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उपदंश

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उपदंश (Syphilis) एक प्रकार का गुह्य रोग है जो मुख्यतः लैंगिक संपर्क के द्वारा फैलता है। इसका कारक रोगाणु एक जीवाणु, 'ट्रीपोनीमा पैलिडम' है। इसके लक्षण अनेक हैं एंव बिना सही परीक्षा के इसका सही पता करना कठिन है। इसे सीरोलोजिकल परीक्षण द्वारा चिन्हित किया जाता है। इसका इलाज पेन्सिलिन नामक एण्टीबायोटिक से किया जाता है। यह सबसे प्राचीन और कारगर इलाज है। यदि बिना चिकित्सा के छोड़ दिया जाये तो यह रोग हृदय, मस्तिष्क, आंखों एंव हड्डियों को क्षति पहुंचा सकता है। [1]

इसकी उत्पत्ति के कारणों के मुख्य रूप से आघात, अशौच तथा प्रदुष्ट योनिवाली स्त्री के साथ संसर्ग बताया गया है। इस प्रकार यह एक औपसर्गिक व्याधि है जिसमें शिश्न पर ब्रण (sore) पाए जाते हैं। दोषभेद से इनके लक्षणों में भेद मिलता है। उचित चिकित्सा न करने पर संपूर्ण लिंग सड़-गलकर गिर सकता है और बिना शिश्न के अंडकोष रह जाते हैं।

आयर्वेद में उपदंश के पाँच भेद बताए गए हैं जिन्हें क्रमश:, वात, पित्त, कफ, त्रिदोष एवं रक्त की विकृति के कारण होना बताया गया है। वातज उपदंश में सूई चुभने या शस्त्रभेदन सरीखी पीड़ा होती है।[2] पैत्तिक उपदंश में शीघ्र ही पीला पूय पड़ जाता है और उसमें क्लेद, दाह एवं लालिमा रहती है। कफज उपदंश में खुजली होती है पर पीड़ा और पाक का सर्वथा अभाव रहता है। यह सफेद, घन तथा जलीय स्रावयुक्त होता है। त्रिदोषज में नाना प्रकार की व्यथा होती है और मिश्रित लक्षण मिलते हैं। रक्तज उपदंश में व्रण से रक्तस्राव बहुत अधिक होता रहता है और रोगी बहुत दुर्बल हो जाता है। इसमें पैत्तिक लक्षण भी मिलते हैं। इस प्रकार आयुर्वेद में उपदंश शिश्न की अनेक व्याधियों का समूह मालूम पड़ता है जिसमें सिफ़िलिस, सॉफ्ट शैंकर (soft chanchre) एवं शिश्न के कैंसर सभी सम्मिलित हैं।

एक विशेष प्रकार का उपदंश जो फिरंग देश में बहुत अधिक प्रचलित था और जब भारतवर्ष में वे लोग आए तो उनके संपर्क से यहाँ भी गंध के समान वह फैलने लगा तो उस समय के वैद्यों ने, जिनमें भाव मिश्र प्रधान हैं, उसका नाम 'फिरंग रोग' रखा दिया। इसे आगंतुज व्याधि बताया गया अर्थात् इसका कारण हेतु जीवाणु बाहर से प्रवेश करता है। निदान में कहा गया है कि फिरंग देश के मनुष्यों के संसर्ग से तथा विशेषकर फिरंग देश की स्त्रियों के साथ प्रसंग करने से यह रोग उत्पन्न होता है। यह दो प्रकार का होता है एक बाह्य एवं दूसरा अभ्यंतर। बाह्य में शिश्न पर और कालांतर में त्वचा पर विस्फोट होता है। अभ्यंतर में संधियों, अस्थियों तथा अन्य अवयवों में विकृति हो जाती है। जब यह बीमारी बढ़ जाती है तो दौर्बल्य, नासाभंग, अग्निमांद्य, अस्थिशोष एवं अस्थिवक्रता आदि लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। वस्तुत: फिरंग रोग उपदंश से भिन्न व्याधि नहीं है बल्कि उसी का एक भेद मात्र है। बहुत लोग इसे पर्याय भी मानने लगे हैं।

आधुनिक दृष्टि से शिश्न के व्रणों के दो मुख्य भेद हैं-हार्ड शैंकर (hard chanchre) एवं साफ़्ट शैंकर। इसमें प्रथम तो ट्रिपोनिमा पैलिडम (treponema pallidum) जीवाणु से तथा द्वितीय हिमोफ़िलसड्यूकी (haemothilusducreyi) के कारण होता है। इसमें पहले को फिरंग और दूसरे को उपदंश मान सकते हैं। सिफ़िलिस (syphlilis) तीन अवस्थाएँ होती हैं। प्रदुष्ट स्त्री के साथ संभोग करने पर दस दिन से दस सप्ताह के अंदर शिश्न पर एक छोटे बटन के आकार का कठिन, स्रावयुक्त, वेदनारहित शोथ हो जाता है जो बिना किसी चिकित्सा के भी शांत हो जाता है। तत्संबंधी लसिका ग्रंथियों में भी शोथ हो जाता है; परंतु उसमें भी पाक नहीं होता है। यह रोग की प्रथम अवस्था है। द्वितीय अवस्था उपसर्ग के तीन से छह माह बाद उत्पन्न होती है जिसमें दौर्बल्य, शिर:शूल तथा सामान्य खाँसी के साथ-साथ निम्नांकित चार प्रकार की विकृतियाँ होती हैं :

१. त्वचा विस्फोट-ताम्र वर्ण के विस्फोट पूरे शरीर में पाए जाते हैं जिनमें न वेदना होती है न कंडू।

२. ग्रंथि-नम स्थान में, विशेषकर गुदा के किनारे, एक ग्रंथि बन जाती है। यह भी लगभग वेदनारहित होती है।

३. श्लेष्मिक-कला-विस्फोट-यह विशेषकर मुख में पाया जाता है। इसमें लाल रंग के अनेक व्रण मुख की श्लेष्मिक कला में हो जाते हैं जो सफेद झिल्ली से ढके रहते हैं।

४. लसिका-ग्रंथि-शोथ-शरीर की सभी लसिका ग्रंथियों में शोथ हो जाता है।

इसमें चारों प्रकार की विकृतियों का होना आवश्यक नहीं है। कोई एक या एक से अधिक एक साथ पाई जा सकती है। कुछ मास पश्चात् इन विकृतियों का शमन हो जाता है और दो वर्ष से ३० वर्ष के पश्चात् उत्पन्न हो सकता है, जैसे त्वचा, अस्थि, संधि, जिह्वा, स्नायु। प्रभावित अवयव में ग्रैन्यूलेशन टिशू का एकत्रीकरण हो जाता है और गाँठें बन जाती हैं जिससे अवयव के कार्य में बाधा उत्पन्न हो जाती है। ये गाँठें भी वेदनारहित होती हैं।

यह रोग आनुवंशिक भी होता है। माता पिता में होने से इसके जीवाणु गर्भावस्था में ही गर्भ में प्रविष्ट हो जाते हैं और जन्मजात शिशु में तथा कालांतर में इस रोग के लक्षण उसके अंदर पाए जाते हैं। बच्चा उत्पन्न होते ही बहुत दुर्बल, शुष्क हो सकता है जो शीघ्र ही मर जाता है। जीवित रहने पर त्वचा पर तथा आल्यंतर अवयव में, दाँत, आँख तथा स्नायुओं में विकृति उत्पन्न होती है।

निदान एवं चिकित्सा

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इस रोग का निदान लक्षणों से तथा विभिन्न स्रावों से जीवाणु के प्रत्यक्षीकरण से, वासरमैन तथा कान विधि से रक्त की परीक्षा करके की जाती है।

इसकी चिकित्सा में पारद का सर्वप्रथम प्रयोग भारतवर्ष में हुआ, तदनंतर संखिया का प्रयोग सफल पाया गया। आजकल इसकी चिकित्सा पेनिसिलीन से की जाती है। इस औषधि के आविष्कार से इसके हृदय रोग पक्षबध तथा आनुवंशिक होना आदि भयंकर परिणाम आजकल कम मिलते हैं।[3]

इसमें प्रदुष्ट स्त्री से संसर्ग करने से, दो तीन दिन के अंदर लाल रक्तवर्ण का शोथ शिश्न पर हो जाता है। इसमें वेदना, पाक, पूयनिर्माण बहुतायत से होता है। व्रणों की संख्या बहुधा अनेक हो जाती है और वंक्षण प्रदेश (inguinal region) की लसिका ग्रंथियों में भी शोथ हो जाता है जिसमें पूय पड़ जाता है। इस प्रकार के लक्षण सिफ़िलिस से बिल्कुल विपरीत होते हैं। इसकी चिकित्सा टेट्रासाइक्लीन, स्ट्रेप्टोमाइसीन एवं क्लोरोफेनिकाल के द्वारा सफलतापूर्वक की जा सकती है।

2018 तक, रोकथाम के लिए कोई टीका प्रभावी नहीं है। ट्रेपोनेमल प्रोटीन पर आधारित कई टीके एक पशु मॉडल में घाव के विकास को कम करते हैं लेकिन शोध जारी है।[4]

कंडोम का उपयोग सेक्स के दौरान संचरण की संभावना को कम करता है, लेकिन जोखिम को पूरी तरह से समाप्त नहीं करता है। रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्र (सीडीसी) कहता है, "लेटेक्स कंडोम का सही और लगातार उपयोग सिफलिस के जोखिम को तभी कम कर सकता है जब संक्रमित क्षेत्र या संभावित जोखिम की साइट सुरक्षित हो। हालांकि, क्षेत्र के बाहर एक उपदंश घाव द्वारा कवर किया गया है एक लेटेक्स कंडोम अभी भी संचरण की अनुमति दे सकता है, इसलिए कंडोम का उपयोग करते समय भी सावधानी बरतनी चाहिए।"[5][6]

जन्मजात रोग

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नवजात शिशु में जन्मजात उपदंश को प्रारंभिक गर्भावस्था के दौरान माताओं की जांच करके और संक्रमित लोगों का इलाज करके रोका जा सकता है।[44] युनाइटेड स्टेट्स प्रिवेंटिव सर्विसेज टास्क फोर्स (USPSTF) सभी गर्भवती महिलाओं की सार्वभौमिक जांच की जोरदार सिफारिश करता है, [45] जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) सभी महिलाओं को उनकी पहली प्रसवपूर्व यात्रा और फिर तीसरी तिमाही में परीक्षण करने की सलाह देता है। [46] [47] यदि वे सकारात्मक हैं, तो यह अनुशंसा की जाती है कि उनके सहयोगियों का भी इलाज किया जाए। [46] विकासशील देशों में जन्मजात उपदंश अभी भी आम है, क्योंकि कई महिलाओं को प्रसव पूर्व देखभाल बिल्कुल नहीं मिलती है, और दूसरों को प्राप्त होने वाली प्रसवपूर्व देखभाल में स्क्रीनिंग शामिल नहीं होती है।[7]

  1. "संग्रहीत प्रति". मूल से 30 जुलाई 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 27 अगस्त 2018.
  2. "संग्रहीत प्रति". मूल से 10 सितंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 27 अगस्त 2018.
  3. https://archive.today/20120913180413/http://www.unboundmedicine.com/redbook/ub/view/RedBook/187389/all/Table_6_5__Infectious_Diseases_Designated_as_Notifiable_at_the_National_Level_United_States__2009_%5Ba%5D
  4. Cameron, Caroline E.; Lukehart, Sheila A. (2014-03-20). "Current Status of Syphilis Vaccine Development: Need, Challenges, Prospects". Vaccine. 32 (14): 1602–1609. PMID 24135571. आइ॰एस॰एस॰एन॰ 0264-410X. डीओआइ:10.1016/j.vaccine.2013.09.053. पी॰एम॰सी॰ 3951677.
  5. "STD Facts - Syphilis (Detailed)". www.cdc.gov (अंग्रेज़ी में). 2021-07-20. अभिगमन तिथि 2021-08-01.
  6. "Syphilis FAQs - Everything about this STDs". I Need Medic (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2021-08-01.
  7. Schmid, George (2004-6). "Economic and programmatic aspects of congenital syphilis prevention". Bulletin of the World Health Organization. 82 (6): 402–409. PMID 15356931. आइ॰एस॰एस॰एन॰ 0042-9686. पी॰एम॰सी॰ 2622861. |date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)