं सवायतता और वयिकगत सवतंतता के पश पर उससे टकराती भी है। माँ से उसे सृजन की पेरणा और भाषा िमली है। वह िलखती है − ‘मैं अपनी माँ की अनिलखी किवताओं और दबे कोध का पितिबंब हू।ँ ’61 उसका शबदभंडार निनहाल के वातावरण ने समृर िकया है। िलंडा के सुप्त, अनकहे शबद, अनिभवयक किवताओं को ऑडे लॉडड ने अिभवयिक दी, यों कह लें िक उसने माँ के मौन को शािबदक रप िदया है − कायडवयापार से भाषा तक की याता के पड़ाव उसने अपनी पहली अधयािपका ‘माँ’ से जाने-गुने हैं। लॉडड की माँ ने उसे मूकता के संसार से पररिचत कराया है। पूरी आतमकथा में लॉडड ने जगह-जगह अपनी माँ की िजजीिवषा और ताक़त की पशंसा की है। माँ ने जीवन में िसथितयों को समझ कर उनके अनुरप कायड िकया है, लॉडड को उसपर गवड है लेिकन साथ ही वह माँ की जीवन-शैली की आलोचना भी करती है। माँ की तुलना में अपना जीवन सुरुिचपूणड बनाने के िलए वह िनरंतर पयासरत रहती है। अपनी माँ के साथ कई मुदों पर उसका िनरंतर मानिसक संघषड चलता रहता है जो अफी-अमेररकी सी संसकृ ित के एक िभनन आयाम को उदािटत करता है − सी का अपने समुदाय के भीतर िनजी अिसमता के िलए संघषड और अपनी आवशयकताओं और इचछा के अनुरप ‘सपेस’ खोजने का पयास। लॉडड को माँ से िशकायत है िक वह दमन का वाचाल पितरोध नहीं करती। िलंडा मौन है जबिक लॉडड का कहना है − ‘जो मैं हूँ वह हू’ँ । दमन के िख़लाफ़ आवाज़ उठाने की िदशा में यह पहला क़दम है। दमन के पितरोध की शैली के पश पर वह िलंडा से मतभेद रखती है और उससे अलग खड़ी िदखाई देती है। माँ से अलग होकर अपनी पहचान खोजने की कोिशश यहीं से शुर होती है। िलंडा ने अपनी बेटी को वेसटइंडीज़ की परं परा और संसकृ ित से पेम करना िसखाया है। मातृभिू म छोड़कर वे सथानांतररत हो गई हैं − बेटी अपनी संसकृ ित, भाषा, गीत-संगीत की 61 ऑडे लॉडड (1982) : 32. 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 165 अ ेत Tी -आ कथाएँ : जेडर और समाज के आईने मे | 165 समृित से देशकाल की दूरी को पाटने का पयास करती है। अनय आतमकथाकारों की तरह राषरीय अिसमता, रं गभेद अथवा समूहगत सांसकृ ितक पहचान उसे भी अपनी माँ से ही िमली है। ऑडे अपनी माँ की भूिमका की सराहना करती है − कयोंिक उसने िवपरीत पररिसथितयों में संघषड िकया है − िफर भी आतमकथा में माँ-बेटी के बीच चुपपी और तनाव के तमाम पसंग िबखरे पड़े हैं, कयोंिक ऑडे सवतंत रप से जीने और िलखने के िलए, अपने वयिकतव के समुिचत िवकास के िलए घर छोड़ने की ज़ररत िशदत के साथ महसूस करती है। आगे चलकर लॉडड अपनी माँ के साथ पुनः संबंध सथािपत करती है। संबंधों के इस नवीकरण में एक-दूसरे को ‘सपेस’ देने की पररपकव सोच पमुख है और अब लॉडड के साथ माँ की पहचान भी संपक ृ हो जाती है जो नई पीढ़ी तक िनजी अनुभवों से समृर होकर पहुचँ ती है। अशेत सािहतय में ‘याता’ का पतीक बहुत महतव रखता है, यह याता ‘दास आखयानों’ में दासता से मुिक की याता है जो बाद के आतमकथयों में ‘पिथक’ के ‘आतम की पहचान’ पर समाप्त होती है, िजसके अनंतर वह ख़ुद को नए ढंग से पररभािषत करता/करती है। ‘याता’ के पतीक का रचनातमक और िविवधरपी पयोग अशेत आतमकथाओं का सामानय और अिनवायड ततव है। ज़ामी’ : ए नयू सपेिलंग ऑफ़ माय नेम में यह पतीक रपक और यथाथड दोनों सतरों पर दीख पड़ता है। लॉडड सवयं को ‘पिथक’ या ‘यायावर’ के रप में पररभािषत करती है, जीवनानुभव ही उसकी ‘याता’ है। वह माँ के घर से िनकलकर पहली बार िकसी और जगह ‘सोने’ को िनजतव की खोज को मील का पतथर मानती है। इस तरह यह याता उसके ख़ुद तक पहुँचने की याता बन जाती है जो उतनी ही पुरानी है िजतनी िक संसकृ ित। िनत नए जीवनानुभवों की याताएँ, लॉडड को नूतन जीवन रिष से संपनन करती हैं, उसके ‘आतम’ को समृर और बलशाली बनाती हैं। अिभभावकों की छतछाया तयागने के बाद लॉडड को अभाव और अके लेपन से जूझना पड़ा होगा, घर की सुरिकत चहारदीवारी से िनकलना भी इतना आसान नहीं। ‘कु छ पाने के िलए बहुत कु छ खोने’ का िसरांत यहाँ लागू होता है। याताएँ जीवन की नई संभावनाओं के दरवाज़े खोलती हैं, जो जीवन को बेहतर बना सकती हैं, लेिकन इसके अपने ख़तरे भी हैं। लॉडड ने ये ख़तरे उठाए तािक उसे अपनी पहचान िमल सके । ज़ामी इस शंखला में रची जाकर भी आतमकथा िवधा की अगली कड़ी के रप में दीख पड़ती है कयोंिक इसमें ऐितहािसक तथयों, िमथ और कलपना का िवरल संधान आतम के अनेकाथ्जी पाठों की संभावनाओं के दार खोलता है। ज़ामी में लॉडड उन सभी को समरण करती है, िजनहोंने उसके अिसततव को बचाने में जाने-अनजाने ही सही, कोई न कोई भूिमका अवशय िनभाई। िमथकों के पयोग से वह पाठकों के सामने नए उदाहरण पेश करती है। इसके अितररक वह समूह में िकए अपने िकसी कायड को ‘सामूिहक’ कहकर िवसमृत नहीं करती बिलक उसे िनजी सतर के पयासों के समानांतर रखती है और ‘सी का घर’ − जो सामानय होते हुए भी िविशष है − उसकी रचना करने में सकम हो पाती है। 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 166 166 | िमान हािशए की अिसमताओं के संघषड, नसलभेद और रं गभेद का यथाथड समझने के िलए िलए अफी-अमेररकी सी-आतमकथाएँ अधययन का पामािणक सोत हो सकती हैं। इनके जीवनानुभव दासतव के इितहास, रं गभेद और नसलभेद के मुदों के साथ घुल-िमल गए हैं। नसलभेद, रं गभेद के साथ जेंडर के अनुभव अशेत सी अनुभवों को िविशषता पदान करते हैं और अनायास ही ये रचनाकार अपने समुदाय की ‘टेसटीमोिनयो’ िलख जाती हैं। पतयेक अशेत सी का अनुभव अपने आप में िविशष है। साथ ही उसकी एक सामुदाियक अिसमता भी है, जो अफी-अमेररकी समुदाय के सदसय के रप में उसे िमली है जो जीवन के पित सामानय रुझान, अपेकाओं और िवशेष रप से सवयं की पहचान करवाने में उसकी मदद करती है। ये आतमकथाएँ अनतरतम के आहान और पेरणा से िनजी जीवन याता को पररभािषत और अिभवयक करने का साथडक पयास है। संदर्प्र अनना हेज़मैन (1974), द ्मपेट साउणड् स, हॉलट, राइनहाटड ऐंड िवंसटन पिबलशसड, ऑिसटन. अनना जूिलया कू पर (1998, 1892), ए वॉयस फ़ॉम द साउथ, ऑकसफ़डड युिनविसडटी पेस, नयू यॉकड . असाता शकू र (1987), असाता : ऐन ऑटोबायोगफ़ी, लारें स िहल बुकस. ऑसी गफ़ी (1971), िद ऑटोबायोगफ़ी ऑफ़ ए बलैक वूमन, डबलयु.डबलयु. नॉटडन ऐंड कं पनी, लंदन. ऑडे लॉडड (1982), ‘जामी’, अ नयू सपेिलंग ऑफ़ माय नेम, पेंगइु न बुकस, ऑसरेिलया. इज़ाबेला बॉमफी (2008), ‘नैरेिटव ऑफ़ 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संखया में अफीक़ी लोगों को दास बनाकर 06_Garima srivastav update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:47 Page 167 अ ेत Tी -आ कथाएँ : जेडर और समाज के आईने मे | 167 अमेररका लाया गया. जेिनस शणडकॉफ़ (2005), ‘रे िज़सटेंस िलटरे चर ऐट होम : रररीिडंग वूमसें ऑटोबायोगाफ़ी फ़ॉम द िसिवल राइट् स ऐंड बलैक पॉवर मूवमेंट’, ऑनलाइन पकाशन, htpp://doi.org/10.10.1080/08989575.2005.10815139 28 माचड, 2014 को देखा गया. जूिलया सवीनडेलस (1973), बायोगाफ़ी इज़ फ़ॉर जेंटलमेन; िहस्ी इज़ फ़ॉर सकॉलसड, बायोगाफ़ी इज़ िहस्ी, फ़ांिसस वेसट, पोसीिडंगस फ़ॉर ऑसरेिलयन अके दमी ऑफ़ द हुमिै नटीज़. पी. जे. ऐिकन (2008), द वेिकसंगली अनबेयरे बल : ््रू थ इन ऑटोबायोगफ़ी, कॉन्ट्रेल युिनविसडटी पेस, नयू यॉकड . फांिसस एलेन वॉनटिकं स हापडर (1859), ‘आवर गेटेसट वॉनट’, ऐंगलो-अफ़ीकन मैगज़ीन. बेलींडा ऑर द कू एिलटी ऑफ़ मेन हूज़ फ़े सेज़ वर लाइक द मून, अमेररकन मयूिज़यम ऐंड ररपॉिज़टरी ऑफ़ एंिशएंट ऐंड मॉडनड फयूिजिटव पीसेज़ : पोज़ ऐंड पॉिलिटकल, वॉलयूम 1 जून, 1787. महसीन गदामी, बलैक वूमसं आइडेंिटटी : सटीररयोटाइपस, रे सपेकटेिबिलटी ऐंड पैेशनलेसनेस (1890-1930), 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अिधकारी है। उनके मधय नसल, जाित, वणथि, िलंग, भाषा, धमथि, केत, सामािजक उतपित, राष्ीयता, पद अथवा राजनीित के आधार पर भेदभाव नहीं िकया जाना चािहए। मानव अिधकार घोषणापत िकसी भी वयिक को दास बनाकर रखने, कू रतापूणथि अमानवीय वयवहार करने व शारीररक यंतणा देने की मनाही करता है। वहीं क़ानून की दृिष से सभी मनुषयों को समान समझे जाने, मनमाने ढंग से िगरफतारी को रोके जाने, पतयेक सी-पुरुष को राष्, राष्ीयता और धमथि के पितबंध के िबना िववाह करने, धम्मोपासना व धमथि पररवतथिन करने, सूचना पाप करने, िवचार पकट करने, शांितमय सभा करने व संगठन बनाने, अपने देश के िकसी भी सावथिजिनक पद पर िनयुक होने, सामािजक सुरका पाप करने, िशका पाप करने, मनपसंद कायथि करने, समान कायथि के िलए समान वेतन पाने, राष्ों, धम्मों, जाितयों के मधय सिहषणुता और मैती को पोतसािहत करने, सवतंततापूवथिक सांसकृ ितक जीवन में भाग लेने तथा वैजािनक, सािहितयक अथवा कलाकृ ित से िमलने वाले लाभों की रका करने की घोषणा करता है। सवथिराष्ीय मानव अिधकार घोषणापत िवश के पतयेक वयिक को अिधकृ त करता है िक वह दूसरे वयिकयों के जनतांितक अिधकारों और सवतंतताओं का सममान करते हुए जीवन िजये और कोई ऐसा कायथि न करे िजससे दूसरे वयिकयों के िलए सममानजनक जीवनयापन करने में बाधा उतपनन हो।’ भारतीय संिवधान में मूल अिधकारों को संयक ु राजय अमेररका के संिवधान से िलया गया है और इनका वणथिन संिवधान के भाग 3 में मूलभूत अिधकारों संबंधी अनुचछे द 12 से 35 तक है। इनमें सभी नागररकों के िलए समानता, सवतंतता, शोषण के िवरुद अिधकार, धािमथिक सवतंतता का अिधकार, संसकृ ित और िशका संबंधी अिधकार, संवैधािनक उपचारों का अिधकार इतयािद पदान िकए गए हैं। इसके अितररक दिलतों, आिदवािसयों और अनय िपछड़े वग्मों, मिहलाओं, बचचों व सामािजक-शैकिणक रप से िपछड़े वग्मों के कलयाण एवं छु आछू त समािप संबंधी पावधान भी मूलभूत अिधकारों का िहससा हैं। राजय नीित के िनद्देशक िसदांतों के तहत समान काम के िलए समान वेतन, मिहलाओं-िवधवाओं और वृदों सिहत समाज के आिथथिक रप से कमज़ोर वग्मों को िवकास के अवसर पदान करने संबंधी पावधान िकए गए हैं। मानवािधकार हर वयिक का नैसिगथिक या पाकृ ितक अिधकार है जो उसे जनम से ही िमलता है। इसके दायरे में जीवन, आज़ादी, बराबरी और सममान के अिधकार के साथ गररमामय जीवन जीने का अिधकार एक पमुख अिधकार है। ‘हूमन राइट् स वॉच’ की एक ररपोटथि के अनुसार दिलत और आिदवासी भेदभाव, बिहषकार एवं सांपदाियक िहंसा के कृ तयों का लगातार सामना कर रहे हैं। भारतीय सरकार दारा अपनाए गए क़ानून और नीितयाँ सुरका के मज़बूत आधार पदान करती हैं, लेिकन सथानीय अिधकाररयों दारा ईमानदारी से कायाथििनवत नहीं हो रही हैं।’ िवपुल आबादी मगर संसाधनों की भारी कमी, इसकी िविवधताएँ और आिथथिक व सामािजक-शैिकक िपछड़ापन के कारण इन समूहों के मानवािधकार सुरिकत नहीं हैं। दिलतों को सामािजक-आिथथिक शोषण और जातीय िहंसा से बचाने के िलए 1989 से 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 171 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 171 अनुसिू चत जाित-जनजाित अतयाचार िनवारक अिधिनयम संपणू थि देश में लागू है। इसके अितररक भारतीय दंड संिहता के तहत मानवािधकारों की सुरका के पावधान िकए गए हैं। िवषमतावादी समाज और अथथिवयवसथा ने एक बहुत बड़ी आबादी के इंसानी वजूद को छीन िलया है। इनहें िहंसक वारदातों में आगजनी, हतयाएँ, िज़ंदा जलाने, मिहलाओं की अिसमताओं के पित कू र आचरण और न जाने िकतनी तरह की मानिसक यातनाएँ झेलनी पड़ती हैं। इनके पक में क़ानूनी पावधान होने के बावजूद अिधकतर सरकारें और अनय एजेंिसयाँ इनहें नयाय और सुरका देने में नाकाम हैं। द लत िरोकार और मानवा िकार आधुिनक भारत में सबसे पहले शूद-अितशूद यािन बहुजन मानवािधकारों के सवाल जोितराव फु ले ने उठाए। उनहोंने ग़ुलामिगरी का पारं भ होमर के पिसद वाकय से िकया है − ‘िजस िदन मनुषय दासता गहण करता है उसी िदन उसके सदगुणों का आधा भाग नष हो जाता है।’ समाज सुधार की परं परा में जोितराव की आवाज़ बहुत महतवपूणथि है िजनके जन जागरण का मक़सद समाज की जजथिर बुिनयाद को उखाड़ फें कना था। 1872 में पकािशत ग़ुलामिगरी में मानव अिधकारों का ज़बरदसत समथथिन है। चाहे फांस की कांित से आए मूलय हों या अमरीका में अबाहम िलंकन दारा 1863 में इंसानी दासता के अंत के सवाल हों, हम देखते हैं िक फु ले भारतीय समाज में मौजूद इन दोनों तरह की समसयाओं के िवरुद आवाज़ उठाकर सता और समाज का धयान आकृ ष करते हैं। भारत में िशका सुधारों हेतु आए सर िविलयम हंटर कमीशन के सामने िकसानों, अछू तों और वंिचतों की िशका की माँग करते हुए जोितराव 19 अकू बर,1882 को िनवेदन देते हैं। ‘सरकार ने िनमन वगथि के लोगों को िशका पदान करने के बुिनयादी कतथिवय की उपेका की है। ...वह अिशिकत इसिलए हैं कयोंिक िशका संसथानों का अभाव है। ये िकसान और दूसरे ग़रीब इंसान िशका का लाभ नहीं उठा पाते।...सरकार ने इन िकसानों की संतानों के िलए न इनाम रखे हैं न ही छातवृितयाँ। ....मेरी तो यह राय है िक जनता के कलयाण के िलए पाथिमक िशका अिनवायथि कर दी जाए। ...पुणे शहर में, महार और माँग जाित के पाँच हज़ार लोग बसते हैं, के वल एक ही पाठशाला है, िजसमें उनके बचचे पढ़ सकते हैं। लेिकन उस सकू ल में के वल तीस बचचे ही उपिसथत रहते हैं। िशका िवभाग के िलए भी यह बात अशोभनीय है। इसिलए मैं सरकार से िनवेदन करता हूँ िक िजन-िजन गाँवों में िनमन जाित के लोग बसते हों वहाँ उनके बचचों के िलए पृथक सकू ल खोले जाएँ कयोंिक जातीय िवदेष के कारण उनका अनय जाित के बचचों के साथ बैठना संभव नहीं है। ...िशका िवभाग पर आगामी अनेक वष्मों तक सरकार का ही िनयंतण होना चािहए। ...बंबई िवशिवदालय की पशंसा करते हुए फु ले ने कहा, ‘यह महाराष् की जनता के िलए बहुत बड़ा वरदान है। ...छातवृित देने के िलए ऐसी नीित िनधाथिररत की जाए िक िजस समाज के लोगों में िशका का अिधक िवकास नहीं हुआ है उस वगथि के िवदािथथियों को 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 172 172 | िमान छातवृितयाँ पाप हो सकें । ...आयोग ने पारिसयों, ईसाइयों और बाह्मणों की बातें सुनीं और उन पर ही सारा भरोसा रखा और सिमित ने इस मेहनत करने वाले समुदाय की ओर धयान नहीं िदया। उनहोंने उचच वगथि के लोगों के सममान पत सवीकार िकए और उनहीं के बयान िलए हैं।’ संिवधान सभा में जवाहरलाल नेहर दारा संिवधान के लकयों पर पेश िकए गए पसताव पर बंगाल से चुनकर आए डॉ. आंबेडकर ने 17 िदसंबर, 1946 को कहा था − ‘अधयक महोदय, मैं यह अवशय सवीकार करँगा िक समाजवादी की हैिसयत से मशहूर पं. जवाहरलाल नेहर की ओर से आए इस पसताव से मुझे बड़ी िनराशा हुई, यदिप यह िववाद-मूलक नहीं है। ...हम सभी इस बात को जानते हैं िक अिधकारों का कोई महतव नहीं यिद उनकी रका की वयवसथा न हो तािक अिधकारों पर जब कु ठाराघात हो तो लोग उनका बचाव कर सकें । ... हम िनशय रप से यह नहीं जानते िक इन मौिलक अिधकारों की कया िसथित होगी अगर ये शासन पबंध की मज्जी पर छोड़ िदए जाते हैं। पसताव में सामािजक, आिथथिक और राजनीितक नयाय की वयवसथा भी रखी गई है। यिद पसताव में कोई वासतिवकता है, इसमें कोई सचचाई है और इसकी सचचाई पर मुझे जरा भी शक नहीं है कयोंिक उसे उपिसथत िकया है माननीय पंिडत जवाहरलाल नेहर ने, तो मैं यह उममीद करता हूँ िक इसमें कु छ ऐसी वयवसथा भी होनी चािहए थी िजससे राजय के िलए यह संभव हो जाता है िक वह सामािजक, आिथथिक और राजनैितक नयाय पदान कर सकता। और इसी िवचार से मैं इस बात की आशा करता िक पसताव साफ़-साफ़ शबदों में कहता, िक तािक सामािजक, आिथथिक और राजनैितक नयाय पदान िकया जा सके । देश के उदोग-धंधों और भूिम का राष्ीयकरण िकया जाएगा। मेरी समझ में नहीं आता िक जब तक देश की अथथि-नीित समाजवादी नहीं होती िकसी भी हुकूमत के िलए यह सब कै से संभव होगा िक वह सामािजक, आिथथिक और राजनैितक नयाय पदान कर सके । अतः वयिकगत रप से मुझे इन िसदांतों के सिननिहत िकए जाने पर कोई आपित नहीं है। िफर भी पसताव मेरे िलए िनराशाजनक ही है।’ पखयात फु ले-आंबेडकरी अधयेता गेल ऑमवेट इकॉनॉिमसट में पकािशत ‘द िहंदू अनसजथि’ लेख के हवाले से कहती हैं − ‘िहंदू कौन हैं? इसका उतर आशयथिजनक रप से काफ़ी जिटल है। हज़ारों वषथि पूवथि, मधय एिशया से आयथि लोग भारतीय उपमहादीप में आए और सथानीय जनजाितयों को परािजत करके यहीं बस गए। आय्मों के पिवत गंथ, वेदों में उनके अनेक देवीदेवताओं के दशथिन, पाथथिनाएँ और कहािनयाँ िलखी थीं। आय्मों के यहाँ के मूलिनवािसयों के साथ िमिशत हो जाने के बाद, वैिदक सािहतय में अनेक सथानीय आसथाएँ और दूसरे देवीदेवता शािमल हो गए। देवी-देवताओं और आसथाओं के इस िशिथल समूह को िहंदू धमथि कहा जाने लगा।’ कांचा इलैयया के अनुसार ‘बाह्मणों के रिढ़वादी आधयाितमक तंत को िहंदू पहचान देने का शेय मुिसलम िवदानों, और उनमें भी ख़ास कर अल बरनी को जाता है। उसने अपनी पिसद ़ पुसतक अल-िहंद िलखी िजसमें इस शबद को गढ़ा और िजसे िहंदू राजाओं और आधयाितमक ताक़तों ने न िसफ़थि सवीकार िकया बिलक अपना िलया। िहंदू पद की उतपित 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 173 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 173 भी धमथि के िकसी पैग़ंबर या उसकी िकसी धािमथिक रचना से नहीं हुई जैसा िक हम इसाई धमथि, बौद या इसलाम धमथि में देखते हैं।’ ‘िहंदू शबद के कई अथथि और मुसलमान शासकों व अंगेज़ों दारा उनके पयोग व िहंदू शबद के सवण्मों, िपछड़ों, दिलतों, आिदवािसयों की पहचान हेतु अपनाने से बाह्मण संसकृ ित और भारतीय संसकृ ित’ जो िभनन-िभनन राष्ीयताएँ थीं, उनमें भारी भ्रम पैदा हो गया। सन् 1911 की जनगणना के समय पहली बार बाह्मण नेताओं ने अंगेज़ सरकार पर दबाव डाला िक सभी कायसथ, िपछड़े, आिदवासी िहंदू िलखे जाएँ। भारतीय इितहास की यह छोटी घटना है। संसकृ ित के इितहास में यह मामूली-सा िदखने वाला हेर-फे र इस देश की ऐितहािसक वासतिवकता को धवसत करने में कामयाब हो गया। िजस देश का इितहास िहंदू इितहास नहीं था, वह िहंदू घोिषत हो गया। जो िवचार परं परा िहंदू िवचार परं परा नहीं थी, वह िहंदू िवचार परं परा मान ली गई। दरअसल भारतीय उपमहादीप का ऐितहािसकसामािजक-सांसकृ ितक िचत आज तक दुिनया ने वह देखा जो बाह्मण ने िदखाना चाहा।’ बाबा साहेब आंबेडकर सवाल उठाते हैं िक ‘भारत में कोई वॉलटेयर कयों पैदा नहीं हुआ?...उलटे यहाँ िवषमता को संरकण देने वाली मनुसमृित कयों िलखी गई? िजस संसकृ ित में इंसानी समानता का िवरोध हो, वेद-शासों के नाम पर िहंसा का समथथिन हो, वह महान कै से हो सकती है? रे वोलयूशन ऐंड काउंटर रे वोलूशन इन एंिशयंट इंिडया में वे इन पशों पर मंथन करते हैं। भारत का इितहास कई संसकृ ितयों से गुज़रते हुए हमारे बीच है। आंबेडकर की इितहास दृिष पर कँ वल भारती िलखते हैं, ‘आंबेडकर पहले भारतीय इितहासकार हैं, िजनहोंने इितहास में दिलतों की िसथित को रे खांिकत िकया है। उनहोंने इितहास लेखन में दो तथयों को सवीकार िकए जाने की बात की है। पहली बात यह सवीकार कर लेनी चािहए िक एक समान भारतीय संसकृ ित जैसी कोई चीज़ कभी नहीं रही और यह िक भारत तीन पकार का रहा-बाह्मण भारत, बौद भारत, और िहंदू भारत। इनकी अपनी-अपनी संसकृ ितयाँ रही हैं। दूसरी बात यह सवीकार की जानी चािहए िक मुसलमानों के आकमण से पहले भारत का इितहास बाह्मणवाद और बौद धमथि के अनुयािययों के बीच परसपर संघषथि का इितहास रहा है। जो इन दो तथयों को सवीकार नहीं करता, वह भारत का सचचा इितहास, जो युग के अथथि और उदेशय को सपष कर सके , कभी नहीं िलख सकता।’ ‘बौद धमथि एक कांित थी। यह उतनी ही महान कांित थी, िजतनी फांस की कांित। यदिप यह धािमथिक कांित के रप में पारं भ हुई, तथािप यह धािमथिक 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 174 174 | िमान कांित से बढ़कर थी। यह सामािजक और राजनैितक कांित बन गई थी।’ दिलत पैंथर गणतंत के बाद दिलत समाज के मानवािधकारों या नागररक अिधकारों की पािप न होने से उपजा असंतोष और आकोश था जो समता, सवतंतता, बंधतु ा िवरोधी गलीसड़ी मानिसकता को दफ़न कर देना चाहता था। उनहोंने पधानमंती इंिदरा गांधी के क़ािफ़ले तक को रासता बदलने पर मजबूर कर िदया था। सांसकृ ितक संरचना में फै ले शोषण के िख़लाफ़ तथा आज़ादी की 25 वीं जयंती पर ‘आज़ादी िकस गधी का नाम है?’ तथा ‘सौ िदन बकरी बनके जीने से एक िदन शेर बनकर मर जाना बेहतर’ जैसे सवाल उठाकर उनहोंने खलबली मचा दी थी। उनका कहना था जाित आधाररत समाज वाले देश में आज़ादी कहाँ है? आज़ादी ने हमारे शोषण को समाप कयों नहीं िकया? संिवधान लागू होने के बाद भी मानव-मानव में भेद कयों है? आंबेडकरवादी युवाओं के इस आंदोलन ने संपणू थि देश का धयान अपनी तरफ़ खींचते हुए डायरे कट ऐकशन पर ज़ोर िदया। ‘वल्जी का दंगा, गीता का दहन, शंकराचायथि पर जूता फें कना, िशवसेना के साथ मार-पीट आिद के कारण लोगों का धयान ‘दिलत पैंथर’ की ओर आकिषथित होने लगा। ररपिबलकन पाट्जी से िवशास उठने से युवा िवपक, सतासीन कांगेस और ्ेड यूिनयन की भी बड़ी आलोचना कर रहे थे।’ आंबेडकर का मानना था िक लोकतंत से ही िबना रकपात के आिथथिक-सामािजक जीवन में कांितकारी पररवतथिन लाए जा सकते हैं। लोकतंत के वल मतािधकार से सरकार बनाने का नाम नहीं बिलक यह इससे कहीं आगे की चीज़ है और जाित वयवसथा जिनत शोषण के चलते इसे कभी भी हािसल नहीं िकया जा सकता। जाित के धवंस पर ही वगथि का िनमाथिण संभव है लेिकन इस रासते पर न तो सरकार जाना चाहती है और न ही समाज और राजनीितक दलों के नेता। हाँ, कु छ लोग हैं जो िनरं तर पयास कर रहे हैं लेिकन समाज में इनकी संखया बहुत कम है। बाह्मणवाद दुिनया के िलए एक बड़ा ख़तरा है और सामािजक नयाय की िवचारधारा को इस ख़तरे के िख़लाफ़ आगे चलना पड़ेगा। ‘अपनी ऐितहािसक संभावनाओं को समझते हुए दिलतों ने अपनी मुिक के िलए एक संघषथि शुर िकया। उनहोंने िसफ़थि अपने सबालटनथि वैजािनक और उतपादक शौयथि को ही नहीं समझा बिलक यह भी जाना िक उनहें अपनी एक संपणू थि आधयाितमक हैिसयत भी हािसल करनी चािहए। साथ ही यह पता भी उनहें चला िक बाह्मणवाद के जुए को अपने कं धों से उतारकर फें कना संभव है। ...िवदोह के एक अलग िसदांत और वैकिलपक आधयाितमक िवचारधारा के साथ आंबेडकर ने दिलत-दशथिन का एक पाठ रचा िजसमें शूदों और आिदवािसयों, दोनों की मुिक का संदश े है।’ ‘फु ले और आंबेडकर जैसे जाितवाद िवरोधी दोनों उगवादी नेताओं के बाह्मण िमत भी थे, उनहोंने अपने सवीकरण के िलए काफ़ी कठोर शत्तें लगाई थीं; फु ले का कहना था िक आयथिभटों को ‘तब तक सवीकार नहीं िकया जा सकता, जब तक वे अपने जाली धमथिगंथों को फें क नहीं देते’; आंबेडकर का कहना था िक िहंदू धमथि को ‘सभी समृितयों और शासों को तयाग कर बचाया जा सकता है।’ आनंद तेलतुंबड़े दिलत आंदोलन के नज़ररये से आंबेडकर को पसतुत करते हुए कहते हैं, 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 175 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 175 ‘उनहोंने कई लड़ाइयाँ छे ड़ीं, शुर में िहंदू धािमथिक संिहता के संरकक-बाह्मणवाद के िक़ले को िनशाना बनाया और उसकी पभावहीनता के अहसास होने पर बाद में संघषथि का राजनीितकरण िकया। ...उनका संघषथि न के वल सभी अछू तों की मुिक की ओर बिलक पूरी जाित वयवसथा के समूल नाश की ओर िनद्देिशत था। यह संघषथि मूलतः सिदयों से जयों के तयों चले आ रहे िनबाथिध शोषण के िख़लाफ़ था। ...उदाहरणसवरप, पतनशील सामंतवाद के साथ-साथ वह पूँजीवाद और सामाजयवाद के दमन से भली-भाँित चौकनने थे िक उसकी माँद में ही उनकी मूल समसया मौजूद थी।’ ‘भारत का बाह्मणवाद एक तरफ़ सामंतवाद से समझौता करता है तो दूसरी तरफ़ पूँजीवाद से समझौता करके सामाजयवाद से हाथ िमला लेता है। यही कारण है िक भारत से बाह्मणवाद ख़तम होने के बजाय और अिधक मज़बूत हुआ है। जब तक बाह्मणवाद है तब तक वणथि वयवसथा है और उसका वतथिमान सवरप जाितवाद है, इसी तरह जब तक वणथि वयवसथा है तब तक बाह्मणवाद िज़ंदा है कयोंिक बाह्मणवाद का असली नाम वणथि वयवसथा और जाितवाद है।’ इितहासकार रामचंद गुहा आंबेडकर और गाँधी के मतभेद को रे खांिकत करते हुए ‘अछू तों ने गाँधी पर अिवशास कयों िकया’ नामक अधयाय में िलखते हैं−‘गाँधी जी धम्मोपदेश या सीख देने की सीमाओं से बाहर नहीं जा सकते। इसकी जानकारी बंबई पेसीडेंसी के अछू तों को पहली बार 1929 में उस समय हुई जब उनहोंने मंिदर पवेश, कु ओं-तालाबों से पानी लेने जैसे नागररक अिधकारों की पािप के िलए िहंदओ ु ं के िवरुद सतयागह िकया। उनहें गाँधी जी से समथथिन और आशीवाथिद िमलने की आशा थी, कयोंिक सतयागह ग़लत काय्मों के समाधान के िलए सवयं उनके दारा अपनाया जाने वाला तरीक़ा ही था। जब उनहोंने गाँधी जी से समथथिन माँगा तो उनके दारा समथथिन देना तो दूर, उलटे एक सटेटमेंट जारी करके िहंदओ ु ं के िवरुद सतयागह करने पर अछू तों की िनंदा कर डाली। गाँधी जी का यह वयवहार चालाकी भरा था। उनहोंने कहा िक सतयागह को अपने लोगों और देशवािसयों के िवरुद नहीं, के वल िवदेशी लोगों के िवरुद पयोग िकया जाना चािहए। चूिँ क िहंदू अछू तों के संबंधी और देशवासी थे इसिलए उनके िवरुद इस औज़ार का पयोग िकए जाने से अछू त बिहषकृ त कर िदए गए थे। यह मूखतथि ापूणथि आचरण की हद थी। इससे गाँधी ने सतयागह को नॉनसेंस बना िदया था। गाँधीजी ने ऐसा कयों िकया था? के वल इसिलए िक वे िहंदओ ु ं को नाराज़ और उतेिजत नहीं करना चाहते थे।’ नसलवादी मामले की तरह जाितभेद संबंधी मामलों को भूमडं लीय मंच पर ले जाने, कलयाणकारी नतीजे िनकालने का समथिथन करते हुए पखयात राजनीितक िवजानी रजनी कोठारी कहते हैं िक ‘दिलतों पर होने वाले अनयाय की पाचीनता, उसको दी गई धािमथिक और शासोक मानयता और उसके उनमूलन की कोिशशों को अभी तक पूरी सफलता न िमल पाना इस बात का सबूत है िक अनयाय का यह रप असल में नसली भेदभाव से भी गंभीर और जघनय है।’ ‘इकनॉिमक सव्दे 2007-08 के अनुसार सावथिजिनक केत के रोज़गारों में से कें द सरकार 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 176 176 | िमान दारा 39.27 लाख, राजय सरकारों दारा 72.22 लाख, अधथि सरकारी संगठनों दारा 58.22 लाख, सथानीय िनकायों दारा 21.26 लाख रोज़गार िदए गए थे, िजनकी कु ल संखया 181.97 लाख थी जबिक 1991 में देश भर के इनहीं रोज़गारों की संखया 190.57 लाख थी।’ रोज़गार का साकरता और उचचतर िशका से िनकटता का संबंध है। िजन समुदायों में इनका पितशत अचछा है वहाँ पर रोज़गार की दर भी अिधक है और जहाँ यह कम है वहाँ रोज़गार अपेकाकृ त कम देखने को िमलते हैं। राजकीय केत को सीिमत करके िनजी केत को बढ़ावा िदए जाने की नीितयाँ बड़े सतर पर लागू की जा रही हैं। ‘िनजी केत, कृ िष, उदोग तथा सेवा केत, 95 पितशत से अिधक रोज़गार के अवसर पैदा करते हैं िकं तु इस केत के सभी काम उचच जातीय िहंदओ ु ं के हाथ में हैं।...जबिक लगभग सभी िनमनजातीय बहुसंखयक लोग जो इस असंगिठत केत में काम करते हैं वे अपने जीवनयापन, अपनी आजीिवका के िलए उचच जातीय िहंदओ ु ं पर िनभथिर रहते हैं। िनजी केत में आरकण नीित लागू नहीं है। आरकण नीित के वल सावथिजिनक केत की 4 पितशत िनयुिकयों पर लागू है। इस केत में भी िनमनजातीय बहुसंखयक जनों को के वल मात 20 पितशत पद िदए गए हैं, बाक़ी 80 पितशत पद उचचजातीय िहंदओ ु ं ने हड़प िलए हैं। अतः इन केतों में पररसंपितयों के सवामी उचच जातीय िहंदू हैं। इसके कारण के वल 2 पितशत िनमनजातीय बहुसंखयक लोग जो सरकारी केत में रोज़गार करते हैं, वे ही समाज में सममािनत जीवन जीते हैं। इसके िवपरीत 98 पितशत िनमनजातीय लोग िनभथिरता का जीवन जीते हैं और उचचजातीय िहंदओ ु ं के शोषण का िशकार होते हैं।’ कृ िष योगय भूिम का समान िवतरण या सरकारी भूिम का भूिमहीनों में िवतरण न िकया जाना भी इसके िलए िज़ममेदार है। ‘िवश बैंक और युनसे को दारा 2000 में उचचतर िशका व समाज के िलए िनयुक कायथिदल ने सुझाव िदया था िक अिधक और उतम िशका के िबना िवकासशील देशों को वैिशक जान आधाररत अथथिवयवसथा से लाभािनवत होने में मुिशकलें आएँगी। िशका, जान और पिशकण के माधयम से लोगों को सशिककरण की तरफ़ ले जाने का एक औज़ार है। भारत में दिलत और आिदवासी आबादी कु ल आबादी का एक चौथाई है। यह अमेररकी जनसंखया के लगभग िनकट, जापान की आबादी से दोगुनी, जमथिनी से ितगुनी और िबटेन से चौगुनी अिधक है।’ जयाँ देज़ और अमतयथि सेन ने भारतीय समाज की मूलभूत आवशयकताओं, सामािजक िवषमताओं और िवकास के पशों को िचि्नित करते हुए बताया है िक ‘भारत में सामािजक असमानता का जो सवरप है और यह िजतना वयापक है, उसने लोकतंत को बेहद कमज़ोर कर िदया है, ख़ासकर इसिलए िक लोकतंत का अथथि के वल चुनावी राजनीित और नागररक सवाधीनताएँ नहीं हैं, साधनों का समतामूलक बँटवारा भी है। हाल के िदनों में भारत में सामािजक असमानता के कु छ पहलू कमज़ोर हुए हैं लेिकन कु छ नए असंतल ु न पैदा हो गए हैं िजनमें आिथथिक िवषमता और कॉरपोरे ट ताक़तों में बढ़ोतरी शािमल हैं।’ वे पुनः कहते हैं ‘सकू ली िशका और सावथिजिनक सवासथय सेवा की िनलथिजज उपेका दशाथिती है िक भारतीय समाज वग्मों, जाितयों, समुदायों आिद में िकस क़दर बँटा हुआ है। हाल के िदनों में शासन 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 177 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 177 िजस तरह पहचान कें िदत राजनीित को बढ़ावा देता रहा है उसके चलते इन िवभाजनों को और मज़बूती ही िमली है। इसका नतीजा यह हुआ है िक बुिनयादी कमज़ोररयों को दूर करना आसान होने के बजाय और किठन हो गया है।’ अभी दो वषथि पूवथि 2 अपैल, 2018 को संपणू थि देश के दिलत संगठनों ने अपने मानवािधकारों की सुरका में देशभर में अपने िख़लाफ़ हो रहे ज़ुलमों और एससीएसटी ऐकट की सुरका में राजनैितक समथथिन के िबना सफल भारत बंद िकया था िजसमें करोड़ों लोग सड़कों पर उतर आए थे। मगर मधय पदेश, राजसथान इतयािद राजयों में कई जगह दज़थिन भर जानें चली गई ं। इस अचानक फू टे आंदोलन से भय खाकर भारत सरकार ने सव्मोचच नयायालय के फ़ै सले की िटपपणी को िनरसत करते हुए पूवथििसथित बहाल की थी। लेिकन संसाधनों पर क़ािबज़ िवषमतावादी लोग िकसी न िकसी तरह से िहंसा करते रहते हैं। जुलाई 2016 में गुजरात के उना में गाय के नाम पर सात दिलत युवा मज़दूरों के िख़लाफ़ बबथिर िहंसा का मामला हो या 2016 में हैदराबाद कें दीय िवशिवदालय में दिलत युवा रोिहत वेमल ु ा की सांसथािनक हतया का मामला हो, चाहे जनवरी 2018 को भीमा कोरे गाँव युद की 200वीं वषथिगाँठ के अवसर पर िहंसा को लेकर मानवािधकार कायथिकताथिओ ं की िगरफतारी हो, अख़लाक़, ज़ुनैद, पहलू ख़ान जैसे अनेक मुिसलमों की हतयाएँ व मॉब िलंिचंग में अनेक िनरपराध लोगों के मारे जाने या िदलली दंगों के सवाल हों। देखना है िक सामािजक िवषमताओं और सांपदाियक तनाव के दौर में दिलत-बहुजन अपने मानवािधकारों को िफर से हािसल करने में कहाँ तक सफल हो पाते हैं। मराठी और हं दी द लत कहा नयो मे मानवा िकार मराठी लेखक गंगाधर पानतावणे ने िलखा है, ‘भाईयों! हमारे सािहतय की पेरणा के वल डॉ. बाबा साहब आंबेडकर और उनकी कांितकारी िवचारधारा है, इसमें कोई संदहे नहीं। कई समालोचक दिलत सािहतय का ररशता कभी माकसथिवाद से, कभी िहंदतु ववाद से या नीगो सािहतय से जोड़ते हैं। मैं इस आंबेडकर मंच पर िफर एक बार दोहराता हूँ िक हमारे दिलत सािहतय की पेरणा न माकसथिवाद है, न िहंदतु ववाद है, न नीगो सािहतय है। दिलत सािहतय की पेरणा के वल आंबेडकरवाद है।’ भारतीय भाषाओं में सबसे पहले मराठी में ही दिलत सािहतय लेखन पारं भ होने का कारण यहाँ मनुषयता की पकधरता यािन मानवािधकारों के ऐसे पशों का 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 178 178 | िमान पखरता से उभरना था। असल में मानवािधकार की बात करते समय यह धयान रखना ज़ररी है िक मानवािधकार िवरोधी आचरण और मूलय कौन से हैं िजनहें िहंदू जाित समाज हमेशा आगे रखता है। समाज वयवसथा, धमथि वयवसथा, अथथि वयवसथा, राज वयवसथा कयों नहीं चाहती िक सभी मनुषयों को सामािजक समानता, समान आिथथिक िवकास, समान धािमथिक अिधकार या अंतरधम्जी समानता िबना भेदभाव के हािसल हो? िजस िदन सभी मनुषयों को ये मानवािधकार हािसल हो जाएँगे उसी िदन बाह्मणवाद मर जाएगा और दिलत सािहतय अपना लकय हािसल करने में सफल होगा। दिलत सािहतय का सौंदयथि समता-सवतंतता-बंधतु ा में है। यह मानवािधकारों का पबल समथथिक, पोषक और सामािजक पररवतथिन का वाहक है। जाित आधाररत िवषमताओं ने मुटी भर लोगों को मानवीय गररमा देकर और शूद-अितशूद समाज (दिलत, आिदवासी, ओबीसी) की मानवीय गररमा पर शासीय रोक लगाकर, उतपादन काय्मों में लगे लोगों को हीन घोिषत करके मानवता के िख़लाफ़ जघनय अपराध िकए हैं िजससे भारत के नाम से पहचाने जाने वाले भू-भाग को हज़ारों साल ग़ुलामी में जीना पड़ा। ‘दिलत सािहतय भारतीय सािहतय में नई और िविशष सािहितयक धारा है। इस नई सािहितयक धारा ने भारतीय सािहतय को समृद िकया है। दिलत सािहतय ने भारतीय सािहतय को नए अनुभव, नई अनुभिू त, नए शबद, नए नायक, नई दृिष और वेदना-िवदोह का रसायन िदया है। इतना ही नहीं इसने तो भारतीय सािहतय समीका को आतमपरीकण करने के िलए लगा िदया और पाठक समीककों के मन में मूलभूत पश पैदा िकए।’ मराठी द लत कहा नयाँ यहाँ मानवािधकारों के पशों पर पाँच मराठी और पाँच िहंदी दिलत कहािनयों की आलोचना की गई है। मराठी कहािनयों में बाबूराव बागुल की ‘जब मैंने जाित छु पाई’, बंधु माधव की ‘ज़हरीली रोटी’, दया पवार की ‘सलीब’, अजुथिन डांगले की ‘बु ़द ही मरा पड़ा है’ और शरण कु मार िलंबाले की ‘जाित न पूछो’ को िलया गया है। बाबूराव बागुल दारा िलिखत ‘जब मैंने जाित छु पाई’ नामक लंबी कहानी जाित पोिषत जड़ता को नए पयोग के साथ पेश करती है जहाँ कहानी का नायक कामगारों दारा जाित पूछने पर इसे बताने या इस मानिसकता का िवरोध करने के बजाय िहंदू जाित आदशथिवाद ओढ़ लेता है और िजसे सुनकर सामने वाला हतोतसािहत होकर रासता बदल लेता है। सामािजक समानता में जातीय बाधा और इस बाधा को एक ि्क से पछाड़ने के पयास को रे खांिकत करते-करते कहानी नायक को ऐसे मुहाने पर ले जाकर छोड़ती है जहाँ उसके पास िहंसा से बचने का कोई िवकलप नहीं रहता। ग़ैर-बराबरी के जातीय िसदांत में ऐसा कया है िक यह तथाकिथत ऊँचनीच का पतीक बनकर वयिक का सामािजक वजूद तय करने लगती है। सामािजक जीवन के बेहद पासंिगक पशों को उभारने वाली कहानी भेदभाव और अपमान से बचने के िलए ठीक वैसे ही आदशथि वाकयों को दोहराने लगती है िजसे दोहराकर तथाकिथत पगितशील लोग 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 179 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 179 सामािजक पितषा और महानता का दजाथि पाते हैं, लेिकन कहानी के दिलत नायक का कया? वह बाह्मणवादी जाल में फँ सकर शोषण से बचने का भरसक पयास करने के बावजूद अंत में अपने से कम पितभावान िम. ितवारी और उसकी जाितवादी टीम से गािलयाँ, लात-घूसँ े और डंडे खाकर लहूलहु ान होकर सामािजक समानता को तार-तार होते देखता है। कहानी सवाल उठाती है िक दूसरा दिलत पात काशीनाथ सकपाल अपनी सावथिजिनक पहचान के साथ कहानी में पवेश करता है और इसी वजह से वह कारख़ाने के कामगारों और बाबुओ ं की जातीय घृणा को बार-बार सहने को मजबूर है, लेिकन वह िकसी से डरने के बजाय सवािभमान से रहता है और जातीय अपमान करने वालों को चुनौती देकर इंसानी हक़ हािसल करता है। उसका बार-बार चाक़ू िनकालना िहंसा का पयाथिय नहीं, बिलक जातीय हीनता के बोध से अनय वयिकयों के मानवािधकार छीनने वाले मनोरोिगयों के इलाज का एक िवशेष उपाय है लेिकन यिद ये नहीं सुधरे तो ऐसी घटनाएँ बढ़ सकती हैं। काशीनाथ के डील-डौल, चाल-ढाल और बेख़ौफ़ वयिकतव से जाितवादी कमथिचारी उसके सामने आने से डरते हैं। उनमें दंिडत होने या नौकरी चले जाने का भय बढ़ने लगता है। मतलब साफ़ है िक या तो आप शारीररक बल से डरते हैं या क़ानूनी बल से। राजनीितक लोकतंत पर लोकतंत िवरोधी ततव हावी हैं। आंबेडकरी चेतना से सराबोर काशीनाथ सकपाल जहाँ रिढ़वाद से िनिमथित परपंरा पर पहार करते हैं, वहीं नायक आदशथिवादी ढाँचे को ओढ़कर पयासों के बावजूद अंत में जातीय पहचान खुलने पर बुरी तरह से मारा-पीटा जाता है। कया यह जाित छु पाने की मार है या जाितवादी कमथिचाररयों और पररवारों से िकए गए सामािजक लेन-देन का बदला? मुबं इया कहानी नायक रे लवे कारख़ाने में पवेश करता है और िहंदू जाित कामगार रणछोड़ के सवाल का उसी की गुजराती में उतर देने के बाद ख़ुिशयों के महासमुद में िहलोरें लेने ही लगता है िक रणछोड़ ने जाित पूछ ली। यह सवाल सुनकर नायक बरस पड़ा ‘आपने मुझसे यह पूछने की जुरथित कै से की? मेरे हुिलए से आप अंदाज़ा नहीं लगा सकते? मैं... मुबं इया ...भारत को मुिक शिक िदलाने वाला पकाश-पुंज समझे? या िफर एक बार सुनाऊँ? अपनी मिहमा का बखान करँ? ...कम से कम मेरे सामने तो ऐसी बातें मत िकया कीिजए। मैं नए देश का नया िसपाही हू।ँ हम अब एक-से हैं। ऊँ च-नीच, धेड़-चमार, बाह्मण आिद सब झूठ है ...इसीिलए तो सोने के अंडे देने वाला देश फटीचर बन गया है।’ िहंदू कामगार जाित िवरोधी ज़ोरदार वकवय सुनकर अपने बचाव में उतर आया था। नायक के सममान, सवािभमान और आतमिवशास को देखकर उसने मान िलया िक यह िनिशत रप से ठाकु र या बाह्मण ही होगा और अपना कमरा िकराए पर दे िदया। िहंदू जाित के कामगार वही कर रहे हैं िजसकी सामािजक सवीकृ ित है। देखा जाए तो पाएँगे िक बाह्मणवादी िजस औज़ार से दिलतों पर हावी होते हैं यिद वही आतमिवशास दिलतों में आ जाए तो वे भ्रिमत होकर अपना जंगली वयवहार के वल उस वयिक के पित तो छोड़ देते हैं, लेिकन उनका सामानय आचरण नहीं बदलता। ‘अरे भाई, जाित-िबरादरी वालों के साथ तो हरी दूब बनकर रहना चािहए, न िक लंबा ताड़? और 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 180 180 | िमान िफर आप जैसा आदमी धेड़-चमार के घर में थोड़े ही रह सके गा?’ पश उठता है अपने मुहँ पर ही अपनी सामािजक हैिसयत की गाली सुनने के बाद भी नायक कोई पितिकया कयों नहीं देते? यदिप उसमें एक कसमसाहट ज़रर पैदा होती है। यह पलायनवादी पवृित अपनी बंद पहचान खुलने से होने वाले िनिशत अपमान को लेकर है, लेिकन उसे काशीनाथ की बोलडनेस से बड़ा सहारा िमलता है। नायक के पगितशील िहंदू होकर भी मन ही मन अपनी दिलत हैिसयत पर िचंितत होने से सािबत होता है िक वणथि-धमथि में जातीय पभुता ही अंितम सतय है। कैं टीन में ‘महार! महार!’ की आवाज़ों और पदिशथित घृणा ने नायक का हाव-भाव िबगाड़ िदया था। ‘गरुड़ पकी की भाँित कु लाँचे भरता मेरा मन धमम से नीचे आ िगरा। मेरा हष्मोतफु ल शरीर मानो िवकलांग हो गया। मेरे ख़ून की गम्जी जैसे बफ़थि बन गई। यह शबद िवकट हासय करते हुए मुझे डरा रहा था। मैं दीवार बना खड़ा था। ...तभी रणछोड़ का यह सवाल मुझे सुनाई पड़ा, ‘ितवारी जी, महार िकसे कहते हैं? महार यािन महारािष्यन शी िशवाजी के वंशज लड़ाकू ।’ ‘जी नहीं पंिडत जी। मैं आंबेडकर की जाित का हू।ँ उनहीं की िबरादरी का। मुझे काशीनाथ सकपाल कहते हैं।’ सकपाल का जवाब नायक के डर और कँ पकँ पाहट को कम ज़रर करता है, लेिकन काशीनाथ उसका सामना करते हुए अपने को सीधे आंबेडकर और असपृशयता से जोड़कर ऐसी िहममत िदखाते हैं जो िहंदू कमथिचाररयों को चुभती है। ितवारी धमथि घोषणा करता है − ‘मारो साले धेड़ को।’ ‘मारो’ भीतर बैठे सभी लोगों ने उसकी हाँ में हाँ िमलाई। काशीनाथ ने तुरंत चाय की पयाली नीचे पटक दी और दोनों हाथ जेब में डाल सीना तानकर कड़कते हुए कहा, ‘आओ, कोई भी आओ ितवारी, तू आ, रणछोड़ तू आ, बुड्ढे तू आ, जािड़ए तू आ, कोई भी िकते भी लोग आओ। ...अभी जाकर तुमहारे फोरमैन को इंिडयन कांिसटट् यश ू न पढ़कर सुनाता हू।ँ तुम सब लोगों को जेल की हवा िखलाऊँगा, दूध में से मकखी की तरह नौकरी से िनकलवा दूगँ ा। कोई मज़ाक़ थोड़े ही है। काशीनाथ ने बड़े ही रौब से कहा और शान से क़दम ब क़दम बाहर चला गया।’ काशीनाथ की चुनौती सुनकर सभी हड़बड़ा गए, उनके िलए यह नए तरह का पितरोध था, वे मैदान छोड़कर भागने लगे। जाितवादी पहले डराकर दिलतों का आतमिवशास तोड़ने का पयास करते हैं लेिकन यिद समतावादी डरने के बजाय आतमरका में उनहें ही डरा दें तो िवषमतावािदयों के पास भागने के िसवाय कोई िवकलप नहीं बचता। भारतीय दंड संिहता आतमरका में िकए जाने वाले पहार पर ख़ास नज़र और दंड में ररयायत देती है। काशीनाथ की चेतनामयी ललकार जातीय िवषमतावािदयों के िख़लाफ़ एक नया पयोग है। नायक पर इसका सकारातमक पभाव पड़ता है, लेिकन िहंदू जाित के कामगार नायक को सीिनयर बनाने के िलए ‘मुबं ई के धेड़’ से पहले हािज़री लगवाते हैं। कया उपरोक माहौल में कोई फ़ै क्ी अपनी उतपादकता बढ़ा सकती है? जहाँ कमथिचारी काम के बजाय नालायक़ी में उलझकर मारा-मारी पर उतरे हुए हों। दैिनक वयवहार का िहससा बने इस रोग से िनपटने के िलए समझ और सखती की आवशयकता है। फ़ै क्ी फ़ोरमैन माता पसाद ितवारी को नायक के वयवहार में जातीय गंध न होना या 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 181 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 181 काशीनाथ का िवरोध न करना िबलकु ल नहीं सुहाता। जबिक नायक काशीनाथ की असिलयत जानकर उससे जुड़ा रहना चाहता है। फ़ोरमैन के शबद देखने लायक़ हैं − ‘तुम तो अचछी िहंदी बोल लेते हो। िबलकु ल बाह्मणों की-सी शुद।’ अपनी योगयता नॉन-मैि्क बताने पर वह कहता है − ‘यहीं तो मार खा जाते हैं लोग और धेड़-चमारों को मौक़ा िमल जाता है। वे फटाफट अफ़सर, िमिनसटर बन जाते हैं। रे लवे में उनहें तो इतनी सुिवधाएँ हैं िक वो सूअर का बचचा काशीनाथ यिद चाहे तो कलकथि भी बन सकता है। है तो वह नॉन मैि्क ही। इसिलए तुम दोनों कलीनर ही रहोगे, जबिक वह फ़ायरमैन, डाइवर, कं ्ोलर बन जाएगा। इसिलए तुम सिटथििफ़के ट जलदी से मँगवा लो। कया समझे?’ उपरोक बातचीत सपष संकेत देती है िक आरिकत समुदायों के कामगारों के पित दफतरों का वयवहार िकतना घिटया है। लोकतंत के वल मतािधकार नहीं है। लोकतंत की मज़बूती का अथथि है सामािजक-आिथथिक िवषमताओं का अंत और पतयेक केत में अवसर की समानता। कहानी नायक मािसक वेतन के बाद सिटथििफ़के ट जमा करवाने की छु टी लेकर मन ही मन नौकरी छोड़ने का िनणथिय करता है। काशीनाथ तथाकिथत उदार सवणथि कामगार यािन नायक के सामने अपने आकोश का कारण बहन के पित पाररवाररक िहंसा को बताते हुए नौकरी छोड़कर आगे पढ़ना चाहता है। ‘मैि्क की परीका दूगँ ा। कॉलेज में जाऊँगा। वकील बनूँगा। मुझे कामगार नहीं बनना है। ये जीना भी कोई जीना है? पल-पल मरना...। यह सब कहते हुए उसकी आँखें जैसे अंगार उगल रही थीं।’ कै सी राज वयवसथा और समाज वयवसथा है िजसमें लोकतांितक भारत के दो कामगार नौकरी छोड़कर वापस जाना चाहते हैं। इसके पीछे सरकारी कायाथिलयों और रे लवे फ़ै िक्यों में मानवािधकार िवरोधी जाितवादी माहौल की मौजूदगी है। पतािड़त युवा कामगार बाबा साहब आंबेडकर से अपने को जोड़कर उचच िशका लेकर वकील बनने का सपने देखता है। उसे मालूम है ऐसी नौकररयों से कु छ बदलने वाला नहीं है। सव्मोचच नयायालय के नयायाधीश वी.आर. कृ षणा अययर ने बहुत पहले कहा था िक जाितवाद से पतािड़त समाज को जयादा संखया में संवैधािनक और महतवपूणथि पदों पर िनयुिक देकर देश और समाज को सशक बनाया जा सकता है। सवाल यह है अपनी सामािजक हैिसयत पर गवथि करने वालों में अनय की हैिसयत का सावथिजिनक अपमान करने की िहममत कहाँ से आती है? जबिक दिलत अपनी हैिसयत को बाह्मणवादी सदाचार और पगितवादी सोच में लपेटकर अपमान और िहंसा से बचने की कोिशश के बावजूद भी बच नहीं पाता। सवाल यह है िक ऐसे वयवहार िहंदू जाित समाज के रोज़नामचे में शािमल कयों है? कया ऐसे वयवहार िकसी धमथि का िहससा होने लायक़ हैं? सवाल यह भी है िक पगितशील होकर जाितवाद िवरोधी संबोधनों से सवणथि सममािनत कयों और दिलत ऐसे ही संबोधनों से जाितवादी कयों घोिषत हो जाते हैं? कहानी बताती है िक संसाधन संपनन िहंदू जाित समाज के एक िहससे का मानिसक संतल ु न िबगड़ना गंभीर बीमारी का लकण है। नागररकों का मान-मदथिन और उनसे िहंसा करना बेहद अलोकतांितक और समाज िवरोधी काम है। लोकतंत समानता का मानवािधकार देता है मगर 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 182 182 | िमान जाितवादी इसे छीन लेना चाहते हैं, तभी तो रणछोड़ के ऐसे वयवहार पर काशीनाथ उसे ढेर करने की चेतावनी देता है। नायक की काशीनाथ से बढ़ती नज़दीकी से वयिथत होकर रामचरण ितवारी नायक को गुरु मानकर उसे भोजन कराने घर ले जाना चाहता था, मगर नायक बचना चाहता है। वह अपनी पहचान से पदाथि उठाने का पयास करता है लेिकन अचानक कोई घटना बातचीत के कम को ही बदल देती है। ‘रामचरण, मुझे माफ़ करना। अब तक मैंने काफ़ी हलाहल पी िलया। अब और अिधक पचाने की िहममत नहीं रही...मैं वणथिचोरी का िक़ससा सुनाना चाहता था।’ वसुधवै कु टु मबकम का राग अलापने वाली संसकृ ित की पोल उस वकत खुलती है जब नायक पर नींद में ही लात-घूसँ ों से पहार होने लगते हैं। ‘मेरी आँख तब खुली, जब लात-घूसों से मैं कराह रहा था। रामचरण ितवारी का कमरा आदिमयों से खचाखच भर गया था। उनमें से कु छ तो मुझे तरह-तरह की गािलयाँ दे रहे थे, कयोंिक मैंने असली जाित छु पा रखी थी। कु छ ‘संजीदा’ िक़सम के लोग भी उनमें थे, जो मेरी अचछी तरह से मरममत कर रहे थे। िजतना कटर भक था, उतना ही खूख ँ ार दुशमन बना रामचरण भी मुझ पर िपल पड़ा था।’ ितवारी की पतनी सरसवती की मौजूदगी के बावजूद नायक की िपटाई बंद नहीं हुई लेिकन काशीनाथ की आहट पाकर चारों ओर भगदड़ मच गई थी। ‘पलक झपकते ही पूरा कमरा ख़ाली हो गया। लोग एक-दूसरे से कहने लगे, वो, मुबं ई का धेड़ मवाली हाथ में छु रा लेकर ख़ून की होली खेल रहा है। भागो।’ इतने में काशीनाथ िवदुत गित से भीतर घुस आया और चककू नचाते हुए िचललाया, ‘मासटरजी, कमाल िकया तुमने...। उसकी शाबाशी से भी मुझे िपटाई िजतना ही गहरा घाव लगा।’ यह पकरण एक बाह्मण सी की संवेदना से पररचय करवाता है। यह सही है िक सभी को अपने िपयजन अचछे लगते हैं और उनके जीवन को सुरिकत करने की सोचते हैं, लेिकन इंसानी गररमा को तार-तार होते देखकर हमारी िज़ममेदारी बढ़ जाती है। िजसकी चरण वंदना हो रही थी, उससे होने वाले दुवयथिवहार को रोकना सवणथि सी का भी फ़ज़थि है। वह जाितवादी पित को बचाने के िलए काशीनाथ से मुक़ाबला करने को तैयार है। सी की संवेदना में सवाथथि है, मानवीयता नहीं, घाव साफ़ करने के पीछे नायक का िवशास जीतकर काशीनाथ के चाक़ू से बचना और बचाना उसका उदेशय अिधक था। कहानी संकेत करती है िक नायक के जाते ही वह भययुक हो जाती है। यिद उसमें नायक को दी गई पीड़ा से संवेदना होती तो पित से माफ़ी मँगवाकर ही छोड़ती। एक सी के नाते वह भी बाह्मणवादी ढाँचे से अपमािनत है, लेिकन िफर भी वह उसके िख़लाफ़़ नहीं बोलती। ज़ािहर है वह िसयों की वयापक संवेदना की अपेका िपतृसता और बाह्मणवाद की सुरका करती है। वह पित को सुधारने के बजाय उसे बचाने का अिभयान चलाती है। कहानी हृदय-पररवतथिन की मानिसकता की पोल खोलती है। लोकतांितक वयवसथा का पकधर होने के नाते दिलत सािहतय राजय या समाज समिथथित िकसी भी िहंसा के िख़लाफ़ है। कहानी में जातीय अपमान और िहंसा से बचने हेतु काशीनाथ का चाक़ू िनकालना एक घटना-मात है। नायक और काशीनाथ दोनों सामािजक आधार पर 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 183 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 183 बेइजज़त होते हैं, मार खाते हैं, लेिकन िहंसा नहीं करते। यदिप भारत का क़ानून आतमरका में हिथयार के पयोग की इजाज़त देता है। कहानी में तीन ऐसी घटनाएँ आती हैं जब काशीनाथ चाक़ू िनकालते हैं, मगर उसका पयोग नहीं करते। कहानी संदश े देती है िक यिद तथाकिथत उचच जाितयों ने जाितवाद से पीिड़त समाज के पित अपने दुवयथिवहार नहीं बदले तो यह समाज के िलए घातक होगा। कहानीकार मानवािधकार िवरोधी माहौल से रबर करवाते हुए इस मानिसक पागलपन का ख़ातमा िहंसा से नहीं, बातचीत और सामािजक सदाव के दायरे में करने को पितबद हैं। नायक ितवारी के घर भोजन करने के बाद वहीं सो गए, मगर ितवारी ने उसका बैग टटोला और सिटथििफ़के ट देखकर उबल पड़ा। ‘मेरा सब कु छ चोरी हो गया था। सिटथििफ़के ट रामचरण ने पहले ही फाड़कर फें क िदए थे। मेरी गदथिन में चोट आई थी। चाल तो लड़खड़ा रही थी, लेिकन मेरे भीतर भारी उथल-पुथल भी चल रही थी और नंगा चाक़ू नचाते हुए काशीनाथ का दहाड़ना बराबर जारी था। अब बसती पीछे छू ट गई थी। काशीनाथ ने कहा, ‘चलो पुिलस सटेशन चलते हैं।’ ‘नहीं’ ‘वो लोग तुमको पीट रहे थे और तुमने कु छ नहीं िकया?’ ‘उनहोंने मुझे थोड़े ही मारा? वे तो मनु को पीट रहे थे!’ जाितवादी लोग देश िवरोधी, संिवधान िवरोधी और समानता के दुशमन हैं। ऐसी िसथित में यह समझ लेना चािहए िक यह लड़ाई मात तकथि से नहीं लड़ी जा सकती, इसके िलए कु छ अिधक चािहए। काशीनाथ मानवीय गररमा के िवरुद होने वाले आचरण से लड़ने वाले योदा हैं जो इस बीमारी से लड़कर इसे हराना चाहते हैं। नायक जाितवादी भीड़ की मार झेलकर भी जाितवािदयों के िख़लाफ़ िहंसक नहीं होना चाहते। वे न तो बड़ी भीड़ बनाकर िहंसा करने के समथथिक हैं और न ही पुिलस के माधयम से मुक़दमा चलाना चाहते हैं। वे समाज को बदलने के िलए सामािजक चेतना का समथथिन करते हैं, तभी तो वे कहते हैं िक जो मनोरोगी मुझे मार रहे थे उनका इलाज पुिलस के पास नहीं, समाज के पास है। यह लड़ाई तभी पूरी होगी जब जनता मनुवाद को देश, समाज और कायथि केतों से उखाड़ फें के गी। मनु को समाज से बाहर करने का तरीक़ा एक ही है िक हम अपने साथी नागररकों के मानवािधकारों का सममान करना शुर कर दें। कहानी जातीय िवषमता की परतों को खोलने के िलए िजस ्ैक पर चलती है इसके खुलते ही िहंसा के सवर सुनाई देते हैं। सिदयों से जारी इन अपराधों के पित बाह्मण धमथि ज़रा भी संजीदा नहीं िदखता। कहानी यह भी संदश े देती है िक जब जातीय िहंसा से बचना संभव न रहे तो उससे लड़ना ही एकमात उपाय है। कहानी का नायक जाितवाद से बचने के िलए 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 184 184 | िमान जाित छु पाकर रहता है तो दूसरा सरे आम अपने को बाबा साहब आंबेडकर की िवरासत से जोड़ता है और िवषमतावािदयों को चुनौती देता है। जाित छु पाने वाला मार खाकर शांत हो जाता है तो जाित की सावथिजिनक अिभवयिक करने वाले से सभी जाितवादी डर-डरकर भागते हैं। कहानी संकेत करती है िक मनु ने नायक को जाित छु पाने को मजबूर िकया। यिद वह जाित नहीं छु पाता तो मनु िवरोधी होता जैसे काशीनाथ सकपाल और ऐसी िसथित में वह गररमामय जीवन जीने में सफल होता। आरकण के नाम पर नाक-भौं िसकोड़ने वाले धमथि के नाम पर सौ पितशत आरकण िलए हुए हैं और इसमें उनहें कु छ नालायक़ी नहीं लगती। लोकतांितक भारत में भेदभाव की संसकृ ित के िलए कोई जगह नहीं होनी चािहए। राजसथान हाईकोटथि के पांगण में मनु की पितमा लगी हुई है, महाराष् की दो आंबेडकरवादी मिहलाओं ने मनु संिहता को सी और दिलत िवरोधी कहते हुए 8 अकू बर, 2018 को इस बुत पर कािलख पोती थी। बंिु मािव : ज़हरीली रोटी बंधु माधव ने इस कहीनी के ज़ररये भूख, ग़रीबी, सामािजक अपमान और मानवीय गररमा रिहत जीवन के पश उठाकर सामािजक संवेदना का िवसतार िकया है। धािमथिक परं पराओं और आसथाओं के नाम पर वयिकयों से बेगारी करवाना और पतािड़त करना आिथथिक अपराध ही नहीं, अिपतु मौिलक अिधकारों का उललंघन होने के कारण राजय के िवरुद अपराध भी है। बाबू पािटल बूढ़े दिलत और उसके नाती को औक़ात में रहने को कहते ही नहीं, करके िदखाते हैं। खिलहान में अनाज िनकालने की पिकया में शािमल करने से पहले पािटल कामगारों की इंसािनयत छीन लेते हैं और बूढ़ा कामगार येतालया भूख से बचने के िलए उसकी हाँ में हाँ िमलाता जाता है। ग़ैर-बराबरी पर आधाररत बाह्मणवादी ढाँचा जनमफल और कमथिफल दारा िनधाथिररत ग़ैर बराबरी को शोिषतों के िदलो-िदमाग़ में उतारने का पयास करता है, लेिकन पितरोध जारी रहता है। शहर में पढ़ने वाला बाल मज़दूर जब जातीय ढाँचे और देवताओं की पिवतता पर सवाल उठाता है तो पािटल आग-बबूला हो उठता है। ‘अचछा पढ़-िलख िलया है, इसिलए इतना अिशष हो गया है। यह समझ लो तुम लोग िक पढ़-िलख लेने से िकसी महार या माँग को कोई बाह्मण नहीं कहने लगेगा। तुमहें चोखामेला की कहानी जाननी चािहए। कया वह पंढरपुर के िबठोवा मंिदर में कभी घुस आया?’ चेतना उनहें ललकारती है िक ‘तुमहारे और हमारे में कोई भेद नहीं है’ तो ज़मींदार उनहें ईशर दारा रची वयवसथा का पालन करने हेतु गुराथिते हैं िक ‘चपपल की पूजा देवता की जगह कभी नहीं हो सकती’। कहानी बाल शोषण के पक को उजागर करते हुए उदंड िकसान और उसके सहयोगी दारा बचचे से काम लेने, धमकाने, अनाज िदए िबना खिलहान से चले जाने को िदखाती है −‘ओ छोकरे , चल छोड़ मेरा खिलहान। कु छ भी नहीं दूगँ ा तुझे नालायक़...उठ, जा यहाँ से।’ ‘नहीं अनना, आप हमारी पीठ पर चाहे िजतना मार लो, पर पेट पर लात मत मारो।’ दादा की आँखों में आँसू छलछला आए थे।...सारा िदन काम करने के बावजूद बापू पािटल ने हमें एक मुटी 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 185 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 185 जवार तक नहीं दी।’ भूखे वयिक के िलए भूख मुिक पहले है, सवािभमान नहीं। यही कारण है िक वृद कामगार बैलों के आगे डाली गई सड़ी हुई रोिटयों को उठाकर भूख मुिक की कोिशश करता है और इसी पिकया में उसकी मौत होना नागररक और पशासिनक वयवसथा पर गंभीर आरोप है। िशिकत बाल मज़दूर और बूढ़े कामगार के बीच जीवन जीने के तौर-तरीक़ों को लेकर बातचीत से मालूम होता है िक वे चेतना रिहत जीवन और िविवध आयामी शोषण से मुिक चाहते हैं। वे सामािजक ज़बरदसती से छु टकारा चाहते हैं। बालक को पुकारते हुए दादाजी कहते हैं, ‘महादेवा, कया महार और माँग कभी सुखी जीवन नहीं जी पाएँगे? यह कै सी िज़ललत भरी िज़ंदगी जी रहे हैं हम! कया तुम यह समझ रहे हो िक जमींदारों और गाँव के लोगों के ताने सहकर मैं खुश होता हू।ँ मैं भी उन लोगों के रवैये से ख़ासा परे शान हूँ और उनके ज़ुलमों का बदला लेना चाहता हू।ँ पर मेरे बेटे, मैं मजबूर हू!ँ मुझे िज़ललत भरी इस िज़ंदगी का कोई अंत नहीं दीखता।’ कहानी शम के मूलय को रे खांिकत करते हुए कहती है िक यिद िदनभर के पररशम के बदले अनाज या पैसा िमलता तो बूढ़े कामगार की मौत नहीं होती। बेगारी ने बूढ़े शिमक की जान ले ली। मरते वकत वे महादेव से कह रहे थे, ‘मैं िसफ़थि इतना ही कहूगँ ा िक सिदयों से हमारी िबरादरी की िक़समत से िचपकी इन ज़हरीली रोिटयों के भरोसे मत रहना। कु छ ऐसा करो िक यह ज़हरीली रोटी अब िकसी महार के मुहँ में न पहुचँ ने पाए। ये ज़हरीली रोटी न जाने और िकतनों की जान लेगी...।’ कहानी सिदयों की पीड़ा के पीछे बाह्मणवादी ढाँचे की उस सैदांितकी को खड़ा पाती है िजसने एक समान अिधकार और िहससेदारी का बार-बार िवरोध िकया। वृद कामगार बाह्मणवादी ढाँचे में िनिमथित इस िज़ललत भरी िज़ंदगी से मुिक की माँग करते हुए शोषण एवं गंदगी के ढेर को साफ़ करने की आवाज़ बुलंद करता है। गणतंत के बाद भी एक समुदाय कयों सड़ी हुई रोिटयाँ खाकर मर रहा है और दूसरा इनके शोषण की पकधरता में ईशर और परं पराओं को सममािनत कर रहा है। इससे संघषथि करने के िलए महादेवा जैसे िशिकत हो रहे युवाओं की फ़ौज की ज़ररत है जो न के वल इस सांसकृ ितक कू ड़े के ढेर से समाज को अवगत करवाएँगे, बिलक आंदोिलत होकर बेगार िवरोधी पथ का संधान करें गे। महादेवा, पािटल के वयवहार को तक्मों से ख़ाररज करता है। ‘कया आप हमें अपने पैर की चपपल समझते हो? कया हम चपपलों की तरह हैं? कया हम आप लोगों की 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 186 186 | िमान तरह हाड़-मांस के नहीं बने हैं और हमारे ख़ून का रं ग आप सबसे अलग है? ...मैंने िफर चीखकर कहा, ‘हममें और तुममें कोई फ़क़थि नहीं है।’ वे आगे बढ़कर बेगारी, शोषण, जातीय अपमान की िशकायत और अपने अिधकारों की पैरवी करते हुए कहते हैं ‘हमें अपनी सीमा लाँघनी ही होगी। दूसरा कोई चारा नहीं।’ यिद नागररकों को बेगारी से मुिक और सामािजक समानता आधाररत सवािभमानी िज़ंदगी चािहए तो उनहें इनके िख़लाफ़ आंदोिलत होना़ होगा। तभी बेगारी के सवाल का हल संभव है और तभी शोिषत समाज को आिथथिक मानवािधकार हािसल हो पाएँगे। दया पवार : िलीब दया पवार ने कामगार यूिनयन के िहत में जीवन लगा देने वाले वयिक और यूिनयन के भीतर क़ायम जातीय पभुतव का गहराई से िचितत िकया है। सदा कांबले यूिनयन का नेततृ व पाकर सबके िलए बोनस और अनय कामगार सुिवधाएँ जुटाने के िलए मज़बूती से दो माह तक आंदोलन चलाते हैं, लेिकन इस आंदोलन को सामािजक पहचान के आधार पर खंिडत कर िदया जाता है। मैनेजमेंट दारा िविभनन आरोपों में कांबले को नौकरी से बख़ाथिसत करते ही मज़दूर काम पर लौट आते हैं। यूिनयन अपने नेता की बिल देकर चुपपी साध लेती है। कांबले और उसका पररवार गंभीर आिथथिक संकट से गुज़रता है, पर ज़ािलम मैनेजमेंट से बहाली की अपील करना उसे अपने ज़मीर के िख़लाफ़ लगता है और वह अपने संकलप पर अटल रहता है। बाबू लोगों ने हेडकवॉटथिर के िसंधी जाित के अिधकारी के िनद्देशन में हड़ताल तोड़ने की पहल की और सभी िसंधी बाबू काम पर हािज़र हो गए। ‘सदा िनमन जाित का है, वह मज़दूरों का नेता बन बैठा है, यह चचाथि ज़ोरों पर थी। सदा मज़दूरों को भड़काता है इसिलए उसे नौकरी से हटा िदया गया। मैनेजमेंट ने काँइयापन िदखाते हुए कारख़ाने में चोरी-िछपे दार की भटी चलाने वालों की सूची में सदा का नाम शािमल कर िदया। वधसथल पर सलीब लेकर जाने वाले ईसा मसीह के साथ कु छ गुनहगार भी थे। सदा के साथ यही सब हुआ था।’ सवाल हड़ताल टू टने का नहीं, बिलक यह है िक िकस आधार पर उसे तुड़वाया गया। कहानी संकेत करती है िक कांबले की सामािजक हैिसयत को छोटी बताकर तथाकिथत बड़ी जाित वालों के िलए उसके नेततृ व में रहना धमथििवरुद था। बाह्मण धमथि वयवसथा संगठन में नहीं, जातीय िवखंडन में िवशास करती है और इसी आधार पर िहंदू अपना जीवन जीते हैं, नेततृ व करते या नेततृ व छीनते हैं। कांबले की कायथि िनषा पर सवाल उठाकर उसकी जातीय हैिसयत को उभारना ऐितहािसक षड् यंत का िहससा है, जो दशाथिता है िक यहाँ काम का नहीं, कामगारों की जाित का सममान है जो बेहद खेदजनक, लोकतांितक पिकयाओं का अपमान और संिवधान-पदत मानवीय गररमा के िवरुद है। ‘सलीब’ का नायक सदा कांबले बेटी को पढ़ाई के िलए बोिडडिंग सकू ल भेजना चाहता था लेिकन उसकी बेटी के गली के िकसी मवाली के साथ चले जाने से बख़ाथिसत मज़दूर नेता 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 187 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 187 की आिथथिक परे शानी में सामािजक अपमान भी जुड़ जाता है। उसकी पतनी बाज़ार में सबज़ी बेचकर पररवार चलाती है। हड़ताल और नौकरी से िनकाले जाने के बाद वह फ़ै क्ी के गेट पर कु छ िदन सामान बेचकर और कामगारों के सामूिहक चंदे से गुज़ारा करता है लेिकन कारख़ाने में अपने पवेश रोक पर वह िचललाते हुए कहता है, ‘मुझे इसतीफ़ा देना है, मुझे अपने पररशम के पैसे चािहए। मैंने उसके कं धे पर हाथ रखना चाहा, ‘सदा शांत हो जा, सब कु छ िमलेगा तुमहें। मासटर, हाथ ना लगाओ मुझ,े तुम भी उन जैसे ही िनकले, ये सभी तो िबक चुके हैं। मुझे अपने पसीने की कमाई चािहए। कया ये पैसे मेरे मरने के बाद िमलेंगे? कयों मुझे तुम फु सला रहे हो, तुम भी मािलक के साथ िमल चुके हो। कया मैं कु छ सोच नहीं सकता? कोई काम नहीं कर सकता? तुम सब चाहते हो िक मैं पागल हो जाऊँ। वह बड़बड़ाता हुआ गली में दौड़ने लगा। मैं हताश होकर उस िदशा में देख रहा था, िजस तरफ़ वह दौड़ता चला जा रहा था।’ कहानी यूिनयिनज़म के कारण दंिडत वयिक और उसकी आिथथिक िसथित को हमारे सामने रखती है। पहले मज़दूरों दारा हड़ताल को समथिथन और बाद में नेता को अके ले छोड़कर काम पर लौटने के पीछे आिथथिक समसयाओं समेत नौकरी जाने के डर के साथ-साथ दिलत नेततृ व का नकार पमुख रप से काम करता है। लेिकन के वल दिलत का ही सवाल होता तो उसके साथ कु छ दिलत तो आने ही चािहए थे। असल सवाल नौकरी जाने का डर और भूखे मरने का है। दुिनयादारी और पूँजीवादी ताक़तें हक़ माँगने वालों को पागल क़रार देकर हड़ताल रोकने में जातीय पहचान का सहारा लेती हैं। कहानी सवाल उठाती है िक मज़दूरों का नेता वणथि, धमथि और जातीय शेषता के अनुसार कयों होना चािहए? उनका नेता वही हो जो उनके हक़ों के िलए लड़े, लेिकन कहानी में धोखेबाज़ों और ितकड़मबाज़ों के सामने मज़दूर हक़ों के िलए लड़ने वालों को गंभीर आिथथिक संकट और बख़ाथिसतगी का सामना करना पड़ता है। मानवीय शोषण की यह वयवसथा बंद करनी है तो बचचों को घरों में दी जाने वाली ्ेिनंग बंद करनी होगी। दोहरे आचरण चाहे सता के हों या समाज के , इनसे सामािजक सौहादथि नहीं बन सकता। भारतीय जनता यिद मानवीय गररमा या मानविधकारों को जीना चाहती है तो िसवाय इसके उसके पास कोई िवकलप नहीं है िक वे शोषण के िवरुद एकजुट हों, लेिकन यहाँ शोषण भी जाित के िलहाज़ से घटता-बढ़ता है और यही विकडिं ग गुपस की एकता की बाधा है। हम देख रहे हैं िक शुदता के नाम पर सांसकृ ितक राष्वाद का बाजा गली-गली में बजाया जा रहा है। पंजाबी किव पाश कहते हैं −‘सबसे ख़तरनाक है सपनों का मर जाना’ इसिलए िनरं तर अलख जगाकर सपनों को जगाए रखना है। कहानी इलाक़े , भाषा और धमथि की समानता के बावजूद जाितवाद फै ला रहे समाज और समूह की कायथिशल ै ी पर सवाल उठाती है। इसका मतलब साफ़ है िक जाित सब से ऊपर है। यह िजस धमथि से िनकली है, उसे ही िनगल रही है। यह संघषथि जाित से सममान और जाित से अपमान पाने वालों के बीच सिदयों से जारी है और यह सामािजक समानता सथािपत होने तक जारी रहेगा। 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 188 188 | िमान अजुजुन डांगले : बु ही मरा पडा है अजुथिन डांगले ने कहानी के माधयम से सामािजक जड़ता और दिलत समाज के आपसी भेदभाव पर पहार िकया है। िविध सनातक के छात अशोक राव अपने केत के िवधायक िम. पािटल से मुबं ई में िमलकर, दिलतों से हो रहे सामािजक, सांसकृ ितक और आिथथिक भेदभावों के पित रोष वयक करते हुए उनहें मनुषय मानने और समान वयवहार संबंधी आशासन चाहते हैं तो िवधायक इस पश में उलझने के बजाय उनसे ही पश करते हैं िक ‘हमारा रहने दो, अशोक राव, आप सभी ने तो कांित का ऐलान िकया है, लेिकन तुमहारे बौद लोग मातंगों को अपने कु एँ पर पानी भरने देते हैं? पहले अपने आप को देखो और िफर हमसे डायलॉग करो।’ िवधायक का आँखें खोलने वाला जवाब सुनकर अशोक राव आपसी भेदभाव के िवरुद अिभयान चलाने हेतु गाँव आते हैं। वे बौद िवहार बनाने की मुिहम में जुटे कायथिकताथिओ ं और नेताओं से संवाद करते हैं जो महार-मातंग की एकता के िलए बुद और बुदवाद को पमुख मानते हैं। उनका मानना है िक पहले बौद बनो िफर हम एक हो सकते हैं, लेिकन अशोक राव बौद बनने से पहले समान वयवहार और सामािजक दूररयाँ िमटाने के सवाल उठाते हुए कहते हैं िक कया बौद मंिदर बनाने से दिलतों के आपसी भेद समाप हो जाएँगे? जब तक दिलतों में आपसी मधुर संबंध नहीं बनेंगे, बुिदज़म का िवसतार नहीं होगा। सवाल यह भी है िक वैचाररक समता के िलए आंबेडकरी िवचार से ही जुड़ना कयों ज़ररी है? अशोक राव बौदसभा के सामने दिलतों के सामािजक संबंधों का पसताव रखते हैं तो चुनाव हार चुके राव साहब इससे सहमत नहीं होते। ‘राव साहब बोल रहे थे। अशोक का दम घुट रहा था। उसकी आँखों के आगे बौद मंिदर आया। मंिदर के आस-पास गाँव-गाँव से आई लोगों की भीड़ िदखने लगी। मंिदर में ठीक बौद मूरत के सामने बाह्मण के ‘अवतार’ में राव साहब भी िदखने लगे।’ बुद और बाबा साहब के सतय जान पर चलकर अशोक राव दिलत समाज में जाित भेद बंद करने और मातंगों को महारों के कु एँ पर पानी भरने की शतथि को मानने के बाद बौद िवहार िनमाथिण के िलए मुबं ई से एकत िकए गए साढ़े तीन हज़ार रुपये देना चाहते हैं। लेिकन राव साहब और तानाजी पितिकया देते हुए कहते हैं, ‘हम कहाँ नहीं मानते? मुझे एक बात बताओ, तुम बौद धमथि फै लाने जा रहे हो या िबगाड़ने?’ अजुथिन डांगले बुिदसट बनने, उस िवचार को सममान देने और उसे वयिकगत जीवन में अपनाने की पितिकया पर सवाल उठाते हैं। दिलत जाितयों में आपसी संबंध बनाने के बजाय बौद िवहार बनाने को अिधक महतव देने की मानिसकता की मुख़ालफ़त करते हुए कहानी एक ऐसे मोड़ पर आकर खड़ी हो जाती है जब महारवाड़ा अड़ जाता है िक अशोक राव के िपता के अंितम संसकार में बौद बाड़ा तभी शािमल होगा जब अशोक उनसे माफ़ी माँगेंगे। पररवार और माँ का दबाव अलग है। अशोक राव बौदवाड़े की शतथि पर हतपभ हैं। वे कहते हैं − ‘कमा? कै सी कमा? मैंने कया गुनाह िकया है?’ ‘अरे बाबा माँग न कमा! िकतनी देर तक रखेंगे अणणा को? कल रात से िकसी ने न कु छ खाया, न िपया।’ ‘अपपा, एक बात पूछूँ? उनहोंने हाथ नहीं लगाया और मातंगों ने बाप को 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 189 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 189 दफ़नाया, तो कया अणणा िपशाच बनकर रहेंगे हमारे िलए?’ अशोक की माँ सब कु छ सुन रही थी। एकाएक उसने अशोक के पैर पकड़े और दहाड़कर रो-रोकर कहने लगी, ‘अशोका, मेरे बेटे माँग ले कमा! तेरा बाप िजस अिधकार और सममान से िजया है, ठीक वैसे ही उसे िवदाई दे।’ दिलतों की जातीय दूररयों के सामने वैचाररक पितबदता का दम िनकलना संकेत करता है िक बाबा साहब आंबेडकर के नाम पर राजनीित करने वाले आपस में अंदर तक बँटे हुए हैं, उनमें वयिकगत महतवाकांकाएँ भरी हुई हैं। कहानी की अंितम पंिकयों में नायक के हाव-भाव देखने लायक़ हैं : ‘अशोक का माथा सनसना रहा था। अपने ही रक और मांस के लोगों से पाई यह अमानवीय चोट अशोक को उखाड़ फें क रही थी। उसकी साँसें बढ़ने लगीं। उसने सामने देखा। सामने सब क़ौमें थीं। िफर उसने नीचे देखा। बाप मुरदा होकर पड़ा था। उसने िफर नज़र हटाई और ऊपर देखा। उसने देखा िक बाप की तरह सचमुच बुद ही मरा पड़ा है।’ यहाँ बुद के मरे पड़े होने का मतलब इनके अनुयािययों की िववेक शूनयता से है। लंबे-लंबे भाषण और राजनीितक-सांसकृ ितक गितिविधयों के बावजूद दिलत जाितयों की आपसी फू ट पर बारबार पदाथि डालना, उसे कम करने के पयासों को नज़रअंदाज़ करना और ठु कराना उस संपणू थि बौिदकता का अनादर है िजसे बाबा साहब आंबेडकर और अनय बहुजन महापुरुषों ने िनिमथित िकया है। जब तक जड़ताओं पर चोट नहीं होगी, दिलत जाितयों के भीतर भी पारसपररक सममान पर आधाररत संबंध नहीं बनेंगे, यथािसथित के रहते सामािजक पररवतथिन संभव नहीं। अशोक राव युवाओं के िलए नया रासता बनाना चाहते हैं लेिकन जाितशास बीच में आकर अपना वजूद बचा ले जाता है। दिलत नेताओं के सवाथ्जी वयवहार और उनकी सवयं के पमुख बने रहने की मनोवृित का िवशे षण यह है िक चुनाव जीतने और वोट पाने की ितकड़म से बड़ा मुदा दिलत जाितयों के बीच पसरे आपसी भेदभाव से लड़ना है। बौद िवहार बनाकर समाज बदलने का संकलप पेश करने वाली कहानी सिदयों से ग़ुलाम जाितयों और समुदायों की आपसी फू ट और बाह्मणवादी वयवसथा दारा पैदा िकए गए छोटे-बड़े के भेद को गहराई और गंभीरता से उठाती है। जाित वयवसथा अमीबा की तरह खंड-खंड होकर िफर से बढ़ने लगती है। सवाल है िक आिख़र सामािजक एकता की आवाज़ बुलंद करने वाले अशोक राव को ख़ुद अपने घर में ही कयों परािजत होना पड़ा? क़ौम का सवाल और बौिदकता से समाज बदलने का संकलप आपस में टकराकर चूर-चूर हो जाते हैं और शोषक ख़ुद जवाब देने के बजाय इनहें लड़ते-िभड़ते देखकर, इनहें ही सीख देकर ख़ुिशयाँ मनाने लगते हैं। दोष धमाथिवलंिबयों का नहीं, बिलक उन गंथों का है िजनसे जाित और जाितवाद की बीमारी िनकली है। कहानी दिलतों के भीतर और बाहर इनके िख़लाफ़ ही पल रही मानिसक बीमारी पर िचंतन करते हुए सामािजक एकता के सूत पेश करती है। शरण कुमार लंबाले : जा त न पूछो लेखक ने कहानी में छातों के बीच सामािजक समानता िवरोधी मनोवृित से जुड़े पशों पर 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 190 190 | िमान िवचार िकया है। छातों के सामािजक पररवेश से ही उनकी मानिसकता का िनमाथिण होता है। जाित एक बंद इकाई है और धमथि इसे बंद ही रखना चाहता है, इसिलए जाित की सवीकृ ित के पीछे धािमथिक आसथा और तथाकिथत पिवतता काम करती है। सोलापुर के कॉलेज में महार जाित के छात हणमया और िलंगायत समुदाय के छात में िमतता दोनों को उनके पररवार, समाज, संसकृ ित से पररचय करवाती है। हणमया अपने दोसत को अपनी बहन की शादी के अवसर पर गाँव लेकर जाते हैं, लेिकन िलंगायत दोसत को महार दोसत का घर, उसके मातािपता, रहन-सहन, बातचीत यािन कु छ भी अपने जैसा नहीं लगता। इस अनजान और असपृशय दुिनया में उसका दम घुटने लगा और वह वापस चला आया। ‘यह बात बड़ी िशदत से महसूस होने लगती है िक मैं सबसे अलग हू।ँ ...उनकी दररदता से मुझे िघन आ जाती। उनके घर का पानी पीते हुए मेरा दम घुटने लगता था। मुहँ का कौर गले से नीचे उतरता नहीं था। मेरे मन में इस बात का डर समाया हुआ था िक मैं एक महार के घर में रह रहा हू।ँ जी करता था िक कब यहाँ से िनकल पड़ू ँ। एक ही िदन रहकर मैं लौट आया। हणमया के माँ-बाप मुझे अपने घर के नौकरों जैसे लगे थे।’ िवडंबना है िक यहाँ दोसताना और सहयोगी भाव से बड़ी बनकर सामािजक हैिसयत और जीवन शैली बीच में खड़ी है। दूसरा यह िक मूलभूत मानवीय सुिवधाओं के पीछे जाित का अथथिशास भी जुड़ा है। सवाल यह भी है िक मनुषयों के बीच इतनी घृणा और िवभाजन कया अनायास और उदेशय रिहत है? हमें इसका जवाब तलाशना है। कहानी बताती है िक जब हणमया के िपता सोलापुर में उससे िमलने आते हैं और वह उनहें अपने िलंगायत दोसत से िमलाने ले जाते हैं तो महार िपता के वयवहार में दासय भाव उतर आता है। उनके ‘जी मािलक, जी मािलक’ कहने, जूते रखने की जगह बैठने, चाय पीने के बाद कप धोकर रखने और हाथ जोड़ने के अंदाज़ से िलंगायत युवा को उनमें अपने घरे लू नौकर लकया महार की छाया िदखने लगती है। एक महार िपता के मानवािधकार या मानवीय गररमा छीनने के पीछे सामािजक आिथथिक वयवहारों की जकड़न पमुख रप से िदखाई देती है। जाित वयवसथा ने दिलतों को इतना दंिडत और अपमािनत िकया है िक वे जाित वयवसथा पर सवाल उठाने के बजाय उसके दारा िनधाथिररत काम ख़ुद-ब-ख़ुद करने लगते हैं। भारतीय समाज में सामािजक लोकतंत की ज़बरदसत कमी है और इसके िबना राजनीितक लोकतंत की सफलता हमेशा संिदगध बनी रहेगी। जब तक सामािजक वयवहारों में बराबरी नहीं आएगी तब तक गणतंत भारत के भीतर एक ग़ुलाम भारत बसा रहेगा। जाित वयवसथा की रढ़ धारणा और उसके पित जाने-अनजाने पाली गई शदा और उससे िनिमथित अंहकार के कारण ओबीसी युवा अपने महार दोसत की पहचान को हीन मानकर उसे अपने पररवार में गड़ररया बनाकर पेश करता है। िववाह के अवसर पर महार को गड़ररया बताकर वह अपने पररवार पर आने वाले सामािजक दबाव को भी कम करने का पयास करता है, कयोंिक महार और गड़ररये की सामािजक हैिसयत अछू त और सछू त की है। कहानी संकेत 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 191 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 191 करती है िक गामीण जीवन में दिलत दोसत की पहचान खुलने पर संभािवत संकट से बचने हेतु वे िनधाथिररत िदनों से पहले ही सोलापुर लौट आते हैं। एक दिलत दारा अपने िलंगायत सहपाठी के घर में रहते हुए उसमें समाया डर और िलगांयत दोसत दारा अपने दिलत दोसत के यहाँ अजनबी जैसा महसूस करने और बेचनै होने के पीछे उनकी जातीय िभननता से जुड़े रढ़ लोक वयवहार हैं। िलंगायत दोसत के िपता जब बेटे के पास शहर आते हैं और हणमया से िमलने उसके कमरे पर पहुचँ ते हैं तो िलंगायत िमत आगे जाकर वहाँ लगी आंबेडकर एवं अिभनेितयों की तसवीरें िछपा देते हैं। दिलत दोसत के भयभीत होने की वजह यह भी है िक कहीं आने-जाने वाला दोसत ‘जय भीम’ न कह दे और मेरी पोल-पटी न खुल जाए। जातीय हीनता का आतंक इतना है िक इससे पूवथि बस अड् डे पर अपने दोसत के िपता का पररचय िपता के पररिचत के रप में करवाते हैं। मतलब साफ़ है िक जातीय जकड़नों ने मनुषय से मनुषय की पहचान और िववेक शिक छीनकर उसे लोक रिढ़यों का ग़ुलाम, संवेदनहीन और भयभीत बना िदया है। उसका थॉट पॉसेस लक़वागसत है। मानवीय शोषण का यह संपणू थि तंत आधुिनकता के िख़लाफ़ होने के बावजूद आिख़र समािप की ओर कयों नहीं जा रहा है? कहानी में जाित वयवसथा का वीभतस रप उस समय सामने आता है जब मौत के कगार पर खड़ी िलंगायत मिहला यह कहते हुए िहंदू देवताओं से माफ़ी माँगती है िक मैंने एक अछू त को अपने घर में रखकर पाप िकया है और इस पाप की सज़ा इस बीमारी के रप में भुगत रही हू।ँ बीमार मिहला पहले जब हणमया को पुजारी के रप में याद करती थी तो उसे अचछा लगता था, लेिकन उसकी सामािजक पहचान खुलते ही मिहला की हालत िबगड़ गई और अतयिधक ज़ररत के बावजूद उसने हणमया का ख़ून लेने से मना कर िदया। ‘दूर हो जा, छू ना नहीं।’ मरीज को ख़ून और दवा की ज़ररत थी, लेिकन एक अछू त का ख़ून लेने और उसकी सूरत देखने से भी मना करने के पीछे उसका नहीं, इंसानी घृणा का हाथ है। वह बेटे से कहती है −‘तू उस महार के बचचे को घर ले आया, देव धमथि भ्रष कर िदया। इसी पाप की पीड़ा मैं भोग रही हू।ँ अब इससे मुझे मुिक नहीं। मैं मर गई तो भी कोई बात नहीं, लेिकन मेरे शरीर में महार का ख़ून नहीं जाएगा। तेरे बाप मुझे गंगा नहा ले आए और तू मेरे शरीर में महार का ख़ून भर देना चाहता है? तू पापी है।’ जाित सभी तरह के इंसानी संबंधों और सरोकारों को छोड़कर ख़ून में िमल गई है। कहानी बताती है िक महार और िलंगायत दो जातीय समूह नहीं, दो युग हैं। इनमें मेल न हो इसके 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 192 192 | िमान िलए धमथि ने पुखता वयवसथा कर दी है। कहाँ गंगा का पदूिषत पानी और कहाँ वयिक का जीवनदायी ख़ून! शतािबदयों से बुिद को लक़वा मारा हुआ है, इसिलए लक़वागसत अंग जब तक सवसथ नहीं होगा, सोच-िवचार सवसथ नहीं हो सकते िजसके भुकभोगी िहंदू भी हैं और दिलत भी। कहानी कहती है िक जातीय पहचान खुलने और दोसत के िपता से डाँट खाने के बाद वह भयभीत था, पितरोध कहीं नहीं था। सवाल उठता है िक जातीय पहचान से पैदा होने वाली घृणा को झेल कर आिख़र हणमया शांत कयों रहा? ‘जाित न पूछो’ एक ऐसी कहानी है जो जाित के सवाल को िहंदू जाित के नज़ररये से उभारती है। जाित की ग़लतफ़हमी उनहें कष नहीं देती, वहीं उसका खुलना या टू टना उनहें धमथिभीरु, पापी बना देता है। उनका तन-मन अशुद होने लगता है और पाखंडी समाज को महार का ख़ून गंदा और नदी का गंदा पानी सवचछ और मोकदायी लगता है। कहानी जाित के तथाकिथत बड़पपन के खोल को तोड़कर उसमें बसी मूखतथि ा को अिभवयक करती है। आंबेडकर के अनुसार ‘िहंदओ ु ं का अछू तपन एक अनोखी घटना है। संसार के िकसी दूसरे िहससे में मानवता ने आज तक कभी इसका अनुभव नहीं िकया। िकसी दूसरे समाज में इस जैसी कोई चीज़ नहीं है। न आरं िभक काल में, न पाचीन काल में और न ही वतथिमान काल में।’ लेखक ने दोनों तरफ़ से उनके पररवारों के आचरण की दो-दो घटनाओं को रे खांिकत करते हुए उनकी सोच को िचितत िकया है। महार पररवार में जाकर िलंगायत भू-मािलक पररवार के युवा का मनोिवजान अपने आप को पतािड़त करने जैसा है। इसी तरह िलंगायत पररवार में जाकर एक महार युवा के सवभाव में दासय भाव का आना भी जातीय लोक वयवहार को अिभवयक करता है। दोनों के बीच िमतता है लेिकन जातीय रिढ़याँ उनको असहज बनाए रखती हैं। दोनों के िपता एक-दूसरे युवा से िमलने उनके पास जाते हैं लेिकन वहाँ भी दोनों के सवभाव में जाित का अंतर बीच में रोड़ा बनकर खड़ा रहता है। ये दूररयाँ बनाने वाले कौन हैं? और इनहें िमटाएगा कौन? इतना तय है िक इन दूररयों को िमटाए िबना समाज िनमाथिण संभव नहीं है। सामािजक-आिथथिक इकाई होने के साथ-साथ जाित वयिक के सममान और अपमान की सूचक भी है। यह सामािजक अलगाव और शोषण का पोषण करने वाली और सामािजक लोकतंत से दुशमनी रखने वाली संसथा है। अनेक साधन संपनन जाितयाँ संखया बल में कम होने के बावजूद इसी िवचार के आधार पर अपना वचथिसव बनाए हुए हैं। जाित वयवसथा समाज को खंड-खंड करके मौक़ापरसत होकर बार-बार रं ग बदलती है लेिकन अपना मौिलक चररत नहीं छोड़ती। मराठी दिलत कहािनयाँ मानवािधकार संबंधी िजन पशों को िचितत करती हैं वे जीवन के ऐसे दगध अनुभव हैं िजसे सामािजक-आिथथिक शोषण, बेगारी, सरकारी कायाथिलयों, फ़ै िक्यों और िशकण संसथाओं के िवषमतामूलक वयवहारों में देखा जा सकता है। यह भी सच है िक दिलत जाितयों में बाह्मणवादी घुसपैठ बढ़ी है िजससे इनके बीच वैचाररक असहजता भी देखी जा सकती है। आप जब तक िहंदू फ़ोलड में रहेंगे तब तक जाित मानने को बाधय हैं, इसका 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 193 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 193 िवकलप बुिदज़म भी हो सकता है। मनुषय बनकर जीने और दूसरे को मनुषय समझने की पेरणा देने वाली कहािनयाँ समाज में वैचाररक और आंदोलनधम्जी हलचल पैदा करती हैं। चूिँ क जाित मुिक व सामािजक दासता िवरोधी संघषथि दिलत सािहतय की रीढ़ है इसिलए इसमें उठाए गए िशका, रोज़गार, राजनीित, आरकण, ज़मीनों और संसाधनों में िहससेदारी और मनुषयता के पश सीधे रोज़मराथि के जीवन में क़ायम िवषमता को चुनौती देकर मानवािधकारों के साथ खड़े हैं। आिख़रकार सवाल यह भी है िक िजस समाज वयवसथा की दुिनया से मनुषयता ग़ायब हो, ग़ैर-बराबरी ही शेषता का आधार हो और िजसकी अथथिवयवसथा पर जातीय िहंदओ ु ं का क़बज़ा हो और िवशाल समुदाय सामािजक-आिथथिक दासता का िशकार हो या बेगारी करने को मजबूर हो, वहाँ मनुषय मात को हक़ कै से िमलेंगे? ऐसे देश और दौर में सामािजक लोकतंत व मानवािधकारों के सवाल उठाना बेहद महतवपूणथि है। हं दी द लत कहा नयाँ िहंदी दिलत कहािनयों ने हमारे दैिनक जीवन का अहम िहससा बन चुके जातीय ढाँचे को गहराई से पहचाना और अिभवयक िकया है। यह ढाँचा लोक जीवन में दिलत वयिक की क़ािबिलयत को कम करके आँकता है। इस जनिवरोधी, लोकतंत िवरोधी, लोक कलयाण व सामािजक नयाय िवरोधी िवचार ने भारतीय समाज को सड़ा िदया है। इसिलए इस ढाँचे में जीने वालों को इसकी सड़न आना ही बंद हो गई है और वे बदबू को ही ख़ुशबू मान चुके हैं। इनहें यह लगता ही नहीं िक वे िकसी बदबू में जी रहे हैं। यिद कोई इनहें ख़ुशबू देने का पयास करे तो उसकी मुख़ालफ़त ही नहीं बिलक उसका जीवन तक ले लेते हैं। आलोचय कहािनयों में ओमपकाश वालमीिक की ‘सलाम’, मोहनदास नैिमशराय की ‘अपना गाँव’ जयपकाश कदथिम की ‘नो बार’, सुशीला टाकभौरे की ‘िसिलया’ और दयानंद बटोही की ‘सुरंग’ कहािनयों को िलया गया है। ओम काश वा ी क : िलाम ओमपकाश वालमीिक ने कहानी में बरात के जातीय चिऱत़ संबंधी ग़लतफ़हमी से िमले अपमान और िहंसा को अिभवयक िकया है। नगरीय समाज के जातीय ढाँचे में गाँव जैसी कड़ाई देखने में नहीं आती। यहाँ सामुदाियक पहचान के अलावा अंतरजातीय िमतता और लेन-देन का चलन भी है। िजसके चलते कमल अपने भंगी दोसत हरीश की बरात में शहर से गाँव आया है। उसके सवभाव और बातचीत में नगरीय जीवन का खुलापन िदखाई देता है लेिकन गाँव के बंद समाज में उसका मज़ाक़ ही नहीं बनता, बिलक उसे चाय की दुकान से धकके देकर भगाना इस ढाँचे की कू रता को िदखाता है। उसके िलए जाित की क़ीमत है, वयिक की नहीं। वह यह मानने को तैयार ही नहीं िक चूहड़ों की बरात में बाह्मण भी आ सकता है। इसिलए कमल के बार-बार चाय की माँग करने और उपाधयाय बताने पर समझा जाता है िक 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 194 194 | िमान यह जाित छु पा रहा है। जातीय पिवतता का उसका दैिनक वयवहार मानिसक गंिथ बन गया है। गाँव के बस अड् डे के गंदगी भरे माहौल में चाय की दुकान चलाने वाला उसका पररचय देहरादून के बराती के रप में पाकर ततकाल समझ जाता है िक बरात तो चूहू ड़ों के आई थी तो यह भी चूहड़ा ही है। उसकी सामािजकता ने उसे यही िसखाया है िक बरात में सभी एक ही जाित के होते हैं। वह उसे चाय देने से मना कर देता है तो कमल उपाधयाय को जातीय ढाँचे की कू रता का सपष एहसास होता़ है। ‘वह बरात तो चूहड़ों के घर आई है।’ चायवाले की िजजासा गोली में बदल चुकी थी। ‘तो कया हुआ?’ कमल ने सवाल िकया। चायवाला एकदम चुप हो गया। उसकी चुपपी ने कमल को संशय में डाल िदया था। चायवाले के हावभाव बदल गए थे।’ आिख़र जाित को लेकर चायवाला एक नागररक के मानवािधकारों का अपमान करने पर आमादा कयों है? सावथिजिनक रप से छु आछू त को पचाररत करके संिवधान के मौिलक अिधकारों का उललंघन िकस अिधकार के रप में कर रहा है? मानवीय गररमा पर पहार होते देखकर साथ खड़े लोग उसे ऐसा करने से रोकने के बजाय उसकी हाँ में हाँ िमलाकर िहंदू होने का अथथि समझाने लगते हैं। िहंदू समाज के अलावा यह कहाँ संभव है िक एक चायवाला चाय िपलाने के बजाय गाहक से ही अिशषता भरे सवाल करे । कमल की नमता के सामने चायवाला अकड़कर कहता है − ‘यो पैसे सहर में जाके िदखाणा। दो पैसे हो गए जेब में तो सारी दुिनया को िसर पे ठाए घूमो...ये सहर नहीं गाँव है...यहाँ चूहड़े चमारों को मेरी दुकान में तो चाय ना िमलती...कहीं और जाके िपयो।’ फड़फड़ाती नसों और जलती आँखों से उपाधयाय ने दुकानदार को घूरा और पूछा िक आिख़र ‘तुमहारी कया जात है?’ वह यह माने हुआ था िक बाह्मण से बड़ी जात कोई नहीं है। लेिकन चायवाले ओबीसी ने उसे भभकते हुए कहा − ‘इब चूहड़े-चमार भी जात पूछणे लगे...कलजुग आ गया है कलजुग।’ पितवाद में उसने अपनी जातीय हैिसयत यािन बाह्मण होना बताया तो चायवाला उसका मज़ाक़ बनाते हुए कहता है,‘चूहड़ों की बरात में बामन?’ चायवाला ककथि शता के साथ हँसा। ‘सहर में चूितया बणाना...मैं तो आदमी कू देखते ही िपछाण (पहचान) लूँ... िक िकस जात का है?’ चायवाले ने शेख़ी बघारी। ...रामपाल को देखते ही चायवाला और िबफर पड़ा, ‘चूहड़ा है। ख़ुद कू बामन बतारा है। जुममन चूहड़े का बराती है। इब तुम लोग ही फ़ै सला करो। जो ये बामन है तो चूहड़ों की बरात में कया मूत पीणे आया है। जात िछपा के चाय माँग रा है। मैनने तो साफ़ कह दी। बुदू की दुकान पे तो िमलेगी ना चाय चूहड़े-चमारों कू , कहीं और ढूँढ़ले जाके ।’ कमल दारा सभी के िलए भाई शबद का पयोग करने पर रामपाल रांघड़ ने उसका अपमान करते हुए कहा-‘ओ सहरी जनखे हम तेरे भाई हैं? − साले जबान िसभाल के बोल ...में डंडा डाल के उलट दूगँ ा। जाके जुममन चूहड़े से ररशता बणा। इतनी ज़ोरदार लौंिडया लेके जा रे हैं सहर वाले, जुममन के तो सींग िलकड़ आए हैं। अरे , लौंिडया को िकसी गाँव में बयाह देता तो महारे जैसों का भी कु छ भला हो जाता।’ एक तीखी हँसी का फ़ववारा फू टा। कमल अपमािनत 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 195 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 195 होकर काँपने लगा। आसपास खड़े लोग उसे िहंसक िशकारी लगे। उसने साहस बटोरकर गाँव के अितिथ सतकार व अपने गाँव की लड़की को अपमािनत करने पर ऐतराज़ जताया तो िपछड़ी मानिसकता का रामपाल उसे दबाने, डराने और िज़ंदा वापस ना जा पाने की धमकी देकर धिकयाते हुए छपपरनुमा दुकान से बाहर कर देता है। ‘सड़क से उतरकर वह रे तीले रासते पर आ गया था। उसकी रग-रग में अंगारे दहक रहे थे। लड़कों का झुडं उसके पीछे -पीछे लग गया था। वे कमल को िचढ़ाने का पयास करने लगे। ‘चूहड़ा-चूहड़ा...चूहड़ा...’ वे ज़ोर ज़ोर से िचलला रहे थे। पतयेक शबद नशतर की तरह उसके िजसम को चीरकर लहूलहु ान कर रहा था।’ जातीय वचथिसव के िचर-पररिचत अंदाज़ में गाँव का पभु समुदाय दिलत मिहलाओं के शारीररक शोषण के िक़ससे सुना-सुनाकर गिवथित हो रहा है। दिलतों और लड़िकयों की िशका के पित रामपाल के िपता बललू रांघड़ के मन में बसी घृणा की सावथिजिनक अिभवयिक लेखक उस वकत करते हैं जब हरीश सलाम के िलए जाने से मना कर देते हैं। दिलतों का भू-मािलक पररवारों के पास सलाम के िलए न जाने का मतलब गाँव के रीित-ररवाजों का अपमान, जातीय वचथिसव को चुनौती और सामािजक बराबरी का दावा माना जा रहा था। सलाम से मुिक नई रोशनी की पतीक है। हरीश की दृढ़ता ने लड़की के िपता को सामािजक दबाव में ज़रर डाला लेिकन सामािजक ग़ुलामी से भी छु टकारा देने का रासता िदखाया। ‘जुममन ने िसर पर िलपटा कपड़ा उतारकर बललू रांघड़ के पाँव में धर िदया − ‘चौधरी जी, जो सज़ा दोगे भुगत लूँगा। बेटी कू िबदा हो जाण दो। जमाई पढ़ा-िलखा लड़का है, गाँव-देहात की रीत ना जाणे है।’ सलाम को बरक़रार रखने के पीछे ऐसा वचथिसव है िजसे दिलतों का सवािभमान से जीना मंज़रू नहीं। बललू रांघड़ कहता है-‘तभी तो कहू-ँ जातकों (बचचों) कू सकू ल ना भेजजा करो। सकू ल जाके कोण-सा इनहें बािलसटर बणना है। ऊपर से इनके िदमाग़ चढ़ जांगें यो न घर के रहेंगे न घाट के । गाँव की नाक तो तुमने पहले ही कटवा दी जो लौंिडया कू दसवीं पास करवा दी। कया ज़ररत थी लड़की कू पढ़ाने की, गाँव की हवा िबगाड़ रहा है तू। इब तेरा जंवाई ‘सलाम’ पे जाणे से मना कर रहा है... उसे समझा दे...‘सलाम’ के िलए जलदी आवें... बललू ने फ़ै सला सुनाया। ...इन सहर वालों कू कह देणा-कववा कबी बी हंस ना बण सकै है।’ कहानी दिलतों की दो पीिढ़यों की सोच और संघषथि की तरफ़ इशारा करती हुई कहती है िक राजकीय रोज़गारों की बदौलत इनमें जहाँ आतमसममान बढ़ा है वहीं सामािजक ग़ुलामी की परं पराओं से मुक होने की राह भी बनी है। कहानी जहाँ जातीय ढाँचे में गहराई से मौजूद शोषण को उभारकर यह बता पाने में सफल रही है िक जाित ही वह बीमारी है िजसने िहंदू संतानों को दिलतों के पित जािहली की हद तक पहुचँ ा िदया है। उनके सामने िशका, क़ािबिलयत और इंसािनयत का समूचा तंत बौना हो जाता ़ है। जाितशास ने िदमाग़ पर क़ािबज़ होकर उसे िववेकहीन बना िदया था और ये इसी से िनयंितत होकर ‘जाित पर गवथि करो...गवथि करो’ िचललाने के साथ-साथ िहंसक बने िफरते हैं। 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 196 196 | िमान ‘सलाम’ संदश े देती है िक शोषक जाित का वयिक जब इस ढाँचे दारा िनिमथित ग़ैर-बराबरी में फँ सता है तो वह उसके पित मुखर होता है। कमल उपाधयाय दारा चूहड़ा जाित का न होने संबंधी सपषीकरण देने के बावजूद उसे चाय नहीं िमलती तो यह सपष संकेत है िक जनता की सामानय समझ और परं परा से िनिमथित शोषण से कोई बच नहीं सकता। िहंदओ ु ं में जाित के अंदर ही िववाह संसकार होते हैं, अनय जाितयों के वयिक इसमें शािमल नहीं होते और इस रिढ़ का उललंघन करने वालों की हालत कमल उपाधयाय जैसी होती है। काउ बेलट में इसके रौद रप को देखा जा सकता है, जहाँ लड़िकयों दारा अपने से तथाकिथत िनमन जातीय पररवार में िववाह या पेम िववाह करने पर पररवार उनकी हतया तक कर देते हैं। इसके सामने बाज़ार की संपणू थि सैदांितकी फ़े ल है। यिद वयिक इन िवषमतामूलक वयवहारों से िनिमथित सांसकृ ितक संरचना को महतव या सममान देगा तो सामािजक बराबरी कै से आएगी? संिवधान के अनुचछे द 13 में नागररकों के मूल अिधकारों के िवरुद पचिलत परं पराओं को समाप घोिषत िकया गया है, लेिकन िवडंबना है िक लोकजीवन में यही पितबंिधत आचरण मान-सममान पा रहे हैं। तथाकिथत जातीय शेषता से सममािनत होने वाला वयिक जब तथाकिथत जातीय िनमनता से अपमािनत होने लगे तो तब ‘सलाम’ का कथानक बनता है। एक ि्क पर बुनी गई यह कहानी जाित के नाम पर सममािनत समुदायों को एहसास करवाती है िक बाह्मणवाद के ज़ािलम ढाँचे में मनुषय के िलए तो कोई सममान है नहीं, लेिकन कु छ पभु जाितयों को यह ज़रर हािसल है। यिद इनहें भी अनय शोिषत जाितयों की तरह अपमान से गुज़रना पड़े तो शायद ये जातीय ढाँचे के िख़लाफ़ अिभयान चलाने को मजबूर होंगे। कहानी यह भी संदश े देती है िक जाित की पशंसा करने वाले वयिक यिद अपनी पहचान छु पाकर ऐसी पररिसथितयों का सामना करें तो भी उनहें ऐसे शोषण का अनुभव होगा िजसके बारे में वे आज तक अनिभज हैं। यहाँ तक िक इसे कोई समसया तक मानने को तैयार नहीं है। यह सामािजक यातना समाज के एक बड़े िहससे को सिदयों से कयों भुगतनी पड़ रही है? कहानी समाज में जाित छु पाने की पवृित के लोकपक को उभारकर सामने लाती है। दिलतों की जातीय पहचान खुलने से अपमान, िहंसा बहुत सामानय यािन रोज़मराथि की बात है, बहुत बार हतयाएँ तक हो जाती हैं। जाित न छु पाने वाला वयिक जब इस बीमारी की चपेट में आता है तो उसे यह समसया बड़ी लगने लगती है। चूहड़ा जाित को िमलने वाले सामािजक अपमान और जाितवादी िहंसा को एक बार झेलकर कमल की साँसें फू ल गई ं, मूड उखड़ गया और चेहरा उतर गया। उसे पंदह वषथि पहले की घटना याद आने लगी जब उसकी धमाथितमा माँ ने सहपाठी को कं जड़, संसकारहीन और हरामी जैसी गािलयाँ देकर घर से भगाकर, घर को गंगाजल िछड़ककर पिवत िकया था। लेिकन कमल की िज़द से हारकर माँ ने हरीश के खाने-पीने के कु छ बतथिन अलग रख िदए थे और कमल जानते हुए भी कु छ नहीं कर पाया था। हरीश िमतता के नाते इस जातीय दुभाथिवना को भूलकर कमल के घर आता-जाता रहा। ऐसी िमतता पर बुज़गु थि सुगना ने चेतावनी के लहजे में कहा था – ‘बेटे, बामन से दोसती रास नहीं आएगी।’ कमल से ‘कौन िबरादर हो?’ पूछने वाले बुज़गु थि का जवाब कमल ने दे िदया था लेिकन हरीश को इसिलए बुरा लगा िक 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 197 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 197 जाित वयवसथा से पीिड़त वयिक भी जाित पूछने में रुिच कयों ले रहा है? आिख़र सवाल यह भी है िक जाित ही सामािजकता की एकमात पहचान कयों है? वह जातीय जानकारी लेकर उससे सवयं को जोड़कर कु छ अलग महसूस कयों करता है? कहानी बताती है िक बरात को सकू ल में ठहराने की वयवसथा के बाबजूद रोशनीदार साफ़ कमरे न िमलना और ऐन वकत पर हेडमासटर का ररशतेदारी में जाना, हैंडपंप का वालव व हतथा चोरी होना और बरात को लैंपपोसट की हलकी पीली रोशनी में ही रात काटने की मजबूरी के पीछे बरात का जातीय चररत ही है। यिद यही बरात भूिमपित जाितयों के यहाँ आई होती तो सकू ल में सब कु छ टनाटन होता। यह जातीय दुभाथिवना थी िजसके कारण सकू ल के राजकीय और सावथिजिनक संपित होने के बावजूद उसके सामूिहक पयोग पर रोक बरक़रार थी। आपको याद होगा बाबा साहेब आंबेडकर ने सावथिजिनक संपित के सामूिहक उपयोग हेतु 20 माचथि 1927 को महाड़ आंदोलन िकया था और पानी पीने से रोके जाने के िख़लाफ़ िज़ला नयायालय ने सतयागिहयों का पक सही माना था। ऐसा कया है िक जातीय ढाँचा बदलने का नाम नहीं ले रहा है। कु छ-कु छ बदलता भी है तो अपने सममान या आिथथिक लाभ देखकर। यह सामानय चलन कयों नहीं हो सकता िक वयिक सभी के बीच खुलकर रहे। जाित धमथि िनिमथित है और उसे एक ख़ास तरह की पिवतता से बाँधकर समाज में छोड़ िदया गया है। जाित के पित आसथा धमथि िनद्देिशत है तो िनिशत है धमाथिवलंबी इसे पिवत मानते हैं, बीमारी यही है। इसिलए जातीय आचरण के िलए िहंदू नहीं, उनका धमथि दोषी है। जब तक जाित की पिवतता संबंधी मानयता समाप नहीं होगी, जाित नहीं टू टेगी। कहानी में कमल की माँ धािमथिक पवृित की है मगर बेटे के सहपाठी हरीश को अलग बतथिनों में खाने को देती है। यहाँ वह उसी धमथि का आदेश मान रही है िजसमें अलगाव और असमानता का हवाला िदया गया है। सवयं कमल जाितवादी िहंसा पर चचाथि के दौरान इसे दिलतों की हीन-भावना की उपज और संकीणथिता मानकर उपदेश देने लगता था, लेिकन जब वह सवयं जाितवाद का सामना करने को मजबूर हुआ तो उसकी साँसें फू लने लगीं। अचछा होता यिद कमल उपाधयाय जातीय सता और जाितवाद के िख़लाफ़ मुखरता से बोलता। ‘सलाम’ का एक पक यह भी है िक इसमें एक दिलत बालक मुसलमान रसोइए का बनाया भोजन खाने से साफ़ इंकार कर देता है। बालक की सोच में िहंदू और मुसलमान का बोध कहाँ से आ गया, यह िचंता का िवषय है जबिक दिलत सािहतय बहुजन िहताय और मनुषयता की बात करता है और सांपदाियकता के िख़लाफ़ है। दिलत जाितयों के बीच बड़े 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 198 198 | िमान सतर पर िहंदू जाित की मानिसकता पवेश कर चुकी है और ये अपने को िहंदू मानकर िहंदतु व के औज़ार बनते हैं जबिक इनकी जड़ें िहंदू वचथिसव के िख़लाफ़ हैं। िजसने इनहें अछू त बनाया अब उसको भुलाकर बड़ी चालाकी से इनहें िहंदू बनाकर, गवथि करना िसखाकर इनहें मुसलमानों के िख़लाफ़ मैदान में उतार रहे हैं। िवषमतावािदयों के िलए दिलत और मुसलमान दोनों ही दुशमन हैं इसिलए िहंदू के नाम पर दिलत, ओबीसी को मरने-कटने के िलए आगे िकया जाता है और िहंदू नाम पर मलाई खाने व सता सुख भोगने के िलए ग़ैर-बहुजन आगे रहते हैं। मोहनदाि नै मशराय : अपना गाँव अपना गाँव कहानी मानवािधकार और इससे जुड़े सामािजक पशों को उदािटत करने वाली एक लंबी कहानी है। एक हज़ार पररवारों वाले लहना गाँव के सामािजक दायरे में मौजूद परं पराओं व रिढ़यों पर जाित भेद की अिमट छाप होने के पुखता सबूत बार-बार उभरते हैं। यह गाँव भी देश के अनय गाँवों की तरह भूिम मािलक और भूिमहीन दो पमुख िहससों में बँटा है। भू-मािलकों के अगुवा ठाकु र हैं तो इनके साथ भू-मािलक अनय जाितयाँ खड़ी हैं, जो मौक़ा पाकर शोिषतों से दुवयथिवहार करते हैं। दूसरी तरफ़ भूिमहीनों के अगुवा दिलत हैं और इनके साथ अनेक भूिमहीन जाितयाँ खड़ी हैं या संवेदना वयक करती हैं। एक िहससे में ज़मीनों का मािलकाना, रहने, खाने-पीने, पहनने, साज-सजजा और आभूषणों और क़ीमती बतथिनों की सुिवधाएँ थीं तो दूसरे में इनका घोर अभाव। दोनों की शमशान भूिम भी अलग-अलग थी। ‘अपनी-अपनी जाित को सीने से िचपकाए वे िमटी में िमल जाते थे।’ दोनों के बीच मनुषयता या मानवािधकारों के सवाल पर संघषथि है और इसके ऐितहािसक कारण हैं जो गाँव में दोहराए जाते हैं। िजन गाँवों, जाितयों या वग्मों में यह सामािजक-आिथथिक चेतना पहले आ गई, वहाँ ये संघषथि पहले शुर हो गए, बाक़ी में बाद में, लेिकन इस संघषथि की पूणतथि ा नीचे तक जाने में ही है। ‘अपना गाँव’ इसी कहानी को कहता है। कहानी युवा दिलत मिहला कबूतरी की अिसमता को नोचने से पैदा होने वाले आतथिनाद से पारं भ होती है। तपती दुपहरी में ठाकु र के मँझले बेटे की िनगरानी में उसके चार लठै तों के आगे-आगे नगनावसथा में घुमाई जा रही कबूतरी को देखकर अससी साल के दादा ससुर हररया की ‘बूढ़ी हड् िडयाँ सनन-सी हो गई थीं।’ वे गािलयाँ देकर फ़ायर करते हुए कबूतरी की तरह अनय औरतों को नंगा घुमाने, िदमाग़ िठकाने लगाने और औक़ात में रहने की धमिकयाँ दे रहे थे। इसे देखकर आँखें नीची करके सभी तमाशबीन हो गए थे या कहें तमाशबीन होना उनकी िववशता थी। दसवीं पास संपत, ठाकु र से पाँच सौ रुपए ऋण लेकर नौकरी की तलाश में शहर गया तो बीस िदन बाद ही ठाकु र के बेटे ने दूिषत मानिसकता के चलते ऋण चुकाने हेतु कबूतरी को घर और खेत में काम के िलए बुलाया, लेिकन उसकी मनाही पर कबूतरी पर जो बीता वह भयावह था। उसके घर लौटने पर पररवार के लोगों में उससे आँख िमलाने की ज़रा भी िहममत नहीं थी। सास कहती है – ‘बऊ तुझे कया हो गया है। बोल न कु छ। हमें गािलयाँ दे, जूते मार, 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 199 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 199 महारी आँखें फोड़ दे। हम सबने तुझे नंगे होते देखा।’ गहरी वेदना की रात गुज़री, सुबह बसती ने पररवार के साथ संवेदना जताई। धुिलया के मन में ठाकु रों के ज़ुलम और काररं दों के चाबुकों के िनशान दररं दगी की गवाही के रप में उभर आए थे। साथ ही मिहलाएँ अपने ज़ुलमों के साथ ही पुतवधू से िकए दुराचार की गाथा सुना रही थीं। उनहोंने अनशन करने और भूख से मर जाने तक डटे रहने का िनणथिय िलया, लेिकन रात को संपत के गाँव पहुचँ ने से िसथित बदल गई। जो अपनी मिहलाओं की सुरका और सामािजक इजज़त की रका करने के बजाय हिथयारों से डरकर बुज़िदल बन जाएँ, यिद उनमें सवािभमान और इंसान होने की पहचान पैदा हो जाए तो हाथों को हिथयारों से ताक़तवर बनाया जा सकता है। परं पराओं की िहंसा से मुिक का उपाय डर नहीं, पितरोध है। जंगल में पशु चराने वाली मिहला कबूतरी से बातचीत करते हुए शोषण के इस तथय को उभारती है िक पाँच साल पहले ठाकु र से ऋण लेकर भैंस ख़रीदने के माह भर में ही ठाकु र ने पहले उनकी भैंस को ज़हर देकर मरवाया और िफर उसने क़ज़थि वसूली हेतु सी को घर और पुरुष को खेत में काम पर लगा िदया। उसका मक़सद कज़थि वसूली के बहाने सी का शारीररक शोषण यािन उसे ‘आधी घरवाली’ बनाना था। दोनों मिहलाओं की बातचीत ददथि भरी और ख़ौफ़नाक है। ‘आिख़र कब तक नाय करे गी। पानी में रहकर मगरमचछ से कब तक बैर? ...मैं भी भौत िदनों तक ‘नाय’ करती रही थी पर...।...पर एक िदन हाँ कहनी ही पड़ी। जैसे उसके बहुत भीतर से सवर उभरा हो। ...तब से मैं बड़े ठाकु र की आधी घरवाली हू।ँ ’ वह आगाह करती है िक तुम अभी तक बची हुई हो लेिकन दररं दों से बच नहीं पाओगी, िजसे सुनकर कबूतरी दु:खी और भयभीत थी। कबूतरी अिसमता पर पहार करने वालों से कहती है − ‘मैंने िकसी से कोई करज-वरज नहीं िलया, िजसने िलया है वही देगा भी।’...वरना कया करे गा तू? ...ससाली, चमाररन ठाकु र से जबान लड़ाती है।’ उनहोंने कपड़े फाड़कर उसके वजूद को तारतार कर िदया। ठाकु र और उसका पररवार दिलत या कमज़ोर समुदायों की मिहलाओं के पित यौन िहंसा का आदी था लेिकन आिथथिक िनभथिरता और गुंडागद्जी के चलते कोई पितरोध नहीं करता, जबिक पितरोध ही भय मुिक की पहली कड़ी है। घटना के बाद लोग दुख जताने, कारथि वाई के िलए पुिलस में जाने और गाँव की बात को गाँव में ही िनपटाने पर चचाथि करते हैं। समाज की कमज़ोर कड़ी यािन दिलत िसयों का शारीररक शोषण बेहद िनंदनीय, मानवीय गररमा और मानवािधकारों के िवरुद वणथि-धमथि की ऐितहािसक कू रता और िहंसा का उदाहरण है। यह भारतीय गणतंत में दिलत मिहला की हैिसयत का हािसल है। संपत भेदभाव और शोषण की गामीण वयवसथा दारा पैदा की गई परं पराओं, इसके पतीक मंिदर और हवेली, ज़मीन-जायदाद को चुनौती देने के िलए सामने आता है। वह ‘पुिलस सबके िलए है। उस पर हर िकसी की सुरका की िज़ममेदारी है’ कहते हुए एफ़.आय.आर. के िलए पुिलस चौकी जाने को ततपर है तो उसके िपता ठाकु र की ऊँची पहुचँ और रसूख़ की वजह से मामले को बढ़ाने के हक़ में नहीं। संपत दिलतों के राजनीितक पितिनिधयों की िनिषकयता को 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 200 200 | िमान रे खांिकत करते हुए कांित करने के सवाल पर कहते हैं िक ‘कांित करने वाले तो आज संसद और िवधान सभाओं में जाकर सो गए हैं। ...हम कब तक कमज़ोर रहेंगे? कब तक ग़ुलामों की तरह रहेंगे।’ दादा हररया और िबरमों के समथथिन से उसका हौसला बढ़ा। िबरमों के पित की हतया दस साल पहले ठाकु र ने की थी। अंततः वे सामूिहक राय से चौकी जाकर संजेय अपराध की दासतान पुिलस इंसपेकटर को बताते हैं तो वे इसे सुनते-सुनते ही उखड़ने और गमाथिने लगते हैं। वे कारथि वाई के बजाय कबूतरी को धमकाते हुए कहते हैं ‘अब और नंगा होना चाहती है कया?’ इंसपेकटर की शबदावली का िवरोध होने पर उसने सभी को हड़काया और मार-िपटाई पर उतर आया। ‘दीवान जी लाना जरा मेरा डंडा। इन साले चमारों के होश िठकाने लगाने ही होंगे।’ कहते हुए वह उन पर िपल पड़ा। पहले लात िफर घूसँ े। शेष तीनों भी डंडे उठाकर उनहें मारने दौड़ते हैं।’ इंसपेकटर तयागी नयाय के िलए आए लोगों के साथ शोषकों की तरह जाितवादी और िहंसक वयवहार करते हैं और उनहें बदबू भरी जगह में बंद कर देते हैं। यह है भारत की पुिलस जो अपरािधयों को दंड िदलवाने और जातीय िहंसा के िशकार लोगों के पक में क़ानून लागू करने के बजाय मानवािधकारों का हनन करती है। पुिलस इनकी िहममत बढ़ाने के बजाय इनका हौसला तोड़कर मानवािधकार िवरोधी वयवसथा को संरकण देती है। कहानी समसया के िख़लाफ़ सामूिहक पयास करने पर बल देती है। पुिलस में जाने से शोषण की परं परा को चुनौती िमलती है। ऐसी िहंसक घटनाओं पर क़ानूनी कारथि वाई के साथ-साथ िवरोध पदशथिन होने चािहए तािक सामािजक चेतना का िवसतार हो। क़ानून अपना काम करता रहे, लेिकन क़ानून पर भी िनगरानी रखी जानी आवशयक है। क़सबे के जागरक दिलतों ने िदलली और लखनऊ तक इसका पचार करके पीिड़तों को छु ड़वाया, डॉकटरी करवाई और एफ.आई.आर. दजथि करवाकर मानवीय गररमा हािसल करने में मदद की। कहानी का एक पश गामीण वयवसथा में मौजूद ज़लालत, ग़ुलामी, िहंसा और शोषण को लेकर है िजसे दिलत समाज गणतंत के बाद भी झेलने को मजबूर है। अससी साल के वृद हररया जहाँ कहानी को वैचाररक नेततृ व पदान करते हुए जवानों की बुज़िदली पर उनहें लताड़ते हैं तो साथ ही उनहें अनयाय से लड़ने की सलाह भी देते हैं। ‘पर इस गाँव में िमला कया उसे तथा उसकी जात के लोगों को। बार-बार बेइजज़ती और ज़हालत की िज़ंदगी। उसे नफ़रत सी हो गई गाँव से। ठाकु र के लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनकी जात के लोगों पर अतयाचार करते रहें और वे उनकी ग़ुलामी।...गाँव में िकतने लोगों के पास ज़मीन होगी। न ज़मीन, न घर, न कु आँ न पोखर। गंदे जोहड़ से पानी पीना पड़ता है आज भी। गाँव में कोई सकू ल भी नहीं, न िडसपेंसरी, न ही डॉकटर। कया है आिख़र इस गाँव में।’ गाँव में जातीय मानिसकता का िबन माँगे िमलने वाला रौब और दबदबा है िजसे कोई चाहे न चाहे मानना ही पड़ता है। कहानी दिलतों की बिल देने संबंधी शासीय सवीकृ ित और उसके लोक िवशास (हवेली की नींव में दिलत की बिल) को भी उजागर करती है। कहानी गाँव की जड़ों में बैठी ‘बेगारी और बेइजज़ती’ को उभारती है। अब सवाल उठता है िक कया िवषमतावादी वयवहारों में रची-बसी िहंसा को यों 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 201 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 201 ही गाँव की परं परा मानकर इसका पालन िकया जाए या इससे िवदोह? कया मिहलाएँ ऐसे िहंसक माहौल में यों ही अपमानजनक जीवन िजएँ या इससे मुिक का पथ संधान करें ? कया इसी गाँव में ही रहा जाए या इसे छोड़कर शहर में बसा जाए या कोई नया गाँव बसाया जाए? कया देश के क़ानून के बाहर भी इनहें दंिडत िकया जाए या क़ानून पर भरोसा िकया जाए? पंचायत में अनेक पश उठे । िकसी ने उनकी मिहलाओं से ही बदला लेने की माँग की तो िकसी ने खेती, हवेली जलाने की या जानवर चोरी करने की। ‘होस की बात कर हुकमी। तू पगला गया है कया, महारी और उनकी िबयरवानी कया अलग-अलग हैं।’ पंचायत ने मिहलाओं की अिसमता का सममान करने, िहंसा से दूर रहने, चोरी न करने, फ़सल यािन अनन और घर जलाने का िवरोध िकया, कयोंिक इनका पितिहंसा में नहीं, िहंसामुक समाज में िवशास है। ये बुद के पथ पर चलकर जीवन जीना चाहते हैं। आिख़र शहर में ऐसा कया है जो उसे गाँव से अलगाता है? बेशक यहाँ पर भी धािमथिक परं पराएँ और पाखंडी लोक िवशासों की कमी नहीं है लेिकन यहाँ पर गाँव जैसा दबाव और िहंसा नहीं है। यहाँ वयिक अपने शम का मूलय पाकर सममान से जी सकता है जबिक गाँव में कारोबार नहीं हैं और न ही उदोग-धंध।े सामंती गामीण जीवन में सममान या मरजाद की सबसे बड़ी सूचक ज़मीन ही है लेिकन इनमें िहससेदारी के अभाव में दिलत सममान से भी वंिचत रहते हैं। बाबा साहेब आंबेडकर ने इसी आधार पर गाँव के समाज और यहाँ क़ािबज़ वयवसथा की आलोचना करते हुए इससे मुिक का आहान िकया था। शहरों में रोज़गार के कु छ अवसर हैं, जातपाँत के कड़े बंधन नहीं हैं तो ररहायशी िदकक़तें बहुत अिधक हैं। कबूतरी ‘मेरा तो गाँव में कोई भी नई है’ कहक़र एक नया िवकलप देती िदखाई देती हैं। अंततः हररया ने सवथिसममत फ़ै सला सुनाते हुए कहा िक ‘तो हम अपना नया गाँव बसाएँगे। ...‘नया और अपना गाँव’...िहयाँ से िनकलना ही पड़ेगा। ...िजस गाँव में महारी कोई इजज़त नई, उस गाँव में रै ने से कोई फ़ायदा नई। ...चारों ओर अँधरे ा ही अँधरे ा था। पर हररया का फ़ै सला सुन पंचायत से उठे लोगों के भीतर अनायास ही जैसे उजाला हो गया था।’ जातीय वयवसथा से बाहर समतामूलक गाँव बसाने के िवकलप पर सवयं बाबा साहेब ने भी माँग की थी िक आस-पास के गाँवों के दिलतों को एक गाँव में बसाया जाए। ऐसा करने से गाँव के भीतर छु आछू त िमटेगी और लोक जीवन में मौजूद िहंसा का भी अंत होगा। लेिकन ऐसा हो न सका। नए गाँव का िवकलप 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 202 202 | िमान मानवािधकार हािसल करने की िदशा में ही एक क़दम है। कहानी मानवािधकारों के सवाल पर मीिडया की भूिमका को रे खांिकत करती है। मीिडया टीम गामीण लोक के अभाव, सामािजक जड़ता और ग़ैर-बराबरी को देखकर हतपभ है। गाँव में आकर सरकारी घोषणाएँ उनहें िदखावा लगीं और वे मानते हैं िक अख़बार, मैगज़ीन को गलैमर, भ्रषाचार, शराब, पुिलस और बलातकार इतयािद की ख़बरें बेचने के बजाय सच के िलए गाँवों और दिलत बिसतयों की ओर आना चािहए। वे दिलत बिसतयों की हालत जानकर और देखकर हैरान थे िक ‘महारे जानवर और आदमी एक ही जगें का पानी पीवै हैं।’ कहानी अपने अंितम पड़ाव पर आकर सामािजक संबंधों में दिलत समाज की िसथित का जायज़ा लेने के बाद मानवािधकार िवरोधी, सी और दिलत िवरोधी, इंसान-इंसान में भेद करने वाले जाितवादी और िहंसक गाँव को छोड़कर अलग गाँव बसाने का संकलप के वल अलगाव के िलए नहीं, बिलक सामािजक लोकतंत को मज़बूत करने के िलए करती है। जय काश कदजुम : नो बार यहाँ इस कहानी में मानवािधकार संबंधी पशों पर िवचार िकया जा रहा है। पसतुत कहानी पर टेलीिफ़लम भी बनी हैं िजसे 8 माचथि, 2019 को पोफ़े सर तुलसीराम मेमोररयल लेकचर के अवसर पर जेएनयू में पदिशथित िकया गया था। कहानी टाइमस ऑफ़ इंिडया में छपे एक मै्ीमोिनयल से शुर होती है िजसमें हाइली एजुकेटेड पोगेिसव फ़ै िमली की लड़की अिनता के िववाह हेतु ‘कासट नो बार’ के साथ िवजापन छपता है। आयकर िवभाग के अिधकारी राजेश इसके िलए अपना बायोडाटा भेजते हैं और िववाह में जाित को महतव न देने की सूचना के कारण राजेश जातीय िववरण नहीं भेजते। पहली मुलाक़ात के बाद लड़का-लड़की एकदूसरे में रुिच िदखाते हैं और कई मुलाक़ातों के बाद वे िववाह के िलए रज़ामंदी देते हैं। अिनता के िपता ने कहा, ‘देिखए राजेश जी, हम बड़े खुले िवचारों के आदमी हैं जाित-पाँित, धमथिसंपदाय िकसी पकार के बंधन को हम नहीं मानते। ये सब बातें िपछड़ेपन की पतीक हैं। हमारे पररवार में िजतनी भी शािदयाँ हुई हैं वे सब अंतजाथितीय हुई हैं। अब देखो, मैं बाह्मण हूँ और मेरी पतनी कायसथ पररवार से है। हमारी बड़ी बेटी की शादी अगवाल लड़के के साथ हुई है और हमारे घर में जो बहू आई है वह पंजाबी खती है। हमारी नज़र में लड़का और लड़की एक-दूसरे को अचछी तरह देख,ें परखें और बातचीत करें । यिद वे एक-दूसरे को पसंद करते हैं, एक दूसरे से संतषु होते हैं और उनहें लगता है िक वे एक-दूसरे के साथ एडजसट कर सकते हैं तो बस यही काफ़ी है। इसके अलावा सब चीज़ें गौण हैं।’ राजेश के िपता बेटे को जाित के सवाल को सपष करने की सलाह देते हैं तािक आगे चलकर िववाद होने की संभावना न रहे। राजेश िपता को आशसत करते हैं िक वे बहुत अचछे इंसान हैं। ‘सो तो ठीक है बेटा, पर कया उनको पता है िक तुम िकस जात के हो?’ ‘नहीं, न उनहोंने कभी पूछा और न कभी ऐसा मौक़ा ही आया िक मैं उनहें बतलाता। दरअसल जाित- 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 203 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 203 पाँित और भेदभाव का यह रोग अनपढ़ लोगों में ही है, पढ़ा-िलखा समाज कहाँ जाित को मानता है। पढ़े-िलखे और िशिकत समाज में वयिक को जाित से नहीं, उसकी िशका, योगयता और उसकी आिथथिक िसथित के आधार पर जाना और माना जाता है। और िफर, जब सवणथि लोग सवयं जाित के भेदभाव से ऊपर उठकर हमारे साथ घुल-िमल रहे हैं तो हमारे दारा अपनी ओर से जाित का िज़क करने का कोई औिचतय नहीं है।’ जातीय दुिनयादारी और लोक वयवहार की समझ देने के िपता के पयास को महतव न देने का पमुख कारण लड़की पक का जाित संबंधी नो बार का िवजापन और वयिकगत मुलाक़ात के दौरान िदखाया गया खुलापन था। इसी वजह से वह उस पररवार की सामािजक सोच, खुलेपन और लड़की के वयिकतव से पभािवत होकर िववाह पसताव से सहमत था। उसका मानना था िक जब इस िववाह पसताव में जाित की भूिमका नकार दी गई है, तो हम जाित कयों बताएँ? उसे लगता है िक बार-बार जाित की बात करना िपछड़ापन है। लेिकन राजेश के िपता मानते हैं िक ग़ैर-दिलत लोगों के मन में अपनी जातीय अिसमता और दिलतों के पित जो मानिसक िपछड़ापन है वह इस सामािजक एकता के मागथि में बड़ी बाधा है और इसे जातीय वचथिसव में जीने-मरने वाली जाितयाँ ही बेहतर ढंग से तोड़ सकती हैं, कयोंिक यह समसया और सामािजक िवभाजन उनहोंने ही बनाया है। कहानी संदश े देना चाहती है िक खुली और साफ़ सोच का दावा करने वाला बाह्मणवादी समाज अंतरजातीय िववाह के मामले में जाित नो बार िलखवाने के बाद भी जाित के सवाल पर आकर ही कयों अटक जाता है? उनकी नज़र में अंतरजातीय िववाह का मतलब ग़ैर-बहुजन जाितयों के बीच होने वाला िववाह ही है। ऐसी सोच और सवाल अनुिचत व बेहूदा हैं। इस सैदांितकी में पलने, बढ़ने और जीवन गुज़ारने वाला वयिक तथाकिथत पिवतता और जातीय मिहमा का ऐसा दायरा बना लेता है िजससे उसकी पहुचँ सभी लोगों तक नहीं हो पाती। यूपी की राजनीित में बने बहुजन समीकरण की बौखलाहट कहानी में उस वकत देखने को िमलती है जब राजेश बहुजन आंदोलन की तरफ़दारी करते हुए उसे जाितवादी मानने से मना कर देता है। ‘सरकार का सथाई होना ही ज़ररी नहीं है। समाज और राष् के पित उसका दृिषकोण भी सवसथ, सकारातमक और पगितशील होना चािहए। बीजेपी के बारे में यह धारणा है िक उसकी सोच सांपदाियक और िवघटनकारी है। मुिसलम और दिलत बीजेपी को लेकर सशंिकत हैं। ...िबहार में लालू और यूपी में मुलायम और मायावती बीजेपी के रासते में सबसे बड़ा हडथिल हैं।’ जो बाह्मण िपता अख़बारी िवजापन में ‘नो बार’ िलखवाकर अपनी पुती का िववाह िकसी अचछे अिधकारी से करवाने को आतुर है वही िपता बहुजन जाितयों की राजनीितक िहससेदारी को सहन कयों नहीं कर पा रहा है? और उनहें जाितवादी और जाितवाद फै लाने वालों के रप में कयों पेश करता है? वह सवयं अपनी पितबदता बीजेपी में िदखाते हुए बहुजन राजनीित को जाितवादी क़रार देते हुए कहता है − ‘बीजेपी ही कया ये सारे समाज के रासते में हडथिल हैं। ये सब जाितवाद फै लाकर समाज को तोड़ रहे हैं। जाित की राजनीित कर रहे 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 204 204 | िमान हैं।’ यह कहकर वह एक कण को रुके और िफर बोले, ‘यह सब अचछा-खासा चल रहा था। समाज पोगेिसव हो रहा था जाितवाद अपनी मौत मर रहा था। लेिकन वी.पी. िसंह के बचचे ने मसीहा बनने के चककर में मंडल कमीशन लागू कर जाितवाद को िफर से िज़ंदा कर िदया। कोई देश की बात नहीं करता, सब अगड़े-िपछड़ों की बात करते हैं। लालू और मुलायम की तो िफर भी ग़नीमत है। कांशीराम और मायावती को देखो। ये तो िबन जाित के बात ही नहीं करते। वी.पी. िसंह ने आग लगाई, ये आग में घी डालकर उसे भड़का रहे हैं।’ नायक राजनीितक पशों पर खुलकर राय रखते हुए सांपदाियक और जाितवादी राजनीित को देश और समाज के िलए बड़ा ख़तरा मानते हैं। वे बहुजन आंदोलन और राजनीित के पकधर हैं, ‘नहीं, ऐसा नहीं है िक कांशीराम और मायावती जाितवाद को भड़का रहे हैं। जाितवाद तो समाज में पहले से मौजूद है। हर चुनाव में उममीदवारों के चयन से लेकर मंितमंडल के गठन तक सब जगह जाित का फ़ै कटर काम करता रहा है। हाँ, कांशीराम, मायावती या दूसरे नेताओं के आने से इतना अंतर अवशय आया है िक पहले दिलतों की अपनी पाट्जी नहीं होती थी और उनका वोट कांगेस या दूसरी पािटथियों को जाता था। लेिकन आज उनकी अपनी पाट्जी है और वे अपनी पाट्जी को वोट दे रहे हैं।’ राजनीितक पितबदता के सवाल पर दोनों की मत िभननता से उनके मधय बनी तथाकिथत वैचाररक एकता पर ख़तरा मँडराने लगा। राजेश की राजनीितक दृिष को भाँपकर तथाकिथत पोगेिसव और सेकयुलर िपता बौखलाहट में बेटी के पास जाकर राजेश की जाित पूछता है : ‘इस लड़के की कासट कया है?’ ‘आई कांट से पापा। मैंने उससे कभी पूछा ही नहीं।’ ‘िफर भी, बातचीत के दौरान कहीं कोई पसंग आया हो और तुमने कु छ नोट िकया हो।’ ‘नहीं पापा मेरा तो इस ओर धयान गया ही नहीं। मैंने तो बस यही देखा िक उसका नेचर बहुत अचछा है।...और िफर, हमारे ऐड में पहले ही ‘नो बार’ छपा था इसिलए उसकी कासट के बारे में जानने की या इस ओर धयान देने की कोई तुक ही नहीं था।’...जब हम जाित-पाँित को मानते ही नहीं तो िफर वह िकसी कासट का हो उससे कया फ़क़थि पड़ता है।’ लड़की ने सहजता से कहा। ‘वह सब तो ठीक है िक हम जाित-पाँित को नहीं मानते और हमने मै्ीमोिनयल में ‘नो बार’ छपवाया था। लेिकन, िफर भी कु छ चीज़ें तो देखनी ही होती हैं। आिख़र ‘नो बार’ का यह मतलब तो नहीं िक िकसी चमार-चूहड़े के साथ...।’ तभी फ़ोन की घंटी बजी और वह फ़ोन सुनने के िलए डाइंग रम में चले गए। अिनता वहीं खड़ी रह गई।’ ‘नो बार’ िजस कालखंड और जीवन का िचतण करती है वह 21वीं शताबदी का यथाथथि है। दिलत समाज की नई पीढ़ी के नौकरीपेशा युवाओं के सपनों और महतवाकांकाओं ने उनहें 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 205 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 205 अपने सामािजक दायरों से बाहर िनकलने के अवसर िदए हैं। इसी का पररणाम है िक जाित और धमथि के बंधनों को लेकर कड़वाहट कु छ कम हुई है, लेिकन यह समसया जीवन के हर केत में है। अनयथा िववाह के मामले में जाित महतवपूणथि कयों बन जाती है? यिद िववाह युवाओं की पसंद और रुिच से तय हों तो िनिशत रप से भारत का नकशा बदल जाएगा। कहानी िववाह को पररवार की पसंद-नापसंद का सवाल बनाकर सामने लाती है और आधुिनक िदखने के दावों की कलई उस वकत उतरती है जब कोई दिलत युवा उनके सामने चुनौती पेश करता है तो ऐसी आधुिनकता और पगितशीलता को छु पने की जगह नहीं िमलती। िववाह पररवार के अलावा युवाओं की पसंद का मामला भी है। लेिकन सांसकृ ितक िपछड़ेपन के कारण पेम और पेम-िववाह को नकारना समाज की सचचाई है। बाह्मणवाद का जातीय वयवहार दिलतों का मनोबल तोड़ने के साथ-साथ इनके लोकतांितक अिधकारों, मानवािधकारों के िख़लाफ़ आपरािधक सािज़श भी है। सांपदाियक और िवभाजनकारी ताक़तें आज भी आधुिनकता ओढ़कर उसी रासते पर चल रही हैं। िुशीला टाकभौरे : ि लया सुशीला टाकभौरे की कहानी िसिलया मानवािधकार संबंधी पश उठाती है। इन पशों में पानी की जातीयता कयों? उसकी सावथिजिनक उपलबधता पर रोक कयों? और दिलत लड़िकयों से अंतरजातीय िववाह संबंधी सोच शािमल हैं। कहानी अंतरजातीय िववाह के ‘शूदवणथि की वधू चािहए।’ संबंधी नई दुिनया अख़बार के सन् 1970 के िवजापन के हवाले से बताती है िक भोपाल के जाने-माने युवा नेता सेठी जी, मैि्क पास अछू त कनया से िववाह करके समाज के सामने एक आदशथि रखना चाहते थे। िसिलया के पररवार में भी इस िववाह को लेकर चचाथि हुई। बाहरी लोगों ने बेटी की िक़समत खुलने और राज करने के िचर-पररिचत अंदाज़ के साथ िसिलया का नाम सुझाया लेिकन ऐसे पसताव पर उनकी माँ की िटपपणी क़ािबलेग़ौर है, ‘नहीं भैया, यह सब बड़े लोगों के चोंचले हैं। आज समाज को और सबको िदखाने के िलए हमारी बेटी से शादी कर लेंगे और कल छोड़ िदया तो...? हम ग़रीब लोग उनका कया कर लेंगे। अपनी इजज़त अपने समाज में रहकर भी हो सकती है। उनकी िदखावे की चार िदन की इजज़त हमें नहीं चािहए। हमारी बेटी उनके पररवार और समाज में वैसा मान-सममान नहीं पा सके गी।... हम तो नहीं देंगे अपनी बेटी को। हमीं उसको खूब पढ़ाएँगे-िलखाएँगे उसकी िक़समत में होगा तो इससे जयादा मान-सममान वह ख़ुद पा लेगी ...अपनी िक़समत वह ख़ुद बना लेगी।’ जहाँ मामला सामािजक दूरी, सामािजक घृणा, आिथथिक असमानता, दिलत मिहलाओं के शारीररक शोषण से जुड़ा हो तो वैवािहक संबंधों में पररवार संतान के भिवषय पर अिधक सोच-िवचार करने के बाद ही िकसी िनणथिय पर पहुचँ ता है। पररवार िववाह केे राजनीितक पयोग को सामािजक सवािभमान के िख़लाफ़ मानता है। वे चाहते हैं िक िसिलया िशिकत और आतमिनभथिर होकर सामािजक जागृित के ज़ररये मान-सममान अिजथित करे । 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 206 206 | िमान कहानी पानी के सावथिजिनक उपयोग के सवाल को उठाकर महाड़ आंदोलन की याद ताज़ा करती है। दुख का िवषय है िक गाँव के समाज में जाितयों की सामािजकता और छोटेबड़े होने के एहसास को पानी की शुदता से जोड़कर पेश िकया जाता है, जबिक यह एक सावथिभौिमक मानवीय आवशयकता है। िसिलया की ममेरी बहन मालती गाडरी मुहलले के कु एँ से पानी पीने की िशकायत पर माँ के हाथों िपटती है। बकरी पालने वाली गाडरी जाित दारा भंगी जाित को अपिवत-अछू त मानना समाज के उस भयंकर वंशानुगत रोग का लकण है िजसे समाज सिदयों से भुगत रहा है। माँ बेटी के बाल पकड़कर मार रही थी और कह रही थी, ‘कयों री तुझे नहीं मालूम, अपन वा कु एँ से पानी भर सके हैं? कयों चढ़ी तू कु एँ पर, रससी बालटी को हाथ लगाई...’और वाकय पूरा होने के साथ ही दो-चार झापड़ घूसँ े और बरस पड़ते मालती पर। बेचारी मालती दोनों बाँहों में अपना मुहँ छु पाये चीख़-चीख़ कर रो रही थी, साथ ही कहती जाती थी...ओ बाई, ओ माँ माफ़ कर दे, अब ऐसा कभी नहीं करँगी...’ बािलका िसिलया अपनी ममेरी बहन को इस तरह िपटते देखकर डरी-सहमी खड़ी थी। उसके मन पर जातीय शुदता संबंधी डर ने क़बज़ा कर िलया था। इससे मालूम होता है िक दिलत बचचों के वयवहार में एक ख़ास तरह की हीन गंिथ धीरे -धीरे िवकिसत होती रहती है कयोंिक समाज का वयवहार इस तरह की हीन भावना के समथथिन में खड़ा िदखाई देता है। कहानी बताती है िक मालती िपटाई सहकर भी जातीय हीनता देने वाले वयवहारों का अितकमण करती है। इसे दिलत बचचों में पैदा होने वाली पितिकया के रप में देखा जाना चािहए। िसिलया अधयापकों के सामने अपने मामा की बसती का नाम हीनता बोध के कारण ही नहीं बता पाई थी। समाज दारा पैदा की गई हीनता के पीछे अिधकारों की लूट का खेल है। पबुद होकर सभी केतों में सामािजक िहससेदारी पाकर इसे समझना आसान है, लेिकन िहससेदारी हािसल करने के िलए अजानता और िवषमता से लड़ना ज़ररी है। सकू ल टीम के साथ तहसील सतर पर खेलने आई बािलका को सहेली हेमलता की बहन के घर तेज़ पयास के बावजूद जातीय शुदता की वजह से पानी न देना मानवािधकार का उललंघन है। यहाँ ठाकु र और भंगी का सवाल मानवीय आवशयकता की पूितथि में बाधा पैदा करता है। ऐसे वयवहारों को सहकर बािलका की पितिकया में पितरोध झलकता है,‘िकतने मुखौटे लगाकर रहते हैं लोग। ...आिख़र मालती ने ऐसा कौन-सा जुमथि िकया था? पयास लगी, पानी िनकालकर पी िलया। ...हेमलता की मौसी से वह पानी कयों नहीं ले सकती थी? ...यह सेठी जी महाशय का ढोंग-आडंबर है या सचमुच वे समाज की परं परा को बदलने वाले, सामािजक बदलाव की कांित लाने वाले महापुरुष हैं? ...और िफर दूसरों की दया पर सममान...? अपने िनजतव को खोकर दूसरों की शतरं ज का मोहरा बनकर रह जाना...बैसािखयों पर चलते हुए जीना...? नहीं, कभी नहीं...। ...अपना सममान हम ख़ुद बढ़ाएँगे...।’ एक बािलका का िवदा और िववेक से पररपूणथि संकलप करना सामािजक बदलाव का आधार है। कहानी िदज संसकारों के दोहरे आचरण पर सवाल उठाते हुए लोकतांितक समाज-िनमाथिण को 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 207 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 207 महतवपूणथि मानती है। जहाँ झाड़ू की पहचान जाित से न हो और जहाँ जातीय काम-धंधों से पैदा हुई ग़ुलामी चेतना से टू ट जाए। सािहितयक सममान के दौरान पानी के िगलास को देखकर इनहें पानी संबंधी तकलीफ़ें याद आने लगती हैं। वह सामािजक िवषमता से पीिड़त, अिधकारों और जान से वंिचत, अपने इितहास, वतथिमान और भिवषय से अनजान दिलत जनता को चेतन और संघषथिशील बनाने के बारे में सोचने लगती है। दयानंद बटोही : िुरग ं यह कहानी िवशिवदालयों में दिलत छातों के पित ररसचथि के िलए दािख़लों में होने वाली उपेका, अपमान और भेदभाव को रे खांिकत करते हुए गंभीरता से एहसास करवाती है िक यिद सामािजक भेदभावों के िख़लाफ़ सभी िवदाथ्जी सामूिहक रप से लड़ें तो ऐसे ततवों को मुहँ की खानी पड़ती है। आतमकथातमक शैली में िलिखत कहानी के अनुसार शोध संसथानों में दिलत छात सामािजक भेदभाव का िशकार इसिलए होते हैं कयोंिक पोफ़े सर इनकी संवैधािनक िहससेदारी सवीकार करने को तैयार नहीं। दािख़लों में िनिशत सीट देने के िलए छात संघ का दबाव उस वकत काम आता है जब वे कु लपित से इसकी िशकायत करते हैं। उनके नोट से नायक के दािख़ले को मंज़रू ी तो िमल जाती है लेिकन उसकी फ़ीस भरने के िलए जनवरी के बजाय जुलाई में आने का आदेश िदया जाता है तो िवदाथ्जी िहंदी िवभाग के अधयक का घेराव करने की चेतावनी देकर लौट आता है, और जब वह छात संघ के पदािधकाररयों से अपनी वयथा बताता है तो वे न के वल उसे समझते हैं बिलक डॉ. िवषणु को चेतावनी देते हैं िक वे सामािजक भेदभाव न करें । मुदाथिबाद के नारों की गूँज से घबराकर वे देर तक वॉशरम में बंद रहते हैं लेिकन सामािजक नयाय और मानवािधकार की पकधरता के सामने आिख़रकार उनहें झुकना पड़ा। अंततः देखने और सोचने की बात यह है िक संवैधािनक वयवसथा को सहजता से सवीकार करने और लागू करने में इतनी तकलीफ़ कयों है? इसके पीछे िवषमतावादी अधयापकों की यह सोच काम करती है िक दिलत छात अिधकार के तौर पर आरकण की माँग न करें , यिद वे अनुनय करते हुए आएँ तो उनहें यह िदया जा सकता है, मगर अपने अिधकारों के पित जागरक छात इसे मानने को तैयार नहीं। कहानी हायर एजुकेशन में िकनहीं ख़ास जाितयों के एकािधकार पर सवाल उठाते हुए दािख़लों में िहससेदारी को संवैधािनक अिधकार के रप में उठाती है और हािसल करती है। कहानी के कई सवालों में से एक सवाल यह है िक छातों के बीच पीएच.डी. दािख़लों में समानता कयों नहीं है? ग़ैर दिलत छातों के दािख़लों का आधार कया जाित, वणथि या सामािजक पभुतव नहीं है? आिख़र पोफ़े सर िवदािथथियों की सामािजक अिसमता के पित हमलावर कयों हैं? ‘एक दूसरे को जब तक हम नहीं जानते तब तक खूब गोल-गोल बातें करते हैं लेिकन जयोंही जाित की गंध लोगों को िमलती है लोग सूअर जैसा मुहँ िनपोरने लगते हैं। जाित की गंध टाइिटल से िमलाते हैं यिद टाइिटल नहीं है तो रं ग, पहनावा पर धावा बोलते हैं। मेरे शरीर 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 208 208 | िमान में ज़हर फै ल जाता है जाित ठे केदारों से जाित पूछने पर।’ दूसरा सवाल यह िक अपने को लोकतांितक और समानता के पकधर िदखाने के िलए अपने कायाथिलयों में पेमचंद, मुिकबोध, आंबेडकर, गाँधी, व बुद के िचत तो लगाते हैं लेिकन िनगाह इस पर रहती है िक आप कया िलखते हैं? यािन लेखन से पहचान। डॉ. िवषणु, डॉ. सुखदेव, डॉ. पासवान और शोधाथ्जी के बीच हो रही बातचीत छात को यही एहसास करवाती है। हररजन पर चचाथि चलते देख वह कह देता है िक ‘आप लोगों को कया लग रहा हू।ँ अंततः वे इस िनषकषथि पर पहुचँ ही जाते हैं िक सामने वाला कौन है। वे सामािजक धोखेबाज़ी को जारी रखना चाहते हैं − ‘सरकार ने भले क़ानून बना िदया हो, घोड़े की रससी तो हम सभी के हाथ में है। आपका ररसचथि में नहीं होगा। मेरी ओर देखकर कहा। लगा मुझे िज़ंदा जला देना चाहते हैं।’ छात के मन में अपने शोषण और ग़ुलामी की परं पराओं के अनेक खयाल आए, सोया हुआ ददथि िपघलने लगा और यह पूछने पर िक ररसचथि कयों नहीं करने देंगे? तो उनकी साँस फू लने लगती है। ‘बात बढ़नी सवाभािवक है कयोंिक खौलते कड़ाह में एक बैगन को डाला जा रहा है।’ जब छात टेबल ु पर हाथ मारते हुए कु तर-कु तर कर दिलतों को ‘खाने डकारने और अब पचेगा नहीं’ कहते हुए वहाँ से िनकले तो िवभागाधयक उनहें ‘शट अप’ से डाँटते हैं। उनका चशमा उतारना, टाई ठीक करना, चेहरे पर कँ पकँ पी और सुख़थि होने के बीच वाइस चासंलर के पास जाने को कहना एक तरह से उस संभािवत भय को दशाथिता है िजसके पीछे झूठे जातीय गौरव से भरे अवैधािनक कायथि छु पे हुए हैं। कहानी सवाल यह उठाती है िक जब दिलतों को संवैधािनक अिधकार नहीं िमल रहे हैं तो आिख़र इसके िलए िज़ममेदार कौन है? सरकारें इनके कलयाण का िढंढोरा कयों पीट रही हैं? इसी मुदे पर छात िवभागाधयक से उलझते हुए कहता है, ‘सरकार की तथा मानवता की आँख में धूल झोंक रहे हैं। मुझे आप ररसचथि नहीं करने दें कोई बात नहीं। लेिकन कोटा आपको पूरा करना है।’ यह सवाल बेहद ज़ररी है िक आिख़र िजसे भी िमले, लेिकन िहससेदारी तो देनी ही होगी। िवशिवदालय को जवाब तो देना ही होगा। आिख़र सरकारी धन पर दिलतों का भी उतना ही हक़ है िजतना अनय का। नायक का यह कहना बहुत महतवपूणथि है िक ‘अँधरे े का सैलाब फाड़कर अपना अिधकार लेंगे।’ संदश े है िक दिलत या समाज के कमज़ोर वग्मों के पित होने वाले अनयाय या िहंसा के िवरुद सभी नागररकों को आगे आना होगा। छात संघ की सकारातमक भूिमका को दशाथिती यह कहानी जयशंकर, नागेंद वमाथि, गंगा झा, रघुनाथ िसंह जैसे यूिनयन पदािधकाररयों दारा पीिड़त दिलत छात के पक में खड़े होकर कु लपित और िवभागाधयक के पास जाकर उसका दािख़ला सुिनिशत करवाना सुखद और रोचक अनुभव है। लेिकन साथ ही यह भी सतय है िक घोर िवषमतावादी समाज में ऐसा होना िकसी कररशमे से कम नहीं है। जो भी हो, लेिकन यह होना चािहए और देश को इसकी बहुत अिधक ज़ररत है। ‘िवभागाधयक का यह कहना िक ‘जो चाहे करो। जब तक हू,ँ हररजनों को ररसचथि करने नहीं दूगँ ा।’ कु लपित िमशा ने न चाहते हुए भी ‘हेड पलीज़ कं सीडर द के स’ तो िलखा लेिकन 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 209 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 209 िवभाग दारा उसका दािख़ला जनवरी के बजाय जुलाई में टालने पर आिख़र छातों के घेराव रपी पितरोध ने ही िनषकषथि पर पहुचँ ाया। िजनहें पहले मौक़े िमल गए वो आगे िनकल गए, वही सभय हो गए, लेिकन आगे िनकले हुए लोग अनय को भी आगे आने दें। ‘दही का रखवाला िबलाड़’ होने का मतलब है वही सारा दही खा जाएगा। लेिकन छातों के पितरोध के आगे सामािजक पितिनिधतव का िवरोध करने वाले ‘िबलाड़’ पशासन को मुहँ की खानी पड़ी। ‘मैं तो चाहता हूँ िक सभी जाितयों के लोग तरककी करें ... आप तो जानते ही हैं गाँधीवादी हूँ उनके आशम में कु छ िदन रह चुका हू।ँ ’ भेदभावजिनत सामािजक जड़ताएँ इतनी अिधक फै ल चुकी हैं िक िबना दबाव के कोई संवैधािनक बात भी मानने को तैयार नहीं है। यह देखना बड़ा रोचक है िक अभी तक अिधकार छीनने पर अड़े हुए लोग दबाव पड़ने पर िकतनी जलदी पाला बदलते हैं और गाँधीवादी भी बन जाते हैं। कया गाँधीवाद यही है? कहानी दिलत छातों के सामने पढ़ाई के िलए आवशयक धन की कमी को उठाती है। घरों की आिथथिक परेशािनयों के कारण इनहें ख़ुद, माता-िपता, पतनी और संतानों के ख़चथि वहन करने के िलए अितररक उपाय करने पड़ते हैं। भोजन के िलए आवशयक पैसों का भी अभाव बना रहता है। ‘मैं पुनः सोचने लगता हूँ आिख़र अँधरे ी सुरंग में हम लोग कब तक रहेंग।े ’ घर से िचटी का आना और वहाँ की आिथथिक बदहाली के साथ अकाल की हालत का वणथिन, बँधआ ु मज़दूरों का गाँव छोड़कर शहर भागना, दिलत होकर पढ़ाई करने पर वयंगय को झेलकर, पररवार के िलए धन का पबंध करने में असफल होकर ख़ुद ही गाँव चले जाना गंभीर दबाव का सूचक है िजसे झेलते हुए उनहें आगे की पढ़ाई करनी है। ऐसी िसथितयों में रहकर आगे बढ़ना कया सचमुच िवसमयकारी नहीं है? और िवशेष रप से जब समाज और पशासन में बैठे लोग दिलत, आिदवासी, िपछड़े समाज के हक़ों के िख़लाफ़ जहर उगलते हों। लेखक ने िपछड़े-अगड़े लोगों के िलए ‘हररजनदुजनथि ’ शबद का पयोग िकया है जो ख़ुद इनके सामािजक वजूद का दोतक है। एक बात यह िक िवशिवदालयों की यौन शोषण संबधं ी घटनाओं में पो. िवषणु जैसे लोगों का फँ सना बताता है िक बार-बार िससटम का दुरुपयोग करने वाले कभी-कभार पकड़ में भी आ सकते हैं। ‘सुंरग’ जहाँ िवशिवदालय सतर की शोध िशका में वयाप भ्रषाचार पर सवाल खड़े करती है, वहीं यह भी बताती है िक इसका कारण हमारी सामािजक िवषमता और दुभाथिवनाएँ हैं। संपणू थि समाज को िशिकत होने या बराबरी का दजाथि पाप करने में िकसका नुक़सान है? जो लोग पीछे रह गए हैं उनको आगे लाने में जहाँ राजय की तरफ़ से पावधान िकए गए हैं वहीं समाज का भी फ़ज़थि है िक वह इनके पित सहज और सहृदय रहे। छातों का सामािजक िहससेदारी के समथथिन में खुलकर साथ आना सुखद है चाहे इसके पीछे छात संघ चुनाव का ही मुदा हो या कोई और। जातीय िवषमता से िनिमथित शोषण से मुिक हेतु उठाए गए सवाल वष्मों बाद भी हल नहीं हो पाए हैं और लेखक इसके िलए सामािजक दृिष को िज़ममेदार मानते हैं। मेरे पित ऐसी दृिष जैसे ‘आदमी न होकर कोई अनय जीव हू।ँ िफर भी मैंने हार नहीं मानी और न ही मान रहा हू।ँ ’ सबसे ज़ररी है िक सामािजक सदाव और समानता िजसके िबना कोई भी देश या समाज 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 210 210 | िमान न तो सामािजक-आिथथिक िवषमताओं को िमटा सकता है और न ही नागररकों में राष्ीय भावना का िवकास कर सकता है। आँकड़े बताते हैं िक समसया आरकण या अिधकारों, संसाधनों का सामािजक बँटवारा नहीं, बिलक यह है िक देश के एक पितशत लोगों के पास 300 लाख करोड़ रुपये हैं और 99 पितशत लोगों में से 40 पितशत लोग ग़रीबी की रे खा से नीचे जीवन-यापन करते हैं और शेष भी कोई सममानजनक जीवन जीने की हालत में नहीं हैं। जबिक देश की जीडीपी 200 लाख करोड़ है और भारत का सालाना बजट 30 लाख करोड़ है। िवशे िषत पाँचों कहािनयाँ उतर भारत के दैिनक जीवन में कें िदत सवालों पर गंभीरता से िवचार करती हैं। ‘सलाम’ यह बताती है िक जातीय शेषता में डू बे या आनंिदत लोगों पर जब यही जाित वयवसथा पहार करती है तो उनके होश िठकाने आने लगते हैं। उनहें यह समझने में देर नहीं लगती िक यह समाज िवरोधी संसथा है। साथ ही कहानी हीनता बोध पैदा करने वाली अमानवीय रिढ़यों पर पहार करते हुए दिलतों के भीतर उभर रही सामपदाियक सोच को उजागर करती है। ‘अपना गाँव’ गाँव के सामंती जीवन में क़ायम सी और दिलत सी िवरोधी सवर को बाहर िनकालते हुए, िपतृसता से सवाल करते हुए मानवािधकार िवरोधी गाँव को तयागकर अलग गाँव बसाने की राह देती है। ‘नो बार’ िववाह के िलए जीवन साथी की तलाश के मागथि में खड़े शोषण पर िचंतन करती हुए अंततः इस िनषकषथि पर पहुचँ ती है िक युवाओं की रज़ामंदी के बाद भी शुदता की सोच का सममानजनक सामािजक संबंधों पर पहरा बेहद ग़ैरज़ररी और सामंती है। ‘िसिलया’ का मुदा यह है िक सामािजक सममान तभी हािसल हो सकता है जब देश के सभी बचचे और युवा िशका कें दों में जाएँगे। कहानी अंतरजातीय िववाह और पानी की सावथिजिनक उपलबधता के साथ लैंिगक शोषण और असमानता पर भी िवचार करती है। ‘सुरंग’ िशका वयवसथा की वह गुफा है िजसने दिलत समाज की पितभा को हमेशा उलझाकर और रासते पर आने से रोककर रखा है, लेिकन चेतनाशील युवा संिवधान िवरोधी ताक़तों के िख़लाफ़ सामूिहकता के बल पर इस सुरंग को फोड़कर बाहर आ रहे हैं। दिलत कहािनयों में बाह्मणवादी सांसकृ ितक संरचना के िवरुद मानवािधकारों की ज़ोरदार माँग है। इस वयिक-िनिमथित ग़ैर-बराबरी को ढहाकर ही सामािजक समानता या लोकतंत को मज़बूत िकया जा सकता है। मानवीय गररमा के पश दिलत-बहुजन इसिलए उठाता है कयोंिक यही इनसे अिधक पीिड़त ़ है। यह जातीय िवभाजन, असिहषणुता और िहंसा मानवीय गररमा के िवरुद है और इसे ग़ैर बहुजन जाितयों ने पैदा िकया है। दिलत कहािनयों की िवषयवसतु, सैदांितकी, संवेदना और सरोकारों पर िवचार करते हुए रामचंद िलखते हैं, ‘दिलत कहािनयों के बहुिवध िवषयों को िकसी बने-बनाये ढाँच,े परं परागत भारतीय एवं पाशातय सािहतयिसदांत, मानदंड या कसौिटयों पर नहीं परखा जा सकता। दिलत कहािनयों के कथय और उदेशय भारतीय समाज की असिलयत की परतों को खोलते हैं, दिलत चेतना को वयापकता देते हैं तथा सही मायनों में सािहतय की संवेदना और सरोकारों से जोड़ते हैं। दिलत कहािनयाँ पररवतथिनकामी सवरों के साथ समतापरक अखंड भारत की आकांका का मागथि पशसत करती 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 211 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 211 हैं। यह समाज को जोड़ने की उममीदों की कहािनयाँ हैं। बस ज़ररत है गहरे आतमबोध एवं संवेदनशीलता के साथ उन आवाज़ों को सुनने, पढ़ने और मनन करने की तथा बदलाव के िलए साथथिक पहल करने की।’ कुछ िवाल-कुछ न रजु दिलत कहािनयों की अंतवथिसतु समाज, देश व मनुषय िवरोधी, वणथि-धमथि व जातीय ढाँचे और इससे बनी सामािजक, आिथथिक, राजनीितक िवषमताओं में िपसते दिलत जीवन के रोज़मराथि के गहरे और गंभीर वयवहारों से िनिमथित है। इनका िशलप भी दिलत समाज के वयवहारों में मौजूद भाषा, पतीकों व उपमाओं से बना है। इसिलए हो सकता है िक िकसी ग़ैरदिलत पाठक और आलोचक को ये कहािनयाँ परं परा िवरोधी इसिलए लग सकती हैं, कयोंिक उसने और उसके पुरखों ने ऐसा घुटनभरा जीवन नहीं िजया। लेिकन इसका मतलब यह नहीं है िक ये समाज का िहससा नहीं हैं। ये कहािनयाँ करोड़ों-करोड़ लोगों के जीवन की आशाएँ हैं और इनमें मनुषयता की पकधरता चलती-िफरती िदखाई देती है। यहाँ पातों की जदोजहद अिधक तीव्र और कलातमक है। कहािनयों में िचितत वातावरण इससे पहले सािहतय में नहीं देखा गया। इनके संवादों में पसतुत भाषा और कहन का ढंग सथािपत सािहतय के िलए नया है। कथानकों में पयोगधिमथिता है। शोषण के िविभनन रपों को िचितत करने में मराठी कहािनयाँ िहंदी कहािनयों से आगे िदखाई देती हैं। जैसे ‘जब मैंने जाित छु पाई’ और ‘सलाम’ की तुलना यिद अंदाज़-ए-बयाँ की दृिष से की जाए तो ‘जब मैंने जाित छु पाई’ शीघ्रता से हमारे ममथि को अपनी िगरफत में लेकर लकय की ओर चलती है। दोनों पमुख दिलत पातों के बीच िजस तरह की अघोिषत िमतता और आपसी खयाल रखने की पवृित उभरती है, वह अदु त और बेजोड़ है जबिक आकोशी सवभाव के सकपाल लगभग अंत में जाकर नायक की पहचान से वािक़फ़ होते हैं। ‘सलाम’ भी अपने लकय में सफल है। यहाँ कमल उपाधयाय की जातीय शोषण से बचने की जदोजहद उसे अपमान और िहंसा से बचा नहीं पाती। समझने की बात यह भी है िक कमल सब कु छ जानते हुए भी माँ दारा हरीश को अलग बतथिनों में खाने-पीने का सामान देने को एक िहंदू ररवाज मानकर चुप ही रहता है। आप िकतने बड़े बने घूमते रहें, कोई न कोई आपसे बड़ा िमल ही जाएगा जो मौक़ा िमलते ही आपका वजूद छीन लेगा। जैसे भी हो आपको हैिसयत बता ही देता है और इससे बचने का कोई भी तरीक़ा नहीं है िसवाय जाित संसथा के ख़ातमे के । लेिकन इसे बनाने वाले इसे समाप करने को राज़ी नहीं, कयोंिक ये इसका आनंद लूट रहे हैं और हैरानी की बात यह है िक इससे दुखी लोग इससे शोिषत होकर भी अजानतावश अपनी-अपनी जाितयों पर गवथि करने में लगे हुए हैं। दोनों कहािनयों के िशलप में नयापन है जो एक ि्क से बनता और चलता है और कहािनयों के अंत तक छाया रहता है। यह भी कह सकते हैं िक मराठी दिलत कहानी की छाप िहंदी दिलत कहानी पर सपष िदखती है। 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 212 212 | िमान दिलत कहािनयाँ वयापकता में मानवािधकारों के पश खड़े करती हैं और लोक जीवन में समानता हािसल करने संबंधी सवालों को हल न करना िकसी भी राजय और समाज के िलए ख़तरनाक सािबत हो सकता है। देख ही रहे हैं िक यह सब भारत के समाज में हमारी आँखों के सामने खुली रोशनी में घट रहा है। वृहद समाज के पास गररमामय जीवन-यापन करने के अिधकार आज तक नहीं हैं। सामािजक समानता हािसल करने के अितररक शोषण के िवरुद अिधकार, धािमथिक सवतंतता का अिधकार, संसकृ ित और िशका संबंधी अिधकारों पर भी कहािनयाँ नई वैचाररक ऊजाथि के साथ उपिसथत हैं। दिलत कहािनयों की भाषा का सवाल हमेशा िवमशथि की माँग करता है। सबसे पहले हमें यह जानना चािहए िक दिलत समाज की संरचना बाह्मणवादी संरचना से मेल नहीं खाती। दोनों के बीच सामािजक संबंधों की दृिष का भेद है। िहंदू जातीय ढाँचा सांसकृ ितक शुदता के झूठे-फ़रे बी तौर-तरीक़ों को दैिनक जीवन में उतारकर ख़ुद को महतवपूणथि रखते हुए दिलतबहुजन समाज से ख़ास तरह की सामािजक दूरी बनाकर उसका शोषण करता है और इसके पास धमथि-शासों के हिथयारबंद नायक व उनकी मनुषयता िवरोधी दृिष है। दूसरी तरफ़ दिलत सािहतय िहंदू जातीय ढाँचे की ग़ैर-बराबरी को नकारते हुए सभी शोिषतों को एक मंच पर लाकर अपनी मुिक की राह धािमथिक आसथाओं और शुदता के घटाटोप के अंत और संबंधों की समानता में खोजता है। इसके िचंतन में बौद दशथिन, आधुिनक जान-िवजान और संिवधान की समतामूलक और तािकथि क दृिष है। इनहीं से दोनों की सािहितयक भाषा का िनमाथिण होता है। एक जहाँ वयिक को महतव देने की अपेका अदृशय सता की बातें करते-करते देव को ज़मीन पर उतारकर उस दशथिन में िचकनी-चुपड़ी बातें करता है, तो दूसरा वयिक की सामािजकता और तािकथि कता के आधार पर दुिनया को सुखी और चेतना संपनन बनाना चाहता है। एक की भाषा में अदृशय लोक के सुर और सुंदरी सौंदयथि के पितमान बनकर आते हैं तो दिलत सािहतय की भाषा में दृशय लोक में गररमामय जीवन जीने की जदोजहद, सतयता और नयाय से जुड़े पितमान घूम-घूमकर आते हैं। यह के वल सामािजक दूररयों का ही नहीं, सािहितयक सोच की दूररयों से जुड़ा मामला भी है। एक देव भाषा (जो भारत के िकसी राजय की पथम भाषा नहीं है) को उदृत करके सममान पाना चाहता है तो दूसरा जनभाषा को अपनी लेखनी की नोक पर उठाकर संघषथि बुनता है। दिलत कहािनयों की भाषा में सामािजक-आिथथिक बराबरी के सपने हैं, िपतृसता से लड़ने का मादा है तो जान परं पराओं पर िवषमतावादी परं पराओं के क़बज़ों से मुिक का संकलप है। इसी संपणू थि लोक से दिलत कहािनयों की भाषा िनकलती है। दिलत कहािनयों में पयुक तथाकिथत अिशष या भदे कहे जाने वाले शबदों का पयोग ज़बरदसती नहीं, शोषण को रे खांिकत करने के एवज़ में ही हुआ है। यहाँ पितकार और पितरोध नयाय के पकधर बनकर आते हैं। सबसे बड़ी बात यह िक इनहोंने सौंदयथि के मनुषय कें िदत और समता, सवतंतता, मैती और नयाय आधाररत मानक ख़ुद तय िकए हैं। लोकतांितक युग में भी अनेक सामािजक संसथाएँ मानवािधकारों के िख़लाफ़ हैं और ये 07_ajmer singh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:53 Page 213 मराठी और िदी द ित किा िय मे माििा िकार के | 213 अपने जंगलीपन और बेहयाई के साथ हमारे बीच मौजूद ही नहीं, सरकारी, ग़ैर-सरकारी सभी कायथिसथलों पर अपना पाठ दोहराती देखी जा सकती हैं। संिवधान पदत अिधकारों का पयोग करने पर सखत दंड पावधानों वाले मुक़दमे लगातार बढ़े हैं। यह ढाँचा मानवीय गररमा, मानवीय सवतंतता, सामािजक-आिथथिक समानता, भाईचारे और पेम जैसे वैिशक मूलयों का सैदांितक तौर पर िवरोधी है, यािन सामािजक लोकतंत और मानवािधकारों के िख़लाफ़ है। तथाकिथत सामािजक-सांसकृ ितक पिवतता का यह समूचा िमथक फ़ज़्जी और बुिदिवरोधी है और आंबेडकर के अनुसार इसके शोषण से मुिक का एकमात उपाय इस ढाँचे के अंत से ही संभव है। इितहास बताता है िक िकसी समाज या लोक को हमेशा दबाकर नहीं रखा जा सकता। वकत आने पर समाज की सोच बदलती है, हाँ इसमें शतािबदयाँ भी लग सकती हैं। जोितराव फु ले दारा 1848 में पुणे से चलाए गए पहले िवदालय से देखें तो यह 173 साल पहले की घटना है जो आज भी हािशए पर पड़े समाज के भीतर िचंगारी पैदा करती है, सािहितयक कथानकों में जान भरती है। और सामािजक चेतना के िनमाथिण में इनहीं िचंगाररयों की ऐितहािसक भूिमका है। अतः मराठी और िहंदी की दिलत कहािनयों ने मनुषय, मनुषयता और मानवािधकारों के पक में जीवन की आलोचना करते हुए अपनी जन पितबदता सािबत की है। िंदभजु अजुथिन डांगले, बुद्ध ही मरा पड़ा है, रमिणका गुपा (सं.), दिलत कहानी संचयन : 222. आनंद तेलतुंबड़े (2016), आंबेडकर और दिलत आंदोलन (अनु.) कृ षण िसंह, गंथ िशलपी िदलली : 64-65. आर. के . काले (2006), हायर एजुकेशन ऐंड िडवेलपमेंट ऑफ़ द नेशन, खंड-44, 14-20 अगसत, युिनविसथिटी नयूज, नई 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के अंतग्त सीरचनाकार को हो रही परे शािनयों के िज़क के साथ, उसकी माक़ू ल अिभवयिक के िलए अलग भािषक पारप की संभावना तलाशते हुए, सी और भाषा के ररशते पर बख़ूबी िवचार करता है, लेिकन ‘सीभाषा’ (िलंग बोली) नामक उक ततव पर वह पतयकतः पकाश नहीं डालता। हो सकता है िक उक संदभ् में िवचार करने के दौरान इसमें सीभाषा की अनुगँजू वयाप हो। मैनेजर पाणडेय ने सी की रचनातमक अिभवयिक की भाषा के पुरुष-भाषा से िभनन होने की वज्जीिनया की बात का समथ्न िकया है। ‘सािहतय के समाजशास की भूिमका’ में पाणडेय कहते हलैं : एक ही कथा को अगर सी और पुरुष दोनों अलग-अलग कहें और शोता समुदाय भी िभनन-िभनन हो तो कथा में अनेक तरह के पररवत्न हो जाते हलैं। कथा के पातों के साथ कथा कहने वाली या कथा कहने वाले की भावनाएँ बदल जाती हलैं। ... कथा के कहने, सुनने और पढ़ने में सी और पुरुष के दृिषकोण में अंतर हो सकता है। ... कथा कहने के ढंग में सोचने का ढंग भी िनिहत होता है, उसके माधयम से सी अपने सवतव और आतमसममान की पितषा करती है। सामािजक िसथित और मूलय-चेतना के अंतर के कारण पुरुष कथाकारों के उपनयासों में सी को िजस रप में देखा और िचितत िकया जाता है, उससे िभनन दृिषकोण सी कथाकारों के उपनयासों में िमल सकता है। हज़ार चौरासी की माँ जैसा उपनयास और दौपदी जैसी कहानी महाशेता देवी ही िलख सकती हलैं, कोई पुरुष कथाकार नहीं। वज्जीिनया वुलफ़ ने तो यहाँ तक कहा है िक सी का दृिषकोण सामािजक चेतना ही नहीं, कथा की शैली और वाकय-रचना में भी पुरुष से िभनन होता है। डोरोथी गतांक से आगे भाषा म Tी और Tी की भाषा-2 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 216 216 | िमान ररचड्सन के बारे में वज्जीिनया वुलफ़ ने िलखा है िक वह उपनयास की भाषा में पहले से मौजूद ‘पुरुष वाकय’ की जगह ‘सी वाकय’ का िवकास कर रही थी। उसने सीवाकय और सीभाषा की िवशेषताओं की ओर संकेत भी िकया है।1 वज्जीिनया ने उक आलेख में इस तथय पर ज़ोर िदया है िक पुरुष से सी के अनुभव बहुत हद तक िभनन होते हलैं, िजसका कारण उसकी जैिवक व सांसकृ ितक पररिसथितयों की िभननता है। अनुभव की यह िभननता उसकी भािषक अिभवयिक की िभननता में सवतः ढल जाती है। यही कारण है िक सी की भाषा िशलप या बुनावट के सतर पर पुरुष से िभनन होने लगती है। वज्जीिनया ने साफ़ तौर पर कहा है िक सचचाई यह है िक आज भी सी जब िलखने बैठती है, तो उसे लेखन में पिविध (िशलप) के सतर पर किठनाइयों का सामना करना पड़ता है। उदाहरणसवरप, कोई सी अपनी अिभवयिक के िलए कोई वाकय रचती है, तो वह उसकी सोच के अनुसार िफ़ट नहीं बैठता, कयोंिक उस वाकय का साँचा पुरुष दारा रिचत (पुरुषानुकूल) होता है। वह सी के उपयोग के िलहाज़ से या तो बहुत हलका/ढीला होता है या बहुत भारी, अथवा वह बनावटी होता है। िफर भी, उपनयास में लचीलापन या फै लाव की संभावना रहती है। ऐसे में वहाँ ऐसे साधारण वाकय चािहए, जो पाठक के िलए सुबोध हो और आिख़र तक उसे बाँधे रखे। ऐसा तभी होगा, जब सी के िलए ख़ुद की वाकय-संरचना हो, जो िक वत्मान पचिलत (पुरुष) वाकय-साँचे से अलग हो, िजससे िक अपने अनुसार उसे बदल कर िलखने को िववश न होना पड़े; बिलक अनुभिू त को सवाभािवक रीित से िबना अितररक पररशम के अिभवयक कर सके ।2 इसके साथ, वज्जीिनया ने यह भी कहा िक उपनयास का ढाँचा पुरुषिनिम्त जीवन-मूलयों से िनयंितत रहा है, िजसके कारण सी उपनयास िलखती है, तो वह भी कु छ हद तक पुरुषवादी पभाव से गसत रहेगा ही। यहाँ यह बात सपष कर देना ज़ररी है िक भाषािवजािनयों दारा उिललिखत और पररभािषत पूव्वोक ‘सीभाषा’ िपतृसता की पररिध में घुट रही सी के अनुकूलन का भािषक रप है, िजसमें दिमत सी की दिमत चेतना की िकसी माता में ही अिभवयिक हो पाती है। परं त,ु वज्जीिनया इन वाकयों में िजस संभािवत ‘सीभाषा’ का संकेत करती हलैं, वह िपतृसतातमक समाज की किथत आम (पुरुष) भाषा में अनिफ़ट हो रही (रचनाकार) सी की समथ् अिभवयिक के िलए अनुकूल भाषा की तलाश से जुड़ी हुई है। (आगे सी-अनुकूल भाषा पर िवचार के पसंग में इस पक को और सपष िकया जाएगा।) वज्जीिनया वुलफ़ के उक पितपादन से गुज़रते हुए, िहंदी-वैचाररकी में सी-दृिष की भवय पसतािवका महादेवी वमा् की कालजयी कृ ित शंखला की किड़याँ में संकिलत ये पंि्तियाँ धयान में आ जाती हैं : ‘पुरुष दारा नारी का चररत अिधक आदश् बन सकता है, परं तु अिधक सतय नहीं; िवकृ ित के अिधक िनकट पहुचँ सकता है, परं तु यथाथ् के अिधक समीप नहीं। 1 मैनेजर पाणडेय (2002) : 66-67. वज्जीिनया वुलफ़ (1929) : 181-182. [https://www.unz.com/print/Forum-1929mar-00179 : 25 जनवरी, 2020 को 9.00 बजे पूवा्ह देखा गया. 2 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 217 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 217 पुरुष के िलए नारीतव अनुमान है, परं तु नारी के िलए अनुभव। अतः अपने जीवन का जैसा सजीव िचत वह हमें दे सके गी, वैसा पुरुष बहुत साधना के उपरांत भी शायद ही दे सके ।’3 महादेवी ने इन पंिकयों में भले वज्जीिनया की तरह भाषा और सी के संबंध पर सीधे-सीधे कु छ नहीं कहा हो, लेिकन उनके इस कथन में उसकी संभावना तलाशी जा सकती है, कयोंिक पुरुष से सी के अनुभव की िभननता की बात करके महादेवी ने इस िवचार का बीजारोपणसा कर िदया है िक वह िभननता उनके भािषक अिभवयिक के पारपों की िभननता में सवतः ढल जाती है। यही वह िबंदु है, िजस पर वज्जीिनया और महादेवी साथ-साथ हो जाती हलैं और दोनों सी-अनुकूल भाषा के िवचार को आकार देती पतीत होती हलैं। यह ठीक है िक सी के िनजी अनुभव-केत से संबद चीज़ों या िसथितयों के िकसी पामािणक िचतण की अिधक उममीद सी से ही की जा सकती है, लेिकन ऐसा कहते हुए इसमें इतना जोड़ लेना होगा िक उसके िलए ‘नारी-अनुभवों’ के साथ उनके यथाथ् िवशे षण की कमता का भी योग होना चािहए। कारण, जैिवक रप से सी होने से जयादा महतवपूण् होता है ‘सी-दृिष’ से संयक ु होना, कयोंिक देह से शत-पितशत सी होकर भी, दृिष या िमज़ाज से पुरुष होना असंभव नहीं है, बिलक वही आम है। अससी सालों से भी अिधक पहले कही गयीं, महादेवी जी की उक पंिकयाँ पुरुष-दृिष के वच्सव से आकांत ततकालीन (गत सदी के तीस के दशक में) समाज में पुरुषवादी लेखन के दबावों के पररपेकय में सािहतय व वैचाररकी में सी-दृिष की आवशयकता और महतव को दशा् रही थीं, न िक िकसी पुरुष के भीतर ‘सीदृिष’ के एकांत अभाव को। वे न तो उसके दारा सी-पशों से जुड़े िकसी संवेदनशील लेखन की संभावना को नकार रही थीं और न उसे अनिधकार चेषा सािबत कर रही थीं। कारण, वयापक सतय यही िक अपनी पितभा (कलपना-शिक) की बदौलत, ‘सहानुभिू त’ के ज़ररये कु छ भी, िकसी का भी ‘सच’ कहा या रचा जा सकता है, िफर भी ‘सवानुभिू त’ का अपना रं ग और अपनी आँच होती है, इससे भी इनकार नहीं िकया जा सकता। िबना उसके , के वल ‘सहानुभिू त’ के बल पर चाहे िकतना भी िदमाग़ लगा िलया जाए, िकतना भी गुणवतापूण् लेखन कर िलया जाए, पर उसकी पामािणकता में नयूनता का संदहे बना ही रहेगा। इसी जगह यह बात खुलती है िक महादेवी जी का उक कथन ऐितहािसक के साथ, िकसी सीमा तक 3 महादेवी वमा् (1997) : 66. 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 218 218 | िमान साव्भौिमक महतव भी रखता है। ऐसा पतीत होता है िक िकसी सी-पश पर समान (सी-) दृिष और (लेखकीय) कमता से युक एक सी और एक पुरुष के लेखन में सी का लेखन हमेशा भारी पड़ता है और ऐसा होने का कारण ‘सवानुभिू त’ ही है। परं त,ु इस संदभ् में सी-मात का लेखन पुरुष-मात के लेखन से अिधक यथाथ्परक होगा : यह सदा इसिलए आवशयक नहीं है, कयोंिक ‘दृिष’ और ‘कमता’ भी कोई चीज़ होती है, ‘अनुभव’ भर होना पया्प नहीं है। महादेवी की उक कृ ित का ऐितहािसक महतव है, कयोंिक वह सारी दुिनया में सीवादी िचंतन व आंदोलन पर पेरक पभाव डालने वाली कृ ित द सेकेणड सेकस (सीमोन िद बुआ, 1949) के अिसततव में आने से पया्प पूव् (1942 में) तो छप ही चुकी थी, बिलक इससे भी बड़ी सचचाई यह है िक उसके अिधकांश िनबंध तीस के दशक में ही चाँद पितका के संपादकीय लेखों के रप में आ चुके थे। यह वही समय है, जब वज्जीिनया वुलफ़ के उक आलेख का पकाशन होता है। इस तरह से उपयु्क दोनों िवचारकों (वज्जीिनया और महादेवी) के सीिवमश्क उक लेखन लगभग समकालीन हलैं। फलतः उनकी पारसपररक तुलना तक् संगत और िवचारोपयोगी है। वैसे महादेवी की उक कृ ित का ऐितहािसक ही नहीं, समकािलक महतव भी है, कयोंिक भारतीय समाज की आधी आबादी (सी) को पराधीन, वंिचत और संतसत करने वाली िजन आिथ्क, सामािजक-सांसकृ ितक किड़यों का उसमें िवशे षण िकया गया है, वे आज भी कमज़ोर नहीं हुई हलैं, बिलक उनमें से कई तो समय-समय पर ‘सांसकृ ितक-धािम्क पुनरुतथानवादी राजनीित’ के पयासों से पुनज्जीिवत व पुनन्वीन की जाती रही हलैं। दुभा्गय से वह समय आज िफर से बड़े िवकराल रप में मौजूद है। इस पररिसथित में सीिवरोधी सामािजक चेतना के पितकार हेतु शंखला की किड़याँ का युगीन महतव बरक़रार है और जब तक भारतीय समाज (िवशेषकर िहंदी-पटी में) सी-मुिक का कामय लकय िसद नहीं होता, संभवतः तब तक उसका महतव िकसी न िकसी रप में क़ायम रहेगा। वज्जीिनया वुलफ़ और महादेवी वमा् की इस तुलनातमक चचा् में उभर आए ‘सी-अनुकूल भाषा’ के िवचार को हम इस आलेख में िवसतार से आगे उठाएँगे। िफ़लहाल ‘सीभाषा’ (िलंग-बोली) पर हम िफर से लौटते हलैं। रॉ िि लै कॉफ़ : Tीभाषा का प सीभाषा-संबंधी वैचाररकी के केत में, अमेररका के कै िलफ़ोिन्या िवशिवदालय में भाषाशास की पाधयािपका रॉिबन टोलमैच लैकॉफ़ का उललेखनीय सथान है। उनकी लैंगवेज ऐंड िवमेंस पलेस (1975) नामक िकताब सामािजक भाषािवजान के केत में महतवपूण् सथान रखती है। लैकॉफ़ ने 1970 की शुरुआत में, अपने समाज की िसयों की भािषक पवृितयों का सव्वेकण करके यह मत रखा िक अमेररकी िसयाँ िनशयातमक या िनण्यातमक वाकयों के पयोग से बचने हेतु कु छ भाषाई िविधयों या तकनीकों का इसतेमाल करती हलैं, जो िनमनवत् हलैं : . टैग (संलगनक) पश : चुनाव में भयानक अफ़रा-तफ़री है। है न? 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 219 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 219 . वाकय को सुरीला बनाना : खाना कब तैयार होगा? छह बजे तक? (‘खाना छह बजे तक तैयार कर दू’ँ की जगह।) . बाड़ लगा कर बोलना : यह दुखभरा लग रहा है। यह शायद िडनर का समय है। . पररवध्क लगाना : मलैं बहुत ख़ुश हूँ िक तुम यहाँ हो। . अपतयक िविध : अचछा, तो मेरा एक डेंिटसट के यहाँ एपॉइंटमेंट है। (यह अनुमित की आकांका के साथ बोला गया वाकय है। चाहती तो सीधे भी बोल सकती थी िक मुझे एक डेंिटसट के यहाँ जाना है।) . शबद-बंध को संिकप कर बोलना : ‘छोटी पैणट’ न कह कर ‘पैणटी’ कहना। . अशील/टैबू से बच कर बोलना : ‘पेशाब करने’ की जगह ‘बाथरम जाना’ बोलना। (इन िविधयों के उदाहरणों के पसतुतीकरण में पसतुत अधयेता ने थोड़ी सवतंतता ली है।) उक पकार के सव्वेकण दारा वे (उक अमेररकी) िसयों की उस भािषक पवृित को उजागर करती हलैं, िजसके चलते वे ख़ुद को पभावी ढंग से अिभवयक होने से बचाना चाहती हलैं और उसके िलए वे कमज़ोर लहजे का सहारा लेते हुए, अपनी भाषा को मुलायम बना कर पसतुत करती हलैं। इस तरह से जो उनका संपषे ण होता है, उसमें सामने वाले की सहमित को शािमल करने का पयास शािमल रहता है। कहना नहीं होगा िक लैकॉफ़ की ये बातें सीभाषा के पूवक ् िथत लकणों को ही 4 िवसतार देती हलैं, िजनहें सुकुमार सेन के पसंग में हम पसतुत कर चुके हलैं। लैकॉफ़ के उक िनषकष्षों के आधार पर मेरी कॉफ़ोड् (1995) ने यह राय बनाई िक सशकीकरण हेतु मिहलाओं को बात करने के पभावी तरीक़े अपनाने चािहए। उनहें िनशयातमक वाकयों का सहारा लेना चािहए। कु छ लोगों ने यह भी कहा िक उक तरह की अिभवयिकयाँ पयोका मिहला के शिकहीन होने का ही एकमात पमाण नहीं हलैं, बिलक वह अपने सामािजक संबंध को बेहतर बनाने हेतु भी (भाषा के उक पयोग दारा) शोताओं को अनुकूल बनाने का पयास कर सकती है। िविलयम ओ’बार और िकम एटिकं स (1980) नयायालय की काय्वाही और दसतावेज़ों के िवशे षण के बाद इस िनषकष् पर पहुचँ े िक उक तरह की भािषक पवृितयाँ सता-संरचना में कमज़ोर जगह पर बैठे लोगों से संबंध रखती हलैं, न 4 जगदीशर चतुव्वेदी, सुधा िसंह (2007) : 207 ‘रॉिबन लैकॉफ़ दारा िलिखत ‘ललैंगवेज़ ऐंड िवमेंस पलेस’ ने सवयं कई सटीररयोटाइप िनिम्त िकए ... लैकॉफ़ की पुसतक से सीभाषा की छिव, चापलूसी की भाषा की भी बनती है, जहाँ िकसी तरह का पितरोध नहीं है और सब कु छ ठीक है. लैकॉफ़ सीवादी हलैं और वे िभननता को राजनीितक संदभ् से वयाखयाियत करती हलैं. िसयाँ सवीकृ ितमूलक भाषा बोलती हलैं कयोंिक वे सवीकृ ित चाहती हलैं और डरती हलैं िक पुरुष उनकी सपष भाषा को अपमानजनक और धमकाने वाला न समझ ले! यदिप लैकॉफ़ की सीभाषा की तसवीर सटीररयोटाइप है, िजसके िलए उनहोंने कोई पमाण नहीं िदए हलैं, उनके िनषकष्षों में अनेक किमयाँ भी हलैं. लेिकन सवाल उठता है िक कयों इस तरह के सटीररयोटाइप आधुिनक ‘वैजािनक’ भाषािवजान में मौजूद हलैं? अंशतः इस का संबंध पयोग की गई पदित से है. लैकॉफ़ चॉमिसकयन पदित में दीिकत हलैं, जो नमूना-संगह में िवशास नहीं करता, बिलक इसकी जगह िवशे षक को भाषा के बारे में अपने पूवा्नमु ानों का परीकण करना चािहए, इसकी वकालत करता है. ज़ािहर है िक यह पदित ऐसे िवशे षण में कारगर नहीं हो सकती, जहाँ बड़े समुदाय के भािषक वयवहार के सामानयीकरण का सवाल हो.’ 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 220 220 | िमान िक िकसी िलंग-िवशेष से।5 Tय की भाषा और हं दी की समकालीि वैचा रकी िहंदी के शीष्सथ कथाकार और सािहितयक पतकाररता के ज़ररये िहंदी में हािशये की वैचाररकी के बड़े पसतावक और पितषापक राजेंद यादव ने कथा जगत की बाग़ी मुि्लम औरतें पुसतक की (‘बेजबु ानी जुबान हो जाए’ शीष्क) भूिमका में िसयों की भाषा का दो सतरों पर िवचार िकया है : समाज में वयाप किथत आम भाषा (वसतुतः पुरुष-भाषा) में सी का वयापक तौर पर पगी रहना, पर इसके साथ िपतृसतातमक सीमाओं में रहते हुए भी ख़ुद को अिभवयक करने हेतु (सीिमत सतर पर ही सही) ज़ुबान के साथ देह की भी भाषा के नए िसरे से गठन हेतु लगातार (सचेत-अचेत रप से) पयासरत रहना। पहले सतर पर राजेंद यादव कहते हलैं : िवडबंना यह है िक िजस भाषा के साथ सी सबसे अिधक एकाकार होती है और हमेशा ‘चबर-चबर’ करती है, वह भाषा भी उसकी अपनी नहीं होती । ... िनजी मुहावरों के बावजूद सी की अपनी कोई भाषा नहीं होती । वह भी मद् की ही होती है जो सी को शिक संपनन होने का सथायी भम देती है। चूिँ क भाषा में शिक-सता के सारे मुहावरे और शबद मद्वादी होते हलैं और जो सी को दी जाने वाली गािलयों, या अपमानजनक वकवयों तक जाते हलैं, सी उनहें ही अपनी भी भाषा बना लेती है : वह भी अपने बेटे को डाँटती है, ‘कया औरतों की तरह रो रहा है? तू कयों डरे गा, तू कया लड़की है?’ चूिड़याँ या साड़ी पहनने के ताने देने वाली औरत जब धड़लले से ‘मादरचोद’, ‘बहनचोद’ जैसी गािलयों का इसतेमाल करती हलैं तो उसे सपने में भी धयान नहीं होता िक वह अपना ही अपमान कर रही हलैं। सुनते हलैं िक पुिलसटेिनंग में िसयों को भी मदा्नी गािलयाँ देने का अभयास कराया जाता है तािक अपराधी को उसकी हैिसयत बताई जा सके ...मद्षों जैसी भाषा का इसतेमाल करके सी अपने ‘ज़नानेपन’ से मुक हो कर मद्षों जैसी ताक़तवर होने का पभाव डालती है : िवशेषकर दूसरी औरतों पर। .... भाषा के माधयम से सी अपने-आप से टू ट कर ‘दूसरी’ बनती है : वह सी-वेश में पुरुष होती है .... सी-िवमश् का सबसे जिटल पहलू यह है िक उसे पुरुष-भाषा के वच्सव में ही अपनी बात कहनी है, कयोंिक उसकी अपनी कोई भाषा नहीं है।6 परं त,ु इसके साथ, यादव उस पररदृशय को भी िवसतार से उपिसथत करते हलैं, िजसमें इस भाषा के साये में जीते, साँस लेते, इसके साथ पूरी तरह रँ ग जाने के बावजूद, सी िपतृसतातमक भय, दमन और जकड़नों के बीच, ख़ुद को अिभवयक करने के िलए अपनी देह-भाषा को अचूक हिथयार की तरह इसतेमाल करना भी सीख जाती है। इसके साथ, वह संकेतों और पतीकों वाली अचूक भाषा भी ईजाद कर लेती है। साथ ही, िनजी बातों को वह गीतों और सवगत5 6 पेिनलॉप एकट् और सैली मैकोनल-िगनेट (2003) : 158-160. राजेंद यादव (2008) : 11-12. 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 221 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 221 कथनों (और उसके उदातीकरण दारा ‘आतमकथा’ िलखने) के रप में भी वयक करने लगती है, िजसे पुरुष ‘िवधवा-िवलाप’ या ‘औरत की बड़बड़’ कह कर उपेिकत करते हलैं। इस तरह, राजेंद यादव ने िपतृसतातमक जकड़ में पड़ी सी दारा मुखयतः बचाव और गौणतः पितरोध (भले वह अपतयक रीित से हो) की चेतना के साथ भाषा-वयवहार की बात कही है। (‘पितरोध’ वाली बात को हम आगे ‘सी-अनुकूल भाषा’ िवषयक िवचार के अनतग्त, और िवसतार करते हुए सामने लाएँगे।) िसयों की भाषा के संदभ् में, िहंदी कवियती और सीिवमश्कार अनािमका के ‘सी का भाषाघर’ नामक आलेख में एतिदषयक उनके पितपादनों को पढ़ना रोचक होगा : मद्षों की भाषा अमूमन, वयापार-वािणजय की सरल-सपाट भाषा होती है। वािणजय, विणकवृित और राजकाज की अिधकारपमत भाषा : शुलक, लेन-देन और ऊपरी सरोकारों की भाषा : ‘शुषको वृकः ितषित अगे’ वाली कामचलाऊ चलंत-िफरं त भाषा, आपाधापी की भाषा, रे लवे पलेटफ़ॉम्, कचहरी, बाज़ार, पंचायत, असपताल और दफ़तर की भाषा, आपाधापी की भाषा। िजसे बतरस कहते हलैं, उसका शहद तो औरतों के पास ही होता है। गुपजी ने ‘आँचल में है दूध और आँखों में पानी’ की बात कही थी, लेिकन बतरस के इस शहद की धारक भी िसयाँ ही हलैं। लोररयाँ, लोककथाएँ, संसकार गीत, सब इसका साकय वहन करते हलैं। और तो और, औरतों के रोने में भी संगीत है : बहुधा वे गाती हुई और बोलती हुई रोती हलैं : रुदािलयों का अपना इितहास है। सामुदाियक रुदन की इस आतयंितक संगीत की भाषा में जवालामुिखयों के फटने, समुद के हहाने, धरती के दरकने और बादलों की छाती फट जाने का आिद-नाद भी शािमल होता है।7 अनािमका के उक आलेख में कथय और िशलप, दोनों सतरों पर आलोचनातमक िटपपणी या वैचाररक सथापना के बजाय भावोच्विसत या कावयातमक उदार अिधक िदखलाई पड़ते हलैं। उनकी बातों से ‘पुरुष-भाषा’ और ‘सी-भाषा’ के बीच ‘पयोजनमूलकता’और ‘सौंदय्मल ू कता’ का दृढ़ वयवधान सा उपिसथत होता है। इसकी जड़ उनहें कदािचत् पुरुष और सी के जैिवक वयिकतव या आनुवंिशक िभननता में िदखलाई पड़ती है।8 इस तरह, वे भी ‘सीभाषा’ और ‘पुरुष-भाषा’ में आतयंितक भेद की सैदांितकी के साथ खड़ी नज़र आती हलैं। 7 अनािमका (2008) : 155, अभय कु मार दुबे (सं.) (2014), िहंदी आधुिनकता : एक पुनिवविचार (खंड 1), अिखल भारतीय उचच अधययन संसथान, िशमला-वाणी पकाशन, नयी िदलली. 8 वही : 177. अनािमका संरचनावािदयों की एक िसिद (‘भािषक संरचना का सीधा संबंध मनुषय की यौन-अिसमता है’) का उललेख करने के बाद, उतर-संरचनावािदयों (ख़ासकर नलैंसी शोदोरॉव) की िसिद को कु छ यों पसतुत करती हलैं और उसके पित सहानुभिू त रखती हलैं — ‘पाक् -एिडपीय अवसथा के बाद मातृछिव से ख़ुद को अलग करने में जो तनाव लड़कों को झेलना पड़ता है, उसी से अब उनकी भाषा इतनी सखत, खुरदुरी और सपाट हो जाती है! िवकास के उषाकाल में लगे आंतररक झटके से लड़िकयाँ साफ़ बच जाती हलैं, कयोंिक उनहें अपनी अननय से यािन माँ से अलग दीखने या अलग बोलने का कोई तनाव नहीं होता ! इसिलए, उनकी भाषा अिधक सहज, अंतरं ग और पवाहपूण् होती है! उनकी भाषा िकसी आंतररक झटके , िवयोग या कमी से पसफु िटत नहीं होती, इसिलए उचछल भी जयादा होती है.’ 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 222 222 | िमान अनयत भी उनका कहना है : भाषणधिम्ता पुरुष-भाषा का गुण है, पुरुष-भाषा जो मोनोलॉग की भाषा है, जो आदेशिनद्वेश देती है, और पितपक की तरफ़ से कु छ सुनना नहीं चाहती। जो भाषा आप अपने िपताओं से सुनते आए होंगे, जो इंपररिटव मोड की भाषा है, उसे पशांिकत करती हुई जो उभरी है वह िसयों की संवादातमक भाषा है िजसमें कं धे पर हाथ रख कर दुख-सुख बितयाने का शऊर है। मलैं हमेशा एक उदाहरण सोचती हूँ िक छाता ही ले जाना हुआ घर से, अगर घर से आप भीगते हुए िनकल रहे हलैं, तो िपता गरजेंगे िक अरे छाता नहीं िलया। माँ कहेगी, अरे छाता नहीं िलया। वह समुचचयबोधक वाकय बोलेगी और दौड़ते हुए आप को छाता दे आएगी। पशवाचक, िवसमयािदबोधक और समुचचयबोधक तरल िचह हलैं। इससे भरी होती है िसयों की भाषा। वह कॉमा फु लसटॉप की भाषा नहीं होती। इसीिलए वह जयादा अंतरं ग होती है, इसीिलए वह जयादा तरह के सोतों से संवाद कर पाती है। इसीिलए वह ‘तुमल ु कोलाहल कलह में हृदय की बात रे मन’ की तरह आप की समृित में दज् हो जाती है। सीभाषा की आधार-भूिम हलैं समृितयाँ। चाहे वह जातीय समृित हो या वयिकगत।9 समाजिवजानी और सािहतय में अनामंितत आलोचक अभय कु मार दुबे ने इन पंिकयों में ‘समृित’ को सी की भाषा और उसकी रचनाशीलता की एकांत िवशेषता मानने का पितवाद करते हुए कहा है िक ‘यह चीज़ तो पुरुष के ऊपर भी उतनी ही लागू होती है, कयोंिक समृित के रचनातमक इसतेमाल के िबना पुरुष तो कया, िकसी िक़सम का, कोई भी सािहतय, उसकी रचनाशीलता संभव नहीं है।’10 ‘पटरी से उतरी हुई औरतों का यूटोिपया’ शीष्क अपने महतवपूण् आलेख में अभय कु मार दुबे अनािमका के उपनयासों दस दारे का पींजरा और ितनका ितनके पास पर िवचार करते हुए (भाषा के ‘मैसकयुिलन जेंडराइजेशन या मदा्नाकरण’ के पितिकयासवरप?) नारीवािदयों दारा िकए जा रहे ‘भाषा के (पुनः) जेंडरीकरण’ का सवाल उठाते हलैं। लेखक को इन उपनयासों में (अनािमका के शबदों में) ‘सरस बोली-बानी की परंपरा’ अथवा ‘लोक-रस’ से सराबोर उसी भाषा की वापसी होती िदखाई देती है, िजसके एक बड़े अंश को (अनािमका के अनुसार) परंपरापदत ‘अशीलता’ के पकालन करने के नाम पर ‘राषटवादी आधुिनकता’ भाषा से िनषकािसत करने पर तुली रही है। सृजन-कम् के दौरान िकए जा रहे इस तरह के नारीवादी भाषा-अभयास को महतवपूण् मानते हुए भी अभय जी उसे िकसी हद तक ‘भाषा के (पुनः) जेंडरीकरण’ के संदभ् में िवशेिषत करने के पक में लगते हलैं। उक आलेख में आई यें पंिकयाँ दषवय हलैं : दरअसल नारीवादी सृजनशीलता के िलए भाषा का महतव कु छ अलग तरह का है। िसयों को िकसी-न-िकसी रप में हमेशा ही अपने अलग कमरे की तलाश रहती है। भाषा के माधयम से िसयाँ के वल सािहतय नहीं रचतीं, वरन भाषा दारा पदत कमरे के एकांत में चली जाती हलैं। जैसे 9 10 अभय कु मार दुबे (सं.) (2014) : 119. वही. 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 223 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 223 ही सी भाषा के कमरे में समय िबताना शुर करती है, वह पाठकों को तो समबोिधत करने के साथ-साथ मुखयतः अपने-आप को संबोिधत करने में तललीन हो जाती है।11 पुरुष की भाषा और सी की भाषा में पहला अंतर तो यही है िक िजसका ितरसकार पुरुष ‘गॉिसप’ कह कर करता है, वह सी के िलए िनतय-पित होने वाला आपसी ‘एकसचेंज ऑफ़ डेटा’ है, िजसमें मैसकयुिलन जेंडर की कोई भागीदारी ही नहीं है। 12 कु ल िमलाकर यही कहना उिचत होगा िक ‘रचनातमक िखलंदड़ापन’13 से उतफु लल भाषा में आकार लेतीं, अनािमका की अभयुिकयाँ न के वल राजेंद यादव के उदृत िवचारों से िबलकु ल अलग सी लाइन पकड़ती हलैं, बिलक वह ‘सीभाषा’ (िलंग-बोली) के पूव्वोक िचंतकों से भी अिधक िविचत हलैं। उन िचंतकों में तो इस बात के कहीं-कहीं संकेत भी हलैं िक िसयों की कितपय भािषक िवलकणताएँ सभयता में अब तक मौजूद रहे िलंग-भेद के पभाव के रप में हो सकती हलैं, लेिकन अनािमका समाजवैजािनक जिटल यथाथ् से लगभग कट कर, पूणत् ः जैिवक और मनोवैजािनक धरातल पर पुरुष-भाषा के समांतर सीभाषा को खड़ा करने की कावयातमक कोिशश करती नज़र आती हलैं, िजसमें सरलीकरण के अिधक ख़तरे मौजूद हलैं। पुरािे भारतीय सा ह मे Tीभाषा के संकेत भारतीय वाङ्मय के आिदगंथ के रप में बहुमािनत ऋगवेद में ‘वाक् ’ (भाषा) की अथ्-गूढ़ता और रहसयमयता को लेकर एक चिच्त छं द है, िजसका भाव है िक मूढ़ लोग तो वाणी को देख कर भी नहीं देख पाते तथा सुन कर भी नहीं सुन पाते। परं त,ु िवदानों के समक वाणी अपने को सवयं ही पकट कर देती है जैसे सुंदर वसों से आवृत सी अपने पेमी के समक सवयं को िनरावृत कर देती है।14 एक सतर पर यह पेमल और मधुर दांपतय से सुवािसत लगता है, तो 11 अभय कु मार दुबे (2018) : 150. वही : 174. 13 अभय कु मार दुबे (सं.) (2014) : 119-20. अभय कु मार दुबे : ‘आप िजस सीभाषा की वकालत कर रही हलैं वह िडसकरिसव फ़ॉम् यहाँ मौजूद है. इस में एक बहुत रचनातमक िखलंदड़ापन है ... इस में एक ख़ास तरह की वाकय रचना है ... इस के अंदर हैबरमास भी आ जाते हलैं, फ़हमीदा ररयाज़ भी आ जाती हलैं, रघुवंश का शोक भी है, घनानंद भी हलैं, शोदरो भी हलैं, इररगेरी भी हलैं ... लेिकन यह भाषा हम लोगों के िलए जो समाजिवजान की भाषा रचने में लगे हुए हलैं, एक ख़ास तरह की चुनौती है. अगर िसयाँ िवमश्शी िहंदी िवकिसत करने की पि्रिया में एक अलग तरह की िहंदी िवकिसत कर सकती हैं, तो मुझे लगता है िक उन का बहुत बड़ा योगदान होगा.’ (ज़ोर हमारा) 14 शीपाद दामोदर सातवलेकर (भाषयकार, 1985) : 146. ऋिष : बृहसपितरांिगरसः देवता : जानम्. छं द : ितषुप.् उत तवः पशयनन ददश् वाचमुत तवः शृणवनन शृणोतयेनाम्. उतो तवसमै तनवं िवससे जायेव पतय उशती सुवासाः.. (ऋगवेद, 10/71/4) सातवलेकर दारा कृ त अनुवाद : एक तो वाणी को मन से देखता हुआ भी नहीं अजानता के कारण देख सकता; और दूसरा इस वाणी को सुन कर भी (अथ् न समझने के कारण) नहीं सुन सकता. वह वाणी िकसी के पास अपने जानरप को सवयं िवशेष 12 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 224 224 | िमान दूसरे सतर पर िववाह-संसथा में पुरुष और सी के सोपानीकृ त संबंध को संकेितत करते हुए, ‘पेम’ की आड़ में सी के यौन-वसतुकरण की गंध से सराबोर (यािन, िपतृसतातमक उपमानिवधान से पूण)् भी! सुकुमार सेन ने अपनी पूव्वोक पुसतक में वैिदक कवियितयों (ऋिषकाओं)15 दारा रिचत पकार से इस पकार पकट करती है, जैसे पित के सुख के िलए सुंदर वस पररधान कर पतनी अपना रमणीय मोहमय शरीर पित के पास पकट करती है. 15 सुकुमार सेन की उक पुसतक (पृष 65) तथा अनय सोतों के अनुसार, ‘ऋगवेद’ के िनमनांिकत सूकों और ऋचाओं की रचना का शेय कवियितयों को िदया जाता है: : 1. वाक् आंभणृ ी : दशम मंडल का 125 वाँ सूक 2. यमी वैवसवती : दशम मंडल में 10.1,3,5,6,11,13 3. रोमशा बहवािदनी : पथम मंडल के 126.7 4. लोपामुदा : पथम मंडल का 179 वाँ सूक 5. िवशवारा : पंचम मंडल का 28 वाँ सूक 6. अपाला आतेयी : अषम मंडल का 91 वाँ सूक 7. घोषा काकीवती : दशम मंडल का 39 वाँ तथा 40 वाँ सूक 8. सूया् सािवती : दशम मंडल का 85 वाँ सूक 9. सरमा : दशम मंडल में 108.2,4,6,8,10,18 10. उव्शी : दशम मंडल में 95.2,4,5,7,11,13,15,16 11. इंदाणी : दशम मंडल में 86.2,4,6,9,15,16,17 और 145 वाँ सूक 12. शची पौलोमी : दशम मंडल का 159 वाँ सूक (आतमसतुित). इनके साथ, 8.55.2-8 और 9.112 भी जोड़े जा सकते हलैं. शीपाद दामोदर सातवलेकर ( भाषयकार, 1985) : 82-83, 269 यहाँ नमूने के तौर पर ऋगवेद की घोषा काकीवती और वाक् आमभृणी : इन दो कवियितयों की िनमनांिकत ऋचाएँ पसतुत की जा रही हलैं:(क) ऋिष : घोषा काकीवती, देवता : अि्विनीकु मार, छं द -जगती जिनष योषा पतयत् कनीनको िव चारुहन् वीरुधो दंसना अनु. आसमै रीयंते िनवनेव िसंधवो असमा अहे भवित तत् पिततवनम् ॥ जीवं रुदंितिव मयंित अधवरे दीघा्मनु पिसितं दीिधयुन्रः. वामं िपतृभयो य इदं समेरररे मयः पितभयो जनयः पररषवजे ॥ : ऋगवेद, 10/40/9-10.(ज़ोर हमारा) सातवलेकर-कृ त अनुवाद : हे अिशदय! तुमहारी कृ पा से यह घोषा नारी-लकण पाप करके सौभागयवती हुई; इसे कनयेचछु क पित पाप होवे; इसिलए तुमहारी कृ पा से वृिष होने के कारण उतम औषिधयाँ-शसय आिद उतपनन होवें; इस तेजसवी पुरुष की ओर िनमनािभमुखी होकर निदयाँ भी बह रही हलैं; वह रोगरिहत हलैं; शतुओ ं से न मारे जाने वाले इसको तब ही पिततव पाप होता है ... 9॥ हे अिशदय! जो लोग अपनी सी की पाणरका के िलए रोते हलैं; और उन िसयों को यजकाय् में िनयुक करते हलैं; और उनका अपनी बाँहों से पदीघ् आिलंगन करते हलैं; और वे अपने पित के िलए उतम संतान उतपनन करती हलैं; और िसयाँ भी पित को आिलंगन देकर उसको तथा सवयं को सुख पाप करती हलैं ... 10॥ (ख) ऋिष : वाक् आमभृणी, देवता : आतमा, छं द : ितष्टु प् अहमेव ्वयिमदं वदािम जुषदं वे ेिभरुत मानुषिे भः. यं कामये तं तमुगं कृ णोिम तं बहाणं तमृिषं तं सुमधे ाम् ॥ : ऋगवेद, 10/125/5 सातवलेकर कृ त अनुवाद : मलैं सवयं ही इस जान का उपदेश करती हू,ँ िजसको देव और मनुषय शदापूव्क मनन करते हलैं; अनुभव करते हलैं. मलैं िजसको चाहती हू,ँ उसको शेष बलवान् करती हू.ँ उसको ही सतोता : बहा, उसको ही ऋिष और उसको ही उतम बुिदमान् करती हू.ँ (ज़ोर हमारा) ‘शीदुगा्सपशती’ (– गीतापेस, गोरखपुर ) में ‘ऋगवेद’ दशम मंडल का 125 वाँ सूक ‘देवीसूक’ के नाम से सिममिलत िकया 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 225 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 225 छं दों में से कु छ ऐसे शबद (संजा, िवशेषण आिद) ढूँढ़ कर रखे हलैं, जो आगे उिललिखत सथलों के िसवा वैिदक सािहतय में अनयत पायः नहीं िमलते। इनहें वे वैिदक के अंतग्त ‘सीभाषा’ (‘िलंग-बोली’) के संिदगध उदाहरण मानते हलैं। हालाँिक उनके आधार पर िकसी िनषकष् पर पहुचँ ने के वे पकधर नहीं हलैं। उनके अनुसार शासीय संसकृ त में िलंग-बोली िनशान न के बराबर हलैं, पर मधयकालीन आय्भाषा (पाकृ त) ऐसे उदाहरणों से भरी हुई है। उनके दारा पसतुत कु छ उललेखय वैिदक उदाहरण16 िनमनांिकत हलैं : * ‘ऋगवेद’ में : गृहपतनी (10.85.26), शरार (भष करने वाला,10.86.9), अदुरमंगली (िजसके आने से अमंगल न हो अथा्त् नववधू,10.59.2), तलपशीवरी (िबसतर पर लेटी सी,7.55.88), िपतृषद् (माँ-बाप के साथ रहने वाली यािन अिववािहता कनया, इस शबद का पयोग अवमाननासूचक अथ् में हुआ है, 1.117.7), िवदला (चालाक या धूत् सी,10.159.1), सुभसतरा (अतयिधक आकष्क िनतंबों वाली,10.86.6), सुयाशुतरा (मैथनु िकया में अिधक सकम,10.86.6), अमाजुर ् (अपने माँ-बाप के साथ रहने वाली िवगतयौवना कनया,‘ऋगवेद’ में तीन बार पयुक 2.16.7; 8.21.15 और 10.39.33), नयोचनी (सौमया, मनोहरा, 10.85.6), ‘वत’! (िवसमयािदबोधक शबद : अचछा!, हाय!, 10.10.30) * ‘अथव्वेद’ में : अवतोका (वह सी िजसका गभ्पात होता है, 8.6.9), कमल (वासनापूण,् 8.6.9), पेिण (पेम, 6.89.1), समर (पेमाकष्ण, 6.130.1), संभल (िववाह के िलए फु सलाने वाला, 2.36) इनके साथ, सुकुमार सेन ने शासीय संसकृ त से भी दो उदाहरण पसतुत िकए हलैं, िजनका पयोग के वल िसयों दारा होता है : ‘आिल/आली’ (मिहला िमत, मधयकालीन आय्भाषा में भी पयुक) और ‘उलुिल/उलुल’ु (मांगिलक अवसरों पर िसयों के रुदन का अनुकरणातमक शबद) जैसे शबद िमलते हलैं। ‘ऋगवेद’ में िसफ़् एक बार पयुक उपयु्क ‘वत’ शबद भी शासीय संसकृ त में बहुत बार आया है। इसी संदभ् में, संसकृ त नाटकों की उस िवलकण पवृित की ओर दृिषपात करना उिचत होगा, िजसके तहत पुरुष पात तो संसकृ त बोलते हलैं, परं तु (कु छ दैवी/आष् आभा से मंिडत िसयों के िसवा बाक़ी) िसयाँ ‘पाकृ त’ बोलती हलैं। िवचारकों का एक बड़ा वग् इस पवृित को भारतीय समाज में भाषा-िवशेष के पयोग के अिधकार को ललैंिगक संदभ् में सीिमत करने के रप में वयाखयाियत करता है, जैसा िक ऑटो जेसपस्न ने कहा है— ‘िनिशत रप से इसका कारण यह है िक िसयों की सामािजक िसथित इतनी िनकृ ष थी िक उनका सथान िनमन दज्वे के गया है, िजसके अनुवादक रामनारायणदत शासी ‘राम’ के कथनानुसार, ‘महिष् अमभृण की कनया का नाम वाक् था. वह बड़ी बहजािननी थी. उसने देवी के साथ अिभननता पाप कर ली थी. उसी के ये उदार हलैं.’ उनहोंने उक मंत का अथ् इस पकार िकया है : ‘मलैं सवयं ही देवताओं और मनुषयों दारा सेिवत इस दुल्भ ततव का वण्न करती हू.ँ मलैं िजस-िजस पुरुष की रका करना चाहती हू,ँ उस-उस को सब की अपेका अिधक शिकशाली बना देती हू.ँ उसी को सृिषकता् बहा, परोक जान संपनन ऋिष तथा उतम मेधा से युक बनाती हू’ँ . 16 सुकुमार सेन (2009) : 60-65. 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 226 226 | िमान पुरुषों के तुलय ही था एवं उस उचच संसकृ ित में उनकी साझेदारी नहीं थी िजस पर पररमािज्त भाषा बोलने वाले कु छ चुने हुए लोगों के िकसी छोटे से वग् का िवशेषािधकार था।’17 कािलदास, राजशेखर, भवभूित, हष् आिद के संसकृ त-नाटकों के पाकृ त अंशों, थेरीगाथा व गाथासत्तसई (हाल) के साथ वररुिच और हेमचंद के वयाकरणों की पाकृ त पाररभािषक शबदाविलयों में सुकुमार सेन को बड़ी माता में ऐसे शबद और लोकोिकमूलक उदार िमले हलैं, िजनका संबंध उनके अनुसार सपषतः सीभाषा से है।18 उनमें से कु छ उललेखनीय पयोग िनमनांिकत हलैं : अणुसूआ (िवकिसत गभा्वसथा में कोई सी), अककसाला (हलके नशे की हालत में कोई सी), के ली (कीड़ा), अणडो/अणाडो (रखेल), अिहिवणणा (कोई सी िजसके जीवन में बाद में सौत आती है ), आनंदवडा (संसकृ त ‘आनंदपट’, पथम मािसक धम् के दौरान कनया का वस), आिव (पसव-पीड़ा), साहुली (सी-िमत), कोलीण (बुरी बातचीत), गोवी (बचची), कोट् वी (नगन सी), इंदमहो (अबयाहता सी का पुत), पणामिणआ (सी का सी के पित पेम), िछणणालो/िछणणो (चररतहीन पुरुष), पीलुआ (उम्र में छोटी), पुआ/पुआइनी (िविकप सी, पेतातमा-गसत सी), बुंिदनी (अिववािहता कनयाओं का झुंड), बाउललअ (गुिड़या), वरै तो (नविववािहत युवक), वहुहािडनी (दूसरी पतनी), संपितआ (कनया िशशु), हलहलअ (िचंता), अपिजजआ (पड़ोसन), ओलैनी (िपयतमा), छे आ (हािज़रजवाब सी), कं डजजुआ (अित साधारण लड़की), अकका (माता), अजजुका (माता, ‘िपयदिश्का’ नाटक में), अता (माता, बड़ी बहन, बुआ, सास), अजजू (सास), अणणी (ननद, बुआ, देवरानी), अममा (संसकृ त ‘अमबा’, माता), अलला (माता), अबबा सुिबबआ (माता), पुफफा (ननद), भाउजजा (भाभी),भाओ (बड़ी बहन के पित), मादिलआ (माता, मौसी), मािमका (छोटी माता, ‘थेरीगाथा’, 207), वहुबबा (छोटी सास), वहुमाआ (‘बहू’ को सनेह/आदर में ‘वधुमाता’ कहा जाता होगा, गाथासत्तसई, 6.7, बांगला में ‘बोउमाँ’), सभररआ (सौत, संसकृ त में ‘सभाया्’, थेरीगाथा), अणणओ / एककघररलल / छे ओ / दुदमो (देवर) आिद। 17 सुकुमार सेन (2009) : 66. सुकुमार सेन ने जेसपस्न की ‘ललैंगवेज: इट् स नेचर, डे वलपमेंट ऐंड ओररिजन’ (1928, पथम संसकरण का तीसरा पुनमु्दण) नामक िकताब (पृष 241) का उक मत उदृत कर, उससे घोर असहमित वयक की है. इस संबंध में उनके िवतक् इस पकार हलैं:– 1) ‘सटक’ नामक शेणी के नाटकों में सारे पात पाकृ त बोलते हलैं. जैसे : ‘कपू्रमंजरी’ (राजशेखर). 2) ‘भाण’ नामक एकालाप अिभनय में सभी पात संसकृ त बोलते हलैं. 3) तपिसविनयों एवं िभकुिणयों, साथ ही नारी के रप में मानवीकृ त सदुणों (लाकिणक नाटकों में) की वाणी पाकृ त के सथान पर संसकृ त है. जैसे : मधय एिशया से पाप अशघोष के नाट् यखंडों में बुिद, धृित, कीित् नामक पातों की भाषा संसकृ त ही है. ‘पबोधचंदोदय’ में शांित, शदा, कमा आिद की भाषा संसकृ त है, जबिक रित, मित, तृषणा आिद की भाषा पाकृ त है. 4) संसकृ त की तुलना में पाकृ त भाषा के अिधक कण्िपय एवं सुरीली होने के कारण नाटकों में सी पात (नाियकाएँ एवं उचचवग्जीय िसयाँ) पाकृ त बोलती हलैं. 18 सुकुमार सेन (2009) : 66-73. 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 227 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 227 सुकुमार सेन के अनुसार, ‘साह’ (बोलना) िकया का पयोग गाथासत्तसई में के वल िसयों की भाषा में होता था, परं तु अनयत इसका पयोग इतना सीिमत नहीं था। उनके अनुसार, िसयों की भाषा में ‘खाना’ िकया समसत भारतीय आय्भाषा में ‘खोने’ के अथ् में मुहावरे की तरह आता था : ‘साजज सबबािन खािदतवा सता पुतािन बाहिण। वासेरट के न वाणणेन न बालहम् पररतपपिस’ (सात बचचों को खाने (खोने) के बाद ओ वसेरट बाहणी! तुमहें आज पशाताप कयों नहीं?, थेरीगाथा, 313) उनकी उक पुसतक में मधयकालीन आय्भाषा से कु छ पूरक/तिकयाकलाम शबद भी इकटे िकए गए हलैं, जो मिहलाओं के बीच की आपसी मैती में पयुक होते थे। जैसे, मामी (गाथासत्तसई), हाला, हाले! अममो, अमहो, अममाहे! (तीनों पसननता व आशय्/िवसमय वयक करने वाले शबद), ऊ (अपसननता व आशय् वयक करने हेत,ु हेमचंद, 2.199), अलािह (= दूर हटो, गाहासतसई), थू (= छी!, थू िनलजजो, हेमचंद, 2.200), हँजे/हणडे (= िनमन वग् की िसयों दारा पयुक होने वाला संबोधन), हदी, हिद/हदी (दुःख पकट करने हेतु पयुक, संसकृ त ‘हा िधक् !’) आिद। इनके अलावा, संसकृ त-नाटकों के सी पातों की भाषा से कु छ लोकोिकमूलक अिभवयिकयाँ भी उक पुसतक में संकिलत की गई हलैं। जैसे, ‘को जुणणमँजरं कँ िजरे ण वेआररउँ तरै ’ (= खटी दिलया से बूढ़ी िबलली को कौन ललचाए, गाथासत्तसई, 3-86),‘िकं ददुरा वाहरं ित ित देवो पुढिवं वाररिसंधु िवसुमरिद’ (= मेढ़क के टर् -टों से कया देवता जल बरसाना बंद कर देंगे?, मालिवकािगनमतम्) आिद। रे ी मे Tी-भाषा भारतीय सािहतय में सी-भाषा के सोतों की यह चचा् शायद अधूरी रहेगी, यिद हम उदू-् लेखन में पयुक ‘रे खती’ का उललेख न करें । ‘रे खती’ के बारे में कहा जाता है िक 18वीं सदी (ई.) के अंत में लखनऊ में जनमी उदू् किवता की एक शैली है, िजसमें िसयों के िनजी जीवन से संबंध रखने वाली बातें : पाररवाररक जीवन में सी की वेदना, पित की बेवफ़ाई, घर वालों के वयवहार आिद के साथ पेम या यौन-पसंग आिद : िसयों की ही बोलचाल (सथानीय शबदावली, मुहावरे , बलाघात आिद, जो अपेकाकृ त सी-समाज में अिधक पचिलत थे) में िचितत की जाती थीं।19 इस तरह की रचनाओं की भाषा ततकालीन किथत ‘सभय’ और ‘मानक’ उदू् से कु छ हट कर थी। ‘रे खती’ के अंतग्त, पेम-पसंगों से संबद कई िचतणों पर अकसर भाषाई ‘अशीलता’ का आरोप भी लगते रहा है। कु छ लोगों का िवचार है िक ‘रे खती’ उदू-् किवता का अिशष, वीभतस और िछछोरापन से भरा रप है, िजसमें जान-बूझ कर वासनापूण् भावों को पकट करने हेतु हरम की भाषा का उपयोग िकया गया था और िजसका अिभपाय लोगों को हँसाने और कामोतेजना के िसवा और कु छ नहीं था। सआदत 19 सैयद एहतेशाम हुसैन (2002) : 284. ‘िसयों की भाषा में िसयों ही के संबंध में जो किवताएँ िलखी गई हलैं, उनको ‘रे खती’ कहते हलैं. इनमें िसयों के पाररवाररक जीवन और सामािजक बंधनों का वण्न और कभी अशील वण्न होता है’. 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 228 228 | िमान यार खाँ ‘रं गीन (1756-1835), इंशाअलला खाँ ‘इंशा’ (1752-1817), मीर यार अली ‘जान’ (मृतयु संभवतः 1897), मोहिसन खान मोहिसन आिद ‘रे खती’ के उललेखनीय रचनाकार रहे हलैं। ‘रं गीन’ का दावा है िक इस तरह की कावय-शैली का पारं भ ख़ुद उनहोंने िकया है। वैसे इस ढंग की रचनाओं की पािप इनसे क़रीब डेढ़ सौ साल पहले ही दिकखनी किवता में िदखने लगती है और कु छ लोग मानते भी हलैं िक सैयद शाह हािशम के चेले, बीजापुर-िनवासी सैयद मीराँ ‘हाशमी’ (मृतयु संभवतः 1697) ही ‘रे खती’ के पवत्क हलैं, जैसा िक चौधरी मुहममद नईम ने एक वकवय में माना है।20 यह िवडबंना ही है िक उदू-् किवता का जनानी रप कही जाने वाली ‘रे खती’ के सारे रचनाकार पुरुष थे। िफर भी, ऐसा मानना शायद अनुिचत नहीं होगा िक सामंती जकड़बंदी वाले काल में हर तरह से ओझल रहे सी-समाज के अनुभवों को (िजनमें से कु छ हद तक उनके साथ हो रहे भेदभाव, शोषण, उनकी घरे लू घुटन वाले अनुभव भी शािमल थे) ‘पुरुष-दृिष से ही सही’, िकसी हद तक उजागर करने की दृिष से उनका ऐितहािसक महतव है। इसके साथ, वे रचनाएँ मुिसलम समाज की ‘सात पद्षों में क़ै द’ औरतों की भाषाई पवृितयों (िजनहें कु छ लोग ‘बेगमाती ज़ुबान’ कहते हलैं) का भी कु छ अता-पता तो देती ही हलैं।21 20 अभय कु मार दुबे (सं.), 2014) : 215, 219. उक पुसतक में संकिलत ‘बेगमाती ज़ुबान या औरतों की ज़ुबान’ शीष्क वकवय में चौधरी मुहममद नईम का िवचार है िक ‘रं गीन का यह दावा ग़लत था ... कयोंिक इससे पहले इससे िमलती-जुलती चीज़ दकखन में िलखी जा चुकी थी. हाशमी यह कर चुके थे बीजापुर में. और िफर सादत यार ख़ाँ ने एक गलॉसरी भी पोड् यसू की थी औरतों की ज़ुबान की, वह भी चुराई हुई थी. वह िसराजुदीन ख़ाँ आरज़ू की थी.’ उक वकवय में नईम ने यह भी कहा है िक रं गीन अपने दीवान की शुरुआत में यह भी दावा करते हलैं िक औरतों की ज़ुबान उनहोंने नयी िदलली की ख़ानिगयों (िजसम का धंधा करने वाली औरतों) की सोहबत में सीखी है, पर नईम उनके इस दावे को भी संिदगध मानते हलैं. नईम ने आगे 1857 के बाद आए नज़ीर मुहममद के उपनयास िमरातुल-उरूस (असग़री-अकबरी की कहानी) में बुरे और अचछे चररत के रप में पसतुत दो बहनों : कमशः अकबरी और असग़री : में बातचीत का संदभ् िदया है, िजसके अनुसार ‘बुरी’ की ज़ुबान बड़ी मुहावरे वाली है, िजसमें ‘रे खती’ वाली सारी बातें िमलती हलैं, िजसे औरतों की ज़ुबान कहा जाता है. वह ज़ुबान नसीबन नाम की नौकरानी से िमलती है. ‘अचछी’ की ज़ुबान में मुहावरे बहुत कम हलैं, और उसकी शबदावली बहुत जयादा मद् िकरदारों (उसके शौहर और बाप) वाली ही है. नईम सािहतय-रचना की इस पवृित पर िटपपणी करते हलैं : ‘औरतों की ज़ुबान को एकबारगी आपने कनेकट कर िदया था बैड करे कटर से, अनैितकता से और वह उसकी िसिगनफ़ायर बन गई थी. गाली बकने, ग़ुससा करने और िसवाय अंधिवशास के उसके भीतर कु छ देखा नहीं जाता था.’ 21 https://rekhta.org/poets, िद. 13.02.20, 1 बजे (अपराह) देखा गया. रे खती किवता के नमूने के तौर पर उक वेबसाइट से चुने हुए कु छ अंश िनमनिलिखत हलैं :– सआदत यार ख़ाँ रंगीन: वो लगाता ही नहीं छाती को हाथ। अपनी छाती मलैं मरोड़ू ँ िकस तरह ॥ या रब शब-ए-जुदाई तो हरिगज़ न हो नसीब। बंदी को यूँ जो चाहे तो कोलहू में पेल डाल॥ होगा जो उसका वसल तो थल बैिठयो रे जी। ये िहज्र के जो िदन हलैं तो अब इनको झेल डाल॥ नींद आती नहीं कमबखत िदवानी आ जा। अपनी बीती कोई कह आज कहानी आ जा॥ हाथ पर तेरे मूए िकस के है छलले का दाग़। दी है ये िकस ने तुझे अपनी िनशानी आ जा॥ ... बाल माथे के जो डोरे से िसए हलैं तू ने। शकल लगती है ितरी आज डरानी आ जा॥ टीस पेड़ू में उठी ऊही िमरी जान गई। मत सता मुझ को दो-गाना ितरे क़ु बा्न गई॥ 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 229 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 229 ाकरण और Tी समाज में वयाप सी-पुरुष िवभेद की छाया के वल कथय और उसका समपेषण करने वाली इकाइयों (शबदावली) या उसकी भाषाई बुनावट तक सीिमत नहीं रही है, अिपतु वह भाषाओं की भाव-पकृ ित यािन वयाकरिणक रप-संरचना तक को अपने आगोश में ले चुकी है, िजसके कारण उनमें ‘िलंग’ का भेद गहरे रप में पैठा हुआ िमलता है, जो कु छ भाषाओं में कम तो कु छ में अिधक िदखलाई पड़ता है। यहाँ हमारा िवशे षण मुखयतः योगातमक भाषाओं 22 के संदभ् में हो रहा है। (अयोगातमक भाषाओं का चूँिक उस तरह का रपइंशा अलला ख़ान : चोटी पे ितरी साँप की है लहर दो-गाना। खाती हूँ ितरे वासते मलैं ज़हर दो-गाना॥ लहर में चोटी के तेरे डर के मारे काँप काँप। चौंक-चौंक उठती हूँ मलैं रातों को कह कर साँप साँप॥ अपना चौंडा न िहला दुम न फु ला ऐ बुलबुल। कह िदया मलैंने नहीं तुझ को िक हाँ री मत चीख़॥ मीर यार अली ‘जान’ : मुझ से िकया िनगोड़े ने बी रात रात भर. तो भी िमटी न उस मुए शैतान की हवस॥ गई थी देखने बाजी मलैं सूरज-कुं ड का मेला. बची हूँ िपसते िपसते मदुओ ् ं का ये हुआ रे ला॥ लगे धकके पे धकके ऐसे अंिगया हो गई पुज़्वे। िमरी पतथर की छाती थी िसतम मलैंने जो ये झेला॥ .... हमेशा से नहीं कु छ मद् की रं डी को खवािहश है। िमरी नारं िगयों से आप का बेहतर नहीं के ला॥ माँ बाप का ख़याल तो िदल से उठा िदया। ऐ बाजी आज कल की हलैं सब लड़िकयाँ ख़राब॥ वबाल जीना है दम उलझता है कया करँ बाल मलैं बढ़ा कर। जो अपने आिशक़ थे चल बसे ऊही मुझ को जंजाल में फँ सा कर॥ िनकाही-बयाही को छोड़ बैठे मताई रं डी को घर में डाला। बनाया साहब इमाम-बाड़ा ख़ुदा की मिसजद को तुमने ढा कर॥ आबर लेने का रहता है ये तािलब रात िदन। नस-कटा खवाजा-सरा बैरी िमरा मतलूब है॥ मोहिसन ख़ान मोहिसन : मुहँ -लगे भड़वे बनाएँगे न कया कया अबतर। चौक जा जा के न हो जाएँगे कया मेरे बाद॥ ख़ुश हो के सास ने कहा दुलहन से रशक-ए-गुल। दम से तुमहारे घर िमरा आबाद है बहुत॥ रखते लाला हलैं रं िडयाँ घर में। घर की बीवी के सामने ये ग़ज़ब॥ उक रचनाओं में कई जगहों पर ‘रं डी’ शबद आया है. पर, पूव्-संदिभ्त (संदभ् संखया 74) िवचारक चौधरी मुहममद नईम का उक वकवय में यह भी मानना है िक ‘रं डी उस ज़माने में औरत के अथ् में भी इसतेमाल होता था, उसका लािज़मी अथ् वेशया से नहीं था.’ (अभय कु मार दुबे दारा समपािदत ‘िहंदी आधुिनकता: एक पुनिवविचार, खंड 1’ से, पृष संखया 216) 22 िजस भाषा में वयाकरिणक संबंधकारी ततव या संबंध-ततव/रचना-ततव (जैसे : उपसग्, पतयय, िवभिक/परसग्/ अंतःसग् आिद ) नहीं होते या पकट रप से िदखलाई नहीं पड़ते और िबना इन के पतयक योग के ही वाकय अथवा वाकयगत (शबदों के आपसी) वयाकरिणक संबंधों की रचना होती है, उसे अयोगातमक भाषा कहते हलैं. अयोगातमक भाषा के शबद पायः एक अकर (िसलेबल) के होते हलैं. ऐसी भाषा का हर शबद सवतंत और अपररवत्जी इकाई के रप में होता है. मतलब, उसमें िकसी शबद से (उपसग्-पतयय-समास आिद के संयोग दारा) िकसी अनय शबद का िनमा्ण नहीं होता और न ही िकसी शबद के वाकय में पयुक होने पर उसमें रप-िवकार आता है. अयोगातमक वग् की पितिनिध भाषा चीनी है. इसके अितररक सूडानी, मलय, अनामी, बम्जी, थाई (सयामी), ितबबती (भोट), मैतै (मेईथेई, मिणपुर), गारो, बोड़ो, नागा, नेवारी आिद भी इसी वग् में हलैं. िजस भाषा में उक वयाकरिणक संबंधकारी ततवों के पतयक योग से शबदों की वयुतपित और वाकय अथवा वाकयगत (शबदों के आपसी) वयाकरिणक संबंधों की रचना होती है, उसे योगातमक भाषा कहते हलैं. जहाँ िकसी ‘अयोगातमक’ भाषा के सभी शबदों का िकनहीं अनय शबदों से वयुतपित या रप-रचना संबंधी ररशता नहीं होता, वहीं योगातमक भाषाओं में बहुतेरे शबद कु छ मूल घटकों (पकृ ित, पतयय, उपसग् आिद) के (‘पकृ ित-पतयय-पिकया’ या ‘समास-पिकया’ के तहत हुए) संयोग के पररणाम 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 230 230 | िमान रचनापरक वयाकरण नहीं होता, अतः िफ़लहाल इस दृिष से उन पर िवचार को हम यहाँ लगभग छोड़ कर चल रहे हलैं।)23 कोई भाषा अंततः कु छ ख़ास िनयमों के अनुसार बनी वयवसथा होती है; िजसे भाषा का ‘अंतिन्िहत वयाकरण’ कहा जा सकता है। लेिकन, आम तौर पर ‘वयाकरण’ को इस अथ् में गहण नहीं िकया जाता, बिलक भाषा-िनिहत ‘वयाकरण’ (भाषाई वयवसथा, जो पाकृ ितक जैसी िदखती है) को उदािटत और िवशेिषत करने या उस िवशेषण को पुसतकीय रप देने का पयतन अथवा पुसतकीय रप में िनबद वसतु-िवशेष (शास) को ही सामानयतः ‘वयाकरण’ कहा जाता है। इस ‘वयाकरण’ का उदाटन या रचना िजन पबुद लोगों दारा िकया जाता है, वे भाषा-अधयेता या वैयाकरण कहलाते हलैं। यहाँ हम ‘वयाकरण’ शबद को दोनो अथ्षों में लेकर चल रहे हलैं। ‘वयाकरण’ के संबधं में यह आम धारणा है िक वह िलंग, जाित, नसल, पंथ (मज़हब), केत आिद संकीण्ताओं से िनरपेक, भाषा का िवशेषण या िववेचन भर है, यािन वह एक वैजािनक अवधारणा है। इस आधार पर ही वयाकरण से यह अपेका की जाती है िक वह भाषा में पयुक पदों या काय्रत संरचनाओं के साथ एकरपता का वयवहार करे , भले वे िकसी सोत से आए हों। पर, इस कसौटी पर वह पूरी तरह खरा नहीं उतर सका है। बाक़ी संदभ्षों में तो वह कमोबेश तटसथवत् आचरण कर भी ले, पर उसकी ‘िलंग’ नामक संकलपना एक गहरी समसया है। हम यहाँ िहंदी-वयाकरण के िवशेष संदभ् में बात कर रहे हलैं और यह िदखलाने का पयास कर रहे हलैं िक उस पर समाज में वयाप तमाम तरह के सतरीकरणों में से अहम सी-पुरुष िवभेद (‘िलंग’ या ‘जेंडर’) नामक पहलू का गहरा पभाव देखने में आता है। सतय तो यह है िक िहंदी-वयाकरण का ‘िलंग’-पकरण सामािजक जेंडर-भेद की छाया है। साथ ही, यह भी सतय है िक िपतृसताई मानिसकता के िशकार वैयाकरणों ने इस छाया को गहनतर बनाने में बड़ी भूिमका िनभाई है। िजस तरह भारोपीय पररवार की कई भाषाओं में शबदों की (पुिललंग/सीिलंग/नपुंसक) ‘िलंग’ नामक (रप-भेदक) कोिट मौजूद है; उसी तरह कई अनय भाषाओं में ‘सजीव’‘िनज्जीव’ या ‘वृहद्’-‘लघु’ (आकार) आिद आधारों पर (रप-भेदक) कोिटयाँ मौजूद हलैं। इन होते हलैं; साथ ही वाकय में शबदों का पयोग रचना-ततवों या संबंध-ततवों (िवभिक/परसग्/अंतःसग् आिद) की पतयक संलगनता के ज़ररये, अकसर रप-िवकार के साथ होता है. दुिनया के अिधकतर िहससों में मौजूद भाषाएँ योगातमक ही हलैं. िहंदी, संसकृ त, अंगेज़ी, तिमल, संथाली आिद इसके उदाहरण हलैं. 23 गुणाकर मुळे (2003) : 65. अयोगातमक भाषाओं की पितिनिध रप में चिच्त ‘चीनी’ भाषा िजस िलिप में िलखी जाती है, उसमें ललैंिगक पूव्गह वयाप िदखाई देते हलैं. चीनी िलिप भाव-िचतातमक िलिप है, िजसमें अथ्षों या भावों के िलए िचतातमक संकेत पयुक िकए जाते हलैं. गुणाकर मुळे ने अपनी उक पुसतक में िज़क िकया है िक चीनी िलिप के संकेतों के छह पकार हलैं, िजन में से तीसरा पकार है संयक ु िचहों का. उनमें दो या दो से अिधक संकेतों को िमला कर िकसी अनय अिभपेत (अथ्/भाव) को वयक िकया जाता है. उदाहरणसवरप, चीनी िलिप में ‘औरत’ के िलए पयुक संकेत का लगातार दो बार पयोग करके जो संयक ु संकेत बनाया जाता है, उससे वयक अथ् है : ‘कलह’. वही संकेत जब तीन बार आता है, तो ‘सािज़श’ का वाचक बन जाता है. सपषतः यह िसथित इस बात की िदगदश्क है िक चीनी िलिप के पयोका समाज में सी को िकस क़दर झगड़ालू और षड् यंतकारी माना जाता रहा है. भारत सिहत दुिनया के अिधकतर िहससों में भी बड़े पैमाने पर सी को ऐसा ही नकारातमक मानने का चलन रहा है, जो पुराने नीितवचनों और लोकोिकयों में अिभवयक होता है. 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 231 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 231 सभी कोिटयों या भेदों को िववेिचत करने के िलए भाषाशासी आजकल ‘जेंडर’ (िलंग24) शबद का इसतेमाल करते हलैं, जैसा िक िफ़लॉसफ़ी ऑफ़ गामर पुसतक में ऑटो जेसपस्न (1860-1943) ने माना है— ‘जेंडर’ शबद से यहाँ अिभपाय िकसी भी वयाकरिणक वग्-भेद से है, िजसकी समानता आय्भाषाओं में पुिललंग, सीिलंग और नपुंसक िलंग में भेद से पाई जाती है ; चाहे वह भेद दो िलंगों के सवाभािवक भेद पर आधाररत हो अथवा सजीव व िनज्जीव के भेद पर अथवा अनय िकसी पर ।25 ‘जेंडर’ शबद से अिभिहत ये सारी कोिटयाँ यदिप बाह जगत् की वसतुओ ं या घटनाओं (यािन, अथ्षों/पदाथ्षों) में अलगाव के बोध पर आधाररत हलैं, तथािप िकसी भाषा का ऐसा कोिट (िलंग) भेद बाहाथ्षों के सुसंगत या तक् पूण् िवभाजन का सदा अनुसरण नहीं करता।26 उदाहरणसवरप, संसकृ त में पतनी के पया्यों में ‘दार’ पुिललंग,27 24 वी.डी. हेगड़ेे (2001) : 2-4. ‘िलंग’ शबद के पयोग का अगिलिखत िववरण मुखयतः लेखक की पुसतक िहंदी की िलंग-पि्रिया से गृहीत हलैं. इसकी सारी संदभ्-सूचनाएँ भी उक पुसतक के अनुसार ही हलैं. ‘िलंग’् धातु (गतयथ्क) + ‘घञ्’ पतयय=िलंग (हलायुधकोश, शबदकलपदुम, संसकृ तशबदाथ्कौसतुभ). ‘गीता’(14/21) और ‘शेताशतरोपिनषद्’ (6/9)में ‘िचह’ के अथ् में िलंग शबद आया है. ‘नयायकोश’ में िलंग ‘गमक’ (= पतीित कराने वाले) को कहते हलैं. जैसे : धुआँ आग का िलंग है. सींग बैल का िलंग है. भाषा-िवशेष मनुषय का िलंग है. गुण अवगुण का और अवगुण गुण का िलंग है. ईशरकृ षण-कृ त ‘सांखयकाररका’ (काररका 10) में ‘महत् ततव आिद काय्जात’ को िलंग कहा गया है. कृ षणयजवरिचत ‘मीमांसापररभाषा’ में ‘िलंग’ का तातपय् अथ्-पकाशन सामथय् से है. िहंद-ू पुराणों में िशव का मूत् पतीक है ‘िलंग’, जो सृजन का पतीक है. ‘आपटे’ आिद अनेक कोशों में ‘िचह’ को ‘िलंग’ का पहला अथ् माना गया है. भवभूित ने ‘जाित’ (सेकस) के अथ् में ‘िलंग’ शबद का इसतेमाल िकया है : गुणाः पूजा्थानं गुिणषु न च िलंगं न च वयः. (उत्तररामचररतम्, 4-11). सािहतयशास में अनेकाथ्क शबदों के पसंग में अथ्-िनधा्रक हेत-ु िवशेष है ‘िलंग’. यहाँ ‘िलंग’ का अथ् िचह है, न िक सीिलंग-पुिललंग आिद वयाकरिणक कोिट िवशेष (िलंग/जेंडर). कई बार, कोई िचह (जैसे : िवशेषण या िकया) अथा्त् ‘िलंग’ देख कर अथ् तय िकया जाता है. जैसे : ‘कु िपत मकरधवज’ में ‘मकरधवज’ का अथ् कामदेव होगा, न िक सागर; कयोंिक ‘कु िपत’ िवशेषण उसका िलंग है. इसी तरह, ‘बरसत घनशयाम’ में िकया ‘बरसत’ से ‘घनशयाम’ का अथ् तय हो गया : ‘बादल’. अब, उसका अथ् कृ षण लगाना वयथ् है. उक वयाकरिणक ‘िलंग’ को सािहतयशास में ‘वयिक’ कहा गया है. वह भी अथ्-िनयामक ततव है. जैसे : ‘िमत’ शबद अलग-अलग िलंगों में अलग-अलग अथ् रखता है. िमतम् भाित. (दोसत); िमतो भाित... (सूय)् . पािणिन ने भी वयाकरिणक ‘िलंग’ की जगह ‘वयिक’ शबद का पयोग िकया है: : ‘लुिप युकवद् वयिकवचने.’ (‘अषाधयायी’,1-2-51) वैसे उनहोंने अपनी अनय कृ ित ‘िलंगानुशासनम्’ में ‘िलंग’ शबद का भी पयोग उक अथ् में भी िकया है. जैसे : पहला सूत है : ‘िलंगम्’. खंडों के नाम हलैं : ‘अथ पुँिललंगािधकारः’ आिद. (पािणिनपंचकम्, सं. धम्मेंदकु मार, िदलली संसकृ त अकादमी, नयी िदलली, 2014.15, पृष 237) 25 ऑटो जेसपस्न (1935) : 226. 26 वी.डी. हेगड़ेे (2001) : 6. वयाकरिणक िलंग (जेंडर) वाली भाषाओं के िवषय में लेखक की पु्तक िहंदी की िलंग-पि्रिया में पितपािदत िकया गया है िक ‘मनुषय वगवि के अंतगवित आने वाले शबददों में जाित (सेकस) और िलंग (जेंडर) की िजतनी समि्वित पाई जाती है, उतनी ही समि्वित (Conformity) अ्य वग्गों के शबददों के िवषय में पाई नहीं जाती.’ पुसतक इसे िनमनांिकत तरह से सूतबद करती है : 1) मनुषय वग् के वाचक शबदों में जाित (सेकस) और िलंग (जेंडर) की समिनवित या मेल सवा्िधक है. 2) पशु वग् के वाचक शबदों में इनकी कम समिनवित साधारण होती है. 3) पकी वग् के वाचक शबदों में इनकी समिनवित होती है. 4) अनय वग् के वाचक शबदों में इनकी समिनवित की उपेका होती है. 27 देवेंदनाथ शमा् (2005) : 231. ‘दार शबद का पयोग पुिललंग और बहुवचन में ही होता है.’ 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 232 232 | िमान ‘भाया्’ सीिलंग और ‘कलतम्’ नपुंसकिलंग में है। संसकृ त ‘कलतम्’ के समान जम्न में ‘मैड्खने ’ (= कु मारी) नपुंसक िलंग में है। रसी में सूय् का पया्य ‘सोनतसे’ नपुंसकिलंग और चंदमा का पया्य ‘लुना’ सीिलंग है। पुसतक के िलए पयुक शबद ‘िलबेर’ (लैिटन) और ‘लीव’ (फांसीसी) पुिललंग हलैं; ‘िबलबोस’ (गीक) सीिलंग। अवधी में ‘वह’ पुं., ‘वहु’ सी.; िहंदी में ‘वह’ सी-पुरुष दोनों के िलए। इसी तरह, िहंदी सिहत अनेक भाषाओं में िनज्जीव (यािन, वसतुतः अिलंगक) वसतुओ ं के वाचक शबद पुिललंग और सीिलंग में पाप हलैं।28 वयाकरिणक कोिटयों में वचन, काल, पुरुष का संबंध वासतिवक (लौिकक) जगत् से सीधा है, परं तु ‘िलंग’ का संबंध सीधा नहीं है।29 अमेररकी भाषािवजानी और पाचयिवद् लुइस हब्ट् गे (1875-1955) वयाकरिणक ‘िलंग’ का मूल सोत ‘सव्चते नवाद’ में खोजते हलैं।30 इस सथापना को सवीकार करते हुए, हमारा पयास यह सपष करने का है िक हमारी भाषा के वयाकरण में वयाप ‘िलंग’ नामक अवधारणा सिदयों से समाज में चल रहे सी-पुरुषमूलक िवभेद-भावना का पितिबंब है, पर साथ ही (जैसा िक समाज में रहा है, वैसा ही) पुिललंग का वच्सव भी सीिलंग पर िदखलाती है। यािन, पुिललंग के सामने सीिलंग को दोयम दज्वे का िसद मान कर, ‘िलंग’ (जेंडर) नामक अवधारणा खड़ी हुई है। िजस तरह की िलंग -अवधारणा िहंदी-वयाकरण (भाषाई-वयवसथा रप आंतररक वयाकरण और भाषा-िवशे षण के पयतन रप बाह वयाकरण) पर छाई हुई है, वह िहंदीवयाकरण के ‘पुरुषवादी’ होने की ओर इशारा करती है। इसका सबसे पहला और बड़ा संकेत तो यही है िक इस अथ् में पािणिन और सािहतयदपविण कार िवशनाथ दारा पयुक ‘वयिक’ शबद को हटाकर (िहंदी) वैयाकरणों ने ‘िलंग’ शबद को अपनाया है। यिद भाषा 28 के .ए.एस.अययर (1991) : 397. ‘िलंग के भेद व्तुओ ं के सजीव तथा िनज्शीव, पुरुष तथा सी अथवा छोटे या बड़े के भेद पर मूल रूप से भले आधाररत रहे हदों, िकं तु भाषा-िवशेष में इन भेददों का इितहास मात बाहरी आकारी कारणदों से िनधाविररत हुआ है’. 29 देवेंदनाथ शमा् (2005) : 230-32. ‘पाकृ ितक िलंग की दृिष से पतनीवाचक शबदों को सदा सीिलंग होना चािहए, िकं तु संसकृ त में पतनी के पया्यों में ‘दार’ पुिललंग, ‘भाया्’ सीिलंग और ‘कलत’ नपुंसकिलंग है ... रसी में सूय् का पया्य ‘सोनतसे’ नपुंसकिलंग और चंदमा का पया्य ‘लुना’ सीिलंग है .... यिद पाकृ ितक िलंग के अनुसार वयाकरिणक िलंग की कलपना हुई होती तो सभी भाषाओं में िलंग का एक ही रप होना चािहए था, पर ऐसा नहीं पाया जाता. िकसी भाषा की िलंग-वयवसथा सी-पुरुष को आधार बना कर चली है तो िकसी भाषा की सचेतन-अचेतन को और िकसी भाषा की शेष-हीन को. दूसरी बात, पाकृ ितक िलंग के अनुसार पुिललंगसीिलंग की कलपना तो संगत है, पर नपुंसकिलंग की कलपना कयों कर हुई? यिद कहें िक िनज्जीव वसतुओ ं के िलए नपुंसकिलंग की कलपना की गई तो यह भी पतयक-िवरोध है, कयोंिक िजन भाषाओं में नपुंसकिलंग है, उनमें भी उसका पयोग के वल िनज्जीव वसतुओ ं के िलए ही नहीं होता. संसकृ त में ही सखावाचक ‘िमत’ शबद नपुंसकिलंग है, पर िमत या तो पुरुष हो सकता है या सी ... एक दूसरी किठनाई यह भी है िक सभी भाषाओं में िलंग की संखया एक नहीं है. कु छ भाषाओं में जैसे िहंदी या अंगेज़ी में दो ही िलंग हलैं; संसकृ त, गीक, जम्न,रसी, मराठी, गुजराती आिद में तीन िलंग हलैं और कॉके शी पररवार की ‘चेचीन’ भाषा में संजा के छह िलंग पाए जाते हलैं. यह िलंगभेद इस बात को पमािणत करता है िक िलंग-संबंधी धारणा का कोई तक् संगत आधार नहीं है ... यिद िलंग पाकृ ितक दृिष से िनिशत और अपररवत्नीय होता तो पुिललंग से सीिलंग बनाने की आवशयकता ही कया थी?’ 30 लुइस एच. गे (1958) : 184. 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 233 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 233 में भी पुरुष और सी की भेदकता िदखलाना ज़ररी ही था, तो उसके िलए पाररभािषक शबद के रप में पुरुष-यौनांग के अथ् में पचिलत शबद ‘िलंग’ को ही कयों चुना गया? यह चुनाव कया उसी पकार नहीं है िजस पकार ‘नारी’ के वयिकतव की पहचान ‘नर’ से उसके संबंध का मोहताज हो, जबिक जीववैजािनक आधार पर ‘नर’ की पहचान ही ‘नारी’ (के जननी होने के कारण उस) के मोहताज होनी चािहए थी। नारी-यौनांग के अथ् में पचिलत ‘योिन’ को कया पाररभािषक शबद नहीं बनाया जा सकता था, जो वयापकतर अथ् रखता है, न िसफ़् जीविवजान की दृिष से, अिपतु भाषा के सांसकृ ितक अथ्िवजान की दृिष से भी? ‘पुिललंग’ व ‘सीिलंग ’ की जगह ‘पुंयोिन’ व ‘सीयोिन’ शबद िनिशत रप से सटीक होते। ‘योिन’ का अथ् जाित-पजाित तक फै लते चला जाता है, जबिक ‘िलंग ’ का अथ् ‘िचह’ या ‘संकेतक’ तक ही िसमटकर रह जाता है। पंिडत िकशोरीदास वाजपेयी ने अपने िहंदी-शबदानुशासन में ‘िलंग ’ की जगह पाररभािषक शबद के रप में ‘वयिक’ और ‘जाित’ शबद का पयोग कर अवशय तक् बुिद का पररचय िदया है; भले वे इस बात पर सदा क़ायम नहीं रह सके हों। ‘योिन’ से भी आपित थी तो वयाकरण कोई तीसरा शबद भी चुन सकता था, जैसा अंगेज़ी का ‘जेंडर’ शबद है। पकार (kind या type) और उतपनन होने के अथ् में पचिलत लैिटन शबद genus से पुरानी फें च का Gendre शबद बना और वहाँ से मधययुगीन अंगेज़ी में वह आया। वही आज की अंगेज़ी में ‘जेंडर’ शबद के रप में पितिषत है। इस तरह िकशोरीदास वाजपेयी और अनय कई लोगों दारा पयुक ‘जाित’ शबद से इसका तातपय्सामय िदखता है। लोक में सी-पुरुष जाितयों के वाचक शबद भाषा में तो रहते ही हलैं। जैसे, लड़का, लड़की या िपता, माता। परं तु, इनके रहने माता से भाषा के वयाकरण में िलंग का अिसततव िसद नहीं हो जाता। कारण िक इन दो पकार के अथ्षों (पदाथ्षों) के वाचक शबद उसी पकार माने 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 234 234 | िमान जा सकते हलैं, िजस पकार आदमी-घोड़ा, लड़की-शेरनी दो अलग-अलग सवतंत अथ्षों के वाचक शबद हलैं। लड़का-लड़की जैसे शबदों का अथ्-भेद पाकृ ितक सेकसगत अथ्भेद है और आदमी-घोड़ा जैसे शबदों का अथ्-भेद पाकृ ितक जाित (पाणी-वग्) गत अथ्भेद है। बस, इतना-सा अंतर है। परं तु, यह तो है लौिकक अथ् का केत ही। जब तक वयाकरिणक अथ् (वयाकरिणक कोिट) के रप में ‘िलंग’ की भूिमका न िदखाई दे, तब तक भाषा के वयाकरण में ‘िलंग’ की सता अमानय है। यािन, लड़का-लड़की जैसे शबदों का िलंग-गत अथ्भेद भाषा में इनके पयोग-भेद के रप में ढलता िदखलाई पड़े, तभी माना जाएगा िक भाषा में ‘िलंग’ की सता है। यािन, िकसी भाषा में मुखयतः रप-रचना और गौणतः शबदरचना या वयुतपित में िलंग की भूिमका के पभावी रहने से मानना होगा िक उस भाषा में वयाकरिणक िलंग-भेद है। इस दृिष से देखा जाए, तो िहंदी में यह िलंग-भेद भी बहुत मज़बूत अवसथा में है। हम जानते है िक िहंदी ‘जाता है / जाती है’ या ‘अचछे लड़के ने/अचछी लड़की ने’ वाली भाषा है। इनमें से पहला ि्रिया और दूसरा ि्रियेतर शबद-रूप की रचना का उदाहरण है। ऐसा िलंग-भेद संसकृ त में तो है, पर अंगेज़ी में न के बराबर है। संसकृ त में ‘जाता है’ और ‘जाती है’ : दोनों के िलए ितङं त िकया रप ‘गचछित’ ही है, पर इनके िलए कृ दंत िकया रप दो अलग-अलग हलैं : कमशः ‘गतवान्’ और ‘गतवती’। परं तु, अंगेज़ी में यह लफड़ा नहीं है। दोनों के िलए एक ही रप आता है : ‘goes’। कहने के िलए तो अंगेज़ी भाषा में पुिललंग सीिलंग नपुंसक (कलीव) िलंग और उभय िलंग हलैं, पर भािषक पयोग में इनकी सता पायः नहीं िदखती। अनय पुरुष के तीन सव्नामों (ही, शी, इट) और इनसे बने साव्नािमक िवशेषणों के अलावा और कोई पमुख केत है ही नहीं, िजससे यह पता चले िक अंगेज़ी भाषा के वयाकरण में रप-रचना के सतर पर िलंग-भेद है। िफर, चौथा बहुकिथत ‘कॉमन जेंडर’ तो िसफ़् कहने की बात है। उसका सूचक तो कोई सव्नाम या साव्नािमक िवशेषण भी नहीं है, िजससे संकेत िमले िक अमुक शबद ‘कॉमन जेंडर’ में है। परं तु, िहंदी में जब हम यह कहते हलैं िक ‘वह जाती है’, िफर ‘वह जाता है’, तो सपष होता है िक पथम वाकय का कता् ‘वह’ सीिलंग है, दूसरे वाकय का कता् ‘वह’ पुिललंग है। यािन, रप एक होने के बावजूद ये दोनों ‘वह’ अलग-अलग अथ्षों (सी व पुरुष) के वाचक हलैं। वयाकरण रप को महतव देता है, इसिलए कहा जा सकता है िक िहंदी के सारे सव्नाम उभयिलंगी यािन कॉमन जेंडर में हलैं : मलैं-हम, तू-तुम, वह-वे, यह-ये, कौन, कोई, कया, जो ...सो : िजन ...ितन। सभी एक ही रप में दोनों िलंगों में पयुक होने की कमता रखते हलैं अथवा सीिलंग और पुिललंग दोनों अथ्षों का वाचन िहंदी सव्नाम करते हलैं। (संसकृ त में उतम पुरुष और मधयम पुरुष के सव्नाम सव्िलंगी हलैं। अंगेज़ी में उभयिलंग तो िसफ़् कहने भर को है। पर, अंगेज़ी भाषा में भी शबदों की िलंगगत वयुतपित की पिकया होती है, जैसे, गॉड > गॉडेस, अतः उसका वयाकरण इस सतर पर िलंग-भेद से मुक नहीं है।31 31 रामिवलास शमा् (2008) : 103 : ‘िलंग-भेद में युरोप की आधुिनक और पाचीन भाषाओं में अिधक समानता है. रसी में भूतकाल के िकया-रप िलंग के 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 235 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 235 हमारे भािषक समाज की यह वयापक पवृित िदखलाई पड़ती है िक लोक में पयुजय िविभनन कथयों के वाचक शबदों, िजनमें ललैंिगक िवकलपन उपलबध हो, उनहें पहले पुिललंग में िसद िकया जाता है, िफर पतयय या समास-पिकया से उनसे सीिलंग रप बनाए जाते हलैं। (वैसे इसके कु छ अपवाद भी हलैं, पर आम तौर पर ‘नर’ या ‘लड़का’ जैसे शबद पहले िसद होते हलैं, िफर उनसे कमशः ‘नारी’ या ‘लड़की’ जैसे शबद बनाए गए।) हमारी भाषा इस तरह पुिललंग शबद को मौिलक और सीिलंग शबद को िदतीयक या वयुतपनन बना कर रख देती है। भाषािवजान का एक िसदांत है िक अपेकाकृ त मौिलक या सवतंत शबदों में उव्रता अिधक होती है। उनसे िजतनी अिधक वयुतपितयाँ संभव हलैं, उतनी उनसे वयुतपनन शबदों से नहीं। इसी कारण, ‘नर’ से जयादा शबद बनते हलैं, ‘नारी’ से कम : नरता, नरतव, नरोतम, नराधम, नरें द, नरपशु, नरलोक, नरोिचत आिद। ‘नारी’ से बहुत होगा, तो ‘नारीतव’, ‘नाय्वोिचत’ आिद कु छे क शबद ही संभव हलैं। यह तो एक पक हुआ। इससे भी महतवपूण् बात यह है िक ‘नर’ से बने ‘नरतव’ आिद शबद इसी वज़न पर (‘नारी’ से बने) ‘नारीतव’ आिद शबदों से वयापक हलैं। हम पीछे देख चुके हलैं िक ‘नरतव’ मानव-मात के भाव से जुड़ा शबद है; ‘नारीतव’ नारी-मात के भाव का पकाशक सीिमत शबद है। इस आलेख में पहले भी ऐसे बहुत सारे वयुतपित-पसंग आ चुके हलैं, िजनसे भाषा के गठन में वयाप पुरुष-वच्सव का संकेत िमलता है। आइए, इस संदभ् में कु छ और आयामों में बात आगे बढ़ाई जाए! जाितवाचक संजाओं से भाववाचक बनाते समय पुिललंग रप को मूल मान कर भाववाचक (ता, तव, पा, पन आिद) पतयय लगाया जाता है (जैसे – अधयक+ता=अधयकता, लड़का+पन=लड़कपन) और इस पकार से वयुतपनन शबद को (सीिलंग-पुिललंग दोनों के िलए) वयापक बना कर पयुक िकया जाता है। जैसे, ‘पेमचंद ने सभा की अधयकता की। महादेवी वमा् ने सभा की अधयकता की।’ यािन, अधयक और अधयका दोनों के कम् को ‘अधयकता’ ही कहा गया। ‘अधयकाता’ जैसा शबद भाषा में नहीं चला। ‘लड़का’ और ‘लड़की’ दोनों के भाव को ‘लड़कपन’ कहा जाना भी वैसा ही दोषपूण् लगता है।32 (सपष है िक उपयु्क ‘नरतव’ शबद की भी यही दशा है।) इसी तरह, िकसी संजा अनुसार बदलते हलैं; वैसे ही कभी-कभी फांसीसी में. जम्न में यह पररवत्न नहीं होता. िकं तु िलंग-भेद का संबंध उतना िकया से नहीं है िजतना संजा, सव्नाम और िवशेषणों से. अंगेज़ी िलंग-भेद से पायः मुक है, यदिप ‘ही’ और ‘शी’ सव्नामों में पाचीन िलंग-भेद की समृित बनी हुई है. पाचीन वयाकरणों का अनुसरण करते हुए भले ही िवदािथ्यों को अंगेज़ी में भी शबदों का िलंगभेद बताने का पयतन िकया जाए, पर वासतिवकता यह है िक अंगेज़ी की भाव-पकृ ित िलंग-भेद सवीकार नहीं करती. इस दृिष से वह बाङ् ला के समान है. उतर भारत की अिधकांश भाषाओं की तरह फांसीसी, रसी आिद आधुिनक यूरोपीय भाषाएँ सीिलंग और पुिललंग, इनहीं दो िलंगों को पया्प समझती हलैं. जम्न और मराठी में पाचीन भाषाओं के समान तीनों िलंग हलैं. शबददों की िलंगहीनता भाषा के अिधक जनतांितक होने का सबूत हो सकती है, िकं तु िलंग-भेद का संबंध के वल सथूल उपादेयता से न होकर सौंदय्बोध से भी है. शबद िजस पदाथ् की ओर संकेत करता है, वह वासतिवक जीवन में िकस िलंग का है या िलंग-भेद से परे है, यह बात सदा महतवपूण् नहीं होती. शबद की अपनी सापेक सवतंतता है; उसकी धविन और रप के अनुसार जनता उसका िलंग िनिशत करती है’. (ज़ोर हमारा) 32 तसलीमा नसरीन (2010) : 22. ‘हाँ, लड़कपन की एक उम्र ज़रर थी मेरी. लेिकन, उसे लड़कपन की उम्र कै से कहू,ँ कयोंिक 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 236 236 | िमान का ऊनवाचक रप बनाने (यािन, उसे छोटे या हीन अथ् में ढालने) के िलए उसे सीिलंग रप में िसद िकया जाता है, जैसे, ‘िडबबा’ से ‘िडिबया’। यह पिकया भी वयाकरण की दृिष में सीिलंग की हीनता की पररचायक है। इस तरह िहंदी-समाज अपनी वयुतपितयों (लोक में चल रही शबद-िनमा्ण पिकया) और वयुतपनन शबदों के इसतेमाल को लेकर बहुधा िलंग-भेद का िशकार रहा है। पर, बात बस इतनी नहीं है। वैयाकरणों या वयुतपितकारों ने कई पचिलत शबदों की िजस तरह से वयुतपित करके िदखाई है या वयाकरिणक पिकया की िजस तरह से वयाखया की है, उससे उनकी िपतृसतातमक मानिसकता उजागर होती है। शबदों की वयुतपित वाले पकरण में ‘िलंग’ जबद्सत भूिमका िनभाता है, जहाँ सीिलंग शबदों की िदतीयकता (गौणता) या हीनता खुल कर पकट होती है। िहंदी-संसकृ त-अंगेज़ी सिहत कई भाषाओं में वयुतपित-पकरण में कु छ ख़ास पतयय होते हलैं (िजनहें संसकृ त-वयाकरण के अनुसार, ‘सी-पतयय’ कहा जाता है), जो पुिललंग शबदों में लग कर सीिलंग शबद वयुतपनन करते हलैं। जैसे, लड़का+ ई=लड़की, बाल+आ=बाला, Hero+ine=Heroine. पुिललंग को मूल यािन पाथिमक और सीिलंग को उससे वयुतपनन यािन िदतीयक ठहराने वाली भाषा की यह पवृित सीिलंग को पुिललंग के सामने कमतर या हीन मानने के सामािजक दोष की छाया है। यह लोक में चल रही शबद-िनमा्ण पिकया की वयाकरण दारा िनद्वोष वयाखया मात नहीं है, कयोंिक शबद-रचना में लोक िकतना भी सवतंत हो, पर उसकी पिकया को ‘पुिललंग शबद+सीपतयय’ के रप में िववेिचत और इस तरह पुिललंग शबद को मूल और सीिलंग को वयुतपनन (गौण) बताने का दोष तो वयाकरण ने अपने ही िसर पर िलया है। वह चाहे अपनी सीमा की िकतनी भी सफ़ाई दे िक वह तो भाषा की पकृ ित का िवशे षण मात है, न िक कोई सवतंत िनयामक; पर ‘मूल शबद (पकृ ित)+पतयय’ की कलपना के ढंग को तो वह थोड़ा-बहुत वह बदल ही सकता था, िजससे सीिलंग शबदों को िदतीयक या वयुतपनन मानने की रिढ़ टू टे। वयाकरण समझाता है िक ‘लड़का’ शबद में ‘ई’ पतयय लगने से ‘लड़की’ शबद बना है। वह चाहता तो ‘लड़का’ व ‘लड़की’ दोनों को मूल शबद मान सकता था अथवा ‘िदमुखी वयुतपित-पिकया’ की कलपना करके उसके तहत ‘लड़का’ से ‘लड़की’ और ‘लड़की’ से ‘लड़का’ को वयुतपनन पितपािदत कर सकता था। ऐितहािसक रप से देखने पर िहंदी के ‘बहनोई’ शबद को संसकृ त शबद ‘भिगनीपित’ का िवकास कहा जा सकता है, लेिकन पंिडत अिमबकापसाद वाजपेयी (1880-1968) ने अपने वयाकरण (िहंदी-कौमुदी, 1919)33 में उसे मलैं लड़का तो हूँ नहीं. जब मलैं लड़की हूँ तो कहूँ : मेरी एक लड़िकयाना उम्र ज़रर थी!’.(ज़ोर हमारा) 33 अिमबकापसाद वाजपेयी (संवत् 1980) : 28-29 ‘सीिलंग शबदों में ओई, आव और औटा पतयय लगाने से पुिललंग शबद बनते हलैं; जैसे : बहन+ओई=बहनोई, ननद+ओई=ननदोई, िबलली+आव=िबलाव,, िसल+ औटा=िसलौटा. ईकारांत सीिलंग शबदों को पुिललंग बनाने में ई को आ पतयय से बदल देते हलैं; जैसे : दुअननी दुअनना, अधननी अधनना, गाड़ी गाड़ा, रससी रससा, हांड़ी हांड़ा, झोली झोला, मकड़ी मकड़ा, लकड़ी लकड़ा आिद. 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 237 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 237 ‘बहन+ओई’ से वयुतपनन माना और इस में लगे ‘ओई’ को िहंदी का ‘पुरुष पतयय’ कहा। ‘सी-पतयय’ के समकक ‘पुरुष पतयय’ की अवधारणा उनकी मौिलक खोज है, जो वयाकरण के िलए एक उपलिबध है।34 अंगेज़ी में भी एक-दो वयुतपितयाँ इस तरह की िमल जाती हलैं : िवडो+अर=िवडोअर पर, आम तौर पर वयाकरण में सी-पतयय की पितषा है, यािन वहाँ पुिललंग की पाथिमकता का िवकलप नहीं सोचा जा सका है। ‘वयुतपित’ पर िवचार करते हुए यह भी धयान रहे िक ‘पुिललंग और सीिलंग शबद-युगम’ के रप में आए बहुत से शबद एकदम सवतंत होते हलैं। जैसे, िपता-माता, पित-पतनी, बॉय-गल् आिद। यहाँ धविन-पररवत्न के िकसी ऐसे िनयम का संधान नहीं िकया जा सकता, जो ‘िपता’ शबद से ‘माता’ को िसद कर सके और इस पकार िकसी ऐसे पतयय की कलपना नहीं की जा सकती, जो ‘िपता’ में लगकर ‘माता’ शबद की वयुतपित करता िदखे। िफर भी, वैयाकरण बाज कब आया है? हर शबद की वयुतपित िदखलाने का पयतन करता ही है। कया इसिलए िक सीिलंग शबद को सवतंत देखना वैयाकरण के िपतृसतातमक (?) मिसतषक को अगाह है, जो वह िलंगगत ऐसे शबद-युगमों में भी सीपतयय-जनय वयुतपित की कथा गढ़ता है? पािणिन ने ‘पित’ से ‘पतनी’ की वयुतपित िसद करने की जो वयाखया दी, यह उनकी िववशता हो सकती है, वासतिवकता नहीं। ‘पतयुन्वो यज संयोगे’ (अषाधयायी 4-1-33) : पित के यज-काय् में सहयोग पदान करने से (पित+ङीप् /नुक्) ‘पतनी’ की वयुतपित, सी की िनमनतर सामािजक िसथित की आखयाती है। सी का पतनीतव उसके सवतंत वयिकतव की समािप और ‘पित’ नामक मद्-िवशेष के सुख/कलयाण-साधन में उसके िवलीनीकरण का पया्य बना रहा है। यह तासद सच ही पािणिन को ‘पित’ से ‘पतनी’ शबद की उक पकार से िसिद करने को िववश कर सका। इस पािणनीय वयुतपित की छाया में महाभाषयकार दारा यह िवतक् उठाया गया िक जब शूद को वेदपाठ या यजािदक का अिधकार ही नहीं है तो शूद पुरुष की बयाहता को उसकी ‘पतनी’ कै से कहा जा सकता है? तब ख़ुद उनहोंने समाधान िदया िक उपमान या लकणा से ऐसा कहा जा सकता है।35 यािन, ‘यज-काय् में सहयोग’ का लकयाथ् ‘सहयोग’ लेकर शूद कई ईकारांत सीिलंग शबदों के पुिललंग रप ई को आ पतयय में बदल देने से बनते हलैं. जैसे : रोटी रोट. कहीं-कहीं अंितम अकर के पहले का वयंजन भी िदतव कर िदया जाता है, जैसे : लकड़ी लककड़, िटकड़ी िटककड़, गठड़ी गटड़ी.’ 34 कामतापसाद गुरु (संवत् 1984) : 231. लगता है, गुरु जी ‘िहंदी कौमुदी’ की उक सथापना से अनिभज थे. परं त,ु वे िहंदी भाषा के इस तथय से अनजान नहीं थे, िजसका पमाण है उनका यह कथन : ‘कोई-कोई पुिललंग शबद सीिलंग शबदों में पतयय लगाने से बनते हलैं; जैसे : भेड़ : भेड़ा, बिहन : बहनोई, राँड : रँ डुआ, भलैंस : भलैंसा, ननद : ननदोई, जीजी : जीजा, चींटी : चींटा.’ 35 भाग्व शासी जोशी (सं.) (1988) : 58. ‘यज-संयोग इतयुचयते, ततानेदं िसधयित : इयमसय पतनी. कव तिह् सयात्. ‘पतनीसंयाजाः’ इित, यत यजसंयोगः. नैष दोषः. पितशबदो यमै्विय्वाची. सव्वेण च गृहसथेन पंचमहायजा िनव्तया्ः, यचचादः सायं पातह्होमचरुपुरोडाशाि्नव्पित तसयासावीषे. एवमिप ‘तुषजकसय पतनी’ न िसधयित. उपमानात् िसद्धम् : पतनीव पतनीित.’ (महाभाषय पतंजिल) पतंजिल की इस वयाखया की अंितम दो पंिकयों पर कै यट ने अपनी पदीप नामक टीका में िनमनांिकत वयाखया पसतुत की हैै :– ‘तुषजकसयेित. तैविण्कानामेव सभाया्णां यजेऽिधकारो न तु शूदसय. उपमानािदित. अिगनसािकपूव्क पािणगहणाशयािदितभावः.’ (‘पदीप’ : कै यट) कै यट की इस वयाखया पर ‘उदोत’ नामक टीका में नागेश भट ने िनमनांिकत िटपपणी की है :– ‘‘न तु शूद्रसयेित. िवदाया अभावात् तसयैवानिधकारे तदाया्याः सुतरािमित भावः. ननु पंचमहायजेषु शूदाणामपयिध- 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 238 238 | िमान पुरुष की सी को उसकी ‘पतनी’ कहा जा सकता है। इन सब पचड़ों में पड़ने की जगह यिद िलंगगत युगम में आए ‘पित’ व ‘पतनी’ जैसे शबदों को ‘आदमी’ व ‘घोड़ा’ जैसे अलग-अलग सवतंत शबद मानकर चला जाता तो कया गड़बड़ी होती? पुिललंग की सता कमज़ोर होती यही न? (औरत सवतंत रह जाए, तो मदा्नगी िकस काम की?) समगतः, वैयाकरण भी समाज में वयाप िलंगगत, जाितगत पूव्गहों से सवयं को बचा नहीं पाता। िलंगगत वयुतपितयों में के वल ऐितहािसकता की दुहाई देना भी ठीक नहीं, उसमें कु छ वयावहाररकताओं का ख़याल भी रखना चािहए। जो (सी) ररशते पूव्िसद हलैं, यािन हमारे सामािजक बोध में पहले आते हलैं (जैसे, फू फी, मौसी, बहन, जीजी, ननद आिद) उनमें ही पुंपतयय लगा कर उनसे िलंगगत वयुतपित (फू फा, मौसा, बहनोई, जीजा, ननदोई आिद) िसद करना ठीक रासता है। यािन, ‘मौसा’ आिद शबदों से ‘मौसी’ आिद को वयुतपनन िदखलाने का तरीक़ा अवैजािनक है। ‘चाचा’ से ‘चाची’ को वयुतपनन मानने की वयवसथा इसिलए वैजािनक है, कयोंिक ‘चाचा’ पूव्िसद है, ‘चाची’ उतरिसद। लेिकन, ‘लड़का’ और ‘लड़की’, ‘राजकु मार’ और ‘राजकु मारी’ अथवा ‘पित’ और ‘पतनी’ में से कोई न पूव्िसद है, न उतरिसद। दोनों सहिसद हलैं। भले ऐितहािसकता कु छ भी कहे, परं तु ‘लड़की+आ=लड़का’ वयुतपित करना उतना ही समीचीन होता। पर इस तरह के पसंगों में (िहंदी-) वयाकरण ने अपने ख़ास तरह के पुरुषवादी रुझानों का ही संकेत िदया है। सी, नारी और मिहला की वयुतपि्तियदों का समाजशास : औरत के िलए हमारी भािषक परं परा में इसके अितररक सवा्िधक पचिलत तीन शबद हलैं : सी, नारी और मिहला। इन में भी हमारी बोलचाल में ‘सी’ और ‘मिहला’ शबद सबसे जयादा पयुक होते हलैं। संसकृ त की दृिष में तो ये तीनों शबद वयुतपनन (यौिगक) हलैं, पर िहंदी की दृिष में ‘नारी’ यौिगक शबद (नर + ई) है, शेष रढ़ हलैं। इन शबदों को लेकर हमारे शबदशािसयों ने जो माथापचची की है, उसमें उनके पुरुषवादी पूव्गह और िपतृसतातमक रुझान साफ़ झलकते हलैं। सी : यासक ने अपने िनरु्ति में ‘सतयै’ धातु से इसकी वयुतपित की है (‘िसयः सतायतेरपतपणकम्णः’, िनरुक, 3.21.2), िजसका अथ् लगाया जाता है : लजजा से िसकु ड़ना। यासकीय वयुतपित पर िनरु्ति के टीकाकार दुगा्चाय् ने िलखा है : ‘लजजाथ्सय लजजनतेिप िह ताः’। इसका भावाथ् है िक लजजा से अिभभूत होने से औरत का एक पया्य सी है। यहाँ आपित की बात यह है िक लजाना या शरमाना िसयों का जनमजात गुण तो है नहीं। यिद पुरुषवच्सवी सभयता में ख़ास तरह के सामािजकीकरण के तहत लड़िकयों पर लजजा का भाव आरोिपत न िकया जाए, तो वे भी लड़कों की तरह (कम से कम अपने जायज़ हक़ों के िलए) सामने वालों की आँखों में आँखें डाल कर बात करने में समथ् होंगी, न िक कारोऽसतीित चेनन, शूदसयेतयसयाऽसचछू दसयेतयथा्त.् सचछू दाणामेव तेषविधकार इित पिसद समृतयािदषु. अगनीित. अिगनसािककपािणगहणिनिमतसादृशयािदतयथ्ः. इदमुपलकणम्, येषां तदिप नािसत, तेषां सादृशयानतरं बोधयम् ... (‘उदोत’ : नागेशभट) (ज़ोर हमारा) 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 239 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 239 छु ईमुई गुिड़या बनी रहेंगी। सच तो यह है िक ऐसी वयुतपितयाँ सभयताजिनत िसथितयों को सवाभािवकता पदान करने की िदशा में खड़ी हलैं । पािणिन ने भी ‘सतयै’ धातु से ही ‘सी’ की वयुतपित की है, पर इस धातु का अथ् शबद करना और इकटा करना लगाया है : ‘सतयै शबद-संघातयोः’ (धातुपाठ , 1/935)। इसका आशय है िक औरत को सी जैसी संजा पुरुष की अपेका उसके गपपी, बकवादी या लड़ािकन होने की लोकशुित के कारण िदया गया। ऐसी ही िकसी लोकशुित के पभाव में अंगेज़ी के वयुतपितकार सैमअ ु ल जॉनसन (1709-1784 ई) ने यह वयुतपित दी होगी िक लड़की को ‘गल्’ इसिलए कहते हलैं िक वह ‘गैरुलस’ अथा्त् बहुत अिधक बकबक करने वाली होती है।36 पतंजिल ने पािणनीय सूत ‘िसयाम्’ (4-1-3) का थोड़ा िवसतार करते हुए कहा है : ‘्तन-के शवती सी ्यात् लोमशः पुरुषः ्मृतः।’ (यािन, सतनके श वाली सी होती है और रोम वाला होता है पुरुष।) सतन तक तो ठीक है, पर ‘के श’ को सी का िचह मानना कै सा? सी के बाल लंबे होना कोई पाकृ ितक गुण-धम् तो है नहीं। इसके गहरे सांसकृ ितक कारण हलैं। सी सिदयों से ‘सुंदर’ बनी रहने को बाधय बना के रखी गई है, िजसका एक पमुख पैमाना बालों की लंबाई है। इस तरह से बाल लंबे रखने के मूत-् अमूत् दबावों के बीच जीती रही है वह। पतंजिल यह सीधा सच नहीं देख सके और ऐसी सरलीकृ त पररभाषा दे कर िसयों पर बाल बढ़ाने के दबाव डालने वाली ऐितहािसक पंिक में शािमल हो गए। सी शबद पर पतंजिल ने अनय तरीक़े से भी िवचार िकया है : ‘सतयायित असयां गभ् इित सी’ : अथा्त,् गभ् की िसथित अपने भीतर रखने के चलते वह सी कहलाती है। (वामन िशवराम आपटे ने भी कु छ ऐसा ही िलखा है : ‘सतयायते शुकशोिणत यसयाम्’ : सतयै + ड्रप् + ङीष्)’ । साथ ही, पतंजिल ने यह भी कहा है : ‘शबद-सपश्-रप-रस-गनधानां गुणानां सयानं सी’ (शबद-सपश्-रप-रस-गंध आिद गुणों का सयान अथा्त् समुचचय सी है।) यह भी सी की देहवादी वयाखया हुई। पतंजिल के इस वचन का भी पुराना सोत है : ऋगवेद (1-164-16) पर यासक-कृ त टीका : ‘िसयः एवैताः शबद-सपश्-रप-रस-गंधहाररणयः’ (िनरुक, 14/20) । 36 हेमचंद जोशी (1997) : 76. 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 240 240 | िमान यह पाकृ ितक सच है िक सी के शबद-सपश्-रपािद िवषयों का जानेंिदयों के माधयम से गहण कर पुरुष अपनी मानिसक तृिप करता है। इसी तरह, सी भी पुरुष के शबदािद से अपनी मानिसक तृिप करती है। पर, कु छ भी रुचने या तृप होने के सी के जनमजात अिधकार की अनदेखी और उपेका के साथ पुरुष-पधान समाज में सारी पररभाषाएँ खड़ी हुई ं। पिसद जयोितिव्द् वराहिमिहर ने अपने गंथ में यहाँ तक बढ़ कर घोषणा कर डाली िक बहा ने सी के िसवा ऐसा कोई रतन नहीं बनाया, जो िदखाई देने, कानों से िजसकी धविन सुनाई देने, सपृष होने या समरण में भी आने पर सुखदायी हो : ‘शुतं दृषं सपृषं समृतमिप नृपां हादजननं न रतनं सीभयोनयत् कविचदिप कृ तं लोकपितना।’ (वृहतसंिहता, 74/4) ये सारी पररभाषाएँ सी को के वल देह और उसे पुरुष हेतु मनोरं जन-सामगी मानने की सोच की पितधविनयाँ हलैं। सी शबद से ही िवकिसत हुआ है लोक-भाषाओं में आया ‘ितया’ या ‘ितररया’ शबद। (‘तुमह ितररया मित हीन तुमहारी’ : पदावत)। यह संभवतः ‘िसयशररतम् पुरुषसय भागयम् देवो न जानाित कु तो मनुषयः’ आिद उिकयों में आए ‘िसयः’ का िवकास है। इसी से बना समसत पद ‘ितररयाचररतर’ समाज में ख़ूब चलता है। इसमें सी के वयिकतव का सवीकार तो है, पर बेहद नकारातमक रप में। मसलन, सी झगड़ालू, बकवादी, बेवफ़ा, िववाहेतर संबंध रखने वाली, रहसयमयी, अिवशसनीय आिद होती है। इनहीं दुग्णु ों व तजजिनत लकणों को समेिकत रप में ‘ितररयाचररतर’ कहा जाता रहा है, जो िसयों की सामूिहक बदनामी और अपमान का सूचक है। सच तो यह है िक िपतृसता के पतयक दमनों व छल-छदों से भरी िवषम पररिसथितयों में िघरी िसयों की िसथित दाँतों के बीच जीभ की-सी रहती है। उसमें अपने अिसततव-रका के िलए भी वे जो कु छ करती हलैं या सहज ढंग से साँस भी लेती हलैं, तो मद्वादी भाषा में उसे ‘ितररया-चररतर’ कह िदया जाता है। नारी : यह वैिदक शबद नहीं है। हाँ, ‘नृ’ / ‘नर’ का पयोग ‘वेद’ में िमलता है, िजसका अथ् वीर, नेता आिद है। ‘नृ’ शबद तब सी-पुरुष सबको समेट कर मानव-मात का वाचक था। उसी से पुिललंग ‘नर’ (नृ+अच्) बना, िजसमें ङीष् पतयय जोड़ कर ‘नारी’ शबद िसद िकया गया। इस पकार की वयुतपित से साफ़ ज़ािहर होता है िक नर के समक नारी गौण या हीन है। मिहला : यह ‘मह्’ धातु (= आदर, पूजा करना) से वयुतपनन माना गया (मह् + इलच् + टाप्)। इस तरह अथ् हुआ : आदरणीया या पूजया। परं तु आपटे-कोश में इसके अथ् में सी के साथ, मदमत या िवलािसनी सी भी िदया गया है। ‘मिहला’ शबद मूलतः सी की मिहमा या समाज में उसकी बुलंद हैिसयत को रे खांिकत करने वाला शबद लगता है। ऐसा पतीत होता है िक यह शबद उस युग या देशकाल का अवशेष है, िजसमें मातृसतातमक वयवसथा अथवा मातृवंशी या मातृपधान समाज अिसततव में रहे हलैं। तब सी की सामािजक व आिथ्क सता मज़बूत थी तथा कदािचत् वही समाज का नेततृ व करती थी। उसकी यौिनकता सवाधीन थी। वह िकस समय िकस पुरुष के यौन-संसग् में जाएगी, यह उसके अिधकार-केत में था। समाज की वंश-परं परा को आगे बढ़ाने के िलए वह अपनी 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 241 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 241 पसंद से पुरुषों का वरण करती थी और संतान पर अिधकार उसी का रहता था। उसकी यह सवतंतता या सता तब के समाज के िलए सहज सवीकाय् या आदरणीय थी। तब समाज में िपता जैसा पद शायद उतना महतव नहीं रखता था। माँ मौिलक है पर हमने बना डाला उसे महज़ ‘बाप की बीवी’। इस सतय के इद्िगद् हम पहले भी घूमते रहे हलैं िक जीववैजािनक दृिष और सामािजक बोध के कम में (बचचे के िलए) माँ का अिसततव पाथिमक है, िपता का परवत्जी, वह भी माँ से उसके ररशते के संदभ् में। सच तो यह है िक पाररवाररक-सामािजक संबंधों में सबसे मूलभूत संबंध माँ और उसकी संतान का होता है। यािन, दुिनया के हर देश-काल के तमाम संबंधों की भीड़ में सबसे ज़ररी या अिनवाय् ररशता माँ का होता है। इसका जीववैजािनक ही नहीं, पतयक सामािजक आधार भी है। दुिनया में िकसी वयिक का आना या जनमना ही नहीं, बिलक पालन-पोषण के आरं िभक और आधारभूत दौर से उसका गुज़रना माँ के ज़ररए ही संभव होता है। मतलब, िकसी की उतपित और उसके पालन-पोषण का सबसे पतयक आधार माँ ही होती है। िपता या बाप से संतान का संबंध उतना पतयक नहीं होता : न जनम का और (अिधकतर समाजों में) सामािजक दाियतव के भेदभावमूलक िवभाजन के तहत न पालन-पोषण का ही। यही कारण है िक िपता या बाप का पद उस तरह अिनवाय् नहीं है, िजस तरह माँ का। िपता का सथान या सवरप तो बहुत हद तक सामािजक समीकरणों और तजजिनत वयाखयाओं से संचािलत व िनधा्ररत होता है, परं तु माँ का पद तो पाकृ ितक तौर पर िसद है। इसिलए, यह आशय् नहीं िक अफीक़ा की कु छ जंगली जाितयों में ‘िपता’ को के वल एक कारण माना जाता है, माँ को मुखय।37 वहाँ िपता बचचे के िलए उसकी ‘माँ के पित’ के रप में आंिशक महतव रखता है। इसी तरह, कई समाजों में िपता की अवधारणा न िमले तो भी अचरज की बात नहीं है। पर, माँ जैसे मूलभूत तथा पतयक महतव के ररशते की अवधारणा से कोई समाज भला कै से बच सकता है? इस आधार पर यह वयाखया भी की जा सकती है िक बाप का वाचक शबद िमले न िमले, पर माँ के वाचक शबद की िसथित दुिनया के हर दौर और हर जगह की भाषा में रहती ही है। इस दृिषपात के दौरान यह भी सामने आता है िक कु छ भाषाओं में माँ के वाचक शबद एक से अिधक भी हलैं। ऐसा भी संभव है िक िकसी भाषा में पाप शबद मूलतः उसके अपने न हों, बिलक अनय भाषा से याता करके पहुचँ े हों। ‘माँ’ को वयक करने वाला शबद तो चािहए ही चािहए, चाहे वह अपना न होकर आयाितत ही कयों न हो। इस िवहंगावलोकन के साथ, यह भी देखने की ज़ररत है िक अिधकतर भाषाओं में माँ जैसे मूलभूत ररशते के वाचक शबद की 37 वैशा नारं ग (1996) : 181-82. ‘मूल पररवार की संकलपना पतयेक समाज एवं संसकृ ित में मानय है या नहीं : इस संदभ् में उन संसकृ ितयों का उललेख आवशयक हो जाता है, िजनमें ‘माता-िपता तथा संतान’ से बने मूल पररवार का कोई सथान नहीं है. गुडेनफ़ ने इस पकार की सभयता के कई उदाहरण िदए हलैं. अफीक़ा की कु छ जंगली जाितयों में िपता को के वल एक कारण माना जाता है तथा माँ-बचचे के संबधं को ही पमुख माना जाता है. िपता बचचे के िलए उसकी माँ के पित के रप में के वल आंिशक महतव रखता है. इस पकार, कु छ अनय पैतक ृ जाितयाँ हलैं, िजनमें बचचे को एक बीज माना जाता है और माँ के वल उस बीज के िलए एक पाकृ ितक संदभ्, पाकृ ितक पया्वरण ही है. माँ-बचचे का संबधं िपता और बचचे के संबधं की तुलना में गौण होता है’. 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 242 242 | िमान वयाकरिणक िसथित मूल शबद (रढ़ शबद) के रप में ही होती है, न िक िकसी अनय (पुिललंगवाची) शबद से वयुतपनन रप में। हो सकता है िक संसकृ त-सी वयुतपित-िपय भाषाएँ उन किथत रढ़ शबदों को भी िकसी धातु से वयुतपनन िसद कर दे, परं तु उनकी वयुतपित भी िकसी सवतंत साथ्क शबद (बाल+आ=बाला) से कर पाने में वे सव्था असमथ् िसद होती हलैं। यही तो है ‘माँ’ की मौिलकता! इसी संदभ् में, भारतीय पुराकथाओं के कु छ भािषक साकयों के आधार पर ऐसी भी वयाखया की जा सकती है िक संतान की पहचान एकमात माँ से (‘जाबाल’, जबाला का पुत) करने की परं परा सबसे आिदम है। िफर आई, माँ-बाप दोनों से साथ-साथ पहचान करने की परं परा : जैसे िक महाभारत-काल में ‘कौंतेय’ (कुं ती का पुत) और ‘पांडव’ (पांडु का पुत) दोनों एक साथ चलते िदखते हलैं। ऐितहािसक िवकास-कम में, बाद में संतान को एकमात बाप से पहचानने की परं परा इतनी अिधक वयापक हो गई िक सवा्वेचच नयायालय के तमाम िदशािनद्वेशों के बावजूद, उनसे अनिभज सी बनी रह कर आज भी कई कें दीय संसथाएँ अपने यहाँ तमाम तरह के पपतों में के वल िपता के नाम भरने का कॉलम रखती हलैं। िपतृसता के िवकास ने सी के महतव की पूरी संरचना को उलट कर रख िदया, िजससे माँ को िपता दारा िदए गए तथाकिथत बीज (जबिक असल में िपता बीज के अधाधांश का ही दाता है, जैसा िक हम पीछे देख चुके हलैं) के िलए महज़ एक पाकृ ितक संदभ् या िवकास-पररवेश भर माना जाने लगा। वह बचचे की ‘जननी’ और उसके पधान पहचान-आधार की जगह उसके िलए ‘बाप की बीवी’ भर मानी जाने लगी। जैसे-जैसे िपतृसतातमक समाज आकार लेता गया, सी दोयम दज्वे की होती गई। उस िसथित में सी का वह सवातंतय एवं महतव आदर की वसतु नहीं रह गया, िजसका आखयान ‘मिहला’ शबद की वयुतपित करती थी। उसकी मुखय पहचान पुरुष की वंश-परं परा को जारी रखने वाली मशीन और पुरुष के काय् में सहायक एवं उसके मनोरं जन व भोग का सामान बनने वाली हो कर रह गई। इसका पभाव उसके िलए वाचक शबदों के िवकास और उनके िलए िनधा्ररत की गई वयुतपितयों पर भी पड़ा। उसी दौर में ‘मिहला’ के अथ् में िवलािसनी-मदमत सी के भाव जोड़े गए होंगे। ‘नारी’ शबद तो ‘नर’ से वयुतपनन होने के कारण सवतंत या सविनभ्र शबद नहीं है। संसकृ तवैयाकरणों दारा की गई ंवयुतपितयों के िलहाज़ से ‘सी’ भले नकारातमक अथ् वाला हो, पर उसकी सबसे बड़ी ख़ािसयत यह है िक वह सवाधीन, सविनभ्र शबद है। ‘मिहला’ भी सवाधीन, सविनभ्र है और वह िकसी पाचीन समाज में औरत की ऊँची हैिसयत का संकेतक शबद है भी, जैसा हमने पीछे देखा। िफर भी, आज कु छ लोग ‘मिहला’ की बजाय ‘सी’ शबद कहना जयादा पसंद करते हलैं, कयोंिक वे इन शबदों में वग्-भेद करते हुए ‘मिहला’ को संभांत या उचच वग् की औरतों के िलए पयुक करते हलैं38 और ‘सी’ को वयापकतर आयाम में आम वग् की 38 अिजत वडनेरकर (2014) : 408. ‘लॉड् शबद बना है मधयकालीन अंगेज़ी के लैफ़ोड् से िजसमें गृहपित, मुिखया, शासक, वररष और ईशर आिद भाव समािहत थे ... ‘लॉड्’ का सीवाची है ‘लेडी’, िजसका पुराना रप है ‘लैफडी’ अथा्त् िजसका 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 243 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 243 औरतों के िलए। वैसे सरकारी पयोग ‘सी’ की तुलना में ‘मिहला’ को वरीयता देते हलैं : ‘मिहला आरकण िवधेयक’, ‘घरे लू िहंसा से मिहला सुरका अिधिनयम’ आिद। अब तक हमने िवचार िकया है िक िकस तरह िवश-सतर पर सिदयों से िवदमान िपतृसतातमक सामािजकता की छाया मनुषय की भाषा पर भी पड़ी है, िजससे उसमें न िसफ़् िलंगभेद पैदा हो गया है, बिलक सीिलंग पर पुिललंग का वच्सव भी अनेक पकार से क़ायम व काय्रत है। िलंगभेदी समाज में रह रहा वैयाकरण भी उन ललैंिगक पूव्गहों से अनायास गसत हो जाता है; फलतः िनयम और उदाहरण पसतुत करते समय उसके िववेचन या उदाहरण की भाषा अनायास सीिवरोधी हो उठती है। अथवा, उसकी भाषा सी के अिसततव या िहत पर, उसकी वंचनाओं व पीड़ाओं पर मौन हुई रहती है। जहाँ उसके िववेचन और उदाहरणों को ‘सीसशकीकरण’ और ‘ललैंिगक नयाय’ की युगीन संकलपनाओं के पित अिभमुख रहने के साथ लोकतंत का सतत संवादी होना चािहए था, वहीं वह ख़ुद ही िलंग-भेद की गहन समसया की अनदेखी करते हुए और उससे भी आगे बढ़ कर अपने हाथों से भी उसमें कु छ जोड़ रहा होता है । यह सपष होना चािहए िक जब तक भाषा में िलंग-भेद बना रहेगा, तब तक वयाकरण के िनयमों में भी झलकता रहेगा। यािन, वयाकरण का िलंग-भेदी होना भाषा व भािषक समाज के िलंगभेदी होने का कु पररणाम है, परं तु गौणतः वैयाकरणों के भी पुरुषवादी होने का भी कु फल है वयाकरण का िलंगभेदी या पुरुषवादी होना। िफर, वैयाकरण उस िलंग-भेद में अपनी तरफ़ से कई बार मज़बूती भी ला देते हलैं, जब वे भाषा का वयाकरण िलखते हलैं (यािन भाषा में अंतिन्िहत वयाकरण को िववेचन या पुसतकीय पारप में मूत् करते हलैं)। इस िवसंगित का एक पमुख आधार वैयाकरणों की पाँत में सी की नगणयता भी हो सकती है।39 वैसे इककी-दुककी मतलब हुआ आटा गूँथने वाली. मगर भाव है सवािमनी, मालिकन आिद.’ एक अनय सोत से जात हुआ है िक ‘लेडी’ के अनुवाद के रप में ‘मिहला’ शबद चला. ‘लेडीज़ ऐंड जेंटलमेन’ का अनुवाद ‘देिवयों और सजजनों!’ हुआ, पर यह उचचवग्जीय था. सामानय वग् में इसकी जगह ‘बहनों और भाइयो!’ चला. लेडी शबद ‘लॉड् और जेंटलमेन’ का सीिलंग रप है, जो इंगललैंड के उपािधधारी कु लीनों (ड् यक ू , अल्, बैरन, नाइट, िवसकाउंट आिद) के िलए पयुक होते थे. लॉड् की तरह लेडी भी उपािध ही थी. पर, जयादातर उपािधधारी कु लीन पुरुषों की पितनयाँ ही लेडी कहलाती थीं. 39 िदलीप िसंह (2009) : 63-76. िहंदी-वैयाकरणों की पाँत में सी वैयाकरण की छिव िवगत सदी के सातवें दशक के पहले िदखलाई पड़ती है. पुरुष-वैयाकरणों के एकचछत राजय का दुषपभाव, वयाकरण के माधयम से वयक हो रही सामािजकता पर ही नहीं, बिलक िलंग, वयुतपित आिद 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 244 244 | िमान सी वैयाकरण हो कर भी कया कर सकती हलैं, जबिक िपतृसतातमक सोच सवा्चछादी है? वैयाकरण लकण या पररभाषा बनाते और उनके उदाहरण देते हुए, सी के साथ िकए जा रहे सामािजक अनयाय को नज़रअंदाज़ करते हुए, उसके हीन या दोयम दज्वे पर मुहर भी लगाते चले हलैं। िहंदी के यशसवी वैयाकरण पंिडत िकशोरीदास वाजपेयी (1898-1981) ‘आतमा’ के सीिलंग और ‘परमातमा’ के पुिललंग होने का जब तक् पेश करते हलैं, तो बात खुल कर सामने आ जाती है। उनके मत से आतमा परमातमा के अधीन है, और परमातमा सवाधीनसवतंत है। सवतंतता की वयंजना के िलए ‘परमातमा’ पुिललंग में तथा पराधीनता के पदश्न के िलए ‘आतमा’ सीिलंग में है।40 (िफर ‘महातमा’ पुिललंग कयों है?) इसी तरह, पंिडत कामता पसाद गुरु (1875-1974) ने िहंदी वयाकरण के ‘शबद-साधन’ नामक खंड में ‘िलंग’ का िववेचन करते हुए कहा िक ‘कई एक सी-पतययांत (और सीिलंग) शबद अथवि की दृिष से के वल िसयदों के िलए आते हैं, इसिलए उनके जोड़े के पुि्लंग शबद भाषा में पचिलत नहीं हैं। जैसे, सती, गािभन, गभविवती, सौत, सुहािगन, अिहवाती, धाय इतयािद । पायः इसी पकार के शबद डाइन, चुड़ैल, अपसरा आिद हैं।’41 गुरु जी यहाँ पर सी के पाकृ ितक धम् (जैसे, गभ्धारण) की ही पाँत में िपतृसतातमक संरचना दारा थोपे गए बोझों, अनयायों और बदनािमयों (धाय, सौत, सती, डाइन आिद) को भी बैठा लेते हलैं। अब सोचा जाए िक कया ‘धाय’ की भूिमका िसफ़् सी िनभा सकती है? इस शबद का पुिललंग न बन पाना सामािजक दाियतवों में ललैंिगक भेदभाव के बने रहने का सूचक है। पर, गुरु जी के िलए वह कोई समसया नहीं है। इससे भी भीषण है सी से संबद अथ्षों में ‘सती’, ‘डाइन’ आिद को िगना देना। इन दोनों से संबद पथागत कू रता को वैयाकरण अपनी ‘सहजता’ में िकस तरह नज़रअंदाज़ कर जाता है! यह वैयाकरण की िकस असंवेदनशीलता का पमाण है! ‘अथ् की दृिष से के वल िसयों के िलए आते हलैं’ : भाषा के इस ‘सहज’ पयोग में िकतनी िवसंगित छु पी हुई है! सवाल उठाना चािहए कितपय िववेचनों व पसतुत उदाहरणों पर भी पड़ना संभव है. िदलीप िसंह ने उक पुसतक के अंतग्त, ‘िहंदी भाषािवजान के िवकास में मिहलाओं का योगदान’ शीष्क अधयाय में ‘िहंदी वयाकरण’ के साथ ऐितहािसक भाषािवजान, शैलीिवजान, समाजभाषािवजान, भाषा-िशकण, वयितरे की भाषािवजान, कोश-िवजान और अनुवाद के केत में योगदान करने वाली पाँच दज्न से अिधक भारतीय व िवदेशी मिहलाओं (और उनकी कृ ितयों) का उललेख िकया है, िजनहोंने िहंदी-भाषािवजान के उक केतों को सवतंत पुसतकों, आलेखों और (एम.िफ़ल और पीएच.डी. के ) शोध-पबंधों के ज़ररए समृद िकया है. उनमें से कु छ नाम हलैं : लकमीबाई बालचंदन, यमुना काचर, सुधा कालरा, लकमी कु टी अममा, एच. सरसवती अममा, विशनी शमा्, शारदा भसीन, अिनवता अबबी, िनकोल बलवीर, कौशलया िगडवानी आिद. उन सब का रचना-काल पायः िवगत शताबदी के आठवें दशक से ले कर आज तक वयाप है. परं त,ु िहंदी के भाषावैजािनक और वयाकरिणक िवशे षणों को, उनके सी होने ने िकस हद तक पभािवत िकया है अथवा नहीं? यह अभी सपष होना बाक़ी है. 40 िकशोरीदास वाजपेयी (संवत् 2055) : 182. ‘आतमा’ और ‘परमातमा’ ये दोनों ही शबद जन-पचिलत हलैं, परं तु एक सी-वग् में, दूसरा पुंवग् में ! कया कारण है? कु छ होगा. शबदों की अपनी गित होती है. संभव है, अधीनता और सवतंतता के कारण सी-पुरुष का वग्-भेद जनता ने कर िदया हो. परमातमा के अधीन आतमा और आतमा के अधीन देह. सो ‘परमातमा’ पुंवग् में रहा और उसके अधीन ‘आतमा’ सीवग् में! ‘देह’ भी सीवग् में इसीिलए िक ‘आतमा’ से संचािलत है. 41 कामतापसाद गुरु (संवत् 1984) : 232. 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 245 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 245 था, ‘कयों आते हलैं?’ पर, नहीं हुआ ऐसा। इसी तरह पं. िकशोरीदास वाजपेयी ने िहंदी शबदानुशासन के ‘वाकय-िवचार’ में उदाहरण िदया है –‘बेटी िकसी िदन पराए घर का धन होती है।’42 यह भाषा सीिलंग में जनम लेने के पाकृ ितक संयोग के िलए समाज दारा लड़की को उपेिकत-दंिडत िकए जाने को सहजता पदान कर जाती है, िजसके तहत एक ही साथ उसे वसतु (धन) और पराया दोनों बना िदया जाता है। ऐसे उदाहरण पेश कर वैयाकरण कया समाज के िलंग-अनयाय को मज़बूती पदान नहीं करता? सी-िवरोधी उदाहरण देने की परं परा बड़ी पुरानी है। अषाधयायी के ‘कम्णा यमिभपैित संपदानम्’ (1-4-32) के संदभ् में वाित्ककार कातयायन ने जो सूत िदया है –‘िकयया यमिभपैित सोऽिपसंपदानम्’, उसका उदाहरण िदया ‘पतये शेते’ (पित के िलए सोती है)।43 यह कौन-सा उदाहरण है भला? यह उदाहरण देकर सी के सारे वयिकतव को नकार कर िसफ़् पुरुष की यौनदासी बना देने वाली कोढ़-मानिसकता पर मुहर लगा देना है। वयुतपित-संबंधी उक पसंगों के अलावा हमारी भाषा की वयाकरिणक वयवसथा में पुिललंग के वच्सव के और भी वयापक संदभ् पाप होते हलैं। उनमें से कु छ का िवचार करते हलैं। िहंदी भाषा में जहाँ कहीं िलंग की अिनिशतता होती है, वहाँ िसफ़् पुिललंग का पयोग िकया जाता है। जैसे, ‘कौन आ रहा है?’/ ‘कौन था?’ आिद। इसके साथ, जहाँ कहीं िलंग-िवशेष जान कर भी उसे पकट करना िवविकत न हो, वहाँ भी पुिललंग का ही पयोग होता है। वैसी जगह िकसी पुरुष को ही नहीं, िकसी सी को भी आते देख कर कहा जा सकता है : ‘कोई आ रहा है।’ इसके साथ, वाचय-पकरण में जब िकया कता् या कम् के पभाव से मुक हो जाती है (यािन कतृव् ाचय और कम्वाचय के भावे पयोग व भाववाचय हो), तब िहंदी में वह पुिललंग-एकवचन में होती है। जैसे, ‘राम ने खाया। सीता ने खाया। राम ने सािथयों को बुलाया। यहाँ अब बैठा जाएगा।’ संसकृ त-वयाकरण का िनयम है िक जहाँ िलंग-िवशेष की िववका न हो, वहाँ नपुंसक िलंग-एकवचन सहज रप से होता है। इस पर यह िवतक् रखा जा सकता है िक चूिँ क िहंदी में ‘नपुंसक िलंग’ नहीं है, इसिलए ‘अिलंगता’ या ‘िलंग-सामानयता’ या ‘िलंग की अिववका’ अथवा ‘भाववाचय’ या ‘भावे पयोग’ में िहंदी ‘पुिललंग’ का पयोग करती है। अतः, िहंदी का पुिललंग-पयोग पुरुषवादी नहीं, िववशता-जनय है। परं त,ु यह कहने वाले यह कयों नहीं सोच पाते िक ‘िलंग-सामानयता’ या ‘िलंग-िनरपेकता’ का काय् कया सीिलंग नहीं कर सकता? कयों संसकृ त के युग से ही पुिललंग को वयापक िलंग बना कर रखा गया है, िजसमें शेष िलंग भी समा जाएँ? िफर, संसकृ त में भी पुिललंग व सीिलंग से इतर, जो िलंग किलपत िकया गया, वह ‘न पुंस’् (यािन, जो पुरुष न हो) के रप में कयों किलपत हुआ? पुरुष िलंग का अभाव बतलाते, उसे नकारते जो िलंग किलपत िकया गया (नपुंसक िलंग), उसका पैमाना पुिललंग 42 43 िकशोरीदास वाजपेयी ( संवत् 2055) : 362. िशवदत शमा् (सं.) (1988) : 257. 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 246 246 | िमान को कयों बनाया गया? इस पकार पुिललंग का वच्सव यहाँ भी िसद है। नालायकी के िलए हम ‘नपुंसक’ शबद का इसतेमाल करते/करती हलैं। जैसे – ‘यह सरकार नपुंसक हो गई’। यािन, सरकार अब मद् न रह गई। वयाकरण ने ऐसा पाररभािषक शबद कयों नहीं बनाया जो पुंसतव या सीतव के पित िनरपेकता का संकेत करे ? ‘नपुंसक’ की जगह ‘नपुंससी’ या ‘अिलंग’ कयों नहीं? या, ‘सीतर’ (जो सीिलंग न हो) जैसा ही कु छ पाररभािषक शबद कयों नहीं बनाया जा सका? ‘अवयय’ शबदों के िलंगहीन होने की वयवसथा वयाकरण देता है। अतः, उक तक् पर िहंदी-वयाकरण उनहें पुिललंग मानकर चलता है। संसकृ त-वयाकरण उनहें नपुंसक िलंग मानता है। िकया के िवशेषण (िकया-िवशेषण) भी सथानीय आधार पर (यािन वचनहीन, अिलंग रहने वाली िकया का िवशेषण होने से) अवयय बन जाते हलैं, अतः उनमें भी अिलंगता आ जाती है। इससे िहंदी-वयाकरण उनहें पुिललंग मान कर चलता है। जैसे : राम अचछा करता है। सीता अचछा करती है। दोनों िसथितयों में रप ‘अचछा’ ही है, ‘अचछी’ नहीं। यही तो पुिललंगवाद है। इसी पकार, सभी िकयाथ्क भाववाचक संजाएँ िहंदी में पुिललंग होती हलैं (संसकृ त में नपुंसक िलंग)। जैसे ‘पढ़ना अचछा होता है।’ इसे ‘पढ़ना अचछी होती है’ नहीं िलख सकते। सबसे मूल बात तो यह है िक िकयाथ्क संजाओं का िनमा्ण ही ‘ना’ पुंपतयय से होता है, ‘नी’ सीपतयय से नहीं। उक िवशे षण से सपष है िक सी और पुरुष को लेकर गुणों या सामािजक वयवहार के कोटीकरण की िलंगभेदी-अलोकतांितक मानिसकता वयाकरण जैसे वसतुिनषता के दावेदार शास में भी पिवष हुई है। पुरुष की अधीन, कमज़ोर, अबोध, िवदा/पितभा से दूर, देहबोध/सौंदय् से गसत, घरे लू या रसोई से लेकर िबसतर तक पारं पररक भूिमकाओं में मगन, ‘पयार’ या ‘साहचय्’ धम् िनभाने की जगह ‘पित’ की ‘भिक’ करती आिद रपों में ही सी को उदाहरण बनाना आम है, जबिक िपतृसता की िविवध ग़ुलािमयों की जकड़बंदी से िनकल कर सशक हो रही : पढ़ती, खेलती, कु शती करती, गाती, झूमती, नौकरी करती आिद सी भी उदाहरण बनाई जा सकती है। कु छ नहीं तो, अंतहीन संकटों व मजबूररयों में पड़ी या डाली गई, भूखी, परािशत, मनोवांिछत िमतता बनाने या मनमािफ़क कपड़े पहनने तक को छछनती सी उदाहरण बन सकती है। पर नहीं, वैयाकरणों को ऐसा करना काहे को सूझगे ा? िलंग-भेद रिहत समाज सथािपत करने की, जेंडर-जिसटस को सफल बनाने की लोकतांितक पितबदता का लकय पूरा करने की िदशा में भाषा और उसके वयाकरण में पैठा यह िलंग-भेद भी कया एक बड़ा रोड़ा नहीं है? भाषाई िलंग-वयवसथा के िवशे षक चाहे िकतना भी उसका संबंध अथ्-अिभवयंजना संबंधी सुंदरता-सूकमता आिद से जोड़ें (जैसा िक रामिवलास शमा् ने कहा है : ‘शबदों की िलंगहीनता भाषा के अिधक जनतांितक होने का सबूत हो सकती है, लेिकन िलंग-भेद का संबंध के वल सथूल उपादेयता से न हो कर सौंदय्बोध से भी है।’ देख,ें संदभ्-31) अथवा उस वयवसथा के पैरोकार चाहे लाख भाषाई सौंदय्बोध के 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 247 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 247 िलए िलंग-भेद की उपयोिगता की रट लगाते रहें, परं तु सतय यही है िक िक िलंग नामक कोिट भािषक संसकृ ित में सी व पुरुष भावों के बीच िजतने सौंदय् या माधुय् की रचना नहीं करती, उससे जयादा वह िलंग-भेद और उस पर आधाररत ग़ैर-बराबरी की िचनगारी को हवा देती है। कारण, समाज ही के वल भाषा नहीं बनाता, बिलक भाषा भी समाज को बनाती है। ‘मै अिुवाद हँ, क मै एक Tी हँ’ मूल कृ ित और अनुवाद के बीच पायः मौिलकता (पधानता) और िदतीयकता (गौणता) का संबंध माना जाता है। अथा्त,् सािहतय या वाङ्मय के िविभनन संदभ्षों में अनुवाद को ‘मूल’ के सापेक कु छ नीचे का दजा् पाप है। ‘मूल’ और ‘अनुवाद’ के इस सोपानीकृ त ररशते को यिद हम वत्मान िवशवयापी समाज-संरचना के संदभ् में देखें तो यह सवतः ‘पुरुष’ और ‘सी’ के ररशते के रप में पररणत िदखाई देता है। लेिकन, यह है पया्प िवसंगत, कयोंिक (जैसा िक हम पीछे अनेकानेक तरह से देखते रहे हलैं) जीववैजािनक और तद्-आधाररत आिदम समाजवैजािनक यथाथ् से सी मूल है, िजसका अनूिदत संसकरण है पुरुष। परं त,ु समाज के ऐितहािसक िवकास-कम में मूल और अनुवाद का यह अनुकम कमशः उलटता गया और आगे चलकर िपतृ-वच्सव से आकांत समाज-संरचना सथािपत होती गई, िजसमें पुरुष और सी की पररिसथितयाँ कमशः मूल और अनुवाद वाली होती गई ं। इसी बदली हुई संरचना का आभास बाइिबल की एक कथा में िमलता है, िजसमें पुरुष के शरीर से एक पसली िनकाल कर सी की रचना करने का िज़क िकया गया है।44 इस िसथित को समाजशास में मातृसतातमक या मातृवंशी वयवसथा की जगह िपतृसता के उभार और सथापना के रप में समझा गया है। 44 िशलानंद हेमराज (1989),‘जेिनिसस (उतपित खंड)’, इबानी-अरामी बाइिबल (पथम खंड), 2/18-23. ‘पभु परमेशर ने कहा : ‘मनुषय का अके ला रहना अचछा नहीं. मलैं उसके उपयुक एक सहायक बनाऊँगा.’ अतः पभु परमेशर ने िमटी से पृथवी के समसत पशु और आकाश के सब पकी गढ़े .... लेिकन मनुषय के िलए उसके उपयुक सहायक नहीं िमला. अतः पभु परमेशर ने मनुषय को गहरी नींद में सुला िदया. जब वह सो रहा था, तब उसकी पसिलयों में से एक पसली िनकाली और उस ररक सथान को मांस से भर िदया. पभु परमेशर ने उस पसली से, िजसको उसने मनुषय में से िनकाला, सी को बनाया और उसे मनुषय के पास लाया. मनुषय ने कहा, अंततः यह मेरी ही अिसथयों की अिसथ है, मेरी देह की ही देह है; यह ‘नारी’ कहलाएगी; कयोंिक यह ‘नर’ से िनकाली गई है.’ 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 248 248 | िमान सुसनने द लोिबनेर हावुड की यह उिक : ‘मलैं एक अनुवाद हू,ँ कयोंिक मलैं एक सी हू’ँ 45 हो या नोड् वाड् जोव का यह कथन : ‘अनुवादक मात सी-सतर का लेखक है’46 : दोनों इसी सामािजक यथाथ् को कु छ सकारातमक या नकारातमक रप में अिभवयक से करते हलैं। आम तौर पर िकसी अनुवाद के पामािणक होने की मूलभूत शत् उसके मूल-अनुगामी और वसतुिनष होने को माना जाता है। परं त,ु यह मानयता अनुवाद के िसदांतकारों दारा कभीकभी िजसका कावयमय रपक में अिभवयक होती रही है, वह पया्प सीिवरोधी है : ‘अनुवादक पितव्रता सी की तरह होता है।’ वसतुिनषता पर ही ज़ोर देते हुए फें च िचंतक मेनेष ने कहा है : ‘अनुवाद सी है : सुंदर है तो िवशसनीय नहीं, िवशसनीय है तो सुंदर नहीं।’47 मेनेष कहना चाहते हलैं िक अनुवाद की पामािणकता उसके पुनःसृजन (कावयातमक पररणित) से रिहत होने यािन यथावत् अवतरण (वसतुिनष पररणित) में है। पर इस सैदांितक पितपादन के िलए उनहें परं परा-पाप सीिवरोधी सोच में ढली उक अलंकाररकता का सहारा लेना पड़ा है। अपने कथन को सुंदर बनाने के चककर में, उसे ख़ुद के अनुसार ही उनहोंने िवशसनीय नहीं रहने िदया है। मेनेष की उक उिक के संदभ् में उनके अंध पशंसकों ने यह जोड़ते हुए नहले पर दहला मारा िक महान् कलाकारों व सािहतयकारों में इसी वजह से कोई सी शािमल नहीं रही है। उनके अनुसार, िसयों के जीवन में एक साथ सुंदर और बुिदमती होने का संयोग घिटत होना असंभवपाय है। वैसे भी परं परागत सािहतय में नाियका के सौंदय्-पितमानों में भोलापन (अथा्त् अबोधता या अजानता) को अिनवाय्-ततव की तरह माना गया है। सच कहें, तो यह िबलकु ल वािहयात तरह का िवमश् है। कारण िक एक तो इस तरह की ‘ख़ूबसूरती’ और ‘अकलमंदी’ की : दोनों ही अवधारणाएँ मूढ़ पुरुषवादी िवचारधारा की िनिम्ितयाँ हलैं, साथ ही सी के िलए उस ‘ख़ूबसूरती’ को अिनवाय् बताना िनहायत ग़ैर-अकलमंदी की िनशानी है। अनुवाद को लेकर, परं परा के खोल में िफ़ट, जेंडर-संदिभ्त िवमश् के अनय नमूने भी देख सकते हलैं। िकसी मूल कृ ित के अनुवाद में यिद आशय-संबंधी कु छ हेर-फे र अथवा भाषाई वयितरे क नज़र आता है, तो ऐसा िवमश् आम हो सकता है, िजसमें हर मूल कृ ित को सी, उसके रचनाकार को िपता (कहीं-कहीं माँ भी) या पित तथा अनुवादक को उसके जीवन में दख़ल देने वाले बाहरी वयिक (पुरुष) की तरह मान कर परं परागत यौन-नैितकता से सनी वह सैदांितकी भी िसथर की जा सकती है, िजसमें उक अनुिचत अनुवाद को बलातकार-सा िनंदनीय मानते हुए, पाठ की पिवतता की रका पर सारा ज़ोर होता है। इस तरह के िवमश् के पीछे िनिशत रप से, पुरुष व सी को लेकर परं परागत सता-संरचना (कमशः उचच-िनमन/ शासक-शािसत आिद) का बोध काय् करता है। पररिसथित यिद कु छ िभनन हो, यािन मूल के रचनाकार और अनुवादक दोनों सी ही हों, तो उक तरह का िवमश् 45 46 47 पमीला के पी (2013) : 40. वही : 39. वही : 40. 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 249 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 249 असंभव हो जाएगा। जेंडर-िवमश् के संदभ् में, आज की एक बड़ी ज़ररत है, ‘दो िलंगों (सी और पुरुष) वाले िवश की मानयता’ से आकांत इस समाज में अनय िलंग/िलंगों (िकननर, िलंगपररवित्त, समिलंगी आिद) को भी माक़ू ल जगह देना और अब िलंग-संघष् और िलंग-संवाद को िदकोणीय (सी-पुरुष के बीच) की जगह ितकोणीय या बहुकोणीय मानना और बनाना। कहना नहीं होगा िक सभयता-संसकृ ित के तमाम अिधषानों और अनुषानों के साथ-साथ, भाषा-िवमश् और उसके एक ख़ास केत, अनुवाद, के संदभ् में भी यह दृिष बेहद पासंिगक होगी। भाषा का लै िक रीकरण और थरमा रेरर अब तक हमने पुरुष और सी के संदभ् में ललैंिगक सतरीकरण के िहसाब से भाषा को देखा है। परं त,ु समाज में सिदयों से ललैंिगक दृिष से उपेिकत पड़े ‘थड् सेकस या थड् जेंडर’ नामक समूह और भाषा के ररशते पर एक सरसरी दृिष डाल लेना उपयोगी होगा। इस संदभ् में, यह कहना शायद अनुिचत नहीं होगा िक सी तो िफर भी िकसी रप में भाषा में मौजूद है, पर िजसे ‘थड् जेंडर’ कहा जाता है, उसकी िसथित तो और दयनीय है। वह भाषा-पयोग के हािशये से भी हािशये पर िदखाई देता है। हमारे भािषक समाज का मानस दो िलंगों में इस क़दर अनुकूिलत है िक उसमें इनसे अलग िकसी तीसरी ललैंिगक िसथित की संभावना ही आम तौर पर ग़ायब ही रहती है। पललवी िपयदिश्नी ने अपने आलेख (‘सांसकृ ितक और भािषक िवषमता के िशकार थड् जेंडर’) में उक िसथित का िचतण करते हुए कहा है : आधी आबादी ... शबद अपने-आप में बहुत घातक है, कयोंिक पकारांतर से यह पररभािषत कर देता है िक पुरुष और सी िमल कर पूरी आबादी हलैं। इस अवधारणा में तीसरे िलंग की जगह कहाँ है? सी तो कम से कम हािशये पर भी है, भले वंिचत-पीिड़त है, पर उसका अिसततव तो सवीकृ त है। लेिकन, उक तीसरे िलंग को तो पूरी तरह अदृशय बना कर रख िदया गया है। वह तो हािशये पर भी नहीं हलैं। समसत जेंडर-िवमश् दो िलंगों में ही िवनयसत है। सी को तो भाषा, संसकृ ित, समाज या हर तरह के िवमश् में थोड़ी बहुत जगह दी भी जाती रही है। लेिकन, िजसके जनम पर सवयं िचिकतसक या उसकी माता भी कोई नाम नहीं दे पाती, उसकी जगह कहाँ है? बचचे के जनम के तुरंत बाद सभी पूछते हलैं िक ‘लड़का हुआ या लड़की?’ इसके अलावा भी िकसी का जनम हो सकता है, इसकी पररकलपना भी नहीं होती।48 48 पललवी िपयदिश्नी (2019) : 212. 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 250 250 | िमान सच तो यह है िक ‘तीसरे सेकस’ की धारणा शबदकोशीय सतर पर ही नहीं मानी गई है, अनयथा पािणयों में जैिवक िलंग-अथ्क शबदों के दैत (जैस,े नर-मादा, लड़का-लड़की, मेलफ़ीमेल, बकरा-बकरी आिद) की जगह ‘तैत’ (‘नर-मादा-इतर’ जैसा) होता। ऐसे में वयाकरिणक सतर पर ‘तीसरे सेकस’ की मौजूदगी की संभावना ही कहाँ बचती थी? िफर भी, देर-सबेर मानवसमाज में मौजूद ‘तीसरे सेकस’ रपी ख़ास वसतु की पहचान हुई और उसके िलए भाषा में ‘षणड’, ‘िहजड़ा’, Eunuch आिद कु छ शबद भी अिसततव में आए, पर सीिलंग-पुिललंग वाली भाषाओं में भी उनके िलए सवतंत ललैंिगक कोिट नहीं बन सकी। दो से अिधक िलंग वाली भाषाओं (जैस,े संसकृ त, अंगज़े ी) में भी ‘तीसरे सेकस’ या ‘तृतीय िलंग’ को अलग दजा् नहीं िदया जा सका। अंगज़े ी में ‘नयूटर जेंडर (नपुसं क िलंग)’ तो है, पर वह ‘तृतीय सेकस’ के िलए न होकर, िनज्जीव पदाथ्षों के िलए है। संसकृ त में ‘नपुसं क िलंग’ (कलीविलंग) है, पर वह भी ‘तीसरे सेकस’ के िलए नहीं है, बिलक उसमें अंगज़े ी की तरह िनज्जीव पदाथ् तो आते ही हलैं, बिलक सी और पुरुष से भी संबद बहुत सारे अथ् आते हलैं (जैस,े कलतम्, िमतम्, ममतवम् आिद); साथ ही उसमें ‘तीसरे सेकस’ के वाचक शबद (जैस,े ‘कलीवम्’) भी आ सकते हलैं। वैसे ‘कलीव:’ रप भी है, यािन ‘तृतीय सेकस’ का वाचक यह शबद संसकृ त में पुिललंग में भी आता है। यिद इन शबदों के ‘वयाकरिणक िलंग’ अथा्त् वाकय-पयोग में इनकी िलंगगत अिनवित पर िवचार करें, तो सपष है िक अंगज़े ी में इसके एकमात संकेतक हलैं : ही, शी, इट (सव्नाम), िहज़, हर/हस्, इट् स (साव्नािमक िवशेषण), जैसा िक ‘वयाकरण और सी’ िवषयक िववेचन में पीछे कहा जा चुका है। इनमें ‘इट’ और ‘इट् स’ नपुंसक िलंग के एकमात संकेतक हलैं, िजनका पयोग ‘तीसरे सेकस’ के िलए अब तक नहीं देखा गया है और उसे ‘ही/शी’ में ही समेटा जाता है। संसकृ त में (खड़ी बोली िहंदी भी) वयाकरिणक िलंग अिधक सपष और वयापक रप से क़ायम है, िजसके केत हलैं : कृ दंत िकया और िवशेषण। जैस,े यिद ‘कलीवः’ कहा तो कृ दंत िकया ‘गतः/गतवान्’ आिद से उसकी अिनवित होगी और यिद ‘कलीवम्’ कहा तो ‘गतम्/गतवंतम्’ आिद से। इस तरह उक पकार की िलंग-वयवसथा वाली भाषाओं में ‘तीसरे सेकस’ को मौजूदा िलंग-वयवसथा में ही कहीं न कहीं समायोिजत करने की िववशता रही है। (‘लड़का हुआ या लड़की?’ : वाकय को कथय की या िलंग-पूवग् ही मानते हुए, हमें वयाकरिणक दृिष से भी इसे घेरना पड़ेगा। इस वाकय में िकया ‘हुआ’ है। ठीक है िक ‘तीसरे सेकस’ को भाषाई वयवसथा में अभी जगह नहीं दी जा सकी है, पर सवाल है िक ‘हुआ’ कयों, ‘हुई’ कयों नहीं?) भािषक वयाकरण में ‘तृतीय सेकस’ के िलए जगह न होने के कारण, िदिलंग (सीिलंगपुिललंग) वाली भाषाओं (जैसे, िहंदी) में ‘तीसरे सेकस’ या ‘थड् जेंडर’ से संबद िकसी िववेचन या िचतण करने वाले के िलए यह भारी समसया है िक उससे संबद वाकय ‘जाता है’ के पारप में गढ़े या ‘जाती है’ के पारप में? अथवा, ‘जाता/जाती’ के िवकलपयुक पारप में? अगर इस तीसरे पारप का भी चुनाव करें, तो भी समसया तो है िक ‘तृतीय सेकस’ के िलए पयोग सवतंत कहाँ हुआ? (यह तो पुरुष और सी का समावेश मात है। िहंदी-शबदकोश में वैसे तो 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 251 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 251 ‘िहजड़ा’ शबद पुिललंग है, इसके अनुसार ‘िहजड़ा जाता है’ होना चािहए था, परं तु इसके बाद भी समसया बनी हुई है िक आज िहंदी में िहजड़ा ‘जाता है’ या ‘जाती है’? ‘जाएगा’ या ‘जाएगी’?) यह समसया पर-लेखन और आतमलेखन : दोनों िसथितयों में समान रप से रहती है। इसी संदभ् में, थोड़ा-सा िवचार हम ‘नपुंसक िलंग’ शबद पर भी कर लें। यह शबद एक पकार से पुरुष िलंग को महतव पदान कर रहा है। जैिवक िलंग से रिहत (िलंगहीन) पदाथ्षों अथवा पुरुष-सी से इतर या कु छ जनों को िलंग-िनरपेक मान कर ‘नपुंसक’ कहा गया। नपुंसक, यािन जो ‘पुंस’् (= मद्) न हो, यािन िजनमें पुंसतव या मदा्नगी का अभाव हो। सवाल है, िलंगअभाव (अिलंगता) या िलंग-सामानयता को ‘नपुंसक’ कयों कहा गया? उस िसथित के िलए ‘नपुंससी’ या ‘इतर’ जैसा शबद कयों नहीं िदया गया? Tीभाषा का सच और Tी-अिुकूल भाषा हम एक बार पीछे लौटते हलैं और पूव्वोक भाषािवजािनयों दारा िववेिचत ‘सीभाषा’ नामक ततविवशेष अथा्त् ‘सीभाषा’ िवषयक उनकी पूव्वोक मानयताओं (यािन, िसयों में पचिलत नकारातमक भािषक अिभलकणों) पर पुनिव्चार करते हलैं। वैसे तो उनमें बहुत सी उपयोगी और नवीन बातें हलैं, पर कई बार ऐसा भी लगता है िक उपयुक ् मानयताएँ या तो खंिडत अधययनों या सव्वेकणों पर आधाररत हलैं अथवा उनके खंिडत िवशेषणों की देन अथवा ये पुरुषवादी भाषािवजािनयों या उनसे पभािवत सीवािदयों की देन हलैं। कारण, मद्षों में भी उक िवशेषताओं का िनतांत अभाव नहीं होता। उन मानयताओं में कई बार यह बात भुला दी जाती है िक िजस सांसकृ ितक उतपाद (‘सीभाषा’ नामक भाषा-सतर िवशेष) को सी की सहज-सवाभािवकता या नैसिग्कता क़रार दी जाती है, वह मूलतः िपतृसतातमक समाज में िसयों पर डाले गए बहुमख ु ी अभाव/वंचना, शोषण व उतपीड़न के चलते बनी उनकी सँकरी पेशागत पररिध और सीिमत या घुटन-भरे पररवेश के आधार पर िवकिसत अिधरचना है। वे मानयताएँ सी के भािषक वयवहार से संबद तथयों की ओर एक सीमा तक (िजस समय या जहाँ ये पसतुत िकए गए, उस समय या वहाँ के समाज की संरचना के िलए सतय) संकेत तो करती हलैं, पर उनके पित समगता में सचेत समझदारी नहीं िदखलातीं। वे ऐितहािसक व समाजशासीय पररपेकय में सी की िबगड़ती-बनती रही िसथित को अनदेखा-सा करते हुए, उसे जड़ मनोिवजान में बाँध डालने की अचेत कोिशश से िनकली पतीत होती हलैं। वे उपयुक ् सी-भाषा के अलगाव का असली कारण शायद पुरुष व सी के अलग-अलग मनोिवजान में िनिहत मानती हलैं, पर किथत अलग-अलग मनोिवजान भी तो पाकृ ितक की जगह पररिसथित-जनय हो सकते हलैं। भाषा का जातीय, केतीय, वग्जीय या जेंडर चररत एक लंबी आिथ्क-सांसकृ ितक पिकया के तहत बनता है। भाषा का उक हर पकार से बना अधूरापन जीवन-िनवा्ह, िवकास व जान के साधनों पर कु छ लोगों/समूहों के एकािधकार और शेष को उपेिकत रखने का पररणाम है। लगता है, सीभाषा के कई िचंतक िनषकष् तक पहुचँ ने के पहले इन बातों पर पुखता या पया्प िवचार नहीं कर पाए हलैं। 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 252 252 | िमान ‘सीभाषा’ जैसी वसतु को यिद सामािजक या भाषाई यथाथ् माना भी जाए, तो बेहतर होगा िक उसे िसयों की भािषक पवृित या उनकी आदत-िवशेष के रप में पररभािषत करने की जगह, उसे ऐसी भािषक पवृितयों का समेिकत रप माना जाए, िजनमें से कई पवृितयाँ िकसी समाज में सता-संरचना में िनमन पदानुकम पर बैठे वयिक/समूह के भीतर सवाभािवक रप से आकार लेती हलैं। अथा्त,् उपररचिच्त अिधकांश िवशेषताओं (पूव्वोक कु छ ख़ास नकारातमक या अभावातमक अिभलकणों या पवृितयों) के साथ किथत ‘सीभाषा’ पुरुष भी बोल सकता है, यिद वह अधीनीकरण या िनमनतर िसथित का िशकार हो। इस पकार, ‘सीभाषा’ तकनीकी या पाररभािषक शबद के तौर पर ही गाह है। तब, सीभाषा वयिकवाचक की जगह जाितवाचक संजा हो जाती है। इससे िवमश् के िलए सुिवधा हो जाती है, िजससे इस वयाखया के साथ वह कु छ दूर तक चल सकता है िक िसयों की भािषक पवृितयों के अवलोकन के पयास में ही सबसे पहले उक तरह के नकारातमक या अभावातमक अिभलकणों का पता चला होगा। इसी कारण, उनका ‘सीभाषा’ के नाम से कोटीकरण िकया गया और उस समय से यह माना जाने लगा िक हर समाज के िसयों की भािषक आदतें ऐसी ही होती हलैं। परं त,ु बाद में यह देखा गया िक कई पुरुष भी इस पकार की पवृितयों, यािन तथाकिथत ‘सीभाषा’ से िबलकु ल ररक नहीं हलैं। तब, उक शबद का लाकिणक अथ्-िवसतार हुआ और वह (‘सीभाषा’) तकनीकी नाम भर बन कर रह गया। *** िसयों के जीवन की भौगोिलक और सांसकृ ितक पररिध अतयंत संकीण् रही है; इसके साथ पररिसथित के एकदम पितकू ल होने और उससे मुक़ाबले की माक़ू ल ताक़त पास न रहने का बोध भी उनकी सामूिहक अमूत् चेतना में काय्रत रहा है, िजससे आतमसंरकण और आतमािभवयिक हेतु हर समाज में उनकी भाषा में नकारातमक या अभावातमक गुणों के रप पूव्संकेितत ऐसे अिभलकण-िवशेष (किथत सीभाषा) सवाभािवक तौर पर उभर आए हलैं। इनका िनमा्ण मूलतः सहज रप से, पर अलपतः सायास भी हुआ है, लेिकन कारण-रप में सी-िवरोधी वे पररिसथितयाँ ही हलैं, िवशे षक िजनहें अनदेखा करके इस भाषा का मूल सोत सी की जैिवक-मनोवैजािनक संरचना (सी-पकृ ित) में ही खोजने की भूल अकसर कर बैठते हलैं। जैसा िक पीछे भी संकेितत है, पूव्वोक ‘सीभाषा’ वसतुतः िपतृसता दारा बनाई गई चौहदी में घुटती रही सी का भािषक अनुकूलन है। आतम-संरकण के तहत सी मुखयतः बचाव की भाषा का इसतेमाल करती है और गौणतः पितरोध की भाषा का। ये इसतेमाल िकया की सहज पितिकया के रप में अिधक हलैं, सचेत या चालाक कम। सी दारा पितरोध की भाषा दो तरह से संभव है :– 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 253 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 253 1. पुरुष/पुरुष-पधान मूलयों पर कटाक/वयंगय करने के रप में परोक पितरोध।49 2. पुरुष/पुरुषवादी वयवसथा को गाली या चुनौती देने के रप में सीधे िभड़ंत।50 1 को ही सी-भाषा के िवचारकों ने इस रप में कहा िक सी सांकेितक या घुमा-िफरा कर जयादा बोलती है। 2 की नौबत अपवादसवरप ही आती है, लेिकन उसी का पचार पुरुषवादी तंत में ‘ितररया-चररतर’ से जोड़ इस तरह िकया जाता रहा है, मानो हर औरत काटने को ही दौड़ती हो। यिद कहीं वैसा है भी, तो कारण हलैं न! िकसी पंछी या िबलली को िपंजरे में बंद 49 राजेंद यादव (2008) : 14-18. ‘देह के साथ ‘देह की भाषा’ सी का दूसरा सबसे बड़ा हिथयार है. बंिदशों के बीच संकेतों और पतीकों में वह अपनी िनजी और अचूक भाषा िवकिसत कर लेती है. शबदों का िकतना धारदार और पभावी इसतेमाल िकया जा सकता है, यह सी से अिधक कोई नहीं जानता. छोटी-सी पाररवाररक दुिनया के ईषया्-देष, सवाथ् और सरोकार उसे हमेशा आतमकें िदत या युद की मानिसकता में बनाए रखते हलैं : और इनहें वह भाषा से साधती है ...गुलाम होने का साझा दुख (कॉमन सफ़ररं ग) दो िसयों को आपस में जोड़ता है .... देष और दुख की दंदातमकता उनहें आपस में संवाद-सेतु बनाए रखने की पेरणा देती हलैं. यहीं वह हमारे िलए यािन समाज के िलए अपनी भाषा का ‘आिवषकार’ करती है ... ‘दमन और असुरका के भय के बीच अपने मन की बात कहना सी-मनोिवजान की एक दूसरी जिटल िसथित (िफ़नोिमनन) है. अपने गीतों और सवगत-कथनों में वह िनजी बात को भी लगभग सबकी बात के रप में ही वयक करती है; तािक वह ‘पकड़ी’ न जा सके .... इसे पुरुष ने नाम िदया िवधवा-िवलाप या औरत की बड़बड़. हारी हुई सी झगड़ालू और लड़ाकी हो जाती है. यह उसका वयिकगत िवदोह है. ‘मगर इस ‘िवलाप’ को शबद देना सी का पहला िवदोह है : यथािसथित की घुटन में छटपटाना ही मुिक की पेरणा भी बनता है ... बोल कर या िलख कर इन आतमोिकयों में जब वह अपनी पाररवाररक या सामािजक दुदश ् ाओं के िववरण देती है तो अपनी िनयित के िख़लाफ़ िवदोह भी कर रही होती है ... एक िसथित में अपने आप में बात करना सी का ररलीफ़ है. पररवार और समाज के लोग सी के इन आतम-पलापों पर या तो हँसते हलैं या उसकी उपेका करते हलैं. लेखन उसके आतमकथन का उदातीकरण करता है. सी की हर आतमकथा अपनी यातनाओं की ऐसी िनजी दासतान है जो घर-घर में घिटत होती है. पुरुषों की आतमकथाएँ उनके िनजी संघष्षों की िवजय गाथाएँ हलैं ... अपनी बात कह कर सी अपने भीतर के उस भय को जीतती है, िजसे पररवार और समाज ने हज़ारों सालों में उसके असुरिकत अिसततव का पया्य बना िदया है .... दिलतों की तरह िसयों की पारं िभक रचनाएँ, चाहे वे आतमकथय हों, किवता-कहानी हों या दूसरी अिभवयिकयाँ, जेल से भागे हुए क़ै िदयों की वयथा-कथाएँ ही हलैं.’ 50 लीना यादव िनद्वेिशत पाचडवि िफ़लम (2015) चार औरतों : जानकी (लहर ख़ान), रानी (तिनषा चटज्जी), लाजो (रािधका आपटे) और िबजली (सुरवीन चावला) की कहानी है. उसका एक दृशय भाषा के ललैंिगक चररत की दृिष से पूरे िहंदी िसनेमा के इितहास में बहुत ख़ास है, िजसमें िबजली के नेततृ व में पाचडवि की उक चारों नाियकाएँ मद्वादी गािलयों का पितसंसार रचती हलैं! चूिँ क वे भी समाज की उसी किथत ‘आम भाषा’ में ढली हुई हलैं, िजसकी गािलयों का एक बड़ा िहससा औरत की यौिनकता पर हमला (बलातकार) के आशयों से दूिषत है; अतः अपनी बातचीत में वे चाहे-अनचाहे मद्षों को जब उदृत करती हलैं, तो ‘माँबहन’ की उनहीं गािलयों के साथ. पर, उक दृशय में िबजली को जब अचानक यह बोध होता है िक ‘इनहें बनाने वाले सारे मद् हलैं, कयोंिक हर गाली में वे औरतों का बलातकार ही करते रहते हलैं’; तब पितकार में वह उन गािलयों में िनिहत यौन-दलन की पवृित का मुहँ मद्-संबंधों (‘बेटा, भाई, बाप और चाचा’) की ओर घुमा कर, बाक़ी तीनों औरतों को अपने साथ ले कर िचलला उठती है: ‘मादरचोद, साले ये गािलयाँ बनाने वाले सारे मदवि ही हदोंगे न! हर गाली में साले औरतदों को चोदते ही रहते हैं ये मादरचोद, बहनचोद साले! इन को साला कोई नहीं चोदता, हरामी लोगदों को. बेटाचोद! ...चाचाचोद! तेरा पापाचोद! ... बापचोद! बेटाचोद! भाईचोद! चाचाचोद!’ इस तरह से उक चारों नाियकाएँ सवर में सवर िमला कर अपने अनजाने में िपतृसता की भािषक गुंडागद्जी से िभड़ने का वयाकरण रचने लगती हलैं. 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 254 254 | िमान करके उसे नोचते या डंडे से परे शान करते रहो और उममीद करो िक उसकी पितिकयाएँ एकदम सरल हों : िबना लाल-पीली आँखों वाली, िबना िकसी तरह के तीखेपन के ! यह एक तथय है िक जीवन से जुड़ी ज़ररतों या साधनों को लेकर िजसे िजतनी ही बड़ी और िविवधतामयी भौगोिलक व सांसकृ ितक पररिध में घूमना पड़ता है, उसकी भाषा उतनी ही सशक, समृद व जीवंत होती है। आम तौर पर पाई जाने वाली सी की भािषक अशकता या लचरता का मूल कारण है उस पर थोपा गया सीिमत, घुटनभरा पररवेश। सवाल है : सथानीय शबदावली, लोकभाषा या लोक-सािहतय (जैसे लोकगीत) सी की ही ख़ास चीज़ कयों रहे हलैं? जब िकसी को इंटरनैशनल या यूिनवस्ल होने से रोका जाएगा, तो वह लोकल हो कर ही तो रहेगा। ‘सी-भाषा’ नामक यह ततव िपतृसता से गसत िवषम समाज में पनपा और िवकिसत हुआ है। यिद िलंग की दृिष से पूण् समतामूलक समाज अिसततव में आ जाए, तो िसयों की भाषा का कया रप होगा, यह िवचारणीय है। अथवा, उस पकार के समाज की िदशा में अगसर होने के िलए िसयों की या आम वांिछत भाषा का रप कया हो ? : यह भी िवचारणीय है। भाषा के उपयु्क अधूरेपन के संदभ् में, शेष आधी भाषा या इस किथत ‘सी-भाषा’ पर िवचार करना बेहद ज़ररी है, कयोंिक इसी शुरुआत में ललैंिगक दृिष से भाषा की अपूणत् ा या अपंगता दूर करने अथवा उसका ‘जेंडर-जिसटस’-परक पुनग्ठन करने के बीज िनिहत हलैं । दुिनया के अनेक िहससों में िचरकाल से उपेिकत पड़े/रखे गए समूहों में चहुओ ँ र नवजागरण और बहुमख ु ी सशकीकरण या मुिक की िवगत कई दशकों से उठ रही लहरें आज परवान चढ़ रही हलैं और तजजनय गंभीर िवचार करने का दौर अब बहुत आगे िनकल चुका है। ऐसे समय में सी-िवमश् भी कई कोणों से नए-नए तेवरों के साथ पचिलत रढ़ वैचाररकी में अपने दमदार हसतकेप से उसके दुग् का भेदन रहा है। परं त,ु कितपय वैचाररक मंचों से आए िदन ऐसा भी महसूस िकया जाता रहा है िक िहंदी का (और संभवतः भारत का ही) सी-िवमश् अब तक अपनी कोई िनजी या ख़ास भाषा िवकिसत नहीं कर पाया है, एक हद तक िजस तरह की भाषा दिलत-िवमश् के पास िवकिसत हो चुकी है। (पता नहीं, यह बात िकतनी सच है?)।51 अगर यह सच है, तो इसमें दो राय नहीं है िक िबना उिचत भाषा के िवमश् भी ठीकठाक 51 राजेंद यादव (2008) : 11-12. ‘सी-िवमश् का सबसे जिटल पहलू यह है िक उसे पुरुष-भाषा के वच्सव में ही अपनी बात कहनी है, कयोंिक उसकी अपनी कोई भाषा नहीं है’. अभय कु मार दुबे (सं.) , ( 2014) : 122-23. िहंदी के सी-रचना-संसार (िवशेषकर मननू भंडारी, मैतेयी पुषपा और पभा खेतान के सािहतय) पर एक दृिष डालते हुए, समाजिवजानी अभय कु मार दुबे को ऐसा महसूस होता है : ‘मुझे उनकी भाषा में कोई भी ऐसा नया मुहावरा नहीं िदखा जो िक पुरुषों की भाषा में नहीं िदखाई पड़ता है. मुझे तो उसके अंदर कई चीज़ें बहुत ही सपाट लगीं. हाँ, मलैं उनकी िवषय-वसतु से बहुत पभािवत हुआ. लेिकन, जहाँ तक भाषा का सवाल है, रप का सवाल है, िशलप का सवाल है, उस धरातल पर मुझे उन रचनाओं के अंदर ऐसी कोई िवशेष बात नहीं िदखाई दी िक जो पुरुष न िलखता हो और सी होने के कारण उसके अंदर कोई नई बात पैदा हो गई हो ... दिलत-सािहतयकारों के लेखन में मलैं बहुत से मुहावरे , बहुत सी युिकयाँ देखता हू,ँ जो ग़ैर-दिलत-सािहतयकारों के लेखन में नहीं िमलते. जैसे एक दिलत कहानी का मुझे शीष्क याद नहीं आ रहा है, पर उसके अंदर जब पेमी अपनी पेिमका के गोरे होने का वण्न करता है तो वह कहता है िक उसकी तवचा बाघ की जीभ की तरह गोरी थी. तो बहुत चौंकाने वाला िशलप है यहाँ पर. लेिखकाओं में मुझे िसफ़् कृ षणा सोबती अपवाद लगती हलैं िजनहोंने सायास कोिशश करके एक नई भाषा 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 255 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 255 नहीं चल सकता। इस िसथित में वह भटकता या लुढ़कता-पुढ़कता ही रहेगा। इस िलहाज़ से भी ‘आधी भाषा’ के उक सवाल या ‘सी-भाषा’ अथवा ‘सी के पित भाषा के बता्व’ पर िवचार करना बेहद पासंिगक है। अपने ऐितहािसक अवमूलयन और बहुमख ु ी शोषण-दलन से मुक होने तथा पूरी तरह इंसान बनने के िलए, सी को अपनी पररिसथित को समझना और आतममंथन करना होगा। आज तक ‘सी’ और ‘सी के िलए’ को िजस तरह पसतुत िकया गया है, उसकी चीर-फाड़ करनी होगी; साथ ही उन पर सवाल खड़े करते हुए ख़ुद को सही रप में वयक करने (आतमािभवयिक) की राह चुननी होगी । सी-मुिक की पिकया में िहससेदारी तो समता-कामी हर वयिक कर सकता है और उसे करना भी चािहए, लेिकन सी को सबका सहयोग लेते हुए भी भरोसा अपने ऊपर ही करना होगा, कयोंिक कोई मुिक भीख, भेंट या दान नहीं होती, किठन संघष्षों से पाप उपलिबध होती है। चूिँ क मानव की मित और कृ ित का बहुलांश भाषा में ही वयक होता है और हमने देखा है िक सी के पित भाषा का बता्व सममानजनक व नयायोिचत नहीं रहा है, इसिलए बात भाषा से ही शुर करनी होगी। उस पर काम करना हमारी पाथिमकता होगा। इस पिकया में सबसे पहले तथाकिथत ‘आम भाषा’ और िसयों की भाषा का सवाधांग परीकण करना होगा : ‘जेंडर’ संबंधी सतरीकरण से िनिम्त ‘सी-भाषा’ जो हमें पाप होती रही है, उसकी भी पड़ताल करनी होगी। िफर, अिधक मानवीय व लोकतांितक भाषा या उसकी संभावना का सृजन करना होगा। ये दोनों (परीकण और सृजन) एक पर एक नहीं, बिलक युगपत् रप से चलेंगे और एक के घिटत होने में दूसरे का सवतः उभार िनिहत है। परीकण का काय् दो सतरों पर करना होगा (जैसा िक इस आलेख में जगह-जगह हम करते आ रहे हलैं) : 1. सी के पित किथत ‘आम भाषा’ के रवैये या बता्व की जाँच 2. सी की भाषा और उसमें िवकिसत हुए अिभलकण-िवशेष (किथत ‘सी-भाषा’) की जाँच। (जैसा िक हमने देखा है) पहले से इस सच का पदा्फ़ाश होता है िक उक ‘आम भाषा’ सी के अनुभव, समसया/पीड़ा की अिभवयिक में (उिचत शबद/मुहावरे दारी के अभाव एवं पुरुषपभावी शबद/वाकय-गठन के कारण) अकम तो है ही; ऊपर से सी-िवरोधी/दोहन-शोषणकारी ढाँचों या िसथितयों को सहज सवाभािवक रप देते हुए उनका मिहमामंडन तक करती है (जैसे : ‘पितव्रता’,‘माँ’,‘पररवार के आगे कै ररयर को भी छोड़ िदया’ आिद कहना) और सब िमला कर जेंडरवादी छद अिसमताएँ गढ़ती हलैं। सी के सहज सच को अिभवयिक देना इसके बूते के गढ़ने और पुरुष लेखकों से िभनन होने की कोिशश की है.’ पर, मैतेयी पुषपा के सािहतय में यौन-पसंग के आने पर उनके अनुसार िचतण कु छ अलग तरह का या िविशष महसूस होने लगता है, जहाँ पुरुष-यौिनकता और सी-यौिनकता की सता-संरचना को लेिखका उलट के रख देती हलैं. उनकी इस कामयाबी के पीछे उनहें कयों लगता है िक शायद वे अपनी मानिसक दुिनया में देह के पित सहज होंगी; ऐसा नहीं िक पररवार के बारे में बात करते देह को अंडरगाउंड कर िदया गया हो. 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 256 256 | िमान बाहर की बात लगती है। अपने मुहावरों/लोकोिकयों, किथत सममानसूचक (जैसे सती, देवी, सुंदरी आिद) और अपमानकारी (जैसे कु लटा, डाइन, बाँझ आिद) शबदाविलयों से उसे सामानय मनुषयता की पररिध से परे कर देने वाली भाषा है वह। कु ल िमला कर, यह सी के पित भािषक आतंकवाद का मामला है। यह पुरुष-भाषा सी भी बोलती है या जो किथत सीभाषा बोलती है वह भी पुरुष-भाषा के पभाव से मुक नहीं होती। तभी तो आम तौर पर िकसी सी की पशंसा करनी हो तो उसे ‘सती’, ‘सुंदरी’ आिद ही वह कह पाती है और कोसना या फटकारना हो तो वह ‘िछनाल’, ‘साली’ आिद कह डालती है। इसी तरह, सी पुरुष को गाली देते ‘साला’ आिद शबदों का पयोग कर बैठती है (जब िक ‘साला’ व ‘साली’ मद् के िलए ही संभव है)। इस पिकया में वह इन शबदों में नया अथ् भरती और इस तरह से शबदाथ्-संबंध यािन धीमी गित से भाषा को भी बदलती रहती है। इसी तरह पचिलत शबदावली को कु छकु छ िवसथािपत करते या उसमें कु छ नई िमलावट करते हुए भी सी किथत ‘आम भाषा’ को िकसी न िकसी माता में पुनग्िठत कर अथवा बदल रही होती है (जैसा िक पूव्-उदृत पाचडवि िफ़लम की नाियकाएँ मद्वादी गािलयों के संदभ् में करती हलैं, देखें संदभ्-संखया 50)। परं त,ु इससे भाषा इतनी नहीं बदल पाती, िजसमें सी अपने को पूणत् या वयक कर सके । उसमें िकसी सीमा तक ही अपने सुख-दुख, पीड़ा को वह वयक कर पाती है। भाषा के िलंग-चररत में जो बदलाव हमारा कामय है, वह तो िवशाल सांसकृ ितक और िकसी हद तक सचेत पिकया दारा ही संभव है। िकसी समाज में पाप सी-भाषा किथत आम भाषा से िजस माता में िवलकण होगी, उसी माता में वह इस बात की संकेतक होगी िक वह समाज सी-पुरुष के बीच अिधकािधक अलगाव और भेद-भाव की समसया से गसत समाज रहा है। एक हक़ीक़त है िक आज सीभाषा (िलंग-बोली) की माता घटती जा रही है।52 इसका कारण यह है िक सभयता के अिधक समतामूलक िवकास के साथ सी-पुरुष के बीच का गैप घटता जा रहा है और सी के कु छ कहने-बोलने और िलखने की हैिसयत लगातार मज़बूत होती जा रही है, िजससे भाषा में सी के िलए जगह बढ़ती जा रही है। इससे सी भी पुरुष के समान भािषक कमताओं और िवशेषताओं से संपनन होती जा रही है। इससे जेंडर के संदभ् में धीरे -धीरे कु छ हद तक एक साव्जनीन सी भाषा आकार ले रही है। इसे कु छ िवचारक पुरुष-भाषा में सी के ढलने के रप में भी देख सकते हलैं। सी और पुरुष का अलगाव उस तरह का नहीं है, जैसे नई िदलली से पटना का अलगाव है। इसिलए सी की भाषा पुरुष से उतनी िभनन नहीं हो सकती, िजतनी नई िदलली 52 देखें - ‘पितमान-16’ में पकािशत इस आलेख के पहले िहससे की संदभ्-संखया 49 और 54. (सुकुमार सेन, पृष्ठ : 58-59 : ... आधुिनक समय में अपेकाकृ त कम सभय लोगदों ने िलंग-बोली को अकुणण रखा है. पशांत महासागरीय दीपदों के कु छ मूल िनवािसयदों के संबंध में यह सतय है ... यद्यिप आधुिनक सभय लोगदों में समुिचत िलंग-बोली नहीं पाई जाती तथािप पायः सभी समुदायदों में ऐसी िविशष मुहावरे दारी पररलिकत है, जो पूरी तरह से िसयदों तक ही सीिमत है ... कु छ पुरुषदों की िसयदों को अपने पित अथवा शेष्ठ जनदों का नाम लेने से मनाही होती है. आधुिनक सभय िसयदों की भाषा में िनि्चित रूप से ऐसी िविचतताएँ समाप्त हो चुकी हैं.). 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 257 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 257 से पटना की भाषा िभनन है। दोनों की भाषाओं में सामानयता या औसतपन जयादा है, िवलकणता कम।53 यहाँ सांसकृ ितक िवभेद (जेंडर) को तो पूरी तरह ख़ाररज िकया ही जा रहा है, बिलक पाकृ ितक िवभेद (सेकस) या उसके पभाव को भी यथासंभव कम करने की बात की जा रही है। सी-पुरुष जब साथ-साथ हलैं और उनके साथ-साथ रहने के िसलिसले व दायरे जब िनरं तर बढ़ते जाएँगे, तो उनकी भाषाएँ नदी के दो िकनारों की तरह िकतनी देर तक चल सकती हलैं? दोनों की सामानयता के आधार पर गंगा-जमुनी भाषा को तो आकार लेना ही लेना है। सीपुरुष दो अलग-अलग पैकेटों में (अंतःपुर और बाह संसार) में िजतना ही अिधक रहेंगे, उनकी भाषाएँ उतनी ही अलग-अलग होंगी। िजतना ही ये पैकेट सटेंगे, िमलेंगे और फलतः टू टेंगे, उतने ही साव्जनीन ततव भाषा में पकट होते जाएँगे। सी के लायक़ भाषा की रचना इसी साव्जनीनता की माता पर ज़ोर दे कर की जा सकती है। परं त,ु यह बात भी भूलने की नहीं िक सी पुरुष के बराबर इंसान होने के साथ-साथ िकसी माता में उससे िवलकण इंसान भी है। पुरुष की तुलना में सी की जो ख़ास तरह की जैिवकता और उससे जुड़ी कु छ िविशष अनुभिू तयाँ-संवेदनाएँ, समसयाएँ या िसथितयाँ हलैं, उनके िलए भाषा में कु छ अलग से जगह होनी ही चािहए। शरीर और उसकी बाह िकया (जैसे पेशाब) आिद को लेकर (बचचे और बचची में) अलगाव से जुड़ा बचची का अनुभव, बचचे-बचची के बीच के िवभेदीकरण (वसािद से ढकने में भेद) का बचची पर पभाव, वयःसंिध के दौरान लड़की में पकट हो रहे मुखय और गौण ललैंिगक लकणों (सतन आिद का उभार) का पादुभा्व, मािसक साव, संभोग, गभ्-धारण, गभा्वसथा की दैिहक किठनाइयाँ, पीड़ाएँ और संवेदनाएँ, गभ् को पालना, पसव और उसकी यंतणाएँ, सतनपान, िशशु का लालन-पालन, (िपतृसथानीय या िपतृ-आवासीय िववाह में) िपतृगहृ से िवदाई, मैके में आगमन, यौन-िहंसा (बलातकार), गभ्वोतर पभाव (हाम्वोनल और आंिगक पररवत्न, भार बढ़ना आिद), रजोिनवृित (सी का िचड़िचड़ापन और ख़ुद को बेकार महसूस करने का अनुभव), बंधयाकरण (ट् यबू ेकटॉमी), गभा्शय िनकलवाना (िहसटेरेकटॉमी) आिद से जुड़े अनुभव एकमात सी-अनुभव हलैं,54 जो 53 सटािलन के पूव्वोक मत से यह तुलनीय है, िजसमें उनहोंने कहा है िक िकसी समाज के अलग-अलग वग्षों की भाषा मूलतः एक ही होती है, कयोंिक वयाकरण-तंत और मूल शबदावली के सतर पर उनकी िवभाषाओं में अलगाव नहीं होता. (देखें – ‘पितमान-16’ में पकािशत इस आलेख के पहले िहससे की संदभ्-संखया 48) 54 इसी तरह थड् जेंडर के भी कु छ ख़ास जैिवक और सांसकृ ितक अनुभव होंगे, जो सी-पुरुष दोनों से िवलकण होंगे. इसी तरह पुरुष के भी कु छ ऐसे अनुभव होंगे, जो सी या थड् जेंडर से हट कर होंगे. (जैसे : मातृसथानीय या मातृ-आवासीय िववाह, िजन की िसथित भारत में बहुत कम है, में मद् का अनुभव भी दषवय रहेगा अथवा पचिलत िववाह या सी-पुरुष संबंध के ढाँचे में ही पुरुष के पित हो रही िहंसा का अनुभव भी दषवय रहेगा.) हाँ, एक बात है िक चूिँ क किथत ‘आम भाषा’ पुरुष-पभावी भाषा है, अतः किथत िवलकण पुरुष-अनुभवों को तो उनमें जगह बहुत हद तक सवतः िमली ही रहती है. यहाँ यह धयान रहे िक समाज के सदसय के रप में मानव को जो अकसर अनुभव होते हलैं, वे िवशुद जैिवक अनुभव नहीं होते, बिलक वे ‘जैिवक + सांसकृ ितक’ के िमिशत रप में होते हलैं. उदाहरणसवरप, लड़की/ सी के बलातकार की पीड़ा जैिवक से अिधक सांसकृ ितक है, जो उसके भीतर शम्, अपराधबोध, िवतृषणापूण् िनराशा (‘मलैं सड़ गई, ख़राब या बेकार हो गई’ जैसे रप में‘) आिद जगा देती है. इसी तरह, पुत या संतान न होने से जुड़ा औरतों का दुःख भी जैिवक से अिधक सांसकृ ितक ही है, कयोंिक उनकी उक सामानय िसथित को िनरं तर उपेका, अपमान आिद के ज़ररये समाज इस हद तक जिटल और िवषम बना देता 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 258 258 | िमान पुरुष के भीतर नहीं हो सकते। इस आधार पर सामानय सैदांितकी तो यही बनाई जा सकती है पुरुष-पभाव में िवकिसत भाषा (किथत आम भाषा) में इनहें अिभवयक करने की कमता या तो हो नहीं सकती या ठीक-ठाक नहीं हो सकती अथवा अभी तक पैदा नहीं हो सकी है। पर, यह कहना भी ख़तरे से ख़ाली नहीं है। कारण, आम पुरुष के िलए तो मोटे तौर पर यह सतय हो सकता है, पर जो पुरुष रचनाकार हो तब? जैिवक आँख से परे , रचनाकार की एक तीसरी आँख भी होती है : कलपना या पितभा की आँख। एक ख़ास सतर पर, रचनाकार न पुरुष होता है, न सी, न थड् जेंडर : इस सैदांितक संभावना को हम कयों नकारें ? उदाहरणसवरप, िहंदी की एक मशहूर किवता का अंश पसतुत है : ‘धूप चमकती है चाँदी की साड़ी पहने / मैके में आई िबिटया की तरह मगन है। फू ली सरसों की छाती से िलपट गई है / जैसे दो हमजोली सिखयाँ गले िमली हलैं।’55 अगर किव (के दारनाथ अगवाल) का नाम पहले से पता नहीं हो, तो ‘सी-अनुभव’ और ‘पुरुष-अनुभव’ अथवा ‘सी-भाषा’ और ‘पुरुष-भाषा’ के पचिलत फ़ॉमू्ले पर (अनािमका आिद के पूव्वोक पितपादनों के आधार पर) तो यह रचना आराम से सी रचियता की मान ली जाती। इसका मतलब हुआ िक रचना में सी-अनुभवों को िचितत करने के िलए जैिवक रप से सी होने की अपेका दृिष या िमज़ाज से सी होना अिधक ज़ररी है। पर, इस तथय से भी इनकार करना संभव नहीं है (जैसा िक सी-लेखन के संदभ् में महादेवी वमा् के मत को पसतुत करते हुए पीछे कहा गया है) िक दृिष या िमज़ाज का देह से भी कु छ संबंध है, भले अिनवाय् या आतयंितक संबंध न हो। पितभा (कलपना) या ‘सहानुभूित’ की बदौलत, भले कु छ भी, िकसी का भी ‘सच’ कहा या रचा जा सकता हो, िफर भी ‘सवानुभूित’ का रं ग या आँच अपनी ही होती है, इससे भी इनकार करना मुिशकल है। इससे यह बात िनकल कर आती है िक सीिमत अथ् में ही सही सी-भाषा की रचना होनी चािहए। पर, इस कामय सी-भाषा को तिकया-कलाम, कोमल, िझझक-भरी, लड़खड़ाती, लचर आिद कोिट का पया्य बना देना ठीक नहीं। िपतृसता में सी-संबंधी जो रढ़ मानयताएँ बना दी गई हलैं, उनसे सावधान रह कर सी अपनी भाषा को वैसा रप दे, िजसमें कु छ ख़ास सी-अनुभवों या सी-संवेदनाओं को (आरोिपत सांसकृ ितक सीतव के फलसवरप सी में हो है िक उन का जीना मुहाल हो जाता है. 55 के दारनाथ अगवाल (2009) की रचना ‘धूप’ : 63. धूप चमकती है चाँदी की साड़ी पहने / मैके में आई िबिटया की तरह मगन है. फू ली सरसों की छाती से िलपट गई है / जैसे दो हमजोली सिखयाँ गले िमली हलैं. भैया की बाँहों से छू टी भौजाई-सी / लहँगे की लहराती लचती हवा चली है. सारं गी बजती है खेतों की गोदी में / दल के दल पकी उड़ते हलैं मीठे सवर के . अनावरण यह पाकृ त छिव की अमर भारती / रं ग-िबरं गी पंखरु रयों की खोल चेतना. सौरभ से मह-मह महकाती है िदगंत को / मानव मन को भर देती है िदवय दीिप से. िशव के नंदी-सा निदया में पानी पीता / िनम्ल नभ अवनी के ऊपर िबसुध खड़ा है. काल काग की तरह ठूँ ठ पर गुमसुम बैठा / खोई आँखों देख रहा है िदवासवपन को. 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 259 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 259 रही जैिवक अनुभिू त को भी) समेटने और अिभवयक करने की कमता हािसल हो सके , साथ ही आम या वयापक जान/बोध/संवेदनाओं के िवशाल संसार को भी सँभालने की कमता वह रखे। यह काय् बड़ा चुनौती भरा है। यह भाषाशास के केत में नहीं, भाषा के समाजशास के केत में खोजने या रचने का है। यािन, यह के वल भाषाशासीय मुदा नहीं, बिलक समग सांसकृ ितक पररवत्न से संबद मुदा है, जो अिनवाय् रप से राजनीितक भी है, कयोंिक सीतव व पुरुषतव जैसे वग्जीकरण का जीविवजान से उतना ताललुक़ नहीं है, िजतना शिक/सता के असमान िवतरण से। सी बड़े पैमाने पर लेखन में उतर कर या आतमािभवयिक करके ही पुरुषभाषा से मुक हो सकती है। उसके माधयम से सबसे पहले वह ख़ुद को जगह िदला सके गी, वैचाररक/वयिकगत सतर पर मुक हो सके गी। इसी के साथ, उसी के ज़ररये वैचाररकी के कें द में सी-मात को ला सके गी और उसके ज़ररये भाषा को भी ठीक कर सके गी। भाषा के कें द में सी को लाते हुए वह भाषा का सकल िलंग-चररत बदल सके गी। सी-िवरोधी संरचनाओं/संसथाओं और मूलयों के िवरुद संघष् िजतने तेज़ होंगे, सी-िहतों की रका और िवसतार की कोिशशें िजतनी ही तेज़ होंगी, भाषा को सी के लायक़ बनाने की संभावनाएँ उतनी ही पबल होंगी। सी के संघष् के िबना उसके अनुकूल भाषा की रचना संभव नहीं, पर ऐसी भाषा के िबना सीसंघष् को समुिचत आकार या िदशा देना भी तो संभव नहीं। लेिकन, यहाँ सतय का एक पक यह भी है, जैसा िक सुपिसद सामािजक भाषािवजानी डॉ. रामिवलास शमा् कहते हलैं − ‘जैसे समाज के पुराने ढाँचे में उतपादन और िवतरण के नए तरीक़े सवत-सफू त् ढंग से पैदा होते हलैं और इन नए तरीक़ों के अनुरप नए सामािजक संबंध मनुषय की योजना के अनुसार नहीं, वरन उसकी इचछा से सवतंत, सामािजक िवकास के िनयमों के अनुसार क़ायम होते हलैं, वैसे ही मनुषय बुिद से, सोच कर, योजना के अनुसार भाषा नहीं रचता, वरन उसकी जीवनयापन की आवशयकताओं के अनुसार वह सवतः सफू त् ढंग से िनिम्त होती है।’56 वांिछत भाषा की सहज रचना-पिकया चलती रहे, इसके िलए, ऐसी ज़ररतें यािन उतपेरक तथा आधारभूत उपयु्क पररिसथितयाँ पैदा की जा सकती हलैं या कम से कम उनमें तेज़ी लाई जा सकती है। यहाँ एक और तरह की सैदांितक संभावना पर थोड़ा िवचार कर लेते हलैं, जो ‘सीभाषा’ की अवधारणा के अब तक िवचाररत पारप से थोड़ा आगे बढ़ कर है। मानव-समाज में इस तरह के िदधा सतरों/कोिटयों के भाषा-पयोग देखने में आते हलैं : (किथत) कोमल-कठोर, (किथत) नरम-गरम, (किथत) सहमा-मुखर, (किथत) सरल-किठन, भावातमक-तक् पधान57 56 रामिवलास शमा् (2008) : 65. भावातमक भाषा : ‘भावातमक भाषा’ यािन ‘भाषा-पयोग की भावातमक िसथित’ पसतुत अधयेता दारा भाषा को समझने के कम में सवयं के सतर पर उपलबध िकया गया एक अवधारणातमक पदबंध है. उसके अनुसार, भावातमक भाषा मानव-मात की िवशेष िसथित है, िजसमें भावाितरे क में भाषा तक् या कारण-काय्-संबंध का तयाग कर देती है. उदाहरणसवरप, िकसी पसंग में कोई वयिक कोध से अिभभूत हो कर, िकसी के बारे यिद ऐसा कहता है िक ‘यह गाँव में सबसे चौपट आदमी है’, तो यह भावातमक भाषा-पयोग है. कारण, इस में तक् या कारण-काय् का कोई िहसाब नहीं रखा गया है. कया ऐसा कहने के पूव,् वका के सामने गाँव के सभी चौपट लोगों की कोई सव्वे-ररपोट् और तुलनातमक अधययन मौजूद रहे हलैं? इसी तरह कोई सािहतयालोचक 57 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 260 260 | िमान आिद। अगर कु छ देर के िलए पहली कोिट (यािन, किथत मुलायम, थोड़ी सरलता वाली या सहमी अथवा तका्िशत के बजाय भावातमक भाषा) को ‘सीभाषा’ की संजा दी जाए और दूसरी को ‘इतर भाषा’ या ‘पुरुषभाषा’ की, तो यह पितपािदत िकया जा सकता है िक िकसी ऐसे मानव-समाज में, जो शोषणमुक, ग़ैर-सतरीकृ त सवसथ समाज हो, यहाँ भाषा चाहे मद् की हो या औरत की, दोनों सामानयतः किथत ‘सीभाषा’ और किथत ‘पुरुषभाषा’ के िमशण से बनी होंगी। मानवमात के कामय भाषा-पयोग का सामानयतः पैटन् इसी को माना जा सकता है। कारण, हर मानव (चाहे वह सी हो या पुरुष) जीवन में सवाधीनता-अधीनता, कोमलकठोर, भावातमक-तािक् क आिद िदधा िसथितयों से गुज़रता रहता है। ऐसे में सवाभािवक है िक उसकी भाषा की संघटना दोनों ततवों से होगी। अथा्त् किथत कठोर, गरम, मुखर, किठन या तका्िशत भाषा अिनवाय्तः मद् बोलते हलैं और इनके िवपरीत गुणों वाली भाषा अिनवाय्तः िसयाँ : ऐसा िवचार पररिसथितजनय भर है, जो आतयंितक रप से या साव्कािलक सतय नहीं है। अब, सी के िलए कामय भाषा-पारप की बात कर भाषा और सी के संबंध पर चल रहे इस िवमश् को समेटते हलैं। इसे इस तरह से सूतबद िकया जा सकता है : किथत ‘आम भाषा’ (पुरुष-पभावी भाषा) और किथत ‘सीभाषा’ के दंद और परसपर रासायिनक पिकया से बने ‘भाषा के लोकतांितक संसकरण’ में जैिवक सीतव और उससे संबद िसथितयों की अिभवयिक में समथ् भाषा को िमलाने से ही सी के िलए कामय भाषा का पारप उभर कर सामने आ सकता है। इसका मतलब हुआ िक सी के िलए वांिछत भाषा पुरुष − भाषा के िबलकु ल समांतर या वयितरे की नहीं होगी, बिलक उससे थोड़ी सी िविशष, पर अिधकतर सामानय होगी। उसका सबसे बड़ा पकाय् होगा सी-संबंधी ऋणातमक या धनातमक सटीररयोटाइप को तोड़ कर उसे सामानय इंसान के रप में अिभवयक करने का, पर उसमें िकं िचत् माता में िवदमान जैिवक सीतव को बचाते हुए। ऐसी भाषा की रचना न के वल िपतृसता दारा सी के संबंध में गढ़ी गयीं िनिम्ितयों से मुक रह कर, वरन नारीवािदयों दारा (पितिकयासवरप) गढ़ी गई कु छ और इस तरह की िनिम्ितयों से भी मुक हो कर ही की जा सकती है। सी को न पुरुषभाषा का दामन पकड़े रहना है, न िपतृसता के मातहत िवकिसत हो गई किथत सीभाषा (िलंग-बोली) का; बिलक इन दोनों का अितकमण कर अिधकािधक मानवीय भाषा का संधान करना है, जो जेंडर ही नहीं, मोटे तौर पर सेकस से भी िनरपेक हो, पर पाकृ ितक सी-अंश की संवेदनाओं को अिभवयक करने में भी अिनवाय् रप से समथ् हो। यािन, भाषा के केत में या भाषा के ज़ररये सी को अपने ‘ख़ास’ को बचाते हुए जब यह कहे िक ‘सूरदास जब किवता करते हलैं, तो अलंकारशास उनके सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाता है.’ या ‘कबीरदास वाणी के िडकटेटर थे.’ अथवा ‘घनानंद साकात् रसमूित् हलैं.’ : तो ये ‘भावातमक भाषा’ के पयोग के उदाहरण हलैं. इस पकार के कथनों से आलोचय किवयों की भाषाई या संवेदनातमक िवशेषताओं की कोई रपरे खा िकसी तरह से सामने नहीं आती, बिलक ये उिकयाँ इन आलोचकों पर उन-उन किवयों के पड़े िविभनन पभावों की वयंजना मात करती हलैं. इसी तरह ‘सूर सूय् तुलसी शिश ...’ जैसी उिकयाँ भी हलैं. ये सब के सब वसतुतः ‘पभाववादी आलोचना’ के छींटों की तरह हलैं. 08_ravindra_pathak update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:59 Page 261 भाषा मे Tी और Tी की भाषा-2 | 261 सामानय बनने की चुनौती सवीकारनी होगी। पर, यह ‘ख़ास’ िपतृसता वाला (देवी या कु लटा टाइप) ख़ास नहीं होगा, िजसके िलए सीमोन िद बुआ ने कहा था िक ‘सी पैदा नहीं होती, बिलक बना दी जाती है।’58 यािन, लोकतांितक संरचनामय सामानय भाषा और शोिधत अथ् में ख़ास सी-भाषा की समिनवत िसथित ही सी के िलए अनुकूल भाषा होगी। धयान रहे िक ऐसी सी-अनुकूल भाषा की रचना के वल सी के िलए या बस उसकी मुिक के अथ् नहीं होगी, बिलक आज तक अधूरी भाषा में वयक असंतुिलत जान या एकांगी सतय की जो पीड़ा पूरे समाज को झेलनी पड़ी है, उससे उसकी मुिक की िदशा में होगी। चंदगुप्त नाटक (जयशंकर पसाद) में चाणकय की आकांका थी : ‘भाषा ठीक करने से पहले मलैं मनुषयों को ठीक करना चाहता हूँ।’59 वह सतय का एक पक था, िजसका भाव था िक इंसान अचछा होगा, तभी भाषा भी अचछी होगी। इसी का दूसरा और अिधक आवशयक पक लेकर हम कह सकते हलैं िक ललैंिगक दृिष से अिधक पूण् भाषा की रचना की चुनौती िसफ़् सी को नहीं, समसत समाज को सवीकारनी होगी, तािक इंसान को ठीक करने के िलए सबसे पहले उसकी भाषा को ठीक िकया जा सके । संदभमा अिजत वडनेरकर (2014), शबददों का सफ़र : दूसरा पड़ाव, (2012), राजकमल पकाशन, नई िदलली. अनािमका (2008), ‘सी का भाषाघर’, सी-िवमशवि का लोकपक, वाणी पकाशन, नई िदलली. अभय कु मार दुबे (सं.) 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वनानाकयुलर सािहतय और संसकृ ित का अंगेज़ी भाषा में भी संभवतः सटीक अनुवाद नहीं िकया जा सकता है, कोिशश की जा सकती है। ऐसा ही एक पयतन है यह लेख जो उतर भारत और मधय नेपाल तक बोली जाने वाली भाषा मैिथली में हुए आधुिनक सािहितयक लेखन को एक पृषभूिम की तरह लेता है। मैिथली में पाचीन से लेकर अवानाचीन, मधय युग से लेकर आधुिनक युग में सािहितयक रचनाएँ होती रही हैं। मैिथली सािहतय का इितहास बताने वाले िवदानों ने आधुिनक-िलिखत-और वािचक परं पराओं को परसपर गुतथमगुतथा िदखाया है। इितहासकार जयकांत िमश (1998), सािहतयकार रामदेव झा (2002), सािहतय िवशे षक देवकांत झा (2004) और इनके अलावे और भी िवदानों ने मैिथली सािहतय की ऐितहािसकता को समझने की भरपूर कोिशशें की। संकेप में कहें तो यह ऐितहािसकता िकसी आधुिनक संगहालय (अकानाइव) की मुहताज नहीं, बि्क यह 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 266 266 | िमान सामािजक-सांसकृ ितक ऐितहािसकता है िजसके संबंध आधुिनक इितहास से भी हैं। सािहतय के माधयम से सामािजक इितहास का अनुमान और अधययन करने की कोिशश होती रही है। आधुिनक मैिथली सािहतय के संदभना में भी ऐसा करने की आवशयकता है।1 उन सबमें एक अनोखी बात सामानय थी। वो ये िक आधुिनक-िलिखत सािहतय और पारं पररक वािचक समृित आपस में जुड़वाँ की तरह आबद थे। लोक सािहतय और आधुिनक सािहतय एक ही िसकके के दो पहलू हैं।2 यह भी उ्लेखनीय है िक साधारण लोक जीवन, रोज़मराना की बातें और घटनाएँ जो संभवतः िकसी को इतनी ह्की लगें िक उस पर कोई िवमशना न हो− सब आधुिनक मैिथली सािहतय में पगाढ़ महतव के िवषय बनते हैं। चाहे हम मैिथली लोकगीतों के हवाले से िवमशना करें या िफर कु छ मैिथली सािहतयकारों और किवयों के संदभना में, लगता है िक एक ऐंथॉपॉलिजसट के संसार में ररशते-नातों के जाल में िक़ससे-कहािनयों का ऐसा भंडार है, िजनमें जीवन-मृतयु से लेकर पेम-िवषाद, िमलन-जुदाई, इहलोक-परलोक, सबके दशनान हो जाएँ। इनमें दशनान की गूढ़ता, संसकृ ित की गितशीलता और सामािजक उठापटक सब समाए हुए हैं।3 पसतुत लेख इसी पृषभूिम में आधुिनक मैिथली सािहतय की एक अदु त लेिखका, िलली रे (26 जनवरी, 1933- 3 फ़रवरी, 2022), को समझने की कोिशश करता है। कौन हैं िलली रे और कया थीं उनकी रचनाएँ? कै से समझें िलली रे को वनानाकयुलर की सािहितयक, सांसकृ ितक, सामािजक और राजनीितक िबसात पर? इस लेख में एक सामानय और िवहंगम दृिष डाली जाएगी रे के वयि्तितव और कृ िततव पर यह देखने के िलए िक वनानाकयुलर के पद्दे पर िकस पकार का िचत उभरता है। िफर हमारा धयान एक ख़ास कृ ित पर कें िदत होगा। उनकी कहािनयों का एक संकलन उपनयास-रूप में पकािशत हुआ िजसका शीषनाक था− पटाकेप। यह उपनयास धारावािहक कहािनयों के रूप में िमिथला िमिहर4 नामक पितका में कमशः 1 जुलाई, 1979 से लेकर 7 अकटू बर, 1979 तक पकािशत हुआ। इन कहािनयों को पढ़ने के बाद मैिथली सािहतय आलोचक जीवकांत ने िमिथला िमिहर में ही 5 अगसत, 1979 को एक आलोचना पकािशत की थी। लगे हाथ याद करते चलें िक लगभग 1975 में बंगाल 1 हररमोहन झा रिचत खट्टर काका को लेकर िकए गए एक ऐसे पयतन के िलए देखें देवनाथ पाठक (2022). कहते हैं िक िवदापित ने संसकृ त सािहतय में पारं गत होने के बावजूद अपने समय में एक कांितकारी पहल की थी. उनहोंने आम जन की भाषा के िनकटसथ अवहट में रचनाएँं कीं. और भी अनेक उदाहरण िदए जाते हैं. और िवसतार से ऐितहािसक दृिषकोण से समझने के िलए देखें पंकज झा (2019). 3 इनहीं िवषय वसतुओ ं को जोड़ते हुए दो तरह के िवमशना अनय पकािशत पुसतकों में उपलबध हैं, देखें देव नाथ पाठक (2019 और 2022). 4 िमिथला िमिहर की पुरानी पासंिगकता है. िकसी ज़माने में इसका संपादन जनादनान झा ‘जनसीदन’ करते थे जो आधुिनक मैिथली के लबधपितिषत पोफ़े सर हररमोहन झा के िपता थे। िमिथला िमिहर पितका को मैिथली सािहतय जगत का एक अंग माना जाता था. यदिप इस पितका की आलोचना भी होती थी, िक दरभंगा राज और सरकारी संरकण पाप्त यह पितका कोई तरोताज़ा सािहितयक कांित लाने वाली पितका नहीं थी. मैिथली और िहंदी सािहतय जगत के धुव माने जाने वाले वैदनाथ िमश याती अथवा बाबा नागाजुनान ने भी इसकी आलोचना की थी, देखें तारानंद िवयोगी (2019). िमिथला िमिहर और अनय ऐसे उपकमों के मैिथली पिबलक सफ़ीयर में योगदान को समझने के िलए देखें िमिथलेश कु मार झा (2018). 2 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 267 पटा ेप निी : ििी रे और मै ििी सा ि में महाशेता देवी िलिखत उपनयास 1084 वें की माँ आ चुकी थी िजसमें एक िशिकत युवक के नकसलवादी बनने की सामािजक पिकया और नतीजे को उसकी माँ के दृिषकोण से देखा गया था। और उससे भी पहले गौर िकशोर घोष ने 1960 के दशक में सगीना महतो िलखा था जो सामयवादी सामािजक राजनीित की एक तीखी आलोचना थी। इसके अलावे भी सािहितयक िववेचनाओं में माकसनावाद को लेकर अनेक धुररयाँ बनी थीं। ऐसे में मैिथली सािहतय के पटल पर पटाकेप एक पासंिगक और समयोिचत दख़ल था। सररसब-पाही, मधुबन िसथत सािहितयकी पकाशन दारा 2015 में पकािशत पटाकेप के संसकरण में संपादक रामानंद झा रमण ने जीवकांत की आलोचना को एक वृहत फ़ु टनोट में उदृत िकया है। उनहीं के शबदों में, ‘िलली रे एक समथना उपनयासकार हैं। पटाकेप की दो धारावािहक कहािनयों को पढ़ने से ये सपष होता है। इस िनषकषना का पहला कारण यह है िक इन कहािनयों में नोरझोर यािन रोना-धोना नहीं है। दूसरा कारण यह िक पटाकेप उगवादी आंदोलन को पृषभूिम बनाकर िलखा गया पहला मैिथली उपनयास है। इसमें अनेक अपररिचत शबदों को भी, जैसे शे्टर, कॉमरे ड, हो िचनिमनह, माओ आिद, मैिथली भाषा में लाया गया है’।5 जीवकांत ने यह बताया िक िलली रे नारी सािहतयकार के रूप में एक अपवाद हैं, कयोंिक वह अपनी रचनाओं में घर-आँगन से िनकल कर खेत-खिलहान, शहर-गाँव आिद के िक़ससे कहती हैं। इनमें सी-िवमशना और सामािजक संबंधों के पित चेतना होने के बावजूद एक िवसतार है जो अनेक िवषयों को समेटता है। संपादक रमण तो पटाकेप में िलली 5 का समाजराT | 267 हम मैिथली लोकगीतों के हवाले से िवमशर् करें या िफर कुछ मैिथली सािहत्यकारों और किवयों के संदभर् में, लगता है िक एक ऐ ंथ्रॉपॉलिजस्ट के संसार में िरश्ते-नातों के जाल में िक़स्से-कहािनयों का ऐसा भंडार है, िजनमें जीवन-मृत्यु से लेकर प्रेम-िवषाद, िमलन-जुदाई, इहलोकपरलोक, सबके दशर्न हो जाएँ। िलली रे (2015 ख) : 7. इस लेख में ऐसे सारे उदरण मैिथली से िहंदी में अनूिदत है. रचनातमक सवतंतता के साथ ये सभी अनुवाद मैंने िकए हैं. 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 268 268 | िमान रे की ख़ास लेखन शैली, सािहितयक िवधा, और संवेदना का उ्लेख करते हैं। इस िवशेषता का कारण यह भी है िक पटाकेप मुखर रूप से आतमकथातमक लेखन है िजसमें का्पिनकता के ज़ररये दृशयों को जीवंत िकया गया है। िलली रे वसतुतः अपने बेटे रबींद यािन ल्लू रे और उनके िद्ली से आए दोसतों की कहानी बयान कर रही हैं। अब जब बेटा एक पात है तो उसकी माँ, यािन लेिखका िलली रे , उनके पित राय साहेब या डॉकटर साहेब (अथानात डॉकटर हरें द्ननारायण राय) और अनय ररशतेदार भी पात बन जाते हैं। लेखन और जीवन का ऐसा आिलंगन िदखाई पड़ता है िक लेखक को महज़ लेखक मानना नामुमिकन हो जाता है। सािहतय और समाज, रचना और संसकृ ित, शािबदक और वािचक, सब एक-दूसरे से लगातार रूबरू होते हैं। यही वजह है िक पसतुत लेख में िलली रे की कृ ित और जीवन को देखते-पढ़तेसमझते हुए, न चाहते हुए भी कोई सािहतय का समाजशास गढ़ सकता है। यह एक ऐसा समाजशास है िजसमें सहज, सवतःसफू तना, सवचािलत ररशते-नातों में ही सािहितयक रचनाएँ िवदमान हैं। सािहतय के इस तरह के समाजशास में लेखकीय अिसततव भी एक िचंतन का िवषय है। इसमें एक पकार की रचनातमक िवडंबना बनी रहती है− लेखक है या नहीं! सािहतय का ऐसा समाजशास ही सािहतय को जीवन और दशनान से पगाढ़ संबंध देता है।6 िलली रे को राष्ीय पहचान तब िमली जब उनहें उनके उपनयास मरीिचका के िलए 1982 में सािहतय अकादेमी पुरसकार िमला। मरीिचका दो भागों में पटना िसथत मैिथली अकादेमी से पकािशत हुआ था। लेिकन िलली रे की सामािजक पहचान िकसी पुरसकार की मुहताज नहीं थी। अपनी िविशष जीवन-शैली और िक़ससे-कहािनयों को लेकर वह लोकिपय हो चुकी थीं। उनकी एक आतमकथा भी है समय कें धंगतै , िजसका पकाशन 2015 में सािहितयकी दारा िकया गया था। यह आतमकथा और टुकड़ों में उपलबध अनय सािहितयक िवचारकों के अनुभव का एक संिकप्त बयौरा देना ज़रूरी है। इसी बयौरे में सपष होगा िलली रे के सािहतय-कमना और रचना-धमना का समाजशास, जो इस लेख का रुख़ पटाकेप की तरफ़ करने में सहयोगी होगा। तो सबसे पहले एक मूल पश उठाते हैं, और जानते हैं िलली रे के वयि्तितव को जो उनके समाज और संसकृ ित के ताने-बाने में यूँ बुना है िक वयि्ति और समिष का फ़क़ना एक चुनौती बन जाता है। इससे पहले िक यह लेख िलली रे पर कें िदत हो यह समझना ज़रूरी है िक उनके वयि्तितव और रचनाओं के बरअकस यह लेख िकस पकार के सािहतय के समाजशास की ओर इशारा 6 कु छ ऐसा ही बोध होता है अगर हम िमशेल फू को (1977) के उस लेख को याद करें िजसमें उनहोंने पाठ और पाठक के बीच लेखक की कीण उपिसथित की िववेचना की थी. पाठ/सािहतय/रचना को पाठक और िवशे षक के हवाले कर िदया गया तािक वो पाठ की गूढ़ता की वयाखया करें और उसके सामािजक संबंधों को उजागर करें . फू को के ये िवचार दरअसल रोलाँ बाथना (1977) की दलील की आलोचना में पसतुत थे. बाथना ने िकसी पाठ को उसके लेखक से ऐसा जोड़ा था िक उसमें िकसी पकार के हसतकेप की गुंजाइश कम थी. उसमें लेखक का वचनासव बना हुआ था. अगर इन दोनों को एक-साथ पढ़ें तो यह समझ में आता है िक िकसी पाठ और पाठक के बीच लेखक है भी और नहीं भी। इसी बीच की िसथित का फ़ायदा पसतुत लेख में उठाया गया है और िलली रे और उनकी रचनाओं को देखते हुए वयाखयातमक छू ट ली गई है. लेिकन लेखक को पूणतना ः नकारा भी नहीं गया है. 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 269 पटा ेप निी : ििी रे और मै ििी सा ि का समाजराT | 269 करता है। भारत में समाजशास और नृिवजान यािन ऐंथोपॉलजी का सािहतय और संसकृ ित से थोड़ा अजीबोग़रीब ररशता रहा है। शोध, लेखन, पठन-पाठन के िवगत कु छ दशकों तक का लेखाजोखा कु छ वही कहेगा जो िकसी अनय संदभना में पाचीन मनीषी भतृनाहरर कहा करते थे, ‘सािहतय संगीत कला िवहीनः’। अलबता समाजशािसयों का सामािजक संबंधों को समझने का दावा आधुिनकता के पारं भ से चला आ रहा है। और भारत में भी राधाकमल मुखज्जी (1944, 1948) जैसे समाजशािसयों ने संसकृ ित और कला आिद से समाजशास का संबंध िदखाया था। लेिकन कया मज़ाल िक ऐसे पथ पदशनाक समाजशािसयों को भारत में याद रखा जाए।7 भारत में समाजशास के इितहास की तरफ़ इसी उदेशय से रुख़ िकया जाता है िक कै से उन सभी पथ-पदशनाकों को राष्वादी सािबत करके दरिकनार कर िदया जाए। बाद में अपवाद सवरूप ही समाजशािसयों ने सािहतय, संसकृ ित और कला को िवषय-वसतु बना कर सामािजक िवशे षण िकया। यह लेख िलली रे के लेखकीय वयि्तितव और कृ िततव को समाज-संसकृ ित की पररिध में समझने की कोिशश करता है। ले खन और ले खका : कौन ह लली रे? यदिप िलली रे का देहांत गत 3 फ़रवरी, 2022 को हो गया, लेिकन उनका सािहितयक अवदान दीघनाजीवी रहेगा। और संभवतः साथ ही सजीव रहेंगे वे अनेक िक़ससे जो िलली रे के बारे में पचिलत थे। मैिथली सािहतय और संसकृ ित को जानने और नहीं जानने वाले, सब तरह के बुिदजीिवयों के बीच कु छ कानाफू सीनुमा और कु छ तथयाधाररत िचत िमलते हैं। ‘राय पररवार की अंगेिजया पुतोहू’ के रूप में एक िचत बनता है जो अफ़वाह या हँसीमज़ाक़ के तौर पर अकसर सुनाया-िदखाया जाता रहा है। िलली रे की याद में कोई भी गोषी हुई तो उसमें िकसी न िकसी के मुहँ से यह सुना गया िक िलली रे के होठों पर पारं पररक समदौन मैिथली गीत और उनके हाथ में वाइन का िगलास होता था। ह्के -फु ्के अंदाज़ में कहीसुनी ऐसी बातें दरअसल एक गूढ़ रहसय का सूचक हैं। वो रहसय है िलली रे का वयि्तितव िजसे पोफ़े सर शंकर झा ने ‘समिनवत संसकार’ कह कर सममािनत िकया था। पोफ़े सर शंकर झा िलिखत िलली रे का एक लघु पररचय रे के कथा संगह ‘रं गीन परदा’ (2014) में पकािशत हुआ। इसमें पोफ़े सर झा ने िलली रे के वयि्तितव में चार महतवपूणना कोण रे खांिकत िकए। वो हैं, पैतक ृ पक में अयाची िमश और नव नयाय के जान की परं परा और साथ ही बनैली राजपररवार के संबंधों से आया अिभजातवग्जीय भोग-िवलास। िलली रे के िपता शी भीमनाथ िमश अंगेज़ी नौकरशाही में वररष पुिलस अिधकारी (आय.पी.एस.) थे। पैतक ृ और माितक पक िमलाकर रे का संबंध मधुबनी से लेकर पूिणनाया तक, यािन िमिथला के एक बड़े भू-भाग से होता है। इसी से जुड़ा तीसरा कोण है िपता के संसगना में उनके रहन-सहन, पाशातय जीवन7 टी.एन. मदन ने (2013) इस पवृित को भारत में बौिदक एमनेिज़या कहा और लखनऊ िवशिवदालय िसथत समाजशास और मानव िवजान के इन आधुिनक मनीिषयों के कु छ काय्यों को एकत करने की चेषा की. 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 270 270 | िमान शैली और िमशनरी ईसाई िशका और मू्यों के पित झुकाव का। यदिप िलली रे की औपचाररक िशका बहुत देर से शुरू हुई, और िकसी ख़ास मुकाम पर नहीं पहुचँ ी, लेिकन पढ़ने की ललक और पवृित बचपन से शुरू हुई और जीवन भर रही। िफर आशयना नहीं िक एक रे के वयि्तितव में एक चौथा कोण बनता है पिशमी सभयता से जुड़ी उदारवादी और पगितशील िवचारधारा का। अपनी माँ के पक से िलली रे को सािहितयक रचना के पित रुझान भी िमला। रे के मामा पंिडत हीरानंद शासी आयायावरया अख़बार के संपादक थे। ये सब अपने आप में मैिथली भाषी समाज के िलए पयानाप्त अनहोनी था। आिख़र िमिथला के िपतृसतातमक समाज में बेटी की िशका-दीका एक गौण िवषय थी। िमिथला और भोजपुरी भाषी अंचल में जाित की सामािजक संरचना पर शोध-लेखन करने वाले िबहार के पखयात समाजशासी हेतक ु र झा (1991) के िवशे षण में भी मैिथल सी के दोयम दज्दे की कोई िवशेष चचाना नहीं िमलती है। जबिक मैिथल समाज में अब तक वयाप्त भेदभाव की संरचना में जाित, वगना और िलंग का संबंध सपष िदखता है। चाहे जाित ऊँची हो या नीची, और वगना पगितशील हो या नहीं, िमिथला में लड़िकयों की िशका से लेकर उनके संपणू ना जीवन पर पुरुषों का एकािधकार रहा है। यहाँ तक िक दरभंगा के तथाकिथत पगितशील सोच वाले महाराज लकमीशर िसंह की दोनों रािनयाँ भी अँगठू ा छाप ही थीं। आधुिनक िमिथला के पितिषत िवदान डॉकटर सर गंगानाथ झा ने भी अपनी बेिटयों के िलए िशका का इंतज़ाम घर की चारदीवारी के अंदर ही िकया था। आदा झा ने भी, जो िलली रे की ननद थीं और कालांतर में पद्मशी से सममािनत हुई थीं, सकू ल का मुहँ नहीं देखा था। ऐसे समाज में इतने पगितशील पररवार होने के बावजूद िलली रे को भी अपनी ही कोिशशों से पढ़ने-िलखने की ललक और आदत हुई। इतना आसान नहीं था िलली रे का तथाकिथत ‘अंगेिजया पुतोहु’ होना। अगर वह रोज़ दुगाया सप्तशती का पाठ भी करती थीं, और सनातन धमना का पालन करने वाली ठे ठ मैिथल गृिहणी थीं तो साथ ही नई और तकनीकी कौशल को सीखने और जीवन में पयोग करने में भी पीछे नहीं रहती थीं। अगर उनमें अिभजातय पवृित थी तो साथ ही उनमें सवनाहारा वगना के पित एक संवेदना थी जो उनकी िलिखत िक़ससे-कहािनयों में सहज ही आ जाती थी। िववाहोतर जीवन में उनहें घूमने और अनिगनत लोगों से िमलने-जुलने का अवसर िमला। िमिथला के मैदानी समाज की बेटी अपने ससुराल से आगे बढ़कर िहमालय के अनेक ख़ास जगहों पर भी यदाकदा समय िबताने लगीं। उनकी कृ ितयों से रूबरू शंकर झा और अनय िवशे षकों ने अनुमान के आधार पर िलली रे पर अनय सािहतयकारों के पभाव का आकलन करने की कोिशशें कीं। रे से इस मामले में जब भी सवाल िकया गया, सारे आकलन नाकाम पाए गए। िकसी ने उनहें अमृता पीतम के जैसा पाया कयोंिक रे भी अपने आप को बहुत ही वसतुिनष तरीक़े से देखती थीं। िकसी ने उनहें बंगाली लेखक िवमल िमत के समीप पाया कयोंिक रे भी पीिढ़यों का वृतिचत जैसा बनाती थीं। लेिकन रे ने इन सभी अनुमानों का खंडन िकया। उनहोंने सवीकार िकया िक वो मैिथली 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 271 पटा ेप निी : ििी रे और मै ििी सा ि का समाजराT | 271 लेखक लिलत और राजकमल चौधरी को पसंद करती थीं, और उनके ररशतेदारों के बीच हररमोहन झा भी पचिलत थे। लेिकन इनमें से िकसी की भी शैली या सािहितयक संवेदना का पभाव रे के वयि्तितव या कृ िततव पर नहीं था। िफर भी शंकर झा का मानना था िक िलली रे पर िनिशत रूप से रूस के लेखक मैिकसम गोक्जी का अपतयक पभाव था तभी तो मरीिचका और पटाकेप में सवनाहारा का एक सामािजक-सांसकृ ितक िचतण िमलता है। यह सब अनुमान ही हैं, वैसे अपने समय के मैिथली रचनाकारों के काम से वो भली-भाँित पररिचत थीं। उनके अपने पररवार में राजकमल चौधरी के ललका पाग उपनयास की पशंसा होती थी। एक बहनोई के गपशप को उतना ही रोचक समझा जाता था िजतना हररमोहन झा का रसमय िवनोदातमक ग्प। और तो और, जब पहली बार उनहें रे ने दाज्जीिलंग में सद्जी िलली रे की याद में कोई भी से उबर रहे पहाड़ों के ऊपर सूयानासत देखा तो वो सहसा गोष्ठी हुई तो उसमें िकसी न कह पड़ीं, ‘पतहीन नगन गाछ’8 िजसे पढ़कर िकसी को िकसी के मुह ँ से यह सुना भी बाबा नागाजुनान की किवता याद आ जाए। उनकी सािहितयक याता पहली कहानी रोिगणी से गया िक िलली रे के होठों पर शुरू होती है जो 1951 में दरभंगा के वैदहे ी नामक पारंपिरक समदौन मैिथली पितका में पकािशत हुई। कहते हैं िक तब रे िसफ़ना बारह गीत और उनके हाथ में वाइन साल की थीं। लेिखका का नाम था क्पना शरण। इसी का िगलास होता था। हल्केछद्म नाम से बाद की अनेक रचनाएँ जैसे आतमहतया, फुल्के अंदाज़ में कही-सुनी आठवषया, अपमान आिद शीषनाक से अनेक िक़ससे िहंदी ऐसी बातें दरअसल एक गूढ़ पितका माया में 1954 में िलखा। और क्पना शरण के ही नाम से उनहोंने रं गीन परदा िलखा जो अनय कहािनयों रहस्य का सूचक हैं। के साथ 1956 में पकािशत हुआ। िमिथला िमिहर पितका में 1978 में पहली बार ये ख़ुलासा हुआ िक क्पना शरण दरअसल िलली रे हैं। इसके बाद ही िलली रे ने छद्म नाम छोड़ अपने नाम से िक़ससे पकािशत करने शुरू िकए। पटाकेप 8 िलली रे (2015 क) : 37. 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 272 272 | िमान और मरीिचका उनके नाम से छपने वाली लोकिपय सािहितयक रचनाएँ थीं। बहरहाल पश उठता है िक कयों छद्म नाम क्पना शरण को आगे रख कर िलली रे ने अपने आप को छु पाया? कया वजह थी िक िलली रे िलख रही थीं लेिकन अपने नाम को सािहतय के जगत से बचाए रखते हुए? सािहतय के समाजशास का कौन-सा पहलू इस छद्मनाम से ज़ािहर होता है? ऐसे अनेक पशों के उतर िमल सकते हैं अगर हम िलली रे की आतमकथा की तरफ़ रुख़ करें । िपता भीमनाथ िमशा और उनके दो भाइयों (कका) का एक सिममिलत पररवार था जो अलग-अलग जगहों पर होने के बावजूद नातेदारी में बड़े ही पारं पररक तरीक़े से जुड़ा था। शी िमश को ज़मींदारी िमली तो तीनों भाइयों ने तीन जगह रहने की सोची, पापा पटना में, एक कका भागलपुर और दूसरे रामनगर में। पापा के अलावे कका सब भी पभावशाली थे। नतीजा यह हुआ िक पररवार के बचचे कभी पटना, कभी भागलपुर, कभी रामनगर और इसके अलावे अनेक जगहों में रहते। पवास सथानों की सूिच बड़ी है, कभी मसूरी, कभी दाज्जीिलंग, और िववाह के बाद तो िलली रे झारखंड और उतर पदेश में अनेक जगहों पर थोड़े-थोड़े समय के िलए रहीं। िजतनी जगहें उतनी सामुदाियक-सामािजक िविवधता, और नए नए कौशल सीखने, पढ़ने, जानने, और िलखने के अवसर। िलली रे की जीवन याता उनके ‘समिनवत’ वयि्तितव और लेखन के वयापक पररिध का रहसयोदाटन करती है। अगर इस जीवन याता को िलली रे की समृित पर आधाररत आतमकथा से समझ लें तो ‘अंगेिजया पुतोहू’ वाला उपमा के वल हँसी-मज़ाक़ का िवषय नहीं रह जाता। कका का घर भागलपुर में था और घर के पास ही माउंट काम्देल सकू ल खुला था। 1945 का साल था और पररवार की बेिटयों को माउंट काम्देल में पढ़ाने का िनणनाय हुआ। अभी दो एक साल ही िलली भी सकू ल गई ं िक उनका िववाह हो गया! 1948 में एक बचचा भी हो गया, लड़का, िजसका नाम था रबींद रे , पयार से ल्लू। सकू ली पढाई तो जैसे शुरू होते ही छू ट गई लेिकन पढ़ने-िलखने की ललक जग चुकी थी। नतीजतन िलली अपने भाई-बहनों की िकताबें पढ़ जातीं। अपने भाई के अंगेज़ी ऑनसना की िकताबें तक पढ़ गई ं, जैसे टी.एस. इिलयट की किवताएँ और पलना एस. बक का उपनयास! बाद में भी उनहें ऐसे अनौपचाररक सवाधयाय के अवसर िमलते रहे। रामनगर अपने कका के पास गई ं तो वहाँ घर में ही उनके िपता के िवदाथ्जी जीवन की अनेक रोचक िहंदी, अंगेज़ी और बांगला की िकताबें िमल गई ं। बंिकम, रबींदनाथ, शरतचंद आिद में से जो पढ़ पाई ं पढ़ िलया। उनहें शरतचंद का िलखा चंद्रनाथ, राम की सुमित, और िबंदो की ललला के िहंदी अनुवाद पढ़ने को िमले। िववाह के बाद ऐसे और भी अवसर गाहे-बगाहे िमले। जैसे गोिमया में कलब की लाइबेरी में उनहोंने समरसेट मॉम के कथा संगह वलडया ओवर और ररचडना गॉडनान के डॉकटर सीरीज़ को पढ़ डाला। या िफर जब वो अपने िपता के साथ दाज्जीिलंग पवास पर थीं तो रीडसया डाइजेसट के अनेक अंकों को धुआधँ ार पढ़ा। 1951 उनके पित रायसाहब जमशेदपुर में नौकरी कर रहे थे। वो सपररवार िजस मोह्ले में रहते थे वहाँ लगभग ज़यादातर पड़ोसी बंगाली थे। िलली रे ने उनहीं 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 273 पटा ेप निी : ििी रे और मै ििी सा ि का समाजराT | 273 के संसगना में बांगला गाने सीखे और बांगला पढ़ना शुरू कर िदया, और बंगाली पितकाएँ जैसे देश, वसुमित, उलटो रथ आिद पढ़ने लगीं। पढ़ने की ये ललक, अनेक अनय कौशल को सीखने और िलखने से भी जुड़ी थी। इसका और िववरण उनके लघु जीवनवृत, समयकें धंगैत, में ज़ािहर होता है। रे के शबदों में, ‘हमारा पररवार मैिथल समाज में एक आधुिनक पररवार के रूप में देखा जाता था। लेिकन िमिथला के अनय पररवारों की तरह ही हमारा पररवार भी िवचारधारा में अनुदार था। इसका खुलासा िवशेष रूप से िववाह, पेम, संबंध-िवचछे द, तलाक़ आिद मुदों में होता है। ये क्पना नहीं की जा सकती थी िक कोई मैिथल युवक और युवती पेम कर बैठे। हाँ, अनय समुदायों के इस तरह के पेम कहािनयों को पढ़ा जाता था और बड़े चाव से चचाना भी होती थी। इसीिलए मुझे ये डर था िक मेरी िलखी कहािनयों को मैिथली भाषी लोग कभी सवीकार नहीं करें गे। संभवतः वो मेरी कहािनयों को घिटया कहेंगे। जो मेरे िजतने अिभनन दोसत और ररशतेदार हैं वो उतनी ज़यादा िनंदा करें गे और कोिधत होंगे’।9 लैंिगंक-सामािजक भेदभाव वाले समाज में लोकलाज महज़ एक संसकार नहीं होता। वो भय बनकर वयि्तितव को बािधत करता है। लेिकन सजग और संवेदनशील लेिखका इससे रुकती कै से? उनहोंने उनहीं सामािजक, पाररवाररक, नातेदारी के बनावट में लेखन को सँवारा। उनके लेखन का िवषय, िवचार का केत, और लेखकीय शैली भी उसी ताने-बाने से उपजी िजसमें उनका वयि्तितव िनमानाण हुआ। 1945 में जब वो बारह साल की थीं तो उनका िववाह तय हो गया। पूिणनाया िजला में दुगानागंज के िनवासी मुिं सफ़ शी बदीनारायण राय के बेटे हरें दनारायण राय से जो आधुिनक िचिकतसाशास के िवदाथ्जी थे और उनके भाई यािन िलली रे के भैंसरु भागलपुर जेल के सुपररं टेंडेंट थे। ससुराल भी उसी पकार का जैसा िपता का घर − पाररवाररक सतर पर मिहलाओं को भरपूर छू ट थी। 1948 में माँ बन गई ं। िपता भीमनाथ िमश भागलपुर में कायनारत थे जब पित रायसाहब डॉकटरी की पढ़ाई के िलए िवलायत गए। िलली रे अपने माँ और िपता के साथ भागलपुर में रहीं। इसके बाद 1951 में राय साहब की नौकरी जमशेदपुर में लगी तो वहाँ चली गई ं। 1957 के बाद िपता के साथ पहाड़ों की तरफ़ आनाजाना शुरू हुआ। िपता की तिबयत के िलए पहाड़ में पवास की सलाह थी। उनसे िमलने-जुलने, और उनहें देखने-सुनने के िलए पररवार और नातेदारी से लगभग सब कोई आतेजाते रहते। एक मायने में िलली रे की आतमकथा पररवार के सभी लोगों के लगातार आवाजाही और भ्रमण की कहानी है। िकसी की तिबयत ख़राब हो या िकसी के पररवार में कोई अनुषान या िवशेष अवसर जैसे िकसी बचचे का जनम या शादी-बयाह हो, तो मूल सदसय और उनके पित या पतनी का आने-जाने का कायनाकम आम बात थी। पारं पररक, संय्ति ु या अधना-संय्ति ु सिममिलत पररवारों में ऐसे ही होता रहा है। सबके वयि्तितव की रूपरे खा िकसी न िकसी पाररवाररक कतनावय के तहत ही बनती थी। 9 वही : 22. 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 274 274 | िमान इसी पसंग में एक घटना का िज़क ज़रूरी होगा। िलली रे के ससुर का इलाज चल रहा था, और बहू िलली रे पररवार के अनय सदसयों के साथ उनकी देखरे ख करती थीं। अंततः वो मरणासनन हो गए तो िकसी को उचच जाित में पचिलत मृतयु के अनुषान की बात सूझी। मर रहे वयि्ति को िविधवत िकसी बाछी की पूँछ पकड़वाई जाती है। मानयता है िक बाछी ही मरणोपरांत िदवंगत आतमा को भवसागर पार कराती है। ये सब पिकया आम तौर पर घर के बाहर, बरामदे में या खुले आकाश के नीचे तुलसी-चौरा के नीचे िकया जाता है। लेिकन िलली रे या िकसी अनय सदसय को न तो धयान आया न समय िमला िक मरणासनन ससुर को अनुषान के िलए घर से बाहर ले जाएँ। जब सभी सगे-संबंधी आए तो सबने िलली रे को ताना मारना शुरू कर िदया, ‘घर में कयों पाण जाने िदया, तुलसी चौरा दूर तो नहीं? वहाँ ज़मीन पर िलटा देतीं’।10 लेिकन बहू िलली रे ने जवाब िदया, और शायद उनके जवाब में एक बार िफर हमें उनके वयि्तितव की गूढ़ता िदखाई पड़ती है। उनहोंने कहा, ‘मैं कै से कहती िकसी को अपने िपता को जीिवत अवसथा में िमटी में फ़ें क देने के िलए? न मैं ऐसा िकसी को करने के िलए कहूगँ ी, न िकसी को करने दूगँ ी’।11 िलली रे जहाँ जातीं और थोड़े समय के िलए भी रहतीं तो वहाँ के लोगों और उस जगह से वो कु छ न कु छ सीख लेती थीं। दाज्जीिलंग के नेपाली और भूिटया को देखा और समझ गई ं िक उनके जीवन में कया सबसे महतवपूणना है, फू ल, गीत और कु ते! िहमालय के पहाड़ी जंगल को देखा और एक िचत बना िलया मन में िजनमें जंगली डेज़ी, गुराँस, चांप, घुपपी गाछ आिद, गमकते थे। दाज्जीिलंग में इतालवी पड़ोसन माररया माँग फीिदनी और उसकी बेटी के का से दोसती हो गई। एक पारसी दोसत दौलत एंटी भी िमल गई। िकताब की दुकानें, कै फ़े और बाज़ार आिद में घूमने, और दोसतों के साथ िमलते-जुलते िलली रे दरअसल सहज िशिकत हो रही थीं। इस िशका में तौर-तरीक़े , सभयता-संसकृ ित, सामािजकता और घिनषता सब शािमल थे। तभी तो जब ज़रूरत पड़ी तो रायसाहब के जनमिदन पर ख़ुद ही के क बना लेतीं। पित के साथ उनके रोज़गार के पारं िभक वष्यों में िलली रे कभी िसजुआ, कभी गोिमया तो कभी ररसड़ा में रहीं। ऐसा लगता था िक सब िमलकर सपररवार रोज़गार के संघषना में शािमल थे। यिद िसजुआ में बहुत किठनाइयाँ थीं तो गोिमया में अनेक आकषनाण। 1958 में रायसाहब गोिमया में एक बहुदश े ीय कं पनी आई.सी.आई. में िचिकतसक के तौर पर लगे थे। िलली रे उनके साथ थीं और बेटा ल्लू बोिडडिंग सकू ल से घूमने आता था। एक बार घर से लगे कलब के िसविमंग पूल में ल्लू ने तैराकी सीखना शुरू िकया। माँ कयों पीछे रहती? एक ही िसविमंग पूल में माँ और बेटा ल्लू दोनों तैराकी करते थे। वहाँ पर अनेक िवलायती काररं दे भी थे िजनसे रायसाहब की दोसती हो गई थी। िलली रे के िलए जानने-सीखने की और भी िखड़िकयाँ खुल गई ं। िमसटर सटारी फे ड और मागनारेट का ईसाई पदित से हज़ारीबाग़ के चचना में िववाह देखा। मागनारेट से 10 11 वही : 32. वही. 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 275 पटा ेप निी : ििी रे और मै ििी सा ि का समाजराT | 275 िलली रे की अंतरं ग दोसती थी। रे ने मागनारेट के सीज़ेररयन दारा हुए पसव के बारे में भी िलखा है और मागनारेट के बचचे के िलए धोती-साड़ी के टु कड़े से बने पोतड़े या नैपीज़ िदए। वहीं कलब में सबने डांस भी सीखा और िलली रे राय साहब के साथ पाट्जी में डांस करती थीं। 1961 में रायसाहब का तबादला कलकते के नज़दीक ररसड़ा में कं पनी के एक फ़ै क्ी में हो गई। वहाँ अनेक अिधकारी कलकते से ही आया-जाया करते और उनके िलए रे सटहाउस के िटिफ़न रूम में खाने की सुिवधा थी। िवदेशी सदसयों को पता चला िक िलली रे पाक कला में िनपुण हैं और भारतीय भोजन के साथ-साथ िवदेशी भोजन भी पका सकती हैं। िफर कया था, कलब के िटिफ़न रूम की िजममेवारी उनहीं की हो गई। इंिडयन करी के अलावे आइिसंग, बेिकं ग सिहत िवदेशी वयंजनों में भी महारत हािसल हो गई। जो डाइवर उनहें िलली रे की आत्मकथा पाक सामिगयों की ख़रीदारी के िलए कलकते ले जाया पिरवार के सभी लोगों के करता था, उसी से िलली रे ने कार चलाना भी सीख लगातार आवाजाही और िलया। िसनेमा और सांसकृ ितक कायनाकम आिद देखने के भ्रमण की कहानी है। िकसी िलए वो सपररवार कलकता जाया करती थीं। अनेक की तिबयत ख़राब हो या िवदेशी मंडिलयाँ भ्रमण और पदशनान के िलए आतीं। िकसी के पिरवार में कोई उसी कम में िलली रे ने रूस के एक िवखयात बैले नृतयअनुष्ठान या िवशेष अवसर संगीत नाट् य ‘सवान’ को देखा। लोग उस समय िसनेमा जैसे िकसी बच्चे का जन्म या के अलावे बांगला नाटक भी देखा करते थे। इसके अलावा ररसड़ा में लेडीज़ मीट यािन, शादी-ब्याह हो, तो मूल मिहलाओं की िदन की पाट्जी होती थीं, िजसमें फ़ै क्ी में सदस्य और उनके पित या कायनारत मुलािज़मों की बीिवयाँ शरीक होती थीं। कं पनी पत्नी का आने-जाने का के िनदेशक की पतनी िमसेज़ फ़े यरहेड तो बहुत बिढ़या कायर्क्रम आम बात थी। रुई भरे िखलौने बनाती थीं और बनाना िसखाती भी थीं। सब िखलौने को दो या चार रुपये में ख़रीदते। जब ऐसे िखलौने पयानाप्त संखया में बन जाते तो मिहलाएँ मेला का आयोजन करतीं और िखलौने आिद बेचतीं। िलली रे िलखती हैं, 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 276 276 | िमान ‘हमलोगों ने भारत-चीन और भारत-पािकसतान युद के समय भी ऐसे मेलों में िखलौने आिद बेच,े और जो आमदनी हुई उसे युद फ़ं ड में भेज िदया। इसके अलावा भी हमलोग सवेटर और अनय उपयोग की वसतु आिद बनाकर भेजते थे। सबके साथ िमलकर कोई अचछा काम करना पाट्जी के मज़े से ज़यादा मज़ेदार लगता था’।12 पयनाटन का िसलिसला और बढ़ा और िलली रे उड़ीसा घूमीं। लेिकन उनके िलए सबसे ज़यादा यादगार था बदीनाथ की याता िजसकी किठनाई का वणनान िलली रे वैसे ही करती हैं जैसे जीवन की अनय किठनाइयाँ। जोशीमठ से आगे के दुरूह रासते से होकर जब वो और उनका पररवार हनुमान चटी पहुचँ ा तो कलकल बहती अलकनंदा के दशनान हुए, िजसके पार भारतीय सीमा समाप्त और ितबबत का केत शुरू होता था। रासते में उन सबको भारतीय सेना के एक मेजर साहब ने चीन से युद की बात बताई थी। लेिकन अलकनंदा के नीले बहते पानी और बदीनाथ के मंिदर को देखते हुए िलली रे िलखती हैं, ‘अलकनंदा के उस तरफ़ ितबबती लोग रहते हैं और बदीनाथ उन सबका भी तीथना सथल है। लग रहा था िक पहाड़ पर शाम ढल गई है लेिकन घड़ी देखा तो बस दोपहर का दो बजा था’।13 जीवन की इस गहमागहमी में बहुत नफ़ा था तो नुक़सान भी कम नहीं। अनुभवों का एक रोचक भूगोल पकट हो रहा था िजसमें ऐितहािसकता की उगता नहीं थी। िलली रे के अनुभवों के मानिचत पर इितहास दबे पाँव िकसी भूली-भटकी सहेली की तरह आता है और भूगोल के गले में बाँहें डाल कर दो पल िबता कर चला जाता है। तभी अनुभवों का एक सौंदयना सामने आता है िजसमें, अगर नाट् यशास के पाचीन िवदान भरत मुिन (1951) की मानें तो, रस और अिभनय एक साथ सुर-लय में पकट होते हैं। पूरी आतमकथा की ऐसी ही नाटकीयता है जो कहीं भी खलती नहीं। इतनी सहजता से लबरे ज़ सूकमता है िक अगर पढ़ने वाला धयान से न पढ़े तो शायद अनेक मील के पतथर छू ट जाएँ और जीवन का ‘पथ कभी शेष नहीं हो’।14 जहाँ भूगोल की छाती पर इितहास चढ़ कर बैठ जाए वहीं तो महतवाकांकाओं के िवतंडे खड़े होते हैं। िलली रे की आतमकथा में सरलता, ठहराव के साथ जीवन की गितशीलता िमलती है। वो अपने घर-पररवार, ररशते-नाते, दोसत-पड़ोसी, जान-कौशल और अनुभवों के सवतः पमािणत मानिचत में िवचरती रहीं। संभवतः यही सब था िजसकी वजह से िलली रे ने एक अरसे तक नहीं िलखा। वो खुद कहती हैं, ‘इस दौरान याद नहीं आता िक कभी कोई कहानी िलखा हो। जब से गोिमया गई िकसी को बताया भी नहीं िक मैं कभी िक़ससे-कहािनयाँ िलखा करती थी। अलबता ल्लू को याद था और वो कभी-कभार बातचीत में बोल देता था’।15 जब दोनों बेटे बड़े हो गए, वो बारबार अपनी माँ को रचना धमना की याद िदलाने लगे। िलली रे ने भी अनुभवों का एक संसार देख िलया था िजसे िक़ससों के पलॉट में ढालने की देर 12 वही : 72. वही : 77. 14 बंगाली िफ़्म सप्तपदी के गीत का मुखड़ा िजसे हेमतं कु मार मुखज्जी और संधया मुखज्जी ने गाया था. 15 वही : 84. 13 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 277 पटा ेप निी : ििी रे और मै ििी सा ि का समाजराT | 277 थी। लेिकन िफर भी उनका लेखन तब तक शुरू नहीं होता जब तक एक तासदी नहीं आती। आतमकथा के अंितम िहससे तक आते-आते िलली रे पटाकेप के िलए तैयार एक ऐसी लेिखका नज़र आती हैं िजसने संसार को देखकर, उसमें शािमल होकर, और सवाधयाय करके , एक बड़ी तासदी को कथा के रूप में ढालने को पसतुत थीं। हालाँिक अनय उपनयासों और कहािनयों को िलखते हुए भी लेिखका का संपणू ना वयि्तितव िवदमान था। वो लेिखका एक पतनी थी, बेटी थी, बहन थी, और ररशते-नाते की बुनावट में एक ऐसी धागा थीं िजससे बाक़ी सारे धागे जुड़े थे। लेिकन पटाकेप में वो लेिखका सपषतः एक माँ थीं िजसने अपनी लेखन शैली को ऐसे कसा िक उसमें ‘नोरझोर’ (रोने-धोने) की संभावना कम और पभावशाली िचतण की ज़यादा थी। संपादक रामानंद झा ने पटाकेप के आरं भ में अपनी संपादकीय िटपपणी में ठीक ही कहा है, ‘पूरा उपनयास कथोपकथन शैली में और चररतों की भाषा में है। कहीं यह नहीं लगता िक लेखक की भाषा हावी हो’।16 उपनयास में बांगलादेश का मुि्ति युद, चीन युद, शरणाथ्जी की समसया, माकसनावादी िवचारकों और नकसलवाद के पणेताओं के नाम भी आते हैं। लेिकन िफर भी, िलली रे की आतमकथा की ही तरह, अनुभवों के भूगोल पर इितहास का वचनासव उतना ही है िजतना िकसी सखी-सहेली की गलबिहयाँ। पटा ेप वाली लली रे अपनी आतमकथा के अंितम िहससे को िलली रे पटाकेप के पारं भ में ‘लेखन के कारण और पेरणा’ शीषनाक के साथ दुहराती हैं। उनको और रायसाहब को पता चलता है िक उनका बेटा ल्लू यािन रबींद रे वामपंथी हो गए हैं। उनहोंने पीमेिडकल की पढ़ाई में अववल आने के बावजूद उसे छोड़ िदया। वो अंगेज़ी सािहतय पढ़ने लगे। लेिकन एम.ए. का इमतहान भी छोड़ िदया। उनहोंने एक िचठी िलखकर अपनी माँ को सूिचत िकया वो नकसल आंदोलन में जा रहे हैं। माँ िलली रे को सबने यही कहा, ‘जो नकसल आंदोलन में जाता है, या तो मर जाता है या जेल में रहता है, लौट कर नहीं आता’।17 अलबता ल्लू लौट कर आए, लेिकन एक ऐसी मनोदशा में िक वो िकसी अजात भय से संकिमत हो गए थे। माता-िपता बहुत िचंितत थे। िपता तो कामकाज में वयसत हो जाते लेिकन माँ िलली रे घर पर िचंता से पीिड़त रहने लगीं। बेटे की हालत देख उनकी नींद उड़ गई थी, अिनदा की बीमारी हो गई। यही वो तासदी है जो उनहें अपनी रचनातमकता की तरफ़ वापस लाता है। िलली रे िलखती हैं ‘अपने आप ही कलम चलने लगा। सब घर आते, खाना-पीना होता, और सब सो जाते। मेरी नींद हमेशा टू ट जाती और मैं िबसतर पर तिकए का सहारा लेकर बैठ जाती। ठे हुने पर कॉपी रखकर िलखने लगती। चाहे कु छ भी हो जाए मैं रात में िलखती ज़रूर’।18 सृजनातमकता की वापसी का ही नतीजा 16 17 18 िलली रे (2015 ख) : 8. वही : 13. वही : 18. 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 278 278 | िमान था दो खंडों में िलखा उपनयास मरीिचका जो सािहतय अकादेमी पुरसकार से सममािनत हुआ। लेिकन उससे पहले आया पटाकेप। पटाकेप पढ़ते हुए हम न के वल उन युवकों के बारे में जान रहे होते हैं जो िद्ली से उतर िबहार के पूिणनाया िज़ले के सुदरू गाँव में कांित करने के उदेशय से आए थे, बि्क हम उपनयास की लेिखका की आतमकथातमकता से भी रूबरू होते हैं। संभवतः सन् 1971 का साल है। पूव्जी पािकसतान की बांगलाभाषी जनता अपने नेता के साथ कांितकारी सपने देख रही थी। गितिविधयाँ तेज़ हो रही थी और पािकसतान की सेना भी कायनावाही शुरू कर चुकी थी। भारत के माकसनावादी कमयुिनसट पाट्जी में फू ट पहले ही पड़ी हुई थी। िसलीगुड़ी, दाज्जीिलंग, बंगाल होते हुए नकसलवाद के िवचार शेष भारत में भी तेज़ी से पहुचँ रही थी। मािकसनासटलेिनिनसट कमयुिनसट पाट्जी के नेताओं के नाम लगातार सुने जा रहे थे। चारु मजूमदार, कानू सानयाल और जंगल संथाल से उममीदें बँधी थीं। ये सब पटाकेप के पाशना में है, लेिकन िबना िकसी लेखकीय रणनीित के तहत। इसीिलए ऐितहािसकता अनुभव के भूगोल की शालीन सहचरी बनकर सामने आती है। यह ठीक वैसे ही है जैसे िलली रे की आतमकथा में। उपनयास की शुरुआत होती है जब अिनल, िदलीप और सुजीत नामक युवक िकशनगंज पहुचँ ते हैं। तीनों िद्ली के एक ही कॉलेज के िवदाथ्जी थे और साथ ही सी.पी.एम (एमएल) में शािमल हुए थे। अिनल पंजाबी िकिशयन पररवार से थे और उनका पररवार बंबई में रहता था। सुजीत बंगाली कायसथ और उनका पररवार बनारस में। िदलीप उतर पदेश के बाह्मण पररवार से थे लेिकन उनका पररवार की ररहाइश कलकता में था। इस पररचय से तीनों का्पिनक पात समझे जा सकते हैं। लेिकन िलली रे क्पना का नाममात सहारा ले रही हैं और दरअसल में जो देखा और भोगा है वही बयान कर रही हैं। कयोंिक इन तीनों युवकों में एक उनका अपना ल्लू भी है जो संभवतः िदलीप के रूप में इस उपनयास में पसतुत है।19 तीनों गामीण पररवेश से अनजाने थे और सबसे पहली चुनौती यही थी िक वो अपने रूपरं ग, वेशभूषा, हाव-भाव, चाल-चलन, रहन-सहन को छोटे शहरों और गाँव के अनुरूप बनाएँ। उतना आसान नहीं था िजतना शायद सुन कर लगे। अिनल को ख़ासी िदकक़त हो रही थी इसमें और इसी के तहत अिनल ने एक ऐसा काम पकड़ा िक वो उसमें रम गए, ्क में कलीनर का (िजसे सथानीय लहज़े में ख़लासी कहते हैं)। अिनल दरअसल में एक ख़बरी भी थे और वो नज़र रखते िक कौन सा शे्टर संिदगध हो गया है। िदलीप और सुजीत बहुत हद तक कामयाब रहे, हालाँिक कभी-कभार मुिशकलें भी आई ं। एक गाँव था डोभा जहाँ िदलीप िकसी शे्टर में थे, और गाँव के खेतों में िकसान कु दाल से 19 यह भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है िक अिनल दरअसल में िदलीप िसिमयन हैं िजनहोंने इनहीं सब आँिखन देखी अनुभवों को समेटते हुए अंगेज़ी में एक उपनयास िलखा है, रे वोलूशन हायवे (2010). उस उपनयास को िलली रे के पटाकेप के साथ पढ़ने और िवशे षण करने से बहुत कु छ नायाब िनकल कर आ सकता है. साथ ही पटाकेप को रबींद रे के डॉकटरे ट के थीिसस के आलोक में भी पढ़ा जा सकता है. वह थीिसस एक िकताब के रूप में भी पकािशत हुई थी िजसका शीषनाक था द नकसलाइट ऐंड देयर आइिडओलॉजी (1980). 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 279 पटा ेप निी : ििी रे और मै ििी सा ि का समाजराT | 279 ताम (खोद) रहे थे तािक खेत की िमटी अगले फ़सल के िलए तैयार हो। िदलीप भी एक कु दाल उठा कर अनय िकसानों के साथ खेत तामने लगे, और एकबार कु दाल िमटी पर न लगकर उनके पैर पर लग गया। िकसी ने झट से कटे पर िमटी डाल िदया, िकसी और ने कोई पता चबाने को दे िदया, और िकसी ने सलाह दी, ‘सुबह-शाम इस घाव पर पेशाब कीिजए, दस िदन में ठीक हो जाएगा’।20 दस िदन में पाँव फू ल गया और घाव में ददना ऐसा उठा िक पाँव का िहलना-डु लना बंद। तेज़ बुखार चढ़ आया सो अलग। जैसे-तैसे टाँग कर िदलीप को सटेशन और िफर किटहार ले जाया गया। रे लवे के डॉकटर ने पैर काटने की सलाह दी। सब उनहें उठाकर एक अनय डॉकटर दास के िकलिनक गए। उनहोंने समुिचत इलाज िकया। गामीण गितिविधयों के साथ ही सब पाट्जी के गुप्त बैठकों में भी जाने लगे, िजसमें कांित की दशा-िदशा, िकसानों के लगातार शोषण की िसथित, और ततकाल िनवारण की चचाना होती थी। सभी कायनाकताना िकसी न िकसी गुप्त सथान पर ठहरते िजसे शे्टर कहा जाता। कु छ वयि्ति थे िजनहें बंक (बैंक) कहा जाता था और उनके सुपदु ना रुपये-पैसे महफू ज़ रखे जाते थे। जब ज़रूरत हो तो काडर अपने रुपये बंक से लेते। ऐसे भी मौक़े आए िक बंक पैसे देने से मुकर गया। अिनल का एक ऐसा ही बंक था एक सकू ल मासटर िजसके पास अनेक काडर के रुपये थे, और उसने देने से आनाकानी की। ये सखत िहदायत थी की कोई कायनाकताना अपना असल पहचान िकसी को नहीं बताएगा। सथानीय कायनाकतानाओ ं के घर ही शे्टर होते, जैसे जीवछ का, फे कना धानुक का, मोती कापड़ी का। पूिणनाया सटेशन के पास एक सबसे िवशसत शे्टर था सोखा िसंह का, जहाँ पैसे देकर ठहरने और खाने की वयवसथा थी न िक िवचारधारा या राजनीित के आधार पर। उनहीं िदनों बाढ़ आई और आसपास के सारे गाँव पहुचँ से बाहर हो गए। कायनाकताना लोग भी बाढ़गसत गाँवों में ही फँ स गए। उसके बाद जो बैठक हुई उसमें उममीद से ज़यादा हताशा का ज़ोर था। दस वषना से ऊपर हो गए और खेतों के पुनिवनातरण और अिधकार के िलए जो बटाईदार क़ानून बना था उसकी िवफलता िदखाई पड़ रही थी। सरकारी उपकमों की िमलीभगत से इस क़ानून का उ्लंघन हो रहा था। अगहनी धान की फ़सल लगने वाली थी और िकसान अब भी अपने-अपने खेत मािलकों के िलए ही िनःसहाय होकर काम कर रहे थे। युवा काडर की यह भी िशक़ायत थी िक पाट्जी के सथानीय नेता िशवनारायण भी ढीले हैं। के वल गामीणों को ही नहीं नेता को भी झकझोर कर जगाने की ज़रूरत है। इन बैठकों में अनय जगहों पर हुई कांित की सफलता के िक़ससों को सुनने-जानने की बड़ी ललक थी। िदलीप को वो सारे िक़ससे सुनाने के अवसर िमलते जो उनहोंने पढ़े या सुने थे। चीन देश का इितहास, माओतसे तुंग की दो दशकों की युद याता, और अंततः सवनाहारा की िवजय − महतवपूणना िक़ससे थे। पूिणनाया िज़ले के सवनाहारा भी यही सब करना-देखना चाहते थे। सब बेताब थे िक कानू सानयाल, चारु मजूमदार और जंगल संथाल कया कह और कर रहे थे। आिख़र 20 िलली रे (2015 ख) : 26. 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 280 280 | िमान नकसलबाड़ी बहुत दूर नहीं था िकशनगंज से, और न ही पूिणनाया दूर था। जैसे लोग माकसना और लेिनन का नाम लेते, वैसे ही सथानीय नेताओं का। उनहीं सब िक़ससों के ज़ररये िदलीप लोगों को कांित के पित आसथा और भरोसा िदलाने की कोिशश करते। लेिकन िदलीप के िक़ससे सुनते हुए कायनाकताना लोग उनको िबना बहुत बोले ही पितिकया देते थे। िदलीप को महसूस होता था िक लोग उनसे कह रहे हैं, ‘बाबू हमलोगों ने भी कम नहीं देखा है। ये सब कहना आसान है, करना नहीं’।21 सवनाहारा से संवाद की घटना लगभग पूरे पटाकेप में है। उममीद और उ्लास के आगेपीछे डोलती है अिनिशतता। लेिकन िफर भी िदलीप और उनके अनय साथी जमे रहते हैं। एक साथी मोती कापड़ी सुजीत की कही बातों में अपनी बातें जोड़कर फटी आवाज़ में गाता है, जा के लाल िकले पर भाई, देबै झंडा हम फहराई। राज लेबै मज़दूर ओ िकसान के , बोल मुकका तान के ना’।22 ऐसे िकतने अनय गीत थे, बांगला भाषा में भी, जो मोती िकसी भी समय गाने के िलए ततपर रहता था। बड़ी गहरी जमती थी मोती और िदलीप की, एक शहर का और एक गाँव का, लेिकन िफर भी दोनों एक-दूसरे को िकतने िक़ससे सुनाते। मोती कांितकारी सािहतय के अनेक िहससे मुहँ ज़बानी सुनाता, और िफर गँवार की तरह ठठा कर हँस पड़ता। इसी तरह के जोश में एक गाँव में खेितहरों ने खेतों की फ़सल पर क़बज़ा कर िलया। पुिलस भी देखती रह गई। इसे सवनाहारा की जीत के रूप में मनाया गया। अलबता यह भी सच था िक मज़बूत और बड़े मािलकों के खेतों की फ़सल को कोई छू भी नहीं सका। उनके पास ्ैकटर थे, बंदक़ ू और भाले थे, पशासन-वयवसथा थी, और सबसे महतवपूणना था उनके पित िकसानों और मज़दूरों की सवािमभि्ति। िफर भी थोड़ी उममीद जगी थी। सब एक-दूसरे को कामराइट-कामराइट (यािन वो कॉमरे ड जो राइट काम करता है) कह रहे थे। िसंपथाइज़र की संखया पूिणनाया में बढ़ रही थी। ये िसंपथाइज़र शहर से आए काडर को आशय देते थे लेिकन गाँवों में काम कर रहे कायनाकतानाओ ं से दूरी रखते थे। उनहें िहंसा से सखत परहेज़ था। पाट्जी के अंदर ही मनोज जैसे 21 22 वही : 32. वही : 33. 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 281 पटा ेप निी : ििी रे और मै ििी सा ि का समाजराT | 281 कायनाकताना थे जो अिनिशतता की आहट सुन रहे थे। वो तो कहता भी था िक ‘एक मुटी लोक आ एक गटी नोटसँ कोनो कांित सफल निह भह सकै त अिछ’।23 यािन िक थोड़े बहुत लोग और थोड़े पैसे से भला कांित कै से हो? शोिषत भी शोषक बनने को तैयार हो तो कया कांित? जो ग़रीब हैं उनको पेट भर खाना भी नहीं िमलता तो वो कै से शे्टर देगा और िखलाएगा िकसी काडर को? मनोज ने िकतनी बार िदलीप को भी अपने घर-पररवार की तरफ़ लौटने की सलाह दी। ऐसे ही दौर से सुजीत भी गुज़र रहा था। िकस पर भरोसा करें िकस पर नहीं, ये एक भारी चुनौती बनते जा रही थी। रामचंदर िसंह अपने आप को कमयुिनसट कहता था और सब उसे भरोसे का आदमी समझते थे। लेिकन वो तो बस एक लुटेरा िनकला। वो लूटपाट करता और सब गाँव वाले उससे डरते। जो कोई कॉमरे ड उसका िवरोध करता रामचंदर िसंह उसे सीआयए का एजेंट घोिषत कर देता और अपने डेरे पर चाकरी करवाता। ग़रीब िकसान समझते िक कमयुिनसट लोग अपना-अपना माल बना रहे हैं और ग़रीबों को कांित का सपना िदखा रहे हैं। ऐसे में एक ख़बर उड़ी, पूव्जी पािकसतान के कॉमरे ड अनवर हुसैन ने चारु मजूमदार को पूव्जी पािकसतान के वामपंथी पाट्जी का लीडर बनने के िलए अनुरोध िकया है। एक गामीण था दुखना िजसके पास रे िडयो था और उसी पर सबने रे िडयो पीिकं ग पर चारु मजूमदार के िवचारों की चचाना सुनी। लग रहा था िक उनके सथानीय नेता की अब अंतरानाष्ीय छिव बन गई है। कॉमरे ड लोगों के शे्टरों में उतसाह की लहर छा गई। कलकते की सड़कों की दीवारें अब और भी सलोगनों से भर गई ं। पूव्जी पािकसतान की खलबली की ख़बर आग बन कर फै लने लगी। सबकी नज़र में पािकसतान दो भागों में बँटा हुआ था। ईसट मज़दूरों का और वेसट मािलकों का। ये दो अलग पदेशों या देशों की लड़ाई नहीं बि्क दो वग्यों की लड़ाई के रूप में पचिलत हो रहा था। कांित का एक नया मानिचत उभरा िजसमें पूिणनाया से लेकर मिणपुर और असम तक जुड़ गए थे। योजना थी िक िद्ली, हररयाणा, पंजाब और कलकते के कायनाकतानाओ ं को जोड़ा जाए तािक वो एक-दूसरे की मदद कर सकें । सवाधीन भारत में जो गहरा वगना-भेद पला और बढ़ा था उसके िख़लाफ़ एक िवपलव की सोच बन रही थी। बंगाली भाषी पािकसतानी शरणाथ्जी का इस इलाक़े में आना शुरू हो गया था। किटहार सटेशन और आसपास के इलाक़ों में शरणाथ्जी बहुतायत में इकटे हो गए थे और पुिलस को सुरका का इंतज़ाम करना पड़ा था। िसलीगुड़ी और जलपाईगुड़ी में तो शरणािथनायों का उपदव फै ल गया था। चोरी-चकारी और ख़ून-ख़राबा आम बात हो गई थी और पशासन रोकथाम में िवफल हो चुका था। तुराना यह िक जो भी अपराध होता उसका दोष नकसलवािदयों के सर मढ़ िदया जाता। समय की गंभीरता ऐसी बढ़ी िक सच से ज़यादा कानाफू सी और िवशास से ज़यादा संदहे हवा में फै ल गए। िकसी ने कहा जंगल संथाल पुिलस की िगरफत में आ गए। िकसी ने कहा िक चारु मजूमदार की अपील है िक सब िमलकर बंगाल की आज़ादी के िलए संघषनाशील 23 वही : 47. 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 282 282 | िमान मुि्तिवािहनी सेना का समथनान करें । तो िकसी ने बताया िक मुि्तिवािहनी जब तक सरकारी तंत के गठजोड़ में है उसका साथ नहीं िदया जाए। कया सच था कया नहीं, कहना मुिशकल हो गया था। उनहीं िदनों िकसी गुप्त बैठक में अिनल ने इकटे हुए काडर को वसतुिसथित की जानकारी दी और सलाह िदया िक शे्टरों पर भरोसा न िकया जाए। सथानीय नेता िशवनारायण िब्कु ल हतोतसािहत हो चुके थे। जहाँ तहाँ काडर पुिलस की िगरफत में आ रहे थे। कु छ का पता चलता िक वो जेल में हैं और कु छ के बारे में कोई ख़बर नहीं होती। ऐसी ही िसथित में, ‘नकसलवािदयों को चीन समथनाक और पिशमी पािकसतान का सहअपराधी मान िलया गया था’।24 सुजीत, िदलीप, अिनल और अनय सभी काडर अपने आपको सुरिकत रखते हुए भटक रहे थे। सुजीत को गाँव के िकसी िकसान ने कहा, ‘झगड़े के िलए भड़काने का काम छोड़ कर कोई और काम कीिजए। ये िशवनारायण की तो आदत हो गई है िक वह पकड़ कर सबके सर पर कॉमरे ड थोप देता है’।25 डाकू ... रामचंदर िसंह और उसके िगरोह का भी सफ़ाया हो चुका था। गाँव वालों ने ही घेर कर पुिलस के हवाले कर िदया। उधर नेता िशवनारायण पर संदहे था िक उनहोंने सकू ल मासटर (जो पाट्जी के बंक थे) की हतया कर दी थी। अिनल यह सब सुनकर बौख़ला उठते थे। ‘उनका मन करता था िक िकसी पतथर या ई ंट से िकसी का िसर फोड़ दें। वो ऐसे खयाल से भागकर अपने ्क के पास जाते और उसे रगड़-रगड़ कर धोनेसाफ़ करने लगते। शायद मानिसक संतल ु न के िलए ये शारीररक पररशम ही उनकी मदद करता था। अिनल बा्टी को चापाकल के नीचे पटक कर रखते और ज़ोर-ज़ोर से पानी िनकालने के िलए हैंडल पर बल लगाते। उनहें लगता िक वो िकसी मोटे सूअर का गला रे त रहे हों’।26 अिनल का बड़ा मन हो रहा था िक वो पाट्जी छोड़ दें। सुजीत को भी नज़र आ रहा था िक जो कल तक िसंपथाइज़र थे वो अब कटर िवरोधी हो गए। पूिणनाया में नए काडर की बैठक होती तो थी, लेिकन पता चलता िक वो सब धड़्ले से िगरफतार हो रहे थे। सुजीत भी बहुत िदन तक नहीं बच सका और दरोगा जी ने ितकड़मी हथकं डे अपना कर सुजीत के ज़ररये दो-तीन अनय कायनाकतानाओ ं को भी धर दबोचा। बासदेव भी एक ऐसा सथानीय कायनाकताना था जो हवालात में पड़ा रहा। चूँिक सुजीत सथानीय नहीं थे उनहें छोड़ िदया गया। सथानीय कायनाकताना और गामीणों में यह ख़बर भी थी िक बड़े घर के लड़के बच जाएँगे, साधारण लोगों का कु छ नहीं होगा। कल का समथनाक सथानीय युवक िसवन मरड़ िजसे सब िसबना कहते थे अब मुि्तिवािहनी का जवान बन कर िसवचंद मंडल कहलाने लगा था। िदलीप जब उससे िमले तो उसने कहा, ‘देश के काम में अगर मेरा शरीर लग गया तो मैं धनय हो गया। कामराइट, आप भी जवान बन जाइए। दोनों िमलकर दुशमन के दाँत तोड़ेंगे’।27 अिनल को भी पता चला िक दुखना ने कु छ लोगों को मुि्तिवािहनी में भत्जी करवाया है। ‘सभी 24 25 26 27 वही : 69. वही : 74. वही : 77. वही : 84. 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 283 पटा ेप निी : ििी रे और मै ििी सा ि का समाजराT | 283 देशभ्ति कहलाना चाहते थे, देशदोही नहीं’।28 सुजीत और अिनल ने सोचा िक तीनों दोसत साथ आए थे, और तीनों इस भयावह हालात से साथ िनकलेंगे। लेिकन िदलीप नहीं माने और वो भटकते-भटकते गाँव में बासदेव के घर पहुचँ ।े वहाँ बासदेव की पतनी का बुरा हाल था। बासदेव के भाई रामदेव और उसकी पतनी ने िदलीप को ख़ूब खरी-खोटी सुनाई। लेिकन िदलीप बासदेव की पतनी की सेवा, दवा-दारू करते रहे। जब वह ठीक हो गई तो िदलीप आगे बढ़े। लेिकन कहाँ और कयों, ये कु छ पता नहीं था। कांित का इरादा तो अब भी था, लेिकन हालात िब्कु ल ही अनुकूल नहीं थे। थके -हारे और बीमार िदलीप मुमनाू के घर पहुचँ े िजसने उनहें घर पर बना हुआ दारू िपलाकर ठीक करने की कोिशश की। मुमनाू वहाँ की एक मेहनतकश, गीत गाने में िनपुण, सौतर जाित का जवान था। ये लोग अभी भी कांितकारी िवचार रखते थे। लेिकन मुसरी गाँव में कोई भी पुरुष नहीं बचा था जो कांितकारी गितिविधयों के िलए उपलबध हो। िफर भी िदलीप वहाँ और अनय गाँव के लोगों को पािकसतान के युद के िवरुद और मुि्तिवािहनी के िख़लाफ़ समझाने की कोिशशें कर रहे थे। इसी बीच उड़ती उड़ती ख़बर आई िक कानू सानयाल और जंगल संथाल पकड़े गए हैं हालाँिक पाट्जी को तिनक भी िवशास नहीं था ऐसी ख़बरों पर। गाँव-गाँव, घर-घर पर पुिलिसये और सामािजक जासूसों की नज़र थी। कोई भी संिदगध गितिविध होती तो तुरंत कारना वाई हो जाती। ऐसे में िदलीप िकसी एक घर, एक गाँव में नहीं रुक सकते थे। सुबह इस गाँव में तो शाम कहीं और बीता। वो एकदम ‘िमतहीन, आशयहीन और अके ले’29 महसूस करने लगे थे। आिख़रकार घूमते-भटकते िदलीप को, घूमते-भटकते अिनल ने ढूँढ िलया। िकसी गाँव के एकांत में एक मंिदर था, महादेव का, वहीं िदलीप बुख़ार से बोिझल ख़सताहाल पड़े हुए थे और अिनल भी सफ़र से थके वहीं आए। दोनों िकसी तरह जहाँ-तहाँ उठते-बैठते आगे बढ़े। कहीं पर िमला तो माँड़ (पके हुए चावल से िनकला तरल दवय) पी िलया और थोड़े टनमना गए। कहीं पर कोई बात हुई तो कलांत चेहरे पर हँसी आ गई। दोनों दोसत एक-दूसरे की सुिध लेने की कोिशश करते लेिकन दोनों की हताशा एक जैसी ही थी तो ज़यादा शबदों में कु छ कहने की ज़रूरत नहीं पड़ी। िफर भी जब अिनल ने पूछा, ‘आपको कहीं सफलता िमली?’, तो जवाब में लंबी और डरावनी सी ख़ामोशी ही िमली। बहरहाल िदलीप को अिनल से जानने को िमला, पािकसतान से अलग एक नया देश जनमा है, बांगलादेश! दोनों दोसत कलकता पहुचँ ।े सड़क के िकनारे दीवारों पर अभी भी नारे िलखे हुए थे। युद के समथनान में, िवजय के नारे , िवजय के बाद के नारे , और भारतीय पधानमंती की छिव। और कहीं दीवार पर यह भी िलखा था, ‘एिशया का सूरज, इंिदरा गाँधी’।30 िदलीप ने अिनल को िवदा कहा और अपने घर चले गए। 28 29 30 वही : 99. वही : 105. वही : 127. 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 284 284 | िमान अंततः पटा ेप नही जबिक पूरा समाजशास सामािजक संबंधों, संसथान, वयवहार और पणाली को समझने के पित किटबद है, यह ज़रूरी है िक इसी तरह की किटबदता को सािहतय में भी देखा जाए। और दोनों, सािहतय और समाजशास के संबंध के आलोक में ही सािहतय का समाजशास हो िजसमें पाठ, पठन, और पाठक को लेखक के साथ एक पकार का वयाखयातमक संवाद हो। िलली रे के जीवन और पटाकेप के रूबरू ऐसी संभावना पबल हो जाती है। इसमें लेखक और पाठक, पाठ को पढ़ते हुए, संवाद कर सकते हैं। ऐसा इसीिलए है कयोंिक िलली रे अपनी लेखकीय भूिमका को सहज और सरल रखती हैं। इतना सरल िक लेखक के गौण होने तक का एहसास हो। जैसा िक संपादक रामानंद झा रमण ने उ्लेख िकया, िलली रे कथोपकथन शैली में िलखती हैं जो बहुत हद तक िकसी ररपोटनार का आँखों देखी घटना का सीधा पसारण जैसा लग सकता है। लेिकन इसी िवधा में पाठकों को अपने-अपने अनुभवों के साथ िलली रे और उनके पातों से ररशते बनाने का मौक़ा िमलता है। इसमें सच और क्पना का एक ऐसा आिलंगन है िक सच ही क्पना और क्पना ही सच है। समाज और उसकी भौितकी, संसकृ ित और उसकी राजनीित, सामािजकता और ऐितहािसकता, एक सामय की िसथित में हैं और उसी की वयाखया हो रही है। यह लेखकीय जीवन और उसका रचना कमना ही सािहतय का समाजशास है। आम तौर पर समाजशास समाज को जानने और समझने का बाह पयतन है। इस बौिदक पयतन से, िसदांतों और अवधारणाओं के सहारे तैयार करके इसके माधयम से समाज और संसकृ ित को पढ़ा जाता है। िलली रे के जीवन और लेखन के अंदर ही एक समाजशास है, िजसे उके र कर हम समाज और संसकृ ित को िबना लाग-लपेट और बाहरी सहारे के ही समझ सकते हैं। सािहतय और सािहतयकारों के ऐसे ही उपकमों को देखते हुए यह सवाल महतवपूणना है: कै सा हो सािहतय-संसकृ ित का समाजशास, िजसमें देशज भाषाओं में रिचत सािहतय को पढ़ा, समझा और िवशे िषत िकया जाए? इस बृहत् पश का उतर ढूँढ़ने के िलए लगातार पयास की ज़रूरत है। यह लेख सािहतय को सामािजक-सांसकृ ितक पररिध में 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 285 पटा ेप निी : ििी रे और मै ििी सा ि का समाजराT | 285 देखता है, और सािहतय, एंथॉपॉलजी और सोससॉलजी में एक समानता को उजागर करता है। इन सबमें ररशते-नातों का कें दीय सथान रहा है। बस तथय और क्पना के सवघोिषत िमशण का फ़क़ना हो सकता है। सािहतय के इस समाजशास में यह भी एक महतवपूणना पश है िक सामािजक और राजनैितक वचनासव वाले भाषा और उनके सािहतय ही नहीं वनानाकयुलर कही जाने वाले अनिगनत भाषाओं और उनमें रचे सािहतयों को भी समुिचत सथान िमलना चािहए। सािहतयसंसकृ ित के इितहास में अगर कही संसकृ त कॉसमोपॉिलस31 (संसकृ त भाषा और सािहतय का िवसतृत पभाव केत होगा)। तो कहीं वनानाकयुलर कॉसमोपोिलटिनज़म (सथानीय भाषा-सािहतयों में िवशवादी रुझान) भी होगा, िजसके बारे में होमी भाभा, माथाना नुसबॉम और अनेक िचंतकों ने अलग-अलग िवचार िदए हैं।32 इस लेख में िलली रे की जीवन याता और उससे पतयक रूप से जुड़े उपनयास पटाकेप को पढ़ते हुए उसी वनानाकयुलर कॉसमोपोिलटिनज़म का एक मानिचत बनता है, िजसे पसतुत लेख में अनुभवों का भूगोल कहा गया है। इस मानिचत की एक िवशेषता है िक यह एक संदभना है सथानीयता का लेिकन इसमें जो सीमांकन है वो अिनिशत है। अनुभवों के भूगोल में, वनानाकयुलर सािहतय-संसकृ ित में पसतुत कॉसमोपोिलटिनज़म में, सीमाएँ उतनी ही अिनिशत होती हैं िजतना जीवन और उसके उतार-चढ़ाव। कौन-सी नाव कहाँ लगे, और कब िहचकोले खाती आगे की याता पर िनकल जाए कहना मुिशकल है। िलली रे की भी नाव ऐसी ही है, उनका जीवन और सािहतय उसी सीमांकन की असीमता, अनुभवों के अंचल में रहते हुए भी आंचिलकता से पार जाती है। और इनहीं संभावनाओं के नज़ररये से पटाकेप के संपादक रामानंद झा रमण की यह बात समझ में आती है िक िलली रे के मैिथली में सािहितयक योगदान का ‘पटाकेप नहीं’ हो सकता। शुि्रिया : इस आलेख की शुरुआत तब हुई जब पोफ़े सर मणींद नाथ ठाकु र के िनद्देश और आगह पर मैंने िलली रे को पढ़ना शुरू िकया। इसके िलए मैं उनका कृ तज हू।ँ संदर्भ जयकांत िमशा (1998), मैिथली सािहतयक इितहास, सािहतय अकादेमी, िद्ली. टी. एन. मदन (2013), सोिसयॉलजी ऐट द युिनविसयाटी ऑफ़ लखनऊ (1921-1975), ऑकसफ़डना युिनविसनाटी पेस, िद्ली. तारानंद िवयोगी (2019), युगों का याती : नागाजुयान की जीवनी, राजकमल पकाशन, िद्ली. िदलीप िसिमयन (2010), रे वोलूशन हायवे, पेंगइु न, िद्ली. 31 इस िवषय पर शे्डन पोलॉक (2006) के िवसतृत िवमशना को देखने और समझने की ज़रूरत है. साथ ही ररचडना ईटन (2019) के फ़ारसी कॉसमोपॉिलस पर भी िवशे षण देखा जा सकता है. 32 एक संिकप्त और िवहंगम दृिष के िलए देखें पी.वरबनर (2006). 09_dev_pathak update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 15:55 Page 286 286 | िमान देवकांत झा (2004), ए िहस्ी ऑफ़ मॉडनया मैिथली िलटरे चर : पोसट इंिडपेंडेंस पीररयड, सािहतय अकादेमी, िद्ली. देव नाथ पाठक (2019), िलिवंग ऐंड डाई ंग : मीिनंगस इन मैिथली फ़ोकलोर, पाइमस, िद्ली. __________(2022), इन िडफ़ें स ऑफ़ द ऑिडयानरी : एवरीडे अवेकेिनंगस, बलूमसबरी, िद्ली. __________(2022), ‘हररमोहन झा’ज़ खटर कका : हूमरस सबवज़नान ऑफ़ िहंदइु ज़म इन िमिथला’, साउथ एिशयन ररवयू, डी ओ आई: 10।1080/02759527।2022।2033071. पी वरबनर (2006), ‘वनानाकयुलर कॉसमोपॉिलिटज़म’, थयोरी, कलचर ऐंड सोसाइटी, 23 (2-3) : 496-498. भरत मुिन (1951), नाट् यशास्त्र (मनमोहन घोष दारा अंगेज़ी में अनूिदत), एिशयािटक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल, कलकता. िमिथलेश कु मार झा (2018), लैंगवेज पॉिलिटकस ऐंड पि्लक सफ़ीयर इन नॉथया इंिडया : मेिकं ग ऑफ़ द मैिथली मूवमेंट, ऑकसफ़डना युिनविसनाटी पेस, िद्ली. िमशेल फ़ू को (1977), ‘वहाट इज़ ऐन ऑथर?’, डोना्ड एफ़ बोकाडना (सं), लैंगवेज, काउंटर मेमोरी, पैिकटस, के िमबज युिनविसनाटी पेस, इथाका : 113-138. राधाकमल मुखज्जी (1944),‘आटना ऐज़ सोशल साइंस’, द सोिशयोलॉिजकल ररवयु, वॉ्यूम 36, इशू 1-4 : 60-66. रबींद रे 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10_Pradeep bore_ayub khan update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:09 Page 287 कताएँ एवं दीप बौहरे अयूब खान सामानयत: कु छ िविशष्ट घटनाओं के संदभड में ही गुमशुदा वयि्तियों के िवषय को सावडजिनक वाताडलाप में उठाया जाता है। कभी-कभी यह पश भी उठता है िक कया सभी पंजीबद गुमशुदा अंतत: ढूँढ़ िलए जाते हैं और उनकी तलाश में पुिलस की भूिमका िकतनी पभावकारी रहती है? गुमशुदा वयि्तियों के पररवारों का उनके जाने के बाद कया होता है तथा उनके सगे-संबंिधयों का जीवन कै सा होता है? सापेिकक रूप से गुमशुदा वयि्तियों की वासतिवकता एक घटना के रूप में के वल उन हाय पोफ़ाइल पकरणों तक सीिमत नहीं होती जो समय-समय पर अख़बारों की सुिखडयाँ बनते हैं या पचार के अनय माधयमों में चिचडत होते हैं, बि्क उन हज़ारों-हज़ार वयि्तियों में होती है जो िकसी भी कारण से पतयेक वषड गुम हो रहे हैं। इन लापता वयि्तियों में से कु छ ऐसे भी होते हैं जो कभी नहीं िमलते अथवा दुघटड ना के िशकार हो जाते हैं और कु छ ऐसे िजनकी गुमशुदगी पंजीबद नहीं की जाती या िजनकी तलाश नहीं की जाती। दुभाडगयवश आज भी भारत में गुमशुदा वयि्तियों संबंधी पामािणक आँकड़े उपलबध नहीं हैं। हालाँिक सथानीय पुिलस इस संबंध में अपने सतर पर आँकड़े अवशय एकितत करती है ि िध संधान गुमशुदा व्यक्तियों के प िवाि क आव चुनौ तयाँ 10_Pradeep bore_ayub khan update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:09 Page 288 288 | िमान िकं तु राष्ीय सतर पर इनका िमलान नहीं िकया जाता।1 पुिलस दारा एकत आँकड़े गुमशुदा वयि्तियों की पररशुद संखया इसिलए भी पसतुत नहीं करते कयोंिक पुिलस के वल उन घटनाओं को दजड करती है जो उन तक पहुचँ ती हैं। I दुिनया के िविभनन देशों में गुमशुदा बचचों तथा युवाओं पर कु छ अधययन अवशय हुए हैं, िजनमें से अिधकांश घर से भागने वाले बचचों पर कें िदत हैं। भारत में गुमशुदा बचचों तथा ि्त्रियों के अधययनों की बाढ़ वषड 2006 में नोएडा, उरर पदेश के िनठारी गाँव में 30 लापता बचचों के साथ हुए अतयिधक घृिणत कायड तथा शोषण के सबसे ख़राब सवरूप को पदिशडत करने वाली घटना के बाद आई। िनठारी कांड के बाद राष्ीय मानव अिधकार आयोग, नई िद्ली ने इस बहुसतरीय तथा बहुआयामी जिटल समसया के िलए एक अनुभव आधाररत अधययन की आवशयकता महसूस की तथा शंकर सेन और पी.एम. नायर के नेततृ व में समाज िवजान संसथान, नई िद्ली के सहयोग से एक िवसतृत अधययन िकया। वषड 2004 से 2006 तक िकए गए इस अितमहतवपूणड अधययन की ररपोटड क़ानून की किमयों, क़ानून पवतडन अिभकरणों के तालमेल के अभाव, संगिठत िगरोह की संिलपता तथा तसकरी की िशकार मिहलाओं एवं बचचों की वयथा को उजागर करती है।2 वषड 2005 में चाइ्डलाइन इंिडया फ़ाउंडेशन ने ‘गुमशुदा बचचों’ पर एक सवतंत अधययन समिनवत िकया। तीस शहरों में सातों िदन चौबीसों घंटे चलने वाली चाइ्डलाइन की िन:शु्क दूरभाष सेवा पर पाप फ़ोनकॉल पर आधाररत अधययन गुमशुदा बचचों की ज़मीनी हक़ीक़त दशाडता है। उ्ति अधययन यह भी सपष्ट करता है िक यद्यिप िनठारी कांड के बाद तथय व गुमशुदा बचचों की संखया अवशय बदली है परं तु ये समसया लगातार बढ़ रही है।3 बचपन बचाओ आंदोलन4 दारा एक वृहद अधययन सूचना के अिधकार आवेदनों के आधार पर वषड 2008 से 2010 के मधय लापता बचचों पर संपािदत िकया गया। गुमशुदा बचचों की समसया की पकृ ित व उसका िवसतार जानने तथा पररिसथितजनय िवशे षण कर एक नीितगत ढाँचा तैयार करने के उदेशय से िकए गए उ्ति अधययन से न के वल उन कारणों और तरीक़ों को पहचानने में सहायता िमली िजनसे गुमशुदा बचचों की समसया से िनपटा जा सकता 1 राष्ीय अपराध ररकॉड् डस बयूरो, नई िद्ली भी इस िसथित में नहीं होता िक गुमशुदा वयि्तियों संबंधी राष्ीय आँकड़े पसतुत कर सके . राजय सरकारों दारा पाप गुमशुदा वयि्तियों की सूचनाएँ बयूरो के पलेखन कें द (डॉकयूमटें ेशन सेंटर) तक अथवा अिधकतम ्ांसफ़र डेसक तक ही भेजी जाती हैं, कयोंिक एनसीआरबी ऐसे पकरणों की जाँच या िनगरानी करने वाला संगठन नहीं है. पहले राजयों की पुिलस गुमशुदा वयि्तियों को ढूँढ़ िनकालने या सवत: लौटने वालों की कोई जानकारी एनसीआरबी नहीं देती थी िकं तु अब बयूरो ने ‘तलाश’ सूचना वयवसथा के अंतगडत ऐसे आँकड़े एकितत करना आरं भ कर िदए हैं. 2 शंकर सेन और पी.एम. नायर (2005) ्ैिफ़िकं ग इन वीमेन ऐंड िच््ेन इन इंिडया, नई िद्ली : ओररएंट लौंगमैन. 3 चाइ्डलाइन इंिडया फ़ांउडेशन (2007) ‘िमिसंग िचल्ड्रन ऑफ़ इंिडया : इशयू.ज ऐंड अपोचेज़-ए-चाइलडलाइन पस्सपेि्टव’, सीआईएफ़, मुबं ई. 4 बचपन बचाओ आंदोलन भारत में एक आंदोलन है जो बचचों के िहत और अिधकारों के िलए कायड करता है. 10_Pradeep bore_ayub khan update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:09 Page 289 गुमशुदा व्यक्तियों के प ििाि क आि कताएँ एिं चुनौ तयाँ | 289 है बि्क यह भी सपष्ट हुआ िक गुमशुदा बचचों के मामलों में क़ानून को वयाखयाियत तथा लागू करने के साथ-साथ घटना की जाँच-पड़ताल की िज़ममेदारी एक पुिलस अिधकारी के जान तथा समसया हल करने के तरीक़े पर और गुमशुदा बचचे के माता-िपता की सामािजकआिथडक पृष्ठभूिम पर िनभडर करती है।5 गुमशुदा बचचों एवं ि्त्रियों पर िकए गए अधययनों की तुलना में गुमशुदा वयसकों पर शोध सािहतय की कमी है और िजनहोंने इस िवषय पर अधययन िकए हैं, उनहोंने भी गुमशुदा वयि्तियों की िवशेषताओं को जानने, गुम होने के सवाल को पररभािषत करने अथवा उनके पकारों को िनिमडत करने का कायड िकया है। ये थोड़े से अधययन भी सैदांितक रूप से पुिलस आँकड़ों के िवशे षण पर आधाररत हैं, चाहे वह अमेरीिकयों पर िकया गया अधययन हो, जो गुमशुदा वयि्तियों की िवशेषताओं का एवं उनके लापता होने और वापस आने की पररिसथितयों का वणडनातमक िवशे षण करता है 6 अथवा ऑस्ेिलया में 270 गुमशुदा वयि्तियों के पररवारों तथा िमतों पर िकया गया अधययन, िजसका उदेशय गुमशुदा पकरणों के कारण ऑस्ेिलयाई समुदाय को होने वाली सामािजक तथा आिथडक लागत का मू्यांकन करना था।7 ये दोनों अधययन ‘गुमशुदा’ को पररभािषत करने में आने वाली अवधारणातमक जिटलताओं को उठाते हैं तथा वयसक गुमशुदा के मुदे पर अधययनों की कमी को रे खांिकत करते हैं। ऑस्ेिलया में िकए गए अधययन में गुमशुदा वयि्तियों की पररिसथितयों तथा अिभपेरणाओं को जानने के िलए उनके पररवारों और/अथवा उन एजेंिसयों से भी अितरर्ति जानकारी एकितत की गई जो गुमशुदा वयि्तियों के पररवारों के साथ कायड करती हैं। इन अितरर्ति तथयों से अधययन में यह जात करने का पयास िकया गया िक लोग जानबूझकर लापता हुए अथवा नहीं। कया यह मुदा गुमशुदा वयि्ति के िविभनन सवरूपों जैसे बाग़ी, पितकू ल पररणामों से बचने के िलए तथा अनचाहे में गुमशुदा को िनिमडत करने के पयासों को मज़बूत करता है।8 ऐसे पररवारों के अनुभवों पर तो बहुत ही कम या न के बराबर अधययन हुए हैं िजनके घर से कोई लापता है। पी.जी. बॉस 9 दारा गुमशुदा वयि्तियों के पररवारों पर िकए गए अधययनों से कु छ पासंिगक अवधारणाएँ िवकिसत हुई ं। उसने ऐसे पररवारों के संबंध में िवसतार से िलखा है जो ‘असपष्ट कित’ भुगतते हैं; चाहे वह पररवार के िकसी सदसय के गुमश ु दा होने की वजह से हो और उसकी िनयित अजात हो या ऐसे वयि्ति के कारण हो जो सशरीर तो उपिसथत हो िकं तु उसका वयि्तितव अ्ज़ाइमर या िडमेंिशया से पीिड़त होने के कारण खो गया हो। ‘असपष्ट 5 बचपन बचाओ आंदोलन (2012) ‘िमिसंग िच््न ऑफ़ इंिडया : ए िसनॉि्सस’, बीबीए, नयू िद्ली. जे.डी. िहश्शेल और एस.पी. लैब (1988) ‘हू इज़ िमिसंग? द ररयिलटीज ऑफ़ द िमिसंग पस्संस पॉबलम’, जन्सल ऑफ़ ि्रििमनल जि्टस, वॉ्यूम-16 : 35-45. 7 एम. हेंडसडन, पी. हेंडसडन और सी. िकयरनन, (2000) िमिसंग पस्संस : इनसीडेंसस, इशयूज ऐंड इमपै्ट् स, ्ैंडस ऐंड इशयूज इन काइम ऐंड िकिमनल जिसटस नं. 144, कॅ नबरा : आस्ेिलयन इंसटीट् यटू ऑफ़ िकिमनोलॉजी, पृष्ठ : 1-6. 8 एम. हेंडसडन, पी. हेंडसडन और सी. िकयरनन, (2000) : 5. 9 पी.जी. बॉस (2002) ‘ऐमबीगुअस लॉस : विक्सं ग िवथ फै िमलीज ऑफ़़ द िमिसंग’, फै िमली पॉसेस, वॉ्यूम-41 : 14-17. 6 10_Pradeep bore_ayub khan update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:09 Page 290 290 | िमान कित’ की उ्ति अवधारणा पररवार के सदसयों को होने वाले तनाव, तनावों से मुक़ाबला करने की रणनीितयों तथा उनके मनोसामािजक पभावों का िवशे षण करने का ढाँचा उपलबध अवशय कराती है।10 कई बार गुमशुदा वयि्तियों के पररवार पीछे छू टे सबूतों के अभाव में इस सोच पर अटके रहते हैं िक गुमशुदा जानबूझकर घर से गया या अनजाने में उसे ले जाया गया। ि्रिटेन में गुमशुदा वयि्तियों पर हुए एक अधययन का यह िनषकषड था िक लगभग दो-ितहाई वयसक गुमशुदा जान बूझकर तथा बाक़ी अनजाने में घर से चले जाते हैं या उनका पररवार से संपकड टू ट जाता है। अधययन का यह भी िनषकषड था िक अनजाने में घर से चले जाने वाले वयसकों में से लगभग आधे िडमेंिशया या अनय िकसी मानिसक बीमारी से पीिड़त होते हैं।11 II पसतुत आलेख मधय पदेश के गवािलयर िज़ले के 37 पुिलस थानों में वषड 2007 से 2015 तक पंजीबद समसत गुमशुदा पकरणों (िजनमें दसतयाब तथा अदम दसतयाब दोनों पकार के पकरण सिममिलत हैं) तथा उनके पररवारों में अभावबोध तथा उनकी आवशयकताओं पर िकए गए अनुभवािशत अधययन का एक भाग है। यह अधययन इस पतयय पर आधाररत है िक समसया पीिड़त पररवार से बेहतर कोई और नहीं जानता। गुमशुदा वयि्तियों को एक समसया के रूप में विणडत करना किठन है, कयोंिक सामािजक घटना के रूप में इस िवषय के अनेक पक तथा पतयेक पकरण से संबद अपने लोक सरोकार हो सकते हैं। अत: अधययन हेतु शोध-पिकया के िनधाडरण में पीिड़त पररवार को कें द में रखकर उसके मुिखया, घटना के अनुसधं ान में संलगन पुिलसकम्मीअिधकारी तथा ग़ैर-सरकारी संगठनों से जुड़े लोगों को सिममिलत िकया गया। इस अधययन में ‘पररवार’ तथा ‘संबिं धयों’ को वृहद संदभड में उपयोग िकया गया है। सांसकृ ितक पररवेश में ‘पररवार’ में पररवार के सदसय एवं ‘संबिं धयों’ में िनकट िमत एवं सगे-संबधं ी शािमल हैं। अधययन िवषय को गहनता से समझने के िलए ितकोणिमतीय अधययन िविधयों (अधड संरचनातमक साकातकार, पूरे पररवार के साथ समूह के रूप में एक साथ बातचीत तथा अधड सहभागी अवलोकन) के साथ गणनातमक-गुणातमक अधययन संयोजन पसतुत िकया गया। खोए-पाए गुमशुदा और उनके पररवारों पर िकए गए इस अधययन में गुणातमक तथयों को िहतधारकों से िवसतृत चचाड के उपरांत िवकिसत िकया गया तथा शमसाधय साकातकारों के माधयम से एकितत िकया गया। अधययन के िलए चयिनत 141 पररवारों में से 34 ऐसे पररवार थे िजनके पररजनों का साकातकार िदनांक तक कोई पता नहीं था, वे अदम दसतयाब थे। इन पररवारों के वयसक सदसयों से गहन साकातकार िकया गया, ये वे वयि्ति थे जो ‘गुमशुदा’ के 10 पी.जी.बॉस, (2007) ‘ऐमबीगुअस लॉस थयोरी : चैलेनजेज फ़ॉर सकॉलसड ऐंड पेिकटसनसड', फै िमली ररलेशसं , वॉ्यूम 56 : 105-111. 11 ए.बीहल, एफ. िमशैल और जे. वेड, (2003) लॉ्ट फॉम वयू : िमिसंग पस्संस इन द यूके, ि्रिसटॉल : द पॉिलसी पेस. 10_Pradeep bore_ayub khan update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:09 Page 291 गुमशुदा व्यक्तियों के प ििाि क आि कताएँ एिं चुनौ तयाँ | 291 पकरण से जुड़े थे और िजनहें पकरण के समसत पहलुओ ं की जानकारी थी। पसतुत आलेख में लाकिणक आधार पर चयिनत ऐसे पकरणों को पसतुत िकया गया है जो समसत पररवारों की आवशयकताओं एवं चुनौितयों का पितिनिधतव करते हैं। गुमशुदगी की घटनाएँ पथम दृष्टया गुमशुदा वयि्ति के इरादे का पश लगती हैं − कया वयि्ति अपनी इचछा से लापता होना चाहता था? कया माता-िपता, पित/पतनी, भाई-बहन या बचचों से संबधं िवचछे द जानबूझकर थे? तथािप यह पतयय उन वयि्तियों को शािमल नहीं करता जो िबना िकसी इरादे के अनजाने में लापता हैं। हो सकता है िक उनहें िकसी वयि्ति दारा ज़बदडसती ग़ायब िकया गया हो या उनके साथ कोई दुघटड ना घटी हो अथवा वे िकसी मानिसक पररिसथित के कारण कहीं चले गए हों। तब पश उठता है िक कया वयि्ति का गुम हो जाना एक चुनी हुई या आरोिपत िसथित है? कु छ गुमशुदा वयि्ति िकसी भी पकार से सवयं को गुमशुदा नहीं समझते, वे इसे अनय सथान पर एक नया जीवन जीना मानते हैं। इस पकार ऐसा वयि्ति को उन लोगों की दृिष्ट में ही ‘गुमशुदा’ माना जाएगा जो उसे ढूढँ ना चाहते हैं, न िक उसकी अपनी दृिष्ट में। गुमशुदा वयि्तियों के पररवारों पर िकए गए इस अधययन में घर से लापता होने को संबंधिवचछे द के रूप में पररभािषत िकया गया है, चाहे यह पररभाषा गुमशुदा दारा की गई हो या िकसी अनय के दारा; चाहे वयि्ति का गुम हो जाना सुिवचाररत हो या िबना सोचे-समझे। अत: उ्ति िवशे षण गुम होने की ऐसी संक्पना की ओर अगसर करता है िजसमें साततय है − िजसमें सोच-समझकर संबंध तोड़कर जाने वालों से लेकर िबना कु छ सोचे, िबना अपनी इचछा के चले जाने वाले सिममिलत हैं। III इस आलेख में पररवार के िकसी वयि्ति के गुम हो जाने पर उस पररवार के अनय सदसयों पर पड़ने वाले पभावों, उनके अभावबोध12, उनकी आवशयकताओं तथा चुनौितयों की समीका की गई है। गुमशुदा वयि्तियों के पररवारों से जब यह पूछा गया िक ‘वे कया चाहते हैं?’ तब बहुत से पररवारों ने अपने अिधकारों की जानकारी होते हुए भी अिधकार की भाषा का पयोग नहीं िकया। उनहें मालूम था िक नयाय और कितपूितड पाप करना उनका अिधकार है तब भी उनके िलए अभावबोध चचाड का िवषय था न िक अिधकार। गुमशुदा वयि्तियों के जयादातर पररवार उन समसयाओं की अिधक बात कर रहे थे िजनका सामना वे पितिदन कर रहे थे और उन आवशयकताओं को बार-बार दोहरा रहे थे िजनसे ये समसयाएँ उपज रही थीं। इस पकार 12 अभावबोध से तातपयड इस बात से लगाया गया है िक पररवार के सदसय उन वयि्तियों की तुलना में, िजनके साथ अपनी तुलना का औिचतय समझता है, अपने में कु छ अभाव का अनुभव करता है. यह अभाव उनमें न के वल उपलिबध की आवशयकता कम करता है और दूसरों पर िनभडर रहने की आवशयकता में वृिद करता है, बि्क इससे उनका आतम-पतयय पितकू ल तथा आतमसममान कम हो जाता है एवं उनमें भागयवािदता, िनराशा, लाचारी, आतमदया तथा भाव शूनयता आिद समसयाएँं बढ़ जाती हैं. 10_Pradeep bore_ayub khan update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:09 Page 292 292 | िमान उनके अभावबोध पर बातचीत की भाषा उनकी आवशयकता बन गई थी। यद्यिप ऐसे पररवारों की आवशयकताओं का सामानयीकरण करना अतयंत किठन है कयोंिक ये िसथर नहीं रहतीं और इनमें िदन-पितिदन नई आवशयकताएँ जनमती रहती हैं। ये न के वल गामीण व नगरीय पररवेश के आधार पर, पररवार की दशाओं, शैकिणक तथा सामािजक-आिथडक िसथित के आधार पर िभनन होती हैं वरन पररवारों के बीच में भी अलग-अलग होती हैं और ये िभननता पररवार के सदसयों के परसपर संबंधों पर िनभडर करती है। पररवारों की आवशयकताओं में यह अंतर कई बार पररवार में गुमशुदा की पररिसथित के आधार पर भी होता है। साकातकार के समय उररदाताओं से अपने सवजनों के गुम होने के संबंध में पररवार की अपेकाओं तथा पाथिमकताओं के बारे में पूछा गया। इस पश के उरर में पररवार के सदसयों ने कभी ढेर सारे पितपश पूछे, कभी उनके पास कहने के िलए कु छ नहीं था; िसफ़ड सूनी आँखें या कभी आँखों से बहती अशुधारा। इस पश के उरर में तीन पकार की पितिकयायें िमलीं : गुमशुदा वयि्ति की िनयित के बारे में यह सतय जानना िक ‘वह िज़ंदा है अथवा नहीं।’ यह जानने की तीव्र इचछा िक लापता वयि्ति कहाँ है, िकस हाल में है, सव्वोचच पाथिमकता थी। पररवार की आिथडक सहायता, बचचों की पढ़ाई, इलाज तथा भरण-पोषण दूसरी पाथिमकता थी; जबिक वयि्ति को घर से जाने के िलए पेररत करने वालों को दंड िमले, अंितम पाथिमकता थी। अिधकांश पररवार, हालाँिक अपनी पाथिमकताओं पर सपष्ट थे पर वे यह भी जानना चाहते थे िक उनके गुमशुदा सवजन का कया हुआ? साथ ही, कमाने वाले की अनुपिसथित में आिथडक सहयोग की अपेका करते थे, जबिक बहुत ही कम पररवार मुखय रूप से शहरी तथा िशिकत, गुमशुदा के संबंध में नयाय को अपनी पाथिमकता मानते थे। इस पकार, यह िवशे षण िवक्पों के समुचचय की अपेका सापेिकक आवशयकताओं के संसतरण को दशाडता है। िवशे षण में यह सपष्ट था िक गुमशुदा वयि्ति के पररवारों के पुरुष सदसय अिधकांशत: नयाय, दंड आिद जैसे राजनैितक िवषयों को महतव दे रहे थे, वहीं मिहलाओं के िलए गुमशुदा से जुड़े सामुदाियक तथा सामािजक िवषय अिधक महतवपूणड थे। IV प रवारो की सामुदा यक एवं सामा िक आव कताएँ अिधकांश पररवारों की पहली पाथिमकता अपने पररजन की िवशसनीय जानकारी पाप करना होती है चाहे उसकी पृष्ठभूिम तथा अविसथित कु छ भी हो लेिकन ऐसे पररवार पाय: अपने पररजन के गुम होने की पुिष्ट अनय वयि्तियों से चाहते हैं तािक उनहें िकसी पकार का संदहे न रहे। अिधकतर पररवार पहले अपने सतर पर सवजन को ढूढ़ँ ने का पयास करते हैं और जब उनहें कोई ख़बर नहीं िमलती तब पुिलस को सूचना देते हैं और िफर वह वयि्ति ‘ गुमशुदा’ बन जाता है। गुमशुदा की िनयित के बारे में जयादातर पररवार के सदसयों में मतिभननता रहती है। अकसर पररवार के पुरुष सदसय वयि्ति के लंबे समय तक न आने पर मृतयु का संदहे करने लगते हैं जबिक मिहलाएँ ऐसा नहीं सोचतीं। गुम होने की पररिसथितयों के बारे में सपष्ट जानकारी का 10_Pradeep bore_ayub khan update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:09 Page 293 गुमशुदा व्यक्तियों के प ििाि क आि कताएँ एिं चुनौ तयाँ | 293 अभाव अफ़वाहें फै लने का आधार बन जाता है। ये अफ़वाहें सामानयत: गुमशुदा कहाँ हैं, िकस हाल में है और वह कयों गया है; इस बारे में होती हैं और गुमशुदा पररवारों को िवचिलत करती हैं। जब अफ़वाह गुमशुदा कहाँ है, इस बारे में होती है तब वह पररवार के पयासों को भ्रिमत करती है। इस अफ़वाह के कारण कई बार पररवार के सदसयों को तलाश करने वाले सथान से िवपरीत िदशा में तलाश करने जाना पड़ता है, िजससे समय और धन का अपवयय होता है। जब अफ़वाह गुमशुदा के िज़ंदा रहने या मरने के बारे में होती है तब वह पररवार को िवचिलत कर देती है। इस अफ़वाह पर भरोसा करने के िलए तथय जुटाने के पयास पररवार पारं िभक तौर पर नहीं करते, बि्क अफ़वाह फै लाने वाले या इस तरह की जानकारी देने वाले से ही गुमशुदा के संसार में न होने का सुबतू चाहते हैं; इस अफ़वाह पर वे िवशास तब ही करते हैं जब उनहें इस संबंध में पुखता पमाण िमल जाते हैं। जब अफ़वाह गुमशुदा के घर से जाने के बारे में होती है, तब वह सीधे गुमशुदा के चररत या वयवहार को पितिबंिबत करती है और इससे पररवार पभािवत होता है। उनके बारे में पुिलस और कु छ लोगों ने बताया था िक उनकी दोसती िकसी अनय मिहला से थी, शायद इसिलए वह चले गए। उनहोंने इस बारे में भी कभी चचाड नहीं छे ड़ी, न ही कभी उनके कायड-वयवहार से ऐसा लगा िक वे ऐसे होंगे। इस बात पर भरोसा नहीं कर पा रही हॅू,ं लेिकन इस बात से परे शान बहुत हॅू।ं (एक गुमश ु दा की पतनी, झाँसी रोड, गवािलयर) अिधकांश पररवारों में अपने पररजन को पुन: देखने की तीव्र और वासतिवक इचछा थी। वे अपने पररजन के लापता होने के कु हासे को ज्दी से ज्दी छँ टता हुआ देखना चाहते थे िक उनके पररजन कभी वापस नहीं लौटेंगे। िजन पररवारों से गुमश ु दा िबना कोई संकेत िदए घर छोड़कर चले गए थे, वे पररवार गुमशुदा के िमलने के साथ यह जानने को भी आतुर थे िक उसके जाने की वजह कया थी? ऐसे पररवारों में बचचे, गुमशुदा के जाने के बाद पररवार में बने माहौल को लेकर हतपभ होते हैं तो कभी गुमशुदा को याद करके भावुक हो जाते हैं। समय के साथ हतपभ तथा आश्चयडचिकत होने की िसथित धीरे -धीरे कम होने लगती है। बचचे का भावुक होना गुमशुदा से उसके लगाव पर िनभडर करता है और यह लगाव बचचे की ज़रूरतों से पैदा होता है। बचचा गुमशुदा को उसी समय जयादा याद करता है जो उसके और गुमशुदा के बीच एक साथ रहने, खेलने या कवािलटी टाइम िबताने का होता है। बेटा 05 साल का था, जब िनितन िबना कु छ बताए काम से घर नहीं लौटे थे। िनितन और बेटे के बीच बहुत लगाव था। शाम को जब 10_Pradeep bore_ayub khan update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:09 Page 294 294 | िमान िनितन काम से लौटते थे तब वह उनके साथ खेलता था, बाजार जाता था। उनके जाने के बाद शुरू-शुरू में वह उसी समय पर उदास हो जाता था। अब धीरे -धीरे नॉमडल हो रहा है लेिकन शाम के समय अभी भी कभी-कभी भावुक हो जाता है और पूछने लगता है िक मममी, पापा कब आएँगे? (एक गुमशुदा की पतनी, चेतकपुरी, गवािलयर) गामीण व नगरीय पररवारों के िवचारों में सापेिकक आवशयकताओं के संबंध में एक नाटकीय अंतर होता है। नगरीय पररवारों की अपेका गामीण पररवारों के सदसयों का झुकाव गुमशुदा को तलाश करने के पयासों के साथ-साथ ‘सवडशि्तिमान’ में भी होता है। जब इनके पास गुमशुदा को तलाश करने के संसाधन समाप हो जाते हैं तब गुमशुदा के लौटने की सारी उममीदें ‘ऊपर वाले’ में िनिहत हो जाती हैं। हमने अपने भाई िवजयराम को 4-5 साल हर जगह ढूँढ़ा लेिकन वो नहीं िमला, इसके िलए घर में जो रुपया-पैसा था वह भी ख़चड हो गया। जब कु छ नहीं बचा तो सब भगवान भरोसे छोड़ िदया। हाँ, अब अगर कोई ख़बर िमलती है िक उसे फलाँ जगह देखा गया है तो वहाँ चले ज़रूर जाते हैं। (एक गुमशुदा का भाई, गाम-पिनहार, गवािलयर) साकातकार के समय यह जात हुआ िक अिधकांश पररवार चाहे वे िकसी भी धमड को मानने वाले हों, उनकी सामािजक-आिथडक िसथित कु छ भी हो, वे िकतने भी पढ़े-िलखे हों, अपने पररजन की तलाश में ऐसी सभी जगहों जाते हैं जहाँ उनके िपयजन की कोई ख़बर या वापसी की कोई उममीद हो। कई बार यह जानते हुए भी िक उनके दारा दी गई सूचना झूठी होती है, वे िबना पुिष्ट के के वल आस में तांितकों, साधुओ,ं फ़क़ीरों से िमलते हैं। तो कभी वे गुमशुदा की िवशसनीय जानकारी के िलए जयोितिषयों के पास इसिलए जाते हैं िक वे उनके पशों का तुरंत उरर दे सकते हैं। चूिँ क भारतीय समाज में जयोितष को धमड के साथ जोड़कर देखा जाता है अत: सामानय वयि्ति के िलए उसकी िवशसनीयता को नकारना किठन होता है। मैंने अपने बचचे की तलाश में अब तक 8 लाख रुपयों से जयादा ख़चड कर िदया है। िजसने जहाँ बताया वहाँ दौड़े-दौड़े गए, कभी ख़ुद तो कभी िकसी ररशतेदार को पैसा देकर भेजते थे। इसमें सारी जमा-पूँजी खचड हो गई। 1 लाख से जयादा 10_Pradeep bore_ayub khan update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:09 Page 295 गुमशुदा व्यक्तियों के प ििाि क आि कताएँ एिं चुनौ तयाँ | 295 रुपया तो कम से कम 50 साधू-बाबाओं, मु्लाओं और जयोितिषयों पर ख़चड कर िदया। सभी ने अलग-अलग िदशाओं और सथान पर जाने की सलाह दी लेिकन पररणाम िसफ़र िमला। इन लोगों से भरोसा उठ गया है िकं तु उममीद तो अब भी बाक़ी है िक शायद कोई सही सूचना दे दे। इसी भरोसे की वजह से इनकी बात भी माननी पड़ती है। (एक गुमशुदा के िपता, टेकनपुर, गवािलयर) पाय: गुमशुदा पररवार के सदसय यह सवीकार नहीं कर पाते िक उनके पररजन की मृतयु हो चुकी है, इसिलए उनमें गुमशुदा की िनयित का पमाणपत पाप करने की पबल इचछा होती है। वे ऐसी सूचना चाहते हैं िजसमें िकसी पकार का कोई संदेह न हो, भले ही सूचना पररजन की मृतयु से ही कयों न जुड़ी हो, कयोंिक गुमशुदा के बारे में यह अिनिश्चतता िक उसके साथ कोई कित हुई भी है अथवा नहीं, पररवार के वतडमान को पभािवत करती है। पररवार के सदसयों को यह भी पता नहीं होता िक उनहें कभी इस अनंत कष्ट से मुि्ति िमलेगी भी या नहीं। अधययनकराडओ ं ने पूरे पररवार के साथ समूह के रूप में एक साथ बातचीत में पूछा िक कया िकसी िपयजन की मृतयु से जनमे िवयोग और कित की तुलना गुमशुदा के जाने के िवयोग से की जा सकती है? कया गुमशुदा के जाने से उपजा भावनातमक दबाव गुज़रते समय के साथ वैसे ही कम हो जाता है या समाप हो जाता है जैसे पररवार के िकसी सदसय की मृतयु के बाद हो जाता है? पररवार के अिधकांश सदसयों ने इन पशों को बेमानी माना और इस िवचार को असवीकार कर िदया। कु छ पकरणों में तो इसकी सवीकायडता थी िकं तु गुमशुदा की िसथित के संबधं में अिनिश्चतता के कारण ऐसे पकरणों में शोक पिकया अनुपिसथत होती है और अंतत: कष्ट बरक़रार रहता है। वहीं अिधकांश सदसयों का कहना था िक समय बीतने के साथ घाव नहीं भरते बि्क वो ददड और बढ़ जाता है, वो वष्षों बाद भी उतना ही रहता है िजतना िक पहले िदन था। उस मनहूस रात को कभी नहीं भूल पाती। 20 अपैल, 2000 को रात 8 बजे खाना खाकर मेरा छोटा बेटा पवन (25 वषड) दोसत के घर पढ़ने की कहकर िनकला था। जब सुबह घर नहीं लौटा तो उसके भाई और िपता ने तलाशना शुरू िकया। 18 साल की इस तलाश में भाई की ठे केदारी और िपता का सवासथय जाता रहा। 10_Pradeep bore_ayub khan update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:09 Page 296 296 | िमान रो-रोकर आँसू भी सूख गए लेिकन उसकी याद, उसके जाने का दु:ख िज़ंदा है और अब ये मरने के साथ ही जाएगा। (एक गुमश ु दा की माँ, कांितनगर, गवािलयर) जब पररवारों को यह ठोस आभास हो जाता है िक गुमशुदा मर चुका है; चाहे वे िकसी भी धमड के अनुयायी हों, उनहें उसकी पािथडव देह या पूरे साकय चािहए तािक वे िवशास कर सकें तथा आवशयक धािमडक संसकार कर सकें । सामानयत: पररवार, पुिलस दारा की गई लाश की पहचान पर िवशास नहीं करते तथा बहुत से पररवारों को यह िमथया िवशास होता है िक वे लाश को कपड़ों तथा धाररत वसतुओ ं से पहचान सकते हैं। वासतिवक रूप से अिधकांश पररवार मृत देह तथा मानव अवशेषों की पहचान की पिकया से अनिभज होते हैं कयोंिक उनहोंने कभी नहीं सोचा होता है िक वे कभी पररजन की लाश देखगें ।े इनके िलए एक दसतावेज़ उनके पररजन की मृतयु का पयाडप पमाण नहीं होता कयोंिक भारतीय संसकृ ित में मृतयु सदैव वह है िजसे पररवार दारा सीधे अनुभव िकया जाता है; इसिलए मृतयु के पमाण की यह आवशयकता क़ानून पवतडन एजेंिसयों के पित अिवशास के कारण और अिधक घनीभूत हो जाती है। साड़ी के शोरूम में नौकरी करने वाले राजेंद गुपा का बड़ा बेटा अभय (20 वषड) कॉलेज की पढ़ाई के साथ एक िनजी बैंक में पाटड टाइम नौकरी करता था। 6 अपैल 2015 को पितिदन की तरह वह नौकरी पर गया लेिकन लौटा नहीं। राजेंद कह रहे थे िक सब जगह फ़ोन से पता लगाने के बाद वह पुिलस थाने जा रहे थे और बेटे को कॉल भी कर रहे थे। एक बार कॉल लग भी गया तो फ़ोन ररसीव करने वाले ने अभय के अपहरण की बात बताई और 20 लाख रुपये का इंतज़ाम करने के िलए कहा। बड़ी मुिशकल से पुिलस ने अपहरण के मामले को सामानय गुमशुदगी में पंजीबद िकया और िफरौती के फ़ोन को बेटे की नाटकबाज़ी बताती रही। 14 जुलाई को अख़बार में छपी ख़बर से उनहें पता चला िक उनके बेटे की हतया कर दी गई है और उसका कं काल बरामद हो गया है। राजेंद कह रहे थे िक अगर मेरी बात को गंभीरता से िलया जाता तो भले ही उनका बेटा िज़ंदा नहीं िमलता लेिकन उसकी पािथडव देह तो सही अवसथा में िमलती। अब तो कं काल पर पड़े कपड़ों से ही उसकी पहचान कर पाए हैं। (एक गुमशुदा का िपता, कं पू, गवािलयर) 10_Pradeep bore_ayub khan update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:09 Page 297 गुमशुदा व्यक्तियों के प ििाि क आि कताएँ एिं चुनौ तयाँ | 297 V प रवारो की व ीय आव कताएँ अधययन में सिममिलत 141 पररवारों में से 102 पररवारों की आिथडक िसथित िनमन या िनमनमधयम सतरीय थी तथा उनके पास जीवनयापन के संसाधन भी अपयाडप थे। इन पररवारों के िलए ‘िवरीय आवशयकताएँ’ िदतीय वरीयता थीं। अिधकांश पररवारों पर गुमशुदा को ढूँढ़ने के भावनातमक तथा अनय वयावहाररक दबावों के कारण उनके सदसयों के नौकरी-धंधों पर नकारातमक पभाव पड़ता है, यहाँ तक िक उनकी जमा-पूँजी चुक जाती है और वे क़ज़ड में डू ब जाते हैं। कु छ पररवारों ने गुमशुदा वयि्ति का क़ज़ड लौटाने के िलए क़ज़ड िलया था तािक उसकी और पररवार की बदनामी न हो और जब वह लौटे तो उस पर कोई िवरीय दबाव न रहे, भले ही वह िकसी िवरीय दबाव में ही कयों न लापता हुआ हो। संजय ने अपने पररवार का साथ ठीक अपनी शादी की सालिगरह के िदन छोड़ा। 2 फ़रवरी, 2014 को पूनम अचछा खाना बनाकर अपने पित का इंतज़ार कर रही थीं। पूनम कहती हैं िक संजय रात 11 बजे तक घर नहीं आए और जब आए तो शराब के नशे में अपने माता-िपता से झगड़ा कर कहीं चले गए। उनके दोसत राजू और मनीष राठौर ने बताया िक संजय पर क़ज़ड था और वह उस रात भी पैसे माँगने आया था, िफर कहाँ गया नहीं मालूम। पूनम को लगता है िक जयादा पैसा कमाने की लालसा में िद्ली न चले गए हों। हम उनहें िद्ली नहीं ढूँढ़ सकते। पुिलस से िद्ली पुिलस की सहायता लेने के िलए बार-बार कहने पर पुिलस कहती है िक अपनी मज़्मी से गया है, बचचा नहीं है। जब उसका मन होगा लौट आएगा। तीन साल से वृद सास-ससुर और दो बेटों को पालने में बहुत तकलीफ़ हो रही है, ऊपर से कज़डदारों का क़ज़ड चुकाने में घर की जमा-पूँजी भी नहीं बची। अब पता नहीं िक़समत कया करवाने वाली है? (एक गुमशुदा की पतनी, माधौगंज, गवािलयर) कमाने वाले वयि्ति का पररवार को छोड़कर चला जाना आवशयक रूप से पररवार की आिथडक सुरका को कम करता है, पररणामत: ऐसे पररवार जो सँभल कर चल रहे थे, संघषड करने लगते हैं और जो संघषड कर रहे होते हैं वे गंभीर दररदता से िघर जाते हैं। अधययन में कु छ पररवार ऐसे थे िजनमें पररवार का दाियतव सँभालने वाले के लापता होने के बाद पीछे के वल वृद, मिहलाएँ 10_Pradeep bore_ayub khan update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:09 Page 298 298 | िमान या बचचे रह गए थे; कोई ऐसा नहीं था जो उनकी सहायता करे , उनहें आशय दे। ऐसे पकरणों में पररवार या तो अपने ररशतेदारों पर आिशत हो जाते हैं या भीख माँगने को मजबूर होते हैं या जीवनयापन के िलए कोई अनैितक साधन अपना लेते हैं। वहीं, कई गुमशुदा वयि्तियों की पितनयाँ अपने ही घरों में सास-शसुर की िनंदा झेल रही थीं, िजसके फलसवरूप वे या तो अपने ससुराल छोड़ चुकी थीं या बदतर िसथित में रहने के िलए मजबूर थीं। इन पररवारों में ऐसी ि्त्रियों के साथ िवधवाओं जैसा वयवहार िकया जा रहा था। आगरा-मुबं ई हाईवे से सटे बरई गाँव में रहने वाला 30 वषड का रामअवतार 6 साल पहले अपना घर छोड़ गया। घर वाले उसके घर छोड़ने का कारण पतनी से आए िदन होने वाले िववाद को मानते हैं। 29 जून, 2010 की सुबह वह काम पर जाने की कहकर िनकला िफर लौटा नहीं। घरवाले कहते हैं िक पतनी जूली हमारे बेटे को अलग करना चाहती थी। रामअवतार के जाने के बाद भी उसके ऊपर कोई असर नहीं हुआ और अपने मायके रहने चली गई। जबिक रामअवतार के पड़ोिसयों का कहना था िक रामअवतार तो अपनी बीवी और बचचे से बहुत ्यार करता था लेिकन जूली के सास-ससुर उसे चैन से नहीं रहने देते थे और रामअवतार के जाने के बाद तो उससे बहुत बुरा वयवहार करने लगे थे, इसिलए वो बचचे के साथ अपने पीहर चली गई। VI प रवारो की मनोवै ा नक आव कताएँ यद्यिप पसतुत अधययन दारा िकसी वयि्ति के लापता होने से पररवार के सदसयों में उतपनन कु छ मनोवैजािनक बाधाओं को पहचाना जा सकता था, िकं तु न तो अधययन का पदितशा्त्रि और न ही अधययनकताड उस असामानय वयवहार के िलए िवशेषण की िवशेषता रखते थे। अत: अधययन में पररवार पर पड़ने वाले मनोवैजािनक पभावों का एक सामानय िवशेषण कर मनोवैजािनक आवशयकताओं संबधं ी िनषकषड िनकालने का पयास िकया गया है। गुमशुदा वयि्तियों के पररवारों की भावनाओं की कोई भी सीमा हो सकती है जैसे उदासी, िचंता, अपराधबोध, ग़ुससा तथा उममीद। वे उममीद की अिधकतम सीमा से लेकर उदासी की िनमनतम सीमा तक अनुभव कर सकते हैं। अधययन में सिममिलत अदम दसतयाब गुमशुदा वयि्तियों के पररवारों ने बताया िक जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, गुमशुदा के वापस आने की उममीद की डोर कमज़ोर पड़ने लगती है लेिकन टू टती नहीं है। गुमशुदा के पित लगाव 10_Pradeep bore_ayub khan update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:09 Page 299 गुमशुदा व्यक्तियों के प ििाि क आि कताएँ एिं चुनौ तयाँ | 299 तथा पररवार की ज़रूरतें पररवार के सदसयों के मनोिवजान पर पभाव डालती हैं और उनके जीवन के पतयेक पक-जीवनशैली, वयवसाय, िशका तथा संपकड आिद को पभािवत करती हैं। जीवन के ये पक एक-दूसरे को भी पभािवत करते हैं तथा पररवार इनहें कभी एक ही समय, कभी अलग-अलग अनुभव करते हैं। अनौपचाररक चचाड के दौरान यह जात हुआ िक िजन पररवारों में गुमशुदा अपने पीछे संपिर छोड़कर गए थे तथा उससे पररवार की ज़रूरतें पूरी हो रही थीं, उन पररवारों दारा गुमशुदा को तलाशने के पयास वैसे नहीं िकए जा रहे थे जैसे अपेिकत थे और उस वयि्ति के न होने का भाव भी उनके मन से हटने लगा था। इसके िवपरीत अिधकांश ऐसे पररवार थे जहाँ गुमशुदा से भावनातमक लगाव पररवार की ज़रूरतों पर भारी था तथा उदासी उनका िसथर आधारभूत मनोभाव बन गई थी। पररवार के सदसयों का कहना था िक यह भाव िकसी भी समय जैसे गुमशुदा के पसंद का खाना बनने पर, जनमिदन पर या तयौहारों पर बार-बार उभरता है। अपराधबोध और ग़ुससे को अधययन में उपयोगी संवेग नहीं माना गया है कयोंिक पररवारों में ग़ुससा एक मनोदशा के रूप में तो बातचीत में िदखा परं तु उसकी अविध बहुत ही कम थी तथा वह मनोदशा गुमशुदा की िचंता संबंधी औिचतय के िलए थी। चूिँ क अिधकांश पकरणों में गुमशुदा ने घर छोड़ने के कारणों के संकेत नहीं छोड़े थे इसिलए अपराधबोध जैसा संवेग अनुपिसथत लगा। हाँ, पररवार के सदसयों में अतयिधक िचंता एक सवाभािवक भावनातमक अिसथरता थी िजसके लकण पररवार के सदसयों में अिनदा, र्तिचाप बढ़ना आिद के रूप में पररलिकत हो रहे थे। िचंता का कारण गुमशुदा के बारे में लगातार सोचते रहना तथा िकसी ख़बर का इंतज़ार था; िवशेषत: बुरी ख़बर का, जो कभी भी आ सकती थी। शत-पितशत मिहला उररदाताओं ने पररजन के लापता हो जाने के बाद गंभीर असवसथता की चचाड की जो संभवत: लगातार िचंता व तनाव का पररणाम थी। तुम सो ही नहीं सकते ...हर चार पिहया की गाड़ी – जीप या कार जो भी घर की तरफ़ आती िदखती है तो बस यही लगता है िक पुिलस आ रही है− अभी आकर दरवाज़ा खटखटाएगी और कोई बुरी ख़बर देगी। और जब मैं डॉकटर को िदखाने जाती हूँ तो वे कहते हैं िक मैं िचंता रोग से पीिड़त हू।ँ वे मुझे नींद की दवाई दे देते हैं। (एक गुमशुदा की पतनी, मुरार, गवािलयर) कई बार कोई ख़बर न िमलना अचछी ख़बर हो सकता है, कयोंिक ख़बर िमलने में बुरी ख़बर िमलने का संशय समय गुज़रने के साथ बढ़ता जाता है। उममीद पाय: सकारातमक दृिष्टकोण दशाडती है। कु छ गुमशुदा वयि्तियों के पररवार भी यह िवशास कर रहे थे िक उनके पररजन एक िदन अवशय लौटेंगे लेिकन अनय पररवारों के िलए उममीद इस साकय से जुड़ी थी 10_Pradeep bore_ayub khan update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:09 Page 300 300 | िमान िक गुमशुदा िकस िसथित में है − वह जीिवत है तो कहाँ है और यिद उसकी मृतयु हो गई है तो उसके अवशेष कहाँ हैं? साकातकार के समय उररदाताओं ने बताया िक क़ानून पवतडन एजेंिसयों से उनहें कोई उममीद नहीं थी। उनका कहना था िक उनहें संशय था िक पुिलस उनके पररजन को ढूँढ़ने के िलए वह करे गी जो उसे करना चािहए। बेटे की तलाश में थाने से लेकर अफ़सरों के घरों तक के चककर लगाए। िफरौती का फ़ोन आने के बाद भी पुिलस अफ़सर कहते थे िक तेरा बेटा ख़ुद गया है और अब ख़ुद ही फ़ोन करवा रहा है। मैंने िजन पर शक था उनके नाम भी बताए लेिकन पुिलस नाटक समझती रही, अपहरणकताड खुले घूमते रहे। अब बेटे का कं काल िमला है। ऐसे में कोई पुिलस से कया उममीद करे गा। (एक गुमशुदा का िपता, िनंबालकर की गोठ, गवािलयर) गुमशुदा वयि्तियों के पररवार उन क़ानूनों से अनिभज होते हैं जो उनके अिधकारों और सुिवधाओं के िलए बने हैं और न ही उनहें उन सहूिलयतों को पाप करने की पिकयाएँ पता होती हैं। गुमशुदा के पररवारों के वयावहाररक मुदों के िनराकरण के िलए भी कोई वैधािनक ढाँचा नहीं है। आज भी अनेक पररवार गुमशुदा की अिनिश्चत व अिलिखत िनयित के पररणामसवरूप पशासिनक अड़चनों का सामना करते हैं, चाहे वो कितपूितड का मामला हो या ज़मीन-जायदाद के मािलकाना हक़ के िलए आवशयक काग़ज़ात का। अत: यह कहा जा सकता है िक गुमशुदा वयि्ति के पररवारों की आवशयकताएँ सामुदाियक व सामािजक अिधक होती हैं, उनहें आिथडक व मनोवैजािनक सतर पर सतत संघषडरत रहना पड़ता है, वे नयाय की बात अपेकाकृ त कम करते हैं तथा सरकारी अिभकरणों से अपनी आवशयकताओं की पूितड के िलए कोई अपेका नहीं रखते। 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 301 नी ि पंकज कुमार झा िनेश कुमार म भीख नय हमरा िनदान चाही बाढ़क सथायी समाधान चाही बाढ़ जेना आबै छै होय छै कटाव बाढ़ उपरांत होय छै जल-जमाव बाँध नय हमरा नदीक प्रवाह चाही बाढ़क सथायी समाधान चाही1 भू मका दुिनया के पमुख बाढ़ पभािवत देशों में बांगलादेश के बाद भारत का सथान है। राष्ीय बाढ़ आयोग के अनुसार, देश की लगभग 40 िमिलयन हेकटेयर भूिम व कु ल आबादी का 1/8 वाँ िहससा बाढ़ पभािवत है (आरबीए 1980)। अकादिमक दुिनया में बाढ़ को देखने के दो पमुख नज़ररये या जानमीमांसा है − पहला, राजय पेररत हाइडोलॉिजकल नज़ररया व जानमीमांसा, िजसकी मानयता है िक िवकासवादी राजय के िलए बड़े बाँध, नदी व बाढ़ िनयंतण की पररयोजनाएँ मंिदर-मिसजद तुलय हैं।2 अतएव, राजय के आधुिनकीकरण, िवकास-पगित और बाढ़ िनयंतण, पबंधन के िलए हाई डैम, तटबंध और आपदा पबंधन नीित अिनवाय्य हैं (धवन 1989; एनडीएमसी 2005; रं गाचारी 2010 )। गोया िक भारत में बाँध िनमा्यण के पित िवशेष आगह व अितमोह इसी नज़ररये से पेररत है। धयान देने योगय बात यह है िक नैशनल रिजसटर ऑफ़ लाज्ज डैम (2019) की माने तो भारत में अब तक 5334 बड़े बाँध िनिम्यत हैं, जबिक 411 बड़े बाँध िनमा्यणाधीन हैं (एनआरएलडी 2019)। 1 यह मैिथली गीत महानंदा बेिसन िसथत किटहार िज़ले में काम कर रहे एक िसिवल सोसाइटी − पुनवा्यस संघष्य समित − के दारा अकसर बाढ़ के समय सथानीय सरकार व पशासिनक वयवसथा का िवरोध करते हुए गाया जाता रहा है. शबदाथ्य: नय = नहीं, आबै = आना, होय = होना, छै = है, बाढ़क = बाढ़ का. 2 पंिडत जवाहर लाल नेहरू ने 1954 में भाखड़ा नांगल के उदाटन के समय यह कहा था, िवसतार से देखें सतयजीत िसंह (1997), टेिमंग द वाटर, द पॉिलिटकल इकॉनॉमी ऑफ़़ लाज़्ज डैम इन इंिडया, ऑकसफ़ड्य युिनविस्यटी पेस, नई िदलली. ि िध संधान िर महानंदा बे िन : बाढ़, बाँध व रा 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 302 302 | िमान हाइडोलॉिजकल नज़ररये से िबलकु ल िवपरीत एक दूसरा ऩजररया है िजसे िलिवंग िवद् फलड (बाढ़ के साथ जीना) कहते हैं, िजसका मानना है िक बाढ़ परं परा और संसकृ ित से अटू ट रूप से जुड़ी हुई है, इसिलए बाढ़ िनयंतण के सथान पर बाढ़ के साथ जीना महतवपूण्य व अिनवाय्य है (िमश 2008; िमश 2001 2008)। ऐसे में यह पसतािवत शोध लेख चार पमुख मानयताओं पर आधाररत है − पहला, भारत में बाढ़ संबंधी अकादिमक व पतकाररता संबंधी शोधपत व पच्चों का सरोकार िबहार के कोसी केत के बाढ़ तक सीिमत रहा है। जबिक उतर िबहार की अनय निदयाँ − मसलन बागमती, महानंदा और कमला बलान के इलाक़े भी बाढ़-पभािवत हैं। ऐसे में यह लेख उतर िबहार की महानंदा बेिसन केत की बाढ़, तटबंध व बाढ़ िनयंतण संबंधी पररयोजना का गंभीर अवलोकन करता है। दूसरा, यह लेख महानंदा बेिसन केत में िदनेश िमश (1994-1999) व पंकज कु मार झा (2016) के दारा पूव्य में िकए गए अकादिमक शोध काय्य को ररिविज़ट करता है, िजसका मुखय उदेशय ज़मीन में आये बदलावों व नई चुनौितयों की पड़ताल करना है। तीसरा, बाढ़ संबंधी राजय पेररत जानमीमांसा और लोकनीित बड़े बाँध को बाढ़ िनयंतण का अंितम समाधान मानती है, जबिक ज़मीन पर गुज़र बसर कर रहे सथानीय लोग-बाग की जानमीमांसा व समझ कु छ और है। ऐसे में यह लेख दोनों पकार की जानमीमांसाओं व नज़ररयों के मधय संवाद सथािपत करते हुए एक वैकिलपक बाढ़ नीित की संभावनाओं को तलाशता है। चौथा, पसतािवत अकादिमक लेख में परित के रूप में मातातमक व गुणातमक दोनों शोध परितयों का पयोग करके अकादिमक िवशे षण पसतुत िकया गया है। I. महानंिा निी और बाढ़ का इ िहास महानंदा उतर िबहार के पूव्वी केत में पवािहत होने वाली गंगा की अंितम सहायक नदी है (िमश 1994; ितपाठी 2003; हेमंत 2010)। इस नदी का उद्गम पिशम बंगाल के दाज्वीिलंग िज़ले के करिसयांग से 6 िकलोमीटर उतर में िहमालय पव्यतमाला में िचमले के पास है, जहाँ से यह नदी 2062 मीटर की ऊँचाई से गंगा तक अपनी 376 िकमी लंबी याता शुरू करती है (िमश 1994-17; झा 2016)। कं कई से संगम के बाद महानंदा बरही-गुआहाटी राष्ीय माग्य 31 को बाघझोर के समीप गुज़रते हुए बागडोब तक आती है, जहाँ इसकी धारा दो भागों में बँट जाती है। बागडोब से दिकण की ओर बहने वाली धारा को झौआ शाखा कहते हैं, इसी धारा से होकर महानंदा का अिधकांश जल पवाह होता है। झौआ शाखा झौआ, िसकिटया, पाणपुर, लाभा, िसंिघया, गोिवंदपुर होते हुए किटहार िज़ले के चौिकया पहाड़पुर में गंगा िमलती है। महतवपूण्य है िक िसकिटया के पास इसमें आगे चलकर दािहने तट पर पनार नदी आकर िमलती है। यह शाखा आगे चलकर किटहार बारसोई रे ल लाइन को झौआ के पास तथा किटहार को किटहार-मालदा रे ल लाइन को लाभा पर पार करती है। महानंदा की झौआ शाखा से एक अनय सहायक नदी घिसया, लाभा के नीचे आकर िमलती है। यहाँ से महानंदा 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 303 िर महानंदा बे सन : बाढ़, बाँध ि रा नी ि | 303 की झौआ शाखा पिशम बंगाल के मालदा िज़ले में पवेश करती है और सुरमारा के पास गंगा नदी से संगम करती है।3 बागडोब पर महानंदा की दूसरी बाई ंशाखा जो िक किटहार के पास बारसोई से मुड़ती है बारसोई शाखा कहलाती है, तथा एक लूप के माधयम से पिशम बंगाल में पवेश करती है। बाबा कोला, िशवकोला, मानाकोला, मेची, चेंगा, शीमाती, सुघानी, पनार, नागर, कु िलक आिद इसकी महतवपूण्य सहायक धाराएँ हैं। बारसोई के नीचे यह धारा भी दो भागों में बँट जाती है। िसलीगुड़ी के पास मैदान में उतरने के बाद यह नदी क़रीब समतल पर ही बहती है। महानंदा नदी की झौआ शाखा का भूिम ढलान जहाँ 10 सेमी पित िकलोमीटर है वहीं बारसोई शाखा वाले केत का ढलान 15 सेमी पित िकलोमीटर के क़रीब है। ज़मीन के पाय: समतल होने के कारण बरसात के मौसम में नदी का पानी आसानी से छलकता है और यह नदी किटहार िज़ले को जलमगन कर जलजमाव की िसथित पैदा कर देती है। कोसी की छाड़न धाराएँ जैसे कारी कोसी और बरं डी भी जलजमाव को बढ़ाती है (िमश 1999 2013)। ग़ौरतलब है िक महानंदा का कु ल जलगहण केत 24,753 वग्य िकमी है, िजसमें से 5293 वग्य िकमी नेपाल में, 6677 वग्य िकमी पिशम बंगाल में, 7957 वग्य िकमी िबहार में तथा बाक़ी बांगलादेश में पड़ता है। महानंदा की सहायक धाराओं की यह ख़ािसयत है िक उनके न िसफ़्य रासते बदलते रहे हैं बिलक उनके नाम भी उसी तरह बदलते रहते हैं। जैसे पनार नदी के अनेक नाम हैं जैसे, पनार, परमान, कदवा, रीगा, कं कर, फु लहर आिद। जैसे-जैसे वे सथान बदलती हैं निदयों के नाम भी बदलते रहते हैं। इसी तरह बकरा नदी का नाम भी बकरा, कतुआ धार या देवनी हो जाता है। इन निदयों की धाराओं का िवभाजन होता रहता है, और उनसे होकर गुज़रने वाले जल पवाह की माता में पररवत्यन होता रहता है और उसी तरीक़े से उनका महतव भी घटता-बढ़ता रहता है (ितपाठी 1977: 434-480)। ग़ौरतलब है िक औपिनवेिशक काल में महानंदा नदी के पवाह संबंधी सबसे पहला पयास 1773 में जेमस रे नेल नाम के एक सैनय इंजीिनयर ने िकया। इसके बाद डॉ. फांिसस बुकानन हैिमलटन (1809-10), रॉबट्य मॉनटगुमरी मािट्यन (1838) और डबलयू.डबलयू हंटर (1877) ने भी इस नदी के पवाह का वण्यन िकया। फांिसस बुकानन (1809-10) ने महानंदा नदी के पवाह पथ और सहायक निदयों के बारे में तो बहुत कु छ िलखा है परं तु वे नदी में आने वाली बाढ़ के बारे में मौन रहे हैं। वहीं रॉबट्य मॉनटगुमरी मािट्यन (1838) ने भी महानंदा में आने वाली बाढ़ के संदभ्य में जानकारी नहीं दी। दोनों के सोतों को देखें तो इन दोनों को महानंदा की बाढ़ से संबंिधत इतनी ही जानकारी थी िक बाढ़ के समय महानंदा और उसकी सहायक निदयों पर बड़ी-बड़ी नावें चलाई जाती थीं। डबलयू.डबलयू.हंटर ने भी महानंदा के बाढ़ का कोई उललेख नहीं िकया। शायद इसका कारण यह भी रहा हो िक कोसी पूिण्यया (अब किटहार) के समीप बहती थी और कोसी की बाढ़ के आगे महानंदा की बात कहीं दबकर रह गई। उसके बाद के 3 िदनेश कु मार िमशा (1994), बंिदनी महानंदा, समता पकाशन पटना. 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 304 304 | िमान कई लेखकों मसलन, िशिलंगफ़ोड्य (1895), चालस्य इिलयट (1895), या डबलयू.ए.इंिगलश (1909) ने भी बाढ़ की बात नहीं की। बहरहाल पूिण्यया गज़ेिटयर (1911) में पहली बार महानंदा की बाढ़ की छोटी चचा्य करते हुए िलखा गया िक हाल के वष्चों में सबसे गंभीर जल पलावन 1906 में हुआ था जब कोसी और गंगा में एक साथ बाढ़ आई और इसी समय महानंदा में भी पानी चढ़ा हुआ था (मैली 1911)। महतवपूण्य है िक देश के नीित िनयंताओं ने भी इस दौर में महानंदा की बाढ़ का कोई िवशेष उललेख नहीं िकया। 1937 के बहुचिच्यत पटना बाढ़ सममेलन में देश के नामचीन राजनेताओं, िसिवल इंजीिनयरों व समाजसेिवयों ने िशरकत की थी परंतु एक बार भी इसमें महानंदा की बाढ़ का नाम नहीं िलया गया (2006)। सन् 1942 में पी.सी. रॉयचौधरी के दारा तैयार की गई उतर िबहार की बाढ़ संबधं ी ररपोट्य में पूिण्यया िज़ले की सौरा, पनार, कारी कोसी आिद का उललेख कोसी की धारा के रूप में िकया गया, परंतु इसमें भी महानंदा की तबाही का कोई उललेख नहीं िमलता है। महतवपूण्य है िक पूिण्यया गज़ेिटयर (1963) के अनुसार, 1948 में पूरा िबहार बाढ़ की चपेट में था तब भी ततकालीन पूिण्यया (वत्यमान किटहार) के मिनहारी और बरारी थानों में ही बाढ़ का असर पड़ा था और वह भी गंगा के कारण बाढ़ आई थी (रॉयचौधरी 1963)। 1949 में महानंदा के बाढ़ का थोड़ा-सा उललेख फणीशरनाथ रेणु ने िकया, ‘उस बार महानंदा की बाढ़ से िघरे बापसी थाना के एक गाँव में हम पहुचँ ।े हमारी नाव पर ररलीफ़ डॉकटर साहब भी थे। गाँव के कई बीमारों को नाव पर चढ़ाकर कैं प में ले जाता था’ (रेणु 1977: 28)। सन् 1953 में एक बार िफर िबहार एक भीषण बाढ़ की चपेट में था परंतु उतर िबहार के बाक़ी िज़लों के मुक़ाबले पूिण्यया में बाढ़ से तबाही कम हुई थी (वही, 224)। 1955 में महानंदा की बाढ़ का पभाव बारसोई, ठाकु रगंज, िकशनगंज, बहादुरगंज व किटहार थानों तक सीिमत था। इस बार महानंदा, मेची, कं कई, पनार और परमान नदी के कारण बाढ़ इस इलाक़े में आई थी।4 इसके बाद 1956 में इस इलाक़े में आई बाढ़ से किटहार सब िडवीज़न में किटहार, मिनहारी, आज़मनगर, कदवा, बारसोई, बरारी और कोढ़ा थानों पर इसका असर पड़ा था।5 इसके बाद 1958 और 1961 में महानंदा में बाढ़ की कोई ख़बर नहीं आई। लेिकन इसके बाद 1963 में िबहार िवधान सभा में किटहार के सथानीय नेताओं ने यह मामला उठाया िक पिशम बंगाल सरकार महानंदा नदी के बंगाल में पड़ने वाले इलाक़े में तटबंध बनाने जा रही है, िजससे किटहार सिहत िबहार का इलाक़ा बाढ़ से पभािवत होगा। यहीं महानंदा बाढ़ िनयंतण पररयोजना की आधारिशला रखी जाने लगी। 4 इस वष्य आई बाढ़ में ररपोट्चों के अनुसार, जयादातर नुक़सान फ़सल का हुआ, जानमाल का कोई िवशेष नुक़सान नहीं हुआ. िवसतार से देख,ें िमश (1994) व माथारनी (1955). 5 बाढ़ का पानी पूिण्यया िज़ले के सदर, िकशनगंज और किटहार सब-िडवीज़नों के 431 गाँवों में घुस गया था. 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 305 िर महानंदा बे सन : बाढ़, बाँध ि रा II. महानंिा बाढ़ प रयोजना का इ िहास6 और न नी ि | 305 ािन किटहार िज़ले में 19067, 19568 एवं 19639 की बाढ़ की तासदी को रोकने को िलए िबहार व पिशम बंगाल के मुखय अिभयंताओं, कें दीय जल व ऊजा्य आयोगों के अिधकाररयों की िवसतृत बैठक के उपरांत िबहार सरकार दारा योजना का एक पसताव तैयार िकया गया जो इस पकार था − 1. किटहार के रे लवे बाँध को शुरू करके मिनहारी के पररतयक्त रे लवे बाँध तक कारी कोसी नदी के पूव्वी तट पर तटबंधों का िनमा्यण िकया जाए तथा तटबंधों पर 2 मीटर का फी बोड्य रखा जाए 2. कारी कोसी के पिशम िकनारे पर भी तटबंध बनाया जाए और इसे गंगा नदी पर बने काढ़ागोला तटबंध से जोड़ िदया जाए। 3. महानंदा के पिशम छोर पर छाजा हाट से लेकर चौिकया पहाड़पुर तक (जहाँ यह गंगा नदी से संगम करती है) तटबंध बनाया जाए। 4. महानंदा के पूव्वी िकनारे पर बागडोब से िदलली दीवान गंज (पिशम बंगाल की सीमा) तक तटबंध बनाया जाए और इससे 1.50 मीटर का फी बोड्य रखा जाए। 5. महानंदा की बारसोई शाखा पर बागडोब से लेकर कु शीदह (पिशम बंगाल की सीमा) तक तटबंध बनाया जाए। 6. गंगा नदी के उतरी तट पर चौिकया पहाड़पुर से लेकर टोपरा तक तटबंध बनाया जाए िजससे िक 1.2 मीटर का फी बोड्य रखा जाए। 6 महानंदा पररयोजना की शुरुआत की एक ख़ास वजह यह भी थी िक पूिण्यया (वत्यमान) के सथानीय पितिनिधयों ने िवधान सभा में यह कहा िक पिशम बंगाल में महानंदा के िकनारे 58 िकमी लंबा, 3.66 िकमी उँचा और 10 मी. चौड़ा तटबंध बनाया जा रहा है, इससे पिशम बंगाल के हररशंदपुर और दूसरे गाँवों की बाढ़ से रका होगी वहीं किटहार पमंडल के पाणपुर और आज़मनगर पखंड में पड़ने वाले गाँवों में भयावह बाढ़ आएगी. ग़ौरतलब है िक मिलयोर बाँध पररयोजना के तहत वासतव में बंगाल में फु लहर नदी (सथानीय लोग महानंदा नदी को इसी नाम से जानते हैं) के बाएँ िकनारे में एक बाँध बनाया गया िजससे दािहने िकनारे में जो िबहार का पूिण्यया िज़ला (अब किटहार) है, वहाँ बाढ़ के ख़तरे को देखते हुए दािहने िकनारे पर तटबंध बनाने संबंधी पररयोजना की शुरुआत करने की आवशयकता है. 7 अंगेज लेखकों ने इस केत में आने वाली बाढ़ की वयाखया वैसे तो बहुत की है, परं तु महानंदा की बाढ़ का िज़क 1906 में पहली बार आया। 1906 में पहली बार गंगा के सतर में बढ़ोतरी के साथ-साथ महानंदा के जलसतर में बढ़ोतरी की ख़बर आई (ओ. मैली 1980). 8 सवतंतता उपरांत 1956 में किटहार, मिनहारी, आज़मनगर, कदवा, करनिदघी, बरारी और कोढ़ा थानों में बाढ़ आई और बाढ़ का पानी पूिण्यया िज़ले (उस समय के पूिण्यया िज़ले में किटहार, पूिण्यया, अरररया, िकशनगंज शािमल थे) के 431 गाँवों में घुस गया. 9 माच्य 1963 में िबहार िवधान सभा में एक सत के दौरान शी युवराज िसंह ने जो तातकािलक पूिण्यया का पितिनिधतव कर रहे थे, सदन को सूिचत िकया िक पिशम बंगाल सरकार ने अपनी तरफ़ से महानंदा पर तटबंध बनाना शुरू कर िदया है, िजससे महानंदा नदी का पानी ततकालीन दिकण पूिण्यया (वत्यमान किटहार) िज़ला की तरफ़ से बहना शुरू कर देगा और इससे बाढ़ की िसथित और भयावह हो जाएगी. 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 306 306 | िमान िचत्र-1 महानंदा पररयोजना का मानिचत्र सोत: बंिदनी महानंदा, पृ. 66 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 307 , िर महानंदा बे सन : बाढ़, बाँध ि रा नी ि | 307 महतवपूण्य है िक इस पररयोजना में यह भी कहा गया िक महानंदा के दोनों तटबंधों के बीच 1830 मीटर का फ़ासला रखा जाए िजससे यह तटबंध पणाली पचास वष्चों में आने वाली बाढ़ के चक को सँभाल सके । इस योजना के तहत गंगा नदी पर मात 1.20 मीटर फी बोड्य इसिलए रखा गया कयोंिक इस नदी के दिकणी छोर पर तटबंधों का पसताव नहीं था और यह नदी बहने के िलए सवतंत थी। कालांतर में बरं डी नदी को भी इस योजना में शािमल कर िलया गया और गंगा का तटबंध चौिकया पहाड़पुर से गंगा-बरं डी के संगम तक बढ़ा िदया गया। बहरहाल किटहार िज़ले (1982-2018) में बाढ़ से होने वाले नुक़सान के आँकड़ों के ज़ररये महानंदा बाढ़ िनयंतण पररयोजना के औिचतय को देखा जा सकता है। तािलका-1 में संगहृ ीत आँकड़े से िनमन बातें सपष हो रही हैं − क) किटहार िज़ले के 36 वष्चों के आँकड़े में पंदह वष्य भीषण बाढ़ से पभािवत रहे हैं, िजसमें कु ल 16 पखंड में से 10 या 10 से अिधक पखंड बाढ़ पभािवत रहे हैं। ख) किटहार में बाढ़ पभािवत पंचायत के आँकड़ों को देखें तो सन् 1987 का वष्य सवा्यिधक पलयकारी था, िजसमें 257 पंचायतें पभािवत थीं जबिक हाल के वष्चों में (सन् 2017 में) 193 पंचायतें पभािवत थीं। ग) किटहार के बाढ़ पभािवत गाँवों के आँकड़ों को देखें तो सन् 1987, 1995, 2013 एवं 2017 में हज़ार से अिधक गाँव बाढ़ पभािवत रहे। घ) इन वष्चों में बाढ़ पभािवत जनसंखया का अवलोकन करें तो 1987 व 2017 का वष्य सवा्यिधक पलयकारी रहा, िजसमें कमश: 15.60 और 19.90 लाख लोग पभािवत हुए। च) फ़सल कित के िलहाज़ से देखें तो 2017 का वष्य अतयिधक नुक़सानदायक रहा िजसमें 8414.69 लाख रुपये की फ़सल की कित हुई। छ) मकान की संखया और उसके कित के मूलय को देखें तो 1987 का वष्य अववल रहा िजसमें 1,65,654 मकान कितगसत रहे िजसमें 828,45 लाख की कित हुई। ज) मृतकों के आँकड़ों को और देखें तो सवा्यिधक सन् 1987 में था िजसमें − 1171 पशु और 74 मनुषयों की मृतयु हुई। झ) इसी तरह किटहार में बाढ़ के कारण हुए साव्यजिनक संपित के नुक़सान को देखें तो 1987 में यह सवा्यिधक रहा िजसमें क़रीब 11,395,96 लाख की संपित का नुक़सान हुआ। ट) 1992 का वष्य जहाँ किटहार में सूखागसत घोिषत रहा वहीं 2012 और 2018 िबहार आपदा पबंधन के आँकड़ों के िहसाब से किटहार बाढ़ पभािवत नहीं था। 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 308 308 | िमान तािलका-1 किटहार िज़ला में बाढ़ से होने वाले नुक़सान (1982-2018) (सोत – िबहार सरकार के आपदा पबंधन िवभाग, पटना के आँकड़े पर आधाररत) 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 309 िर महानंदा बे सन : बाढ़, बाँध ि रा III. िहाडी मज़िूर मे िÚील हए नी ि | 309 ानीय कसान महानंदा बाढ़ पररयोजना की तासदी आज शोध सथल पर साफ़ देखी जा सकती है। िदनेश िमश की 1994 में पकािशत िकताब बंिदनी महानंदा और 1999 में ईपीडब्यू में पकािशत लेख ‘फलड पोजेकशन दैट नेवर वॉज़ : के स ऑफ़ महानंदा बेिसन ऑफ़ नाथ्य िबहार’ में महानंदा बेिसन में जल-जमाव की समसया को कनत लाल मंडल के माफ़्य त कु छ इस तरह वयक्त िकया गया है : तटबंध बनने के पहले धान और जूट मुखय फ़सल थी। िपता ने अपनी मेहनत से 50 हेकटेयर ज़मीन ख़रीदी थी, जो िक तटबंध के भेंट चढ़ गई। मेरा खेत अब हो गया है रे िगसतान और सारा िदन उसमें घूमते-घूमते मैं हो गया हूँ ऊँट। मैं आदमी कहाँ बचा हू।ँ इसी ज़मीन से मेरे बाबा ने चावल पैदा िकया, मेरे िपता जी ने गेहूँ और मैं इस पर ककड़ी और फू ट बोऊँगा। हमारे िलए यह तटबंध नहीं मृतयुबंद है। आज 25 वष्य बाद जब हम इलाक़े में पुन: जाते हैं तो हमें कनत लाल मंडल तो नहीं िमले, उनका देहावसान हो गया है परं तु उनका पूरा पररवार आज िदहाड़ी मज़दूर बन गया है। गाँव िसकिटया में रहने वाले सवग्वीय कनत लाल मंडल के सुपतु राजू मंडल10 (30) के अनुसार, िचत्र-2 पहली तसवीर में कनत लाल मंडल मधय में, दू सरे में राजू मंडल ‘2015 में लंबी बीमारी के बाद उनके िपता कनत लाल मंडल का िनधन हो गया। िपता जी ने आपको बताया था, आज उससे और बदतर िसथित हमारे पररवार की हो गई है हमारे दादा के समय में तटबंध नहीं था, पूरे इलाक़े में बहुत खुशहाली थी, हमारी आिथ्यक िसथित भी काफ़ी अचछी थी। पूरे इलाक़े में हमारे पररवार का नाम था। मेरे दादा पतयेक महीने पूिण्यमा के िदन 10 राजू मंडल की शारीररक िसथित बहुत दुब्यल थी, और वह बाप-दादा के समय को याद करके भावुक हो जाते थे. वह बारबार बोल रहे थे, इस तटबंध ने ना जाने िकतने राजाओं को रं क बना िदया है (िनजी साकातकार जून-जुलाई 2018). 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 310 310 | िमान गाँव के लोगों के िलए भोज का आयोजन करते थे। हमारे यहाँ आधे दज्यन नौकर थे। िपता जी के समय से ही खेतीबाड़ी की िसथित िबगड़ने लगी थी। घर में अब नौकर चाकर नहीं थे, कयोंिक उनका वेतन देना बूते के बाहर हो गया था। आज िसथित और बदतर हो गई है। हमारी खेती-िकसानी सब चौपट हो गई है, सब महानंदा नदी में िवलीन हो गया और जो कु छ खेत बाढ़ के बाद ऊपर िनकला वह बालूचर (बंजर) हो गया। िजसके घर इतने नौकर चाकर सेवा के िलए थे वो अब ख़ुद दूसरे का नौकर बन गया है। मैं और मेरा पररवार (पतनी) दूसरे के खेतों में मज़दूरी करते हैं। मुझे इस बात की िफ़क होने लगी है िक मेरा बेटा कया करे गा। उसके लायक़ तो एक मुटी ज़मीन भी नहीं बचेगी। इस बाढ़ की लीला ने हमें पूरी तरह से लील िलया है।... जो धनना सेठ हुआ करता था वह अब िदहाड़ी मज़दूर बन गया है।11 पहले ‘असम-कलक ा’ अब ‘ ि ी-पंजाब’ मज़िूरी के लए जािे है बाढ़ पभािवत इलाक़े में लोग-बाग हालात से िववश होकर पलायन करते रहे हैं। महानंदा बेिसन िसथत किटहार िज़ले से सथानीय लोग-बाग पहले असम के धुबरी, गुवाहाटी और कलकता मज़दूरी करने जाते थे। बंिदनी महानंदा (1994) पुसतक में उिललिखत एक मिहला रेमो देवी से 25 वष्य उपरांत इस याता में िफर एक बार मुलाक़ात हुई। बंिदनी महानंदा (1994) में आज़मनगर पखंड िसथत सोलकं दा गाँव िनवासी रेमो देवी12 की कहानी को कु छ यूँ बयाँ िकया गया है – िचत्र-3 पहले में रे मो दे वी व बचचे , दू स रे में पचचीस साल बाद रे मो दे वी अपने पित हरर िसंह के साथ 11 िबहार िसथत महानंदा बेिसन इन पचचीस वष्चों में िकतना बदल गया है. अब तो लंबे समय से सुशासन वाली सरकार भी िबहार में आसीन है. महानंदा बेिसन की बाढ़ से जुड़ी समसया नीतीश सरकार पायोिजत गवन्नेंस के फे मवक्य में कयों नहीं है? कया बाढ़ के संदभ्य में िबहार सरकार काइिसस ऑफ़़ गवन्नेिबिलटी से गुज़र रही है? 12 रेमो देवी क़रीब तीस साल बाद िदनेश िमश से िमली थी, वह िदनेश जी को ताना मारते हुए बोलीं – ‘तब भी आए थे, फ़ोटो खींचकर चले गए और आज भी फ़ोटू खींचने के वल आए हैं, कु छ दाना-पानी देकर जाओ’. रेमो देवी के बोलते ही सभी लोग िखलिखलाकर हँस पड़े. िफर रेमो देवी ने बातचीत के बाद बहुत आगहपूवक ्य चाय के िलए पूछा। यही एथनोगािफ़क शोध की कुं जी है, जब शोधकता्य फ़ीलड में लगातार भ्रमण करता है, वहाँ समय गुज़ारता है तो वहाँ के लोग-बाग से बहुत गहराई से जुड़ जाता है. 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 311 िर महानंदा बे सन : बाढ़, बाँध ि रा नी ि | 311 ‘तटबंध के बाहर रहने वाली एक मिहला रे मो देवी के बारह से पाँच वष्य के अपने चार बचचे हैं। वह खेतों में मज़दूरी करने और जूट की चटाई बनाती है, जबिक उसका पित पहले गाँव में ही रहकर कु छ रोज़गार करते थे। भाइयों के बीच ज़मीन बँटने के बाद उपज कम होने लगी। तब हरर िसंह पहले आरा उसके बाद गुवाहाटी और िपछले चार-पाँच वष्चों से कलकता थे’ (िमश 1994)। जब हमनें बंिदनी िकताब (1994) में छपी उनकी पुरानी तसवीर को िदखाया तो तसवीर देखकर उसकी आँखें भर आई ंऔर वह ज़ोर से हँसते हुए अनायास बोल पड़ीं ‘यह तो हमारा फ़ोटो है, पहले जुआन (जवान) थी अब बुिढ़या हो गई, हमारा चार बेटा-बेटी था। अब हम दादी बन गई हू’ँ । चेहरे को अपने साडी के प ू से पोछिे हए उसने कहा ‘पहले मेरा मद्य (पित) मज़दूरी करने असम और कलकता जाते थे, वह जो कमा कर लाते थे, उससे हमलोग गुज़ारा करते थे, घर वाला (हरर िसंह) अब बीमार रहते हैं, इसिलए अब वह घर पर ही रहते हैं। बड़ा लड़का िदलली में राज िमसी का काम करता है, और छोटा अभी घर पर है। छह महीने बाद बड़ा घर आ जाएगा और छोटा उसके जगह चला जाएगा। इसी तरह दोनों बेटा एक-एक करके बाहर जाता है, मज़दूरी करके लाता है तो हमारा घर पररवार चलता है। लेिकन हम यह जानना चाहते हैं िक आप लोग हमारा फोटू (फ़ोटो) खींचकर ले जाते हैं तो िदलली-पटना में नेता सब को कयों नहीं िदखातें हैं। कया हमलोग देश के ‘वासी’ नहीं हैं, हमलोग कया हमेशा पलायन करें गे यहाँ से। अगर हम बाहर नौकरी करने ना जाएँ तो भूखे पेट यहाँ मरें गे’।13 न ियो के कटाव से जल ा वि हो रहे गाँव महानंदा बेिसन िसथत किटहार िज़ले के चार पमुख पखंड – आज़मनगर, पाणपुर, मिनहारी और अमदाबाद के दो दज्यन से अिधक गाँव सन् 2000 के बाद जलपलािवत हो गए। िदनेश िमश ने अपनी पुसतक बंिदनी महानंदा (1994) में िवसतृत रूप से मिनहारी बलॉक िसथत मेदनीपुर14 और आज़मनगर बलॉक िसथत िसकिटया गाँव के बाढ़-बाँध व खेती-िकसानी का िवसतार से उललेख िकया है। मेिदनीपुर के ऐितहािसक पहलुओ ं को रे खांिकत करते हुए कहा 13 अपने िवसतृत फ़ीलडवक्य के दौरान शोध के िलए चयिनत पाणपुर पखंड िसथत गाँव जललाहरे रामपुर िनवासी मीना कु मारी ने िवसतार से हमें बताया िक ‘ग़रीबों के िलए पूरे िससटम में कया कोई िठकाना है; अगर पतयेक घर से जवान और बचचे कमाने के िलए िदलली-पंजाब नहीं जाएँ तो पतयेक िदन भूख के मारे गाँव से लोगों की लाशें िनकलेंगी’. िवसतार से पढ़ें, पंकज कु मार झा (2015), ‘राजय और बाढ़ िनयंतण की राजनीित : िबहार िसथत किटहार िज़ले के िवशेष संदभ्य में’, पीएचडी शोध (अपकािशत), राजनीित िवजान िवभाग, िदलली िवशिवदालय. 14 जात हो िक मेदनीपुर गाँव में 1998 से ही कटाव शुरू हो गया था, इसके उपरांत 1999, 2000, में भी कटाव जारी रहा और अंतत: पूरा गाँव 2002 में पानी में िवलीन हो गया. 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 312 312 | िमान गया है िक : यह वही गाँव है जहाँ िसराजुदौला और कलाइव का 1757 का युर हुआ था। िसराजुदौला की छावनी नवाबगंज में थी और उनके सेनापित मोहनलाल थे। दो सौ से अिधक अंगेज़ िसपाही बलिदया बाड़ी गाँव में रहते थे। अंगेज़ कमांडर कलाइव ने मोहन लाल को हराने की हर संभव कोिशश की, और मेदनीपुर के िनवािसयों को बदले में मौवार की उपािध पदान िकया। मौवार वंश के लोग अभी भी इस गाँव में रहते हैं। क़रीब 400 साल पुराना यह गाँव जहाँ ठाकु र जी का भवय मंिदर, राधा कृ षण की मूित्य, भगवान शंकर का िशविलंग भी था। यह सब गंगा के पलयकारी कटाव में धवसत हो गया। इस िकताब में िवसतार से यह भी बताया गया है िक िकस तरह से सथानीय लोग बाँध को काटते हैं तथा सथानीय पशासन उनकी मदद करता है (िमश 1994)। जब हम मिनहारी बलॉक के पास सथानीय लोगों से बातचीत कर रहे थे, तभी हमारी मुलाक़ात मेदनीपुर गाँव में रह चुके एक बुज़गु ्य जनाद्यन ितवारी से हुई।15 उनहोंने भावुक होते हुए बताया ‘हमारा मेदनीपुर गंगा के कटाव में समाप हो गया। उस समय को याद करके मैं पागल हो जाता हूँ हमारा घर-दार, खेती-बाड़ी, बाग़-बग़ीचा सब पानी के कटाव में िवलीन हो गया... महीनों तक नहीं सो पाया था, पानी की कल-कल करती तेज़ धार बहुत डरावनी थी। मेरे पररवार की तरह लगभग 150 पररवार मेदनीपुर से 2003 में हुए जलकटाव से भागे थे। अब हम सब के िलए मेदनीपुर एक सपना जैसा ही तो है। पूरा गाँव आज गंगा की धारा में िवलीन हो चुका है…और आज हमारा पूरा पररवार एक कमरे में िकसी तरह से गुज़र बसर कर रहा है’। बंिदनी महानंदा (1994) में बहुत िवसतार से आज़मनगर पखंड िसथत तटबंध के बीच फँ से िसकिटया गाँव की चचा्य की गई है।16 िकताब में िसकिटया को एक अिभशप्त गाँव के रूप में पसतुत िकया गया है। इसमें िशवनंदन मंडल, कनत मंडल और परमानंद साह के कथनों के माधयम से िसकिटया गाँव के िकसानों की माली हालत को बयाँ िकया गया है। (िवसतार से देखें पृ.89)। साथ ही इसमें कनत लाल मंडल के माधयम से यह कहा गया िक तटबंध के कारण उनकी खेती िकसानी सब चौपट हो गई है। सभी िकसान अब मज़दूर बन गए हैं। जल में गाँव के डू बने या बहने का उललेख करते हुए कनत लाल मंडल ने कहा था – ‘1987 में कचौरा बह गया, 1991 में बेलवारी गया और अब अगले साल हमारा ही नंबर है’। (पृ.89) पचचीस साल बाद जब हम िसकिटया गाँव17 के आसपास बेररया गाँव पहुचँ े और सथानीय लोगों से िसकिटया तक पहुचँ ने का माग्य पूछा तो, राहगीर मुसताक हुसैन (45) ने 15 जनाद्यन ितवारी हमसे बातचीत करते-करते मेरे सपनों का मेदनीपुर कहकर रोने लगे. पीएचडी शोध िलखने के दौरान िकए गए अपने िवसतृत फ़ीलडवक्य के दौरान 4-5 माच्य 2012 को िवसतृत बातचीत की. 16 बातचीत पर आधाररत (जुलाई-अगसत 2012). 17 िसकिटया गाँव की िवसथािपत जनसंखया अब कं ्ी साइड िसथत बेिड़या गाँव में िनवास करती है (फ़ीलडवक्य पर आधाररत 2012-13). 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 313 िर महानंदा बे सन : बाढ़, बाँध ि रा नी ि | 313 गंभीर सवर में कहा ‘िसकिटया अब बैरागी हो गया है’। क़रीब 100 से अिधक पररवार काफ़ी िदनों तक बाँध पर रहे। िफर पुिलस-पशासन ने उनहें वहाँ से भगा िदया। अब हम ख़ानाबदोश की तरह इधर-उधर भटकते रहते हैं। तािलका-2 सन् 2000 के उपरांत निदयों के कटाव से जलपलािवत गाँवों की सूची सोत – सथानीय सोतों से पाप जानकारी के आधार पर तैयार ज़मीिोज़ हो रही है इलाके की छोटी न ियाँ महानंदा बेिसन की पमुख निदयों, मसलन महानंदा, गंगा और कोसी के अलावा अनेक छोटी निदयाँ पवािहत रहती हैं, िजससे बाढ़ का पबंधन िकया जाता रहा है। परं तु हमने अपने फ़ीलड वक्य के दौरान पाया िक इलाक़े की आधा दज्यन छोटी निदयाँ, मसलन कारी कोसी, कमला, परमान, सौरा, कपान, कजरा आिद िवलुप होती जा रही हैं। बरं डी, नागर, रीगा जैसी निदयाँ भी बरसाती नदी बनकर सीिमत हो गई हैं। वहीं भसना, िलबरी जैसी निदयाँ पूव्य में ही ज़मींदोज़ हो चुकी हैं। ररवर साइड िनवासी नरे नद नाथ ठाकु र (71) के अनुसार, ‘इलाक़े की छोटी निदयाँ महानंदा, कोसी और गंगा की असली ताक़त रही हैं। हमारे गाँव में मािणकनाथ नदी बहुत ऐितहािसक थी, ऐसी िकं वदंती है िक नंदनपुर गाँव में एक राजा हुआ करता था जो काफ़ी अतयाचारी पवृित का था िजसने मािणकनाथ नामक साधु को पाणदंड िदया था। लोक मानयता है िक इसके कु छ िदनों बाद ही महानंदा से एक पृथक धारा मािणकनाथ के नाम से िनकली िजसने राजा का िवनाश कर िदया। परं तु वह नदी भी अब िवलुप हो गई है’।18 ग़ौरतलब है िक 18 अपने शोध के दौरान िदनांक 23.03.2013 को पाप जानकारी के आधार पर उनहोंने यह भी बताया था िक मािणकनाथ नदी की के वल एक ही धारा अब बची हुई है, िजसमें सथानीय लोगबाग़ गरमा धान की खेती करते हैं (देखें पंकज कु मार झा (2015), राजय और बाढ़ िनयंतण की राजनीित : िबहार के किटहार िज़ले के िवशेष संदभ्य में (अपकािशत), पीएचडी थीिसस, राजनीित िवजान िवभाग, िदलली िवशिवदालय. वहीं 1.05.2020 को उनसे हुई बातचीत से यह जात हुआ िक वह अके ली बची धारा 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 314 314 | िमान बाढ़ पभािवत इलाक़े में पोखर, तालाब और इन छोटी निदयों को कु शन (अिधक जल सोखने की कमता से युक्त माना जाता है, तािक बाढ़ पर क़ाबू पाया जा सके ) और ज़मीन की िकडनी के रूप में देखा जाता है। सथानीय अख़बारों से पाप जानकारी के अनुसार, केत की लगभग आधा दज्यन छोटी निदयों का अिसततव समािप के कगार पर है। यही निदयाँ कभी बाढ़ के दौरान ढाल बनती थीं और बाढ़ का पानी इन निदयों से होकर िनकल जाता था।19 परं तु तालाबों व इन छोटी निदयों के सूखने से महानंदा बेिसन के इलाक़े में बाढ़ का ख़तरा लगातार बढ़ता जा रहा है। छोटी निदयों के लगातार िवलुप होने के कारण की तरफ़ इशारा करते हुए सथानीय नदी व पया्यवरण िवशेषज पो. राजेनद मंडल के अनुसार, इसके पीछे मूल कारण समाज का अपने पारं पररक जल सोतों की अनदेखी करना है। लोगों ने अपनी बढ़ती ज़रूरतों की पूित्य के िलए निदयों का भी शोषण करना शुरू कर िदया है। निदयों की पारं पररक धाराओं को बािधत िकया जा रहा है। इस पर आलीशान मकान खड़े िकए जा रहे हैं। बढ़ती ज़रूरत व भौितकतावादी वहशीपन ने हमें निदयों को मारने के िलए पेररत िकया है, इसे डाई ंग िवज़डम की िसथित कह सकते हैं।20 बिल रहा है खेिी- कसानी का पैटन्न आज महानंदा बेिसन की खेती-िकसानी का पूरा पैटन्य आज बदल गया है। पी.सी. रॉयचौधरी (1963) ने िडिसटकट गजेिटयर ऑफ़ पूिण्जया21 में बताया िक ‘इस इलाक़े में मूल रूप से अगहनी22, भदही23 और रबी24 की खेतीबाड़ी कमश: 56 फ़ीसदी, 34 फ़ीसदी और 39 भी मृतपाय हो चुकी है. 19 नंदन कु मार झा (2019), ‘सीमांचल में ज़मींदोज़ हो रही है निदयाँ, बढ़ रहा बाढ़ का ख़तरा’, दैिनक जागरण, भागलपुर संसकरण, 27 जून : 4. 20 वयिक्तगत साकातकार में पो. राजेनद पसाद मंडल ने हमें यह भी बताया िक छोटी निदयों को कुं द करने में जलीय पौधे जलकुं भी की भी बहुत नकारातमक भूिमका रही है. जलकुं भी और जलकचचू इन दो पजाितयों ने निदयों को पूरी तरह से पाट िदया है. इनकी जलगहण कमता अिधक होने और इनका फै लाव तेज़ी से होने के कारण निदयाँ गाद से भर गई हैं. िनयिमत रूप से साफ़़सफ़ाई का अभाव और उपेकाभाव के कारण निदयों का अिसततव ख़तरे में पड़ चुका है. 21 इसमें यह भी बताया गया अगहनी धान की सतर िक़समें, भदही धान की 32 िक़समें और रबी (गेहू)ँ की 40 िक़समें उपलबध थीं. 22 रॉयचौधरी अगहनी की खेती के बारे में िवसतार से बताते हैं िक मई महीने में अचछी बाररश के बाद खेत को चार बार अचछी तरह से जोतकर एक छोटी-सी ज़मीन के टु कड़े में िबचड़ा डाला जाता है, बाररश होने से िमटी नम हो जाती है, बार-बार अचछी तरह से जोतने से िमटी अचछी तरह से िमल जाती है पानी अंदर तक पवेश कर जाता है। उसके बाद ज़मीन के इस टु कड़े से अगहनी चारा िनकालकर खेत में 9-9 इंच के अंतराल में रोपा जाता है इसिलए इसे रोपा धान कहते हैं. यिद मशीन या हाथों से छींटकर इसकी खेती करें गे तो इसे लतौन धान कहते हैं. इसके बाद इसे नवंबर अंत और िदसंबर की शुरुआत में काटा जाता है. (रॉयचौधरी 1963). 23 भदही धान के बारे में िवसतार से पूिण्यया गज़ेेिटयर में बताते हुए रॉयचौधरी कहते हैं िक पहली बाररश के बाद खेत को 1012 बार जोता जाता है, उसके बाद अपैल-मई में छींटकर या मशीन से बीज खेत में डाला जाता है। जैसे ही पौधा 6 इंच लंबा होता है, फ़सलों की छँ टाई की जाती है एवं ज़मीन को खरपतवार से बचाने के िलए कमौनी की जाती है। तैयार फ़सल को अगसत-िसतंबर में काटा जाता है, (देखें रॉयचौधरी 1963). 24 रॉयचौधरी ने रबी फ़सल में िवशेष रूप से गेहूँ के बारे में िलखा था िक यह पूिण्यया के पिशमी िहससे में मधयम भूिम पर 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 315 िर महानंदा बे सन : बाढ़, बाँध ि रा नी ि | 315 फ़ीसदी ज़मीन पर होती है। अगहनी समतल ऊँची ज़मीन पर उगाई जाती है, जबिक भदही ऊँची भूिम पर और रबी (गेहू)ँ के िलए मधयम ऊँचाई की िमटी की आवशयकता होती है’। परं तु िपछले दस साल में इस इलाक़े की खेतीबाड़ी का पूरा पैटन्य बदल गया है। इस बदलते पैटन्य को िनमन आँकड़े से देखा जा सकता है : उपरोक्त आँकड़े से पमुख िवशेषताएँ िनकल कर आती हैं − क) भूिम पयोग (लैंड यूज़) के नज़ररये से देखें तो 2012-13 तक चावल और गेहूँ का केत बढ़ा है, उसके ठीक बाद इसमें िगरावट आई, वहीं 2013-14 से मकई के भूिम पयोग में ज़बरदसत बढ़ोतरी हुई है। ख) उतपादन का अथ्य है − भूिम पयोग और उतपादकता (पोडिकटिवटी) का गुणनफल । आँकड़े बताते हैं िक 2013-14 के बाद धान-गेहूँ के उतपादन में औसतन कमी आई है।25 ग) उतपादकता के दृिष से, 2012-13 तक धान-गेहूँ की उतपादकता में बढ़ोतरी हुई परं तु 2013 के उपरांत औसतन इसमें कमी आई है वहीं इस दौरान मकई की उतपादकता में बढ़ोतरी हुई है। घ) 201617 की तुलना में 2017-18 में बाढ़ के कारण किटहार में चावल की उतपादकता में कमी आई है। सथानीय सूतों के अनुसार, बाढ़ के कारण धान पूरी तरह से बह गया और अकटू बर में खेत पूरी तरह से ख़ाली हो गया। ड़) िदलचसप है िक 2016-17 में गेंहूँ की उतपादकता (2435) की तुलना में 2017-18 में बढ़ोतरी (2706) हुई। कयोंिक बाढ़ के कारण जब धान की फ़सल अकटू बर तक नष हो गई तो उसके बाद िकसानों ने उसपर गेहूँ की खेती िकया। च) महतवपूण्य है िक कु ल िमलाकर हालाँिक धान के भूिम पयोग, उतपादकता और उतपादन में किटहार िज़ले में बढ़ोतरी हुई है। िफर 2016-17 में मकई की उतपादकता (10366) में 2017-18 (9002) में कमी आई, कयोंिक बाढ़ के कारण खरीफ़ मकई तो नष हो गए परं तु रबी मकई का उतपादन हुआ। केत में िपछले दो वष्चों में हुए ओलावृिष से भी 2017-18 और 2018-19 में मकई की खेतीबाड़ी पभािवत हुई है। ग़ौरतलब है िक मूल रूप से भर्वी गाँव26 िनवासी अथ्यशासी डॉ. अिवनेनद ठाकु र के अनुसार बाढ़ गसत इलाक़े में खेतीबाड़ी के िलए दो पकार की ज़मीन की उपलबधता है क) रिहका और नेमा। रिहका उँची ज़मीन को कहते हैं िजसमें 2 फसलों की पैदावार वष्य भर की जाती है। धान और उसके कटने के उपरांत मकई। जबिक नेमा ज़मीन िनचली ज़मीन को कहते उपजाया जाता था। (देखें रॉयचौधरी 1963). 25 2013 के बाद धान और गेहूँ के उतपादन में कमी दो कारणों से हुई − पहला, धान और गेहूँ का भूिम पयोग (लैंड यूज) कमी हुई और इसके साथ ही साथ पित हैकटेयर/ पित एकड़ की कमी. 26 कदवा पखंड िसथत भर्वी पंचायत परं परागत रूप से खेतीबाड़ी में संपनन रहा है. जब बाँध व तटबंध नहीं बने थे, तब बाढ़ का पानी मुक्त रूप से इस इलाक़े में आता था और यहाँ के लोग धान-गेहूँ उपजाते थे. इससे पूरे इलाक़े में बहुत संपननता थी. लेिकन िपछले 8-10 वष्चों से गेहूँ से सथानीय िकसानों को कोई मुनाफ़ा नहीं हो रहा है. मज़दूरी के ख़च्य में भी वृिर हुई है. साथ ही साथ कटनी और तैयारी के वकत भी मज़दूरी की समसया सामने आई है. इसके साथ ही बाँध बँधने से इलाक़े में जलजमाव की समसया भी आने लगी. इसिलए अब इस इलाक़े में धान की खेती भी सीिमत होती है, ज़रूरत के िहसाब से लोग गरमा िकसम की धान ज़रूर उपजाते हैं. जूट की खेती भी लगभग समाप हो गई है. ऐसे में भर्वी गाँव के िकसान पूरी तरह से मकका की तरफ़ िशफट हो गए हैं. 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 316 316 | िमान हैं िजसमें पानी एक-दो महीने ठहरता है। ऐसी ज़मीन पर या तो के वल एक फ़सल (मकई) लगाई जाती है या िफर सरसों के साथ गरमा धान का सहयोजन इस पकार िकया जाता है िक सरसों को अकटू बर में बोया जाता है और फ़रवरी में काटा जाता है तभी गरमा लगाया जाता है और उसे भी मई में बाढ़ से पहले काट िलया जाता है। उनहोंने इस बात को भी जोड़ा िक अब इलाक़े की खेतीबाड़ी गेहूँ से मकका27 में पूरी तरह से िशफट हो गई है। पहले िकसान अगहनी धान और गेहूँ उपजाते थे वहीं अब गरमा धान और मकई की खेती करते हैं। बहरहाल फ़ीलडवक्य के दौरान भर्वी गाँव िनवासी सदानंद ने बताया िक पहले जब बाँध नहीं बँधा हुआ था तब बाढ़ का पानी आता था और 2-3 िदन में लौट जाता, वैसी िसथित में यहाँ हमलोग तीन फ़सल करते थे। अपैल-मई में अगहनी का रोपा करते थे, और उसे अगहन (नवंबर-िदसंबर) में काट लेते थे, तभी खेत में िखसारी और मटर लगाते थे उसे माघ (जनवरीफ़रवरी) में काटते थे और उसमें पटसन लगा देते थे िजसे अपैल-मई तक काटते थे। अगहनी का धान ग़रीबों के िलए बहुत फ़ायदेमदं होता था, इसमें कोई खाद बीज नहीं लगता था, बाढ़ के पानी में ही वह तैयार हो जाता था। परं तु 2010 में कचौड़ा बाँध बँधने के बाद सथानीय िकसानों ने अगहनी धान करना छोड़ िदया है, ऐसे में अब जलजमाव वाले नीची ज़मीन पर लोग-बाग गरमा धान ही उपजाते हैं।28 कं ्ी साइड िसथत गाँव सगुिनया िनवासी मो.नौशाद29 के अनुसार, िपछले पाँच-सात वष्चों में िकसानों को गरमा धान में भी लाभ बहुत कम हुआ है, गरमा धान िबना खाद-पानी के नहीं होता है, ऐसे में एक तो उससे उपज बहुत कम होती है दूसरी तरफ़ समय से पूव्य आने वाली बाढ़ (जून महीना जब गरमा धान की कटाई का समय होता है), गरमा को बहा कर ले जाती है। इसिलए 2013 के बाढ़ के समय कलयाणी-िसकोरना गाँव में एक िकसान ने क़रीब 40-50 बीघा ज़मीन पर गरमा धान लगा था, सब बाढ़ के पानी में समाप हो गया और उससे आहत होकर िकसान ने आतमहतया कर ली।30 सपष है िक अब महानंदा बेिसन के सथानीय िकसान अपने भोजन की ज़रूरत के िहसाब से ही गरमा और गेहूँ करते हैं जबिक वयावसाियक नज़ररये से मकका की खेती करने लगे हैं। आज़मनगर पखंड िसथत बेलवाड़ी गाँव िनवासी माखन कु मार राय (27)31 की मानों तो महानंदा बेिसन में िकसान गेहूँ की खेती िबलकु ल ज़ीरो के 27 ठाकु र व गाँव के अनय लोगों से यह भी जानने को िमला िक यहाँ का मकका बहुत वयापक पैमाने पर बाहर सपलाई होता है. मकका का उपयोग कॉन्यफलेकस, पोल्ी व सूअर पालन में होता है तथा उसे बांगलादेश और मयांमार तक भेजा जाता है. (बातचीत पर आधाररत अपैल-मई 2020). 28 बातचीत पर आधाररत ( दूरभाष से 1-2 मई, 2020). 29 मो. नौशाद से 2013 में िवसतार से बात हुई थी, उनहोंने बताया िक बाँध बँधने के कारण कं ्ी साइड में पया्यप पानी नहीं आता िजससे यहाँ के लोगों ने गेहूँ छोड़ िदया, गेहूँ में दानों की भी समसया आ रही थी िबना दाना के गेहूँ घास-फू स के बराबर है. इसिलए लोगों ने अपना जीवन बचाने के िलए मकका की खेती शुरू िकया है. (िवसतार से देखें झा (2015), राजय और बाढ़ िनयंतण की राजनीित-िबहार के किटहार िज़ले के िवशेष संदभ्य में, (अपकािशत) पीएचडी थीिसस, राजनीित िवजान िवभाग, िदलली िवशिवदालय : 218. 30 बातचीत पर आधाररत (दूरभाष से 5-6 मई, 2020). 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 317 िर महानंदा बे सन : बाढ़, बाँध ि रा नी ि | 317 बराबर करता है। मकई िकसानों में खुशहाली लाता है, नक़दी फ़सल होने के कारण लोगबाग तेज़ी से इसकी तरफ़ आकिष्यत हुए हैं। 1 एकड़ ज़मीन पर क़रीब 50 िकवंटल तक मकका की पैदावार हो जाती है और 1500-2000 रुपया पित िकवंटल आसानी से िकसान को िमल जाता है। ऐसे में 75,000-100000 रुपये की कमाई िकसान 1 एकड़ की ज़मीन पर कर लेता है।32 तािलका-2.1 किटहार िज़ले में चावल, गेहूँ और मकई का केत्र, उतपादन और उतपादकता (2009-2019) सोत: िबहार सरकार दारा जारी आिथ्यक सव्वे की ररपोट्य के आधार पर तैयार स वल सोसाइटी का बिलिा नैरे टव महानंदा बाढ़ िनयंतण पररयोजना के िनमा्यण काय्य के बाद िसिवल सोसाइटी की तरफ़ से 1987 की बाढ़ के बाद ज़बरदसत िवरोध िकया गया। महानंदा बेिसन के इलाक़े में 1987 में आई भीषण बाढ़ में सरकारी-पशासिनक लापरवाही के िख़लाफ़ शुरू हुआ जनआंदोलन33 का नेततृ व समता युवजन सभा और संपणू ्ज कांित मंच के सिममिलत पयास से िकया गया था 31 माखन कु मार राय ने हमें िवसतार से बताया िक 1 एकड़ गेहूँ में जहाँ 10-11 िकवंटल गेहूँ की ही पैदावार हो रही है. कभी गेहूँ के पौधे में दाना नहीं आता तो कभी गेहूँ को चूहे खा जाते हैं. उसका बाज़ार मूलय भी 1000-1200 रुपया है अथा्यत् 1 एकड़ में िकसान को 1000-12000 रुपया ही िमलता है. 32 बातचीत पर आधाररत फ़ीलडवक्य के दौरान 2012-13 और दूरभाष से बातचीत (माच्य-अपैल 2020). 33 जल आंदोलन पमुख रूप से पानी से जुड़े पाँच मुदे अथा्यत् बाढ़, िसंचाई, शुर पेयजल, जल-जमाव और जलिनकासी के साथ गहराई से जुड़ा हुआ था. बाढ़ की समसया और उसका सथाई समाधान जल आंदोलन के सथायी एजेंडा में शािमल था. इस इलाक़े के पानी में आयरन, आस्वेिनक की माता अिधक थी. इसिलए शुर जल को भी इसके अंतग्यत जोड़ा गया. जलजमाव भी इस इलाक़े की पमुख समसया के रूप में रही है, पहले यहाँ अगहनी की खेती होती थी उसका िवनाश हो गया. अगहनी धान के साथ दलहन की खेती होती थी, वह भी चली गई. इसिलए जल जमाव व िनकासी का मुदा भी जल आंदोलन में जुड़ा. 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 318 318 | िमान (िमश 1994)। इसके अंतग्यत क़रीब दस हज़ार लोगों ने 25-26 िसतंबर, 1987, में किटहार कचहरी का घेराव करते हुए सरकार के सामने ररलीफ़ के िवतरण को िफर से शुरू करने; कचौड़ा बाँध टू टने की घटना की नयाियक जाँच कराने एवं बाँध समसया के सथाई समाधान के िलए बागडोब को और अिधक चौड़ा और गहरा करने की माँग िकया। लोगों का जनसैलाब इस आंदोलन व आंदोलनकारी के पक में देखकर सथानीय पशासन काफ़ी िचंितत हो गया था। पशासन इस आंदोलन को तोड़ना चाहता था, उसे अपने पक में िमलाना चाहती थी। परं तु पदश्यनकारी सफल नहीं रहे। जलआंदोलन ने धीरे -धीरे और वयापक रूप धारण कर िलया, इसके अंतग्यत बड़ी तादाद में जनसंपक्य सभाएँ और पदयाताओं का दौर चला।34 बाद के सालों में इस आंदोलन ने इलाक़े में बाढ़ व पानी से िविभनन पहलुओ ं (शुर जल, बाढ़, िसंचाई, जलजमाव आिद) पर आंदोलन तेज़ िकया िजसमें लोगों की ज़बद्यसत सहभािगता देखी गई। हालाँिक यह आंदोलन आपसी िववाद व मतभेद के कारण अपेिकत सफलता पाप नहीं कर पाया, परं तु इस आंदोलन ने िसिवल सोसाइटी की एक ऐसी तसवीर को पसतुत िकया जो सथानीय लोगों की आवाज़ को तटसथता से पसतुत कर रहा था। आज ररिविजिटंग महानंदा के अंतग्यत जब हम शोध-सथल का मुआयना करते हैं तो यह बात िबलकु ल साफ़ िदखाई पड़ती है िक पानी जैसे मुदों पर लड़ा गया जल आंदोलन जैसा सव्यवयापी आंदोलन का आज अभाव है। इसके सथान पर बाढ़ से जुड़े एकल मुदों पर ज़रूर दोतीन िसिवल सोसाइटी पयासरत् हैं। किटहार िसथत कदवा बलॉक में सिकय महानंदा बाँध रोको संघष्ज सिमित जहाँ इस इलाक़े में बाँध व तटबंध का सिकय िवरोध कर रही है, वहीं दूसरी तरफ़ किटहार के मिनहारी-अमदाबाद बलॉक में गंगा नदी के कटाव से पीिड़त पररवारों व िवसथािपतों के मुदों पर पुनवा्जस संघष्ज सिमित अलग कहानी पसतुत करती है। महानंदा बाँध रोको संघष्ज सिमित इस इलाक़े में बाढ़ से तटबंध के कटाव वाले केत में पशासन दारा पुन: बाँध बाँधने का िवरोध कर रही है। कदवा िसथत कु महरी चौक में लगभग पाँच हज़ार की तादाद में इकटा लोगों के साथ िमलकर जनसभा का नेततृ व िकया गया।35 महतवपूण्य है िक महानंदा बाँध रोको संघष्य सिमित सथानीय पशासन से िनमन माँग कर रही है − क) बागडौब की खुदाई की जाए तािक महानंदा की बारसोई धारा जीिवत हो जाए और झौआ के साथ-साथ बारसोई के माग्य से पानी का गमन हो इससे दोनों ही धाराओं के बीच बराबर जल का बँटवारा होगा। ख) महानंदा और रीगा नदी के अंदर 25 िकमी भू-भाग में फै ले पानी के िनकासी का एक मात माग्य झौआ िसथत रे लपुल की लंबाई एवं चौड़ाई बढ़ाई जाए तािक जल िनकासी िनरं तर हो सके । ग) बाढ़ पभािवत केत की पमुख निदयाँ कनकई, महानंदा, परवान और रीगा नदी में जमे हुए गाद की सफ़ाई कर नदी की गहराई बढ़ाई जाए। घ) झौआ से चाँदपुर होते हुए डमरुआ बाँधपुर तक तटबंध में 34 इसके संदभ्य में िवसतृत जानकारी अपने डॉकटोरल थीिसस वक्य के दौरन िकए गए फ़ीलडवक्य में िकशोर कु मार मंडल से की गई िवसतृत बातचीत के आधार पर पाप हुआ. िकशोर कु मार मंडल एक युवा के रूप में 1987 के जल आंदोलन में काफ़ी सिकय थे. 35 नंदन कु मार झा (2018), ‘खुले रहे तटबंध तो बचेगी जान’, दैिनक जागरण, (भागलपुर संसकरण), 24 मई. 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 319 िर महानंदा बे सन : बाढ़, बाँध ि रा नी ि | 319 वयापक सतर पर सलुईस गेट का िनमा्यण करवाया जाए िजससे बाढ़ आने पर सलुईस गेट खुला रखकर इससे िनकासी हो सके । ड़) बाँध के टू टे हुए भाग को यथावत् खुला रखा जाए।36 वहीं दूसरी तरफ़ मिनहारी-अमदाबाद में सिकय िसिवल सोसाइटी पुनवा्जस संघष्ज सिमित 2010 से ही इस इलाक़े में अपनी माँगों को लेकर अिडग रही है। 2017 में आयी पलयकारी बाढ़ एवं गंगा नदी के कटाव से कारी कोसी बाँध पर िवसथािपत पीिड़त हज़ारों लोगों की पया्यप राहत व पुनवा्यस की माँग को िज़ला सतर पर उठाते हुए पुनवा्यस संघष्य सिमित ने जेल भरो आंदोलन का नेततृ व भी िकया। इस दौरान िज़ला पशासन के समक िनमन माँगे रखी गई ं37 − क) गंगा नदी व महानंदा नदी के कटाव के कारण बेघर पररवार जो बाँधों, सड़कों व रे ल की पटररयों के िकनारे गुजर बसर कर रहे हैं उनहें पुनवा्यस हेतु घर बनाने के िलए िबहार सरकार दारा ज़मीन सीज (िबना एपीएल और बीपीएल के भेद के ) िकया जाए। ख) कु स्वेला से लेकर अमदाबाद तक गंगा नदी के कारण होने वाले कटाव को रोकने के िलए सथाई समाधान िकया जाए। ग) भूिमहीन िवसथािपतों को अिभयान बसेरा के तहत पुनवा्यस करवाया जाए। घ) जब तक इन िवसथािपतों का पुनवा्यस नहीं हो जाता तब तक सड़कों और रे लवे लाइन िकनारे से झोपिड़यों को नहीं तोड़ा जाए। महतवपूण्य रूप से महतवपूण्य है िक महानंदा बेिसन के इलाक़े में बाढ़-बाँध के मुदे पर िसिवल सोसाइटी के बदलते नैरेिटव को हम िनमन िबंदओ ु ं में देख सकते हैं – क) पूव्य में िचत्र–4 किटहार में 1987 में हुए जल आंदोलन सोत: जल आंदोलन से जुड़े िकशोर के िनजी आका्यइव से पाप 36 इसके साथ ही साथ इसके दारा कई और माँगें की गई ं जैसे पतयेक वष्य बाढ़ से तबाह िकसानों का कृ िष-कज़्य माफ़ िकया जाए, महानंदा के बाढ़ को िनयंितत करने के िलए िवशेषजों की जाँच कमेटी िनयुक्त थी, और बाँध के भीतर रीगा नदी जो बरसात के समय िवकराल रूप धारण करती है, जो झौआ में महानंदा से िमलती है, उससे ठीक पहले कटे हुए तटबंध सथल पर सलुईस गेट का िनमा्यण िकया जाए तािक बाढ़ के समय उसे खोलकर आबादी को बचाया जा सके . 37 इसे सथानीय अख़बारों ने भी कवर िकया था, िवसथािपत पररवार में शािमल हज़ारों की संखया में शािमल लोगों ने जापन सौंपते हुए कहा िक या तो हमें बसने के िलए िज़ला पशासन ज़मीन दे या िफर जेल भेजे. 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 320 320 | िमान िसिवल सोसाइटी दारा िकया गया आंदोलन (जल आंदोलन) वयापक मुदे (बाढ़, शुर पेयजल, िसंचाई, जल-जमाव) पर आधाररत था जबिक आज िसिवल सोसाइटी एकल मुदों पर आंदोलन कर रहे हैं (महानंदा बाँध रोको संघष्ज सिमित जहाँ के वल बाँध के िख़लाफ़ आंदोलनरत है वहीं पुनवा्यस संघष्य सिमित, राहत और पुनवा्यस के मुदों को बढ़ा रही है)। ख) पहले िसिवल सोसाइटी सथानीय राजनीित से पूरी तरह से तटसथ और सवतंत थी इसिलए उसके पित लोगों में एक ज़बरदसत िवशसनीयता थी जबिक वत्यमान में मौजूद िसिवल सोसाइटी िकसी न िकसी राजनीितक दल की िवंग/शाखा की तरह काय्य करती है, ऐसे में इसकी िवशसनीयता में िगरावट आई है।38 तीसरा, पहले िसिवल सोसाइटी के पास कु शल नेततृ व व संगठनातमक कमता थी परं तु आज के िसिवल सोसाइटी के पास दोनों का अभाव देखा जा सकता है।39 चौथा, पहले इलाक़े में काय्यरत सभी िसिवल सोसाइटी के बीच आपसी एकता व तालमेल िदखाई पड़ती थी जबिक वत्यमान में इसका साफ़ अभाव देखा जा सकता है। अ भावी आपिा बंधन राहत व पुनवा्यस िवभाग के िजममे पहले बाढ़ िनयंतण होता था, परंतु सन् 2005 के आपदा पबंधन ऐकट के बाद यह िज़ममेदारी आपदा पबंधन िवभाग पर आ गई है। नाम पररवत्यन देखकर ऐसा जान पड़ता है मानो इन िवभागों की काय्यशल ै ी बहुत सुधर गई हो। परंतु यिद कोई पूछे िक इनकी काय्यशल ै ी में िकतना बदलाव आया है तो इसका शायद ही कोई समुिचत उतर दे पायेगा (िमश 2009)। बहरहाल ररिविजट महानंदा के िसलिसले में हम जब शोध फ़ीलड पर जाते हैं तो देखते हैं िक अब आपदा पबंधन ऐकट 2005 व राष्ीय आपदा पबंधन नीित 2009 के अंतग्यत बाढ़ को एक ‘आपदा’ करार देते हुए उसके कु शल िनवारण का दावा पसतुत िकया जाता है। महानंदा बेिसन के इलाक़े में आज़मनगर, पाणपुर, कदवा, मिनहारी, अमदाबाद, बरारी पखंड में हजारों की तादाद में लोग-बाग बाढ़, निदयों से होने वाले कटाव के कारण िवसथापन की समसया का सामना कर रहे हैं। (िमश 1994 1999; झा 2015 2020)। महानंदा बेिसन के बेलदं ा गाँव (कदवा बलॉक) िनवासी धिनया देवी (46) ने िवसथापन के दंश को इस रूप में वयक्त िकया है हमारा पूरा पररवार िवसथािपत हो गया है। हमारा घर-दार, खेत-खिलहान सभी पानी में डू ब गया। हमारे पास आजीिवका का कोई और साधन नहीं है। कभी कभी सरकारी राहत सामगी के तौर पर हमें चूड़ागुड़ िमल जाता है, परंतु अकसर हमें भूखे सोना पड़ता है। ग़ौर करने योगय बात यह है िक िवसथािपत लोग-बाग को अनेक समसयाओं से जूझना पड़ता है जैसे घर से िवसथापन, भूिम से िवसथापन, बेरोजगारी, हािशयाकरण, साथ असुरका 38 हमने देखा िक वत्यमान में काय्यरत बहुत सारी िसिवल सोसाइटी इसे आधार बनाकर अपने िवधानसभा केत में वाड्य मेंबर व िवधायक का चुनाव भी लड़ने की तैयारी में हैं. 39 वत्यमान में मौजूद िसिवल सोसाइटी कु शल नेततृ व के अभाव में एक वयविसथत रोडमैप का अभाव है, यही कारण है िक न तो िनयिमत रूप से धरना-पदश्यन का ही आयोजन होता है और ना ही सथानीय लोगों के िलए जागरूकता िशिवर आिद का ही आयोजन होता है. 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 321 िर महानंदा बे सन : बाढ़, बाँध ि रा नी ि | 321 आिद िजसे िमशेल एम. कािन्यया (2007) ने रे खांिकत िकया है। कािन्यया दारा रे खांिकत सभी समसयाओं में अपने शोध सथल में हमने यह भी देखा है िक एक और समसया िदखाई पड़ती है − वह है मिहला की सुरका का। िवसथािपत पररवार में मिहलाएँ काफ़ी असुरिकत महसूस करती हैं उनहें उसे असामािजक ततवों व पुिलस पशासन की पताड़ना का सामना करना होता है। समग रूप से देख,ें तो राजय अपने पुिलस तंत व सथानीय मािफ़या के सहयोग से बाँध पर असथायी रूप से रह रहे िवसथािपत लोगों को खदेड़ता है, हाथापाई करती है एवं उनके असथाई िनवास को तोड़ती है। यह ऐसा वासतिवक चेहरा है जो राजय के आपदा पबंधन के दावों पर सवािलया िनशान खड़ा करता है। आपदा पबंधन से जुड़ा दूसरा पमुख मुदा पुनवा्जस से जुड़ा है। िबहार आपदा पबंधन के अंतग्यत पुनवा्यस संबंधी सपष पावधान करते हुए कहा गया है िक ‘बाढ़ जैसी िकसी आपदा से अगर कोई पररवार िवसथािपत हुआ है तथा जो गरीबी रे खा के नीचे जीवन वयतीत कर रहा है, उसका घर बाढ़ से कितगसत हुआ हो अथवा जलमगन हो गया हो, उसकी पहचान सव्यपथम की जाए एवं उनहें पुनवा्यिसत िकया जाए। इसमें यह पावधान है िक पभािवत पररवार को सरकारी ज़मीन से 4 डेसीिमल ज़मीन पदान िकया जाए (आपदा पबंधन ऐकट 2005, िबहार सरकार; 2007)। फ़ीलड वक्य के दौरान जललाहरे रामपुर गाँव की िनवासी और सव सहायता समूह में काय्यरत मीना देवी (55) के अनुसार, हमारे गाँव में 2008 की बाढ़ में क़रीब 40 घर जलपलािवत हो गए। तब से सथानीय लोग बाँध पर बहुत मुिशकलातों में रहते हैं। 10 साल बाद भी हमें पुनवा्यस की ज़मीन आवंिटत नहीं की गई है। गाँव के िवसथापन व पुनवा्यस के मुदों को लेकर लगातार िज़ला पशासन के दफतर के चककर काटती रहती हू।ँ एक िदन मुझे कलेकटर साहब से िमलने का मौक़ा िमला उनहोंने मुझे डाँटते हुए कहा – आपको और कोई काम नहीं है घर में। आप हर िदन यहाँ कयों चली आती हैं, कया आप बाढ़ पीिड़तों के िलए मुक़दमा लड़ रही हैं। उनहोंने हमें बहुत हतोतसािहत िकया। हम ऐसे पशासन की उममीद नहीं कर रहे थे। महतवपूण्य बात है िक हमने अनय लोगों से भी बात की, िजससे हमें यह जानकारी िमली िक के वल 20-25 पररवारों को पुनवा्यस िमला। परं तु पुनवा्यस के वल उनहें ही िमला जो उचच जाित के साथ तथा सथानीय राजनेता व पशासन के बहुत क़रीबी थे। इससे साफ़ पता चलता है िक सथानीय पशासन आम लोग-बाग के पित िकतना अमानवीय और असंवेदनशील हो गया है। और बाढ़ की राजनीित में यह पक बहुत ही अहम है। बाढ़ पबंधन संबंधी तीसरा मुदा राहत से संबंिधत है। राजय सरकार आपदा पबंधन संबंिधत इस नीित के तहत आपदा से पभािवत पतयेक पररवार को 6000 रुपया राहत रािश के रूप में देने का पावधान है। वहीं िजस पररवार का घर पूण्य रूप से या आंिशक रूप से बाढ़ से पभािवत हुआ है उसे 95,100 पित पररवार देने का पावधान िकया गया है ( आपदा पबंधन ऐकट, 2005)। परं तु फ़ीलड वक्य के दौरान हमने देखा िक इस काय्य के िवतरण में वयापक धाँधली िदखाई पड़ती है। 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 322 322 | िमान राहत सामगी के बँटवारे में सथानीय पंचायती राज की संसथाओं की भूिमका महतवपूण्य होती है। ऐसे में गाँव के मुिखया, सरपंच व सथानीय पशासन की िमलीभगत से भ्रषाचार और फलता-फू लता है। सथानीय पशासन यािन बीडीओ व सीओ मुिखया, सरपंच व वॉड्य सदसय से राहत सामगी के िलए अह्यत लोगों की सूची माँगते हैं। मुिखया व सरपंच सथानीय लोगों से इसके बदले घूस माँगते हैं। आज़मनगर बलॉक िनवासी माखन लाल राय (30) के अनुसार, इस सूची में नाम डलवाने के िलए मुिखया और सरपंच पीसी (परसेंटेज) माँगते हैं। वह कहते हैं िक उनहें ही 6000 रुपये की रािश िमलेगी जो 500 रुपया देगा। जब हम इसका कारण पूछते हैं तो वह बोलते हैं िक ‘अरे ये तो मुफत का माल ही िमल रहा है तुमको। 500 दे दोगे तो कया होगा।’ बेलंदा िनवासी सजजन मंडल के अनुसार यिद आप घूस नहीं देंगे तो आपका नाम सूची से काट िदया जाता है भले ही आप कयों न सबसे अिधक ज़रूरतमंद हों। और उनका नाम सूची में डाल िदया जाता है िजसने उनहें घूस िदया है। सथानीय लोगों से बातचीत करने पर यह भी पता चला िक जो रपट आपदा पबंधन की रािश के बँटवारे , राहत व सामगी के नाम पर तैयार की जाती है वह के वल रसमआदायगी होती है। बहुत गुससे में सथानीय िनवासी उिदत कु मार (30) ने कहा िक ‘ये बस सरकारी फ़ाइलों की पेट भरने के िलए बनाया जाता है’। IV. वैक क बाढ़ नी ि की ज़ररि महानंदा बेिसन में िकए गए िवसतृत शोध व ररिविजट के आधार पर यह कहा जा सकता है िक बाढ़ संबंिधत उपलबध पररपेकय अथवा जानमीमांसा से अलग एक वैकिलपक बाढ़ नीित की आवशयकता है। इस वैकिलपक बाढ़ नीित की संकलपना में सथानीय जान व सहभािगता की अहम भूिमका है (चेंबर 1997 ; सकॉट 1998 ; सेन 2000)। महतवपूण्य रूप से वैकिलपक बाढ़ नीित की संकलपना इस बात पर बल देती है िक राजय दारा पेररत हाइडोलॉिजकल पिविध, बाढ़ िनयंतण व पबंधन, आपदा पबंधन नीितयाँ इतयािद िबना सथानीय जान के अधूरी व एकांगी हैं। दूसरे शबदों में, पसतािवत वैकिलपक बाढ़ नीित की संकलपना बाढ़, बाँध संबंधी िसिवल इंजीिनयररं ग समझबूझ व जानमीमांसा के साथ सथानीय समझ व िचंतन के संवाद को परम आवशयक बताता है। राजय व लोग-बाग के जानमीमांसा में संवादहीनता को कोसी बाढ़ के समय रे खांिकत करते हुए अनुपम िमश ने सामियक वाता्ज (2008) में पकािशत अपने लेख ‘तैरने वाला समाज आज डू ब रहा है’ में कहते हैं िक ‘कोसी बाढ़ के वकत राहत काय्य के िलए खाना बाँटने, खाने के पैकेट िगराने में जो हेलीकॉपटरों का इसतेमाल िकया गया उसमें चौबीस करोड़ रुपये का ई ंधन ख़च्य करके दो करोड़ रुपये की रोटी-सबज़ी बाँटी गई थी। जयादा अचछा यह नहीं होता िक इस इलाक़े में चौबीस करोड़ के हेलीकॉपटरों के बदले बीस हज़ार नावें तैयार रखते और मछु आरे , नािवकों, मललाहों को इस काय्य से जोड़ते, जो निदयों की गोदी में पला-बढ़ा समाज है।’ इससे कम 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 323 िर महानंदा बे सन : बाढ़, बाँध ि रा नी ि | 323 लागत में बेहतर राहत काय्चों का िवतरण िकया जा सकता था। ग़ौरतलब है िक वैकिलपक बाढ़ नीित की संकलपना की वैचाररक पृषभूिम में िवकासवादी सािहतय में िवशेष दख़ल रखने वाले िवदानों मसलन गैरेट हािड्यन40 (1968), एिलनर ओस्म41 (1990) व राबट्य चेंबर42 (1997) के िवचार समािहत हैं। इस पकार यह संकलपना िनमनिलिखत पमुख िबंदओ ु ं को रे खांिकत करती हैं – पथम, बाढ़ िनयंत्रण के सथान पर बाढ़ ्बंधन पर बल – वैकिलपक बाढ़ नीित की संकलपना, अमेररकी िवदान िफिलप डबलयू िविलयमस43 के िवचारों को आगे बढ़ाते हुए ऐसी मानयता पसतुत करती है िक पूण्य रूप से बाढ़ िनयंतण एक आदश्यवादी व कलपनालौिकक सोच है, इसिलए इसके सथान पर बाढ़ ्बंधन पर बल िदया जाना चािहए। बाढ़ पबंधन के अंतग्यत बाढ़ के साथ चलने वाली पररवहन पणाली, सकू ल व संचार पणाली को गितमान करने पर बल िदया गया है। महतवपूण्य है िक उतर-औपिनवेिशक राजय ने भी आज बाढ़ पबंधन पर िवशेष फ़ोकस िकया है, ऐसे में देखना लािज़मी होगा िक राजय दारा पेररत बाढ़ पबंधन की पूरी मुिहम में लोक सहभािगता व िवके नदीकण की िकतनी कोिशश की जाती है। कयोंिक िबना लोकसहभािगता के बाढ़ पबंधन संबंधी पयास एकांगी होगा। दूसरा, छोटे तकनीक या इंटरमीिडएट तकनीक पर ख़ास जोर – वैकिलपक बाढ़ नीित की संकलपना तकनीक िवरोधी नहीं है वरन् ज़मीनी ज़रूरतों के अनुरूप बड़े तकनीक के सथान पर छोटे तकनीक के पयोग की िहमायती है। महानंदा बेिसन के इलाक़े में िवशेष रूप से नागररक समाज व सथानीय लोग ररवर साइड से कं ्ी साइड की तरफ़ अितररक्त पानी के हसतांतरण व जलजमाव की समसया के रोकथाम के िलए तटबंधों पर सलुईस गेट जैसे लघु तकनीक को अपनाने की माँग लगातार कर रहे हैं। ऐसे में वैकिलपक बाढ़ नीित की संकलपना में लघु तकनीक का िवशेष सथान है। तीसरा, बाढ़ िनयंत्रण संबंधी ग़ैर-संरचनातमक उपायों मसलन, वॉटरशेड की रका व उसे क़ायम रखना, कै चमेंट एररया इम्ूवमेंट, बाढ़ पूव्ज चेतावनी ्णाली व फ़्ड फ़ोरकॉिसटंग तकनीक पर बल − वैकिलपक बाढ़ नीित राजय दारा सदैव से पोतसािहत संरचनातमक उपायों के सथान पर उपरोक्त ग़ैर-संरचनातमक मानकों पर बल देता है। एवं वैिशक सतर पर इससे जुड़े सफल पयोगों को आतमसात करने की भी बात करता है, तािक बाढ़ से होने वाले भीषण नुक़सान को कम िकया जा सके । चौथा, वैकि्पक बाढ़ 40 गैरेट हािड्यन (1968) पाकृ ितक संसाधनों के पबंधन पर राजय के अतयिधक िनयंतण के धुर िवरोधी माने जाते हैं. ओस्म का मानना है िक पाकृ ितक संसाधनों के पबंधन में सथानीय समुदायों को अतयिधक शिक्त पदान की जानी चािहए. िवसतार से देखें (ओस्म 1990). 42 राबट्य चेंबर का िवशास है िक िविशष पररिसथितयों में संसाधनों के समुिचत पयोग की सबसे बेहतर समझबूझ सथानीय समाज को होती है, िवसतार से देखें (चेंबर 1997). 43 िफ़िलप डबलयू. िविलयमस (1999) ने अमेररका में िमिसिसपी िमसौरी नदी में 1993 में आई बाढ़ के िवशेष संदभ्य में बाढ़िनयंतण की सीमाओं को रे खांिकत करते हुए कहा िक बाढ़ िनयंतण पूण्य रूप से संभव नहीं है, इसिलए इसके सथान पर बाढ़ के पानी के उिचत पबंधन पर फ़ोकस करना चािहए. 41 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 324 324 | िमान नीित नवपरं परावादी दृि्टिकोण को सवीकारते हुए ररवाइवल ऑफ़ डाइंग िवज़डम44 की अवधारणा के अंतग्यत पोखर,45 छोटी नदी,46 तालाब जैसे परं परागत जल सोतों व ज़नरे 47 जैसे सांसकृ ितक गीतों को पुन: जीिवत करने पर बल देता है। पाँचवाँ, वैकि्पक बाढ़ नीित के अंतग्जत समावेशी आपदा ्बंधन नीित की संभावनाओं को ्ोतसािहत करने पर ज़ोर िदया गया है। 2005 के बाद बाढ़ को एक आपदा मानते हुए उसके पबंधन की िज़ममेदारी राजय के ऊपर है। परं तु सथानीय लोगों व सथानीय जानमीमांसाओं की सहभािगता के िबना, आपदा पबंधन नीित को समावेशी नहीं बनाया जा सकता है। और जब तक यह समावेशी नहीं बनेगा तब तक बेहतर िनषपादन की उममीद करना बेमानी होगी।48 समावेशी आपदा पबंधन के अंतग्यत बाढ़ के पूव्य, बाढ़ के दौरान व बाढ़ के उपरांत की पिकयाओं में राजय के साथ-साथ सथानीय समूहों, िसिवल सोसाइटी की समग सहभािगता होगी। न र्ष सपषत: महानंदा बेिसन के केत में राजय दारा पेररत हाइडोलॉिजकल नज़ररये या जानमीमांसा को िवशेष महतव िदये जाने के कारण ही यह इलाक़ा पलयकारी बाढ़ से पभािवत रहा है। राजय ने रणनीितपूवक ्य बाढ़ पबंधन संबधं ी सथानीय समझबूझ को पुअस्ज मैन िवजडम यािन ग़रीब गुरबों की बुिर क़रार देते हुए नज़रअंदाज़ िकया है। फलत: िदनेश िमश (1994 1999) दारा महानंदा बेिसन के इलाक़े में िकए गए शोध में िजन-िजन गाँवों की बाढ़ की कहानी को पसतुत िकया गया था, वह गाँव अब नदी में िवलीन हो चुकी है, छोटी निदयाँ ज़मींदोज़ हो रही हैं, िकसान आज िदहाड़ी मज़दूर बन गया है, ररवर साइड के लोग-बाग कटे तटबंधों को बाँधने नहीं दे रहे हैं, िसिवल सोसाइटी राजनीित पेररत हो गई है, गेहू-ँ चावल से मकई की तरफ़ िकसानी का पैटन्य बदल चुका है, बाढ़ िनयंतण व पबंधन के नाम में आपदा पबंधन की शुरुआत हो 44 ग़ौरतलब है िक नवपरं परावाद िजसकी नुमाइंदगी गॉडिगल व गुहा करते हैं, ने नवपरं परावाद के अंतग्यत तीन िबंदओ ु ं को रे खांिकत िकया है, क) राजय की परं परागत भूिमका की समीका करते हुए उसके साथ िसिवल सोसाइटी व संपणू ्य समाज के संबंधों को मज़बूत बनाने पर बल ख) नदी, तालाब, व बाढ़ संबंधी सामुदाियक समझ व नज़ररये को और मजबूत बनाना ग) िवलुप हो रहे जान परं पराओं को िफर से जागत करने पर बल (अगवाल व नारायण 1996). 45 िबहार के बाढ़ पभािवत इलाक़े में पोखर व तालाब संसकृ ित का जाल िबछा हुआ था. 20 वीं शताबदी के पूवा्यर्य में िबहार में तालाबों की संखया 50,000 से जयादा थी और उसमें आधे से अिधक मानव िनिम्यत थे. पोखर-तालाब के कारण ही िमिथलांचल-सीमांचल में पग पग पोखर पान मखान कहावत बहुत लोकिपय है. िवसतार से देखें झा (2016). 46 ररिविजिटंग महानंदा बेिसन के दौरान हमने पाया िक महानंदा नदी की बहुत सारी सहायक छोटी निदयाँ िवलुप हो चुकी हैं. वहीं बहुत सारी इसके कगार पर हैं. 47 िबहार में बाढ़ पभािवत इलाक़ों में जब तटबंध और बाँध नहीं बने थे तब वहाँ के लोकजीवन में ज़नेर खेलना और ज़नेर गीत के गाने का खासा महतव था. ज़नेर लोगों के बीच लोक-साहचय्य, सामािजक पूँजी और सामुदाियक सहभािगता का अदु त रूपक के तौर पर सथािपत था. कोसी, कमला-बलान, बागमती और महानंदा के इलाक़े में ज़नेर की पथा को सथानीय ज़ुबान में िझंिझर, झझेर, कसतीखोरी या कसतीबाज़ी भी कहा जाता था. 48 फ़ीलडवक्य के दौरान की गई िवसतृत बातचीत से यह जात हुआ है आपदा पबंधन नीित के संदभ्य में अभी भी सथानीय गामीण लोग-बाग को िवशेष पता नहीं है. ऐसे में जागरूकता के अभाव में इसमें जनसहभािगता का साफ़़ अभाव देखा जा सकता है. 11_pankaj_dinesh update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:19 Page 325 िर महानंदा बे सन : बाढ़, बाँध ि रा नी ि | 325 चुकी है िजसका अब तक का िनषपादन बहुत उतसाहवध्यक नहीं रहा है। समग रूप से, राजय काइिसस ऑफ़ गव्यनिै बिलटी के संकट से गुज़र रहा है। ऐसे में िनिशत तौर पर उपरोक्त दोनों पकार के नज़ररये या जानमीमांसा का उिचत तालमेल करते हुए एक वैकिलपक बाढ़ पबंधन की नीित की अदद आवशयकता है िजसपर राजय को गंभीरतापूवक ्य पहल करनी चािहए। संिभ्ष अनुपम िमश (1995), आज भी खरे हैं तालाब, गाँधी शांित पितषान, नई िदलली. ________ (2008), ‘तैरने वाला समाज आज डू ब रहा है’, सामियक वाता्ज, नई िदलली. आिशस नंदी (1988), साइंस, हेजेमनी ऐंड वायलेंस, अ रे िकवअम् फ़ॉर मॉडिनट्टी, ऑकसफ़ड्य युिनविस्यटी पेस, नई िदलली. ________ (2012), द रोमांस ऑफ़ द सटेट, ऐंड द फे ट ऑफ़ िडसेंट इन द टॉिपकस, ऑकसफ़ड्य युिनविस्यटी पेस, नई िदलली. इिमतयाज़ अहमद (1999), ‘गवन्नेंस ऐंड फलड् स’, सेिमनार, 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वृिद पर कें िदत रही है और सफल भी रही है। इन नीितयों के 1 माितसयकी अथावात् जलीय खाद जीवों का संगहण और पालन.यहाँ हम मछली पकड़ने अथवा मािछमारी के कायवा को संगहण के नाम से पुकारते हैं. यहाँ समुद माितसयकी का तातपयवा समुद से पाप्त िकए जाने वाले खाद जीवों से है िजसका संगहण मछु आरे करते हैं. यह गितिविध एक वयवसाय के रूप में िवकिसत है तथा संपणू वा िवश में 59.6 िमिलयन लोग माितसयकी तथा इससे संबंिधत वयवसाय से जीवनयापन कर रहे हैं. भारत में 14 िमिलयन लोग पतयक अथवा अपतयक रूप से माितसयकी से जुड़े हैं. पिशम भारतीय लोकभाषाओं में मछु आरा के िलए माछीमार, माछी अथवा मछु आ शबदों का पचलन है. ि िध संधान हा िए का अ 12_subodh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:22 Page 328 328 | िमान फलसवरूप ढाँचागत िवकास के साथ-साथ बड़ी नौकाओं तथा उतकृ ष्ट उपकरणों व तकनीकों का आगमन हुआ है, िजससे उतपादकता में बढ़ोतरी हुई है। इस हेतु िविभनन सोतों से भारी िनवेश भी हुआ है। अगर योगदान की बात करें तो पारं पररक रूप से माितसयकी में पुरुषों का एकािधकार दशावाया जाता रहा है, लेिकन वासतिवकता यह है िक मिहलाओं के िबना यह केत अधूरा है। माितसयकी तथा जलकृ िष (ऐकवाकलचर) में मिहलाएँ हमेशा से उपेिकत रही हैं तथा इनके योगदान को उिचत पहचान नहीं िमली है। भारतीय तटीय राजयों के मछु आरा समाजों में मिहलाओं का योगदान काफ़ी वृहत एवं महतवपूणवा है। माितसयकी में पूववा-संगहण, संगहण से लेकर संगहणोतर कायवािविधयों2 तक के तमाम अनुभागों में इनकी भूिमका पुरुष समककों की तुलना में काफ़ी िविवधता से भरा है। वे माितसयकी के लगभग सभी पारूपों एवं गितिविधयों में सिकयता से लगी रहती हैं। तथािप समाज में पूववा वयाप्त िपतृसतातमक वयवसथा एवं लैंिगक भेदभाव के फलसवरूप, िजसका आधार ही हमारी सामािजक वयवसथा है, इन मिहलाओं को समुदाय के भीतर एवं बाहर िविभनन सतरों पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। यही नहीं, राष्ीय सह वैिशक माितसयकी में मिहलाओं के पयासों को बेहद िनमन तौर पर दशावाया एवं सवीकार िकया जाता रहा है। एक परं परागत तथा छोटे पैमाने के वयवसाय मात से आगे बढ़कर माितसयकी के आज एक िवकिसत उदोग (मतसयोदोग) के रूप में सथािपत होने की याता में मिहलाओं को कभी भी पयावाप्त शेय नहीं िदया गया। बढ़ती हुई वैिशक माितसयकी अथवावयवसथा में उनके योगदान को कभी पयावाप्त रूप से दशावाया नहीं गया है। सेन एवं गोन (1987) के अनुसार दिकण एिशया में आिथवाक िवकास ने मिहलाओं, िवशेषतः ग़रीब तथा हािशए पर की मिहलाओं की िसथित को सुधारने के बजाय कमज़ोर ही िकया है। पुरुष कें िदत िवकास कायवाकमों के फलसवरूप आई आधुिनक तकनीकों तथा नए वयवसायों से कु छ मामलों में इस वगवा की मिहलाओं का हािशयाकरण ही हुआ है।3 1975 में संयक ु राष् दारा 1960 के दशक में पचिलत पाररभािषक पद ‘िवमेन इन डेवलपमेंट’ (WID) को आिधकाररक रूप से सवीकृ त िकया गया था जो मिहलाओं को िवकास की पिकया में जोड़ने का आहान करता है। वहीं ‘िवमेन ऐंड डेवलपमेंट’ (WAD) िवकास की पिकया एवं मिहलाओं के बीच के पारसपररक संबंधों पर पकाश डालता है और सामािजक असमानता तथा वगवा व िलंग आधाररत शोषण आिद मुदों की पड़ताल करता है। बाद में 1980 और 1990 के दशक की शुरुआत में ‘जेंडर ऐंड डेवलपमेंट’ (GAD) की अवधारणा का उदय हुआ जो िलंग आधाररत शम का िवभाजन और मिहलाओं की उतपादन के संसाधनों तक पहुचँ एवं िनयंतण पर एक समग दृिष्टकोण पर आधाररत समाज की पसथापना करता है। उपरोक सभी धारणाओं पर आधाररत शाखाएँ जैसे ‘िवमेन ऐंड िफ़शरीज़’ (WAF), ‘िवमेन 2 3 िजसे अंगेज़ी में पी-हाव्वेसट, हाव्वेसट तथा पोसट हाव्वेसट गितिविधयाँ कहते हैं. जेनेट रुिबनॉफ़ (1999) : 632. 12_subodh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:22 Page 329 हा िए का अ यन : गुजरात की समु ी मछुआ रन | 329 इन िफ़शरीज़’ (WIF), आिद का पितपादन माितसयकी के केत में मिहलाओं की समसयाओं का िनराकरण करने हेतु िकया गया है। हालाँिक ‘जेंडर ऐंड िफ़शरीज़’ (GAF) को इस आशंका से माितसयकी के केत में पूणरू वा पेण सवीकार नहीं िकया गया िक यह मिहला कें िदत मुदों, मसलन मिहलाओं के िविभनन आिथवाक-सामािजक-सांसकृ ितक बोझों, ग़रीबी के बढ़ते सीकरण और मिहला सशकीकरण की आवशयकता आिद को भटका देगा।4 इन पयासों के उपरांत भी माितसयकी में मिहलाओं की िसथित में अनुकूल सुधार नहीं हुआ है। आिथवाक उदारीकरण के फलसवरूप बीसवीं सदी के अंितम कु छ दशकों में गुजरात तथा अनय राजयों ने पुरज़ोर रूप से आिथवाक एवं औदोिगक सुधारों पर ज़ोर िदया। इन सुधारों का उदोग, रोज़गार और काम के वैिशक सतर पर बदलाव की पिकया में ख़ासा योगदान रहा है।5 आज़ादी के उपरांत अनय उदोगों की तरह मतसयोदोग भी इन सुधारों से अछू ता नहीं रहा और इसमें भी वयापक तौर पर कांितकारी बदलाव हुए। ये बदलाव मुखयतः माितसयकी में आधुिनकीकरण, नई तकनीक, बाज़ार से जुड़ाव, तथा मछु आरा समाजों के बदलते सामािजक-आिथवाक-सांसकृ ितक हालात थे। इन पररवतवानों ने माितसयकी पर गहरे आिथवाक, सामािजक तथा सांसकृ ितक पभाव भी डाले।6 हालाँिक भारतीय माितसयकी में शुरुआत (बीसवीं सदी के मधय से) से हुए पररवतवान उतपादन वृिद से ही पेररत रहे। बाद के दशकों में िवशेषतः नव उदारवाद के दौर में जब िनयावात आधाररत वृिद की शुरुआत हुई तब भारतीय माितसयकी का मुखय आकषवाण मुनाफ़ा वृिद की तरफ़ कें िदत हो गया। इस पिकया में औदोिगक पूँजीवाद जब माितसयकी में अपनी 4 एम.जे. िविलयमस (2011) : 06. इंिदरा िहरवे तथा अनय (2002) : ix. 6 डेरेक जॉनसन (2001) : 1095-1097+1090-1102. 5 12_subodh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:22 Page 330 330 | िमान उपिसथित दजवा करने लगा तब छोटे सतर7 के मछु आरे , िजनका जीवनयापन रोज़ के मतसय संगहण पर आधाररत था, हािशए की तरफ़ जाने लगे। एक बड़ी आबादी, जो सीधे तौर पर इन पाकृ ितक संसाधनों पर िनभवार थी, उनके िहत मुटीभर पूँजीवादी उदोगपितयों के सामने बौने पड़ने लगे। अतः बढ़ते उतपादन तथा मुनाफ़े की क़ीमत आज इन छोटे सतर के मछु आरों को चुकानी पड़ रही है जो अपनी आजीिवका के अिधकारों के िलए संघषवा कर रहे हैं तथा अपने सांसकृ ितक एवं पारं पररक पेशे से िवसथािपत हो रहे हैं। आज़ादी के उपरांत, ख़ासकर 1990 के बाद उदारीकरण के दौर में, जहाँ चारों तरफ़ औदोगीकरण की होड़ मची है, गुजरात के समुद तटीय केत इन गितिविधयों से अछू ते नहीं रहे हैं। आज गुजरात में देश के वयसततम बंदरगाह, बड़ी ररफ़ानरी, िवदुत संयंत तथा अनेक िवशाल औदोिगक पितषान हैं जो समुद तट पर िसथत हैं। इन तटों पर कई औदोिगक शहर बसाए गए हैं। इन शहरों तथा औदोिगक पितषानों से उतपनन हुए ख़तरों तथा समसयाओं का सीधा असर तट पर बसे समुदायों पर पड़ा है। उनकी आजीिवका पर असर तो पड़ा ही है साथ ही अनेक सवास्य समसयाएँ भी पैदा हुई हैं। उदोग जिनत पदूषण के कारण संगहण पर भी असर हो रहा है िजससे आजीिवका संबंिधत ख़तरे उतपनन हो गए हैं। गुजरात के तटीय इलाक़ों में वषवा 2017 से 2019 के दौरान पजाित लेखन पदित से एकितत की गई जानकारी के आधार पर पसतुत शोधपत माितसयकी के उस महतवपूणवा िहससे को दशावाने का पयास करता है िजसकी पायः कोई चचावा नहीं होती है − यह महतवपूणवा िहससा मछु आरा समुदाय की मिहलाएँ हैं। आज के बदलते वैिशक पररदृशय में, जहाँ माितसयकी के सवरूप में लगातार पररवतवान हो रहा है, यह शोधपत िववेचनातमक दृिष्ट से मिहलाओं की वतवामान िसथित को दशावाने का पयास करता है। वैचा रक द कोण तथा शोध या व ध यह शोध आलेख गुजरात के समुदतटीय समुदायों में मिहलाओं की िसथित तथा हो रहे बदलावों को समालोचनातमक सबॉलटनवा पररपेकय के दारा िवशे षण करने की कोिशश करता है। साथ ही यह आलेख वैचाररक समझ के िलए नारीवादी, पितचछे दन तथा पॉिलिटकल इकॉनमी दृिष्टकोणों का समान रूप से अनुसरण करता है। 7 छोटे सतर अथवा पैमाने की माितसयकी िजसे अंगज़े ी में समॉल सके ल िफ़शरीज़ (SSF) कहते हैं, मछली पकड़ने तथा इस गितिविध से जीवनयापन का एक परं परागत तरीक़ा है िजसे हमारे देश के मछु आरे सिदयों से करते आ रहे हैं. समय की ज़रूरत के साथ-साथ यह पाथिमक गितिविध एक वयवसाय में पररणत होती चली गई. मोटे तौर पर यह मछु आरों के िलए जीवन जीने की एक कला है तथा इससे पाप्त होने वाले उतपादों की खपत घरे लू सतर पर होती है अथवा सथानीय सतर पर उसकी िबकी होती है. बड़े सतर की माितसयकी िजसे अंगेज़ी में लाजवा सके ल िफ़शरीज़ कहते हैं, एक पूणतवा ः िवकिसत तथा वयापाररक पदित है िजसमें तकनीकी माधयमों के दारा भारी माता में संगहण होता है. यह पूँजीवादी तथा बाज़ार आधाररत वयवसाय है जहाँ घरे लू सहयोग की कम गुंजाइश रहती है.यह वयवसाय कु शल कामगारों के दारा संचािलत होता है. गुजरात में मुखयतः यह एक िनयावात आधाररत वयवसाय है. 12_subodh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:22 Page 331 हा िए का अ यन : गुजरात की समु ी मछुआ रन | 331 शोध प्रणाली : पसतुत आलेख मूल रूप से गुजरात कें दीय िवशिवदालय में मेरे पीएचडी शोध पर आधाररत है जो एक अनवेषणातमक शोध था। इस शोधकायवा हेतु गुजरात के समुदतटीय इलाक़ों में वषवा 2017 से 2019 के बीच आविधक अंतरालों पर जानकारी एकत की गई। मुखयतः यह एक पजाित लेखन पदित आधाररत फ़ीलडवकवा था िजसमें गुजरात के 1600 िकलोमीटर लंबे समुद तट पर बसे गाँवों को केतकायवा की सुगमता हेतु तीन मुखय केतों में बाँटा गया − दिकण गुजरात, सौराष् तथा कचछ। तीनों केतों के िविभनन सथलों, जैसे मछु आरा बिसतयों, अवतरण कें दों, सथानीय मछली बाज़ारों तथा अनय संबंिधत सथलों पर मछु आरा समुदाय की मिहलाओं तथा पुरुषों से साकातकार, बातचीत, गहन पयवावेकण एवं फ़ोकसड गुप िडसकशन (FGD) दारा जानकारी एकितत की गई। इसके अितररक अनय ग़ैर मछु आरा मतसय कामगारों, सथानीय सामािजक कायवाकतावाओ,ं ममवाजों, िवशेषजों, माितसयकी अिधकाररयों, तथा बुिदजीिवयों से िवषयवसतु पर सपष्टता हेतु चचावाएँ की गई ं। केतकायवा के सथलों का िववरण इस पकार है : 1. तीथल, नानी दांती, मगोद डू ंगरी, तीथल िदवादांडी, उमरगाम तथा देहरी (वलसाड िज़ला) 2. धोलाई, खपरवाडा माछीवाड़, नवसारी मछली बाज़ार (नवसारी िज़ला) 3. भाडभुत, भरूच मछली बाज़ार, भरूच शहर (भरूच िज़ला) 4. वेरावल, िभिड़या, चोरवाड़, जलेशर गाँव, वेरावल मछली बाज़ार, पुराना लाइट हाउस, िभिड़या बड़ा मछली बाज़ार, वेरावल मतसय पसंसकरण कारखाना केत (गीर सोमनाथ िज़ला तथा जूनागढ़ िज़ला) 5. मोटा सलाया, मांड़वी, मुदं ा, लूनी, भदेशर (कचछ िज़ला) पयवावेकण के दौरान पयास रहा है िक ज़मीनी सतर की जानकारी पाप्त हो सके । अतः समाज िवजान में पचिलत ‘एिमक’ दृिष्टकोण को धयान में रखते हुए केतकायवा िकया गया है। इस पिकया में सथानीय मछु आरों तथा कामगारों के दृिष्टकोण, समझ तथा उनकी अनुभिू त को धयान में रखते हुए जानकारी एकत की गई है। गुजरात : समु मा Sक एवं मछुआरे अरब सागर के 1600 िकलोमीटर लंबे तट पर िसथत पिशम भारतीय राजय गुजरात समुद माितसयकी उतपादों का आज सबसे बड़ा उतपादक और िनयावातक बन गया है। यहाँ 2.14 लाख वगवा िकलोमीटर का िवशेष आिथवाक केत8 है जो माितसयकी गितिविधयों के िलए बेहद महतवपूणवा है। िवभागीय आँकड़ों के अनुसार भारत में वषवा 2019-20 में कु ल समुद माितसयकी संगहण 37.27 लाख टन रहा, िजसमें गुजरात का योगदान 7.01 लाख टन था।9 यहाँ कु ल 14 तटीय िजले एवं 37 तालुक़े हैं। समुद माितसयकी जनगणना 201010 के अनुसार राजय के 8 एकसकलूिसव इकॉनॉिमक जोन (EEZ). माितसयकी िवभाग (2020) : 08. 10 जो मछु आरों की जनसंखया संबंिधत आँकड़ों का अब तक का सबसे नवीनतम सोत है. 9 12_subodh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:22 Page 332 332 | िमान 247 समुद तटीय गाँवों में क़रीब 3.36 लाख मछु आरे (लगभग 62 हज़ार पररवार) िनवास करते हैं। इनमें से 96 पितशत परं परागत मछु आरे समुदाय से हैं तथा क़रीब 25 पितशत लोग ग़रीबी रे खा के दायरे में गुज़र-बसर कर रहे हैं। लगभग 44 पितशत लोगों ने िविभनन सतरों की िशका पाप्त की है। इन सभी िज़लों में 75 पितशत मछु आरे िहंदू हैं तथा अनय िपछड़े वगवा से हैं। मात 6 पितशत मछु आरे अनुसिू चत जाित तथा अनुसिू चत जनजाित के हैं।11 जबिक अनय राजयों में अनुसिू चत जाित तथा अनुसिू चत जनजाित समुदाय के मछु आरों का पितशत गुजरात की तुलना में अिधक है। उतर में लखपत (कचछ) से लेकर दिकण में उमरगाम (वलसाड) तक के समुद तटवत्ती केत में मुखय रूप से कोली, खारवा, मिछयारा, माछी, टंडेल, मुगैना, मांगेला, हलपित, िमतना, और वाघेर जाित के मछु आरे बसे हैं जो मूलतः समुद में मछली पकड़ने के पेशे में लगे हुए हैं। तटों पर बसे इन समुदायों के िलए मछली पकड़ना एक मुखय आिथवाक गितिविध, जीवनयापन का ज़ररया, और एक परं परागत पेशा है, िजसे ये सिदयों से करते आ रहे हैं। मछली पकड़ने के अलावा तट पर रहने वाले समुदाय अनय ग़ैर-माितसयक गितिविधयों से भी अपना जीवनयापन करते हैं, जैसे- खेती तथा खेतों में मज़दूरी, पशुपालन तथा डेयरी, नमक उतपादन, िदहाड़ी मज़दूरी, कल-कारख़ानों में नौकरी, आसपास के शहरों में छोटे-मोटे काम आिद। भारत सरकार के आँकड़ों के मुतािबक़ गुजरात िपछले कु छ दशकों से भारत में समुदी उतपादों (मतसयोतपाद) का सबसे बड़ा उतपादक एवं िनयावातक बन कर उभरा है।12 गुजरात क मछुआ रने मतसयोदोग अथवा माितसयकी के िवकास के इितहास में मिहलाएँ िनिशत रूप से महतवपूणवा रही हैं। हालाँिक इनकी उपिसथित को मोटे तौर पर नज़रअंदाज़ ही िकया गया है तथा सामािजक-सांसकृ ितक पथाओं और सथािपत सामािजक वयवसथाओं ने हमेशा उनहें पुरुषों से कमतर ही आँका है। गुजरात इन सब से अछू ता नहीं रहा है। यहाँ भी मिहलाओं की िसथित अनय तटीय राजयों की तरह ही है। माितसयकी में मिहलाओं की उपिसथित केत एवं समुदाय आधाररत है। कहीं इनकी उपिसथत नगणय है तो कहीं ततपरता से माितसयकी में सिकय हैं। उदाहरण के तौर पर दिकण भारत के तिमलनाडु तट पर मछु आरा समुदाय की मिहलाएँ समुदी शैवाल इकठा करने के िलए सीधे तौर पर समुद से जुड़ी हैं तथा डु बकी लगाकर शैवालों का संगहण करती हैं। वे माितसयकी के अनय परं परागत काय्यों को िनबटाने के पशात शैवाल संगहण का काम करती हैं। उनके पररवार का जीवनयापन इस वयवसाय पर िनभवार है। वहीं, साधारणतया गुजरात की मछु आररनें सीधे तौर पर समुद में मछली पकड़ने नहीं जाती हैं। कु छे क उदाहरणों को छोड़कर 11 12 समुद माितसयकी जनगणना, गुजरात (2010) : 03. माितसयकी िवभाग (2020) : 06. 12_subodh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:22 Page 333 हा िए का अ यन : गुजरात की समु ी मछुआ रन | 333 (िजसका वणवान हम आगे करें गे) यहाँ मिहलाएँ पतयकरूप से मछली नहीं पकड़तीं।13 अतः माितसयकी और मतसयोपादन में मिहलाओं की भूिमका का सामानयीकरण नहीं िकया जा सकता। यह बात गुजरात की मछु आररनों पर भी लागू होती है। यहाँ मछु आररनें िविभनन समुदायों में िविभनन सतरों पर कायवारत हैं। इसके अितररक, आिथवाक रूप से समृद मछु आरा पररवारों की मिहलाओं का जुड़ाव पारं पररक वयवसाय से कम ही है। िफर भी यह कहा जा सकता है िक पररवार-पबंधन में अनय केतों की मिहलाओं की अपेका माितसयकी केत की मिहलाओं का अिधक योगदान रहता है। गुजरात में, ख़ास कर ‘छोटे पैमाने की माितसयकी’ में मिहलाओं की भूिमका ‘बड़े पैमाने की माितसयकी’ की तुलना में अिधक िवसतृत एवं मुखतिलफ़ है। यह भूिमका माितसयकी के केत, समुदाय और पकार पर िनभवार करती है। हालाँिक माितसयकी के पकार, जैसे िक छोटे पैमाने की माितसयकी अथवा औदोिगक माितसयकी के आधार पर िकया गया वग्तीकरण समाज में मिहलाओं की िसथित को जयादा बेहतर तरीक़े से दशावाता है। क) बड़े पैमाने की मा Sकी मे म हलाएँ बड़े पैमाने की माितसयकी को अकसर ‘औदोिगक माितसयकी’ अथवा ‘वयापाररक माितसयकी’ कहा जाता है। माितसयकी जगत में इन तीनों पदों का समानाथवाक पयोग होता है। वसतुतः इस 13 यह कहना अितशयोिक होगा िक मिहलाएँ पतयक रूप से मछली नहीं पकड़तीं. मिहलाएँ हमेशा से छोटे-मोटे जालों तथा अनय पारं पररक उपकरणों दारा िविभनन पकार के जलीय जीवों का संगहण करती रही हैं. कु छ िवशेष पजाितयों के संगहण के िलए डु बकी भी लगाती रही हैं. मिहलाओं के वयावसाियक नौकाओं पर काम करने तथा मछली पकड़ने के पमाण कु छ देशों से िमलते हैं, हालाँिक इनकी संखया बेहद कम है. वासतिवकता यह है िक इन गितिविधयों को लेखनों तथा चचावाओ ं में उिचत व पयावाप्त सथान कभी नहीं िमला. 12_subodh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:22 Page 334 334 | िमान पैमाने की माितसयकी में छोटे पैमाने की तुलना में अिधक माता में उतपादन होता है। बड़ी-बड़ी यंतीकृ त नौकाओं में अतयाधुिनक तकनीक से मछली पकड़ी जाती है। गुजरात में औदोिगक माितसयकी के अनेक बड़े कें द हैं, जैसे वेरावल, पोरबंदर, भरूच, वलसाड और कचछ। यहाँ मछु आरे बड़ी नौकाओं तथा ्ॉलरों से भारी माता में मछली तथा अनय जलीय उतपादों का संगहण करते हैं। इस पकार की माितसयकी में मिहलाओं की भूिमका संगहण के उपरांत के काय्यों तक सीिमत होती है। यहाँ जयादातर कामगार गुजरात तथा अनय राजयों के मछु आरे एवं ग़ैर-मछु आरे समुदाय के पुरुष ही होते हैं। पूववा-संगहण14, संगहण (समुद में मछली पकड़ना) तथा संगहण के उपरांत के काय्यों15 में जयादातर पुरुष ही होते हैं। बहरहाल, बड़े पैमाने की माितसयकी में पूववा-संगहण एवं संगहण के उपरांत के काय्यों में कु छ हद तक मिहलाओं की भी भागीदारी रहती है। उपरोक औदोिगक माितसयकी कें दों में केतकायवा के दौरान मैंने पाया िक बहुत ही कम संखया में मिहलाएँ जाल एवं रससी की मरममत कर रही थीं। सामानय तौर पर हम यह कह सकते हैं िक बड़े पैमाने की माितसयकी में पूववा-संगहण एवं संगहण के उपरांत के काय्यों में मिहलाएँ पुरुषों की मदद करती हैं। संगहण के उपरांत के कायवा जो मछली से भरे नौकाओं के तट पर आने के साथ ही शुरू होते हैं, मिहलाओं की भूिमका िवसतृत रूप से शुरू हो जाती है। इसकी शुरुआत मछिलयों तथा अनय उतपादों की छँ टाई, बफ़वा दारा परररकण, वज़न और पैिकं ग करने से हो जाती है। ये सभी कायवा हाथों से िकए जाते हैं। इसके साथ ही मछली िवके ता का कायवा करने वाली वे तमाम मिहलाएँ और मछु आररनें अवतरण सथलों से अपने िदन की शुरुआत करती हैं। वे यहाँ से अपनी टोकररयाँ और ठे ले भर कर आसपास के गामीण तथा शहरी केतों में भ्रमण करके अथवा एक जगह दुकान लगाकर मछिलयाँ बेचती हैं। अनय मिहलाएँ सैकड़ों की संखया में पररषकरण कें दों तथा कारख़ानों में कायवा करती हैं। इन यांितक तथा हाथों से संचािलत पररषकरण कें दों में उतपादों के कचचे तथा शुषक पररषकरण शािमल हैं। वेरावल तथा पोरबंदर की पररषकरण फ़ै िक्यों में मछु आरा तथा ग़ैर-मछु आरा समुदाय की मिहलाएँ मुखय रूप से कायवा करती हैं और इनकी संखया पुरुष कामगारों की तुलना में अिधक है। यहाँ तक िक सथानीय मछली बाज़ारों को भी मुखय रूप से मिहलाएँ ही संचािलत करती हैं। वेरावल, पोरबंदर, भरूच, वलसाड, मांडवी, आिद समुद तटीय शहरों के सथानीय मछली बाजारों में सूखे तथा कचचे उतपादों की खुदरा िवके ता मिहलाएँ ही हैं। 14 इसमें समुद में जाने से पहले की तैयारी, जैसे रससी बनाना, जाल बुनना, नाव बनाना, दोनों की मरममत करना, ई ंधन, पानी, खाद सामगी, और नौकाओं में बफ़वा भरना आिद मुखय कायवा हैं. 15 जैसे मछली से भरी नौका ख़ाली करना, पूववा-पसंसकरण, छँ टाई एवं शेणीबद करना, सफ़ाई करना, तौलना, िबकी करना, ढुलाई करना, शुषकन, पसंसकरण, जाल से मछली अलग करना, जाल समेटना, जाल की मरममत करना आिद अनेक कायवा. 12_subodh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:22 Page 335 हा िए का अ यन : गुजरात की समु ी मछुआ रन | 335 ख) छोटे पैमाने की मा Sकी मे म हलाएँ छोटे पैमाने का तातपयवा उन परं परागत मछु आरों से है जो महज जीवनयापन के िलए मछली पकड़ते हैं। वे आधुिनक तकनीक का नगणय पयोग करते हुए परं परागत िविधयों दारा मछली पकड़ते हैं तथा संगहण की माता काफ़ी कम होती हैं। इनके उतपादों का उपभोग जयादातर घरे लू व सथानीय सतरों पर ही होता है। इस उपकम में पररवार का योगदान होता है तथा सभी सदसय िमलजुल कर संगहण करते हैं। िवश में सवावािधक परं परागत मछु आरे इसी वगवा से आते हैं। छोटे पैमाने का मतसयन आज वहनीय माितसयकी का मुखय िहससा है तथा मतसय संसाधनों का नयूनतम दोहन करते हुए एक बड़ी जनसंखया को आजीिवका का साधन पदान कर रहा है। बड़े पैमाने की तुलना में छोटे पैमाने की माितसयकी में मिहलाओं की भूिमका जयादा जीवंत है। नौकाओं दारा मछली पकड़ने के िसवाय यहाँ मिहलाएँ सभी पकार के कायवा करती हैं। तथािप मिहलाएँ उन तमाम जलीय-खादों का संगहण करती है िजसमें नौकाओं की ज़रूरत नहीं पड़ती है। उदाहरण के िलए ‘पगिड़या पदित’16, जो कचछ तथा दिकण गुजरात के िछछले समुद तटों, समतल पंक केतों और अंतरजवारीय केतों में पचिलत है, मिहलाएँ बड़ी संखया में योगदान देती हैं। वे िविभनन पकार के जालों का इसतेमाल करते हुए पुरुष मछु आरों के साथ कं धे से कं धा िमलाकर बराबरी से संगहण करती हैं। यहाँ मिहलाएँ समुद के अलावा छोटी निदयों, खाड़ी तथा मुहानों पर वयापक तौर पर काम पर लगी रहती हैं। एक अनय उदाहरण खंभात के खाड़ी केत का है जहाँ भारी माता में लेवटा (मड-सकीपर) मछली का संगहण िकया जाता है। यह पायः समुद तट, खाड़ी, मुहानों तथा छोटेमोटे नालों के कीचड़ केत में पाई जाने वाली पजाित है िजसे जाल अथवा सीधे हाथों से पकड़ा जाता है। इसके संगहण में मिहलाएँ भी समान रूप से लगी रहती हैं जो आजीिवका का मुखय सोत भी है। इसके अितररक तटों के िकनारे के कड़ों तथा घोंघों का संगहण मिहलाएँ करती हैं। माितसयकी केत में वयापक बदलाव के फलसवरूप मिहलाओं की आिथवाक-सामािजक गितिविधयाँ संकुिचत हुई हैं। िनिकता गोपाल (2015) बताती हैं िक यांितकीकरण तथा छोटे व गामसतरीय अवतरण सथलों के बदले बड़े मतसयन बंदरगाहों पर अवतरण गितिविधयों की बढ़ोतरी के फलसवरूप मछु आररनों के रोज़गार पर असर पड़ा है। इन मतसयन बंदरगाहों पर मछु आररनों की पहुचँ तथा रोज़गार की नयूनतम संभावनाएँ रह गई हैं, अतएव इनकी सिकयता आपूितवा p ऌधळ की तरफ़ बढ़ गई है। मसलन उतपादों का पसंसकरण, िवपणन, शुषकन इतयािद कायवा मछु आररनों की मुखय आिथवाक गितिविधयाँ बन चुके हैं। समूचे तटीय इलाक़ों में फे री (घूम कर) के दारा मतसयोतपादों को बेचने का पचलन है जो िवशेषकर मिहलाओं दारा ही संचािलत 16 पगिड़या पदित समुद में मछली पकड़ने का एक ऐसा तरीक़ा है जहाँ नौकाओं का इसतेमाल नहीं होता है, इसमें पग (पैरों) से चल कर मछली पकड़ी जाती है. यह मुखय रूप से िछछले समुद तट, समतल पंक केत और अंतराजवारीय केत में पचिलत है जहाँ उचच जवार से ठीक पहले लोग जाल िबछा देते हैं. जवार के पानी के साथ-साथ असंखय मछिलयाँ आती हैं और फँ स जाती हैं. पानी के उतरने के पशात लोग जाल में फँ सी मछिलयाँ अलग कर लेते हैं. दिकण गुजरात तथा कचछ के समतल समुद तट में लंबे जाल िबछाए जाते हैं. हालाँिक आज औदोगीकरण के दौर, जहाँ समुद तटों पर भारी पदूषण है, उतपादन में लगातार िगरावट दजवा की जा रही है. 12_subodh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:22 Page 336 336 | िमान होता है। यहाँ मिहलाएँ टोकररयों में ताज़ा तथा सूखे मतसयोतपादों को लेकर आस पास के गामीण केतों में भ्रमण करते हुए बेचती हैं। यह मछु आरा पररवारों के आय का एक मुखय ज़ररया है। गुजरात तथा देश की माितसयकी का एक महतवपूणवा अंग जलीय उतपादों का शुषकीकरण (सूखी मछली) का सेकटर है जो मुखयतः मिहलाओं दारा ही संचािलत होता है। वे उतपादों को िविभनन पदितयों (जैसे धूप तथा आग में शुषकन) दारा सुखाती हैं तथा देश के िविभनन कोनों तक िनयावात भी करती हैं। इसका अपना एक वृहत एवं िवकिसत लोकिपय बाज़ार है। इनमें सबसे लोकिपय ‘बॉमबे डक’ पजाित की मछली है िजसे सथानीय भाषा में ‘बुमला’ कहते हैं। इस पजाित की मछली का गुजरात में भारी माता में संगहण और शुषकन होता है तथा िवश के िविभनन िहससों में िनयावात होता है। अगर आप गुजरात के तटीय इलाक़ों में आएँगे तो मछु आ बिसतयों में बाँस के खंभों के सहारे बँधी रिससयों में सूखते हुए बुमलों को लटकते हुए पाएँगे। मछु आरा समुदायों दारा तटों का इसतेमाल इन गितिविधयों के िलए होता है जो संगहण के उपरांत की पिकया है। पसतुत तािलका मछु आरा समुदाय में मिहलाओं की भूिमका पर पकाश डालती है : माि्सयकी में उतपादों का अवतरण, जमा करना, छँ टाई करना; पूववा-िवपणन जैसे- अवतरण सथल अथवा बाज़ार में वयापाररयों के िलए उतपादों का वज़न करना, िवपणन, िवकय, फे री; कवच मछली, लेवटा, शैवालों, तथा के कड़ों का संगहण करना; धूप तथा आग में शुषकन, लवणीकरण; जाल बुनना, मरममत करना, समेटना, सफ़ाई करना जलकृ िष संबंिधत गितिविधयाँ; माितसयकी से संबंिधत आिथवाक गितिविधयाँ; पसंसकरण कारख़ानों में कामगारी; माि्सयकी के बाहर कृ िष तथा ग़ैर-कृ िष गितिविधयों में दैिनक मज़दूरी, कृ िष-कायवा, हसतिशलप, दुकानदारी, घरे लू काम, नौकरी; घर-गृहसथी में समुदाय में सामानय िदनों तथा पुरुषों के समुद में जाने के दौरान पररवार का पबंधन करना, भोजन की िजममेवारी, बचचों का लालन-पालन, मातृतव, पाररवाररक सवास्य, सामािजक संबंधों का िनववाहन करना, सामुदाियक तथा सांसकृ ितक गितिविधयों की िजममेवारी; सामुदाियक संगठनों में महतवपूणवा भूिमका, सथानीय शासन, धािमवाक गितिविध, अिधकार संबंधी आंदोलन, मछु आरा संगठन आिद में योगदान; 12_subodh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:22 Page 337 हा िए का अ यन : गुजरात की समु ी मछुआ रन | 337 मौसमी पवास गुजरात की माितसयकी का एक अहम िहससा है जहाँ मछु आरे संगहण के िलए तटों पर एक ख़ास अविध के िलए िनवास करते हैं। वसतुतः यह समय मॉनसून के महीनों को छोड़कर पूरे साल होता है। इसके अनेक कारण हैं। पहला मुखय कारण यह है िक सभी गाँव तट पर िसथत नहीं हैं। अनेक गाँव ऐसे हैं जो समुद तट से 5-10 िकलोमीटर की दूरी पर िसथत हैं। ऐसी िसथित में समुदी मछु आरों को तट पर झोपड़ी अथवा अनय पकार के असथायी आशय बना कर रहना पड़ता है। यहाँ से गाँवों की तरफ़ आवागमन होता रहता है। दूसरा मामला यह है िक भारी संखया में दिकण गुजरात में मछु आरे कचछ के तटवत्ती इलाक़े , जैसे जखौ, आिद सथानों में मछली पकड़ने के िलए मौसमी पवास करते हैं। इन दोनों मामलों में मछु आरे सपररवार ऐसे असथायी आशयों में िनवास करते हैं जहाँ सुिवधाओं की अतयंत कमी रहती है। इन झोपिड़यों में िबजली-पानी, और शौचालय आिद मूलभूत सुिवधाओं का अभाव रहता है। कु छ इलाक़े तो ऐसे हैं जहाँ मोबाइल नेटवकवा तथा सड़क भी नहीं होती है। इन तमाम पररिसथितयों में सबसे अिधक कष्टपद मिहलाओं का जीवन है। माितसयकी में पुरुषों के बराबर काम करने के साथ-साथ इनहें तमाम सथानीय ज़रूरतों का ख़याल रखना पड़ता है जैसे पीने का पानी, ई ंधन के िलए लकड़ी, सवयं तथा पररवार का सवास्य आिद। कचछ के मुदं ा तालुका में भदेशर तथा लूनी िसथत ऐसी बसावटों में केतकायवा के दौरान यहाँ की मिहलाओं ने अपने अनुभव साझा िकए। उनके अनुसार, तट पर बनी इन सुिवधाहीन बसाहटों में जीवन बेहद ही किठन है। ऊपर से आसपास के कारख़ानों से बहाए गए दूिषत तथा के िमकल युक कचरे इनके सवास्य पर बेहद पितकू ल 12_subodh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:22 Page 338 338 | िमान असर डाल रहे हैं। गाँव के िनकट होने पर इनका पररवार लगभग पितिदन आना-जाना करता है। ऐसी जगहों पर जहाँ गाँव जयादा दूर होता है, इनहें यहीं झोपिड़यों में हफ़तों तक िनवास करना पड़ता है। जखौ जैसे सथानों पर, जहाँ पवासी मछु आरे दिकण गुजरात जैसे सुदरू इलाक़ों से आकर लंबे समय तक रहकर मछली पकड़ते हैं, िसथित काफ़ी िचंताजनक है। यहाँ रहने वाले समुदाय िशका और सवास्य जैसी मूलभूत सुिवधाओं से कोसों दूर हैं। इस अवसथा में मिहलाओं का जीवन पुरुषों की अपेका अिधक कष्टपद हो गया है। वकास और हा शयाकरण िवकासशील देशों के साथ-साथ भारत में भी मछु आरों की सामािजक िसथित आज भी दयनीय है। वे अकसर समाज में हािशये पर रहते हैं और ऐसी िसथित में मिहलाओं का जीवन जयादा संघषवामय हो जाता है। मछु आरा समुदाय में िवशेषतः मिहलाओं के िलए िलंग, जाित तथा वगवा के बीच के अंतःसंबंध बेहद जिटल तथा पितकू ल पाए गए हैं। पररवारों के भीतर लैंिगक समानता तथा पररवारों की उधववागामी वगवा गितशीलता, सथानीय जाित पदानुकम में उचच सामािजक िसथित में पररणित नहीं हो पाई है। कु छ पररवारों के आिथवाक रूप से समृद होने के बावजूद पारं पररक िनमन सतरीय जाित तथा वयवसाय के कारण सथानीय समाजों में इन समतावादी पररवारों की पितषा एवं सममान की कमी देखी गई है। माितसयकी में कामगारों के बीच सीधे तौर पर पाररशिमक में भेदभाव पाया जाता है। मिहला शिमकों को पुरुषों की अपेका कम पैसे िमलते हैं। पूववा-संगहण, संगहण तथा संगहण के उपरांत के केत में मिहलाओं को उिचत पाररशिमक नहीं िमलता है। पसंसकरण कारख़ानों में इनका पाररशिमक पुरुषों से कम होता है और साथ ही काम का दबाव हमेशा अिधक होता है। वेरावल के पसंसकरण कारख़ानों में मिहलाएँ अनौपचाररक ठे का मज़दूर के रूप में काम करती हैं तथा उनकी पहुचँ िनमन सतरीय काय्यों तक ही सीिमत रहती है। िनयिमत, पशासिनक तथा पबंधन के सतर तक उनकी उपिसथित नहीं देखी गई है। उतपादों के िवपणन हेतु मिहलाओं की बाज़ार तक पहुचँ और आमदनी में सहभािगता समुदाय में इनकी बेहतर भागीदारी सुिनिशत करती है। बाज़ार तथा बाहर की दुिनया तक पहुचँ मिहलाओं को एक वृहत दृिष्टकोण पदान करती है कयोंिक वे यहाँ िविभनन सतरों पर िवके ता, उपभोका सरीखे अनय सहभािगयों के साथ वयवहार करती हैं।17 तथािप, नायक (2005) के अनुसार इसका तातपयवा यह क़तई नहीं है िक समुदायों ने मिहलाओं को बराबरी का दजावा िदया है। उतपादन की पिकया में मिहलाओं का योगदान पररवार के साथ-साथ समुदाय के सतर पर िनणवायन में सहभािगता सुिनिशत नहीं करती है। यह रूिढ़वादी िपतृसता और धमवा है जो समुदायों में सामािजक जीवन का संचालन करते हैं। हालाँिक इन समुदायों के पास सिकय सामुदाियक संचालन पणाली है िफर भी मिहलाओं की भूिमका यहाँ काफ़ी संकुिचत है। समुदायों दारा 17 निलनी नायक (2005) : 01-19. 12_subodh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:22 Page 339 हा िए का अ यन : गुजरात की समु ी मछुआ रन | 339 मिहला संबिं धत समसयाओं (जैसे शौचालय, ई ंधन, पानी, तथा अनय सुिवधाएँ आिद) का कम ही िनराकरण होता है िजससे मछु आररनों की िसथित और भी कमज़ोर होती है। 18 परं परागत तथा छोटे पैमाने की माितसयकी में मिहलाएँ पाथिमक रूप से कौशल आधाररत काय्यों में वयसत रहती हैं। पसंसकरण और खुदरा िवपणन सरीखे केत मिहलाओं दारा संचािलत होते हैं। िपछले कु छ सालों में माितसयकी में मिहलाओं पर बड़ी संखया में शोध होने के बावजूद माितसयकी आँकड़ों में मिहला शम लगातार अदृशय रहा है कयोंिक इन गितिविधयों की िगनती गौण केत में होती है,19 और ऐसे आँकड़े सामानयतः एकत नहीं िकए जाते। साथ ही इनहें आँकड़ों में रूपांतररत करना बेहद किठन है। ऐसे दौर में जब औदोिगक माितसयकी छोटे पैमाने की माितसयकी को समाप्त कर रही है, भारी संखया में असंगिठत मज़दूर, मुखयतः मिहलाएँ छोटे पैमाने की माितसयकी को सहारा दे रही हैं। इस पिकया में मिहलाओं का असवीकृ त तथा अवैतिनक शम छोटे पैमाने की माितसयकी को बड़े पैमाने पर सहायता पदान कर रहा है। ये वही मिहलाएँ हैं िजनहोंने छोटे पैमाने के माितसयकी समुदायों के लचीलेपन को बरक़रार रखा है। अनेक िवकिसत तथा िवकासशील देशों में मिहलाओं का समुद में सीधे तौर पर संगहण के िलए जाना सांसकृ ितक वजवाना (टैबू) के तौर पर देखा जाता है तथा इस कायवा के िलए समाज के दारा कोई पोतसाहन नहीं िमलता। वलसाड के सथानीय अवतरण कें दों पर तथा मछली बाज़ारों में मिहलाओं से बातचीत समुदायों की गहरे सामािजक-सांसकृ ितक धारणाओं पर पकाश डालता है। अिधकांश मिहलाएँ यह सपष्ट नहीं कर पाई ंिक वे नौकाओं पर मछली पकड़ने कयों नहीं जाती हैं? शारीररक बनावट को इंिगत करते हुए लगभग सबों ने एक जैसे उतर िदए िक मिहलाएँ नावों से मछली पकड़ने के िलए उपयुक नहीं हैं कयोंिक यह एक ख़तरनाक काम है। यह जानने के बावजूद िक मिहलाएँ काम करने में पुरुषों से िकसी भी रूप में कमज़ोर नहीं हैं, वे बार-बार यही कहती रहीं िक समुद में मछली पकड़ना पुरुषों का काम है। ा पर तकूल असर दिकण गुजरात तथा कचछ के उदोग बहुल तटों पर काम करने वाली मिहलाएँ अकसर िविभनन पकार की सवास्य समसयाओं से िघरी रहती हैं। शुद हवा, पेयजल तथा साफ़ वातावरण की कमी से उपजे रोग इन मिहलाओं में सामानय होते जा रहे हैं। कचछ में मांडवी तालुक़ा के सलाया गाँव के आस-पास दो बड़े थमवाल िवदुत् संयंत हैं। यहाँ सथानीय मिहलाओं ने अपने संकिमत पैर िदखाए जो संभवतः तटों पर वयाप्त पदूषण के कारण हुए थे। इन इलाक़ों में पगिड़या पदित पचिलत है जहाँ चलकर मछली पकड़ना पड़ता है। ऐसी मानव-जिनत एवं पाकृ ितक आपदाओं का सबसे जयादा पभाव मिहलाओं पर पड़ता है। संसाधनों तक पहुचँ 18 19 वही. नीलांजन िबशास (2011) : 01-41. 12_subodh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:22 Page 340 340 | िमान तथा इन पर िनयंतण की कमी मिहलाओं को इन आपदाओं के िलहाज से जयादा सुभदे बनाता है। पदूषण जिनत समसयाओं की िशकार मिहलाओं की िसथित दिकण गुजरात में भी लगभग ऐसी ही है जो गुजरात का सबसे बड़ा औदोिगक केत कहा जाता है। रुगणता, पोषण की कमी, अिशका, मृतयु-दर, िलंगानुपात आिद अनेक ऐसे सूचक हैं जो मछु आररनों के पित सामािजकआिथवाक भेदभाव तथा उनके हािशयाकरण को दशावाते हैं। अगर पसंसकरण कें दों की बात करें , जहाँ पवासी के साथ-साथ सथानीय मछु आरा समुदाय की मिहलाएँ भी काम करती हैं, तो उनहें भी कई सवास्य समसयाओं का सामना करना पड़ता है। वेरावल के पसंसकरण कारख़ानों में कायवारत मिहला कामगारों के बीच केत कायवा के दौरान साकातकार दाताओं ने बताया िक पसंसकरण का काम काफ़ी जिटल होता है। अंतरावाष्ीय मानकों पर आधाररत उतपादों के पसंसकरण के िलए बेहद सावधानीपूवक वा काम करना पड़ता है। इन कारख़ानों में कामगारों को लकय आधाररत कायवा, नयूनतम मज़दूरी, लंबी कायावाविध, वयावसाियक ख़तरे , नयूनतम िवशाम, सवचछता की कमी आिद चुनौितयों का सामना करना पड़ता है। उतपादों को सड़ने से बचाने के िलए कारख़ानों में लगातार नयूनतम तापमान बरक़रार रहता है तथा उनहें ठं डे माहौल में काम करना पड़ता है िजससे किमवायों के सवास्य पर पितकू ल असर पड़ता है। कामगारों के बीच सवास्य समसयाएँ, जैसे सद्ती-खाँसी, जोड़ों का ददवा आिद सामानय हो गए हैं। साथ ही शौचालय तथा सवचछ पीने योगय पानी की समुिचत वयवसथा न होने की वजह से कामगारों दारा िविभनन सवास्य समसयाओं की िशकायतें की गई ं। ऐसी पररिसथित में मिहलाओं को सवावािधक तकलीफ़ का सामना करना पड़ता है। मिहलाओं के मािसक धमवा के दौरान यहाँ काम करना किठन हो जाता है तथा मािसक धमवा के समय सवचछता को बरक़रार रखना एक चुनौती बन जाती है। ऐसी िसथित में जहाँ मिहलाएँ उिचत तथा बराबर मज़दूरी के िलए संघषवा कर रही हैं, सवास्य कारणों से काम में अनुपिसथित उनकी मािसक आय को काफ़ी कम कर देती है। यहाँ कामगारों को सवयं को सवसथ रखना एक बड़ी चुनौती है कयोंिक इसका सीधा असर उनकी आय पर पड़ता है। माितसयकी संगहणोतर के अनय केतों में कायवारत मिहलाओं का जीवन सवास्य, मज़दूरी तथा उतकृ ष्ट कायवा20 की चुनौितयों से पररपूणवा है तथा बेहद दयनीय है। इसी बीच, जातवय हो िक भारत तथा गुजरात का पसंसकृ त मतसयोतपादों का िनयावात लगातार बढ़ रहा है तथा आय में भी वृिद हो रही है। नारीवादी राजनैितक िसदांतवादी माररयारोसा दलला कोसटा तथा समाजशासी मोिनका िचलेसे ने अपनी चिचवात पुसतक आवर मदर ओिशयन (2014) में जलकृ िष फ़ाम्यों तथा कारख़ानों को ‘बलू फ़ै क्ीज़’ की संजा दी है जहाँ मिहलाएँ तथा बचचे पितिदन आठ-दस घंटे बेहद ख़राब तथा नुक़सानदेह पररिसथितयों में कायवारत हैं। इनके अनुसार औदोिगक माितसयकी बड़ी तेज़ी से परं परागत माितसयकी में उपलबध रोज़गारों का पितसथापन कर रही है, और रोज़गार के मोच्वे पर मिहलाएँ हािशए की तरफ़ धके ली जा रही हैं। 20 िडसेंट वकवा : सतत िवकास का आठवाँ लकय, संयक ु राष्. 12_subodh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:22 Page 341 हा िए का अ यन : गुजरात की समु ी मछुआ रन | 341 सरकार दारा चलाई जा रही िविभनन योजनाओं में मिहला के िलए िवशेष कोई योजना िदखाई नहीं देती। साथ ही माितसयकी में हाल में हो रहे िविभनन पौदोिगक-तकनीकी बदलाव तथा नवीनीकरण पुरुष कें िदत हैं। इस पिकया के फलसवरूप मछु आरा समुदायों में मिहलाओं का तकनीकी रूप से हािशयाकरण भी हो रहा है। ऐसी मशीनों का िनमावाण होना चािहए िजसे मिहला वगवा आसानी से चला कर जीिवकोपाजवान में सवतंत रूप से महती भूिमका िनभा सके । इससे मिहला कामगारों की उतपादकता तो बढ़ेगी ही, साथ ही मनोवैजािनक रूप से पुरुषों की सता पर आघात हो सके गा। साथ ही मिहलाओं का संसाधनों पर सवािमतव भी बढ़ेगा जो आज नगणय है। उपसंहार उपयुवाक चचावा से यह पतीत होता है िक िविभनन सतरों पर पितयोिगतातमक सहभािगता होने के बावजूद माितसयकी में मिहलाओं की िसथित पुरुषों के बराबर नहीं है। अिधकतर मिहलाओं का भौितक और पूँजीगत संसाधनों, नीित-िनधावारण, नेततृ व, एवं िशका तक पहुचँ तथा िनयंतण नहीं है। उनकी वयिकगत गितशीलता मौजूदा सामािजक संरचना के कारण सीिमत हो गई है। समुदायों के भीतर नयायसंगत लैंिगक संबंधों के माधयम से ही मिहलाओं की दकता, लाभपदता और िसथरता में सुधार लाया जा सकता है। उनका कलयाण संसाधनों पर पहुचँ तथा िनयंतण के दारा ही हो सकता है। सामुदाियक सतर पर उनका सशकीकरण ही भिवषय में बड़े सामािजक-आिथवाक और सांसकृ ितक बदलाव ला सकता है। 12_subodh_kumar update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:22 Page 342 342 | िमान संदर्भ इंिदरा िहरवे, एस.पी. कशयप, एवं अिमता शाह (2002), ‘इं्ोडकशन’, इंिदरा िहरवे एवं अनय (सं. ), डायनािमकस ऑफ़ डे व लपमेंट इन गुज रात, सेंट र फ़ॉर डे वलपमेंट अलटरनेिटवज़, अहमदाबाद, कॉनसेपट पिबलिशंग हाउस, नई िदलली. एम.जे. िविलअमस, एम. नंदीशा, वी. कोरवा ल, इ. टेक, एवं पी. चू (2001), ‘सवागत िटपपणी’, इंटरनैशनल िसमपोिज़यम ऑन िवमेन इन एिशयन िफ़शरीज़, िचयानग मई, थाईलैंड (13 नवंबर, 1998) : 06. गीता सेन एवं कारे न गोन (1987), ‘डेवलपमेंट, कायिसस, ऐंड अलटरनेिटव िडवीज़ंस : थडवा वलडवा िवमेंस पसवापेिकटवस’, मंथली ररवयू पेस, नयू यॉकवा . जेनेट रुिबनोफ़ (1999), ‘िफ़िशंग फ़ॉर सटेटस : इमपैकट ऑफ़ डेवलपमेंट ऑन गोवाज़ िफ़शर िवमेन’, िवमेंस सटडीज इंटरनैशनल फ़ोरम, खंड 22, (सं.) 6, एिलसवयर (नवंबर-िदसंबर 1999) : 631-644. डेरेक जॉनसन (2001), ‘वेलथ ऐंड वेसट : कां्ािसटंग लेगैसीज़ 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27-01-2023 16:24 Page 344 ओशो : हा शए पर मुखपृ राजेश कुमार चौर सया ओशो : हािशए पर मुखपृष्ठ (2022) सरोज कु मार वमामा पृष : 148. मूलय : ₹ 499. अनुजा बुकस, नई िदलली. इस पुसतक में ओशो रजनीश के दशमान को तीन खंडों एवं नौ अधयायों में पसतुत करने का पयास िकया गया है : सथापना खंड, अवधारणा खंड और तुलना खंड। इन तीन खंडों में रजनीश को हािशए के अनंतर मुखयधारा का दाशमािनक पमािणत करने की कोिशश की गई है। साढ़े छह सौ से भी अिधक िकताबों में संकिलत रजनीश के पवचनों में से आज के समय के िहसाब से कोई दाशमािनक सूत खोज पाना आसान काम नहीं है। ऐसा करने का संकलप करना भी सराहनीय है, पुसतक के लेखक ने ऐसा िकया इसके िलए उनहें बधाई। िजतना मुि्कल काम रजनीश के पवचनों से दाशमािनक सूत संकिलत करना है, उतना ही मुि्कल उस काम का मूलयांकन करना भी है। लेिकन पथमतः यिद हम उन कसौिटयों की बात लें िजनके आधार पर एक वयिक को दाशमािनक कहा जाता है, तो शायद यह काम आसान हो जाए। इस संबंध में पहली बात समझ लेनी आव्यक है िक ओशो रजनीश को 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 345 ओशो : हा शए पर मुखपृ 1 ओशो को एक दाशमािनक के रूप में सथािपत न हो पाने के िनमनांिकत कारणों की बात की है : • वे एक मौिलक दाशमािनक नहीं हैं कयोंिक उनके वाङ्मय में कु छ नया नहीं है।2 • ओशो का सैदांितक नहीं होना और उनके दारा पसतुत िवचारों में असंगित का आभास होना।3 • उनका िववादासपद होना।4 लेखक ने उपयुमाक आपितयों का िनराकरण करते हुए ओशो को एक दाशमािनक के रूप में सथािपत करने का पयास िकया है। पहली आपित सही नहीं है कयोंिक एक दाशमािनक होने के िलए भारत में नए सतय की सथापना ज़रूरी नहीं है। यहाँ सतय को देश और काल के परे माना जाता है और वह सतय के वल सतय होता है; उसके िलए नया-पुराना, मौिलक-अमौिलक आिद अवधारणाओं का कोई अथमा नहीं है कयोंिक ‘सतय’ समसत अवधारणाओं के पहले है। यह िदतीय आपित ही मेरी रि्टि में ओशो को एक दाशमािनक के रूप में सथािपत कराने में सबसे बड़ी बाधा है। ओशो के दशमान में न ही कोई ततवमूलक सैदांितक संगतता है और न ही अिभवयिकमूलक िवचार संगित। शी कृ षणचन्द्र भटाचायमा ने इस पश पर िवचार िकया है िक बुद और वेदांत के भारतीय दशमान को मोटे तौर पर आिसतक और नािसतक भागों में बाँटा जाता है; िजनमें सांखय-योग, नयाय-वैशिे षक, वेदांत-मीमांसा; इनको आिसतक दशमान कहा जाता है कयोंिक ये वेदों के पामाणय को मानते हैं चावामाक, जैन, और बौद दशमानों को नािसतक दशमान कहा जाता है कयोंिक ये वेदों के पामाणय को नहीं मानते हैं. 2 सरोज कु मार वमामा, ओशो : हािशए पर मुखपृष्ठ : 16-17. 3 वही : 21-22. 4 वही : 23-24. समी ा ले ख नयाय, सांखय अथवा वेदांत के समान परं परागत अथ्थों में एक दाशमािनक नहीं कहा जा सकता है कयोंिक उनहोंने इस पकार के िकसी भी दाशमािनक िनकाय अथवा उपिनकाय को जनम नहीं िदया है। न के वल ओशो रजनीश बिलक अनय िकसी भी समकालीन भारतीय दाशमािनक को परं परागत कसौटी पर दाशमािनक नहीं कहा जा सकता है। न ही ओशो रजनीश वैिदक (आिसतक) दशमानों की भाँित वेदों के पामाणय को मानकर िकसी सवतंत दाशमािनक वयवसथा को जनम दे रहे हैं, और न ही अवैिदक (नािसतक)1 दशमानों की भाँित वेदों के अपामाणय को सथािपत कर िकसी सवतंत दाशमािनक वयवसथा को जनम दे रहे हैं। 1. िकताब के सथापना खंड का पथम अधयाय है – ओशो : वयापक सरोकार के दाशमािनक। दशमान का वयापक होना, ये तो दशमान मात का ही लकण है। यशदेव शलय मानते हैं िक एक दशमान तभी पूणमा दशमान कहलाने का अिधकारी है जब वह वैजािनक/सैदांितक, ऐषणातमक एवं आधयाितमक सभी रि्टियों का समनवय करता हो। हम पसतुत िकताब के आधार पर इस समसया पर िवचार करें गे िक कया ओशो रजनीश का दशमान एक पूणमा दशमान कहलाने का अिधकारी है? पो. वमामा ने इस अधयाय में | 345 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 346 346 | िमान िनरपेक सतय िभनन कयों पतीत होते हैं। िनरपेक सतय तो एक ही होना चािहए। उनहोंने पाया िक एक ही िनरपेक सतय के िभनन-िभनन पतीत होने का कारण है उसकी अिभवयिक की मूलभूत अिभवृित। एक वयिक सतय को अिभवयक करने के िलए पधानतः तीन पकार की अिभवृितयों में से कोई एक अिभवृित अपना सकता है। अगर एक वयिक मन की जानातमक अिभवृित को अपनाता है तो उसका दशमान अदैत वेदांत की तरह अिभवयक होगा। वहाँ जान में जो वासतिवक वसतु ‘है’ (बह्म, आतमा आिद) उसे के वल जानना है। यहाँ वासतिवक वसतु जो ‘है’ (िवषय) को पदिशमात होना है इसिलए यहाँ ‘िवषयी’ ‘िवषय’ से िनधामाररत है। इसी पकार यिद कोई वयिक सतय को अिभवयक करने के िलए संकलपातमक अिभवृित को चुनता है तो उसका दशमान शूनयवाद की भाँित िवकिसत होगा। यहाँ अवसतु, जो ‘नहीं है’ से सवतंत या शूनय हो जाना है। यहाँ अवसतु, जो नहीं है से िकयापूवमाक िवषयी को सवतंत होना है। यहाँ वसतु/िवषय नहीं बिलक िवषयी महतवपूणमा है। पथम में वसतु/िवषय का पभुतव है। िदतीय में वसतु तो अशुद है और िवषयी का पभुतव है। मन की तीसरी अिभवृित में िवषय एवं िवषयी एक दूसरे के पूरक होते हैं। िकसी का भी पभुतव नहीं होता है।5 इस अिभवृित के उदाहरण के रूप में शी भटाचायमा ने हेगेल के 5 दशमान का उललेख िकया है और बाद में पो अशोक कु मार चटज्जी ने अपने एक लेख में चैतनय महापभु की ‘भिक’ का उललेख िकया है।6 एक दाशमािनक जब अपने सतय को अिभवयक करता है तो उपरोक तीन मन की अिभवृितयों में से एक को चुनता ही है तािक इसको सुनने अथवा पढ़ने वाला सैदांितक रूप से इसे समझ सके । एक दशमान में सैदांितक सप्टिता सव्वोपरर है इसीिलए एक पजा संपनन वयिक सतय की अिभवयिक के िलए एक मागमा, मन की एक अिभवृित का चयन करता ही है तािक उसका शोता सैदांितक रूप से भ्रिमत न हो। यह सब ठीक उसी पकार से है जैसे िक एक गायक जब िकसी राग का चयन कर लेता है तो उस राग के आरोह-अवरोह से बँधने में ही उस गायक की कु शलता का पता चलता है। यिद वह ऐसा नहीं कर पाता है तो संगीत के अनंतर शोर उतपनन होगा। ओशो रजनीश के वाङ्मय को जब कोई गंभीर पाठक पढ़ता है तो उसे इसी पकार का शोर सुनाई देता है। ओशो रजनीश ने कई बार कहा है िक उनहें िववादासपद होना पसंद है और वे चाहते हैं िक कोई उनहें पसंद करे (पशंसा करे ) अथवा नापसंद (िनंदा करे ) करे लेिकन वे नहीं चाहते िक कोई उनकी उपेका करे ।7 लेिकन िकसी भी पकार के िवचार के िलए ये के वल तीन ही पकार के कममा नहीं होते। एक देख,ें के .सी. भटाचायमा (1958), सटडीज़ इन िफ़लॉसफफी, वॉलयूम II, एिडिटड बाई गोपीनाथ भटाचायमा, पोगेिसव पि्लशसमा 37, कॉलेज स्ीट, कलकता-12 : 115-117. 6 देख,ें ए.के . चेटज्जी, टाइपस ऑफ़ ऐबसूलयूिटज़म : ए ररिविजटेशन, ऐन इंटरनैशनल कॉन्ें स टू माकमा द बथमा सेंचरु ी इयर ऑफ़ पोफ़े सर टी.ई.वी. मूितमा, 18-21, िदसंबर 2002, ऐट जन पवाह, वाराणसी. 7 देख,ें ओशो रजनीश (1986), द लासट टेसटामेंट, वॉलयूम I, चैपटर 18, रजनीश फाउंडेशन इंटरनैशनल : 335. 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 347 ओशो : हा शए पर मुखपृ दाशमािनक कममा िकसी भी पशंसा अथवा िनंदा के पार होता है। यहाँ कोई वयिक नहीं बिलक सवयं सतय साधय होता है। रजनीश को समझने के िलए एक बड़ी मुि्कल यह भी है िक या तो हम उनको एक पशंसक/भक की तरह समझना चाहते हैं अथवा एक उनके िवरोधी की भाँित। ये दोनों ही तरीक़े िजस ‘िवचार’ को समझना चाहते हैं उस िवचार की वासतिवक वसतु से हमें दूर कर देते हैं। जब मैं यह समीका-िनबंध िलख रहा हूँ तो न ही मैं ओशो रजनीश का समथमाक हूँ और न ही उनका िवरोधी। िकताब के िदतीय अधयाय (अदैत परं परा में ओशो) में लेखक ने दावा िकया है िक ओशो रजनीश को अदैत परं परा का एक दाशमािनक ठहराया जा सकता है, जो ठीक नहीं है। इसका पहला कारण यह है िक सवयं ओशो इस बात को सवीकार नहीं करें गे। लेखक ने पुसतक में इस बात को उदृत भी िकया है।8 दूसरा कारण जो सबसे महतवपूणमा है, िक ओशो के पितपादन में अदैत वेदांत के समान कोई दाशमािनक वयवसथा नहीं है। लेखक इस बात से भली भाँित पररिचत है िक अदैत वेदांत की एक वयविसथत और सूकम ततवमीमांसा एवं जानमीमांसा है, और ओशो के पितपादन में इस पकार की वयविसथत मीमांसा का अभाव है। लेखक की पसतुित से ऐसा पतीत हो रहा है िक वे ये मान रहे हैं िक जो पितपादन शंकर 8 सरोज कु मार वमामा, ओशो : हािशए पर मुखपृष्ठ : 41. वहीं : 26. 10 पैंथीज़म : गॉड इज़ नेचर ऐंड नेचर इज़ गॉड. 9 | 347 ने अपने अदैत वेदांत में िकया वही पितपादन ओशो का भी है, िभननता के वल पदावली की है। लेिकन लेखक ने ओशो के िजन उदरणों के आधार पर उनहें अदैतवाद का दाशमािनक पितपािदत करने की कोिशश की है यिद उनकी परीका की जाए तो इस पितपादन की असफलता सप्टि हो जाएगी। उदाहरण के िलए िकताब में पसतुत ओशो के पथम उदरण को ही ले लीिजये िजसमें परमातमा और पकृ ित की एकता के आधार पर अदैत का पितपादन िकया गया है।9 दशमान के िवदाथ्जी जानते हैं िक इस पकार से परमातमा और पकृ ित की एकता को िसपनोज़ा के दशमान में सव्वेशरवाद कहा जाता है।10 दरअसल अदैतवाद का िसदांत एक िवकिसत माया की अवधारणा पर आधाररत है, यही शंकराचायमा का उनके भाषयों में मौिलक दाशमािनक अवदान है। ओशो रजनीश और कोई समकालीन नवयवेदांती, शंकर के उस माया/अजान के िसदांत को सवीकार नहीं करे गा िजसमें संसार के िमथयातव की घोषणा की गई है। ओशो रजनीश के िलए तो यह िसदांत िबलकु ल भी सवीकृ त नहीं हो सकता कयोंिक कु छ एक-दो अपवादों को छोड़ कर ओशो की देशनाओं में, उनकी वयाखयाओं में नयापन यही है िक वे परमातमा के पक में संसार को तयाजय मानने के पक में नहीं हैं और शंकर के गंथों में तो बारं बार बह्म के पक में िमथया सांसाररक सुखों को तयाजय बताया 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 348 348 | िमान गया है। अतः मुझे ऐसा पतीत होता है िक इस िकताब में ओशो रजनीश को अदैतवाद की परं परा का दाशमािनक बताया जाना एक बड़ी भूल है। उपयुमाक तक्थों से सप्टि है िक यह सथापना ठीक नहीं है ओशो अदैत परं परा के एक दाशमािनक हैं । बिलक यह सथापना उनके दारा िकए गए काम के एकदम िवपरीत है। कांट ने अपने एक वकवय में, दो चिकत करने वाले अनंतों की चचामा की है – ‘एक मनुषय के ऊपर िसतारों से भरा सवगमा और दूसरा मनुषय के अंदर का नैितक िनयम।’ टी. आर. वी. मूितमा कहते हैं िक यहाँ िसतारों से भरे सवगमा का तातपयमा इस भौितक पकृ ित से नहीं है बिलक यहाँ इसका तातपयमा – िवश के रचियता से है।11 मनुषय की दाशमािनक चेतना के ये दो रूप हैं, िजनमें पथम का पितिनिध वेदांत (वैिदक दशमान) है एवं दूसरे का पितिनिध बौद-दशमान (अवैिदक दशमान) है। एक का पारं भ ही िकसी दैवीय-पकाशन12 से होता है और इसीिलए अपौरुषेय है। दूसरे का जनम पूरी तरह से पौरुषेय है। इसीिलए एक को समझने के िलए दैवीय-पकाशन पर आसथा की आव्यकता है और दूसरा मनुषय के िवमशमा का िवषय है। यिद दाशमािनक चेतना के इन दो मूलभूत आयामों में से ओशो के िवचारों को िकसी एक वगमा में रखना हो तो उनके िवचार को 11 पौरुषेय वगमा में ही रखना उपयुक होगा। ओशो रजनीश के सािहतय को जब हम पढ़ते हैं और इस सािहतय में से जब कोई उनकी सवयं की िविश्टि बातें िनकालने का पयतन करते हैं तो बड़ी समसया यह आती है की अनेक मुखौटों से युक उनके पवचनों में से िकस मुखौटे को उनका अपना िनजी चेहरा बताया जाए। उदाहरण के िलए योग और तंत एक दूसरे के िवपरीत मागमा हैं, एक दूसरे के िवपरीत िसदांत हैं; दोनों ही पवचन शृख ं लाओं में एक सावधान शोता/पाठक को ओशो रजनीश के अलग-अलग रूप िदखाई देते हैं तब यहाँ यह समसया उतपनन हो जाती है िक उनका अपना असली चेहरा कया है? मैंने 2012 में ओशो रजनीश पर पकािशत अपने एक शोध-पत में इस समसया का समाधान पसतुत करने का पयास िकया था।13 अगर धयानपूवमाक ओशो के समसत वाङ्मय का िसंहावलोकन िकया जाए तो पमुख रूप से उनके सािहतय को दो भागों में वग्जीकृत िकया जा सकता है : पथम, मौन के पहले का ओशो सािहतय और िदतीय मौन के बाद का ओशो सािहतय। ओशो रजनीश ने ऑरे गॉन अमरीका में एक हज़ार तीन सौ पं्द्रह िदनों का (क़रीब साढ़े तीन साल का) मौन व्रत रखा था। इस लंबे अरसे के मौन के बाद उनहोंने अपने क़रीबी संनयािसयों के समक देख,ें टी.आर.वी. मूितमा (1983), सटडीज़ इन थॉट एिडटेड बाई हेरॉलड जी. कोवाडमा, एमएलबीडी, नई िदलली : 200. उदाहरण के िलए वैिदक शुितयाँ दैवीय पकाशन हैं और यह शुितयाँ मनुषय के तकमा -िवतकमा के परे हैं. तकमा -िवतकमा के दारा इनके अथमा का िवसतारण तो िकया जा सकता है, लेिकन इनके सतय को झुठलाया नहीं जा सकता है. जो भी इनकी पामािणकता पर सवाल उठाएगा वह बुद, महावीर की ही तरह नािसतक/अवैिदक कहलाएगा. 13 राजेश कु मार चौरिसया, ओशो के दशमान का वैिश्टिय, दशमान के आयाम, नयू भारतीय बुक कॉरपॉरे शन, पकाशदीप भवन, अंसारी रोड, दररयागंज, 2012, नई िदलली : 449-457. 12 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 349 ओशो : हा शए पर मुखपृ अपना संदश े , अपनी बातों को पररषकृ त रूप में रखने का पयास िकया। उनकी मौन के उपरांत की यह पथम पवचन माला, जो िकताब के रूप में फॉम अनकॉनशस टू कॉनशसनेस14 शीषमाक से पकािशत है, उनके दशमान को समझने के िलए अतयंत उपयोगी है। इस पवचन शृख ं ला के पारं भ में ही वे कहते हैं िक अभी तक मैंने िजन लोगों के माधयम से अपनी बात रखी, मैं उनसे पूरी तरह सहमत नहीं था लेिकन मैंने उस समय अपनी असहमित को अिभवयक नहीं िकया कयोंिक लोग मुझे नहीं उस वयिक अथवा गंथ को समझने आते थे िजस पर मैं बोल रहा होता था। अगर मैं उस समय उन लोगों के सामने कृ षण, बुद, अथवा महावीर आिद से अपनी असहमितयाँ वयक कर देता तो लोगों का सममोहन टू ट जाता। ओशो के अनुसार उनहोंने लाओतसे, बुद आिद के माधयम से ऐसी-ऐसी बातें कही हैं जो इन लोगों ने सपने में भी नहीं सोची होंगी।15 इसी पुसतक के एक अनय अधयाय में जब उनसे इनहीं चुने हुए संनयािसयों में से कोई कोई उनसे उनके 10 कमॉनडमेंट के बारे में पूछता है तो वे बताते हैं िक कमॉनडमेंट श्द उनकी देशना के अनुकूल नहीं हैं मैं आपसे कु छ अनुरोध कर सकता हूँ और पहला ही अनुरोध वे करते हैं – ‘संदहे ’। उनके अनुसार िवशास एक ज़हर है और संदहे एक मूलयवान वसतु अतः अपने संदहे को कभी न मरने दें।16 ओशो रजनीश 14 15 16 | 349 का यह मूलभूत अनुरोध उनहें वेदांत की जान और भिक दोनों ही पकार के सभी संपदायों से अलग कर देता है। ‘संदहे ’ भिक की अपेका जान के क़रीब िदखाई देता है लेिकन वेदांत में ‘शुित’ संदहे का नहीं शदा का िवषय है। हमें जीवन के बारे में पामािणक जान पाप्त करने के िलए जीवन के पतयेक िवषय पर तािकमा क संदहे करना चािहए। लेखक ने शमपूवमाक ओशो को अदैत वेदांत की परं परा का दाशमािनक ठहराने की कोिशश में दोनों के मूलभूत अवधारणाओं की तुलना करने का पयतन िकया है, यथा वयावहाररक और पारमािथमाक जगत का भेद, जान और कममा का भेद, जीव और बह्म की एकता इतयािद। लेिकन इन संपतययों में जो दोनों में समानता िदखाई दे रही है वह सतही है, अगर सभी का सूकम िवशे षण िकया जाए तो दोनों की अवधारणाओं में भेद देखा जा सकता है। इसी िकताब के सथापना खंड के ही तृतीय अधयाय का नाम है – ‘िहंदी भाषा में ओशो का दाशमािनक िचंतन’। इस अधयाय को पढ़ के सबसे पहले तो यही सवाल मन में उठता है िक इस अधयाय का नामकरण इस पकार से कयों िकया गया है? कया इसमें िजन दाशमािनक बातों की चचामा की गई है उन दाशमािनक बातों का ओशो के अंगेज़ी के वाङ्मय में अभाव है? अथवा, अगर हम उनके दोनों भाषाओं के सािहतय का पुनरावलोकन करें तो पश उठता है िक कया दोनों भाषाओं ओशो रजनीश (1985), फॉम अनकॉनशसनेस टू कॉिनसयसनेस, रीबेल बुकस पि्लके शन, कोरे गाँव पाकमा , पुणे 470012. वही : 06. वही : 366. 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 350 350 | िमान के उनके पितपादन में कोई मूलभूत भेद है? इस अधयाय को पढ़ कर ऐसा धविनत होता है िक लेखक इस अधयाय में मुखय रूप से ओशो रजनीश के िहंदी भाषा में उपल्ध सािहतय के आधार पर दो पशों का उतर तलाशने की कोिशश कर रहे हैं। (1) रजनीश की िहंदी भाषा की िवशेषताओं को बताना, और (2) इस बात की समीका करना िक उनके दारा िदए गए िहंदी के पवचनों को सवातंतयोतर भारतीय दशमान के अंतगमात रखा जा सकता है अथवा नहीं? पथम पश के िववेचन में लेखक ओशो रजनीश की िहंदी भाषा की िनमनांिकत िवशेषताओं को बतलाते हैं : • उनकी िहंदी भाषा तकमा और भाव दोनों को समयक सथान देती है।17 • उनकी िहंदी भाषा में संपेषणीयता भी है और अिभवयंजना भी।18 • उनकी भाषा सहज और सरल है।19 सथापना खंड में इस अधयाय का पयोजन भी ओशो को एक दाशमािनक के रूप में सथािपत कराना है। पो. संगम लाल पांडेय ने सवातंतयोतर भारतीय दशमान के अिभवयिक की भाषा को ‘िहंदी’ बनाए जाने की अनुशसं ा की है कयों िक परं परागत भारतीय दशमान की भाषा संसकृ त है और िहंदी संसकृ त के क़रीब है। िनःसंदहे ओशो की भाषा के बारे में 17 18 19 20 21 देिखये, ओशो : हािशए पर मुखपृष्ठ : 44-45. वहीं : 45. वहीं : 18-19 और 44. इंटेलीजेंस. लव. लेखक ने जो उपयुमाक बातें कही हैं वे सतही तौर पर अथवा चीज़ों को दाशमािनक-चेतना के धरातल पर यिद न देखा जाए तो सतय पतीत होती हैं। लेिकन यिद थोड़ा भी गहराई से िवचार िकया जाए तो पश उठे गा िक एक दाशमािनक भाषा में भाव-पवणता का कया तातपयमा है। और कया इस तरह की भावपवणता कया सतय को संपेिषत कर सकती है? लेखक के अनुसार तकमा के वल एक रहसयमय भाव तक पहुचँ ाने की एक सीढ़ी मात है। यहाँ यह तकमा और भाव का भेद भी अिवदाजनक है। इस संदभमा में जे. कृ षणमूितमा का मत अिधक संगत पतीत होता है। जे. कृ षणमूितमा कहते हैं िक पजा20 और पेम21 में कोई भेद नहीं है, वह एक ही है। ऐसी पजा िजसमे पेम का अभाव है, पजा नहीं है; इसी पकार ऐसा पेम िजसमें पजा नहीं है पेम नहीं है। तकमा को छोड़ कर िकसी रहसयमय भाव में यू-टनमा लेने की आव्यकता नहीं है। जब तकमा अथवा िवचार की पृषभूिम सतय/पजा होती है तो िवचार बुिद भी सीधे-सीधे सतयोनमुख हो जाती है। ऐसी िवचार बुिद भटक जाती है िजसके पीछे सतय न खड़ा हो। िजस अिभवयंजना और संपेषणीयता की बात लेखक कर रहे हैं, उसका संतल ु न दशमान में िकसी बात के सतय पर पितिषत होने पर ही संभव है। अगर कोई बात सतय पर पितिषत 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 351 ओशो : हा शए पर मुखपृ नहीं है तो ऐसी अिभवयंजना सतय के अनंतर कु छ और संपेिषत कर देगी। यशदेव शलय22 संसकृ त के तीन किवयों की सतुित में कहे गए इस शोक को उदृत करके इस बात को ठीक पकार से कह पाते हैं : उपमा कािलदाससय, भारवेरथमा गौरवं, दिणडनः पद-लािलतयं, माघे सिनत तयो गुणाः। शलय जी का मानना है िक उपयुमाक तीनों गुण आतमा अथवा सतय23 के सािननधय में ही कावय गुण कहलाने के अिधकारी हैं। िकताब के लेखक ने ओशो की दशमान की अिभवयिक को सहज और सरल कई बार कहा है। यह बात सही भी है इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है। लेिकन यहाँ पश यह है िक ओशो की वह भाषा जो सहज और सरल है वह सतय को िकतना अिभवयक कर पाती है? यशदेव शलय ने कहा है िक ‘दशमान और िवजान की िवकलप-सृि्टि िजतनी जिटल और अमूतमा होती है उतनी ही वह तथय के पित समयक होती है… यदिप यह वसतु-सार या ततव अपने सवरूप में सरल ही होता है िकं तु इसका वयंजक रूपक इसकी वयापकता के अनुपात में ही जिटल होता है।’24 यह युिक एकदम सप्टि है िक दशमान और िवजान दोनों को ही जब हम भाषाई िवकलपों में अिभवयक 22 | 351 करते हैं तो िजतनी यह िवकलप संरचना जिटल होती है उतनी ही वह उसके तथय के अनुरूप होती है। उदाहरण के िलए आईनसटीन के सापेकता के िसदांत की िवकलप संरचना जिटल और अमूतमा है इसीिलए वह उसके तथय के अनुरूप है। अगर कोई वयिक इसे सरल भाषा में समझने की कोिशश करे गा तो उसकी अिभवयिक की यह सरलता कहीं न कहीं उसके तथय से समझौता करे गी। वेदांत अथवा बौद-दशमान के तथयों को जब यथातथय अिभवयक करने का पयास िकया जाता है तो गंथ रचना जिटल हो जाती है अनेक बौद और वेदांत दशमान के गंथों को इस बात के उदाहरण के रूप में पसतुत िकया जा सकता है। अतः हमें ओशो दशमान के संदभमा में भी यह पश उठाना चािहए िक उनके दशमान की सहजता और सरलता कहीं धािममाक तथय के साथ कोई समझौता तो नहीं है? उनके सािहतय के गंभीर पठन से यह बात सप्टि िदखाई देती है िक वे अपने वयाखया-िवधान में एक िबंदु पर पहुचँ कर जिटल तथय की अिभवयिक की पीड़ा नहीं उठाते हैं बिलक इस िबंदु पर पहुचँ कर इसे वे तकमा -बुिद के अनंतर के वल धयान-साधना के दारा गमय बताते हैं। पोफ़े सर दयाकृ षण ने समकालीन दाशमािनकों को पचिलत-दाशमािनक25 और दे िखए, यशदे व शलय, मूलयततव-मीमां सा, दशमा न पितषान, पी-51, मधुव न पि्चिम,िकसान मागमा , टोंक रोड, जयपु र -302015, 1994 : 28. 23 शी यशदेव शलय वेदांत परं परा के दाशमािनक हैं, जहाँ आतमा और सतय समानाथमाक श्द हैं. 24 यशदेव शलय, मूलयततव-मीमांसा : 28. 25 पॉपुलर िफ़लॉसफ़र. 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 352 352 | िमान अकादिमक-दाशमािनक,26 इन दो भागों में िवभािजत िकया है। पचिलत दाशमािनक का शीषमाक ओशो रजनीश पर एकदम सटीक बैठता है कयोंिक वे वही बातें करते हैं जो आम आदमी समझ सके । इसके िवपरीत एक अकादिमक दाशमािनक जन-समूह के िलए नहीं बिलक दशमान की गूढ़ बातों को अपने दशमानकममा से सवयं समझना चाहता है। लेखक ने इस अधयाय में कु छ समकालीन भारतीय दाशमािनक पवृितयाँ यथा सामयवाद, भाषा-िवशे षण, तथा मूलयवाद आिद को ओशो के सािहतय में िदखलाने की कोिशश की है लेिकन वे इस कायमा में अचछी तरह से सफल नहीं हुए हैं। उदाहरण के िलए सामयवाद की ही पवृित की बात करें तो बात तब बनेगी जब कोई शमपूवमाक पचिलत सामयवाद के िवपक में पसतुत की गई ंओशो की युिकयों को उनकी िकताबों समाजवाद से सावधान और देख कबीरा रोया आिद पुसतकों से संगहीत करे और िफर उन युिकयों की समीका करे । लेिकन यह िकताब न ही सामयवाद के बारे में ऐसा कर पाती है और न ही मूलयवाद और भाषा-िवशे षण के बारे में। यह िकताब के वल यह इशारा कर पाती है िक इन केतों में ओशो-दशमान की संभावनाएँ हैं। ओशो के समसत वाङ्मय का यिद समीकातमक अवलोकन िकया जाए तो उनहें समझने के िलए कु छ मूलभूत बातें सामने आती हैं। सबसे पहले तो हमारा धयान उनकी ‘यौन’ संबंधी बातों पर जाता है जो ओशो को 26 एकै डिमक िफ़लॉसफ़र. एक साथ िववादासपद एवं पचिलत कर देती हैं। मेरी रि्टि में ये बातें, मनुषय के दारा, धममा और सभयता के नाम पर, सिदयों से अपाकृ ितक रूप से यौन के नाम पर दबाए गए िचत की िकया पर एक सवाभािवक पितिकया से अिधक और कु छ नहीं है। यह ओशो की वासतिवक देशना (यिद कोई है) पर धूल के गुबार की तरह छाई हुई है। इस बात की अभी और िवसतृत चचामा हम आगे करें गे। दूसरी महतवपूणमा बात पर हमारा धयान आकिषमात होता है, वह है – उनका वयाखयािवधान। इस वयाखया-िवधान की पहली महतवपूणमा बात यह है िक वे जब िकसी पचिलत धममा – िहंद,ू बौद, जैन, िकि्चियन आिद की बात करते हैं तो वे साधारणतः पचिलत धममा की तो आलोचना करते हैं लेिकन उसके संसथापक की आलोचना नहीं करते हैं। उदाहरण के िलए वे पचिलत जैनधममा की आलोचना करते हैं परं तु ऐसा करते समय वे महावीर की आलोचना नहीं करते हैं। ओशो रजनीश के वयाखया-िवधान के अंतगमात िदतीय महतवपूणमा बात यह है िक वे इस भौितक शरीर और इस भौितक जगत से संबंिधत सभी िनषेधातमक बातों की वयाखया िवधेयातमक रूप में करते हैं। उदाहरण के िलए यिद कोई िजन-सूत अधयातम के पक में शरीर को सताने की बात करता हो तो वे अपनी वयाखया में सूत के िनिहताथमा को पलट देते हैं, उसे शरीर के पक में बना देते हैं। वयाखयािवधान की तृतीय महतवपूणमा बात यह है िक वे िजस समय िजस बुद-पुरुष पर पवचन देते 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 353 ओशो : हा शए पर मुखपृ हैं उसे ही एकै कािधदेववाद27 की तरह अनूठा, मानव जाित के िलए सबसे अिधक िहतैषी दाशमािनक बताते हैं। ओशो रजनीश के दशमान की अंितम िवशेषता यह है िक वे हमें अपने मौन के बाद बताते हैं िक वे पूरी तरह से िकसी भी बुद पुरुष से सहमत नहीं हैं और 1984 के बाद के अपने पवचनों में बुद, महावीर, जीसस आिद सबकी आलोचना करते हैं। अब वे ये भी कहने लगे हैं िक उनके पवचनों का मूल उदे्य है सुनाने वाले को भ्रिमत कर देना तािक उसकी बुिद से आसथा समाप्त हो जाए।28 मेरे अनुसार यही बात ओशो रजनीश को एक दाशमािनक रूप में सथािपत कराने के िलए सबसे अिधक नकारातमक है। वे बारं बार अपने सहसों पवचनों में बता रहे हैं िक बुिद अथवा श्द के वल भ्रम उतपनन करते हैं और ‘सतय’ का पता के वल धयान से ही लगाया जा सकता है। ‘धयान’ तक बग़ैर तकमा और बुिद के एक अकलयाणकारी वसतु में पररवितमात हो सकता है। बुद ने ऐसा होते देखा होगा तभी उनहोंने ‘सममासती’ और ‘सममासमािध’ की बात की है। परं परागत िचत को पश उठाना चािहए िक कया समािध/संिसिद भी समयक् अथवा असमयक् हो सकती है? बुद के अनुसार हो सकती है। सतय ‘सम’ में अथवा मधय में होता है िकसी भी असजगता में अथवा अित में अहंकार 27 | 353 और अजान होता है। और सम रहने के िलए मधय में रहने के िलए हमेशा िवचार-िवमशमा की आव्यकता होती है। अगर िकसी ऐसी वसतु जैसे ‘एकागता’ को कोई धयान समझ रहा है तो इस बात का पता तो िवचार-िवमशमा से ही चलेगा िक कया धयान नहीं है। अतः ‘धयान’ तक बग़ैर तकमा और बुिद के एक अकलयाणकारी वसतु में पररवितमात हो सकता है। अतः िनषकषमा के रूप में कहा जा सकता है िक ओशो रजनीश को एक दाशमािनक के रूप में सथािपत कराने में उनका िववादासपद होना बाधक नहीं है। और अगर उनके वाङ्मय में िकसी भी नवीन सथापना को यिद न खोजा जा सके तो यह बात भी उनको दाशमािनक के रूप में सथािपत कराने में बाधक नहीं है कयोंिक ऐसे अनेक पाचीन और समकालीन भारतीय दाशमािनक हैं जो िकसी नवीनता का दावा नहीं करते लेिकन दाशमािनक कहलाते हैं जैसे शंकर और के . सी. भटाचायमा आिद। बस एक ही बात बाधक है – उनकी बुिद और िववेक पर आसथा का न होना। ओशो के भक मानते हैं िक वे एक संिसिद अथवा बुदतव को उपल्ध वयिक हैं अतः उनके श्द भकों के िलए संदहे ातीत है। भक पश नहीं उठाते, तािकमा क संदहे नहीं कर पाते िक ‘सतय’ कोई उपल्ध हो जाने वाली िवषयवसतु है भी अथवा नहीं? तािकमा क मैकसमुलर के अनुसार वैिदक बहुदवे वाद (पॉलीथीज़म) का िवकास, एकै कािधदेववाद (िहनोथीज़म) की अवधारणा से गुज़रते हुए एकततववाद (मॉिनज़म) में हुआ. एकै कािधदेववाद के अनुसार वैिदक आयमा जब िकसी देवता की सतुित करते थे तो उस समय उस देवता को ही सव्वोचच देवता मान लेते थे. 28 देख,ें ओशो रजनीश (2016), फॉम द फॉलस टू द ट्रू थ पिबलक ओशो इंटरनैशनल फाउंडेशन, इंिडया : 106-108. 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 354 354 | िमान संदहे और पश उठाने से दशमान का जनम होता है। कोई ओशो का समथमाक पश उठा सकता है िक भारत में पहले भी उपिनषद्, बुद अथवा महावीर के वचनों के आधार पर जब दशमानों की सथापनाएँ हो सकती हैं तो ओशो रजनीश के वचनों के आधार पर िकसी नवीन दशमान की सथापना कयों नहीं हो सकती? यह बात इसिलए असंभव है कयोंिक उपिनषद् अथवा बुद के वचनों के समान रजनीश के वचनों को एक सूत में िपरोना, िफर उस सूत में से एक ‘ततव’ अथवा ‘अततव’ की जान मीमांसा िवकिसत करना संभव नहीं है। 2. िकताब का दूसरा खंड है – ‘अवधारणा खंड’। इस अवधारणा खंड में चार अधयाय हैं। िजसमें से पथम अधयाय है – ‘ज़ोरबा िद बुदा : ओशो की मुकममल मनुषय की अवधारणा’। समकालीन भारतीय-दशमान की यह पमुख िवशेषता है िक यहाँ कोई भी दाशमािनक जैसे – महातमा गांधी, रबीं्द्रनाथ टैगोर, िववेकानंद आिद सभी दाशमािनक इस भौितक जगत को सतय मानते हैं और अपनीअपनी दाशमािनक वयवसथा के अंतगमात इसके िलए तकमा उपिसथत करते हैं। ओशो रजनीश ने भी ऐसा ही िकया, और बड़े पैमाने पर िकया। ओशो के दशमान की यह एक पमुख िवशेषता है िक उनहोंने कभी भी अधयातम के पक में इस भौितक जगत का िनषेध नहीं िकया है। यहाँ भारत में वेदांत-दशमान भी कभी जगत को िमथया कह कर उसकी उपेका नहीं करता है। तैि्तिरीय उपिनषद् तो इस भौितक जगत को ‘सुकृत’ कहता है, यहाँ जगत आनंद के िलए आनंद की ही सृि्टि है। वैिदक धममा की आशम वयवसथा, पुरुषाथमा वयवसथा और ऋण वयवसथा आिद इस बात के पमाण हैं िक यहाँ इस भौितक जगत को एक समुिचत सथान पदान िकया गया था। याजवलकय की दो-दो पितनयाँ हैं, उनका आशम उस ज़माने के िहसाब से हर पकार की सुख-सुिवधाओं से पररपूणमा है; अतः याजवलकय को एक समयक् ‘ज़ोरबा िद बुदा’ कहा जा सकता है। समयक् इसिलए कयोंिक याजवलकय इतनी बड़ी संपित के मािलक होकर भी इसे आतमजान के पक में तयागने को ततपर हैं अतः वे पारं भ से ही जानते हैं िक यदिप सांसाररक धन-संपित का मनुषय के जीवन में एक उिचत सथान है, लेिकन इसका मनुषय के वासतिवक आनंद से कोई लेना-देना नहीं है। ओशो की ‘ज़ोरबा दी बुदा’ की अवधारणा में एक िवरोधाभास है। वह िवरोधाभास यह है िक अपनी पुसतक ‘समाजवाद से सावधान’ में वे सवयं कहते हैं िक संपित शम से नहीं बिलक बुिद से उतपनन होती है। और अपने पवचनों में वे बारं बार दोहराते हैं िक बुदतव तकमा और श्दातीत है। यहाँ पश यह उतपनन होता है िक एक ऐसी वसतु जो बुिद से उतपनन होती है और एक ऐसी वसतु जो बुिद के अतीत है, ओशो इन दोनों का समनवय िकस आधार पर कर रहे हैं? उनहें सतय में और बुिद में िकसी न िकसी पकार का संबंध सथािपत करना पड़ेगा तभी 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 355 ओशो : हा शए पर मुखपृ ‘ज़ोरबा िद बुदा’ की अवधारणा का कोई अथमा होगा। लेखक ने इस अधयाय की शुरुआत एक मज़ेदार अतािकमा क बात से की है, जो िक ‘ज़ोरबा िद बुदा’ की अवधारणा का मूल है। इस घटना के अनुसार 25 िदसंबर,1988 की मधयराित को गौतम बुद की आतमा ने भगवान शी रजनीश के शरीर में पवेश कर िलया और 26 िदसंबर के शाम के पवचन में ओशो ने घोषणा भी कर डाली िक आज से वे ‘भगवान रजनीश’ के नाम से नहीं बिलक ‘मैतेय िद बुदा’ के नाम से जाने जाएँगे। लेिकन ओशो चार िदन भी ‘मैतेय िद बुदा’ नहीं रह पाए और 30 िदसंबर को ही घोषणा करते हैं िक उनकी संगित गौतम बुद के साथ नहीं बैठ रही है, बुद को मेरी िवलािसता की जीवन शैली पसंद नहीं हैं और वे इसे तयाग नहीं सकते हैं, अतः वे ‘गौतम िद बुदा’ को जाने के िलए करते हैं और पुनः घोषणा करते हैं िक अब मेरा ‘मैतेय िद बुदा’ से कोई लेनादेना नहीं हैं अब से मैं ‘शी रजनीश ज़ोरबा िद बुदा’ कहलाऊँगा।29 एक िवशेष पकार की मौन और धयान की िसथित को उपल्ध करके भी ओशो रजनीश ने यही सबसे बड़ा ग़लत क़दम यह उठाया िक वे जीवन भर, िनरं तर कु छ न कु छ बनने की कोिशश कर रहे थे। इस मामले में उनहोंने कभी कु छ नहीं सीखा, उनके पारं भ से लेकर अंत तक के पवचन आतम-पवंचनाओं से भरे हुए हैं जो आधयाितमक और 29 30 | 355 मनोवैजािनक दोनों ही रि्टियों से एक दोष है। मनोिवजान की भाषा में कहें तो जैसे उनके अंदर कोई कमी रह गई थी िजसे वे भरने की कोिशश कर रहे थे। एक दशमान का िवदाथ्जी इन समसत बातों पर पशिचह्न लगाता है और उसी बात को अपने जीवन में उतारने का पयास करता है जो बुिदसंगत हो। इसी अधयाय में संिकप्त में िवजान और धममा के समनवय की भी बात की गई है। लेिकन बाहर और भीतर की समृिद में जो िवरोधाभास है वही िवरोधाभास यहाँ भी िदखाया जा सकता है। इस समनवय के बारे में भी जे. कृ षणमूितमा का रि्टिकोण अिधक संगत पतीत होता है कयोंिक ओशो जे. कृ षणमूितमा की तरह यहाँ भी पदिशमात नहीं कर पाते हैं िक इन दोनों के समनवय का मूल आधार कया है? जे कृ षणमूितमा अपने दशमान में बताते हैं िक एक वैजािनक अंतरमाि्टि और एक धािममाक अंतरमाि्टि में गुणातमक रूप से कोई भेद नहीं है। उनमें भेद के वल मातातमक है। एक सािहतयकार की अंतरमाि्टि, एक कलाकार की अंतरमाि्टि, एक दाशमािनक की अंतरमाि्टि और एक वैजािनक की अंतरमाि्टि आिद कयोंिक िकसी एक िवषयवसतु से बँधी होती है, अतः हमेशा सीिमत होती है लेिकन एक धािममाक अंतरमाि्टि असीिमत होती है।30 अतः एक धािममाक अंतरमाि्टि में वैजािनक अंतरमाि्टि समािहत होती है लेिकन इसका उलटा सतय नहीं है। एक धािममाक मन ही िवजान का सही उपयोग कर सकता है लेिकन धममा एक वैजािनक मन के परे होता है। अतः देिखये, ओशो : हािशए पर मुखपृष्ठ : 56-57. देख,ें पो. पद्मनाभन कृ षणा (2015), ए जवेल ऑन ए िसलवर पलैटर, िपलिगमस पि्लिशंग, दुगामा कुं ड, वाराणसी : 58-59. 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 356 356 | िमान इन बातों की समझ की आव्यकता है समनवय की नहीं। एक वृहद् अथमा में भौितकता और चेतना का समनवय है ही। रमण महिषमा ने भी कहा है िक जो जाग जाता है उसके िलए तो यह संसार बह्म ही है। उपयुमाक उदाहरण में, ओशो रजनीश की चेतना में, बुद की चेतना और उनकी संपनन जीवन शैली के मधय जो दंद िदखलाई पड़ता है वह दंद भी अजानजिनत ही हो सकता है कयोंिक चेतना में दंद की उपिसथित अजान को ही दशामाती है। अतः समसया संसार और चेतना के समनवय की नहीं है बिलक इनकी समझ की है। चेतना संसार के भौितक अिसततव को पेम करती है कयोंिक वेदांत के अनुसार यही संसार के आधार में है जबिक, मनुषय का अजानजिनत संसार, िजसका पतीक ज़ोरबा है, वह कभी ‘सतय’ को पेम नहीं कर सकता। इसीिलए ओशो के उपयुमाक उदाहरण में ज़ोरबा के पक में गौतम बुद को जाना पड़ा। अवधारणा खंड के दूसरे अधयाय का शीषमाक है – ‘ओशो दशमान में पुरुषाथमा िववेचन’। िजसमें लेखक ने बताया है िक पारं पररक रूप से धममा-पुरुषाथमा का अथमा है – सदाचार, परं तु ओशो के दशमान में धममा का अथमा है – आतमजान; यहाँ सदाचार को आतमजान की छाया और आतमा का सवरूप आनंद बताया गया है।31 पुरुषाथमा की अवधारणा अनेक समकालीन दाशमािनकों यथा दयाकृ षण, राजें्द्र पसाद और कमलाकर 31 देिखए, ओशो : हािशए पर मुखपृष्ठ : 68. िमश आिद की दाशमािनक िववेचना का एक मुखय िवषय रहा है। लेिकन ओशो रजनीश इन अकादिमक दशमानों से िभनन पकार से इस अवधारणा पर िवचार कर रहे हैं। दशमान के िवदािथमायों को इन सब बातों पर तािकमा क संदहे करना चािहए और पश उठाना चािहए। पथम पश तो यह उतपनन होता है िक यिद धममा का अथमा सदाचार न होकर आतम-जान है, और आतम-जान का तातपयमा अपने सवरूप आनंद को जान लेना है तो िफर धममा और मोक तो समानाथ्जी हो गए। ये दो पुरुषाथमा न होकर एक पुरुषाथमा बन गए। दूसरी समसया यह है िक सदाचार धममा की एक मूतमा कसौटी है और आतमजान अमूतमा। ओशो रजनीश से पहले भारत में यह मूतमा कसौटी हज़ारों वष्थों से िवदमान रही है िक हम एक वयिक की आतंररक दशा का अनुमान उसके सदाचरण से लगाते रहे हैं। आज भी भारत के सामूिहक मन में यह कसौटी िवदमान है। हम गौतम बुद के असदाचारी होने की कलपना भी नहीं कर सकते हैं। धममा की कसौटी सदाचार से हटाकर आतमजान जैसी अमूतमा आंतररक चेतना की अवसथा बताने के ख़तरे हम आज भारतीय समाज में देख ही रहे हैं। आतमजान/मुिक/बुदतव का तो कु छ पता नहीं है लेिकन आज सारे धममागरुु रॉलस रॉयस की जीवन शैली की तरफ़ बढ़ रहे हैं। लेखक के अनुसार ओशो के अथमापुरुषाथमा संबंधी िवचार न ही धन के अित भोग पर आिशत है और न ही धन के तयाग पर। 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 357 ओशो : हा शए पर मुखपृ ओशो अपने अथमा िचंतन में इन दोनों ही अितयों से बचते हुए संतल ु न साधने का पयतन करते हैं। हमें इस बात पर भी पशिचह्न लगाना चािहए िक उनकी इस अित से बचने की पररभाषा कया है? िकतने रॉलसरॉयस के संगह को अित कहा जाए? ओशो ने एक जगह गांधी जी के बारे में यह बात कही थी िक आमलोग छोटी-छोटी ग़लितयाँ करते हैं और महापुरुष बड़ी-बड़ी ग़लितयाँ करते हैं अतः हमें अपने महापुरुषों के आचरण की समीका अव्य करनी चािहए। यह बात ओशो रजनीश पर गांधी जी से भी अिधक पयुक होती है। काम-पुरुषाथमा संबंधी वे बातें, जो समीका का िवषय हो सकती हैं, वे बातें फायड के साथ तुलनातमक अधययन में भी है, अतः उनकी समीका वहीं करना उपयुक होगा। अवधारणा खंड का अगला अधयाय है – ओशो का िशका-दशमान : संपणू मा िशका पदित का पसताव। ओशो के अनुसार िशका मनुषय को उसकी पकृ ित से तोड़ कर िवकृ ितयों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ले जाने का कायमा कर रही है।32 वतमामान िवकृ त िशका के िजन कारणों को इंिगत िकया गया है, वे हैं – महतवाकांका और पितयोिगता, आदशामानक ु रण और तुलना तथा बाहानुशासन। िशका में िवकृ ित के इन कारणों को पढ़ कर सबसे पहले यह बात धयान में आती है िक आ्चियमाजनक ढंग से 32 | 357 यही बातें जे. कृ षणमूितमा में भी पाप्त होती हैं दोनों में अंतर के वल यह है िक ओशो में यह सब बातें कोई वयविसथत िवचार न होकर हवा में लटकी पतीत होती हैं जबिक जे. कृ षणमूितमा में िशका में िवकृ ित की यही कारणावली एक वयविसथत िवचार की तरह पाप्त होती है।33 यहाँ वयविसथत िवचार का तातपयमा ततवमीमांसा अथवा जानमीमांसा में वयविसथत िवचार से नहीं है । यहाँ वयविसथत और पूणमा िवचार का तातपयमा है – िकसी समसया की नवीन, वयविसथत और पूणमा छानबीन। यिद कोई वयिक इस वयविसथत और पूणमा िवचार-पिकया को अपनी चेतना में वसतु के रूप में रूपांतररत करके , समसया को देख पाता है तो वह वयिक उस समसया से मुक हो जाता है। िकसी भी समसया की इस तरह की छानबीन ओशो रजनीश के िचंतन में देखने को नहीं िमलती है। इसीिलए उनके िवचार और कममा में भी एक बड़ा अंतराल िदखाई देता है। उदाहरण के िलए महतवाकांका की ही समसया को ले लेते हैं। महतवाकांका का तातपयमा है िक मनुषय हमेशा मनोवैजािनक रूप से (चेतना के धरातल पर) हमेशा कु छ बनना कयों चाहता है? वह मनोवैजािनक रूप से हमेशा एक कमी, एक अनजाना-सा डर कयों महसूस करता है? जब वयिक सवयं इस पकार के पशों का उतर पाप्त करने का पयास करता है तो आगे संदहे देिखए, वहीं : 81. देिखए, राजेश कु मार चौरिसया (2015), जे. कृ षणमूितमा का िशका दशमान, मधयभारती, पूवमा समीिकत शोध पितका, डॉ. हरीिसंह गौर िवशिवदालय, सागर, मधय पदेश, अंक 68, जनवरी-जून : 64-77. 33 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 358 358 | िमान उतपनन होता है िक अभी तक एक वयिक िजस वसतु को चेतना समझ रहा था (अपूणमा और भय-युक चेतना), कहीं वे चेतना की अंतवमासतुएँ या चेतना में बाह-जगत की वासनामूलक छिवयाँ तो नहीं हैं? इस पकार जो वयिक सवयं का जान पाप्त करना चाहता है उसे सवयं के बारे में सवयं से ही इस पकार के पश पूछने पड़ते हैं और इन पशों में ही इनका उतर छु पा होता है। यहाँ आतमजान के केत में कभी उतर बाहर से नहीं आता है। आ्चियमा है िक ओशो रजनीश जैसा बुिदमान वयिक इस बात को नहीं समझ पाता है िक यिद आतमा संबंधी अजान सवयं आतमा उतपनन कर रही है (यह एक आंतररक और वयिकगत पिकया है) तो इस आतमअजान को कोई ‘भगवान’, कोई ‘गुरु’ कै से दूर कर सकता है? महतवाकांका की इसी नासमझी के कारण वे अपने वयिकगत जीवन में भी हमेशा कु छ न कु छ बनने का पयास करते रहे। पहले ‘आचायमा’, िफर ‘भगवान’, िफर ‘ मैतेय िद बुदा’ िफर ‘ज़ोरबा िद बुदा’, और अंत में ओशो। मुझे पूरा िवशास है िक यिद वे कु छ और िदनों तक रहते तो हमें उनका कोई नया नाम सुनने को िमल सकता था। आज मुझे इस बात पर पूरा िवशास है िक हमें यिद महतवाकांका, तुलना और पितयोिगता इतयािद बातों को समझना हो तो हमें जे. कृ षणमूितमा के माधयम से समझने की कोिशश करनी चािहए। हाँ, यिद आव्यक लगे तो थेरेपी की तरह ओशो का धयान 34 देिखए, ओशो : हािशए पर मुखपृष्ठ : 84. अव्य करना चािहए, िजन पर उनहोंने महतवपूणमा काम िकया है, लेिकन उनहें मन और शरीर को के वल रुगणता से मुक करने के िलए ही करना चािहए। िशका में उपयुमाक िनषेधातमक पहलुओ ं के अितररक संकेप में लेखक ने िशका-दशमान के भावातमक पकों की भी बात की है। िजसके अनुसार एक समग िशका को मनुषय के सभी पकों यथा शरीर, हृदय, मिसतषक और आतमा सभी पकों पर धयान देना चािहए, वतमामान की िशका वयवसथा में एकांगी रूप से के वल मिसतषक को ही पोिषत िकया जा रहा है।34 यह बात सतय है िक एक सवावांगीण िशका में मनुषय के सवावांगीण िवकास का अवसर िमलना ही चािहए लेिकन ऐसा करने के िलए िकनहीं बातों को अिनवायमा नहीं िकया जा सकता। जैसा िक लेखक की पसतुित से ऐसा पतीत हो रहा है। अिनवायमातापूवमाक नहीं बिलक सवतंततापूवमाक ही एक सवावांगीण िशका की आधारिशला रखी जा सकती है। ओशो से िभनन कृ षणमूितमा का कहना है िक हमारी िशका वयवसथा की कमी यह है िक यह अब तक के वल बाह वसतु के ही जान पर, इसकी सूचनाओं पर ही आधाररत है, इसमें आतमजान पर िबलकु ल भी ज़ोर नहीं िदया जा रहा है। एक तरफ़ तो ‘आतमजान’ हमारे सकू लों के पाठ् यकम का िहससा ही नहीं है तो दूसरी ओर िविभनन िवषयों की सूचनाओं को के वल रटने पर ही िवदािथमायों का ज़ोर है, इनहें समझने पर नहीं। 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 359 ओशो : हा शए पर मुखपृ यहाँ तक िक गिणत और भौितक िवजान की वासतिवक समझ आतमजान की ओर उनमुख कर सकती है कयोंिक सब वसतुएँ अंततोगतवा हमसे संबंिधत ही हैं। इन सब बातों का वासतिवक िनदशमान लेखक दारा पसतुत ओशो का िशका दशमान नहीं करा पाता है। एक वासतिवक िशका – दशमान तीन मूलभूत पश पूछता है : 1) जान/सूचनाएँ कया हैं और इनका हमारे जीवन में उिचत सथान कया है? 2) पजा कया है?, और 3) इन दोनों का आपस में संबंध कया है? इन तीनों पशों पर ओशो का िशका दशमान वयविसथत िवमशमा पसतुत नहीं कर पाता है अथवा यिद िशका दशमान के ये वासतिवक पश कहीं ओशो के िवशाल वाङ्मय में उपिसथत है तो यह िकताब इन पशों पर िवमशमा नहीं कर पाती है। अवधारणा खंड का ही अंितम अधयाय है – ‘धयान : ओशो दशमान का वयावहाररक उपकम’। इस अधयाय में संिकप्त में ही सही लेखक ने भारतीय दशमान की वैिदक और अवैिदक दोनों ही परं पराओं में ‘धयान’ की उपिसथित को दशामाया है। पूरी िकताब की यही एक सीमा है िक यह िकताब िकसी वसतु का यथातथय वणमान तो कर देती है लेिकन उस जानकारी का िवशे षण और आलोचना करके समसया के आधार तक जाने का पयतन नहीं करती है। उदाहरण के िलए जब हम बौद और वेदांत दशमान में ‘धयान’ की बात कर रहे हैं और दोनों ही अगर ‘धयान’ का तातपयमा मुखय रूप से िकसी िवषय पर मन की 35 देिखए, वहीं : 93. | 359 एकागता बता रहे हैं, तो यहाँ पश उठाना चािहए िक ये बौद और वेदांत दशमान िकस वसतु पर एकागता की बात कर रहे हैं? अदैत वेदांत के अनुसार तो यह बाह जगत िमथया है और ये िकसी िमथया वसतु पर तो धयान को एकाग करने की बात नहीं कर सकते हैं। हो सकता है िक यहाँ धयान वासतिवक/ताितवक वसतु तक पहुचँ ाने का उपकम हो। बौद दाशमािनक नागाजुमान तो िकसी ताितवक वसतु को भी नहीं मानता है, िफर वहाँ मन को िकस वसतु पर एकाग िकया जा सकता है? यह सब बातें दाशमािनक शोध का िवषय है और हमें लेखक के समान इस पकार के सरलीकरण से बचना चािहए िक ‘भारतीय परं परा में धयान को मन की एकागता माना गया है।’35 हमें वैिदक और अवैिदक परं परा से पाप्त धयान संबंधी बातों का िवशे षण करके यह जात करने का पयतन करना चािहए िक इन एक दूसरे से िभनन परं पराओं में ‘एकागता’ श्द का तातपयमा कया है? ओशो रजनीश ने धयान की िविधयों के बारे में महतवपूणमा काम िकया है। अगर एक वयिक िनयिमत रूप से इन िविधयों को करता है तो मन एवं शरीर को लौिकक अथ्थों में सवसथ रखा जा सकता है। ओशो ने धयान की िविधयों में मनोिचिकतसा की िविधयाँ यथा कै थािसमास और हँसने-रोने की िकयाओं का अनूठे ढंग से पयोग िकया है। ‘सिकय धयान’ और ‘िमिसटक रोज’ नामक धयान िविधयों में उनहोंने इन िकयाओं का पयोग िकया है, जो 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 360 360 | िमान भारतीय परं परा में एकदम नवीन है। इस िवषय में उनके इन योगदानों के महतव को रे खांिकत करने वाले समीकातमक शोधों की आव्यकता है। इस िकताब में पसतुत िवचारों का अगर गंभीर अधययन िकया जाए तो पता चलता है ओशो के दारा किथत धयान की अवधारणा भी भ्रिमत करने वाली है। वे कहते हैं िक पाथमाना, पूजा, उपासना, योग, सांखय, भिक, कममा, जान और संनयास आिद सब धयान के ही रूप हैं कयोंिक धयान के अितररक और कोई मागमा नहीं है। अब उनकी इस बात पर के वल उनके भक लोग ही पश नहीं उठाएँगे कयोंिक वे वसतुओ ं को अपनी भिक के कारण देख और समझ नहीं पाते हैं। भिक का संबंध भावना से है, कममा का संबंध मन की संकलप वृित से है और जान का संबंध मन की जानातमक वृित से है। ओशो यहाँ, इन सभी को धयान का ही रूप कह रहे हैं और इस बात का कोई भी तकमा उपिसथत नहीं कर रहे हैं िक जान और कममा जैसे एक-दूसरे की िवरोधी वृितयाँ धयान कै से हैं? अदैत वेदांत इनमें अंतर करता है और के वल जान के दारा ही मोक की बात करता है और शेष दो को (भिक और कममा) के वल इसमें एक सहयोगी की तरह ही देखता है। इसी िकताब में आगे धयान का अथमा िचत की मौन, िनिवमाचार और शुद अवसथा बताया गया है और इसका संबंध वेदांत में विणमात वाक् की चार अवसथाओं से जोड़ा 36 वहीं : 94-95. गया है। ओशो रजनीश के अनुसार धयान की वासतिवक अवसथा तक पहुचँ ने के िलए मन के चार तल – वैखरी, मधयमा और प्यंती को पार करना पड़ता है।36 ओशो की इस बात पर एक दशमान के िवदाथ्जी को अनेक पश उठाने चािहए। पहली बात तो उसे यह जानना चािहए िक ओशो वेदांत के िभनन संदभ्थों में, मन की इन चार अवसथाओं की बात कर रहे हैं। वेदांत अपने वाक् के इस िसदांत के दारा यह बताने की कोिशश कर रहा है िक साधारण, भौितक और हत श्द से परे अनाहत और अभौितक श्द बह्म ततव है। और ये दोनों आपस में संबंिधत इस पकार हैं िक हमारे सारे भौितक श्द जब तक इस श्द बह्म से न संबंिधत हों, वासतिवक नहीं हैं। वेदांत से िभनन ओशो इन अवसथाओं का उपयोग धयान की अवधारणा को सप्टि करने के िलए कर रहे हैं। िजसके पररणामसवरूप, धयान एक मागमा न होकर एक ततव में पररवितमात हो जाता है। दूसरा पश यह उपिसथत होता है िक यिद वासतिवक धयान तीनों अवसथाओं के परे हैं तो वह वसतु कया है जो वैखरी तथा मधयमा के मधय और मधयमा तथा प्यंती के मधय भेद कर पाती है? तीसरा पश हमें यह उठाना चािहए िक यिद धयान और मन की िनिवमाचार अवसथा दोनों का तादातमय है तो जो धयान की िविधयाँ ओशो ने ईजाद की हैं वे मनुषय को यहाँ तक कै से पहुचँ ाती हैं? यिद वासतव में धयान एक देश और काल के परे की वसतु है 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 361 ओशो : हा शए पर मुखपृ तो मन और शरीर की कोई भी िकया हमें उस तक नहीं पहुचँ ा सकती है। इसीिलए अदैत वेदांत इसे के वल जान से गमय मानता है कममा से नहीं, और जान से भी उनका तातपयमा वृित जान से न होकर सवरूप जान से है। 3. िकताब का अंितम खंड है – ‘तुलना खंड’। इस खंड में ओशो रजनीश के िवचारों की तुलना कमशः िसगमंड फायड, महिषमा अरिवंद और जे. कृ षणमूितमा से की गई है। इस खंड का पथम अधयाय है – ‘फायड और ओशो के िचंतन में काम’। भारतीय दशमान में ‘काम’ श्द का पयोग मुखयतः तीन अथ्थों में िकया जाता है। (1) इस श्द का सबसे संकुिचत अथमा है – यौन/संभोग की इचछा। (2) इसका िदतीय और पथम से वयापक अथमा है – मनुषय की कोई भी सांसाररक या आधयाितमक इचछा। (3) तृतीय और सबसे अिधक वयापक अथमा है – अहम् मुक एक सामानय ऊजामा, िजसे शैव दशमान ‘शिक’ कहता है और वेदांत में ‘एकोऽहं बहुसयािम’ के रूप में ईशर इस पकार की इचछा करता है। फायड की सैदांितक िसथित तो एकदम सप्टि है; वह मनुषय की पतयेक पकार की इचछा को यौनेचछा में घटा देता है, जो मनुषय की अनेक इचछाओं में से एक इचछा है। ओशो की िसथित इस बारे में भी एकदम सप्टि नहीं है। एक तरफ़ तो वे फायड पर आधाररत मनोिवजान को ‘रुगणों का मनोिवजान’ कहते हैं कयोंिक एक रुगण वयिक को ही जीवन के पतयेक िवभाग में यौनेचछा 37 | 361 िदखलाई दे सकती है। दूसरी तरफ़ वे अनेक जगह फायड की इस िसथित का समथमान भी करते पतीत होते हैं िक मनुषय की पतयेक इचछा वासतव में अपने मूल में यौनेचछा ही है। ओशो की काम संबंधी बातों का मूल आधार ही यही है तभी उनहोंने अपने दशमान में यौनेचछा को अनुिचत और अिवचाररत महतव दे रखा है। फायड का मूल ही बुदों के मनोिवजान के िहसाब से सही नहीं है एक सवसथिचत पजापुरुष को जीवन की पतयेक गितिविध में यौन नहीं िदखाई देता है। ओशो की काम संबंधी बातों का िवरोधाभास यही है िक एक ओर तो वे फायड के मनोिवजान के मूल आधार का समथमान करते पतीत हो रहे हैं तो दूसरी ओर उसे रुगणों का मनोिवजान भी कह रहे हैं। एक बार िकसी ने ओशो से पूछा िक सामानयतः ऐसा माना जाता है िक तंत का सरोकार यौन ऊजामा से है, लेिकन िवजान भैरव तंत की एक सौ बारह िविधयों में से के वल 23 िविधयाँ ही कयों यौन ऊजामा के रूपांतरण के दारा धयान में पवेश करने की बात करती हैं? अिधकांश नहीं, इसका तातपयमा तो ये हुआ िक तांितक धयान िविधयों का सरोकार के वल यौन ऊजामा से नहीं है। इसी पश के उतर में ओशो जीवन की समसत ऊजामा को फायड के समान यौन ऊजामा के ही रूप बताते हैं और फायड का समथमान करते हैं।37 ओशो की और फायड की इस बात का समथमान न ही वेदांतदशमान की परं परा करे गी और न ही तंत-दशमान देख,ें भगवान शी रजनीश (1980), द बुक ऑफ़ सीके ट् स, हापमार कॉिलंस पि्लशसमा इंिडया : 1016-1017. 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 362 362 | िमान की परं परा। तंत-दशमान की िसथित यह है िक यह मानता है िक अनेक िविधयों में से कु छ िविधयाँ यौन ऊजामा के रूपांतरण से भी संबंिधत हैं। यह पितजिप्त (तकमा वाकय) िक ‘काम ऊजामा जीवन ऊजामा है’ एक अलग पितजिप्त है और ‘जीवन ऊजामा का एक रूप काम ऊजामा भी है’ यह एक िभनन अथमा वाली पितजिप्त है। भारतीय दशमान इस दूसरी पकार की पितजिप्त का ही समथमान करता है। लेखक ने पुसतक में ओशो के काम संबंधी िवचारों को अतयंत मौिलक और अपूवमा बताया है कयों िक फायड से िभनन ओशो काम से अधयातम तक जाने का मागमा पशसत कर देते हैं।38 इस मागमा का पहला चरण है – जीवन में काम/यौन िकया की सवीकृ ित। लेखक के अनुसार भारतीय दशमान की पुरुषाथमा आिद अवधारणाओं में काम की सवीकृ ित के वल सैदांितक सतर पर ही है, वयावहाररक सतर पर नहीं है।39 परं तु लेखक इस बात पर िवचार नहीं करता है िक दुिनया भर के अिधकांश धम्थों ने काम के िवचार की आधयाितमक उननित के संदभमा में िनंदा कयों की है? वह इसिलए कयोंिक काम/यौन िनि्चित ही मनुषय के जीवन की एक समसया पहले भी थी और आज भी है। दशमान के िवदाथ्जी को इस पश पर िवचार करना चािहए िक यौन हमारे जीवन में समसयाएँ कयों उतपनन कर रहा है? और अगर हम ओशो रजनीश के परामशमा से यौन-िकया को जीवन की एक पिवत वसतु मान कर सवीकार कर लें तो कया 38 39 देिखए, ओशो : हािशए पर मुखपृष्ठ : 111. वहीं. मनुषय की यौन-िकया संबंधी समसयाएँ समाप्त हो जाएँगी? आज की जो नई युवा पीढ़ी है वह पुरानी पीढ़ी की अपेका यौन-िकया को अिधक सहज रूप से सवीकार करती है। िफर इस नयी पीढ़ी में भी यौन-िकया संबंधी समसयाएँ कयों हैं? मनुषय के जीवन में न के वल यौन-िकया एक समसया है बिलक उसका पूरा जीवन ही एक समसया है। हमारी जीिवका, हमारा वयापार एक समसया है, हमारी राजनीित एक समसया है, िववाह एक समसया है, पररवार एक समसया है इतयािद; अतः हमें यह अिधक वयापक और दाशमािनक पश पूछना चािहए िक वह कया वसतु है जो हमारी जीवन की पतयेक गितिविध को समसया में पररवितमात कर देती है? वासतव में समसया यौन-िकया में नहीं है बिलक हमारे अहम् कें ि्द्रत अंतदवांद युक मन में है। पहले तो मन अहंकेंि्द्रत गितिविधयों से दुःख उतपनन करता है, और िफर वह इस उतपनन दुःख से पलायन का मागमा भी खोजता है; और अपने दुखयुक मन को भुलाने का सबसे अिधक कारगर तरीक़ा यौन-िकया है। एक अथमा में यौन-िकया को समझने में जो ग़लती परं परा कर रही है, ठीक वही ग़लती ओशो रजनीश भी कर रहे हैं। तुिट यह है िक दोनों ही यौन-कममा को अतयिधक महतवपूणमा बता रहे हैं। परं परा इसे एक अपिवत और धममा का सबसे बड़ा शतु बता कर इस साधारण िकया को अतयिधक महतव पदान कर रही है। और ओशो इसे एक पिवत और 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 363 ओशो : हा शए पर मुखपृ धािममाक वसतु बना कर इसे वासतव में अतयंत महतवपूणमा बना रहे हैं। लेिकन वासतिवकता यह है िक न तो यह कोई पिवत वसतु है और न ही यह कोई अपिवत वसतु है। यौन-कममा न ही कोई अपिवत पाप है और न ही यह कोई समािध का किणक धािममाक अनुभव है। यौनिकया का एक उिचत सथान हमारे जीवन में है परं तु ये पिवतता और अपिवतता संबंधी िवचार हमें इसे इसके वासतिवक सवरूप को देखने में बाधा उतपनन कर देते हैं। अतः दशमान के िवदाथ्जी को ओशो के दारा यौन-कममा के बारे में कही बातों पर पशिचह्न लगाना चािहए, उनकी समीका करनी चािहए। वासतव में समसया का मूल यौन-िकया में न होकर यौन के िवचार में है। अतः िफर चाहे हम यौन के बारे में एक पिवत वसतु की तरह िवचार करें अथवा एक अपिवत वसतु की तरह; इसका िवचार मनुषय के जीवन में एक समसया रहेगा। यौन-िकया मनुषय में अितररक पशु जगत में भी है लेिकन वहाँ यह समसया नहीं है कयोंिक वहाँ िवचार की िकया ने इसे िवकृ त नहीं िकया हुआ है। फायड िजस रुगण मनुषय का मनोिवशे षण कर रहा है उसे हर जगह के वल यौन ही िदखलाई देता है कयोंिक इस मनुषय में एक पाकृ ितक और सहज िकया को िवचार ने पूरी तरह से िवकृ त कर िदया है। जैसी वसतुएँ हैं उनहें िबना िकसी अहम् के वयवधान के िबलकु ल उनके अपने सवरूप में देखना ही पजा है। इस पकार के देखने में ही मुिक िनिहत है इसके परे जा कर बह्मचयमा 40 41 देिखये, ओशो : हािशए पर मुखपृष्ठ : 124. वहीं : 126. | 363 अथवा बुदतव की कोई और अमूतमा अवसथा नहीं है, िजसे हमें ओशो जैसे िकसी धममागरुु की सहायता से पाप्त करना है। इस खंड का अगला अधयाय है – ‘अरिवनद और ओशो का नया मनुषय : एक तुलनातमक अधययन’। इस अधयाय में लेखक ने अरिवनद के नए मनुषय की अवधारणा – ‘पजानी पुरुष’40 एवं ओशो के नए मनुषय – ‘ज़ोरबा िद बुदा’41 की अवधारणा का तुलनातमक अधययन करने का पयास िकया है। इसी िकताब के अवधारणा खंड में ‘ज़ोरबा िद बुदा’ की अवधारणा पर एक पूरा अधयाय है वहाँ पर इस अवधारणा में िनिहत िवरोधाभासों को िदखाने का पयास पहले ही िकया जा चुका है। महिषमा अरिवनद और ओशो दोनों ही बहुत ही अलग-अलग पकार के दाशमािनक हैं। अरिवनद अपने नए मनुषय की पेरणा उपिनषदों से गहण कर रहे हैं और ओशो एक भारतीय समाज में वयाप्त ग़रीबी का कारण भारत की आधयाितमक जीवन-शैली को बता रहे हैं और सवयं की जीवन-शैली में एक ‘ज़ोरबा िद बुदा’ की अवधारणा को एक उदाहरण के रूप में पसतुत करने का पयास कर रहे हैं। जो काम अरिवनद कर रहे हैं वह ओशो नहीं कर रहे हैं और जो काम ओशो कर रहे हैं वह अरिवनद नहीं कर रहे हैं, ऐसी िसथित में पथम पश तो यही उपिसथत होता है िक इन दोनों दाशमािनकों की तुलना का आधार कया है? लेखक को लगता है िक 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 364 364 | िमान तुलना का सेतु यह बनता है िक दोनों ही के दशमान में भौितक/जड़ वसतु का िनषेध नहीं है। अरिवनद तो इस पश पर एक पाचीन उपिनषद् की ही बात का अनुपालन करने का पयास कर रहे हैं। तैि्तिरीय उपिनषद् कहता है िक पाणमय अननमय की ही आतमा है अतः पाण में अनन समािहत है इस पकार अरिवनद इस मामले में कोई नयी बात नहीं कह रहे हैं। उपिनषदों की आतमा की अमरता के िसदांत का भौितक वसतु से कोई िवरोध नहीं है, बिलक ठीक इससे उलटा है। एक भौितक वसतु की िदवयता का पता एक आतमजानी को ही हो सकता है। मनुषय की समसया ही यही है िक उसे भौितक वसतु की िदवयता का पता नहीं है और भारतीय परं परा यही कह रही है िक आतम-अजान पूवमाक भौितक वसतुओ ं का संगह ठीक नहीं है। इस खंड का और इस िकताब का अंितम अधयाय है – ‘कृ षणमूितमा और ओशो का धममा-दशमान : एक तुलनातमक अधययन’। लेखक ने इस अधयाय में जे. कृ षणमूितमा और ओशो रजनीश के दशमान से जो धममा की अवधारणा पाप्त होती है उन अवधारणाओं का तुलनातमक अधययन करने का पयास िकया है। लेखक को ऐसा लगता है िक दोनों ने ही कयोंिक एक ही सतय का साकातकार िकया है इसिलए इनकी धममा संबंधी अवधारणाओं में इतनी समानता है और जो िभननता हमें िदखलाई पड़ती है वह पसतुित 42 की है पसताव की नहीं है।42 इस पकार दोनों वयिकतवों की तुलना करने के पारं िभक िबंदु में ही लेखक एक बड़ी ग़लती कर देते हैं। वह ग़लती ये है िक ओशो तो बारं बार अनेकानेक िविधयों से सतय के साकातकार का दावा करते हैं िकं तु जे. कृ षणमूितमा नहीं। उनके िलए सतय कोई ऐसी वसतु नहीं है िजसका साकातकार िकया जा सके ; बिलक सतय उनके िलए एक दैनंिदन जीवन में अिभजता के साथ जीने का िवषय है। मुझे यही बात जे. कृ षणमूितमा की सबसे अिधक िपय लगती है िक वे अपने संवादों में अनेक बार कहते हैं िक ‘मैं नहीं जानता, आइए िमलकर छानबीन करते हैं।’ एक कहता है िक उसके पास के वल सही पश ही हैं उठाने के िलए और एक वयिक यिद ठीक पकार से सवयं के जीवन में इन पशों को उठाता है तो वह सवयं ही इन पशों के उतर तलाश लेगा कयोंिक आतम-जान के केत में समसया ही उतर भी होती है।43 तो दूसरा कहता है िक उसके पास पश नहीं हैं के वल उतर हैं। एक को िथओसोफी जैसी पितिषत वैिशक संसथा पूवमा का बुद और पि्चिम का मसीहा घोिषत करती है और वह इस बात से इंकार करके कहता है िक मैं एक साधारण वयिक हू।ँ तो दूसरा अनेक नाम बदल-बदल कर, तरह-तरह के उपाय रचकर मसीहा/भगवान बनने की कोिशश कर रहा है। ओशो संगिठत धम्थों की आलोचना तो अव्य कर रहे हैं लेिकन साथ ही साथ एक वहीं : 130. देख,ें जे. कृ षणामूितमा (2008), इन द पॉबलम इज़ द सॉलयूशन, पि्ल्ड बाई कृ षणामूितमा फ़ाउंडेशन इंिडया, वसंत िवहार, 124 गीनवेज़ रोड, चेननई. 43 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 365 ओशो : हा शए पर मुखपृ नया संगिठत धममा खड़ा करने की कोिशश कर रहे हैं लेिकन इसके िवपरीत जे. कृ षणमूितमा की कथनी-करनी में भेद नहीं है वे संगिठत धम्थों की आलोचना करते हैं और कोई भी नया संगिठत धममा खड़ा करने का पयास नहीं करते हैं। दोनों वयिकतवों के इस भेद को समझे बग़ैर इनको सही-सही समझना और इनकी तुलना करना संभव नहीं है। दशमान की सबसे बड़ी समसया सतय और वासतिवकता की समसया है। जे. कृ षणमूितमा के अनुसार सतय वह है िजसे िवचार कभी सपशमा नहीं कर पाता है और वासतिवकता वह सब कु छ है िजसमें िवचार सिकय हो सकता है, िजसे िवचार बुन सकता है, िजस पर िवचारिवमशमा कर सकता है। इस पकार सतय और वासतिवकता के मधय एक खाई है, एक अंतराल है और पजा, अंतरमाि्टि, और सजगता सतय के वे उपकम हैं जो सतय और वासतिवकता को संबंिधत करते हैं। और एक िवचार अथवा िवचार से बनी हुई कोई भी वसतु उसी िसथित में एक भ्रम है जब वह सतय से संबंिधत न हो।44 इसका तातपयमा तो यह हुआ िक िकसी धयान िविध से िवचारशूनयता को पाप्त नहीं करना है बिलक पजा-पूवमाक इन बातों को अपने दैनंिदन जीवन में समझना है। जे. कृ षणमूितमा के िलए सारी वसतुएँ यथा धममा, पेम, पजा आिद सतय के ही िविभनन आयाम हैं इसीिलए इनका कोई िवपरीत नहीं होता है और जो वयिक अपने 44 45 46 | 365 दैनंिदन जीवन में सतय की छाया में जीता है उसके जीवन में पेम और घृणा, कोध और करुणा, िहंसा और अिहंसा इतयािद दंदों का अभाव होता है। जीवन में इस पकार के िकसी भी दंद की उपिसथित दशामाती है िक मनुषय सतय से असंबंिधत होकर पूणतमा ः िवचार के केत में जी रहा है। इस कसौटी पर ओशो के जीवन और उनके दशमान को कसने पर िदखलाई देता है िक दोनों दंदों से भरे हुए हैं। उपरोक बातों को धयान में रखे बगैर जे. कृ षणमूितमा और ओशो रजनीश के िवचारों की तुलना नहीं की जा सकती है। जो बातें हमें सतही तौर पर समान िदखाई देती हैं वे भी गहराईपूवमाक िवचार करने पर िभनन िदखलाई देती है। उदाहरण के िलए दोनों ही दाशमािनक दुिनया के समसत संगिठत धम्थों की आलोचना करते हैं। लेिकन जब जे. कृ षणमूितमा ऐसा करते हैं तो उसके पीछे उनकी एक दाशमािनक अंतरमाि्टि है। वह अंतरमाि्टि यह है िक सतय एक पथहीन भूिम है।45 जे. कृ षणमूितमा ने कहा था िक उनकी बातों का सारांश इस छोटे से कथन में ही िनिहत है।46 कयोंिक सतय एक पथहीन भूिम है अतः इसका कोई गुरु, कोई संगठन इतयािद नहीं हो सकते हैं। जो भी जे. कृ षणमूितमा ने अनुबद मन और अनअनुबद सतय के बारे में कहा अथवा िलखा है वह सब उनके इस छोटे से कथन के साथ संगत है। वे इसीिलए संगिठत धममा और इसके समसत पतीकों और कममाकांडों की देख,ें जे. कृ षणामूितमा (1977), ट्रु थ ऐंड ऐकचुअिलटी, कृ षणामूितमा फ़ाउंडेशन इंिडया पि्लके शंस. द ट्रु थ इज़ ए पाथले, लैंड. देख,ें https://jkrishnamurti.org/about-core-teachings. 13_rajesh_osho update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:24 Page 366 366 | िमान आलोचना कर रहे हैं कयोंिक ये सब मनुषय के िवचार की उपज हैं और वे मानते हैं िक िवचार जो भी रचता है वह पिवत47 नहीं हो सकता है और धममा का संबंध पिवतता के साथ है, ऐसी पिवतता िजसे िवचार छू भी नहीं सकता। इस पकार की दाशमािनक अंतरमाि्टि का और दाशमािनक संगित का ओशो रजनीश में अभाव है। ओशो रजनीश एक हािशए के दाशमािनक हैं अथवा मुखपृष के अथवा वे कोई दाशमािनक हैं ही नहीं इस बात का िनणमाय न ही उनके संबंध में िकनही िनंदासूचक कथनों के आधार पर िकया जा सकता है और न ही पशंसामूलक। दाशमािनक कममा पररशमपूवमाक, क्टिपूवमाक िचंतामिण तलाश करना है। ये िचंतामिण हमें अिभजतापूवमाक की गई समयक आलोचना से पाप्त होते हैं। िनमन कारणों से ये िकताब ऐसा नहीं कर पाती है : (1) ये िकताब ऐसे पशंसामूलक कथनों से भरी हुई है जो रजनीश के समथमाकों ने पितिकयासवरूप कहे हैं। (2) इस िकताब में ओशो रजनीश को परं परागत तरीक़े से एक दाशमािनक के रूप में सथािपत करने की कोिशश की गई है जबिक वे एक आधुिनक युग के आधुिनक दाशमािनक हैं। (3) ओशो रजनीश के िवशाल वाङ्मय में से ये िकताब उनको दाशमािनक िसद करने के िलए ग़लत िवषयों का चयन करती है। मेरा ऐसा िवशास है िक ओशो रजनीश के िवशाल वाङ्मय में दशमान की अनेक 47 सैकेड. संभावनाएँ छु पी हुई हैं। ओशो रजनीश ने कबीर आिद भारत की संत परं परा पर िवसतृत वयाखयान िदए हैं िजनका समीकातमक और दाशमािनक अधययन िकया जा सकता है। उनहोंने गीता, धममपद, अषावक, उपिनषद्, नारद भि्तिसूत्र आिद दाशमािनक गंथों पर िवसतारपूवमाक वयाखयाएँ की हैं िजनका दाशमािनक मूलयांकन आज तक नहीं हुआ है। इसी पकार पाइथागोरस, हेराकलाइटस, नीतशे, ख़लील िजबान, झेन, लाओतसु आिद दुिनया भर के अनेक दाशमािनकों पर उनहोंने अपने वयाखयान िदए हैं िजन पर गंभीर दाशमािनक कायमा िकए जा सकते हैं। इसी पकार उनहोंने परं परागत धयान की िविधयों में आधुिनक मनोिवजान की अंतरमाि्टियों को िमलकर अनेक मनोवैजािनक थेरेपीज़ को जनम िदया है, और उनका दाशमािनक मूलयांकन िकया जा सकता हैं। इस पकार भारत के इतने पढ़े-िलखे वयिक के बौिदक वैभव का हमें लाभ उठाना चािहए। 14_vikas_review update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:26 Page 367 ववकास कुमार दुिनया भर में ऐितहािसक दृि्टि से निदयों की अपनी एक िविश्टि महता रही। परं परा, संसकृ ित और सभयता का उद्गम कें द निदयों को ही माना जाता था और यह कु छ हद तक आज भी क़ायम है। मसलन, आज भी भारत में गंगा वनसपित, जानवर और पशु-पकी जीवन की समृद िविवधता को बनाये रखने का घर है और साथ ही एक िवशाल मानव आबादी को पीने, िसंचाई, उदोगों और अनय उदेशयों के िलए पानी उपलबध कराने का समृद सोत है। लेिकन बढ़ती आबादी, शहरीकरण, औदोगीकरण और जल जैसे संसाधनों के असंतिु लत उपयोग ने नदी को शहर के नाले में तबदील कर िदया है। यह लेख मुखयतः जेनी िवलहेम की पुसतक एनवायरनमेंट ऐंड पॉलयूशन इन कोलोिनयल इंिडया : सीवरे ज टेकनॉलजी अलॉनग द सेकेड गैंजेज़ के हवाले से शहरीकरण और नदी पदूषण के जिटल अंतस्संबंधों के इितहास लेखन की समीका की कोिशश है। पुसतक के पहले वाकय में ही वह कहती हैं िक ‘वतडमान समय में भारत की निदयाँ गंभीर पदूषण के समी ा ले ख उ र भारत मे नदी दूषण और शहरीकरण का हा िया इ तहास-िे खन 14_vikas_review update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:26 Page 368 368 | िमान संकट का सामना कर रही हैं जो नगरपािलका के सीवेज, औदोिगक अपिश्टि, ठोस अपिश्टि और अनय हािनकारक पदाथ्थों से लदी हुई हैं’ िजसके िलए वह भारत सरकार के कें दीय पदूषण िनयंतण बोडड की एक हािलया ररपोटड का हवाला देती हैं। इसमें इस बात का िज़स है िक भारत में पदूिषत निदयों की संखया 2009 में 121 से बढ़कर 2015 में 275 हो गई है और साथ ही इस अविध में िजन निदयों के पदूिषत भू-केत की सीमा में बढ़ोतरी हुई है, उसकी भी संखया 150 से बढ़कर 302 हो गई है, जो एक तरह से दोगुनी वृिद को दशाडता है।1 गंगा नदी पदूषण के संकट का एक दृशय उदाहरण है जो बनारस, कानपुर और अनय तटवत्ती शहरों से िनकलने वाले 2600 िमिलयन लीटर से अिधक सीवेज को अपने में समािहत करती हैं। इसका एक मौजूदा कारण राजयों में सीवेज उपचार संयंत की मौजूदा कमता में भारी कमी का होना। मौजूदा समय में सीवेज उपचार यंत कु ल अपिश्टि का के वल कु छ ही पितशत संशोिधत कर पाते हैं और बाक़ी अपयाडप्त रूप से संचािलत हैं। इसके अितररक, चमडशोधक कारख़ाने, तेल शोधनसंयत, पेपर िमल, फ़ामाडसयूिटकलस और अनय उदोग 290 िमिलयन लीटर से अिधक ज़हरीले औदोिगक कचरे का िनवडहन करते हैं जो िक गंगा के तटों पर फें का जाता है, िजसका सटीक उदाहरण कानपुर का जाजमऊ है, जहाँ चमड़ा उदोग से िनकलने वाली अनावशयक वसतुओ ं को फें का जाता 1 है।2 साथ ही कृ िष संबंधी (कीटनाशक और उवडरक अवशेष युक) तरल और ठोस अपिश्टि और धािमडक पूजा से उतपनन अपिश्टि पदाथड पदूषण के सोतों में शािमल हैं िजसने कहीं न कहीं नदी की ख़ुद को पुन: उपचाररत करने की कमता को नुक़सान पहुचँ ाया है। जेनी िवलहेम पुसतक को दो भागों में िवभािजत करके देखती हैं िजससे पाठक को पुसतक की रुपरे खा समझने में बहुत अिधक किठनाई नहीं होती। पुसतक का पहला भाग (अधयाय एक से तीन) मुखयतः 1890 और 1900 के बीच में उतर-पि्चिमी पांत तथा बनारस और कानपुर में जलजिनत सीवरे ज िससटम के िनमाडण की योजनाओं पर धयान कें िदत करता है। अधयाय एक भारत सरकार पर कें िदत है, जहाँ बहस मुखय रूप से ि्रििटश नदी पदूषण अिधिनयम के समान एक राष्ीय नदी पदूषण क़ानून की शुरुआत के इदड-िगदड घूमती है और अंततः 1893 में जाँच की एक िवशेष सिमित दारा सामानय िदशा-िनद्देश जारी करने की ओर ले जाती है। वहीं अधयाय दो उतर-पि्चिमी पांतों की सरकार की िनणडय-पिसयाओं के इदड-िगदड अपने आप को समेटता है। साथ ही 1890 में भारत सरकार दारा एक राष्ीय क़ानून पाररत करने से इनकार पांतीय सतर पर ज़ोरदार बहस का मुदा बन जाता है, िजससे निदयों को मुखय रूप से सभी रोगों के जनम का कारण समझा जाने लगा। हालाँिक उस समय तक भारत भी अपने ‘रोगाणु िसदांत’ जेनी िवलहेम (2016) : 1. िवकास कु मार (2019), ‘वॉटर पॉलयूशन इन उतर-पदेश: अ के स सटडी ऑफ़ टैनरीज़ इन कानपुर’, सें्ल फ़ॉर ज़वाहरलाल नेहरू सटडीज़, जािमया िमिलया इसलािमया, (अपकािशत एम.िफल पबंध). 2 14_vikas_review update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:26 Page 369 उ र भारत मे नदी दूषण और शहरीकरण का हा लया इ तहास-ले खन | 369 को सथािपत करने की पिसया में पयासरत था िजसे जलद ही वैजािनक मापदंडों के आधार पर मानयता िमलने वाली थी। अधयाय तीन दो पमुख सवालों के आसपास उलझा िदखाई देता है। पहला सवाल धन का है, जैसा िक बनारस और कानपुर नगर बोडड ने अपने सीवरे ज बुिनयादी ढाँचे के िवतपोषण के िलए संघषड िकया। और दूसरा सवाल धािमडक है, िजसमें इस बात को आगे रखा गया िक कया गंगा में खुले तौर पर सीवेज का िनवडहन करना उिचत है और यह कायड िकस हद तक गंगा को पभािवत करता है? इन दोनों सवालों में न के वल नगरपािलका, बिलक पशासन और भारतीय समाज, िवशेष रूप से िहंदू जनता अपने आपको शािमल करती िदखाई देती है। इसके इतर पुसतक का दूसरा भाग (अधयाय चार और पाँच) बीसवीं शताबदी के पहले दशक में सीवेज के िवकास को खँगालता है, ख़ास तौर पर युक पांत और बंगाल के संदभड में, जहाँ दोनों पांत िविभनन जैिवक तरीक़ों के साथ नाले के पानी की सफ़ाई के िलए पयोग शुरू करते हैं। अधयाय चार इस बात पर पकाश डालता है िक संयुक पांत में जैिवक सीवेज उपचार कै से हुआ और इसका सथािपत नदी पदूषण और सीवेज िनपटान नीितयों पर कया पभाव पड़ा? अधयाय पाँच मुखयतौर से कलकता पर कें िदत है जो हुगली में सेि्टक टैंक अपिश्टि िनपटान के िलए बंगाल सरकार के दृि्टिकोण और उसके रवैये को समझाने का पयास करता है। 3 एम. डगलस (2002) : 44. दूषण : बीच बहस मे ि्रििटश मानविवजानी मेरी डगलस गंदगी, पदूषण और अशुदता की धारणा को एक सांसकृ ितक िनिमडित की तरह देखती हैं, िजसे कु छ चीज़ों से इतर अलग तरह से लेबल िकया जाता है और िजसे ‘घर से बाहर रखने की वसतु’(matter out of place ) में माना जाता है। यािन सांसकृ ितक रूप से िनिमडत आदेश के बाहर की चीज़।3 ‘पदूषण’ की सांसकृ ितक समझ का महतव अलग महतव है, िजसका पयाडवरण पदूषण और सरकारी सफ़ाई कायडसमों के पररणामों पर लोगों के दृि्टिकोण से कोई लेना-देना नहीं है। अंगेज़ी शबद ‘पदूषण’ पानी की गुणवता को वैजािनक मानकों के आधार पर जाँचनेपरखने के साथ-साथ एक पूणड धमडिनरपेक अथड भी अपने साथ समेटे रहता है, िजसका िकसी भी धािमडक संजा से कोई वासता नहीं है। जेनी िवलहेम का मानना है िक पदूषण िविभनन अथ्थो में अपनी पहचान िवकिसत करने के बाद भी िहंदओ ु ं दारा िदए गए संजानातमक और अथडसंबंधी पहचान को दशाडने में िवफल रहा है। िजससे पदूषण को धािमडक कमडकांडों से जोड़ के देखा जाने लगा। िहंदू समाज ‘पदूषण’ के दो मुखय रूपों के बीच अंतर रखता है : भौितक अशुदता और गंदगी। िजसके िलए वे गंदगी और असवचछता या अनुषान, अशुदता का उपयोग करते हैं, िजसे अपिवतता और अशुदता जैसे शबदों दारा दशाडया जाता है। कई अनुषान संदभ्थों में, भौितक 14_vikas_review update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:26 Page 370 370 | िमान शुदता/असवचछता और पिवत शुदता/ अशुदता िनकटता से जुड़े हुए मालूम पड़ते हैं, और िफर भी जो कु छ भौितक रूप से सवचछ माना जाता है, उसे अिनवायड रूप से शुद नहीं माना जाता है। सीवेज इस संदभड में एक िवशेष रूप से समसयागसत मामला है कयोंिक इसमें मानव मल होता है, िजसे िहंदू आम तौर पर अनुषान की दृि्टि से सबसे अशुद पदाथ्थों में से एक मानते हैं, लेिकन िफर भी आज गंगा जैसी तमाम सारी निदयाँ इस तरह की अशुदता से पररपूणड हैं और तमाम सरकारी पररयोजनाओं के होते हुए भी अिधक बदलाव िदखाई नहीं देता। के ली डी. एली और लीना ज़ुहलके ने अपने शोध काय्थों में सवतंतता के बाद के वष्थों में पदूषण को लेकर उभरी बहसों का िवशे षण िकया है। दोनों अपने तक्थों के माधयम से इस ओर इशारा करती हैं िक ‘पदूषण’ की धािमडक धारणाएँ पयाडवरण संरकण के उदेशय से िकए गए पयासों को सुदृढ़ तरीक़े से पभािवत करती हैं। इस मुदे के पित िहंदू समाज का दृि्टिकोण िकसी भी तरह से एक समान नहीं था और वतडमान में भी इसमें कु छ ख़ासा बदलाव देखने को नहीं िमलता। औपिनवेिशक सरकार की पमुख िवचारधाराओं और नीितयों को भारतीय राजनेताओं, पतकारों और तटवत्ती केत के िनवािसयों दारा बार-बार पभािवत करने की कोिशश होती रही, ख़ासकर गंगा को लेकर। जैसे िक कु छ सथानों पर सीवेज के िनवडहन को न के वल एक संभािवत सवास्य ख़तरे के रूप में माना जाता था बिलक सीवेज में िनिहत बड़ी माता में मल के कारण उसे ज़बरदसत धािमडक अपिवतता के रूप में भी समझा जाता था। इन तक्थों को भारतीय औपिनवेिशक शहरों के संदभड में गहराई से देखा नहीं गया या शायद ही कभी उस पर सोचा गया। इस िवषय पर अिधक िवसतार से िवचार करने वाले पहले िवदान अवधेंद शरण हैं, िजनहोंने िदलली के शहरी पयाडवरण के इितहास में उतर-पि्चिमी पांतों के इदड-िगदड वयाप्त पारं िभक औपिनवेिशक नदी पदूषण की बहस के कु छ मुदों को अपने काम में शािमल िकया है। शरण इस िनषकषड पर पहुचँ ते हैं िक अपिश्टि जल िनपटान के संबंध में वयवसथा उननीसवीं और बीसवीं शताबदी की शुरुआत में उस समय िवकिसत हुई, िजस समय शासन की बागडोर औपिनवेिशक सरकार के हाथ में थी। जल िनकायों की वैिशक अवधारणा, और निदयों का िसंक का रूप लेना और अपिश्टि पदाथ्थों को अपने में आतमसात करने की कमता ने एक नई धारणा को जनम िदया। अब सथानीय पशासन शहर के कचरे को अवशोिषत करने, पतला करने और फै लाने के िलए निदयों के पाकृ ितक जल का इसतेमाल करने लगा और निदयों से पाप्त पानी को िनयंितत कर उसके उपयोग को बढ़ावा देने लगा। इससे शहर में अपिश्टि उपचार और िनपटान संरचनाओंं का जनम हुआ। साथ ही, शरण यह बताते हैं िक इस अवधारणा को ‘कोलोिनयल िडफ़रें स की वैचाररकी’ के रूप में समझने की ज़रूरत है। कयोंिक भारत और इंगलैंड में पदूषण और उसके उपचार की संरचनाओं तथा उससे होने वाले संभािवत नुक़सान का मूलयांकन अलग-अलग तरीक़े से िकया जाता था। यह 14_vikas_review update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:26 Page 371 उ र भारत मे नदी दूषण और शहरीकरण का हा लया इ तहास-ले खन | 371 अंतर इस बात पर भी रोशनी डालता है िक कै से सथानीय िहत समूहों, जैसे िक िहंदू नागररक और उदोगपित लॉबी ने आिधकाररक नीितयों को सिसय रूप से पभािवत िकया।4 भारत के औपिनवेिशक नदी पदूषण के इितहास पर कु छ चुिनंदा कामों में एक अधययन, कलकता पर पतीक चसवत्ती का है। लेख ‘्योरीफ़ाई ंग द ररवर’ यह 1860 के दशक के बाद नगरपािलका जल आपूितड की शुरुआत के बाद पानी की शुदता और पदूषण के आसपास शहरी धारणाओं की जाँच करता है और साथ ही कलकता के सेि्टक टैंक िववाद को अकादिमक बहस में लाने का काम करता है।5 अभी हाल ही में रॉबटड एवेरमे ने अपनी पुसतक में ‘हुगली नदी के वैिशक इितहास’ को दजड िकया है लेिकन यहाँ यह समझने की ज़रूरत है िक लेखक ने हुगली की िजन िवशेषताओं का लेखा-जोखा अपनी पुसतक में िदया है, कया वह आज भी है कयोंिक भारत की जयादातर निदयाँ एक िसंक के रूप में पररवितडत हो चुकी हैं िजससे वह अपनी ऐितहािसक महता को लगभग खो चुकी हैं।6 अमेररका और युरोप में, जहाँ शहरी पयाडवरण इितहास आज अनुसंधान का एक सुसथािपत केत है, वहीं दिकण एिशया में पयाडवरण के मुदों पर िलखने वाले इितहासकार अभी तक पबल गामीण पूवाड गह के बीच फँ से हुए हैं और आज भी मुखय रूप से वािनकी, िसंचाई, भूिम उपयोग और 4 अवधेंद शरण (2011) : 447. िवसतृत जानकारी के िलए, देखें पतीक चसबत्ती (2015). 6 अिधक जानकारी के िलए देख,ें रॉबटड एवरे मे (2020). 7 जोएल ए. टार (2001) : 38. 5 वनय जीवन पर धयान कें िदत कर रहे हैं। बक़ौल जेनी िवलहेम, पमुख अमेररकी पयाडवरण इितहासकार जोएल ए. टार7 ने शहरी पयाडवरण इितहास के पाँच पाथिमक िवषयों को सूचीबद िकया है : (i) पाकृ ितक इितहास पर िनिमडत पयाडवरण और मानव गितिविधयों के पभाव (ii) इन पभावों के पित समाज की पितिसया और पयाडवरणीय समसयाओं को कम करने के पयास (iii) शहर पर पाकृ ितक पयाडवरण के पभाव (iv) शहर के भीतरी इलाक़ों के संबंध और (v) पयाडवरणीय मुदों के संबंध में िलंग, वगड और नसल की जाँच। टार दारा इंिगत िकये गए िबनदुओ ं पर शायद ही भारत के संदभड में काम 14_vikas_review update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:26 Page 372 372 | िमान िकया गया है और अगर हुआ भी है तो मामूली तौर पर। लेिकन वतडमान समय में जोएल टार के इनहीं िबंदओ ु ं को कें द में रखकर अलग-अलग िवषयों पर काम िकया जा रहा है, िजसमें रॉबटड वेराडी जैसे िवदान् शािमल हैं िजनहोंने उननीसवीं शताबदी के दौरान बनारस केत में भूिम उपयोग और पयाडवरण पररवतडन पर अपने लेख में बनारस शहर में पयाडवरण पदूषण (िवशेष रूप से धािमडक िसया-कलापों से होने वाले नदी पदूषण) पर एक छोटा पैरागाफ़ शािमल िकया है। इसी के आसपास के वष्थों में माइकल मान ने िदलली में पानी की आपूितड और उतसजडन हटाने की पिसया के अपने अधययन के साथ एक बड़े पयाडवरणीय संदभड में शहरी सवचछता पर औपिनवेिशक नीितयों को सथािपत करने के महतव पर पकाश डाला है। उनहोंने इस ओर इशारा िकया है िक ‘(ि्रििटश) भारत में शहरीकरण के इितहास पर कम काम िकया गया या उसे सवचछता के इितहास तक ही सीिमत कर िदया गया ।8 िश हकूमत और नदी दूषण पदूषण और नदी पदूषण की समसया मुखय रूप से एक औपिनवेिशक िवरासत की देन थी जो उननीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरुआत में अपिश्टि जल िनपटान के िलए ि्रििटश सरकार दारा िनिमडत नीितयों के फलसवरूप उभरी। इसके बचाव में यह कहा जाता है िक इससे पहले भारत समग रूप से गामीण था और उस समय औदोिगक 8 9 अिधक जानकारी के िलए देख,ें माइकल मान (2007). िवसतार से देखने के िलए देख,ें माइकल मान (2015क). गितिविधयाँ न के बराबर थीं ।9 लेिकन पि्चिमी इितहासकार इस बात से पूरी तरह इतेफ़ाक नहीं रखते थे। उनका मानना था िक नदी को पदूिषत करने वाले सोत बहुतायत संखया में मौजूद थे िजसके पीछे बीसवीं सदी के आगमन तक गंगा के आस-पास मानव बिसतयाँ बसना पारंभ होना था। इनमें से कु छ की िगनती शहरी मापदंडों के िहसाब से ‘शहरी कें द’ के रूप में होने लगी थी और बढ़ती शहरी आबादी और बढ़ते उदोगों ने निदयों की पाररिसथितकी पर दबाव बढ़ाना शुरू कर िदया। हालाँिक इन बहसों ने भारत में पयाडवरण इितहास के केत को अिधक िवसतार िदया और नए-नए िवषयों की खोज की। भारत में नदी पदूषण की तह में जाना शुरू करें गे तो पाएँगे िक कहीं-न-कहीं इसकी शुरुआत औपिनवेिशक शासन की नीितयों से होती है। िवशेषत: उननीसवीं शताबदी के उतरादड के दौरान औपिनवेिशक सरकार के दारा नगरपािलका सीवरे ज पणाली ने ऐसी तकनीकों का इसतेमाल करना पारं भ िकया िजससे गंगा और अनय भारतीय निदयों में नगरपािलका सीवेज का सारा अपिश्टि पदाथड सीधे िगरने लगा, िजससे निदयों में पदूषण की माता बढ़ने लगी और बीसवीं शताबदी के पारं भ में गंगा के िकनारे बसे शहरों की नगरपािलकाओ ं ने अपयाडप्त, ख़राब रखरखाव और िगने-चुने सीवरे ज िससटम के ज़ररये इस समसया को िवसतार िदया। भारतीय उपमहादीप में सीवेज और नदी पदूषण की समसया को िवसतृत तरीक़े से समझाने के 14_vikas_review update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:26 Page 373 उ र भारत मे नदी दूषण और शहरीकरण का हा लया इ तहास-ले खन | 373 िलए उननीसवीं शताबदी में ि्रिटेन में सीवेज िनपटान और नदी पदूषण की समसया को लेकर चल रही बहसों का िज़स ज़रूरी है जो कई दशकों से अिधकाररयों, वैजािनकों और सावडजिनक केत में उतपन हुए िववादों से पनपी हैं। ज़ािहर है यह िववाद और इसके तार औपिनवेिशक िहंदसु तान के महक़मों तक सीिमत न होकर लंदन या युरोप तक पसरे मालूम होते हैं, यािन इसके अंतराडष्ीय पक भी हैं। इन बहसों से यह भी साफ़ होता है िक भारत में नदी पदूषण की समसया अपने आप में िसफ़ड औपिनवेिशक पररघटना न होकर आम औदोिगक और शहराती पररघटना भी है, ि्रिटेन में जो टेमस या राइन नदी के साथ हुआ, वह भारत में गंगा और यमुना के साथ भी हुआ है। यह अलग बात है िक िसयासी दृि्टि से उससे िनपटने के सरकारों के तरीक़े और जजबे लंदन और िहंदसु तान में अलग रहे हैं। युरोप में जहाँ नदी पदूषण एक अतीत है, वहीं िहंदसु तान में वतडमान वासतिवकता का िहससा! निदयों में नगरपािलका सीवेज के सारे अपिश्टि पदाथ्थों की सीधी िनकासी ि्रििटश सैिनटरी आंदोलन के एजेंडे का िहससा थी िजससे शहरी जीवन की पररिसथितयों में सुधार करके बीमारी और मृतयु-दर को कम िकया जा सके । इसका पयोग बाद में भारत में भी िकया गया। लेिकन यह वयवसथा कारगर सािबत नहीं हुई, कारण गेट ि्रिटेन का औदोिगक िवसतार और शहरीकरण था। इस पूरे नाटकीय दख़ल का पररणाम यह हुआ िक बड़े पैमाने पर शहरों में भीड़भाड़ और पयाडप्त आवास की माँग, मानव, पशु और औदोिगक अपिश्टि का खुले तौर पर निदयों में िनपटान, शहरों में वायु और जल पदूषण की गंभीर समसया और पेयजल आपूितड का संकट खड़ा हो गया। साथ ही इन सभी समसयाओं ने शहरवािसयों को अलग-अलग रोगों की िगरफत में लेना शुरू परं परागत रूप से रोगों के उद्भव के िलए समाज सथानीय पयाडवरणीय कारकों जैसे मौसम या हवा की िसथित को िज़ममेदार मानता था लेिकन रोगों का उद्भव सथानीय असवचछ िसथितयों से जिटल रूप से जुड़ा हुआ है और इसका उपचार गंदगी और दुग्संध को दूर करके ही िकया जा सकता है। इस पूरे िवचार को 1849 में ि्रििटश डॉकटर जॉन सनो के पकािशत पत के दावों से समझ सकते हैं िजसमें कहा गया है िक हैज़ा एक िविश्टि एजेंट दारा पेिषत िकया गया रोग है जो मलमूत से दूिषत पानी के माधयम से फै लता है। इसी अविध के दौरान एक अनय ि्रििटश डॉकटर िविलयम बड ने भी बार-बार टायफ़ॉयड और हैज़ा के पसार में पदूिषत पानी की भूिमका की ओर इशारा िकया। इन सभी घटनाओं ने 19वीं सदी के मधय के दशकों में ि्रििटश सरकार दारा शहरी गरीबों की उचच बीमारी और मृतयु दर को देखते हुए असवास्यकर ररहाइश और कं गाली के बीच संबंध को लेकर सव्देकण करने का आदेश िदया। िजसमें एडिवन चाडिवक की ररपोटड (1842) महतवपूणड है जो गेट ि्रिटेन की आबादी की सवचछता की िसथित को लेकर चचाड में रही। इसने आगे चलकर एक ज़ोरदार सावडजिनक सवास्य आंदोलन की शुरुआत करने में अहम भूिमका िनभाई, िजसका नेततृ व बाद में ि्रिटेन के राजनेताओं, नौकरशाहों और 14_vikas_review update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:26 Page 374 374 | िमान डॉकटरों ने िकया। इस ररपोटड की पररणित ि्रिटेन के पहले सावडजिनक सवास्य अिधिनयम (1848) और बाद में एक सवास्य बोडड की सथापना के रूप में हुई। इसी कड़ी में गेट ि्रिटेन ने नगरपािलका सीवरेज पणाली से िनकलने वाले अपिश्टि पदाथ्थों की रोकथाम के िलये आधुिनक सीवरे ज िससटम शुरू िकया, िजसका मक़सद निदयों और जल सोतों को पदूषण मुक करना था। लेिकन कु छ िवदानों का मानना था िक ि्रिटेन में निदयों के पदूिषत होने का एक पमुख कारण उननीसवीं शताबदी के दौरान पारं पररक पणाली में बदलाव था। परं परागत रूप से, मानव मल और अनय कचरे को िपवी वॉलट या सेसपूल में एकत िकया जाता था िजसकी सामगी को िनकालकर गामीण इलाक़ों में िकसानों को खाद के रूप में बेचा जाता था। बाद में बढ़ती आबादी के दबाव से सेसपूल को राहत देने के पयास शुरू हुए। 1815 में लंदन ने घरे लू कचरे को आम सीवरों में डालने के िलए लंबे समय से मौजूद पितबंध को हटा िदया जो तब तक ज़मीनी जल िनकासी के िलए सखती से आरिकत था। लेिकन इस पूरी पिसया ने एक नई समसया को जनम िदया, नदी पदूषण िजसने टेमस नदी को एक ‘गेट िसंक’ में तबदील कर िदया।10 इन सभी क़दमों ने ि्रिटेन में नए तरह के िववादों को जनम िदया जो मुखयतः लंदन की नगरपािलका दारा जल आपूितड से संबंिधत थे। उननीसवीं शताबदी के दौरान राजधानी को 10 पीने का पानी िनजी जल कं पिनयों दारा पदान िकया जाता था, िजसे टेमस और ली नदी से िनकाला जाता था और इसे रे त के िबसतरों के माधयम से छानकर िवतररत िकया जाता था। लेिकन जलद ही इसके पानी की गुणवता को लेकर िशकायतों का बाज़ार गमड हो गया 1815 की नीित को पररवितडत करने के िलए आवाज़ें उठने लगीं और 1828 में नगरपािलका जल आपूितड के सोतों के रूप में दो निदयों की उपयुकता की पहली जाँच वयवसथा की गई। वहीं दूसरी ओर कं पिनयों ने इस बात से इनकार िकया िक टेमस और ली का पानी सेवन के िलए उपयुक नहीं है और सीवेज तथा अनय कचरे से पदूिषत है। साथ ही उनहोंने यह तकड िदया िक पाकृ ितक और कृ ितम शुिदकरण पिसयाओं ने उपभोकाओं को बीमाररयों से मज़बूती से बचाया है। लेिकन इस पूरी घटना ने कई पशों और बहसों को उजागर िकया। पहला, कया निदयांँ सीवेज से पाकृ ितक रूप से ख़ुद को शुद करने में सकम हैं? दूसरा, सीवेज में मौजूद रोग एजेंटों की सटीक पकृ ित कया है और वे नदी के सवतः शुदीकरण की एक उपचारातमक पिसया से कै से पभािवत होते हैं? तीसरा, कया जल िवशे षण के उपलबध तरीक़ों से इन रोग एजेंटों का ठीक-ठीक पता लगाया जा सकता है? और आिख़र में, कया जल कं पिनयों दारा िनयोिजत िफ़लटर, रोग एजेंटों को पभावी ढंग से बेअसर करने में सकम हैं ? इस समसया पर क़ाबू पाने के िलए 1865 में टेमस के उतर और दिकण में दो समानांतर मुखय सीवर नािलयों का िनमाडण िकया गया तािक टेमस में सीधे बहने वाले उन सीवरों को रोका जा सके , जो पहले सीधे नदी में बहाये जाते थे. जल आपूितड और सीवरे ज िससटम के राष्वयापी िनमाडण को बढ़ावा देकर, सीवरों के िलए घर-घर कनेकशन अिनवायड बनाकर तथा सवचछता क़ानून को सावडजिनक सवास्य अिधिनयम 1848 के साथ जोड़कर नदी पदूषण को रोकने की कोिशश की गयी. 14_vikas_review update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:26 Page 375 उ र भारत मे नदी दूषण और शहरीकरण का हा लया इ तहास-ले खन | 375 न दयो की ले कर बहस त: शु मता को नदी की सव-शुिद (सेलफ़-्यूररिफ़के शन) की अवधारणा औपिनवेिशक काल से लेकर आज तक सबसे अिधक िववािदत मुदों में से एक रही है और आज भी जब नदी पदूषण को लेकर बहस होती है तो यह पश ज़रूर उठता है िक कया नदी सवयं को शुद कर सकती है? हालाँिक इस पश के जवाब को लेकर एक आम राय नहीं बन पाई है और न ही िकसी िनषकषड पर पहुचँ ा गया है। िफर भी इस बहस को दो पकों में बाँट कर समझ सकते हैं : पहला, जो आँखों देखे जान पर आधाररत है और दूसरा, वैजािनक आकलन पर। नदी के सव-शुिद के पकधरों ने मुखय रूप से आँखों देखे जान पर आधाररत िवशास को आगे बढ़ाया। उनका मानना है िक धाराएँ वासतव में कु छ हद तक जैिवक पदूषण से सवाभािवक रूप से ख़ुद को शुद करने में सकम होती हैं और यह पिकया पानी के िवपरीत, नदी के बहते पानी में अिधक सिसय रूप से होता है, इस तरह पानी में उपिसथत पदूषण जलदी से ग़ायब हो जाता है। लेिकन वैजािनक पदित का आकलन करने का तरीक़ा इससे अलग है। इस पदित के अनुसार ऐसा माना जाता है िक काबडिनक पदाथ्थों की उचच सांदता की उपिसथित बैकटीररया, कवक और अनय डीकं पोज़रों के िवकास को पोतसािहत करती है िजससे नदी अपने आप को सवत: शुद करती है। लेिकन 11 12 जेनी िवलहेम (2016) : 19. वही. अगर एक बार धारा में छोड़े जाने वाले जैिवक कचरे की माता अिधक हो जाती है तो यह पिसया बािधत हो जाती है। यह बहस 19वीं शताबदी के आिख़री तीन दशकों में काफ़ी तेज़ हो गई, जब वैजािनकों के दो गुटों ने इसके पक और िवपक में अपनी राय रखी। रसायनज एडवडड फैं कलैंड ने पूवड में ‘सीवेज संदषू ण’ की िवकिसत अवधारणा को ख़ाररज िकया, िजसको आधार मानकर लंदन शहर में जल कं पिनयों के दारा पानी की आपूितड की जाती थी। उनका मानना था िक ‘सीवेज से दूिषत पानी को पीने के पानी की आपूितड के सोत के रूप में इसतेमाल नहीं िकया जाना चािहए कयोंिक भले ही सीवेज पदाथड सवयं भंग हो जाता है लेिकन उसमें रोग के एजेंट बने रहते हैं उससे अलग नहीं होते हैं’।11 इस िवचार के फैं कलैंड के मुखय पितदंदी हेनरी लेथेबी थे जो 1855 से 1873 तक लंदन शहर के सवास्य अिधकारी और जल कं पिनयों के मुखय पकधर भी थे। उनहोंने फैं कलैंड से अलग, समग रूप से नदी की सव-शुिद की धारणा को पभावी माना, कीटाणुओ ं के अिसततव को नकारा और रासायिनक जल िवशे षण और जल िनसपादन की िवशसनीयता को बरकरार रखा। इसके बाद 1880 के दशक में, टाईडी ने ‘अनुभवजनय तरीक़ों’ के आधार पर नदी के सव-शुिदकरण की धारणा को सवीकार िकया और फैं कलैंड के शोध को चुनौती दी।12 लेिकन इन चुनौितयों से दोनों पकों के बीच के िववाद का हल नहीं िनकला। पहले 14_vikas_review update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:26 Page 376 376 | िमान ‘नदी पदूषण आयोग’ ने नदी के सवत: शुिद की धारणा का खंडन ज़रूर िकया परं तु जलद ही आंतररक मतभेदों की वजह से पहला आयोग 1868 में भंग हो गया। दूसरे ‘पदूषण आयोग’, िजसके सदसय अब फैं कलैंड भी थे, की सथापना के साथ ही फैं कलैंड के िवचारों को तवजजो दी जाने लगी। फैं कलैंड ने 3000 नमूनों के आधार पर यह िनषकषड िनकाला िक नदी की सवत: शुिद की पिसया काम करती है, लेिकन वह पिसया बहुत ही धीमी है, इस पिसया में नदी में मौजूद बैकटीररया न्टि नहीं हो पाते और इसका इसतेमाल पीने के िलए नहीं िकया जा सकता। साथ ही िभनन-िभनन िमटी में इस पिसया के पररणाम अलग-अलग िदखाई देते हैं। बहरहाल, दोनों कमीशनों की ररपोटड के आधार पर बनाया गया ‘नदी पदूषण िनवारक अिधिनयम’ यह सप्टि करता है िक नीितयों के सतर पर सरकारी महकमे में हेनरी लेथबे ी के िवचार को अिधक पाथिमकता दी गयी। ज़ािहर है िक लेथबे ी के िवचार औदोिगक गुट के िहतों से मेल खाते थे और इस ऐकट में औदोिगक समूहों के हसतकेप की छाप भी िदखाई देती है। जो भी हो, जेनी िवलहेम की राय में नदी पदूषण को रोकने के िलए बनाया गया यह ‘ि्रििटश नैशनल लॉ’ बहुत कमज़ोर और अपभावी रहा। नदी दूषण और भारत मे आज़ादी के पहले के सरकारी यास उपरोक सभी िबनदुओ ं को कें द में रखकर औपिनवेिशक भारत में बहसों, तक्थों और नीितयों को लेकर चचाड शुरू हो गई और बड़े पैमाने पर औपिनवेिशक अिधकाररयों दारा भारत में नदी पदूषण के संबंध में इनका िज़स िकया गया। इनहीं सवालों और बहसों को कें द में रख कर भारत में पहली बार पयोग के तौर पर ि्रििटश भारत की बंबई और कलकता पेिसडेंिसयों में 1860 के दशक में सीवरे ज िससटम का िनमाडण िकया गया, िजसका मुखय मक़सद युरोपीय कवॉटडरों की ज़रूरतों को पूरा करना था। साथ ही कवॉटडरों से िनकलने वाले मल-मूत और दूसरे घरे लू कचरों को नदी में जाने से पहले संशोिधत करना भी था। हालाँिक असिलयत इससे उलट थी, कयोंिक बंबई में सीवरे ज की िनकासी सीधे समुद में होती थी, वहीं कलकता में इसे िबदाहारी नदी में सीधे छोड़ िदया जाता था जो आगे चलकर अपने सारे अपिश्टि पदाथ्थों और घरे लू कचरे को ढोते हुए सीधे ही बंगाल की खाड़ी में जाकर िगरती थी। इस तरह की पिसया वष्थों पहले से इंगलैंड के शहरों में पचिलत थी और िजसे आगे चलकर पितबंिधत कर िदया गया। भारत में इस वयवसथा को सवचछता और बीमाररयों की रोकथाम के िलए हाथों-हाथ िलया गया और आने वाले कु छ वष्थों में यह वयवसथा पोटड िसटी से िनकलकर मैदानी केतों में भी पहुँच गई। सर ऑकलैंड कॉिलवन (188792) लेिफटनेंट-गवनडर, उतर-पि्चिमी पांत, ने बंबई और कलकता के शहरी सवचछता सुधार पयोग को महतवाकांकी पररयोजना के रूप में अपनाया, िजसकी मदद से शहरों, ख़ासकर कैं टोनमेंट केत में पीने के पानी की आपूितड और सीवरे ज पणाली की शुरुआत की जा सके । शहर का सारा कचरा बंबई 14_vikas_review update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:26 Page 377 उ र भारत मे नदी दूषण और शहरीकरण का हा लया इ तहास-ले खन | 377 और कलकता की तरह ही गंगा और उसकी सहायक निदयों में बहाया जाता था। कयोंिक ऑकलैंड कॉिलवन और अनय अिधकारी गंगा तथा उसकी मुखय सहायक निदयों को सवाभािवक रूप से सीवेज सोखता के रूप में देखते थे। ऑकलैंड की पाथिमकता में जो पमुख शहर थे, वे सभी गंगा या इसकी मुखय सहायक निदयों के तटों पर िसथत थे, िजसमें कानपुर, इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ और आगरा शािमल थे। इन जगहों पर इस पररयोजना को लागू करना आसान काम था। साथ ही पशासिनक मतभेदों और िवतीय कारणों की वजह से औपिनवेिशक अिधकाररयों ने सबसे ससती उपलबध सीवरे ज पौदोिगिकयों का चुनाव और समथडन िकया जो वयापक रूप से पदूषण पैदा करने वाली पौदोिगिकयाँ थीं। इस पकार शहरों में वयापक सीवर नेटवकड बनाने की आवशयकता को समाप्त कर िदया गया। जेनी िवलहेम का मानना है िक कई असहमितयों के बावजूद, गंगा और अनय निदयों में सीवेज िनपटान के मसले पर औपिनवेिशक नीितयों ने 1890 और 1910 के बीच एक िनि्चित आकार िलया और साथ ही कु छ सथायी िवशेषताएँ भी हािसल कीं िजससे भिवषय में भारत में नदी पदूषण के िवकास और इस समसया को ठीक से समझने में आसानी हुई। आज़ादी के बाद के सरकारी 13 यास आज़ादी के शुरुआती दशकों की अविध को जेनी िवलहेम ‘पयाडवरणीय वॉटरशेड’ के रूप में रे खांिकत करती हैं।13 हालाँिक इस तरह के िवचार अपने आप में नए नहीं हैं और इनसे पहले भी गांधीवादी और दूसरे पयाडवरण िहतैषी लोगों ने आज़ादी के शुरुआती दशकों को इसी तजड पर आकिलत िकया। आज कई दशकों के बाद भी कु छ लोग जेनी िवलहेम के बात से इतेफ़ाक़ रखते होंगे और कु छ का मत इनके िवपरीत भी हो सकता है। सवतंत भारत की इस अविध का नेततृ व जवाहरलाल नेहरू के दारा िकया जा रहा था, िजसमें औदोगीकरण के साथ-साथ बुिनयादी ढाँचे और पररयोजनाओं पर िवशेष ज़ोर देना था। इसके तहत तेज़ी से आिथडक िवकास के एजेंडे को आगे बढ़ाया जा रहा था, िजससे देश में ग़रीबी ख़तम की जा सके और जयादा से जयादा लोगों को रोज़गार िदया जा सके । उस समय पयाडवरण का सवाल उतना जयादा महतवपूणड नहीं था िजतना अभी के समय में है। हालाँिक नेहरू के बाद इंिदरा और राजीव गाँधी के दारा पयाडवरण के सवालों को अपनी नीितयों में जगह दी गई और राष्ीय सतर पर कु छ क़ानून को बनाए गए जो जल, जंगल और ज़मीन के सवालों की मौजूदगी को बरक़रार रखे हुए हैं।14 जेनी िवलहेम मानती हैं 20वीं शताबदी के आिख़री दशकों और 21वीं शताबदी के पारं िभक दशकों में, जेनी िवलहेम (2016) : 4. िजसमें वनय जीवन (संरकण) अिधिनयम 1972, जल (पदूषण की रोकथाम और िनयंतण) अिधिनयम 1974, वन संरकण अिधिनयम 1980, वायु (पदूषण की रोकथाम और िनयंतण) अिधनयम 1981 और पयाडवरण (संरकण) अिधिनयम 1986. इंिदरा गाँधी के दारा पकृ ित (पयाडवरण) के लगाव और उसके संरकण के िकये गए काय्थों के िलए देख,ें जयराम रमेश (2019). 14 14_vikas_review update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:26 Page 378 378 | िमान राष्ीय और अंतराडष्ीय दोनों सतरों पर पयाडवरणीय संकट से संबंिधत िसयाकलापों ने भारत में राजनीितक और सावडजिनक केत में जागरूकता का माहौल तैयार िकया है िजसमें राजनीितक बहसों, सममेलनों, पेस ररपोट्थों और पकाशन माधयमों का महतवपूणड योगदान है। जहाँ एक तरफ़ भारत की जनता के बीच बढ़ती पयाडवरण जागरूकता और सामािजक पहलों (उदाहरण के िलए – िचपको आंदोलन और अनय ) ने पयाडवरण संरकण के मुदे को देश के कोने-कोने तक पहुचँ ाया है, तो वहीं दूसरी तरफ़, पयाडवरण संबंिधत क़ानूनों के कायाडनवयन में सरकारी लचरता और बदइंतज़ामी ने पयाडवरण के सवालों को पीछे की तरफ़ धके ला है। जेनी ने अपनी पुसतक में कु छ महतवपूणड त्यों और संदभ्थों को जगह दी है िजसमें सरकार की नदी सवचछता योजना, उसकी किथत संरचनातमक कमज़ोरी और उन राजनीितक, सामािजक और धािमडक कारकों का आलोचनातमक िवशे षण िकया गया है जो नदी से संबंिधत नीितयों के कायाडनवयन की सफलता को कम करते हैं। पयाडवरण के समगतापूणड दृि्टि से बढ़ते जलपदूषण और िबगड़ते पाररिसथितकी तंत को िवशे िषत करने का कायड भी िकया है। हालाँिक औपिनवेिशक नीित और उससे पयाडवरण पर पड़ने वाले पभावों को िकताबों की लंबी फ़े हररसत के ज़ररये बहुत पहले ही सप्टि िकया जा चुका है।15 जेनी िवलहेम सरीखे इितहासकारों के हािलया अधययन ने औपिनवेिशक और उतर-औपिनवेिशक सरकारों की नीितयों और पबंधन वयवसथा को एक साथ समझने का पयतन िकया है, जो यह भी िनद्देिशत करता है िक भले ही भारत के नदी पदूषण की वतडमान समसया की जड़ें औपिनवेिशक शासन में खोजी जा सकती हैं, लेिकन आज की िसथित को पूरी तरह से औपिनवेिशक राजय पर मढ़ देना ग़लत होगा। सवतंत भारत ने औपिनवेिशक काल के दौरान नदी पदूषण के िलए िज़ममेदार कई संरचनातमक समसयाओं को आज भी क़ायम रखा है। इतना ही नहीं, पुरानी सीवरे ज और सीवेज उपचार पणािलयों का तेज़ी से कय हुआ है, िजससे नदी पदूषण लगातार बढ़ता गया है। बढ़ती जनसंखया और शहरों का िवसतार नगरपािलका पशासन के कायड को न ष्ष अिधक चुनौतीपूणड बनाता है कयोंिक आज हािलया इितहास लेखन ने न के वल नए िसरे के समय में पानी और उसकी बढ़ती माँग ने से निदयों और उनकी ऐितहािसक महता को नगरपािलका और राजय सरकारों पर अिधक उजागर करने की कोिशश की है बिलक शहरी बोझ डाला है और यह बोझ के वल 15 इस सूची में शािमल हैं के . िशवरामाकृ षणन (1999), मॉडनड फ़ॉरे सट : सटेटमेिकं ग ऐंड एनवायरनमेंटल चेंज इन कोलोिनयल ईसटनड इंिडया, ऑकसफ़डड युिनविसडटी पेस, िदलली; महेश रं गराजन (2001), इंिडया’ज़ वाइलडलाइफ़ िहस्ी : ऐन इं्ोडकशन, परमानेंट बलैक, िदलली; वसंत सबरवाल, महेश रं गराजन और आशीष कोठारी (2001), पीपल, पाकड स ऐंड वाइलडलाइफ़ : टु वड् डस कोएकसिजसटेंस, ओररएंट लॉनगमैन, हैदराबाद ; अवधेंद शरण (2014), इन द िसटी, आउट ऑफ़ पलेस : यूसेंस, पॉलयूशन, ऐंड इन िदलली, 1850-2000; िवनीता दामोदरन, एना िवंटरबॉटम ऐंड ऐलन लेसटर (सं) (2015), द ईसट इंिडया कं पनी ऐंड द नेचरु ल वलडड, पालगेव मैकिमलन, लंदन और वेलायुथम सवडनन (2020), वाटर ऐंड द एनवायरनमेंटल िहस्ी ऑफ़ मॉडनड इंिडया, बलूमसबरी, लंदन आिद. 14_vikas_review update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:26 Page 379 उ र भारत मे नदी दूषण और शहरीकरण का हा लया इ तहास-ले खन | 379 पशासिनक और सिवडस िडलीवरी से ही जुड़ा बनाएँ यह भी एक जरूरी सवाल है िजसे अब नहीं हुआ बिलक यह एक आिथडक भार भी तक हल करने की या उसके बारे में सोचने है, िजससे िनकल पाना नगरपािलका के िलए ज़हमत नहीं उठाई गयी। आसान नहीं है। यहाँ यह समझना ज़रूरी है िक औपिनवेिशक शासन से लेकर वतडमान समय तक में नगरपािलकाओ ं की कायड संदभ्ष पदित और उनके पशासिनक ढाँचे में िकस अवधेंद शरण (2011), फॉम सोसड टू िसंक : तरह के बदलाव हुए हैं और यह बदलाव ‘ऑिफिसयल’ ऐंड ‘इमपोवेड’ वाटर इन िदलली, 1868आज के समय की चुनौितयों का सामना 1956, इंिडयन इकोनॉिमक ऐंड सोशल िहस्ी ररवयु, करने में सकम हैं? और अगर नहीं है तो िकन- 48(3). िकन केतों में बदलाव करने की आवशयकता एम.डगलस (2002), पयूररटी ऐंड डेंजर : ऐन है िजससे पीने के पानी और जल पदूषण की एनािलिसस ऑफ़ कॉनसेपट् स ऑफ़ पॉलयूशन ऐंड टाबू, समसया को नयायोिचत तरीक़े से हल िकया रूटलेज़ कलािसक एिडशन, रूटलेज़, लंदन ऐंड नयू यॉकड . जा सके ? साथ ही पारं पररक जल संरकण जयराम रमेश (2019), इंिदरा गाँधी : पकृ ित में एक पदित को एक बार पुन: पयोग में लाने के जीवन (अनुवाद : अंिचत पाणडेय), ऑकसफ़डड िलए उन पदितयों और तरीक़ों पर िवचार युिनविसडटी पेस, नयी िदलली. करना ज़रूरी है जो कभी समाज की जेनी िवलहेम (2016), एनवायरनमेंट ऐंड पॉलयूशन इन समसयाओं को हल करने में कारगर सािबत कोलोिनयल इंिडया: सीवेज टेकनोलॉजी ए लॉनग द होते थे। अभी तक हम के वल पारं पररक जल सेकेड गैनजेज, रूटलेज़, लंदन ऐंड नयू यॉकड . संरकण के बबाडद होने के सवालों और उनके जोएल ए. टार (2001), अबडन िहस्ी ऐंड एनवायरनमेंटल कारणों को ही उठाते आए हैं इससे आगे िहस्ी इन द यूनाइटेड सटेट्स, इन सी.बनडहाड् डट बढ़कर उसे पुन: िकस तरह पयोग करने (संपािदत), एनवायरनमेंटल पोबलेमस इन यूरोिपयन िसटीज़ ऑफ़ द नाइनटीनथ ऐंड ट् वने टीयथ सेंचरु ी. लायक़ बनाया जाए, इस पर िवचार नहीं करते पतीक चसबत्ती (2015), ्यूरीफ़ाई ंग द ररवर : पॉलयूशन और न ही इस बात पर िक सरकार की ऐंड ्यूररटी ऑफ़ वाटर इन कोलोिनयल कलकता, नीितयों दारा पकृ ित और समाज के बीच जो सटडीज इन िहस्ी, 31(2) : 178-205. गठजोड़ टू ट चुका है उसको िकस तरह पुन: माइकल मान (2007), देलहीज बेलली : ओन द सथािपत िकया जाए। पयाडवरण का िवषय मैनेजमेंट ऑफ़ वाटर, सीवेज ऐंड एकससे टा इन अ चेंिजंग लोगों और समुदायों के बीच से िनकलकर अबडन एनवायरनमेंट डू ररं ग द नाइनटीनथ सेंचरु ी, सटडीज राजय की मशीनरी में कें िदत हो चुका है, इन िहस्ी, 23(1), 1-31. िजससे समाज चाहते हुए भी ख़ुद से उससे ________ (2015क), साउथ एिशया’ज मॉडनड िहस्ी अलग पाता है। साथ ही समुदायों दारा पकृ ित : थीमेिटक पसडपेिकटव, रूटलेज़, लंदन. को बचाने के िलए जो भी पयास िकये जा रहे रॉबटड एवरे मे (2020), हुगली : द गलोबल िहस्ी ऑफ़ अ ररवर, हसटड ऐंड कं पनी, लंदन. हैं उसे कै से शोध और मुखय धारा का िहससा वेलायुथम सरवनन (2020), वाटर ऐंड द 15_dhiraj update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:28 Page 380 पंजाबी सा वाद और अंतररा ीयता धीरज कुमार नाइट अंतरराष्ीय सा्यवाद (क्युिनसट इंटरनैशनिलज़म) के कमोबेश तीन ख़ास पहलू हैं : सैदांितक िनिमडित (थयोरे िटकल कं स्कशन), नैितक पितबदता, और अनुभवधम्मी अमल/वयवहारशीलता (पैिकसस)। अनेक टीकाकारों ने, िनषपकता या पकधरता से, इसके िसदांतों और ऐितहािसक अमल की आलोचना की है।1 इसके बावजूद, सामािजक कांित के पेरणासोत के रूप में अंतरराष्ीय सा्यवाद की नैितक पितबदता के पित आकषडण लगातार बना रहा है।2 बकौल जैक देररदा, माकसडवादी िसपररट का नैितक-राजनैितक पक दुिनया को सबसे जयादा परे शान करता रहा है।3 यह पुसतक भी औपिनवेिशक पंजाब में आम क्युिनसटों के बीच इसी नैितकररवोलयूशनरी पासट् स : कमयुिनसट इंटरनैशनिलज़म इन कोलोिनयल इंिडया (2020) अली रज़ा के ि्ब्रिज युिनविसडटी पेस, के ि्ब्रिज. पृष्ठ : 294. मूलय ₹ 2513.00. 1 शिश जोशी ऐंड भगवान जोश (2011). पफु लल िबदवई (2015). 3 देररदा माकसडवादी िसपररट को एक मुि्तिकामी खवािहश या वादा, (परावैधािनक) नयाय का एक िवचार, और लोकधम्मी जनतंत की एक संकलपना की तरह देखते हैं. उनके अनुसार माकसडवादी िसपररट के दो सबसे महतवपूणड पक हैं, एक है सैदांितक और दूसरा नैितक-राजनीितक. देखें जैक देररदा (2006) : 74, 106-08, 111. 2 15_dhiraj update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:28 Page 381 पंजाबी सा ‘म सा वरी इ रहास’ और ‘दैनं दन वाद’ समीकाधीन पुसतक में मधयवत्ती इितहास पसतुत करने का दावा िकया गया है, िजसके ‘मामूली’ िक़रदारों की मौजूदगी इितहास के उन सीमांत सथानों पर है िजसके एक तरफ़ ‘कु लीन’ वयि्तियों की जीवनी और बौिदक इितहास का केत है तथा दूसरी तरफ़ ‘सवायत सबालटनड’ इलाक़ा। यह िकताब भारतीय क्युिनसटों के मधयवत्मी इितहास को रोज़मराड के सा्यवाद में अनुवािदत करने का पयास है (पृष्ठ : 8)। परंपरागत अिभलेखागार में मौजूद दसतावेज़ों के अलावा संसमरण, जीवनी, आतमकथातमक इितवृतों को तरजीह देकर यह िकताब ऐसे कई कम–यादगार पातों और उनकी दुिनया को सामने लाती है िजनहोंने भारतीय और वैि्विक इितहास को आबाद िकया। मसलन, सोहन िसंह भकना जो मधय पंजाब से ताललुक़ रखने वाले उतरी अमेररका में पवासी मज़दूर थे, िजनहें यह नागवार गुज़रता था िक गोरे उनहें िहंदू दास कहते हैं, जो मज़दूरी में कटौती के िलए उनसे नफ़रत करते हैं (पृष्ठ 33)। इस नसलीय भेदभाव के अनुभव और उतपीड़न के िख़लाफ़ वह ग़दर आंदोलन और िफर क्युिनसट आंदोलन में 4 ीयता | 381 शािमल हो गए। दादा आिमर हैदर ख़ान पंजाब के लसकर थे। उनहोंने भी अपने लसकर होने के नसलीय-वग्मीय उतपीड़न की िनशानदेही की, िजसे रिव आहूजा ने युरोपीय जहाज़ों पर हायरिलंग की िसथित कहा है।4 वे भी पहले ग़दरवादी और उसके बाद कॉमरेड बन गए। ग़दररयों ने भारत में िब्रििटश औपिनवेिशक शासन को सशस्त्र तरीक़ों से उखाड़ फें कने का आगाज़ िकया। हालाँिक उनहें पुिलस ने पकड़ िलया और लाहौर सािज़श मामले (1915) के तहत क़ै द कर िलया। 1920 के दशक में उनमें से बहुतों ने मज़दूर और िकसान आंदोलनों के संगठन में योगदान िदया, जो सामाजयवाद िवरोधी क्युिनसट कांित की उनकी योजना के अिभनन अंग थे। संतोख िसंह एक ऐसे ही िक़रदार थे िजनहोंने 1926 में कृ ित (मज़दूर) बुलिे टन शुरू िकया और 1927 में पंजाब में कृ ित िकसान सभा (मज़दूर और िकसान पाट्मी) की सथापना की। दशडन िसंह फे रुमन ने अकाली िसख सभा आंदोलन और क्युिनसट अिभयान, दोनों में भाग िलया। गुरुदारों को भ्रष्ट महंतों के चंगल ु से मु्ति कराने में उनकी सफलता के बाद, उनमें से कईयों ने गुरुदारा सिमितयों का चुनाव लड़ा। इन क्युिनसटों ने अपने पभाव केत के गाँवों में ‘िवभाजन’ की िहंसा से अलपसंखयकों (मुसलमानों) की रका की (पृष्ठ 238)। यह िकताब कई और ऐसे िकरदारों और पररघटनाओं को उभारती है और ततकालीन हायरिलंग का अथड उस वयि्ति से है जो अपने शम शि्ति को असथायी रूप से कु छ अंतराल के िलए बेचता है, लेिकन इस समयाविध में आिशतावसथा (िडपेंडेंसी) को मंज़रू कर लेता है. वह एक मु्ति-मज़दूर (फी वेज लेबर) से अलग है. ऐितहािसक रूप से हायरिलंग और मु्ति-मज़दूर दो सपष्टतः अलग शेिणयाँ नहीं रहे हैं. आहूजा इस धारणा पर सवाल उठाते हैं िक मु्तिमज़दूरी ने पूँजीवाद या आधुिनकता के तहत हायरिलंग को पूरी तरह से िवसथािपत कर िदया है. रिव आहूजा (2013) : 119. समी ा राजनीितक पहलू और उसके पित आकषडण का नए नज़ररये से इज़हार करती है। यह िहंदसु तान और पािकसतान में क्युिनसटों के ऐितहािसक अमल की समृितयों को तयागने से इनकार करती है। वाद और अंतररा 15_dhiraj update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:28 Page 382 382 | िमान समय में क्युिनसट होने के िविभनन मायनों, उसके सामािजक पहलुओ ं और राजनैितक किठनाइयों को रोज़मराड के सतर पर समझने का पयास करती है। सुशीला कु मारी ने एक अनय कॉमरेड चैन िसंह चैन के साथ ‘ग़ैर-सहवासी’ (नॉन-कांजयुमटे ) िववाह िकया। इस िववाह का पारंिभक उदेशय क्यून में सवतंत मिहला कॉमरेड की मौजूदगी के कारण ‘यौन घोटाले’ के िकसी भी सामािजक ‘दाग’ से (मिहला कॉमरेड और पाट्मी को) बचाना था। हालाँिक बाद में सुशीला ने एक अनय साथी के यौन पसताव को ख़ाररज करने के िलए इसे एक वासतिवक िववाह में बदल िदया। (पृष्ठ 13435)। कई क्युिनसटों ने अपने िख़लाफ़ दजड िकए गए देशदोह के मामलों के तहत जेलों में लंबे अस्से िबताए। सोहन िसंह जोश के वृतांत से पता चलता है िक उनहोंने समान िवचारधारा वाले सािथयों की संगित में जेलों को आतम-साकातकार के सथल में बदल िदया। उनहोंने सा्यवादी सािहतय वयविसथत ढंग से पहली दफ़े जेल में ही पढ़ा, ‘सही’ मायनों में िसदांतों को समझा और भारत में सा्यवाद की आवशयकता और उसकी रणनीित पर साथी क़ै िदयों के साथ मंथन िकया (पृ.133)। पािकसतान में, िवभाजन के बाद क्युिनसटों को इसके गठन के पारं िभक वष्षों से दमन का सामना करना पड़ा। उनमें ऐसे भाकपा सदसय भी थे िजनहें पाट्मी ने मुिसलम जनता को पभािवत करने और मुिसलम लीग को एक पगितशील संगठन में बदलने के और लीग में शािमल होने के िलए पेररत िकया था (पृष्ठ 227)। इस तरह उनहोंने सोचा था िक लीग का चररत बदल जाएगा और वह सामाजयवाद के िख़लाफ़ संय्ति ु लड़ाई का िहससा बन जाएगी। पारं भ में वे शिमकों और िकसानों के कु छ मुदों को लीग की अिभयान सामगी में शािमल करने में सफल भी रहे। हालाँिक, लीग का नेततृ व अिधक चालाक और चतुर सािबत हुआ। उनहोंने जलद ही अपनी पाट्मी में क्युिनसटों की िशनाखत की और उनहें िनकाल बाहर िकया। दादा अमीर हैदर ख़ान को बार-बार जेल में डाला गया और िफर गाँव में नज़रबंद कर िदया गया। एक अद्य भावना के साथ दादा ने क्युिनसट िवचारों के पचार और पािकसतान में मानवािधकारों के दमन के अनय पीिड़तों की सहायता करने के अपने पयासों को जारी रखा। िवभाजन से पैदा हुए राष्-राजयों के बीच पुनिमडलन का उनका सपना उतरोतर छीजने लगा। पासपोटड और वीज़ा के िलए उनका बार-बार अनुरोध करना आिख़रकार 1989 में सफल हुआ। पहली बार पािकसतान के बाहर याता उनहोंने अपने भारतीय सािथयों से िमलने के िलए की। युटो िया और उसकी भाररीय जड पंजाब के ख़ास संदभड में यह िकताब ऐसे पहलुओ ं पर भी चचाड करती है जो अब तक भारत के सा्यवाद के इितहास में (शायद ग़ैर ज़रूरी समझे जाने के कारण) गौण रहे हैं, जैसे क्युिनसट होने की आतम-छिव या िहंदसु तान में सा्यवाद की अमूतड अवधारणा के पित होने वाले िवशेष आकषडण के सथानीय और 15_dhiraj update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:28 Page 383 पंजाबी सा ततकालीन पहलुओ ं की समीका। िकताब का दावा है िक 1917 की रूसी कांित की सफलता और कांितवीर लेिनन दारा सामाजयवाद के िख़लाफ़ चलने वाले सभी उपिनवेशवाद िवरोधी राष्ीय आंदोलनों को नैितक समथडन की घोषणा के आलोक में िहंदसु तान में राष्ीय मुि्ति और सामािजक कांित के एक शि्तिशाली सवपनलोक (युटोिपया) का उदय हुआ। ग़दर पाट्मी तथा अनय राजनैितक आंदोलनों में अंतिनडिहत शोषण मु्ति समाज की िविभनन सविपनल अवधारणाओं या युटोिपया को अंतरराष्ीय सा्यवाद ने नया आयाम िदया। दो महायुदों के बीच के उथल-पुथल और संभावनाओं से भरे कालखंड में सा्यवादी युटोिपया की शि्ति ने कांितकाररयों को अपनी ओर खींचा और पेररत िकया। इन इंक़लािबयों ने मातृभिू म में सामाजयवादी वचडसव; नसलीय उतपीड़न, िपतृसतातमक अधीनता और जाित आधाररत शोषण से सांसाररक मुि्ति की िदशा में काम िकया। उनके समतावादी कायडकम ने असपृशयता, िकसान ऋण और शोषक राजसव पणाली की बुराइयों का िवरोध िकया (पृष्ठ 109)। इसके अलावा, उनहोंने राष्ीयताओं के आतमिनणडय के अिधकार के िसदांत को बनाए रखा। उनका 5 वाद और अंतररा ीयता | 383 मानना था िक ऐसा िसदांत अलपसंखयकों में वचडसव के डर को शांत करे गा और इसिलए राष्ीयताओं के बीच वासतिवक एकता की संभावना के िलए अनुकूल सािबत होगा। रज़ा इस पारं पररक दृिष्टकोण को चुनौती देते हैं िक भारतीय क्युिनसटों ने बाहरी ताक़तों, मुखय रूप से कॉिमनटनड (क्युिनसट इंटरनैशनल) और गेट िब्रिटेन की क्युिनसट पाट्मी (सीपीजीबी) के पभाव में ही काम िकया। फलसवरूप भारतीय क्युिनसट न के वल क्युिनसट उपमहादीप के सामािजक, सांसकृ ितक और राजनीितक ताने-बाने में खुद को शािमल करने में अकम सािबत हुए बिलक यह उनकी राजनैितक िवफलता का सव्वोपरर कारण भी बना।5 क्युिनसटों के राजनीितक वयवहार पर इस तरह की िटपपणी के िवरोध में रज़ा ने सुझाव िदया है िक रोज़मराड की राजनीित में, भारतीय क्युिनसटों के िख़लाफ़ रूिढ़वािदयों की भाषा अपयाडप्त सािबत हुई। वे िनि्चित रूप से युटोिपयन थे, लेिकन भारत में अपने ततकालीन संदभ्षों और दशडकों के पित भी संवेदनशील थे। उनहोंने पररिचत सामािजक, सांसकृ ितक, धािमडक और राजनीितक शबदावली में माकसडवादीलेिननवादी िवचारों का अनुवाद िकया (पृष्ठ 12)। अकाली-िसख आंदोलन में िहससेदारी इस पारं पररक दृिष्टकोण का तकड है िक क्युिनसट भारतीय संदभड की िविशष्टता को समझने में िवफल रहे : बीसवीं शताबदी की शुरुआत के भारत में औपिनवेिशक राजय की अधड-उदार पकृ ित थी. इसने एक वचडसववादी चररत बनाए रखा. यह एक मज़बूत, एकीकृ त औपिनवेिशक राजय था, िजसे आंिशक रूप से एक िनि्चित माता में अिधकार पाप्त था कयोंिक इसने क़ानून, पशासन और िशका की अधड-आधुिनक पणाली सथािपत की थी. सवतंतता के बाद भारत बुजडआ ु -लोकतांितक राजय था. राजयसता के इन संदभ्षों का कांित-पूवड रूस के सैनय राजशाही ज़ाररसट शासन और बीसवीं शताबदी की शुरुआत में चीन के सैनयवादी सता से तुलना की शुरुआत में चीन में उललू बनाना सािबत हुआ. बीसवीं सदी के भारत में राजय के वचडसववादी चररत ने कांित के दो चरणों की रणनीित और भारतीय क्युिनसटों दारा अपनाई गई कांित के िवदोही पथ की रणनीित को अवयावहाररक बना िदया. देख,ें िबदवई (2015) : 8, 49-50, 55, 83, 330; जोशी ऐंड जोश (2011) : xi-xii, 386-90. 15_dhiraj update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:28 Page 384 384 | िमान की और िफर गुरुदारा सिमितयों के चुनाव में भाग िलया। 1937 में कांगेस सोशिलसट पाट्मी (सीएसपी) के साथ एक वयवसथा के तहत पांतीय चुनाव लड़ा। रघुबीर कौर और सोहन िसंह जोश मधय पंजाब के िनवाडचन केतों से पंजाब की पांतीय िवधानसभा के िलए चुने गए। उनहोंने 1946 का चुनाव भी लड़ा। इस बार वे कांगेस, लीग और अकािलयों दारा अपने िख़लाफ़ िकए गए उग हमलों का मज़बूती से सामना नहीं कर सके । अकािलयों ने उनहें धमड िवरोधी और िसखों पर मुिसलम वचडसव के समथडक के रूप में बदनाम िकया। जवाब में क्युिनसटों ने मधय पंजाब में िसखों के िलए अलग िसिखसतान की मांँग को सामररक समथडन देने तक की पेशकश की। उनहोंने दाढ़ी और बाल उगाए, काले कपड़े पहने, पीला झंडा फहराया और गंथ सािहब के साथ पदशडन िकया। धमडिवरोधी आरोपों का मुक़ाबला करने के इरादे से गामीणों को अमृत िपलाया, वग़ैरह, वग़ैरह। (पृष्ठ 233)। ग़ैर-क्युिनसटों दारा सा्यवािदयों पर लगाए जाने वाली तोहमतों (िक वे नािसतक, धमड-देषी, राष्ीयतािवरोधी, िवदेशी एजेंट वग़ैरह थे) के बारे में रज़ा ने एक िदलचसप ख़ुलासा भी िकया है। मेरठ सािज़श मामले (1929-34) के दसतावेज़ खँगालते हुए रज़ा बताते हैं िक दरअसल ऐसे आरोप की तारीख़ी जड़ें पुिलस के आरोप-पतों और सरकारी वकीलों दारा की गई अदालती िज़रह में िमलती हैं। अंगेज़ों दारा ईज़ाद िकए गए इन आरोपों और इसकी राजनैितक शबदावली को ही बाद में 6 िबदवई (2015) : 8-9, 336. अकािलयों, लीिगयों, कांगेिसयों और िफर समाजवािदयों ने अपनाया (पृष्ठ 192-95)। पुसतक सपष्ट रूप से मानती है िक 1930-40 के दशक में कु छ मिहलाएँ क्युिनसट आंदोलन में शािमल हुई ं िजनमें िवमला डांग, सुशीला कु मार और रघुबीर कौर पमुख थे। 1946 में िसंचाई के िलए पानी की कमी को लेकर भारी संखया में मिहलाओं ने ‘हास्से-िचनना’ आंदोलन में भाग िलया। हालाँिक िबदवई सरीखे लोगों ने कहा है िक यह भारतीय समाज की िविशष्टता को समझने में भाकपा की अकमता को ही रे खांिकत करती है िक पाट्मी मिहलाओं की आकांका को बुलंदी से समथडन देने तथा भारतीय िपतृसता के िख़लाफ़ मुसलसल लड़ने में नाक़ामयाब रही। भारत के शाितर पुरुष-वचडसववादी समाज में जेंडर के मुद,े ख़ासकर मिहलाओं की भागीदारी को पाट्मी दारा वह महतव नहीं िदया िजसका वह हक़दार था। िबदवई का तकड है िक वामपंिथयों ने जाित और िलंग के मुदे को अपने कठोर वगड-कें िदत िवशे षणातमक ढाँचे के कारण टाल िदया।6 रज़ा की कहानी से भी पता चलता है िक भारत को सामाजयवादी शासन से मु्ति कराने और एक शिमक और िकसान कांित के िलए मिहलाओं की मुि्ति और समानता के सवालों को कम महतव िदया गया था। िफर भी कांितकारी मिहलाओं ने अपने िलए ज़गह और भूिमकाएँ बनाई ं। फलसवरूप वे मिहलाओं की बराबरी और मुि्ति के सवाल को बड़े पैमाने पर वामपंथी आंदोलन के एजेंडे में शािमल करने में 15_dhiraj update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:28 Page 385 पंजाबी सा मददगार सािबत हुई ं (पृष्ठ 126)। ‘कै से और कहाँ’ ऐसा हुआ? िकताब में यह ग़ायब है। रज़ा ने ठीक ही दावा िकया है िक औरतों की भूिमकाओं पर िनयोिजत चुपपी इस तथय को भी छु पाती है िक उनके दारा घर और समुदाय के दायरे में िकए गए अदृशय शम ने इंक़लाबी मद्षों के राजनीितक-साहिसक कायड को बड़े पैमाने पर संभव बनाया था। अकसर नामचीन कांितकारी भी पित, िपता और पुत के रूप में आदशड से कोसों दूर रहे। पररवार में उनकी अपयाडप्त मौजूदगी और ग़ैर-िज़्मेदारी के बरअकस मिहलाओं को अितरर्ति िदकक़त और िज़्मेदारी उठानी पड़ी (पृष्ठ 127)। पुसतक से ज़ािहर है िक पंजाब के क्युिनसटों की राजनीित ग़रीब िकसानमज़दूर और िनचली जाितयों का पयाडप्त रूप से पितिनिधतव नहीं करती थी (पृष्ठ 16566)। उनहोंने कृ ित के सतंभों में छु आछू त की और अनय बुराइयों की िनंदा बेशक़ की (पृष्ठ 109)। हम अनय अधययनों से भी जानते हैं िक 1930 में अपनाए गए सीपीआई के मसौदे ने गुलामी, जाित वयवसथा और अनय सभी रूपों में असमानता के पूणड उनमूलन का आहान िकया। हालाँिक इस वैचाररक दृिष्टकोण की शुदता को सही रणनीितक अंजाम शायद कभी नहीं िमल पाया। मज़दूरों और िकसानों के कमज़ोर गठबंधनों के टू टने के डर से दशकों तक क्युिनसट सीधे-सीधे जाित के सवाल पर दिलत मोच्से को संगिठत करने से बचते रहे। पिसद क्युिनसट बीटी रणिदवे ने 1982 में िलखा था िक यह सवीकार करना होगा िक जाित के िख़लाफ़ 7 िवजय पसाद (2015) : 299; बी. टी. रणिदवे (982). वाद और अंतररा ीयता | 385 वैचाररक संघष्षों की िनि्चित रूप से उपेका हुई है।7 रज़ा बताते हैं िक मुखय रूप से मधय पंजाब में जाट िसख िकसानों को सा्यवाद के समथडन का आधार बनाया गया था, िजनकी राजनीितक लामबंदी समुदाय, जाित और वगड के आधार पर हुई थी। इसिलए भी मधय पंजाब का इलाक़ा सैनय भत्मी और उतपवास के साथ-साथ राजनीितक अिभयान का भी कें द बना। जाित उतपीड़न और मुि्ति की राजनीित के बारे में रज़ा का लेखा-जोखा असहज सवाल उठाने से बचता है, वह उसी पिततथयातमक (काउंटर-फै कचुअल) जाँच पदित को लागू नहीं करता है जैसा िक वह जेंडर के मुदे पर करता है। जैसे, मधय पंजाब में 1926 से दिलतों के बीच जाित सुधार के िलए कायडरत एक पिसद नेता मंगू राम भी ग़दरवादी थे। वह पंजाब से कै िलफोिनडया (यूएसए) में एक बागान-मज़दूर हो पहुचँ ।े यहाँ वे ग़दर आंदोलन में शािमल हो गए। वह ग़दर कांित के िलए हिथयारों से लदी एक नाव के साथ रवाना हुए। उनहें िफलीपींस के तट पर रोक िदया गया और 1915 में क़ै द कर िलया गया। जालंधर लौटने पर उनहें चमार समुदाय के सदसय के रूप में जाित-आधाररत भेदभाव और अपमान की उसी पीड़ादायक समसया का सामना करना पड़ा, िजससे बचने की कोिशश में वे ग़दरवादी बने थे। उनहोंने जाित और धमड सुधार आंदोलन का आयोजन िकया, िजसे ‘आद धमड’ और बाद में ‘रिवदास मंडल’ कहा गया। इस आंदोलन ने िहंदू पहचान को तयाग िदया, जाित 15_dhiraj update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:28 Page 386 386 | िमान असमानता और कलंक की िनंदा की और समसत मानव जाित, चाहे वह िकसी भी पेशे में हो, की समानता का दावा िकया। इस आंदोलन ने िवशेष रूप से मधय और पि्चिमी पंजाब के चमारों के बीच एक िवदोही मंथन को बढ़ावा िदया। इसके सदसयों ने रूिढ़वादी िसखों और सवणड िहंदओ ु ं दारा उनकी सभाओं पर िकए गए हमलों से डरने से इनकार कर िदया। 1930 के दशक के उतराधड में मंगू राम चुनावी रूप से भी सफल हो गए। दिलत कु ल आबादी का लगभग एक-चौथाई िहससा थे, जो पंजाब में 1930 के दशक में जाित िहंदओ ु ं के बराबर था।8 रज़ा इस ग़दर कांितकारी का कोई िज़क भी नहीं करते। न ही वह मंगू राम दारा बनाए मुि्ति और सुधार के अलग रासते की तरफ़ क्युिनसटों के मौन की ख़बर लेते नज़र आते हैं। ऐसे सवालों में रज़ा की िदलचसपी काफ़ी कु छ फीकी सी लगती है। पररणाम है, एक और अवसर की चूक। मसलन, रज़ा का िववरण पंजाब में क्युिनसटों के राजनीितक वयवहार की के रल जैसे अनय केतों से तुलना की कोिशश भी नहीं करता है। हम अनय अधययनों से जानते हैं िक के रल में क्युिनसटों के सता में आने का मुखय कारण सा्यवाद को जाित समानता के िसदांत में बदलना था। समाजवाद/सा्यवाद के वैचाररक झंडे तले शुरू की गई राजनीितक गितिविध ने जातीय अधीनता को वयापक रूप से चुनौती दी, िजसके कारण तथाकिथत िन्न 8 माकड जुएग्सेनसमेयर (2018); रोनकी राम (2004). िदलीप मेनन (1994). 10 िबदवई (2015) : 5-6, 348. 9 11 नीलादी भटाचायड (2018) : 405-11. जाित के लोगों के िख़लाफ़ जातीय-सता का इसतेमाल अब आसानी से नहीं िकया जा सकता था।9 तो िफर पंजाब में क्युिनसटों ने सामािजक कांित के िलए इस समान रासता कयों नहीं अपनाया? इसका जवाब उतना ही फ़ायदेमदं होता िजतना िक इस पर बरती गई चुपपी परेशान करती है! यह िकताब क्युिनसट आंदोलन में आंतररक गुटों के आपसी संघषड का भी अवलोकन करती है और मानती है िक गुटबाजी युटोिपया की राजनीित से घिनष्ठ रूप से जुड़ी हुई थी (पृष्ठ 146)। कु छ िटपपणीकार इसे लोकतांितक कें दीयतावाद (डेमोके िटक सें्िलज़म) की माकसडवादी-लेिननवादी पदित के एक कष्टपद पररणाम के रूप में समझाते हैं। िविभनन रणनीितयों या सामररक िसथितयों और उनकी सवतंत अिभवयि्ति के मदेनज़र लोकतांितक कें दीयतावाद पाट्मी के अंदर गुटों के गठन की अनुमित नहीं देता है।10 रज़ा का आखयान कांितकाररयों की सैदांितक बहस को बाईपास करता है। रज़ा की चचाड में िविभनन गुटों और उनके िवचारों की पृष्ठभूिम में िनिहत सामािजक-आिथडक संबधं ों और उसके सावडजिनक तकड को समझने की कोई गुजं ाइश नहीं बनती। मसलन पंजाब नहर कॉलोनी में बेदख़ल ख़ानाबदोश-घुमतं ओ ु ं और चरवाहों ने 1928-29 से ‘सन ऑफ़ सॉइल’ (धरतीपुत) अिभयान का आयोजन िकया। उनहोंने ज़मीन वापसी की माँग की।11 उनके अलावे खेती-पेशा िनचली जाितयों ने भी 1928-29 से कृ षक 15_dhiraj update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:28 Page 387 पंजाबी सा जनजाितयों में उनहें शािमल करने के िलए इसी तरह का अिभयान चलाया।12 इसकी पूव-ड पीिठका कु छ यूँ है। 1900-01 के पंजाब भूिम हसतांतरण अिधिनयम ने ‘कृ षक जनजाितयों’ की एक शेणी बनाई, िजसमें मुखय रूप से जाट (िहंद,ू िसख और मुसलमान सभी) िकसान शािमल थे। अिधिनयम ने इन ‘कृ षक जनजाितयों’ की शेणी से इतर वयि्तियों को जमीन के सवािमतव के हसतांतरण पर रोक लगा दी। इस क़ानूनी हसतकेप के आलोक में खेतमज़दूरी की सेपीदारी वयवसथा में और तेज़ी से बदलाव होने लगा।13 लबबोलुआब यह है िक पंजाबी गामीण दुिनया में होने वाले बदलाव के पररणाम कम से कम तीन सतरों पर नज़र आए : िकसानों की बढ़ती ऋणगसतता, भूिमहीन मज़दूरों की बढ़ती संखया, और 1940 तक 4047 पितशत भूिम बटाईदारी के अधीन होना।14 ऐसे में क्युिनसटों ने बड़े पैमाने पर राजनैितक लामबंदी के िलए कौन-सी योजना बनाई? चाहेअनचाहे रज़ा की इंक़लाबी अतीत-चचाड इन सवालों से मुहँ फे र लेती है। ां रकारी मशाल यह पोथी कभी-कभी रोमांचक दावों और उतसव-कथा का िमशण पसतुत करती नज़र आती है। इसकी कथा-तकनीक एक पेरणादायक लहज़े वाली है। यूँ तो िकताब दिकण एिशयाई पररपेकय से क्युिनसट और 12 वाद और अंतररा ीयता | 387 वामपंथी अंतरराष्ीयता के िव्वि इितहास में योगदान करने का दावा करती है (पृष्ठ 4) लेिकन अंतरराष्ीयतावाद पर चचाड मुखय रूप से भारतीय क्युिनसटों और कॉिमनटनड के बीच होने वाले वैचाररक तथा सामररक आदानपदान तक ही सीिमत है। ऐसा लगता है िक इस लेन-देन की पकृ ित भी काफ़ी कु छ एकतरफ़ा सी ही थी। जयादातर कॉिमनटनड ने ही भारतीय क्युिनसटों के िनणडय को आकार और िदशा दी, जैसे 1928-34 के दौरान कांगसे नेततृ व वाले राष्ीय आंदोलन को ‘बुजआ डु राष्वाद’ घोिषत कर उसकी िनंदा करना, या अगसत 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान सामाजयवाद िवरोधी संघषड के लोकिपय मोच्से से दूरी बनाना आिद। बकौल रज़ा, भारतीय क्युिनसट नेततृ व दारा कॉिमनटनड के पित आजाकाररता को तरज़ीह देन,े यािन ररशते के एकतरफ़ा होने के कारण एक भारी राजनैितक क़ीमत भी चुकानी पड़ी (पृष्ठ 100)। बहरहाल, भारतीय क्युिनसटों दारा सा्यवादी अंतरराष्ीयतावाद को कोई उललेखनीय वैचाररक और वयावहाररक योगदान या िनयाडत कया था (यिद था तो!), इस पर शोध का इंतज़ार है। रज़ा ने पुरज़ोर सुझाव िदया है िक कॉिमनटनड ने चाहे िजतनी भी कोिशश की, सभी सतरों पर हर क्युिनसट पाट्मी की गितिविध की िनगरानी करना उसके िलए मुमिकन नहीं था। इस कारण से दुिनया भर में क्युिनसट मृदल ु ा मुखज्मी (2005) : 180-181. यहाँ ग़ौरतलब है िक जजमानी पथा से संचािलत परं परागत मज़दूरी वाली सेपीदारी वयवसथा 19वीं शताबदी के अंितम दशकों में ‘खेती के वयवसायीकरण’ के साथ बदलने लगी थी, िजसके अंतगडत पंजाबी ज़मींदार (पंजाब में ज़मीन के मािलकाना हक़ रखने वाले िकसान को ही ज़मींदार कहते हैं) शिमक जाितयों से ठे का-मजदूरी (कॉन्ैकट लेबर) पर या नक़द भुगतान कर काम लेने लगे. 14 मुखज्मी (2005) : 175. 13 15_dhiraj update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:28 Page 388 388 | िमान उपसंसकृ ितयों का उदय हुआ, िजनका मॉसको से कोई सीधा लेना-देना नहीं था (पृष्ठ 99)। पंजाब में इस तरह की उपसंसकृ ित का रज़ा का िवशेषणातमक िववरण ओजसवी और पेरक है। यह वतडमान की ख़ाितर कांितकारी युटोिपया की ऐितहािसकता को सामने लाता है। भारतीय उपमहादीप में क्युिनसट कांित की िवफलता से जुड़े िनराशावाद का कोई भी शोकरंग रज़ा के िवशेषण में नहीं आता है। उनके िलए, सा्यवाद का मुि्तिदायी वादा एक ररले रन की मशाल है : िपछले क्युिनसटों ने अपनी कांितकारी लपटों को बनाए रखा, अब अगली पीढ़ी को इसे गंभीरता से आगे बढ़ाना चािहए। यह पुसतक इंक़लािबयों की आतमकथाओंऔर संसमरणों के तािकड क और भावनातमक धागों के साथ अपने िवशेषण को जोड़ती है। इसकी लेखन शैली कांितकारी आखयान को जीवंत बनाती है और खुिफ़या अफ़सरों दारा पसतुत अिभलेखीय ररपोट्षों में संरिकत ‘पित-िवदोह (काउंटर-इंसरजेंसी) के गद्य’ को भेदने में मदद करती है। भारतीय वामपंथ पर िवजय पसाद की हािलया िकताब की तरह ही यह िकताब ऐितहािसक सोतों की न के वल अचछी जानकारी देती है, बिलक सोतों की फ़े हररशत को और आगे भी बढ़ाती है। संदभ्भ : द कॉलोिनयल ररशेिपंग ऑफ़ अ रूरल वरड्स, परमानेंट बलैक, िदलली. पफु लल िबदवई (2015), द फीिनकस मोमेंट : चैलेंजेस कॉनफं िटंग द इंिडयन लेफट, हापडर कॉिलंस : नोएडा. बी. टी. रणिदवे (1982), कासट, कलास ऐंड पॉपट्ती ररलेशसं , नैशनल बुक एजेंसी, कलकता. माकड जुग्गेंसमेयर (2018), ‘आद धमड’ इन ऐन ए जैकबसन, हेलेन बसु, एंजेिलका मािलनार और वसुधा नारायणन (सं.), ि्रिरस इनसाइकलोपीिडया ऑफ़ िहंदइू ज़म ऑनलाइन. http://dx.doi.org/10.1163 /22125019_BEH_COM_9000000219, 13 जून, 2021. मृदल ु ा मुखज्मी (2005), कॉलोिनयलाइिज़ंग एगीकरचर : द िमथ ऑफ़ पंजाब एकसेपशनिलज़म, सेज पिबलके शंस, नई िदलली. रिव आहूजा (2013), ‘अ फीडम िसटल एनमेशसड इन सिवडट्यडू : द अनरूली ‘लसकर’ ऑफ़ द एसएस िसटी ऑफ़ मनीला ऑर, ए माइको-िहस्ी ऑफ़ द ‘फी लेबर’ पॉबलम’, इन रिव आहूजा (सं.) विककिं ग लाइवस ऐंड वक्स र िमिलटेंसी : द पॉिलिटकस ऑफ़ लेबर इन कॉलोिनयल इंिडया, तुिलका बुकस, िदलली. िवजय पसाद (2015), नो फी लेफट : द फयूचस्स ऑफ़ इंिडयन कमयुिनज़म, लेफट वड् डस, िदलली. शिश 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यही चार उपनयासकार कयों? िहतेन्द्र के अनुसार इसकी दो वजहें हैं। पहली वजह यह िक इन चारों उपनयासकारों ने इितहासकारों की तरह उपनयास िलखा है। इस अधययन में इन उपनयासकारों के वैसे उपनयासों को ही शािमल िकया गया है, जो एक िनि्चित कालखंड को धयान में रखकर िलखे गए हैं। उदाहरण के िलए कोई उपनयास यिद एक आधुिनक भारत का ऐितहािसक यथाथ्थ िनि्चित कालखंड से शुरू हो रहा है और िनि्चित कालखंड पर जाकर ख़तम हो जा (2022) रहा है तो दूसरा उपनयास उसी कालखंड से िहतेन्द्र पटेल शुरू हो रहा है िजस कालखंड पर पहला राजकमल पकाशन, नई िदलली उपनयास ख़तम हुआ था। इस तरह पृष्ठ : 450 कालकम की दृि्टि से एक िनरं तरता बनी मूलय : ₹ 499. समी ा सा ि 16_venkatesh_kumar update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:29 Page 390 390 | िमान रहती है। उपनयास लेखन की इस पवृित ने िहतेन्द्र को इन चार उपनयासकारों तक पहुचँ ाया। दूसरी वजह है इन उपनयासकारों की िवचारधारा। िहतेन्द्र का यह मानना है िक भारतीय सवाधीनता आंदोलन का अधययन गांधी और नेहरू के इदमा-िगदमा ही घूमता रहा और कई महतवपूणमा सवरों को हािशए पर डालकर छोड़ िदया गया। और यह सब िवचारधारा के नाम पर ही हुआ। इसिलए यह सवाभािवक ही है िक िहतेन्द्र ने अपने अधययन के िलए िजन चार उपनयासकारों को चुना, वे मोटे तौर पर अलग-अलग िवचारधारा के पभाव में थे। भगवतीचरण वमामा समाजवादी थे, यशपाल वामपंथी थे, अमृतलाल नागर कॉन्ेसी थे और गुरुदत िहंदू राष्वादी िवचारधारा से गहरे पभािवत थे। िहतेन्द्र ने अपनी इस िकताब में िजन उपनयासों को अधययन का िवषय बनाया है उनहें वे राजनीितक उपनयास कहते हैं। हम जानते हैं िक िहंदी में ‘राजनीितक उपनयास’ जैसी कोई शबदावली पचिलत नहीं है। िहतेन्द्र ने िजसे ‘राजनीितक उपनयास’ कहा है, वह िहंदी में ‘ऐितहािसक उपनयास’ के रूप में जाना जाता है। िहतेन्द्र के िलए ‘राजनीितक उपनयास’ के कया मायने हैं, इसे वे इरिवंग के हवाले से सप्टि करते हैं − ‘वह उपनयास िजसे हम राजनीितक मानें और इसके साथ यह िदखा सकें िक ऐसा मानने का कारण कया है।’ एररक हॉबसबॉम ने बीसवीं शताबदी को समझने के िलए ‘राजनीित’ को महतवपूणमा माना है। िहतेन्द्र हॉबसबॉम के इस िवचार से पभािवत हैं। िहतेन्द्र दरअसल अपनी इस पूरी िकताब में (1917 से 1962) के भारत के राजनीितक इितहास लेखन के पीछे की राजनीित की पड़ताल करते हैं। भारतीय राजनीित में ितलक जैसे लोगों के योगदान की अवहेलना करके गांधी को महान बताना भी एक तरह की राजनीित है। भारत िवभाजन के िलए िजनना को दोषी ठहराना और कॉन्ेस को कलीनिचट दे देना भी एक तरह की राजनीित है। सता का इसतेमाल करके िवषमवादी सवर को दबाना या उसकी अवहेलना करना भी एक तरह की राजनीित है। िहतेन्द्र के अनुसार भारत का राजनीितक इितहास इस तरह की राजनीितयों से भरा पड़ा है। इन सब की पहचान करके इितहास का एक सवमासमावेशी पाठ तैयार करना ज़रूरी है। कहना न होगा िक इितहास के िकसी िनि्चित कालखंड का सवमासमावेशी पाठ तैयार करना बहुत ही जोिखम भरा काम है। िहतेन्द्र ने साहस का पररचय देते हुए ये जोिखम िलया है। सािहतय और इितहास के आपसी संबंधों पर बहुत पहले से बातचीत होती रही है। िहंदी के अधयेता पेमचंद का यह कथन माला की तरह जपते रहते हैं िक इितहास में नाम और ितिथ के अलावा सब कु छ झूठ होता है और सािहतय में नाम और ितिथ के अलावा सब कु छ सच होता है। 1910 में आचायमा रामचं्द्र शुकल इितहास और सािहतय के ररशते को कु छ इस तरह समझ रहे थे − ‘इितहास कभी उन बहुत से सूकम वयापारों के िलए िजनसे जीवन का तार बँधा है, एक सांकेितक वयापार का वयवहार करके काम चला लेता है, पर उपनयास का संतोष इस पकार नहीं हो सकता। इितहास कहीं यह 16_venkatesh_kumar update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:29 Page 391 सा ि कहकर छु टी पा जाएगा िक अमुक राजा ने बड़ा अतयाचार िकया। अब यह अतयाचार शबद के अंतगमात बहुत से वयापार आ सकते हैं। इससे उपनयास इन वयापारों में से िकसीिकसी को पतयक करने में लग जाएगा।’ िहतेन्द्र पटेल भारत में राजनीितक उपनयास के उदय को औपिनवेिशक शासन के बरअकस एक हिथयार के रूप में देखते हैं। िहतेन्द्र िलखते हैं − ‘बंिकम चन्द्र चटज्जी जैसे लेखक ने भी, जो इितहास िलख सकते थे और पि्चिमी जान से सुपररिचत थे, अपने इितहास को अपने उपनयासों में रखने की कोिशश की। उसके बाद से देश के बहुसंखयक िशिकत लोगों के िलए इितहास के बारे में जानने का सुयोग इितहास की अकादिमक पुसतकों से कम और उपनयासों से अिधक बना। दरअसल इस इितहास को सामाजय के िवरुद संघषमा के एक सथल के रूप में इसतेमाल होना था जो िक इितहास की पाठ् य-पुसतक िलखकर संभव न था। इस पकार औपिनवेिशक भारत में इितहास को दो सतरों पर िलखा गया − अकादिमक और जनिपय सािहितयक पुसतकों के रूप में।’ िहतेन्द्र के अनुसार अकादिमक इितहास में अं्ेज़ी शासन की पशंसा का सवर पखर रहता था और राजनीितक उपनयासों में राष्ीयता का सवर। सवाधीनता आंदोलन का यह दौर भारतीय राष्ीयता के िनमामाण का भी दौर है। भारतीय राष्ीयता का सवरूप कया हो? यह सवाल उस दौर का सबसे महतवपूणमा सवाल था। हमारा समाज अंतिवमारोधों से भरा पड़ा था। एक तरफ़ हम अपने अंतिवमारोधों से संघषमा कर रहे थे तो दूसरी तरफ़ अं्ेज़ों से। को इ ििास बनाने की कमजोर को िि | 391 राजनीितक उपनयासों के कें ्द्र में हमारे समाज के अंतिवमारोध थे। इस आधार पर हम कह सकते हैं िक उपनयास तो सवभाव से ही राजनीितक होता है। रबीन्द्रनाथ, शरत और पेमचंद के उपनयासों में भी राजनीित है। िहतेन्द्र इस बात से इंकार नहीं करते। इस कम में िहतेन्द्र भवानी सेनगुपा और योगेन्द्र मिलक की उस सथापना को पशांिकत करते हैं िजसमें भारत में राजनीितक उपनयासों के िनतांत अभाव की बात कही गई है। अपनी बात को पु्टि करते हुए िहतेन्द्र, शरतचन्द्र के पथ के दावेदार, रबीन्द्रनाथ के चार अधयाय, सतीनाथ भादुड़ी के जागरी और ढोड़ाय चररत तथा फणीश्वरनाथ रे णु के मैला आँचल का उललेख करते हैं। पेमचंद के उपनयास गबन का एक पात देवीदीन खिटक भारतीय सवराज की पूरी अवधारणा पर सवाल उठाते हुए कहता है िक इस सवराज से मुझे कया िमलेगा! बस जॉन की जगह गोिवंद सता पर बैठ जाएगा। िहतेन्द्र ने अपने अधययन के िलए िजन उपनयासों को आधार बनाया है, वे ऐसे असहज सवालों से भरे पड़े हैं। सामानय तौर पर अकादिमक इितहास लेखन में ऐसे असहज सवालों को या तो छोड़ िदया जाता है या उस पर चीनी का लेप चढ़ा िदया जाता है। िहतेन्द्र की इस िकताब की सबसे बड़ी िवशेषता यह है िक इसमें आधुिनक भारत के नगन यथाथमा को ऐितहािसक पररपेकय में साहस के साथ पसतुत िकया गया है। ऐसा करने के िलए िहतेन्द्र ने एक अनूठी शैली का आिवषकार िकया है। सवाल उठता है िक वह शैली कया है? ऊपर कहा जा चुका है िक िहतेन्द्र ने िहंदी के चार चुने हुए उपनयासकारों 16_venkatesh_kumar update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:29 Page 392 392 | िमान के चुने हुए उपनयासों को अपने अधययन का आधार बनाया है। हम जानते हैं िक उपनयास और इितहास की रचना-पिकया अलगअलग होती है। यही वजह है िक उपनयास को हम इितहास की सोत-साम्ी तो मानते हैं लेिकन उसे इितहास का दजामा नहीं देते। उपनयास को इितहास का दजामा िदलाने की चाहत में ही िहतेन्द्र ने यह अनूठी शैली आिवषकृ त की है। इस शैली को यिद कोई नाम देने की कोिशश की जाय तो वह होगा − उपनयास का ऐितहािसक रूपांतरण। लेिकन िहतेन्द्र को इस ‘रूपातंरण’ में िकतनी सफलता िमली है, इस पर कु छ कहना थोड़ी जलदबाज़ी होगी। हाय सकू ल सतर पर िहंदी के पशपत में िकसी उपनयास या कहानी का सारांश िलखने के िलए कहा जाता है। िहतेन्द्र ने अपनी इस िकताब में िजन उपनयासों को अधययन का आधार बनाया है, उनका सारांश भर पसतुत कर िदया है। अपने इस अधययन में िहतेन्द्र को कहाँ पहुचँ ना है, यह उनहोंने पहले ही तय कर िलया था। िजस इितहास पर िनशाना साधते हुए एक नया इितहास िलखने की महतवाकांका िहतेन्द्र अपने सीने में िपछले 30 साल से पाल-पोस रहे थे, वह यह रहा − ‘इितहासकारों समेत पूरा देश गांधी के कां्ेस के नेततृ व में हुए राष्ीय आंदोलन और जवाहरलाल नेहरू के राष् िनमामाण के पोजेकट की जय-जयकार में लगा हुआ था’, (है)। इस कम में िहतेन्द्र इितहास की िजन चुि्पयों की ओर संकेत करते हैं, वे बड़ी ही िदलचसप हैं − ‘1960 के दशक के दौरान इितहासकारों के बीच पवृित बनी िक ऐसे िवषयों पर चचामा नहीं करना िजनसे सांपदाियक सौहादमा के िलए कोई ख़तरा पैदा हो। इन इितहासकारों का यह मानना था िक सांपदाियकता का पसार इितहास की ग़लत वयाखयाओं के कारण ही हुआ इसिलए ऐसे पसंगों के िवसतार में जाने से बचा जाना चािहए िजससे इितहास के अिपय पसंगों (जैसे मंिदर धवंस या भारत िवभाजन के िहंसक सांपदाियक दंगों का िववरण) के बारे में लोग जयादा चचामा करें ।’ िहतेन्द्र को इितहास की इन तथाकिथत चुि्पयों को शोर में बदलकर एक नये इितहास िलखने की िकतनी जलदबाज़ी है, इसे देखने के िलए इनहोंने गुरुदत के हवाले से जो बात कही है, उससे गुज़र भर जाना (एक समीकक के नाते इन पंि्तियों को उदृत करने से बचने का कोई िवकलप मेरे पास नहीं है) पयामाप होगा − ‘अपने अनुभव के आधार पर गुरुदत का मानना था िक िहंदओ ु ं के ऊपर िहंसा करके उनको अपनी जगह छोड़ने के िलए बाधय करने का एक पैटनमा था। मुसलमान सथानीय पशासन के साथ िमलकर काम करते थे। वे िहंदओ ु ं पर दबाव बनाते थे तािक वे अपनी जगह से दूसरी जगह अपनी सुरका के िलए चले जाएँ। यह पंजाब, उतर-पि्चिम पानत और िसंध में 1947 में हुआ। अब इसी टेकनीक का पयोग 1950 में शुरू हुआ। पूव्जी बंगाल में िहंदू इसी तरह से भगाए जा रहे थे। लाखों िहंदओ ु ं की हतया की जा रही थी। इस पररिसथित में नेहरू और शयामा पसाद मुखज्जी के बीच मतभेद हो गया और मुखज्जी ने मंितमंडल से तयागपत दे िदया।’ िहतेन्द्र ने अपनी इस िकताब में सबसे पहले भगवतीचरण वमामा के उपनयासों पर 16_venkatesh_kumar update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:29 Page 393 सा ि बात की है। इस कम में उनके तीन उपनयासों, भूले िबसरे िचत्र, सीधी सचची बातें तथा प्रश्न और मरीिचका को आधार बनाया गया है। इन तीन उपनयासों के माधयम से ‘नेहरू युग के इितहास की पुनरमा चना’ का दावा िकया गया है। 1947 में भगवतीचरण वमामा नवजीवन के संपादक बने। िहतेन्द्र ने िदखाया है िक गोिवनद बललभ पंत ्ुप का पक लेने के कारण उनहें नवजीवन से िनकाल िदया गया। िहतेन्द्र के अनुसार भगवती बाबू ने भारत में राष्ीयता के अभाव के िलए यहाँ के लोगों में वयाप सवािमभि्ति की पवृित को िज़ममेदार माना है। सवािमभि्ति की पवृित के कारण ही अं्ेज़ यहाँ की जनता पर लंबे समय तक राज कर पाए। िहतेन्द्र िलखते हैं − ‘कालांतर में भगवती जी ने िदखलाने की कोिशश की है िक जनता की देवता के पित भि्ति की आदत बनी रहने के कारण गांधी और नेहरू जैसे नेता देवता की तरह माने गए।’ िहतेन्द्र उपनयासों के िविभनन पातों के कथन उदृत करते जाते हैं और उनहें लगता है िक वे उपनयासों के माधयम से एक नया इितहास िलख रहे हैं। िहतेन्द्र को यह समझना चािहए िक उपनयास या कथा सािहतय की आलोचना का अपना िसदांत होता है। उपनयास के पातों के कथनों को उपनयासकार का िवचार मान लेना कहीं से भी उिचत नहीं है। उपनयासकार पातों के माधयम से कभीकभी ऐसी बातें कहलवाता है िजसका सैदांितक तौर पर वह घोर िवरोधी होता है। यिद वह उपनयासकार उपनयास के पात से गांधी को अतािकमा क ढंग से ख़ाररज करवाता है तो इसका मतलब यह हुआ िक ऐसे पातों को इ ििास बनाने की कमजोर को िि | 393 से िमलते-जुलते िवचार रखने वाले लोगों की िवश्वसनीयता पर वह उपनयासकार सवाल उठा रहा है। िहतेन्द्र ने अपनी इस पूरी िकताब में इस मोटी-सी बात की घनघोर उपेका की है। िहतेन्द्र ने अपनी सुिवधा के अनुसार पातों के कथनों को उपनयासकार पर थोप िदया है। इस बात को हम दो-तीन उदाहरणों के माधयम से समझ सकते हैं। िहतेन्द्र िलखते हैं ‘गेंदालाल के मुहँ से भगवती जी ने कहलवाया है िक अछू तों को साथ लाना थोड़े समय का मामला है। बाद में उनहें भुला िदया जाएगा।... देश में पाँच से छह करोड़ अछू त हैं और सात से आठ करोड़ मुसलमान हैं, इन तेरह-चौदह करोड़ लोगों के साथ मामले को िनपटाओ िफर उसके बाद सवराज की बात सोचना।’ िहतेन्द्र के अनुसार फ़रहमतुलला के माधयम से भगवती जी ने मुसलमान कॉन्ेसी नेताओं की पीड़ा को समझने का पयास िकया है। अब यह देखा जाए िक फ़रहमतुलला की पीड़ा कया है? − ‘उसके मुहँ से लेखक ने कहलवाया है िक भारत में बहुत सारे संपदाय हैं, िजनमें धममा का 16_venkatesh_kumar update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:29 Page 394 394 | िमान मामला वयि्ति पर छोड़ िदया गया है, समूह पर नहीं। मुसलमान ऐसा नहीं कर पाते। उनको एक समूह के रूप में अलग रहने का ही अभयास है।... िहंदू और मुसलमान िमल नहीं सकते। दोनों अलग हैं।’ इसी तरह से जमील नाम के एक पात को यह लगता है िक ‘गांधी मुसलमानों की मदद मुसलमानों को िहंदओ ु ं का गुलाम बनाने के िलए करना चाहते हैं।’ जमील का कहना है िक गांधी और दयानंद के कायमाकम एक हैं। फ़क़मा िसफ़मा यह है िक गांधी दयानंद की तरह इसलाम का िवरोध खुलेआम नहीं करते। बशीर अहमद नाम के एक पात को लगता है िक कॉन्ेस ही असली िहंदू महासभा है। सरदार पटेल भी उपनयास के एक पात के रूप में आते हैं और कहते हैं − ‘यह वामपंथ अमीरों का फै शन है’। यिद पातों की उपयुमा्ति बातों को भगवतीचरण वमामा का िवचार मान िलया जाए तो इसे हम उपनयासकार के साथ अनयाय करना ही कहेंगे। सािहतय का सामानय िवदाथ्जी भी कदािप ऐसी ग़लती नहीं करे गा। 1939 से 1948 के बीच उभरे कु छ महतवपूणमा मुदों की चचामा करते हुए िहतेन्द्र यह कहते हैं िक इन मुदों की लगातार अवहेलना की गई हैं। िहतेन्द्र के अनुसार वे मुदे हैं − (1) सुभाष का कॉन्ेस को छोड़ने को िववश िकया जाना (2) गांधी दारा आंदोलन शुरू करने के पहले तीन वष्षों की पतीका (3) 1942 के आंदोलन के बारे में कॉन्ेस की नीित और आंदोलन के चररत का मूलयांकन। भला िहतेन्द्र की इस बात से कै से सहमत हुआ जा सकता है िक इन मुदों पर इितहासकार सामानयतः चुप रहे हैं! भगवतीचरण वमामा ने अपने उपनयास प्रश्न और मरीिचका में 1947 से 1962 के भारत को आधार बनाया है। इस उपनयास के एक पात जनादमान िसंह का मानना है िक ‘राजनीित बहुत गंदी हो गई है। कोई भी आदमी साफ़सुथरे तरीक़े से बड़ा आदमी नहीं बन सकता। पाट्जी को पैसा चािहए और यह उनहीं से िमल सकता था जो बड़े पूँजीपित हैं। और पूँजीपित बेईमान हैं। वे ग़लत तरीक़े से पैसे कमाते हैं और उस कमाई का एक िहससा पाट्जी के फ़ं ड में दान देते हैं।’ उदय नाम के एक पात को यह ‘महसूस होता है िक शमामाजी कॉन्ेस के िटकट से चुनाव जीतते हैं लेिकन उनहें लगता है िक वे चुनाव इसिलए जीत पाए कयोंिक कॉन्ेस के सामने कोई पितपक नहीं था। शमामा जी को यह भी लगता है िक जब तक मुसलमान कॉन्ेस के साथ हैं जब तक उसे कोई हरा नहीं सकता।’ उपयुमा्ति पसंगों के संदभमा में दो-टू क लहजे में कहने वाली बात यह है िक ये ऐसे पसंग नहीं हैं, िजन पर इितहासकारों और सािहतयकारों ने चु्पी साध रखी है। ऐसे पसंगों पर पयामाप िलखा गया है और ऐसे पसंग सामानय जनमानस का िहससा बन चुके हैं। गांधी और नेहरू की आलोचना करके कोई यह दावा करे िक ऐसा वह पहली बार कर रहा है और इस तरह से भारतीय इितहास के रर्ति सथान को भर रहा है तो इससे जयादा हासयासपद बात और कया होगी? ‘नेहरू मोतीलाल नेहरू के बेटे न होते तो पधानमंती नहीं बन पाते’ − यह कहने वाले लाखों हैं। लेिकन यह कहने वाले भी लाखों हैं िक िजस िदन नेहरू की मौत हुई उस िदन मेरे घर में 16_venkatesh_kumar update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:29 Page 395 सा ि चूलहा नहीं जला था। गांधी ने देश को बबामाद कर िदया − यह कहने वाले लाखों हैं। लेिकन गांधी ने देश को बचा िलया − यह कहने वाले करोड़ों हैं। िजस देश में नेहरू युग से मोहभंग को एक मुहावरे का दजामा पाप हो, उस देश के इितहास के बारे में यह कहना िक इसने गांधी, नेहरू और कॉन्ेस की ठीक से आलोचना नहीं की है, हासयासपद है। िजस देश ने राजकमल और धूिमल जैसा किव िदया हो, िजस देश ने राममनोहर लोिहया, जयपकाश नारायण और रामवृक बेनीपुरी जैसा िवचारक िदया हो, उस देश के िवपक (धूिमल को िवपक का किव कहा जाता है) पर सता पक की आलोचना में कं जूसी करने का आरोप लगाना उिचत नहीं। भगवतीचरण वमामा के बाद िहतेन्द्र ने यशपाल के दो उपनयासों पर िवचार िकया है : मेरी तेरी उसकी बात और झूठा सच लेिकन यशपाल के वैचाररक लेखन में भी िहतेन्द्र को अपने काम की बहुत चीज़ें िमल गई ं। यशपाल की िकताब रामराजय की कथा से िहतेन्द्र िनमन पंि्तियाँ उदृत करते हैं − ‘...जब देश के सवतंतता के आंदोलन गांधी जी के नेततृ व के बाहर जाते िदखाई िदए, जनता ि्रििटश राज का आधार सामंतशाही और पूँजीवादी आिथमाक वयवसथा को तोड़ डालने के िलए तैयार िदखाई दी, गांधी जी ने पूंँजीवादी सतय-अिहंसा को ख़तरे में देखकर, ईश्वरीय पेरणा के अिधकार से जनता के कांितकारी आंदोलन को सथिगत कर पूँजीपित शेणी के सवाथमा की रका का काम िकया।’ गांधी के धममा और अिहंसा संबंधी िवचारों की ख़ूब आलोचना हुई है। गांधी को को इ ििास बनाने की कमजोर को िि | 395 आलोचना से परे न तो ख़ुद गांधी मानते थे और न ही उनके पशंसक। इसिलए िसफ़मा यह कह देने से इितहास का भला नहीं होगा िक गांधी राजनीित में धममा को लाते थे, िक 1942 का आंदोलन गांधी और कॉन्ेस के िख़लाफ़ था िक, गांधी के िलए अिहंसा सवराज से बड़ी चीज़ थी, िक ि्रििटश शासन पर गांधी की गहरी आसथा थी, िक गांधी भारतीयों से नहीं, भारतीय पूँजीपितयों से पेम करते थे, िक भारत के असली नायक गांधी नहीं कांितकारी थे, िक कॉन्ेस िहंदओ ु ं की जमात और गांधी िहंदओ ु ं के पोप थे। िहतेन्द्र की यह िकताब ऐसी ही सथापनाओं से भरी पड़ी हैं। िवडंबना यह िक यह सब िहतेन्द्र ने भारतीय इितहास की तथाकिथत चुि्पयों का पदामाफ़ाश करने के नाम पर िकया है। अमृतलाल नागर के उपनयासों के माधयम से भी िहतेन्द्र इसी िनषकषमा पर पहुचँ ते हैं िक िहंदू और मुसलमान को एक मानना ठीक नहीं। एक पूरब की ओर मुहँ करके पूजा करता है और दूसरा पि्चिम की ओर। उनके बीच एकता नहीं हो सकती। पीिढ़याँ उपनयास का एक मुसलमान पात यह िवचार वय्ति करता है। िहतेन्द्र की दृि्टि में आधुिनक भारत का ऐितहािसक यथाथमा है िक िहंदू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते। वैसे अमृतलाल नागर के यहाँ िहतेन्द्र को अपने काम की बहुत चीज़ें नहीं िमलीं। इसिलए सवाभािवक ही है िक नागरजी को बहुत ही संकेप में िनबटा िदया जाए। उललेखनीय है िक इस िकताब में नागर जी के िहससे 36 पृष्ठ और गुरुदत के िहससे 110 पृष्ठ आए हैं। गुरुदत भारतीय जनसंघ के संसथापक 16_venkatesh_kumar update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:29 Page 396 396 | िमान सदसयों में थे। उनहें लगता था िक यिद िहंदी को राष्भाषा बना िदया जाए तो सारी भाषाएँ िहंदी में िवलीन हो जाएँगी। गुरुदत चाहते थे िक ‘सोशिलज़म को कु खयातवाद घोिषत िकया जाए।’ गुरुदत को जब यह लगने लगा िक उनकी पाट्जी राष्वाद से समाजवाद की ओर बढ़ रही है तो उनहोंने पाट्जी का हमेशा के िलए तयाग कर िदया। अपने अधययन के िलए िहतेन्द्र ने गुरुदत के पाँच उपनयासों का चयन िकया है। − सवाधीनता के पथ पर (1942), पिथक (1943), सवराजयदान (1947), देश की हतया (1953), दासता के नए रूप (1955)। गुरुदत के उपनयासों से गुज़रने के बाद िहतेन्द्र िजस िनषकषमा पर पहुचँ ते हैं, उसे देखा जाए − ‘गुरुदत के उपनयासों में यह बार-बार आता है िक कॉन्ेस के गांधीवादी नेततृ व से इतर देशपेिमयों के और भी दल सिकय थे। ये सभी अं्ेज़ों से लड़ना चाहते थे और देश की आज़ादी के िलए सचे्टि थे। इन लोगों के बीच गांधी के पित शदा थी लेिकन उनके राजनीितक कायमाकमों के साथ वे नहीं थे। यह कां्ेसी नेततृ व उनहें ढु लमुल लगता था।’ गुरुदत के बारे में िहतेन्द्र आगे िलखते हैं − ‘गुरुदत के अनुसार कां्ेस का मुक़ाबला करने के िलए मुसलमान, सरकारी कममाचाररयों, अमीर और कमयुिनसट लोगों को आगे िकया गया। युद शुरू होने के पहले मुसलमान नेता उतने महतवपूणमा नहीं थे, पर इस बदली हुई पररिसथित में उनका महतव बहुत बढ़ गया था। सरकार ने उनको बहुत महतव िदया। अमीर लोगों को पैसे कमाने का सुयोग देकर शांत िकया गया। कमयुिनसट रूस के पभाव के कारण भारत के कमयुिनसटों ने अपनी राजनीितक लाइन को बदल िदया। उनको हज़ारों रुपये हर महीने कां्ेस के पभाव को कम करने के िलए िदए जा रहे थे।’ कॉन्ेस का नया इितहास सामने लाने का उतावलापन िहतेन्द्र में देखते ही बनता है − ‘कां्ेस के लोगों के बारे में गुरुदत लगातार यह िदखलाते रहे हैं िक जब मुसलमान िहंदओ ु ं पर आकमण करते थे तो वे लाचार बने रहते थे, पर जब िहंदू मुसलमानों पर हमला करते तो वे अपनी नाराजगी िदखलाते।’ सवाल उठता है िक ऐसे पसंगों और िवचारों से भारतीय इितहास का भला कया भला होगा! इसमें कोई संदेह नहीं िक िहतेन्द्र ने बहुत पररशम करके सािहतय का ऐितहािसक रूपांतरण करने की अनूठी पहल की है। अब इसमें उनहें िकतनी सफलता िमली है, यह एक यक पश है। िहतेन्द्र ने इस िकताब की भूिमका में िलखा है िक यह िकताब पहले अं्ेज़ी में िलखी गई थी। लेिकन िपताजी के गुज़रने के बाद शदांजिल सवरूप िहतेन्द्र ने अपनी इस िकताब को िहंदी में िलखा। मुझे ऐसा लगता है िक िहतेन्द्र को अपनी यह िकताब अं्ेज़ी में भी पकािशत करनी चािहए। अं्ेज़ी के पाठकों की िदलचसपी िहंदी के उपनयासों में जयादा होगी। िहंदी का पाठक उपनयासों का सारांश कयों पढ़ेगा, वह पूरा उपनयास ही पढ़ लेगा। इस सथल पर कोई यह सवाल उठा सकता है िक िहतेन्द्र की यह िकताब उपनयास की आलोचना में कु छ नया जोड़ती है कया? सच तो यह है िक िहतेन्द्र 16_venkatesh_kumar update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:29 Page 397 सा ि ख़ुद नहीं चाहते िक उनकी यह िकताब उपनयास की आलोचना से जुड़ी िकताबों की शेणी में रखी जाए। िहतेन्द्र अपनी इस िकताब को ज़ोर देकर इितहास की िकताब कहते हैं। वैसे िहंदी में उपनयास की आलोचना से जुड़ी िकताबों की शेणी में िहतेन्द्र की इस िकताब को रखा भी नहीं जा सकता। कारण यह है िक इस िकताब के को इ ििास बनाने की कमजोर को िि | 397 िचंतन के दायरे में उपनयास की सैदांितकी को शािमल ही नहीं िकया गया है। यह िकताब िहतेन्द्र की वैचाररक पितबदता को भी सवाल के घेरे में लाती है। िहतेन्द्र इितहासकारों पर िजस एकांिगकता का आरोप लगाते हैं, इस िकताब से गुज़रने के बाद यही आरोप कोई उन पर भी लगा सकता है। 17_shashank_review update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:30 Page 398 मुक्तिकामी ान क खोज शशांक चतुवदी सािहि्यक का कत्तवय तो सपष्ट है िक वे कभी िकसी प्रथा को िचरं तन न समझें, िकसी रूिढ़ को दुिव्तजय न मानें और आज की बनने वाली रूिढ़यों को भी ि्रिकालिसद्ध स्य न मान लें। हज़ारी पसाद िदवेदी मेरी जनमभूिम (चुने हुए िनबंध, पृ. 62) जान की राजनीित (2022) मणीन्द्र नाथ ठाकु र सेतु पकाशन, नई िदलली. पृष्ठ : 360. मूलय ₹ 297. भारतीय राष्ीय आंदोलन में वैचाररक दंद की जो तसवीर उभरती है उससे यह सपष्ट होता है िक ि्रििटश हुक़ूमत के िख़लाफ़ सता के िलए हमारा संघष्ष वासतव में जान की राजनीित में हमारे वैचाररक दख़ल का भी संघष्ष था। गांधी के िहंद सवराज के पुनपा्षठ के हवाले से हमें जात है िक िकस पकार पि्चिमी जान मीमांसा और सता मीमांसा के पित एक पकार का संशय भारत की सामूिहक चेतना में रहा है। इस संशय की पड़ताल से यह भी मालूम होता है िक सवतंत्र भारत में उभरे एक िवशेष पकार के बौिरक वच्षसव (इंस््रुमेंटल रीजिनंग) ने वयि्ति, समाज, 17_shashank_review update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:30 Page 399 मुक्तिकामी शत्ष बताते हैं। लेखक का यह सपष्ट िवचार है िक ‘पि्चिम के िजस आधुिनक िचंतन के आधार पर समाज अधययन का महल िटका है उसके मूल में ही एक गंभीर समसया है’ (पृ. xiv)। इस समसया को रे खांिकत करते हुए वह आगे बताते हैं िक पि्चिमी िचंतन में मनुषय को के वल एक िववेकशील पाणी तो मान िलया गया है िकं तु उसके सवभाव के अनय आयाम िवशे षण से बाहर रह जाते हैं। इस िकताब का मूल उदेशय है िक सामािजक अधययन में वयाप्त इस समसया के समाधान के िलए ‘मनुषय के सवभाव की जिटलता’ को समझने का पयतन करना। लेखक का यह आगह है िक इस क्रम में हमें भारतीय दश्षन से काफ़ी कु छ िमल सकता है कयोंिक ‘भारतीय दश्षन में मनुषय के सवभाव के बहुआयामी होने की अवधारणा है’ (पृ. xv)। िकताब के पहले अधयाय – ‘भारतीय दश्षन से संवाद’ की शुरुआत होती है इस पश से िक समाज अधययन के िवदान भारतीय दश्षन को कयों महतव नहीं देते? उतर तलाशते हुए जब हम आगे बढ़ते हैं तो पि्चिमी जान के दश्षन के सीिमत आधार और एकरे खीय अथवा एकपकीय होने से पररचय होता है। हमें यह भी जात होता है िक दश्षन और धम्ष के अंतस्संबंधों की जिटलता का पि्चिमी परं परा संजान नहीं लेता है िजसके कारण भारतीय जान परं पराओं से संवाद सथािपत नहीं हो पाता। यहीं से िकताब अपने मूल उदेशय को िवशे षण के कें ्द्र में रख कर भारतीय दश्षन से संवाद के िलए उपागम की खोज में आगे बढ़ती है। लेखक का तक्ष है िक भारतीय दश्षन में ईशर ततव का कोई िवशेष समी ा धम्ष और राजनीित के अंतस्संबंधों को भारतीय दश्षन परं परा के संदभ्ष में समझने की संभावनाओं पर पदा्ष ही डाला। भारत और तीसरी दुिनया के अनेक देशों में इंस््रुमेंटल रीजिनंग ने सथानीय जान परं पराओं को गहरा नुक़सान पहुचँ ाया। इस क्रम में ऐसे कई समुदायों का भी िवनाश हुआ, जो भौगोिलक सतर पर अलग-थलग होने के बावजूद अपने जान परं परा में िवकिसत मानव और पकृ ित के परसपरवयापी ररशतों की िवशेष समझ रखने में पारं गत थे। संकपे में कहें तो जान की राजनीित में पि्चिमी जान ने अनय सभी जान िवमश्शों को एक िसरे से ख़ाररज कर िदया। अनेक समाजशासीय अधययन ये सथािपत करते हैं िक आधुिनक भारत के पूवा्षर्ष, अथा्षत् औपिनवेिशक काल से ही बौिरक धरातल पर सभयता बोध के पितमान राष्ीयता के संकीण्ष खाँचे में पररभािषत हो पाने में सवयं को असहज पाते रहे हैं। ऐसी िसथित में परं परागत धम्ष, सभयता और राजनीित नए युग के िवचारों के साथ टकराव की िसथित में बने हुए हैं। हाल के दशकों में बौिरक जगत इन समसयाओं का कोई मौिलक समाधान ढूढ़ँ पाने में असफल रहा है। उपरो्ति संदभ्ष में मणीन्द्र नाथ ठाकु र की िकताब जान की राजनीित एक ज़रूरी हसतकेप है। यह समाज िवजान में गहरे पैठे रूिढ़यों और अकादिमक पथाओं का आलोचनातमक अधययन है िजसमें मणीन्द्र ‘समाज अधययन के जान को ‘मुि्तिकामी’ बनाने के िलए उसे मानव ‘जीवन के अलगअलग आयामों के अंतस्संबंधों से जोड़कर एक पूणत्ष ा की कलपना’ को एक अिनवाय्ष ान की खोज | 399 17_shashank_review update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:30 Page 400 400 | िमान पभाव नहीं है। ऐसे में एक जनतांित्रक संवाद के उपागम का पयोग भारतीय दश्षन और समाज अधययन के बीच संवाद की संभावना तलाशने के िलए करना चािहए। ठाकु र के अनुसार पि्चिमी दश्षन की समसया है िक वह भारतीय दश्षन में सथूल और सूकम के बीच के संबंध को ‘ररिलजन’ की तरह देखता है। लेिकन ठाकु र यह भी रे खांिकत करते हैं िक पि्चिम में के वल यही उपागम उपलबध हो ऐसा भी नहीं है। लेखक को यहाँ पि्चिम दश्षन परं परा के इन मुि्तिकामी उपागमों को भी साथ ही साथ उललेख करना चािहए था, जो भले ही यूरोप में भी हािशए पर ही रहे िकं तु कला, संसकृ ित, इितहास लेखन, सािहतय इतयािद में समय-समय पर अित बुिरवाद और यांित्रकी तािक्ष कता से पनपे असहजता को अपने समाज और पूरी दुिनया से साझा िकया। ठाकु र अगर इन बातों को भी यहाँ पर ले आते तो इस अधयाय में िकताब की िवमश्ष का महतम िवतान उभरता और संवाद की संभावना को तलाशने की पिक्रया को और बल िमलता। ‘पुरुषाथ्ष’ और ‘िवकार’ की अवधारणा को आधार बना कर दूसरा अधयाय समाज अधययन में इसकी उपयोिगता पर बल देता है। मनुषय कया है? इसके जातीय गुण कया हैं? और वह िकस तरह समाज का िनमा्षण करता है? इस पकार के कु छ मूलभूत सवालों को िवमश्ष के कें ्द्र में रखते हुए लेखक पि्चिमी दश्षन में मौजूद जवाबों को खँगालता है। ठाकु र का यह आगह है िक समाज अधययन के िवदानों को समाज के ततव मीमांसा की एक वैकिलपक समझ बनानी होगी। वह समाज दश्षन के िवदानों को आमंित्रत करते हैं िक वे पुरुषाथ्ष और िवकार की अवधारणा को मुि्तिकामी समाज की संकलपना के कें ्द्र में रख कर समाज को समझने का पयतन करें । इस दृिष्ट से ठाकु र का अधययन सामािजक और मनोवैजािनक कोण से मनुषय के सवभाव का मौिलक िवशे षण करने में सफल होता है जो न के वल िकताब के मूल िवमश्ष को एक सैरांितक आधार पदान करता है बिलक इस पूरे शोधपबंध का सबसे सश्ति अधयाय के रूप में सामने आता है। इस अधयाय में भारतीय िचंतन परंपरा में, ख़ासकर योग सूत्र के हवाले से अगर मनुषय के िचत-वृित और सवभाव के परसपर संबधं पर भी बात की गई होती तो शायद मुि्तिकामी दश्षन के तलाश की इस कोिशश को और भी वयापक आधार िमलता। िकताब के िवतान को देखते हए ऐसी अपेका रखना असंगत नहीं माना जाना चािहए। तीसरे अधयाय में समाज अधययन के िलए भाषा का िवमश्ष, अनुभवजनय जान की उपयोिगता, भारतीय िचंतन परं परा में मुि्तिकामी पक इतयािद िवषयों पर िवदानों के मौजूदा समझ का आलोचनातमक मूलयांकन िकया गया है। लेखक का मूल पश है िक िजन समाजों ने आधुिनकता के दश्षन को अंगीकार नहीं िकया या िजनहें यह मुहयै ा नहीं हुआ (जैसे आिदवासी या जन जातीय समूह आिद), ऐसे समाज में समाज अधययन का कया कोई अपना सवरूप हो सकता है। ठाकु र इस अधयाय में इस बात की पूरी तसदीक़ करते हैं िक िकस पकार से पंचतं्रि, योगवािसष्ठ, दिलत िचंतक तुलसीराम की आतमकथा मुदि्त हया और इस शेणी के अनय 17_shashank_review update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:30 Page 401 मुक्तिकामी गंथों को आधार बना कर समाज अधययन से अिज्षत जान को बहुपकीय बनाया जा सकता है। आतमकथाओं को आधार बना कर समाज अधययन के उपागम को िवकिसत िकए जाने की संभावना पर भी एक िवमश्ष है जो िनमन चार महतवपूण्ष मुदों पर िवचार करता है : कया समाज अधययन का कोई भारतीय सवरूप, जो मुि्तिकामी भी हो, संभव है? कया अनुभवजनय जान मीमांसा में हािशए के लोगों के िलए मुि्तिकामी समझ की संभावना जयादा है? समाज अधययन के जान का उदेशय कया है? जान का मापदंड कया है? इन सवालों पर लेखक ने अपनी राय देते हुए समाज अध्यन के पूव्ष पक और उतर पक की कलपना भी की है। चौथा अधयाय भी िपछले अधयायों के मूल िवषय को तािक्ष क रूप से आगे बढ़ाते हुए आधुिनक िचंतन दश्षन में वयाप्त एकपकीय खंिडत जान का सीमांकन करता है। लेखक यहाँ से आगे समाज अधययन में नए रासते तलाशने की िजजीिवषा को बनाए रखने के कारणों पर पकाश डालता है। अधयाय में इस तक्ष को बल िमलता है िक ‘हम संक्रमण काल से गुज़र रहे हैं। इस समय समाज में सब कु छ बदल रहा है और यह बदलाव के वल ऊपरी तौर पर नहीं हो रहा बिलक वह ताितवक है’ (पृ. 175)। यहाँ बदलाव से इशारा उतपादन की वयवसथा और नए वैजािनक खोजों से आने वाले बदलाव की तरफ़ है, िजसका दूरगामी पभाव समूची दुिनया के हर पकार के वयवसथा पर पड़ेगा। इसी क्रम में, अधयाय में पुरुषाथ्ष के चारों आयाम अथा्षत् अथ्ष, काम, धम्ष और मोक ान की खोज | 401 के वयावहाररक पक को पि्चिमी जान-दश्षन के कें ्द्र िबंदु में रख कर एक संवाद सथािपत करने का पयतन िकया गया है। धम्ष को पकृ ित का जान और सामािजक िनयम से जोड़ कर िवसतृत वयाखया की गई है जो समाज अधययन में एक नई संभावना को जनम देती है िजससे की ‘पि्चिम और भारतीय जान परं पराओं में एक िचंतन संवाद की शुरुआत की जा सकती है’ (पृ. 223)। इस अधयाय के संदभ्ष में ही अगर धम्ष और पहचान की राजनीित के अंतस्संबंधों पर भी कु छ चचा्ष होती तो शायद और बेहतर समझ बनती। हालाँिक इसकी िवसतृत वयाखया अगले अधयाय में जनतंत्र के सापेक िमलती है। पाँचवें अधयाय में िचंतन संवाद के माधयम से िविभनन जान परं पराओं को ‘जान की औपिनवेिशक राजनीित से मु्ति’ करने पर बल िदया गया है। साथ ही लेखक का यह भी मानना है िक िचंतन संवाद से ‘आज के समय की समसयाओं का भी बेहतर िवशे षण करना संभव होगा’ (पृ. 224)। वे इसे ‘िवशे षणातमक पयोगों’ की संजा देते हैं और साथ ही यह भी आगह करते हैं िक इन पयोगों को लगातार समय की कसौटी पर कसते रहा जाए । िचंतन संवाद आधाररत पयोग को आधार बना कर मणीन्द्र इस अधयाय में भारतीय जनतंत्र की सफलता को मापने का पयतन करते हैं। अधयाय के एक अनय िहससे में धम्ष की राजनीित की समीका लेखक के इस िवषय पर मौिलक और गंभीर िचंतन को पकट करता है। ‘धम्ष और राजनीित’ के िवदािथ्षयों के िलए यह अधयाय उनकी इस िवषय पर समझ को 17_shashank_review update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:30 Page 402 402 | िमान िनि्चित रूप से एक नया आयाम देगा। धम्ष की आधुिनकता और उतर आधुिनकता की समझ की सीमाओं का िवशे षण यह अधयाय िवसतार से करता है। इस क्रम में मणीन्द्र ठाकु र िकताब के मूल उदेशय को लेकर आगे आते हैं और ‘धम्ष जान है’ के िसरांत को तािक्ष क ढंग से रखते हैं। हालाँिक कु छ जगह लेखक को अपने िवचार और सपष्ट ढंग से रखना चािहए था। मसलन, मणीन्द्र ठाकु र जब कहते हैं िक िहंदतु ववादी राजनीित के बदलते माहौल में ‘आधुिनक िचिकतसाशासी भी मरीज़ों को पूजा-पाठ करने की सलाह देते हैं कयोंिक उनका िवशास अपनी ही जान मीमांसा पर कम हो गया है’ (पृ. 262)। कया लेखक का यहाँ यह कहना उिचत नहीं होता िक आधुिनक िचिकतसाशासी भी दिकणी गोलार्ष के आम जनमानस की तरह लोक जान और आधुिनक जान के ‘दुई पाटन के बीच’ िपस रहे हैं? आधुिनक िचिकतसा और लोक जान के संदभ्ष में मुश ं ी पेमचंद की कहानी ‘मंत्र’ कया इस बहस में हमें आगे का रासता िदखा सकती है? धम्ष और िचिकतसा के संदभ्ष में तो अब पि्चिमी देशों में भी नई बहस हो रही है िक धािम्षक िवशासों का सकारातमक पभाव मनुषय के सवास्य पर पड़ता है। इस िवषय पर लेखक ने शुरू के अधयाय में चचा्ष तो की है लेिकन इस अधयाय के संदभ्ष में और सपष्टता की दरकार रह गई है। अंितम अधयाय धम्ष के िवमश्ष को एक नया आयाम देता है और िहंदू धम्ष में आंतररक आलोचना की गंभीर परं परा को रे खांिकत करने के साथ ही उसकी उपयोिगता को भी पकट करता है। हजारी पसाद िदवेदी की अनाम दास का पोथा और जयशंकर पसाद की कं काल को आधार बना कर ठाकु र इस िसरांत का परीकण करते हैं िक िकस पकार मुि्ति आंदोलनों में संसकृ ित, धम्ष, दश्षन और भाषा की महतवपूण्ष भूिमका हो सकती है बशत्ते उसमें आंतररक आलोचना का आतमबल हो। इस क्रम में अंितम अधयाय हमें यह भी इंिगत करता है िक वत्षमान के बुिरजीिवयों में इसके पित सजगता की कमी देखी जा सकती है। इस िकताब की समीका से इतर भी अगर देखें तो यह लगता है िक सवतंत्र भारत के पास शुरुआती वष्शों में शायद कु छ संभावना रही हो िक वह एक समाज और राष् के रूप में मुि्तिकामी जान की परं परा को आगे ले जाए। शायद उसकी दुिवधा यह थी िक वो या तो अपनी खंिडत चेतना से पीछे मुड़ कर इितहास की परं परा को सवीकार करे या िफर भिवषयोनमुख हो कर ‘तक्ष ’ और तािक्ष कता’ के उस वच्षसव को सवीकार करे िजसके सामने पूरा पि्चिम नतमसतक था। उपिनवेशवाद के दौर में जो जान परं परा भारत में आयाितत हुई उसका पारूप कु छ इस पकार से था। यूरोप के दो आधुिनक िकं तु िवपरीत वैचाररक धुवों – उदारवाद और माकस्षवाद – ने उस मानववाद को आधार बनाया जो आधुिनक पि्चिमी िचंतकों के खंिडत चेतना और पतयकवाद में सामंजसय िबठा कर समाज के आदश्शों को रे खांिकत करता है। इनमें मनुषय और ‘अहंवाद’ (ईगोइज़म) मानवीय और पाकृ ितक संबंधों के कें ्द्र में था। यूरोप में मानववाद का िवकास सोलहवीं और 17_shashank_review update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:30 Page 403 मुक्तिकामी सत्रहवीं शतािबदयों के नवजागरण के दौरान हुआ और माकस्षवाद ने 19वीं शताबदी में उस पर पामािणकता का मोहर लगाया। उदेशय िजतना भी ‘पिवत्र’ रहा हो, माकस्षवाद भी उसी खंिडत चेतना पर आधाररत था जो ि्रििटश सामाजयवाद पर सवार हो कर उदारवाद के रूप में बंगाल में नवजागरण का पाठ पढ़ाने आया। कहीं न कहीं भारत में समाज अधययन में यह खंिडत चेतना गहरे पैठ गई है और ऐसे में मणीन्द्र नाथ ठाकु र की यह कृ ित आगे का रासता िदखाती है। िकताब में पृष्ठ दर पृष्ठ ‘संवाद’ शबद की पुनरावृित से यह जात होता है िक लेखक का आगह बहुत ही साफ़ है। समाज अधययन सथािपत िवधाओं की पररपािटयों का लकीर के फ़क़ीर होने से बचे। िकताब ने िहंदू दश्षन को धम्ष दश्षन से आगे ले जाकर भारतीय दश्षन के रूप में िचि्नित करने का पयतन िकया है। समाज अधययन की शोध पिविध (ररसच्ष मेथड) में पूव्ष पक और उतर पक की उपयोिगता को रे खांिकत कर इसका इसतेमाल करते हुए जान की राजनीित में लेखक ने बखूबी िसर िकया है िक भारतीय-दश्षन परं परा में ततव जान और सथूल जान के अितरर्ति ‘ररसच्ष मेथड’ के संदभ्ष में भी बहुत कु छ सीखने के िलए है। भारतीय-दश्षन और समाज अधययन के बीच संवाद कयों अपेिकत है? इस सवाल का जवाब ढूँढ़ते हुए ठाकु र कहते हैं िक ‘भारतीय िचंतन में जो मनुषय की अवधारणा है उसमें साव्षभौिमकता पि्चिमी दश्षन से कहीं जयादा है’ (पृ. xv)। यहाँ एक बड़ा सवाल खड़ा होता है: लेखक का यह िवचार कया दश्षन ान की खोज | 403 परं पराओं के संवाद को िफर से उसी सापेिककता और पहचान की राजनीित की अंधी गिलयों की तरफ़ नहीं ले जा रहा है जहाँ से िनकलने का आगह ही िकताब का पसथान िबंदु है? इस पश का सटीक उतर िकताब में बहुत साफ़ नहीं है। हालाँिक लेखकीय मंतवय को लेकर तो कोई संशय नहीं है, वह पहचान की राजनीित (और िहंदतु व) से भारतीय िचंतन परं परा को हुए और होने वाले नुक़सान के पित सजग है। उममीद है िकताब के अगले संसकरण में ऐसे ढीले-ढाले व्तिवयों को बेहतर शबद चुनाव से सुधार िदया जाए और संशय की संभावना िसरे से ख़ाररज हो जाए। जान की राजनीित की समीका के संदभ्ष में अगर हम ख़ुद से पूछें िक भारतीय जान परं परा से संवाद सथािपत करने की कया शत्तें हैं, तो कु छ इस तरह के ख़याल उभरते हैं। अब जब िक पि्चिमी समाज भी अपनी जान मीमांसा के पित आशसत नहीं रह गया है, यह सही अवसर है िक हम देशी वैचाररक परं परा को कें ्द्र में रख कर समतामूलक समाज के पारूप पर िवश की समसयाओं के िविवध समाधान ढूँढें। इस क्रम में पहली शत्ष होगी िक हम इन जान परं पराओं की आंतररक जान आलोचना के िलए सवयं को पेररत करें । इस आलोचना की परित के ढेरों उदाहरण हमें अपनी ही परं परा में िबखरे िमलेंगे। दूसरी शत्ष है िक भारतीय जान की िविभनन धाराएँ आंतररक संवाद में एक पकार का लोकतांित्रक िवमश्ष खड़ा करें । यहाँ हमें गांधी और सावरकर के मधय लंदन के इंिडया हाउस में 1909 में हुए संवाद को संदभ्ष के रूप में देखना चािहए िक िकस पकार से धुर िवपरीत 17_shashank_review update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:30 Page 404 404 | िमान वैचाररक परं परा भी आपस में संवाद से परहेज़ नहीं रखती और िवचारों के मम्ष को टटोलने का पयतन करती हैं। जान की राजनीित में भारतीय जान परितयों के हसतकेप करने के क्रम में तीसरी शत्ष बनती है हमारी सभयता का समगता बोध। िनम्षल वमा्ष सभयता बोध को पररभािषत करते हुए कहते हैं – एक सभयता का समगता बोध ‘अथ्शों का वह तंतजु ाल है, वह टेकसचर है, जहाँ सब धागे एक समूचे जीवन की अथ्षवयवसथा के पैटन्ष बनते हैं; एक का अथ्ष दूसरे में खुलता है, दूसरे का तीसरे से जुड़ा है – अथ्शों की अनयोनयािशत वयवसथा – िजसमें भीतर और बाहर का संबंध – मनुषय की एकीकृ त आतमछिव और बाहरी जगत की िविवध अनंत छिवयाँ एक ही सूत्र में अंतग्संिथत हैं।’1 हमारा यह मानना है िक सथानीय दश्षन परं पराओं का उपमहादीप के आमजीवन के िविभनन आयामों में िकसी न िकसी रूप में पकट होते रहना यह पमािणत करता है िक उपरो्ति तीन शत्शों को जान की राजनीित में सवीकार करना किठन नहीं होगा। भारतीय िचंतन परं परा में इस बोध की एक िनरं तरता है जो और उसके कु छ धुधँ ले पदिच्नि इसके िचत और मानस पर अभी भी संभािवत है। बुर, कबीर, गोरखनाथ, नानक, ितरुवललुवर, गांधी, टैगोर, िवनोबा भावे, लोिहया, दीनदयाल उपाधयाय, जे. कृ षणमूित्ष, हजारी पसाद िदवेदी, िनम्षल वमा्ष जैसे बहुत से िवचारक कहीं न कहीं उस बोध की चेतना के पित सचेत हैं, जो यूरोप में आधुिनक मानवतावाद के भेंट चढ़ गए। वैिशक 1 िनम्षल वमा्ष (2001) : 16. समसयाओं के संदभ्ष में भारतीय जान परं परा को पुनसथा्षिपत करना मुि्तिकामी समाज के सथापना की अिनवाय्ष शत्ष है। जान की राजनीित के माधयम से लेखक ने आतममंथन और िनम्षम आतमिवशे षण का जो आगह िकया है अगर उस पर बढ़ा जाए तो समाज अधययन की िदशा में आमूलचूल पररवत्षन की संभावना बनती है। लेखन का सबसे मज़बूत पहलू है िक वह हमें समाज अधययन की एक नई िवधा के िलए आमंित्रत करता है िजसमें भारतीय िचंतन परं परा को पसंगानुकूल पशों के बीच रख कर परख करने की सहूिलयत है। समाजशास की चूक गई िवदता को दरिकनार करके यह िकताब नई संभावनाओं को तलाशने का तक्ष पूण्ष आधार भी देती है। इसके मूल में िचंतन संवाद से वैिशक समाज के िविभनन जान परं पराओं के मधय एक जनतांित्रक सामय सथािपत करना है। सीधी रे खा खींचना अगर टेढ़ा काम है तो लेखक ने यह टेढ़ा काम इस िकताब की भाषा से कर िदया है और जिटल बौिरक िवमश्शों को सरल और गाह्य बना िदया है। िचंतन संवाद की अिनवाय्ष शत्ष है सहज-सुलभ भाषा में अपनी बात को कहना, लेखक ने जनभाषा िहंदी में एक गूढ़ िवमश्ष रचा है, और इसिलए उनकी मुि्तिकामी पररयोजना दोहरे सतर पर सफल है. समीका लेख हजारी पसाद िदवेदी के उररण से शुरू हुआ था तो उनके ही एक अनय उररण से अंत करना तक्ष पूण्ष होगा। अपनी पुसतक सहज साधना के अंितम िनबंध के अंत में िदवेदी जी कहते हैं – ‘मैं समझता 17_shashank_review update_27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:30 Page 405 मुक्तिकामी हूँ िक न तो इस बात की उपेका कर सकते हैं िक हमारा मुखय पश इस समय कोिट-कोिट लोगों की पाथिमक आवशयकताओं की पूित्ष करना है, और न हम यह भुला सकते हैं िक इस युग में जड़-िवजान ने इन समसयाओं को सुलझाने के िलए बहुत ही महतवपूण्ष साधन िदए हैं। ‘वयि्ति-मानव’ की समसयाओं का हल करना आज पया्षप्त नहीं है। ‘समाजमानव’ की समसया ही हमारे िवचारकों को अिधक वयाकु ल और िचंितत बनाए हुए हैं। इसिलए यिद हम आज की दुिनया की इन पाथिमक आवशयकताओं की पूित्ष नहीं कर सकते, तो ये बड़ी से बड़ी साधनाएँ िनरथ्षक हैं।’2 जान की राजनीित का भी यही सार है। संदर्भ िनम्षल वमा्ष (2001), प्रितशुित के के्रि : भारत और यूरोप, राजकमल पकाशन, नई िदलली. मणीन्द्र नाथ ठाकु र (2012) संक्रमणकाल में राजनीितक िचंतन, अकार, अंक 25. हज़ारी पसाद िदवेदी (1989) सहज साधना, राजकमल पकाशन, नई िदलली. ________(2006) चुने हुए िनबंध, िकताबघर पकाशन, नई िदलली. 2 िदवेदी : 199. ान की खोज | 405 19__puneet_nivedita update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:36 Page 414 भि के िरोध पुनीत कुमार नारीवादी िनगाह से (2021) िनवेिदता मेनन, (अनु.) नरे श गोसवामी राजकमल पकाशन, नई िदलली. मूलय ₹ 299. पृष : 240. मिहला, सी या नारी की सवअिसततव की यथाथ्थ सथापना एवं मानयता तथा सहअिसततव की साितवक अवधारणा के पित सांसाररक सहमित का िनमा्थण, वत्थमान इककीसवीं शताबदी की एक अहम चुनौती है। यह िवषय तब और संगीन हो जाता है जब िवषय वसतु अथा्थत नारी उस जीवन-दश्थन, जो मिहला अिसमता व सवसथ सहअिसततव की बुिनयाद को रे तीला बनाए रखने में महारत रखता हो, की मुरीद होती है तथा जब मिहला सशकीकरण के पहसन को पुष्ट करने वाले जीवन-दश्थन की चुनौितयों को चाररितक सखलन, अधम्थ, सभयता व संसकृ ित का पतन आिद-आिद िवशेषणों से संबोिधत करने को सवािभमान सवीकार कर लेती हैं। शतािबदयों से िसयाँ छल का आखेट होती रही हैं। वयवसथा का धािम्थक, सामािजक, सांसकृ ितक, आिथ्थक और सभयताजिनत साँचा मिहला मानिसकता को इस पकार अपने पाश में जकड़े हैं िक वह सवयं उन pऌ धळ ऌ को अपना जीवन-दश्थन सवीकार कर लेती 19__puneet_nivedita update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:36 Page 415 भि िरोध | 415 है जो नारी के अिसततव की साथ्थकता सािबत करने में महतवपूण्थ िकरदार हो सकते हैं मगर इन वग्गों में नारीवाद जैसे पश िवमश्थ की पररिध में कदािचत ही सथान पाते हैं। सपष्ट है िक सामानय जनगण की अदाद्धांश अथा्थत् नारी को उसका औिचतय व अपररहाय्थ देना मिहला अिसमता या नारीवाद की शीष्थ चुनौती है। 2021 में एक िकताब नारीवादी िनगाह से इनहीं औिचतयपूण्थ एवं अपररहाय्थ िदशाओं व दशाओं की पड़ताल करती हुई पकाश में आई है। यह मूलतः अंगेज़ी में िलखी िकताब सीई ंग लाइक अ फ़े िमिनसट का िहंदी भाषा में अनुवाद है। िकताब की लेिखका िनवेिदता मेनन हैं जबिक अनुवादक नरे श गोसवामी हैं इसका पकाशन राजकमल नई िदलली दारा िकया गया है। िकताब का शीष्थक नारीवादी िनगाह से सवयं सपष्ट करता है िक जीवन की कई पमुख िसथितयों एवं पररिसथितयों को नारीवादी नज़र से देखे जाने की सामियक ज़रूरत है। सवाल ख़ास यह है िक नारीवादी या नारीवाद से कया आशय है? लेिखका िनवेिदता मेनन नारीवाद के आशय को सपष्ट करते हुए कहती हैं िक, ‘...नारीवादी नज़ररया इस बात को महतव देता है िक दुिनया में जेंडर के इद्थ-िगद्थ खड़ी दजा्थ बंदी ही वह िकलली है िजस पर सामािजक वयवसथा िटकी हुई है तथा ‘पुरुष’ और ‘सी’ जैसे पररचय-िचहों के साथ जीना दरअसल दो अलग-अलग सचचाइयों के साथ जीना होता है। लेिकन इसी के साथ, नारीवादी होने का एक मतलब हर उस पभुतवशाली सता के मुक़ाबले हािशए पर िसमटा और अपेकाकृ त शिकहीन पाणी भी होना है, जो कें द की पूरी समी ा हैं जो नारी की अिसमता को शूनय करने वाली िविभनन शाखाओं से उतपनन होती हैं। यह पाशिवक pऌ धळ ऋ मिहला मानस को अनेक धािम्थक, सांसकृ ितक, पाररवाररक एवं पारं पररक अनुषानों के नाम पर गभ्थ से ही अपने आकष्थण का लखलखा सुँघा कर अपनी आजाकाररता का मुरीद बना लेती हैं। इस आकष्थण व आजाकाररता की जकड़न इतनी सशक एवं pऌ धळड होती है िक आजीवन वे मिहला संसार की िदशाएँ तथा सीमाएँ तय करने सदृशय िनणा्थयक भूिमका का िनव्थहन करने लगते हैं। सी गभा्थशय से लेकर पजा तक एवं मन से लेकर मानस तक इस छल, कपट, पाखंड और ऐययारी का आखेट होती रहती हैं। रोमांचक तथय यह है िक सी संसार को इस कपट और ऐययारी का कोई अहसास नहीं होता है। मात अहसास की कमतरी नहीं अिपतु उनके पित आजा पालन का भाव आजीवन बना रहता है। वह इस पकार के छल व पपंच को जीवन का सारांश एवं शाशत सतय मानकर शदावनत् रहती है। सपष्ट है िक वयािधगसत को ही वयािध व िवकार की लेशमात अनुभिू त नहीं होती है, मिहला अिसमता की इस सनातन चुनौती को अभी भी दिवत करना शेष है। इस िवषय पर अगसर होने से पूव्थ सपष्ट होना आवशयक है िक मिहला अिसमता की चुनौती का पश पमुख रूप से सामानय वग्थ व जनगण सामानय के पशों का समाधान करना चाहता है। राजनीितक, आिथ्थक, सामािजक एवं पशासिनक वग्थ सवयं में इतना सकम व सशक होता है िक वहाँ मिहला अिसमता का सवाल अथ्थहीन है अिपतु यह वग्थ वह अंश के 19__puneet_nivedita update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:36 Page 416 416 | िमान जगह को हजम कर जाती है। ...नारीवादी का वासता के वल पुरुष या िसयों से नहीं है वह समझ की इस पि्रिया की ओर इशारा करता है िक ‘पुरुष’ और ‘सी’ जैसी अिसमताओं की रचना िकस तरह की जाती है तथा उनहें िपतृसता के सामियक और सथािनक तंतों में िकस तरह िफट िकया जाता है ...’ नारीवादी होने का मतलब यह है िक वयिक न के वल यह समझे िक िविभनन अिसमताओं का पदानु्रिम – उनका वच्थसवशाली या अधीनसथ होना − समय और सथान की िभननताओं से तय होता है, बिलक उसे जेंडरिनमा्थण की पि्रिया के पित भी सजग रहना चािहए।’ (पृ.7-8) िनवेिदता मेनन नारीवाद के अथ्थ की इस पृषभूिम में मिहला अिसमता के अपररहाय्थ उपेिकत अंशों का िवशे षण व अनवेषण ज़रूरी संवेदनशीलता व तक्गों के साथ करती हैं। पुसतक मात सी अिसमता के उपेिकत अंशों का नहीं अिपतु तथाकिथत ‘मिहला सशकीकरण’ के दाँव-पेचों का भी तथयातमक खुलासा करती है अथा्थत् मिहला सशकीकरण के जयकारों से िकस पकार शासन व पशासन सी अिसमता के अपररहाय्थ पहलुओ ं को फु सलाता, बहलाता रहा है, इसकी भी तािक्थ क पड़ताल नारीवादी िनगाह से िकताब की ख़ूबी है। िकताब को छह अधयायों में बाँटा गया है। सातवाँ अधयाय िनषकष्थ के रूप में है। िकताब के छह अधयाय ्रिमशः इस पकार हैं − पररवार, देह, कामना, यौन िहंसा, नारीवादी तथा मिहलाएँ और पीिड़त या एजेंट। पररवार, देह, कामना व यौन िहंसा कदािचत वे शबद या िसथितयाँ है जो मिहला अिसमता के िवदू प व िवकार गसत सवरूप को सपष्ट करते हैं। ‘पररवार’ से ही मिहला अिसमता की चुनौितयाँ pऌ धळड होने लगती है। ‘देह’ वह आधार बना हुआ है, िजसके कारण एक मानव पाणी को ‘औरत’ बन कर हर हाल में जीना पड़ रहा है, ‘कामना’ वह जवालामुखी है जहाँ मिहला को झुलसना होता है और इसे छु पाने व दबाने में उसे महारत भी हािसल करनी होती है भले ही उसे कुं िठत व िवकृ त वयिकतव की पोशाक जाने-अनजाने धारण करनी पड़ी। ‘यौन िहंसा’ कदािचत वह िसथित है, जब एक सी पररवार, देह और कामना की लीक तोड़कर आगे आती है, तो उसे पौरुषीय दंभ का सामना करना होता है सामानय तौर पर यह ‘दंभ’ परंपरा, संसकृ ित व धम्थ का चोला ओढ़कर नारी को सी बनाए रखने में िसदहसत होता है। यह ‘यौन िहंसा’ शारीररक, मानिसक व मनोवैजािनक िकसी भी सवरूप में हो सकती है। लेिखका का मानना है िक नारीवादी होना हर उस वच्थसववादी शैली का पितरोध है जो सवतंतता व समानता का पैरोकार नहीं है। नारीवादी िनगाह से िकताब में इस आशय के अनेक सशक संकेत है िक नारी सविनण्थय लेने के उपालंभों से िजस पकार बहलती रहती है वह उसे पीिड़त बनाने के साथ-साथ उन िसथितयों की एजेंट भी बना देती है िजसका उनमूलन अभीष्ट नारीवाद का लकय है। प िवाि पररवार नारीवाद के पितरोध का आधार िबंदु है। पररवार ही वह संसथा है जो मिहला अिसमता को भोथरा बनाने वाली परं पराओं और मानयताओं को िशरोधाय्थ करने वाली 19__puneet_nivedita update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:36 Page 417 भि मानिसकताओं को पशंसनीय मानता है। पुसतक के इस अंश में उन सािज़शों की तािक्थ क पड़ताल की गई है िजनसें नारीवाद की असहमित है और िजन िसथितयों को पररवित्थत व पररमािज्थत करना नारीवाद का मुक़ाम है। इस अधयाय में नारीवाद के िवषमिलंगी व िपतृसतातमक पररवार की अवधारणा, ऐसे पररवारों में जेंडर का भारी-भरकम वजूद, िवषमिलंगी अवधारणा, ऐसे पररवारों में िनजी संपित के सवािमतव िनधा्थरण का परंपरागत ढाँचा, िपतृतव िनधा्थरण की सनातन परंपरा, पररवार एवं समाज में शम के यौिनक िवभाजन का पारंपररक रूप, िहंदू कोड िबल 1955, 1956 का खोखलापन, िहंदू िववाह का पारंपररक सवरूप और दहेज जैसी िवकृ ितयों इतयािद से पितरोध व मुठभेड़ को लेिखका ने पूरी संवदे नशीलता के साथ रेखांिकत िकया है। पितरोध के इस िवशेषण को अगिलिखत सूतों में बाँट सकते हैं ‘जेंडर के िलहाज से उिचत वयवहार का पश पजनन संबधं ी यौिनकता की वैधता से इस क़दर जुड़ा है िक दोनों को अलग करके नहीं देखा जा सकता।’ (पृ.16) ‘कया पररवार के वल िपतृसतातमक िवषमिलंगी पररवार ही हो सकता है : एक पुरुष, एक सी और पुरुष के बचचे।’ (पृ.17) ‘जेंडर अकसर उम्र पर भारी पड़ जाता है ...पररवार का वयसक पुरुष िकसी उम्रदराज मिहला से जयादा ताक़तवर होता है।’ (पृ.17) ‘एक संसथा के रूप में पररवार ग़ैर-बराबरी पर आधाररत है।’ (पृ.18) ‘मातृतव एक जीव-वैजािनक तथय है, जबिक िपतृतव के वल एक समाजशासीय कलपना है। िपतृसता के िलए यह चीज़ एक सथायी िचंता की बात होती है। यही िचंता के िरोध | 417 िसयों की यौिनकता पर पहरेदारी िबठाने की मानिसकता तैयार करती है।’ (पृ.18) ‘शम का यौिनक िवभाजन पहले से तय कर देता है िक मिहलाओं को वैतिनक काय्थ के बजाय घर के अवैतिनक काम को तरजीह देनी होगी।’ (पृ.22) यह अंश सपष्ट करते हैं िक ‘पररवार’ ही वह माँद है जहाँ परंपरा, संसकृ ित और धम्थ के नाम पर मिहला अिसमता के सामने वे िसथितयाँ पैदा और पररपकव होती हैं िजनहें नारीवाद उनमूिलत करना अपररहाय्थ समझता है। यही कारण है िक लेिखका यह आहान करती है िक िववाह की अपररहाय्थता को दिवत िकया जाना ज़रूरी है तथा ऐसे पररवार आधाररत िवकलप पर िवचार होना चािहए जो ‘ग़ैर-शादीशुदा’ पकृ ित को मानय करते हों। लेिखका का यह कथन मनन योगय है ‘अगर िववाह पर आधाररत पररवार मौजूदा वयवसथा की बुिनयाद है तो पररवार की बुिनयाद यौनिभननता पर िटकी है और यही वह चीज़ है िजसे हमें धकका देने की ज़रूरत है।’ (पृ.54) पूरी िकताब में इस तरह के कई सशक अभूतपूव्थ आहान है िजसे पढ़कर सामानय तौर पर अथवा ‘पथम दृष्टया’ चिकत होना पड़ सकता है, लेिकन जब िवचार में यह आता है िक नारीवाद को सव्थपथम सिदयों पुरानी परंपराओं, रीितररवाजों और सी िवरोधी संसकृ ित से ही मुठभेड़ करना है तब ऐसे आहान सामियक पतीत होने लगते हैं। देह ‘देह’ शीष्थक के अधयाय का पारं भ लेिखका इस उपेिकत सतय के उदाटन से करती है िक ‘अगर उनहें उननत वक और लमबे बाल 19__puneet_nivedita update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:36 Page 418 418 | िमान िदखते हैं तो उसे वे औरत कहते हैं। जब उनहें दाढ़ी और मूछ ँ िदखाई देती हैं तो वे उसे मद्थ कहने लगते हैं लेिकन गौर कररए िक इन दोनों के बीच में जो ‘आतम’ मँडराता है वह न मद्थ होता है, न औरत...’ नारीवाद इसी ‘आतम’ की मानयता, सथापना, सशकता और िनणा्थयक बनाने के साधय से अिभपेत है। संसार का यौन आधाररत िवभाजन अथा्थत् मिहला व पुरुष वग्गों में, बहुत पाचीन वयवसथा नहीं है। लेिखका का यह रहसयोदाटन िक ‘सी और पुरुष के वग्गीकरण का यह िवचार एक आधुिनक िदमाग को पूरी तरह पाकृ ितक लग सकता है, लेिकन सचचाई यह है िक यह िवचार के वल चार सौ वष्थ पुराना है’ (पृ.57) पुनः सामानय तौर पर अचंिभत करता है। इस अधयाय में लेिखका ने अफीकी समाज के अनेक उदाहरण देकर यह सपष्ट िकया है िक मद्थ व सी का िवभाजन वहाँ के समाजों में बहुत हाल की घटना है। ‘अफीका में जेंडर की ईजाद औपिनवेिशक हसतकेप की उसी पि्रिया में हुई िजसके तहत औपिनवेिशक शिकयाँ अफीकी समाजों को यूरोप की शबदावली में पसतुत कर रही थी।’ (पृ.60) अमेररका भी इस जेंडर के भेदभाव से यूरोप से पभािवत होने से पहले अछू ता था। समिलंगी िववाह की परं परा वहाँ के कई कबीलों में पचलन में था। यही, जेंडर को नकारने की पवृित भारतवष्थ में भिककालीन किवयों के मानस में भी अनुभतू िकया जा सकता है। उस दौर का दश्थन जेंडर जैसे सांसाररक बंधन से उनमुक होकर अपने िपयतम आराधय के पित तन व मन से अिप्थत होना और उसमें एकाकार हो जाना ही अपना परमोचच साधय सवीकारता है। ‘भक किवयों ने लौिकक यौनाकष्थण से िवमुख होकर और अपने यौन आवेग को िनराकार करके अपने िपय आराधय को समिप्थत कर िदया। धयान रहे िक यह यौिनकता के भय या उससे घृणा का पररणाम नहीं था।’ (पृ.60) अिपतु यौिनकता से उनमुक व बेपरवाह होने का पररणाम था अथवा सांसाररकता या सांसाररक बंधन की पासंिगकता व िनम्थमता के पित असवीकारोिक का भाव था। दूसरे शबदों में कृ ितम जेंडरीकरण के उनमूलन के पित आहान था। इन सबका ठोस कारण था ‘भिक आंदोलन के उदय तक पुरुषतव/सीतव की धारणाओं का मानकीकरण हो चुका था तथा िलंग उिचत/अनुिचत होने का िवचार जड़ जमा चुका था। संत किव इनहीं धारणाओं का िवरोध कर रहे थे।’ (पृ.61) सीमोन द बोउवा ने िलखा है िक सी पैदा नहीं होती है, सी बनाई जाती है। इसी बात को थोड़ा िसलिसलेवार िलखते हुए लेिखका िनवेिदता मेनन कहती हैं िक ‘जैविनधा्थरणवाद िसयों के सिदयों से चले आ रहे दमन को वैधता पदान करने का एक अहम तरीक़ा है इसिलए जैव-िनधा्थरणवाद को चुनौती देना नारीवादी राजनीित का बहुत ज़रूरी काय्थभार है।’ (पृ.63) इस पररपेकय में इस कथन से असहमत होना संभव नहीं है िक ‘शुरू में ‘िलंग’ (सेकस) का इसतेमाल पुरुष और सी के जीव वैजािनक अंतर को दशा्थने के िलए िकया जाता था, जबिक ‘जेंडर’ का पयोग इस बुिनयादी अंतर के साथ जुड़े वयापक सांसकृ ितक तातपय्गों के िकया जाता था।’ (पृ.63) नारीवादी िनगाह से िकताब 19__puneet_nivedita update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:36 Page 419 भि के िरोध | 419 व्यवस्था का धािर्मक, सामािजक, सांस्कृितक, आिर्थक और सभ्यताजिनत साँचा मिहला मानिसकता को इस प्रकार अपने पाश में जकड़ े हैं िक वह स्वयं उन शं ख लाओं को अपना जीवन-दशर्न स्वीकार कर लेती हैं जो नारी की अिस्मता को शून्य करने वाली िविभन्न शाखाओं से उत्पन्न होती हैं। इसी जेंडर के िख़लाफ़ िबगुल बजाती है। देह जैसे जैिवक आधार पर जैसा सांसाररक ठपपा लग जाता है उस देह की संपणू ्थ संसकृ ित व सभयता ही उसी ठपपे से िनधा्थररत होने लगती है और वह देह उसी के अनुसार संचािलत होने लगता है यह ठपपा मात सी या पुरुष के रूप में नहीं है अिपतु जाित, वग्थ, नसल, अंचल, आयु, काला, सफ़े द व िवकलांग िकसी भी रूप में हो सकता है। नारीवाद इसी देह के िपंजरे को तोड़ना चाहता है, जेंडर की िववशता को कीण करना चाहता है, जो िक इतना सवाभािवक व नैसिग्थक रूप ले चुका है िक इस जेंडर का आखेट ही आखेटक की भूिमका का िनवा्थह पूरी शदा से कर रहा है। कामना इसके बाद के अधयाय ‘कामना’ में िनवेिदता मेनन नारीवादी कामना के ऊपर होने वाले एक और पभावशाली पहार ‘िवषमिलंगी यौनेचछा’ का मुदा उठाती हैं। लेिखका का यह तक्थ है िक यिद यौनेचछा एक नैसिग्थक भावना है िफर उसमें िलंग भेद कयों होना चािहए। अथा्थत् िवषमिलंगी यौनेचछा ही कयों सवीकाय्थ होना चािहए? यिद यौनेचछा सवाभािवक रूप से समिलंगी आकष्थण से पेररत है तो उस पर िवषमिलंगी यौनेचछा कयों थोपा जाए? इसके इतर सब कु छ अपराध या पाप की शेणी में कयों सवीकारा जा रहा है? लेिखका अनेक अधययन िनषकष्गों के आधार पर कहती हैं िक... ‘पाचीन भारत में समलैंिगक यौन संबंधों को अपराध की शेणी में नहीं रखा जाता था। दरअसल यह एक ऐसा क़ानून है िजसे ि्रििटश औपिनवेिशक सरकार ने उननीसवीं सदी में लागू िकया था’ (पृ.93) इसी अधयाय में लेिखका सामानयतः अपररिचत शबद ‘कवीयर’ को सपष्ट करती हैं। उनका मानना है िक ‘कई राजनीितक समूहों को ‘एलजीबीटीआई (लेिसबयन, गे, बाइसेकसुअल, टांसजेंडर, इंटरसेकस) के बजाय ‘कवीयर’ का इसतेमाल करना जयादा अथ्थवान लगता है। एलजीबीटीआई में पहचान को िसथर और सथायी बना देने की पवृित देखी जा सकती है ...इसीिलए ‘कवीयर’ जैसे पद का पयोग करना राजनीितक दृिष्ट से समझ-बूझकर उठाया गया क़दम है जो यौिनक पहचान तथा यौनकामना में िनिहत पररवत्थनीयता (संभािवत अथवा वासतिवक) पर अलग से ज़ोर देने का काम करता है।’ (पृ. 96-97) इसी अंश में ‘कवीयर’ शबद को और सपष्ट इस पकार 19__puneet_nivedita update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:36 Page 420 420 | िमान िकया गया है। ‘कवीयर’ नाम का यह शबद उन समुदायों की ओर इंिगत करता है जो सवयं को समलैंिगक (सी और पुरुष दोनों) कहते हैं अथवा ख़ुद के िलए इस शबद का इसतेमाल न करते हुए भी यह मानते हैं िक सम-िलंगी कामनाओं तथा यौिनकता पर के वल पहचान का ठपपा नहीं लगाया जा सकता...।’ (पृ.99) इस अधयाय का सबसे अहम सवाल है िक ‘नारीवादी राजनीित का सुपात कौन होगा? कया पुरुष-समलैंिगकों को नारीवादी राजनीित में शािमल िकया जा सकता है? कया इसमें दोनों पकार के सी और पुरुष टांसजेंडर लोगों की जगह भी हो सकती है?’ (पृ.101) ...कया िहजड़ों को नारीवादी आंदोलन का अंग माना जा सकता है? दरअसल, यह एक ऐसा सवाल है, िजसे आसानी से हल नहीं िकया जा सकता है। (पृ. 101, 103) वसतुतः यह सारे सवाल सिदयों पुरानी चली आ रही मानयताओं से सीधा मुठभेड़ करते हैं, सपष्ट है िक तवररत समाधान संभव नहीं है। सव्थपथम इन मानयताओं की पुखता ज़मीन को िहलाना होगा जो वष्गों से िपतृसतावादी, वच्थसववादी राजनीित व जेंडर जैसे सशक एवं मानय पहचान की मद से ताक़तवर होते रहे हैं। लेिखका के इस तक्थ से पुनः असहमत होना किठन है िक ‘हम िजस िवषम-लैंिगकता को ‘सामानय’ समझते हैं वह असल में एक ऐसी िनिम्थित है िजसे क़ायम रखने के िलए कई पकार के सांसकृ ितक, जैव-िचिकतसकीय और आिथ्थक िनयंतण के काम में लगे रहते हैं, और हम यह समझने की कोिशश करें िक वग्थ, जाित, तथा जेंडर के पदानु्रिम के पीछे िनयंतण की यही बहुमख ु ी वयवसथा सि्रिय रहती है तो िफर यह सवीकार करना पड़ेगा िक हम सभी कवीयर होते हैं या हम सभी में कवीयर होने का बीज पड़ा रहता है।’ (पृ.106) यौन हसा इसके बाद के अधयाय का शीष्थक है ‘यौन िहंसा’। इस अधयाय में लेिखका ने बलातकार को लेकर नयायपािलका, समाज, नारीवादी मानस, िपतृसतातमक सोच, पुिलस, पशासन, सािहितयक व अकादिमक वग्थ और एिकटिवसट आिद की कया सोच एवं आचरण की शैली है, इस पर तथयातमक िवशे षण पसतुत िकया है। इतना ही नहीं बलातकार के िविभनन रूपों – वैवािहक बलातकार, सुरका बलों दारा िकया जाने वाला बलातकार, काय्थसथल के बलातकार एवं िवशिवदालयों में होने वाले बलातकार इतयािद को भी िवशे षण में शािमल िकया गया है। इसी अंश में िनवेिदता मेनन ने िसयों को अपमािनत िकए जाने के िलए पयुक होने वाले शबद ‘िछनाल’ व ‘बेशरम’ पर नए नज़ररये से अपनी बात रखी है। इस अंश के अधययन के बाद यह सपष्ट होता है िक बलातकार तो िपतृसतावादी सोच का पररणाम है ही, इस कृ तय पर िनयंतक िसद हो सकने वाले अिभकरण भी अपने आचरण में िपतृसतातमक सभयता के ही पैरोकार नज़र आते हैं। इस अंश के इस तथय से कै से असहमत हो सकते हैं िक ‘िपतृसता की शिकयों को बलातकार इसिलए बुरा लगता है 19__puneet_nivedita update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:36 Page 421 भि कयोंिक यह एक ऐसा अपराध है िजससे पररवार की इजज़त को बटा लगता है, जबिक नारीवादी ख़ेमा इसकी िनंदा इसिलए करता है कयोंिक उसे यह सी की सवायतता और उसकी दैिहक अखंडता के पित अपराध लगता है। .....यह िभननता बलातकार की लड़ाई को दो िवेरोधी धुवों की ओर ले जाती है।’ (पृ.110) िपतृसतातमक सोच बलातकार को मृतयु से भी भयावह मानता है। इसका पररणाम यह होता है िक बलातकार से िकसी भी क़ीमत पर सी को बचाने की पवृित मिहला को िपतृसता की सखत pऌ धळ ऌ में बाँध देता है और ‘बलातकार मृतयु से भी अिधक भयावह कलंक है’ यह सोच सी को सवयमेव िपतृसता की पहरुआ बना देती है। लेिखका ने नयायपािलका, मानवािधकार आयोग व संवैधािनक पदों के ऐसे कई उदाहरण िदए हैं िजसमें बलातकार के िलए दोषी, मिहला की सवचछं दता को ही सािबत िकया गया है और समाधान मात यह बताया गया है िक सी क़ै दख़ाने की जीवनचया्थ में ही सुरिकत है। बलातकार की जो वैधािनक व सामािजक अवधारणा पचलन में है वे सब िपतृसतातमक पवृित के ही पालक हैं। िनवेिदता मेनन, फलेिवया एगनेस के माधयम से कहती हैं ‘...बलातकार संबंधी क़ानूनी पिवतता, कौमाय्थ, िववाह के लाभों तथा सीयौिनकता के भय पर आधाररत है। ...िसयों पर होने वाले यौन या ग़ैर-यौिनक हमलों के मुक़ाबले यह (बलातकार) िपतृवंशीय संपित से संबंिधत अिधकारों तथा िपतृसता की सता-संरचना के िलए जयादा बड़ा ख़तरा पेश के िरोध | 421 करता है। एगनेस का यह मानना है िक बलातकार की यह समझ इसी सता-संरचना पर आधाररत है।’ (पृ. 111, 112) इसी बात को लेिखका आगे सपष्ट करती है, ‘जहाँ धारा 375 पजनन के िपतृवंशीय सवरूप तथा संपित के तंत की रका करने का काम करती है, वहीं धारा 377 सामािजक वयवसथा के िलए एक जयादा बड़े ख़तरे िवषमिलंगी यौिनकता के अिनवाय्थ ढाँचे का उललंघन करने वालों को दंिडत करती है।’ (पृ.112) बलातकार की संकीण्थ अवधारणा एवं दोषी को सज़ा देने की पि्रिया की जिटलता एवं िपतृसतातमक सोच को देखते हुए इस नारीवादी माँग को िकताब में जगह दी गई है िक ‘क़ानून की शबदावली से बलातकार नामक शबद हटाकर उसकी जगह ‘यौन आपरािधक आचरण’ जैसे शबद का पयोग िकया जाना चािहए। तािक उसमें अगलअलग सतर के यौन हमले तथा इन हमलों की गंभीरता के अनुरूप सज़ा का पावधान िकया जा सके ।’ (पृ.112) पुसतक के इस अधयाय में अनेक िवशे षणोपरांत यह सथािपत िकया गया है िक बलातकार व यौन िहंसा का समाधान िसयों को अनेक संकीण्थताओं से बाँधने में नहीं है अिपतु ऐसी भुकभोगी मिहलाओं को आतमिवशास का मंत देने की आवशयकता है। ऐसा तब हो सके गा जब उन मिहलाओं को यह िवशास िदलाया जाए िक वे िनद्दोष हैं और उनहें हर आवशयक सहयोग सुलभ होगा तथा उनकी सवतंतता व सवचछं दता और अिधक संतिु लत सवरूप में उनहें उपलबध होगी। इस अधयाय के उपशीष्थक ‘मननै नयाय चािहए’ की पाण- 19__puneet_nivedita update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:36 Page 422 422 | िमान पितषा ही संपणू ्थ नारीवाद का सव्दोचच साधय संबंिधत नहीं है। इस संदभ्थ में लेिखका की है और इसे सवीकाय्थ बनाना इस िकताब के यह िचंता जायज़ है िक ‘साव्थजिनक िवमश्थ िवशेष मक़सदों में से एक मक़सद है। में समान नागररक संिहता का मुदा कभी मिहलाओं के मुदे के रूप में नहीं उठाया गया। उसे हमेशा राषटीय अखंडता बनाम समुदाय नािीवादी तथा म हलाएँ िकताब के अगले िहससे का शीष्थक है के सांसकृ ितक अिधकारों के फे म में रखकर ‘नारीवादी तथा मिहलाएँ’। शीष्थक ग़ौरतलब पेश िकया जाता है।’ (पृ.153) वासतव में है, इस मायने में िक कया नारीवाद से मिहलाएँ समान नागररक संिहता िजन िवषयों को अलग हैं? या कया नारीवाद मिहलाओं मात नयायोिचत बनाना चाहता है वे हैं िववाह, से संबंिधत नहीं है? उतर में लेिखका के इस िववाह-िवचछे द, उतरािधकार, भरण-पोषण कथन को देखा जा सकता है ‘नारीवाद एवं अिभभावकतव आिद। लगभग सभी वसतुतः िसयों तक सीिमत न होकर इस समुदायों में इन िवषयों का िनधा्थरण उसके सवीकारोिक का नाम है िक जेंडर के धम्थ या रीित-ररवाजों से होते चले आ रहे हैं। आधुिनक िवमश्गों में मनुषय जाित को िकस इनहें समुदायों के िनजी क़ानून भी कहते हैं तरह ‘पुरुष’ और ‘सी’ के खाँचे में बदल िजसे पस्थनल लॉ भी कहा जाता है। अतः जैसे िदया जाता है। ...नारीवाद िसफ़्थ जेंडर से ही समान नागररक संिहता पर कोई िवमश्थ सरोकार नहीं रखता बिलक उसका वासता इस शुरू होता है वह तुरंत या तो पहचान का समझ से भी है िक वग्थ (घरे लू नौकरों के संकट बन जाता है या राषटीय एकता का मामले में), जाित तथा समलैंिगक राजनीित पतीक हो जाता है। नतीजा यह होता है िक (समलैंिगक पुरुषों, िहजड़ों तथा उभयिलंगी समान नागररक संिहता मिहला-िवमश्थ के अिसमताओं के मामले में) ने जेंडर के िवचार िजन मुदों को उठाना चाहता है वे दरिकनार को िकस पकार जिटल बना िदया है।’ रह जाते हैं। अगर नारीवादी िनगाह से देखा (पृ.151) साफ़ है िक नारीवाद जेंडर और जाए तो समान नागररक संिहता मिहला जेंडर की राजनीित से सीधा मुठभेड़ करता है। अिसमता की साितवक सथापना के अनेक मिहला अिसमता इस नारीवाद का एक सवालों का जवाब है। इसी अधयाय में लेिखका ने उन अपररहाय्थ अंश अवशय है। इस संदभ्थ में समान नागररक संिहता पर भी मूलयवान िसथितयों की भी संतिु लत पड़ताल की है िवमश्थ पसतुत हुआ है। समान नागररक िजसमें संपणू ्थ िवश में इसलाम को और संिहता के संदभ्थ में लेिखका के इस िवचार मुसलमानों को िनशाना बनाया जा रहा है, को सवीकारने की, िनससंदहे आवशयकता है इसलाम को कभी पितगामी सािबत करके तो िक समान नागररक संिहता मिहलाओं की कभी दहशतगद्गी के पैरोकार के रूप में िदखा अिसमता के संरकण मात हेतु आवशयक है। कर। लेिखका यह महसूस करने में भी नहीं यह िकसी भी धम्थ या पहचान से िबलकु ल भी चूकी है िक इसलाम धम्थ के तथाकिथत 19__puneet_nivedita update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:36 Page 423 भि के िरोध | 423 लेिखका की यह िंचता जायज़ है िक ‘सावर्जिनक िवमशर् में समान नागिरक संिहता का मुद्दा कभी मिहलाओ ं के मुद्दे के रूप में नहीं उठाया गया। उसे हमेशा राष्ट्रीय अखंडता बनाम समुदाय के सांस्कृितक अिधकारों के फ़्रेम में रखकर पेश िकया जाता है।’ समथ्थक िजतना इसे संकीण्थ बनाते जा रहे हैं उतना ही पितपकी को अपने मक़सद में कामयाबी िमलती जा रही है। िकताब नारीवादी िनगाह से की इन पंिकयों को असवीकारने की कोई वजह नहीं है िक ‘सी, नारीवादी राजनीित का एक सुसपष्ट िवषय या कोई पाकृ ितक और सव-पतयक अिसमता नहीं है। ...कोई भी ‘मिहला’ पहले से िहंदू या मुसलमान, ऊँची जाित की या दिलत, शेत या अशेत नहीं होती, इसके उलट, असल चीज़ वह राजनीितक चुनौती होती है िजससे मुक़ाबला करने वाले ‘लोग’ कभी ‘दिलत’, कभी ‘मुसलमान’ और कभी ‘िसयों’ की संजा से जाने जाते हैं। नारीवाद की सफलता उसकी इसी कमता में िनिहत है िक वह ‘लोगों’ को अलग-अलग संदभ्गों में नारीवादी होने के िलए पेररत कर सके ।’ (पृ. 169) पी ित या एजेट इसके बाद के अधयाय का शीष्थक है ‘पीिड़त या एजेंट’। ज़ािहर है िक इस अंश में यह समझने की कोिशश की गई है िक सी को कब भुकभोगी या पीिड़त माना जाए और िकन िसथितयों में उसे वह एजेंट माना जाए जो सता का भागीदार भी है और अपनी मजबूत िसथित पाने के िलए बेचनै भी है। लेिकन लेिखका उपशीष्थक के माधयम से सतक्थ भी करती है िक ‘इस तथय से जयादा साव्थभौम या बुिनयादी कु छ भी नहीं है िक हर केत में जो भी वांछनीय है उसकी सीमाएँ पहले से तय रहती हैं। ‘चुनाव करने की आज़ादी हमेशा एक ऐसी चौहदी में सीिमत रहती है िजसमें कोई हसतकेप नहीं िकया जा सकता। यह चौहदी आिथ्थक वग्थ, नसल, जाित तथा ज़ािहर तौर पर जेंडर दारा िनधा्थररत होती है। चुनाव करने की आज़ादी कभी िनरपेक नहीं होती...’ (पृ. 173) इस अधयाय में लेिखका ने वसतुकरण, यौन कम्थ, बार-डांसर, मानव वयापार, िकराये की कोख, पोन्दोगाफ़ी, गभ्थपात इतयािद िवषयों को उठाया है। इन सारे िवषयों में कई ऐसे िवषय हैं िजसमें सतही तौर पर िदखता है िक यह िनण्थय नारी दारा िकया गया है, यथा गभ्थपात, यौन कम्थ का चुनाव, िकराये की कोख व बार-डांसर आिद, परं तु देखा जाना चािहए िक इन मुदों पर िनण्थय लेने में एक मिहला कहाँ तक सवतंत होती है। एक सी की सामािजक व आिथ्थक िसथितयों का पभाव मिहला की चयन पि्रिया को हर हाल में िववश करता है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं िक िपतृसतातमक 19__puneet_nivedita update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:36 Page 424 424 | िमान वच्थसववाद ऐसे मामलों में सव्दोपरर व िनणा्थयक होता है। संभव है िक यौन कम्थ का चुनाव िकसी मिहला ने सवेचछा से अपनाया हो परं तु िवकलप के अभाव की िववशता अथवा आिथ्थक शोषण कया वह िसथित नहीं है िक एक मिहला यौन कम्थ को अिधक ‘आरामदेह’ मान बैठती है। अमतय्थ सेन के इस कथन को यहाँ समरण करना होगा ‘...वयिक को चीज़ों का चुनाव अपने बजट के अनुसार करना पड़ता है। पाथिमक अथ्थशास की यह बात राजनीित और समाज के जिटल िनण्थयों पर भी लागू होती है’ (पृ.174) कई ऐसे मुदों को इस अंश में उठाया गया है उनहें िनिषद करने या उनमूिलत करने के बजाय लेिखका का मानना है िक इन िसथितयों को उसके एजेंट के पक में मानवीय, सवचछं द, सवतंत और गररमापूण्थ बनाने की आवशयकता है। इस पकार के वातावरण की रचना की ज़रूरत है िक मिहला पतयेक िनण्थय सवसथय व सवतंत मानस से ले सके । साफ़ है िक नारीवाद को िसयों की सवायतता की िसथितयाँ बनानी हैं और उनके चुनाव की आज़ादी में बाधक वच्थसववादी मूलयों को िपघलाना है। जेंडर की मानिसकता के पीिड़त को नयाय देना और जेंडर के एजेंट को नयायोिचत शकल देना, िवकलपहीन मक़सद है। नारीवाद को अपने लकय का संधान इसी दृिष्टकोण के आधार पर करना होगा। नए आयाम से िवशे षण व िवमश्थ पसतुत करती है। लेिखका िसदहसत शैली में ‘जेंडर’, ‘मिहला-सशकीकरण’ ‘जेंडर समानता’, ‘िवकास की राजनीित’ एवं ‘मिहलाओं की सि्रिय भागीदारी का सरकारीकरण’ इतयािद शबदों और उप्रिमों में अंतिन्थिहत िपतृसतावादी और वच्थसववादी मनसूबों को उजागर करती हैं। कई सथानों पर पाठक को चिकत होना पड़ता है जब उसे यह अनुभव होता है िक िजसे वह सी समानता का सतंभ मानता था वह शुद वच्थसववादी मानिसकता का पोषक है, उदाहरणाथ्थ – ‘नारीवाद की शबदावली में ‘जेंडर’ का पयोग ‘सी’ की धारणा को अिसथर करने के िलए िकया जाता है, ...िवकास के ‘जेंडरीकरण’ का अथ्थ है िवकास के िनयमन में मिहलाओं की सेवाएँ लेना...मिहला सशकीकरण की राषटीय नीित (2001) में कहा गया है िक उसका एक उदेशय िवकास की पि्रिया में जेंडर के पररपेकय को मुखयधारा की तरह शािमल करना है। ...यहाँ ‘जेंडर’ तथा ‘मिहला’ को िकस तरह एक-दूसरे का पया्थयवाची बना िदया गया है।’ (पृ.208) लेिखका िनवेिदता मेनन ने ‘नारीवाद’ को जो भावाथ्थ पदान िकया है वह बहुत िवसतृत व बहुआयामी है। यह िसयों मात तक सीिमत नहीं है। यह ‘नारीवाद’, जाित, धम्थ, वग्थ, संपदाय, समाज, कॉरपोरे ट व राजनीित सभी संदभ्गों मे वच्थसववादी सोच को चुनौती है। इस तरह ‘नारीवाद’ उनके साथ है जो इस न र्ष ‘वच्थसववादी सोच’ से लड़ाई लड़ रहे हैं वे पुसतक नारीवादी िनगाह से नारीवाद के अथ्थ दिलत, अलपसंखयक, सी व कवीयर कोई भी अवधारणा, भूिमका और साधय पर अनेक हो सकता है। धयान यह भी रखना है िक 19__puneet_nivedita update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:36 Page 425 भि नारीवाद अंितम लकय या सतय नहीं है बिलक पररवत्थन की एक पि्रिया है, सनातन वच्थसववादी मानस के पररमाज्थन की एक पि्रिया है, जो िक जीवन में इतना िनिहत हो चुका है िक उसके िख़लाफ़ सब कु छ पाप, नारकीय, संसकृ ित का पतन और अशील लगने लगता है। िकताब नारीवादी िनगाह से सीअिसमता की सथापना के संदभ्गों में पतयेक एकांगी और असंतिु लत शिक से मुठभेड़ का आहान करती है। जब वच्थसववादी मानस िपघलकर संतिु लत चेतना का सवामी हो जाएगा तो सी-अिसमता भी सवसथ अथ्गों के साथ सथािपत हो जाएगी। लेिखका ने नारीवाद के अथ्थ भावाथ्थ, तौर-तरीक़ों व सामािजकता पर एक गंभीर िवशे षण पसतुत िकया है। िनवेिदता मेनन ने नारीवाद के रासते में आने वाले पायोिजत और तथाकिथत संसकारजिनत सािज़शों की साहिसक पड़ताल ही नहीं की है अिपतु अनेक सैदांितक ढकोसलों को भी ढहाया है। िकताब के अनुवादक नरे श गोसवामी ने बहुत अचछा अनुवाद िकया है। परं परागत वच्थसववादी शैली पर पहार करने वाली इस रचना का िहंदी भाषा में अनुवाद करना सराहनीय, साहिसक एवं पशंसनीय पासंिगक काय्थ है। अंगेज़ी भाषा की तुलना में िहंदी में ऐसी मौिलक िकताबें कम आ रही हैं। इस के िरोध | 425 दृिष्ट से अनुवादक नरे श गोसवामी ने उललेखनीय काय्थ िकया है। यदिप अनुवाद की सीमाओं का कही-कहीं अनुभव होता है। यिद कु छ शबदों के साथ उनके मूल अंगेज़ी शबद भी िलख िदए जाते तो उसे संदभ्थ सिहत समझना और सरल होता। नारीवाद के िख़लाफ़ िजस पकार का वातावरण वत्थमान में है और वच्थसववादी सनातन मानस िजस पकार िदन-पितिदन शिकशाली होता पतीत हो रहा है, यह कहना असंदिभ्थत नहीं होगा िक िकताब नारीवादी िनगाह से अपने समय से आगे की सोच का पितिनिधतव करती है परं तु साितवक सतय यह भी है िक नारीवाद को अपनी सामररक रूप-रे खा, सामियक योजना और भिवषय के काय्गों का िनधा्थरण इसी पकार के सािहतय के संदभ्गों में ही करना होगा। इस िकताब को पढ़ने के बाद सहमित का जो साहिसक सतर सवयमेव िनिम्थत हो जाता है उसे लेिखका के शबदों मे इस पकार कहा जा सकता है ‘आज नारीवाद का केत अलग-अलग वग्गों और जाित-समूहों की अनंत और नई ऊजा्थ तथा मानक नारीवाद के पितसपध्गी दावों से खदबदा रहा है। नारीवाद धीर-घीरे ही आता है। लेिकन उसका आना कभी रुकता नहीं।’ इस पुसतक का नारीवाद एक साितवक सतय है िजसे देर-सबेर सवीकारना होगा। 20_Manoj Mohan_Layout 1 27-01-2023 16:37 Page 426 िताब िल मनोज मोहन आज के पश्न के तेईसवें िसलिसले को अरुण कु मार ितपाठी ने संकट में खेती : आंदोलन पर िकसान शीष्षक से आगे बढ़ाया है. अरुण कु मार ितपाठी लोिहया-िवचार से जुड़े रहे हैं. इस संपािदत िकताब मे िकसानों के संकट पर बाईस लोगों ने िवचार िकया है िजनमे अिधकांश अपने राजनीितक रुझान के कारण समाचारों के पररसर मे जाने-पहचाने जाते हैं. इस तरह की संपािदत िकताबों पर तातकािलकता हावी रहती है. सभी लेखकों ने गूगल के डेटा पर ही भरोसा िकया है, हमे यह सवीकार करना चािहए िक हम अभी भी वैकि्पक डेटा पणाली िवकिसत नहीं कर पाए हैं। यह िकताब िकसानों से संबंिधत िववरण पाने का एक ज़ररया है लेिकन खेती का संकट न तो इन तीन क़ानूनों से आया था और न ही उसके हटने से जाने वाला है। खेती के संकट पर िनरं तर संवाद की ज़रूरत सभी लेखकों ने महसूस की है और नये िवक्पों की तलाश की ज़रूरत भी। संकट में खेतीः आंदोलन पर िकसान सं. अरुण कु मार ितपाठी वाणी पकाशन, दररयागंज, नयी िद्ली मू्य : ₹ 325, पृष : 240 पेमचंद के बाद फणीश्वरनाथ रे णु आधुिनक िहंदी गद के दूसरे ऐसे लेखक हैं, िजनके िलखे सािहतय को भारतीय समाज की रूिढ़यों मे जो बदलाव आ रहे थे, उसके संकेतक िचह्न के तौर पर देखे जाने चािहए। उनहीं रे णु पर अनंत ने अपनी िकताब दो गुलफ़ामों की तीसरी कसम को बड़े श्रम, शोध और गहरे लगाव से िलखा है। तीसरी कसम कहानी का बीज रे णु को कब, कहाँ और कै से िमला, उसके िकरदार िकन वासतिवक वयि्तियों पर आधाररत थे, उनके चररत, उनकी कहािनयाँ रे णु को कै से और कहाँ िमली, और इसके साथ ये कहानी शैलद्रे तक कै से पहुचँ ी और उनकी कया पिति्रिया थी, इस पर िकताब मे सारे िववरण जुटाए गए हैं। यह कहना सही होगा िक दो गुलफ़ामों की तीसरी कसम मे रे णु ने िजन कमज़ोर और मेहनतकशों की आिथ्षक मजबूरी के साथ-साथ उनकी नैितकता तथा सांसकृ ितक हािद्षकता को रे खांिकत िकया है, अनंत ने उस हािद्षकता को िवसतार िदया है। दो गुलफ़ामों की तीसरी क़सम अनंत कीकट पकाशन, कु रथौल, पटना–804453 मू्य : ₹ 650, पृष : 240 िशरीष खरे अपनी िकताब एक देश बारह दुिनया मे हािशए पर छू टे भारत की तसवीर पेश करते हैं। इस िकताब मे बारह ररपोता्षज़ हैं। सारे ररपोता्षज़ हािशए पर रह गए उन समुदायों के िक़ससे हैं िजनहे कभी िवकास, कभी आधुिनकता तो कभी पररवत्षन के नाम पर ठगा गया है। 2008 से 2017 के बीच के बारह ररपोता्षज़ों मे महाराष् से छह, छतीसगढ़ से तीन और मधय पदेश, राजसथान और गुजरात से एक-एक ररपोता्षज़ यहाँ पसतुत हैं। बायतु, राजसथान की याता मे पतकार िशरीष खरे यह दज्ष करने पर मजबूर होते हैं िक गणतंत की सथापना के सात दशकों के बाद भी जन सामानय यह नहीं मान 20_Manoj Mohan_Layout 1 27-01-2023 16:37 Page 427 िताब िल | 427 पाता िक सभी नागररक एक समान हैं। िदखाई यह पड़ता है िक जनतंत का सार 'एक मनुषय, एक मू्य' के िसदांत पर िटका है, कयोंिक यह िहंसा, अनयाय और घृणा के बूते अपना राजय क़ायम रखना चाहता है। इस िकताब का िनषकष्ष है िक हािशए का समाज अभी भी सामािजक, सांसकृ ितक और राजनीितक संकटों से जूझ ही रहा है। एक देश बारह दुिनया िशरीष खरे राजपाल, िद्ली-110006 मू्य : ₹ 295, पृष : 208 सुषमा नैथानी ऑरे गन सटेट यूिनविस्षटी, कोरवािलस, अमेररका मे वनसपित िवजान की एसोिसएट पोफे सर हैं। अनन कहाँ से आता है िकताब कृ िष के इितहास की चचा्ष तो करती ही है, साथ ही कृ िष के िवकास पर अभी तक की अपडेटेड, जीवंत और रोचक जानकारी देती है। कृ िष मानव सभयता का पहला उदम माना जाता है। भारत जैसे कृ िष पधान देश मे आधी आबादी कृ िष पर ही िनभ्षर है, और देश के राष्ीय आय का चौथाई िहससा भी कृ िष पर ही िनभ्षर है। संगहण से लेकर कृ िष की शुरुआत, िविभनन समाजों मे उनका िवकास और जी एम फसलों तक के बारे मे यहाँ बात की गई है। वो मानती हैं िक पूरी दुिनया मे अभी भी िटकाऊ कृ िष के मॉडल को उभरने मे वक़त लगेगा। इस िकताब मे कृ िष से जुड़े अंगज़े ी और िहंदसु तानी ज़ुबान मे शािमल शबदों को तरजीह िदया गया है। कृ िष ने मानव सभयता की बहुिवध संसकृ ितयों को जनम िदया है, और आज भी उसका संबधं उलझा हुआ भले िदखे लेिकन अंतरंग और अंतरगुिं फत संबधं बना हुआ है। अनन कहाँ से आता है सुषमा नैथानी नैशनल पुसतक नयास, भारत मू्यः ₹ 275, पृषः 262. सािहतय के इितहास मे मि्लका भारतेदु हररशंद्र की पेयसी के रूप मे दज्ष है। डॉ. राजकु मार के संपादन मे मि्लका समग्र िकताब मे भारतेदु के जीवन मे उनकी उपिसथित बौिदक सहचर के रूप मे िदखाई पड़ती है। िहंदी-संसार के पुरुष के िद्रत सािहितयक-सांसकृ ितक इितहास को सही पररपेकय मे समझने के ख़ाितर भी मि्लका के सािहितयक योगदान का समयक मू्यांकन ज़रूरी है। मि्लका समग्र दारा न िसफ़्ष उननीसवीं सदी के किथत नवजागरण की कहानी पूरी होती है बि्क भारतेदु हररशंद्र की भी। बीच-बीच मे हम इितहास के उन पननों से भी गुज़रते हैं जहाँ पुरुष के िद्रत सािहितयक-सांसकृ ितक इितहास की समझ भी दुरुसत होती है। इस समग ने मि्लका की छिव और कृ ित दोनों को ही पामािणकता के साथ पाठकों के समक्ष रखा है। मि्लका समग्र संपादकः डॉ. राजकु मार राजकमल पेपरबैकस, नयी िद्ली मू्यः ₹ 299, पृषः 262 ‘िदल वो नगर नहीं िक िफ़र आबाद हो सके । पछताओगे सुनो हो ये बसती उजाड़ के ’। मीर की इन पंि्तियों की रौशनी मे जब हम िद्ली जो एक शहर था का वक़त और आज के वत्षमान समय की िद्ली को देखते हैं तो एक िनरंतरता का अहसास होता है। जनवरी 1951 मे पकािशत राजेनद्र लाल हांडा की इस उदू्ष पुसतक का िहंदी अनुवाद शुभम िमश्र ने हाल ही मे िकया है। इसे गुरु गोिवंद िसंह ्ाइसेिटनरी िवश्विवदालय ने पकािशत िकया है। पुसतक मे राजेद्र लाल हांडा के बारे मे कोई पररचय नहीं है, जो है वो इस िकताब की तफ़सील मे है। वह भी उनके बारे मे ज़रा सी जानकारी दो-तीन जगहों पर है, लेिकन हमे सन् 1940 से 1950 तक के समय की अहम जानकारी िमलती है। इसी समय मे िद्ली एक सामाजयवादी शासन के के द्र से िनकलकर एक महान सवतंत राष् की राजधानी बनी। उस समय जो 20_Manoj Mohan_Layout 1 27-01-2023 16:37 Page 428 428 | िमान अक्पनीय पररवत्षन दुिनया भर मे हुए, उसका असर हमारे देश पर भी पड़ा था, और उसकी गहरी छाप आज की िद्ली पर भी है। िद्ली जो एक शहर था राजेद्र लाल हांडा अनुवादः शुभम िमश्र गोिवंद िसंह ्ाइसेिटनरी िवश्विवदालय मू्यः ₹ 799, पृषः 148. रामकु मार कला-मम्षज पयाग शुकल की िकताब रामकु मार : कला कथा उनके लेखों का संगह है, िजसमे यह महतवपूण्ष पंि्ति भी शािमल है, जब अमूत्षन के िचतेरे रामकु मार ने कहा था िक 'लाल रं ग भी उदास हो सकता है।' उनके बनाए िचतों मे रं ग िनिल्षप्त भाव से चले आते हैं। इस पुसतक मे शािमल लेखों की खूबी यह है िक पयागजी ने ये सारे लेख रामकु मार के िचत बनाने की याता के समानांतर िकया है। रामकु मार के सममान मे उनके िलखे वे दोनों लेख शािमल हैं जो बनारस को लेकर िलखे गए थे। पयागजी का कहना है िक वे 'आधुिनकता' के अितरे क मे कभी बहे नहीं। उनहोंने सचमुच अपनी तरफ़ से, अपनी रचनातमक शत्तों पर ही अपनी ‘आधुिनकता’ का आिवषकार िकया। िचतकार रामकु मार को जानने की एक ज़रूरी िकताब है। रामकु मारः कला कथा पयाग शुकल इंिडया टेिलंग, धनबाद, झारखंड मू्यः ₹ 300, पृषः 160 आधुिनक कननड़ िथएटर के अगदूत और राष्ीय नाट् य िवदालय (रानािव) के सनातक पसनना पमुख रं गमंच िनद्देशक और नाटककार हैं। वे अिभनय की भारतीय पद्धित िकताब मे अिभनय की समकालीन पिशमी पदित के बरअकस समकालीन भारतीय पदित का िववेचन करते हैं। उनकी इचछा रही है िक अिभनय की भारतीय पदितयाँ भी समकालीन रं गमंच के िसलिसले मे िववेिचत हों, न िक िसफ़्ष भारतीय शासीय नाट् य िसदांतों के पररपेकय मे ही हों। भारतीय रं गमंच की एक लंबी शासीय परं परा रही है, उसी के आलोक मे अिभनय की भारतीय पदित की खोज़ करने मे सफल रहे हैं। कननड़ के इंपोवाइज अंगज़े ी संसकरण का िहंदी अनुवाद रवींद्र ितपाठी ने िकया है। अिभनय की भारतीय पद्धित पसनना अनुवादः रवींद्र ितपाठी राष्ीय नाट् य िवदालय, बहावलपुर हाउस, नई िद्ली मू्यः ₹ 400, पृषः 298 मशहूर इितहासकार रामचंद्र गुहा की रुिच समाज, राजनीित, पया्षवरण और ि्रिके ट मे है। हाप्षर कॉिलंस से पकािशत िकताब द कॉमनवे्थ ऑफ़ ि्रिके ट मे उनहोंने जबसे अपने जीवन मे ि्रिके ट की बारीिकयों को देखना शुरू िकया, उसका वण्षन िकया है। साठ के दशक के पूवा्षद्ष तक भारत ि्रिके ट की दुिनया मे हािशये पर ही था, उस समय तक भारत ने िवदेशी भूिम पर कोई टेसट मैच नहीं जीता था। उसके पचास साल बाद जब गुहा ि्रिके ट कं ्ोल ऑफ़ बोड्ष मे शािमल हुए तो भारत ि्रिके ट का िवश्व िवजेता बन चुका था। वे सकू ली, कलब, राष्ीय और अंतरराष्ीय सतर पर खेले ि्रिके ट मे कै से सथानीय हीरो से लोकल हीरो और िफर अंतरराष्ीय सतर पर आइकन बनते हैं, इसका जीवंत वण्षन िकया है। इस िकताब मे ि्रिके ट से जुड़े संसमरण को, छोटे-छोटे िववरण को ररपोता्षज शैली मे पढ़ना उन क्षणों को िफर से जीवंत महसूस करना है। द कॉमनवे्थ ऑफ़ ि्रिके ट रामचंद्र गुहा फोथ्ष इसटेट हाप्षर एंड कॉिलंस, नई िद्ली मू्यः ₹ 699, पृषः 350 20_Manoj Mohan_Layout 1 27-01-2023 16:37 Page 429 िताब िल | 429 रूबी लाल इितहास पढ़ाती हैं। मुगलों के शासनकाल मे नूर जहाँ को पहली महतवपूण्ष मिहला के रूप मे वे इस िकताब मे िज़्रि करती हैं, िजनका उस समय के शासन मे दख़ल है। नूर जहाँ के वयि्तितव मे ऐसा कया था जो वह शीष्ष पर पहुचँ ी और जहाँगीर का साथ सह-शासक की हैिसयत हािसल कीं–इसकी इतनी गहन पसतुित अनयत दुल्षभ है। यह िकताब इस िमथ को भी ग़लत सािबत करता है िक मुगलों के यहाँ िसयों की िसथित अचछी नहीं है, यहाँ तक िक उसकी राजनीितक सूझबूझ, कू टनीितक कु शलता और सौंदया्षनभु िू त का पभाव शाहजहाँ तक पर देखा जाता है। वह राजयादेशों पर हसताक्षर िकया करती थी और उसके नाम से शाही िसकके ढलते थे। इितहास की दृि्टि से नूर जहाँ की यह पहली पामािणक जीवनी मानी जा सकती है। मिलका-ए-िहंद : नूर जहाँ का अचरज भरा शासनकाल रूबी लाल संवाद पकाशन, मेरठ, उतर पदेश मू्यः ₹ 400, पृषः 280 भारतीय राजनीित की एक अंतक्ष था को िनषपक्ष नज़ररये से िहंदू राष्वाद : सावरकर और राष्ीय सवयंसवे क संघ एक ऐसी िकताब है जो भारतीय राजनीित की अंतक्ष था को िनषपक्ष और सप्टि नज़ररए से राव साहेब कसबे ने िलखा है। यह मूल रूप से मराठी मे िलखा गया है। यह िकताब सावरकर के िवरोधाभासी वयि्तितव के पीछे की गुितथयों को सुलझाती है। मुिसलम िवरोधी छिव मे क़ै द उनके समाज-सुधारक रूप की अनदेखी की जाती है। गोडसे के बानबे पेज की हसतिलिखत बयान को िजस तरह भरी अदालत मे पढ़कर सच की िवश्वसनीयता को संिदगध करने की कोिशश की गई थी, और आज के पचार माधयमों से उस संिदगधता को पुखते तथयों मे बदलने की कोिशश की जा रही है, यह िकताब उसका खंडन करती है। िहंदू राष्वाद के समथ्षक सावरकर के िचंतनशील मिसतषक का पामािणक िवशेषण लेखक ने िकया है। मनोहर गौर के सुघड़ अनुवाद मे यह एक ज़रूरी िकताब है, िजसे अमृत महोतसव वष्ष मे पढ़ना ज़रूरी है। िहंदू राष्वादः सावरकर और राष्ीय सवयंसेवक संघ राव साहेब कसबे अनुवाद : मनोहर गौर संवाद पकाशन, मुबं ई : मेरठ मू्यः ₹ 450, पृषः 568 एकांत के सौ वष्ष लाितन अमेररका का इितहास नहीं है, वह लाितन अमेररका का एक रूपक है। यह किव-दृि्टि है, िजससे मंगलेश डबराल आजीवन अपने आसपास को देखते रहे। एक िदन आयोवा के गद लेखक और किव की िसफ़्ष यही थी मेरी उममीद, उसका अंितम संगह है, वह कोिवड से किव की तरह लड़ते हुए दुिनया को अलिवदा कह चुका है। इस संगह मे शािमल करने के िलए उनहोंने कु ल तैंतीस लेख चुने थे। अिधकतर लेख किव, किवता और किवता की दुिनया के बारे मे है। उनका मानना है िक शायद ही कोई संवेदना है, कोई मानवीय आवेग और सघनता और गहराई और िवचिलत करनेवाली कोई वैचाररक भावना, जो िकसी अिभवयि्ति को किव बना देती है। तभी अशोक वाजपेयी भूिमका मे कह देते हैं िक मंगलेश का गद 'शायद िबजली से वंिचत' नहीं, बि्क िबजली िगरने के ठीक पड़ोस का गद है िजसमे असाधारण सपंदन और दुित है। िसफ़्ष यही थी मेरी उममीद मंगलेश डबराल वाणी पकाशन, नई िद्ली-110 002 मू्यः ₹ 695, पृषः 304 21sandarbh update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:40 Page 430 रचनाकार-पररचय और समपक्क अजमे र िसंह काजल पोफ़े सर, भारतीय भाषा कें ्, जवाहरलाल नेहरू िवश्विवदालय, नई िदलली। [email protected] अयूब ख़ान महारानी लकमीबाई शासकीय उतकृ ष्ट महािवदालय, गवािलयर में पोफ़े सर हैं। [email protected] कमल नयन चौबे यूट्यबू पर िचंतनपरक काय्यक्रम ‘परख’ चलाते हैं; िदलली िवश्विवदालय के दयाल िसंह कॉलेज में राजनीितशास िवभाग में एसोिसएट पोफ़े सर हैं। [email protected] गररमा शीवासतव, भारतीय भाषा कें ्, जवाहरलाल नेहरू िवश्विवदालय, नई िदलली में पोफ़े सर हैं। [email protected] चंदन शमा्क सराय और भारतीय भाषा काय्यक्रम, िवकासशील समाज अधययन पीठ (सीएसडीएस) के अिभनन अंग हैं। [email protected], िदनेश कु मार िमश अिभयंता और पया्यवरणिवद बाढ़ मुि्ति अिभयान के संयोजक हैं। [email protected] िदनेश कु मार िदलली िवश्विवदालय से आधुिनकतावाद और िहंदी की पगितशील आलोचना में शोध : िदलली में रहते हुए सवतंत लेखन। [email protected] देव नाथ पाठक दि्षिण एिशयाई िवश्विवदालय के समाज शास िवभाग में सहायक पोफ़े सर हैं। [email protected] धीरज कु मार नाइट सकू ल ऑफ़ िलबरल सटडीज़, अमबेडकर िवश्विवदालय िदलली में अिससटेंट पोफ़े सर हैं। [email protected]; [email protected] िनशांत कु मार राजनीितक अधययन कें ्, दयाल िसंह कॉलेज में अिससटेंट पोफ़े सर हैं। [email protected] िनवेिदता मेनन जवाहर लाल युिनविस्यटी में पोफ़े सर हैं। [email protected] पंकज कु मार झा मोतीलाल नेहरू कॉलेज में राजनीित िवजान िवभाग में अिससटेंट पोफ़े सर के पद पर काय्यरत हैं। [email protected] पु नीत कु मार सह-पाधयापक एवं अधय्षि, शोध के न् एवं सनातकोत्तर राजनीित िवजान िवभाग शास. एस.एम.एस. सनातकोत्तर महािवदालय, िशवपु री मधय पदे श । [email protected] प्रदीप बौहरे जीवाजी िवश्विवदालय, गवािलयर में अनुसंधानरत हैं। [email protected] प्रभात कु मार िवकासशील समाज अधययन पीठ (सीएसडीएस) में अिससटेंट पोफ़े सर हैं। 21sandarbh update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:40 Page 431 रचनाकार-प रचय और स क्क | 431 [email protected] बलराम शुकल िदलली िवश्विवदालय, संसकृ त िवभाग में पोफ़े सर तथा इंिडयन इंिसटट् यटू ऑफ़ ऐडवांसड सटडीज़, िशमला के भूतपूव्य फ़े लो हैं। [email protected] मनोज मोहन िदलली िसथत सांसकृ ितक पतकार हैं। [email protected] मणीन्द्र नाथ ठाकु र राजनीितक अधययन कें ्, जवाहरलाल नेहरू िवश्विवदालय में पोफ़े सर हैं। [email protected] मृ तयुं ज य चटज्जी िदलली िसथत कलाकार और िडज़ाइनर हैं। [email protected] मृतयुंजय ि्रिपाठी अज़ीम पेम जी िवश्विवदालय, भोपाल में अिससटेंट पोफ़े सर हैं। [email protected] रिवकानत मीिडया इितहासकार और िवकासशील समाज अधययन पीठ (सीएसडीएस), िदलली में एसोिसएट पोफ़े सर हैं : [email protected] रवीं्द्र कु मार पाठक, िहंदी िवभाग, दि्षिण िबहार के न्ीय िवश्विवदालय, गया (िबहार) में एसोिसएट पोफ़े सर हैं। [email protected] रुिच शी ितलका माँझी भागलपुर िवश्विवदालय, भागलपुर के सनातकोत्तर राजनीितशास िवभाग में अिससटेंट पोफ़े सर हैं। [email protected] राजेश कु मार चौरिसया अिससटेंट पोफ़े सर, दश्यनशास, वसंत मिहला महािवदालय, (बनारस िहनदू िवश्विवदालय के िवशेषािधकार के अंतग्यत), राजघाट, वाराणसी उत्तर पदेश। [email protected] िवकास कु मार राजनीित िवजान िवभाग, िदलली िवश्विवदालय में पीएचडी शोधाथ्थी हैं। [email protected] वेंकटे श कु मार रीितकाल पर अनुसधं ानरत जािमया िमिलया इसलािमया में शोधाथ्थी हैं। [email protected] शरद देशपाणडे सािवती बाई फु ले पुणे िवश्विवदालय में दश्यनशास के भूतपव्य पोफ़े सर तथा भूतपूव्य टै गोर फ़े लो, इंिडयन इंिसटट् यूट ऑफ़ ऐडवांसड सटडीज़ िशमला। [email protected] शशांक चतुव्वेदी इंिसटट् यूट ऑफ़ लॉ, िनरमा िवश्विवदालय, अहमदाबाद, गुजरात में अिससटें ट पोफ़े सर हैं । [email protected] शु भ नीत कौिशक इितहास िवभाग, सतीश चं ् कॉले ज , बिलया, उत्तर पदे श में अिससटें ट पोफ़े सर हैं । [email protected] सुबोध कु मार गुजरात के समु्ी मछु वारों पर पीएचडी कर चुके हैं। [email protected] िहलाल अहमद राजनीितशासी और िवकासशील समाज अधययन पीठ (सीएसडीएस), िदलली में एसोिसएट पोफ़े सर हैं। [email protected] 21sandarbh update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:40 Page 432 432 | िमान ÂýçÌ×æÙ ·ð¤ çÜ° â¢ÎÖü-âæ¡¿æ ¨ã U Îè ·ð¤ àæôÏ-â¢âæÚU ×ð´ ßñâð Ìô ¥Õ Üô» ÕǸðU Âñ×æÙð ÂÚU â¢ÎÖüÙ ·¤ÚUÙð Ü»ð ãñ´U, Üðç·¤Ù ¥ÚUæÁ·¤Ìæ Øæ ©UÎæâèÙÌæ ¥Öè-Öè ·¤× ÙãUè´ ãñUÐ ãU×æÚUè ·¤ôçàæàæ ãUô»è ç·¤ Ü`Õð ¥ÚUâð ×ð´ çß·¤çâÌ ¥õÚU çÙãUæØÌ Üô·¤çÂýØ çàæ·¤æ»ô Øæ ãUæßüÇüU ×ñÙé¥Ü Áñâè ßñçàß·¤ â¢ÎÖüÙ Âý‡ææçÜØô´ ·¤æ ×êÜÌÑ §SÌð×æÜ ·¤ÚUÌð ãéU° ©Uâð Öæáæ ·ð¤ SÍæÙèØ ÃØßãUæÚU ·ð¤ ×éÌæçÕ$·¤ ¥Ùé·ê¤çÜÌ ·¤Úð´UÐ ÜðBæ·¤/ÜðçBæ·¤æ¥ô´ âð ¥ÂèÜ ãñU ç·¤ ßð ¥ÂÙð ¥æÜðBæ ·¤æ àæµÎ-â¢ØôÁÙ ·¤ÚUÌð ß$@Ì §Ù ¿è•æô´ ·¤æ $BæØæÜ •æM¤ÚU ÚUBæð´, Ìæç·¤ ãU×ð´ â`ÂæÎÙ ×ð´ ¥õÚU âÁ» ÂæÆU·¤ô´ ·¤ô ÂɸUÙð ×ð´ ·¤× ×ðãUÙÌ ·¤ÚUÙè ÂǸðUÐ àæôϘæ ×ð´ ÙæÙæ Âý·¤æÚU ·ð¤ dôÌô´ ·¤ô â¢ÎçÖüÌ ·¤ÚUÙð ·¤æ ÌÚUè$·¤æ Ùè¿ð ç×âæÜ Îð ·¤ÚU çâÜçâÜðßæÚU â×ÛææØæ »Øæ ãñUÐ $BæØæÜ ÚUãðU ç·¤ ·é¤ÀU ×æ×Üô´ ×ð´ ãU×æÚUæ ÌÚUè$·¤æ §Ù ÌÚUè$·¤ô´ âð ¥Ü» ãñUÐ ÂãUÜè ÕæÌ, ãU× ×êÜ ¥æÜðBæ ×ð´ â¢ÎÖü Ù ÇUæÜ·¤ÚU $Èé¤ÅUÙôÅU ·¤æ §SÌð×æÜ ·¤Úð´U»ð, ¥õÚU ÜðBæ ·ð¤ ¥æç$BæÚU ×ð´ °·¤ »ý¢Íâê¿è Îð´»ðÐ ÎêâÚUè ÕæÌ, ãU× $Èé¤ÅUÙôÅU ß »ý¢ÍæßÜè ÎôÙô´ ãUè Á»ãUô´ ÂÚU ÇUæòÅU ·¤æ §SÌð×æÜ ·¤Úð´U»ð, ÁÕç·¤ ×êÜ ¥æÜðBæ ×ð´ Âê‡æü çßÚUæ× ·¤æÐ ¥õÚ,U ãU×æÚðU ØãUæ¡ Áñâæ çÚUßæÁ ãñU Ùæ× ßñâð ãUè ÚUBæð´»ð, ØæÙè ÂãUÜð ÂãUÜæ Ùæ×, çȤÚU ©UÂÙæ×, ¥õÚU »ý¢ÍæßÜè Öè çãU¢Îè ߇æü·ý¤×æÙéâæÚU §âè ÉUÚðüU ÂÚU ¿Üð»èÐ ãU×æÚðU ØãUæ¡ ÜðBæ·¤ ¥ÂÙð Ùæ× ·ð¤ ÂãUÜð ÇUæò@ÅUÚU/ÇUæò. Øæ Âýô$Èð¤âÚU/Âýô. Ü»æÌð ÎðBæð »Øð ãñ´U, ãU× ©UÙ·ð¤ ÀUôÅðU M¤Â âð Öè ÂÚUãðU•æ ·¤Úð´U»ð, çâßæØ ÂýæÍç×·¤ dôÌô´ ·ð¤, Áñâð ×ôÌè Õè.°. ¥»ÚU ¥ÂÙð Ì$BæËÜéâ ·ð¤ âæÍ çÜBæÌð Íð Ìô ãU× ©UÙ·¤è Ì×æ× ÚU¿Ùæ°¡ ×ôÌè Õè.°. ·ð¤ Ùæ× âð ãUè ÇUæÜð´»ðÐ â¢ÿæð ×ð´ Ùæ× çܹÌð â×Ø ÇUæòÅU ·¤æ ÂýØô» ·¤Úð´U ¥õÚU SÂðâ Ù Îð´, Áñâð Ñ Áè.Âè. ŸæèßæSÌß, Ù ç·¤ Áè. Âè. ŸæèßæSÌßÐ çßBØæÌ â¢SÍæ¥ô´ Øæ Îðàæô´ ·ð¤ Ùæ× çܹÌð â×Ø ÇUæòÅU Ü»æÙð ·¤è ¥æßàØ·¤Ìæ ÙãUè´ ãñU, Áñâð Ñ ØêÙðS·¤ô, Ù ç·¤ Øê.°Ù.§ü.°â.âè.¥ô.; Øæ Øê·ð¤, Ù ç·¤ Øê.·ð¤.Ð ãU× Ùé$@Ìð ·¤æ ÂýØô» Öè ·¤Úð´U»ð, @Øô´ç·¤ ØãU ·é¤ÀU ¥¢»ýð•æè ¥õÚU ©UÎêü àæµÎô´ ·ð¤ çÜ° •æM¤ÚUè ãñUÐ ç×âæÜ ·ð¤ ÌõÚU ÂÚU, •æéçË$Ȥ$·¤æÚU Õé$BææÚUè, ç•æ•æð·¤, •æèÅUèßè, $·¤Øæ×Ì, $ȤÚU×æ§àæ, $»•æÜ, $BæØæÜ, ß$»ñÚUãUÐ ©Uâè ÌÚUãU, ãU× ãU×ðàææ ¥Ïü¿¢¼ý Øæ ¿¢¼ý çÕ¢Îé ·¤æ §SÌð×æÜ ·¤Úð´U»ð, ÁãUæ¡ Öè Ü»Ìæ ãñU, Áñâð ç·¤ Ò$Èé¤ÅUÕæòÜÓ Øæ Ò¥æòÜ §¢çÇUØæ ÚðUçÇUØôÓ Øæ çȤÚU Òã¡UâÙæÓ Øæ ÒÂæ¡¿Ó ×ð´Ð $BæØæÜ ÚUãðU ç·¤ ¥»ÚU ç·¤âè Öè ©UÎ÷ÏëÌ ÎSÌæßð•æ ×ð´ ¥»ÚU Ùé$@Ìð / ¿¢¼ý çÕ¢Îé ·¤æ §SÌð×æÜ ×êÜ ×ð´ ÙãUè´ ãéU¥æ ãñU Ìô ãU× ¥ÂÙè ÌÚU$Ȥ âð ٠ܻ氡Р©Uâè ÌÚUãU ¥»ÚU Îðâè ¢¿æ¢» / â¢ßÌ÷ ·¤æ ÂýØô» ãéU¥æ ãñU Ìô ©Uâè ·¤æ §SÌð×æÜ ·¤Úð´UÐ ÁãUæ¡ ÌæÚUè$Bæ âæ$Ȥ ÙãUè´ / ¥ÙéÂÜµÏ ãñU, ßãUæ¡ §â·¤æ ç•æ·ý¤ •æM¤ÚU ãUôÐ ·¤ôÜÙ Øæ çßâ»ü Ü»æÌð â×Ø ŠØæÙ ÚU¹ð´ ç·¤ ©Uâ·ð¤ ÎôÙô´ ÌÚU$Ȥ SÂðâ ãUôÐ ãUæ¡, ¥»ÚU ç·¤âè ¥¢·¤ ·ð¤ ÌéÚ¢UÌ ÕæÎ çßâ»ü Ü»æØæ Áæ ÚUãUæ ãñU Ìô SÂðâ ·ð¤ßÜ ©Uâ·ð¤ ÕæÎ ¥æ°»æÐ ãUÚU Á»ãU ¥ÚUÕè ¥¢·¤ô´ ØæÙè v, w, x, y ¥æçÎ ·¤æ ÂýØô» ·¤Úð´UÐ $Èé¤ÅUÙôÅU ×ð´ ç·¤ÌæÕ ·ð¤ â¢ÎÖüÙ ·¤æ ·ý¤× Ñ ÂæÎ-çÅUŒÂ‡æè ·ð¤ M¤Â ×ð´ â¢ÎÖü ·¤æ â¢çÿæŒÌ M¤Â §SÌð×æÜ ç·¤Øæ Áæ°»æ, Üðç·¤Ù ÂëcÆU â¢BØæ ¥ßàØ çܹè Áæ°»èÐ Áñâð Ñ Üð¹·¤ ·¤æ Ùæ× (·¤ôcÆU·¤ ×ð´ Âý·¤æàæÙ ·¤æ ßáü) Ñ ÂëcÆU â¢BØæ. ç×âæÜ Ñ âéç×Ì âÚU·¤æÚU (v~}z) Ñ wv. 21sandarbh update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:40 Page 433 िमान के िए संदर्क-साँचा | 433 Ü𹠷𤠥¢Ì ×ð´ Îè ÁæÙð ßæÜè â¢ÎÖü-âê¿è ×ð´ ç·¤ÌæÕ ·ð¤ â`Âê‡æü â¢ÎÖüÙ ·¤æ ·ý¤× Ñ âéç×Ì âÚU·¤æÚ (v~}z)U, ×æòÇUÙü §¢çÇUØæ Ñ v}}z-v~y|, ×ñ·¤ç×ÜÙ, Ü¢ÎÙ. ÊææçãUÚU ãñU ç·¤ ØãUæ¡ ÂëcÆU â¢BØæ ÙãUè´ ÎðÙè ãñUÐ ¥»ÚU ßãUè â¢ÎÖü $Èé¤ÅUÙôÅU ×ð´ ÎôÕæÚUæ ¥æ ÚUãUæ ãñU, Ìô ×ãU•æ ÜðBæ·¤ ·ð¤ Ùæ× âð ·¤æ× ¿Üæ â·¤Ìð ãñ´U, ÂÚU âæÍ ×ð´ çßâ»ü Ü»æ ·¤ÚU ÂëcÆU â¢BØæ ÎðÙæ Üæç•æ×è ãUô»æÐ ¥»ÚU °·¤ ãUè â¢ÎÖü Ü»æÌæÚU $Èé¤ÅUÙôÅU ×ð´ ãñU, Ìô ÒßãUè Ñ ÂëcÆU â¢BØæÓ âð ·¤æ× ¿Ü Áæ°»æÐ ¥»ÚU ÂëcÆU Öè ÙãUè´ ÕÎÜæ Ìô çâ$Èü¤ ÒßãUèÓ ÂØæüŒÌ ãUô»æÐ ¥»ÚU Üð¹·¤ô´ Øæ â`Âæη¤ô´ ·ð¤ Îô Ùæ× ãñ´U Ìô ÂêÚðU Áæ°¡»ð, ¥»ÚU Îô âð •ØæÎæ, Ìô ÎôÙô´ ·ð¤ ÕæÎ ß$»ñÚUãU ܻ氡РÜðç·¤Ù ÂãUÜð $Èé¤ÅUÙôÅU ¥õÚU »ý¢Í-âê¿è ×ð´ âæÚðU Ùæ×, ÂêÚðU Áæ°¡»ðÐ ¥»ÚU ç·¤ÌæÕ ·ð¤ °·¤ âð •ØæÎæ â¢S·¤ÚU‡æ ÀU ¿é·¤è ãñU Ìô çÁâ â¢S·¤ÚU‡æ ·¤æ §SÌð×æÜ ãéU¥æ ãñU, ©Uâ·ð¤ ç•æ·ý¤ ·ð¤ âæÍ ·¤ôcÆU·¤U ×ð´ ×êÜ Âý·¤æàæÙ ·¤æ âæÜ Öè Áæ°»æÐ ¥»ÚU °·¤ ãUè ÚU¿Ùæ·¤æÚU ·¤è °·¤ Ùæ× âð °·¤ ãUè âæÜ ·¤è Îô àæèáü·¤-ÚU¿Ùæ°¡ ©UÎ÷ÏëÌ ·¤è »Øè ãñ´U Ìô ©UÙ·ð¤ ãUßæÜð ×ð´ ÖðÎ ·¤ÚUÙð ·ð¤ çÜ° $Èé¤ÅUÙôÅU/»ý¢ÍæßÜè ×ð´ ÚU¿Ùæ ·ð¤ Ùæ× ·ð¤ ÕæÎ Âý·¤æàæÙ ßáü ·ð¤ âæÍ ·¤, Bæ...¥æçÎ Ü»æØæ Áæ°Ð ç×âæÜ Ñ ÚUæ׿¢¼ý »éãUæ (v~}w ·¤), Ò$ȤæòÚðUSÅþUè §Ù çÕýçÅUàæ °ð´ÇU ÂôSÅU-çÕýçÅUàæ §¢çÇUØæ Ñ ¥ çãUSÅUôçÚU·¤Ü °ÙæçÜçââÓ, §·¤æòÙæòç×·¤ °¢ÇU ÂæòçÜçÅU·¤Ü ßè·¤Üè, Bæ‡ÇU v}, ¥¢·¤ yy Ñ v}}w-v}~{. --------(v~}w Bæ), ÒȤæòÚðUSÅþUè §Ù çÕýçÅUàæ °ð´ÇU ÂôSÅU-çÕýçÅUàæ §¢çÇUØæ Ñ ° çãUSÅUôçÚU·¤Ü °ÙæçÜçââÓ, §·¤æòÙæòç×·¤ °¢ÇU ÂæòçÜçÅU·¤Ü ßè·¤Üè, ¹‡ÇU v}, ¥¢·¤ yz Ñ v~y®-v~y|. ¥»ÚU ç·¤ÌæÕ ¥ÙêçÎÌ ãñU Ìô ¥Ùéßæη¤ ·¤æ Ùæ× $Èé¤ÅUÙôÅU ¥õÚU »ý¢ÍæßÜè ×ð´ ç·¤ÌæÕ ·ð¤ Ùæ× ·ð¤ ÕæÎ ·¤ôcÆU·¤ ×𴠥氻æ Ñ ç×âæÜ Ñ ×‹Ùæ ÇðU (w®®}), ØæÎð´ Áè ©UÆUè´ Ñ °·¤ ¥æˆ×·¤Íæ, ¥¢»ýðÊæè âð ¥ÙéßæÎ Ñ ÚUÿææ àæé@Üæ, Âð´»é§Ù Õé@â, ÙØè çÎËÜè. â`ÂæçÎÌ ç·¤ÌæÕ ×ð´ ÀUÂð ÜðBæ Ñ ç×âæÜ Ñ ãUÚUèàæ ç˜æßðÎè, Ò¥æòÜ ·¤æ§¢Ç÷Uâ ¥æò$Ȥ çãU¢Îè Ñ çÎ §ßæòçËߢ» Üñ´‚ßðÁ ¥æò$Ȥ çãU¢Îè çâÙð×æÓ, ¥æçàæâ Ù¢Îè ß çßÙØ ÜæÜ (â¢.), ç$È¢¤»ÚU¨ÂýçÅ¢U» ÂæòÂéÜÚU ·¤Ë¿ÚU Ñ Î ç×çÍ·¤ °ð´ÇU çÎ ¥æ§·¤æòçÙ·¤ §Ù §¢çÇUØÙ çâÙð×æ, ¥æò@â$ȤÇüU ØéçÙßçâüÅUè Âýðâ, ÙØè çÎËÜè Ñ zv-}{. ÁÙüÜ-¥æçÎ ×ð´ ÀUÂð ÜðBæ Ñ ÚU¿Ùæ·¤æÚU (Âý·¤æàæÙ ßáü), ÒÜðBæ ·¤æ Ùæ×Ó, Â˜æ ·¤æ Ùæ×, ¹‡ÇU, ¥¢·¤, ç·¤â ÂëcÆU âð ç·¤â ÂëcÆU Ì·¤, ¥æç$BæÚU ×ð´ ¥»ÚU $Bææâ ÂëcÆU ·¤æ ç•æ·ý¤ ·¤ÚUÙæ ãUô Ìô Ñ ç×âæÜ Ñ Âýð×ÜÌæ ß×æü (w®®v), Ò§µÙð-×çÚUØ× ãéU¥æ ·¤ÚðU ·¤ô§üÓ, ÕãéUß¿Ù, ßáü w, ¥¢·¤ } (ÁéÜæ§ü-çâÌ`ÕÚU) Ñ vv®-vw}, vvz. 21sandarbh update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:40 Page 434 434 | िमान Âç˜æ·¤æ ·ð¤ ¥æÜðBæ Ñ ç×âæÜ Ñ ÕÁÚ¢U» çÕãUæÚUè çÌßæÚUè (w®vw), Ò·ð¤ÚUÜ ×ð´ ÎçÜÌ ¥æ¢ÎôÜÙ ¥õÚU ÎçÜÌ âæçãUˆØÓ, ·¤ÍæÎðàæ, ßáü xw Ñ ¥¢·¤ z (ÁéÜæ§ü) Ñ |{. ¥$¹ÕæÚU ×ð´ ÀUÂè ÚU¿Ùæ Øæ ÚUÂÅU Ñ ÜðBæ Ñ ÎèÂæçÙÌæ ÙæÍ, ÒÚðUçÇUØô çÚUß槢ÇÓU, ¥æ§ü Ñ Î â¢ÇUð °@âÂýâ ð , ÙØè çÎËÜè, v® ¥»SÌ, w®®}. ÚUÂÅ UÑ ÒØãU ÿæð˜æ çãU¢Îè ×ð´ ⢷¤ÅU ·¤æ â×Ø Ñ ¥â»ÚUÓ, ÁÙâîææ (w®®z), çÎËÜè, w® ×æ¿ü Ñ |. ÀUÂð ãéU° âæÿæ户¤æÚU ·ð¤ ãUßæÜð ·ð¤ çÜ° Ñ âæÿæ户¤æÚU ÎðÙð ßæÜð ·¤æ Ùæ× > àæèáü·¤ ß ÕæÌ¿èÌ ·¤ÚUÙð ßæÜð ·¤æ Ùæ× ©UhÚU‡æ ç¿qïUô´ ·ð¤ Õè¿ > ç·¤ÌæÕ ãñU Ìô ÜðBæ·¤ âð àæéM¤ ·¤ÚU·ð¤ ç·¤ÌæÕ ßæÜæ â¢ÎÖüÙ, ¥»ÚU Âç˜æ·¤æ ãñU Ìô Âç˜æ·¤æ ßæÜæÐ ç×âæÜ Ñ çßàßÙæÍ ç˜æÂæÆUè, ÒÚUæ×çßÜæâ àæ×æü v~z® ×ð´ ÕèÅUè¥æÚU ßæÜð ×æÙð ÁæÌð ÍðÓ Ñ ¥ÁðØ ·é¤×æÚU âð ÕæÌ¿èÌ, ©UÎÖ÷ æßÙæ (ÚUæ×çßÜæâ àæ×æü ×ãUæçßàæðá梷¤ Ñ (â¢.) ÂýÎè ·é¤×æÚU), ¥¢·¤ v®y Ñ v~~ ¥»ÚU ÕæÌ¿èÌ $BæéÎ ÜðBæ·¤/ÜðçBæ·¤æ Ùð ·¤è ãñU Ìô ç•æ·ý¤ Øê¡ ãUô»æ Ñ ÜðBæ·¤/ÜðçBæ·¤æ mæÚUæ âæÿæ户¤æÚU, vx ¥@ÅêUÕÚU, w®®z, ÙØè çÎËÜè. ¥çÖÜð¹æ»æÚU ·¤è âæ×»ýè ·¤æ ãUßæÜæ Ñ ãUô× çÇUÂæÅüU×ð´ÅU, yw-y}/Ùß`ÕÚU v~v{, °. ÁðËâ, ÙðàæÙÜ ¥æ·¤æü§ÃÊæ ¥æò$Ȥ §¢çÇUØæ, (¥æ»ð °Ù°¥æ§ü). ¥ÎæÜÌè ×æ×Üô´ / $Èñ¤âÜô´ ·¤æ ãUßæÜæ Øê¡ çÎØæ Áæ°»æ Ñ ¥æòÜ §¢çÇUØæ ¥æ§üÅUèÇUèâè ß·ü¤âü ØêçÙØÙ °ß¢ ¥‹Ø ÕÙæ× ¥æ§üÅUèÇUèâè °ß¢ ¥‹Ø, (w®®{). w®®|°¥æ§ü¥æÚU x®v, (w®®{) v® °ââèâè {{. çßàßÃØæÂè ßðÕ âð Üè »Øè âæ×»ýè ·¤æ ãUßæÜæ Øê¡ çÎØæ Áæ°»æ Ñ ç×âæÜ Ñ çß·¤èÂèçÇUØæ ÂÚU ÒÂæÙ çâ¢ãU Ìô×ÚUÓ Ñ http://en.wikipedia.org/wiki/Paan_Singh_Tomar; w} ÁéÜæ§ü w®vw ·¤ô ÎðBææ »Øæ. ¥»ÚU ÂýçßçcÅU çãU¢Îè ×ð´ ãñU Ìô ©Uâð çãU¢Îè ×ð´ çÎBææ°¡ Ñ http://hi.wikipedia.org/wiki/ÚUæÁðàæ Bæ‹Ùæ. ·¤§ü ÕæÚU ßðÕ ÂÌô´ âð Ù$·¤Ü-¿ðÂè ·¤ÚUÌð ãéU° ÖæÚUÌèØ Öæáæ¥ô´ ·¤è çÜç ÕÎÜ·¤ÚU ¥ÕêÛæ ãUô ÁæÌè ãñU, çÁââð Õ¿Ùð ·¤æ ©UÂæØ ØãU ãñU ç·¤ ¥¢»ýðÊæè ßðÕ-ÂÌð ·¤è Ù$·¤Ü-¿ðÂè ·¤ÚUÌð â×Ø Îðâè âæ×»ýè ·¤ô ØÍæßÌ ¥ÂÙð ßÇüU ÂýôâðâÚU ×𴠥ܻ âð Å¢Uç·¤Ì ·¤Úð´U. ¿ÜÌè ·¤æ Ùæ× »æǸUè, ÂæÅüU-yÑ ØêÅKêÕ Ñ http://www.youtube.com/watch?v=KWqkCpybNLo &feature=g-vrec; x® ÁéÜæ§ü w®v® ·¤ô â¢ÎÖæüÙéâæÚU ÎðBææ/âéÙæ/ÂɸUæ »Øæ. ¥»ÚU ÜðBæ ç$ȤË×-·ð´¤ç¼ýÌ ãñU, Ìô »ý¢ÍæßÜè ·¤ð âæÍ ç$ȤË×æßÜè Öè ÎðÙè ãUô»è, çÁâ×ð´ ç$ȤË× ·¤æ Ùæ×, âæÍ ×ð´ çÙ×æüÌæ/çÙÎðüàæ·¤ ¥õÚU çÚUÜèÊæ ãéU° âæÜ ·¤æ çÊæ·ý¤ ÊæM¤ÚUè ãUô»æÐ ç×âæÜ Ñ ¥Õ çÎËÜè ÎêÚU ÙãUè´, ¥æÚU·ð¤ ç$ȤË`â, çÙÎðüàæ·¤ Ñ ¥×ÚU ·é¤×æÚU, v~z|. Üðç·¤Ù ×êÜ ¥æÜðBæ ×ð´ Õýñ·ð¤ÅU ×ð´ çâ$Èü¤ ç$ȤË× ·¤æ Ùæ× ß çÚUÜèÊæ ßáü ·ð¤ çÊæ·ý¤ âð ·¤æ× ¿Ü Áæ°»æ Ñ (¥Õ çÎËÜè ÎêÚU ÙãUè´, v~z|). 21sandarbh update 27-01-23_Layout 1 27-01-2023 16:40 Page 435 | 435 ÖæÚUÌèØ Öæáæ ·¤æØü·ý¤× çÂÀUÜð तक़रीबन बीस âæÜ âð çß·¤æâàæèÜ â×æÁ ¥ŠØØÙ ÂèÆU (âè°âÇUè°â) ·¤æ ÖæÚUÌèØ Öæáæ ·¤æØü·ý¤× â×æÁ-çß™ææÙ ¥õÚU ×æÙçß·¤è ×ð´ çã¢UÎè ·ð¤ ç¿¢ÌÙ-Á»Ì ·¤ô â×ëh ·¤ÚUÙð ·¤è ÂçÚUØôÁÙæ ¿Üæ ÚUãUæ ãñUÐ ¥Öè Ì·¤ ¿æÚU »ý¢Í×æÜæ¥ô´ (Üô·¤-ç¿¢ÌÙ »ý¢Í×æÜæ, Üô·¤-翢̷¤ »ý¢Í×æÜæ, âæ×çØ·¤ çß×àæü »ý¢Í×æÜæ ¥õÚU âÚUô·¤æÚU »ý¢Í×æÜæ) ·ð¤ ÌãUÌ ßæ‡æè Âý·¤æàæÙ mæÚUæ Âý·¤æçàæÌ Â¢¼ýãU âð ÊØæÎæ ÂéSÌ·¤ô´ ·¤æ ÕǸðU Âñ×æÙð ÂÚU Sßæ»Ì ãéU¥æ ãñUÐ §Ù »ý¢Í×æÜæ¥ô´ ·ð¤ ÌãUÌ Üô·¤Ì¢˜æ, ÖêׇÇUÜè·¤ÚU‡æ, ÎçÜÌ ¥õÚU ¥æÏéçÙ·¤Ìæ, âð·é¤ÜÚUßæÎ, âæ`ÂýÎæçØ·¤Ìæ, ÚUæcÅþUßæÎ, ÚUæÁÙèçÌ·¤ Âý‡ææÜè, ÙæÚUèßæÎ ¥õÚU âð@àæé¥çÜÅUè Áñâð çßáØô´ ÂÚU ©U“æ·¤ôçÅU ·¤è âæ×»ýè Âý·¤æçàæÌ ·¤è »Øè ãñUÐ ¥ÂÙð àæéL¤¥æÌè ßáôZ ×ð´ ·¤æØü·ý¤× ·¤æ ÊæôÚU ¥¢»ýðÊæè ×ð´ ©UÂÜµÏ â×æÁ-¨¿ÌÙ ·¤è ©U“æ-SÌÚUèØ ÚU¿Ùæ¥ô´ ·¤ô ¥ÙéßæÎ ¥õÚU â`ÂæÎÙ ·ð¤ ÊæçÚUØð çã¢UÎè ×ð´ ÜæÙð ÂÚU ÍæÐ ÕæÎ ×𴠧⠷¤æØü·ý¤× Ùð ¥¢»ýðÊæè ·ð¤ âæÍ-âæÍ ÖæÚUÌèØ Öæáæ¥ô´ ×ð´ Öè ¥Ùéâ¢ÏæÙÂÚU·¤ â×æÁ-¨¿ÌÙ ¥õÚU ©Uâ·ð¤ âæÍ ÁéǸUè ãéU§ü ™ææÙ×è×æ¢â·¤ ¿éÙõçÌØô´ âð ÁéǸðU ÂýàÙô´ ÂÚU â×»ý M¤Â âð çß¿æÚU ·¤ÚUÙæ àæéM¤ ç·¤ØæÐ §âèçÜ° ¥¢»ýðÊæè âð ¥ÙéßæÎ ¥õÚU â`ÂæÎÙ ·¤è Âýç·ý¤Øæ¥ô´ ·¤ô Îè »Øè Âý×é¹Ìæ $·¤æØ× ÚU¹Ìð ãéU° ¥Õ ØãU ·¤æØü·ý¤× çã¢UÎè ×ð´ ¥Ùéâ¢ÏæÙÂÚU·¤ â×æÁ-ç¿¢ÌÙ ·ð¤ ×êÜ Üð¹Ù ·¤ô ÂýôˆâæãUÙ ÎðÙð ÂÚU ·ð´¤ç¼ýÌ ãñUÐ â×æÁ-çß™ææÙ ¥õÚU ×æÙçß·¤è ·¤è Âêßü-â×èçÿæÌ Âç˜æ·¤æ ÂýçÌ×æÙ â×Ø â×æÁ â¢S·ë¤çÌ ·¤æ Âý·¤æàæÙ §âè çÎàææ ×ð´ ©UÆUæØæ »Øæ °·¤ ¥ãU× $·¤Î× ãñU çÁâ·¤è ÂçÚU‡æçÌ ¥æ»ð ¿Ü ·¤ÚU ¥Ùéâ¢ÏæÙ ¥õÚU Üð¹Ù ·¤è °·¤ âƒæÙ ¥õÚU ÕãéU×é¹è ØôÁÙæ ×ð´ ãUô»èÐ ç$ȤÜãUæÜ ÂçÚUØôÁÙæ çã¢UÎè-Á»Ì Ì·¤ âèç×Ì ãñU, Üðç·¤Ù ÁËÎè ãè ¥‹Ø ÖæÚUÌèØ Öæáæ¥ô´ ×ð´ ÂãUÜ$·¤Îç×Øæ¡ ÜðÙð ·¤è ·¤ôçàæàæð´ ·¤è Áæ°¡»èÐ