ललित
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]ललित ^२ सज्ञा पुं॰
१. श्रृंगार रस में एक कायिक हाव या अंगचेष्टा । विशेष—इसमें सुकुमारता (नजाकत) के साथ भौं, आँख, हाथ, पेर आदि अंग हिलाए जाते हैं । कहीं भूषण आदि से सजाने को लालत हाव कहा है ।
२. एक विधम वर्णवृत्त जिसक पहले चरण में सगण, जगण, सगण, लघु; दूसरं चरण म नगण, सगण, जगण, गुरु; तीसरे मे नगण, नगण, सगण, सगण; और चौय में सगण, जगण, सगण, जगण होता है । जैसे,—सब त्यागए असत काम । शरण गहिए सदी हरीं । भव जनित सकल दुःख टरी । भाजए अहोनिशि हरी, हरी, हरी ।
३. कुछ आचायों क मत से एक अलंकार जिसम वणर्य वस्तु (वात) के स्थान पर उसका प्रतिबिंब बर्णन किया जाता है । जैस,—कहना तो यह था कि 'राम को गद्दी मिलनी चाहिए थी, पर वनवास मिला ।' पर गोस्वामी तुलसीदास जी इसे इस प्रकार कहते हैं—(क) लिख त सुधाकर लिखि गा राहू । इसी प्रकार 'जिसे ब्रह्मा अच्छा बनाना चाहते थे, उसे बुरा बना दिया' इसके स्थान पर यह कहना—(ख) बिरचत हंस काक किय जेही ।
४. पाड़व जाति का एक राग जो भैरव राग का पुत्र माना जाता है और जिसमें निपाद स्वर नहीं लगता; तथा धैवत और गांधार के अतिरिक्त और सब स्वर कोमल लगते हैं । इसके गाने का समय रात्रि के तीस दंड़ बीत जाने पर अर्थात् प्रातःकाल है ।
५. नृत्य में हाथों की एक विशेष मुद्रा (को॰) ।
६. क्रीड़ा विनोद (को) ।
७. सौंदर्य । लावण्य । सुंदरता (को॰) ।
ललित कला संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ ललित+कला] वे कलाएँ या विद्दाएँ जिनके व्यक्त करने में किसी प्रकार के सौंदर्य को अपेक्षा हो । जैसे, संगीत, चित्रकला, वास्तुकला, मूर्तिकला इत्यादि । विशेष दे॰ 'कला' ।
ललित लुलित वि॰ [सं॰] कंपित, हतोत्साह या दुर्बल होने पर भी सुदर [को॰] ।